Monday, December 30, 2019

सरकार के लिए चुनौतियों का अम्बर रहेगा २०२०

बेशक मोदी सरकार पुराने डिज़ाइन से बाहर निकल गयी हो पर दावे और वादे का परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। नये साल के आगाज पर सरकार भी कई मामलों में संकल्पबद्ध हो रही होगी मगर बीते साल की चुनौतियां उसे कहीं न कहीं चपेट में लिए हुए है। मसलन नागरिकता संषोधन विधेयक, एनआरसी, एनपीआर समेत महंगाई, बढ़ती बेजरोजगारी और प्रदेषों में दल को मिल रही हार। सुस्त अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने में सरकार कई प्रयोगों के बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं कर पाई है। जाहिर है नये साल के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती रहेगी। महंगाई दर की राह में सबसे बड़ी बाधा है जाहिर है जब क्रय षक्ति घटती है तो खपत भी घटती है और इसका नकारात्मक असर जीडीपी पर पड़ता है। महंगाई को पटरी पर लाना और बीते 6 साल के मुकाबले निम्न स्तर पर पहुंच चुकी 4.5 फीसद जीडीपी को 7 या 8 फीसदी के इर्द-गिर्द लाना साल 2020 में सरकार के लिए पहली 2-3 चुनौतियों में एक रहेगी। गौरतलब है कि 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था के लिए 8 प्रतिषत जीडीपी की आवष्यकता है। सरकार ने अर्थव्यवस्था का जो भारी-भरकम स्वरूप बनाने का मन बनाया है मौजूदा जीडीपी को देखते हुए कह सकते हैं कि यह आसान राह नहीं है। अगर भारत को बदलाव की चुनौती का मुकाबला करना है तो केवल सामान्य विकास से काम नहीं चलेगा। इसके लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत पड़ेगी जिसकी पहली आवष्यकता जीडीपी में बढ़ोत्तरी ही है। साल 2024 तक 5 डाॅलर की अर्थव्यवस्था करने का इरादा कहीं कागजों तक न रह जाये इसके लिए कृशि, विनिर्माण, पूंजी, निवेष आदि को लेकर लम्बी छलांग लगानी होगी। गौरतलब है कि वर्तमान में जीडीपी खराब अवस्था में है जबकि बीते 5 जुलाई के बजट में लक्ष्य 7 फीसदी रखा गया था। 
बढ़ता राजकोशीय घाटा भी अब सरकार के बूते से बाहर है। हालांकि सरकार का इस मामले में कई वर्शों तक खराब प्रदर्षन नहीं रहा है पर स्थिति को देखते हए राजकोशीय घाटा भी लक्ष्मण रेखा लांघ रहा है। यह घाटा 3.3 फीसदी से अब आगे की ओर जा रहा है जो देष की अर्थव्यवस्था के लिए आगामी वर्श में बड़ी चुनौती रहेगा। अर्थव्यवस्था में सुस्ती की वजह से कर संग्रह घटा है और चालू वित्त वर्श में घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3.4 प्रतिषत तक रखने का लक्ष्य है। हालांकि आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह लक्ष्य भी किसी चुनौती से कम नहीं। गौरतलब है कि बढ़ता राजकोशीय घाटा अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करता है जिसके चलते ब्याज दरों के साथ महंगाई भी बढ़ती है। यही कारण है कि पिछली 5 समीक्षाओं में रिज़र्व बैंक ने 5 बार रेपो रेट में कमी करते हुए बीते फरवरी से अब तक 1.35 फीसद की कटौती कर चुका है। जिसके चलते बैंकों को ब्याज दर कम करने का दबाव बनाया। इतना ही नहीं अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कटौती की और भी सम्भावना है जो कहीं न कहीं इसका निचला स्तर होगा। जिस तर्ज पर आरबीआई ने रेपो दर को लगातार कम करता रहा उसे पुनः वापसी कराना भी नये साल में एक काम रहेगा। आरबीआई की यह चिंता रही है कि आर्थिक सुषासन को कैसे पटरी पर दौड़ाया जाय। इसी के चलते पह लगातार रेपो दर में कटौती करता रहा। सरकार ने भी सितम्बर में काॅरपोरेट टैक्स को 10 फीसदी घटा कर आर्थिक सुस्ती को तंदुरूस्ती देने की कोषिष की। साल 2020 में यह भी चुनौती रहेगी कि काॅरपोरेट टैक्स कैसे बढ़े और आरबीआई द्वारा जो कदम उठाये गये उसका लाभ सीधे जनता को कैसे मिले ताकि देष आर्थिक सुषासन की राह पर चल पाये। निजी निवेष को आकर्शित करना सरकार की चुनौती बनी रहेगी। वित्त वर्श 2015 में निजी निवेष की दर 30.1 फीसद थी जो 2019 में 28.9 प्रतिषत ही रही। आंकड़ों को तवज्जो दें तो निजी व सरकारी निवेष बीते 14 साल के न्यूनतम स्तर पर है जिसे बढ़ाना नये साल में एक नई चुनौती रहेगी।
अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने और रोजगार के मोर्चे पर खरे उतरने की चुनौती सरकार के लिए पुरानी बात है मगर यह पुरानी कहानी नये साल में पीछा नहीं छोड़ेगी। बीते समय में देष भर में छोटी कम्पनियां कुछ अधिक ही प्रभावित हुई हैं और बड़ी कम्पनियों में भी नौकरी के अवसर घटे हैं। इतना ही नहीं सरकारी नौकरियां भी समय के साथ सिमट रही हैं। श्रम-बल में बेरोज़गारी की दर बीते कई सालों से लगातार बढ़त लेता रहा और बेरोज़गारी दर 6.1 फीसद पर चली गयी जो 45 साल का उच्चत्तम स्तर था। आगामी वर्श में इस आरोप से मुक्त होने के लिए सरकार को एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। गौरतलब है कि साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम-बल वाला देष हो जायेगा और इसकी खपत के लिए बड़े नियोजन की दरकार होगी। अनुमान तो यह भी है कि साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। खाद्य कीमतों में तेजी के चलते मूल्य आधारित महंगाई बीते नवम्बर में बढ़कर 0.58 फीसद पर पहुंच गयी जो कि अक्टूबर में 0.16 थी। सब्जी और दाल समेत कई वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से खुदरा महंगाई दर 5.54 प्रतिषत पर चली गयी है। एक ओर उत्पादन स्तर का लगातार गिरना, रोजगार के स्तर का ऊपर न उठ पाना साथ ही महंगाई का बेकाबू होना आर्थिक समस्या को बढ़ा दिया है। साल 2020 इस चुनौती से दो-चार होगा। 
किसानों की आय दोगुनी करने का जो लक्ष्य सरकार ने तय किया है। समय हालांकि 2022 है पर इस चक्र में 2020 भी रहेगा। सर्वाधिक उत्पादकता वाले इस क्षेत्र पर देष की लगभग 58 प्रतिषत जनसंख्या निर्भर करती है। कृशि का आधुनिकीकरण नहीं होना और परम्परागत पद्धतियों में अब किसानों की आर्थिक अवस्था और व्यवस्था को उथल-पुथल कर दिया है। हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में हेरफेर कर सरकार राहत की बात करती है पर स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने की चुनौती पहले भी रही है और आगे भी रहेगी। मोदी सरकार अपनी दूसरी पारी में ताबड़तोड़ निर्णय लिये मसलन जम्मू-कष्मीर से 370 का खात्मा, अयोध्या विवाद का सर्वोच्च न्यायालय का समुचित हल निकलना देखा जा सकता है। हालांकि इसी दरमियान हरियाणा में सरकार का बहुमत से जीत न दर्ज करना और महाराश्ट्र में सियासी क्षितिज से जमीन पर आना ताजी सियासत का एक ऐसा नमूना था। जिसका नतीजा झारखण्ड की हार ने कद को कमजोर कर दिया। वर्श 2020 में जहां दिल्ली और बिहार का चुनावी भंवर भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है वहीं असम, गोवा, उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष, गुजरात समेत कई प्रान्त सरकार की साख को चुनौती देंगे। मोदी सरकार का सियासी नक्षा भारत से सत्ताधारी के तौर पर राज्यों में जिस तरह सिमट रहा है जाहिर है 2020 के चुनाव चुनौती रहेंगे। सुषासन की कक्षा में चक्कर लगाने वाली मोदी सरकार इसमें कोई दुविधा नहीं कि दर्जनों असुविधाओं से घिरी हुई है जिसके चलते जो जादू सर चढ़कर बोलता था अब बात वैसी नहीं दिखती। अर्थव्यवस्था पर विनिवेष की परत चढ़ाना, लोक विकास की कुंजी सुषासन को समतल न कर पाना, 5 ट्रिलियन डाॅलर वाली अर्थव्यवस्था को जो 8 फीसदी की जीडीपी चाहिए वहां कमतर रहना और तमाम प्रयासों के बावजूद उत्पादन, महंगाई और बेरोज़गारी के साथ कई मुद्दे पटल पर व्यवस्थित न हो पाना 2019 में चुनौती बनी रहेगी। जिसका अक्स 2020 में भी कायम रहेगा। इतना ही नहीं नागरिकता कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर देष में बन रहा माहौल को भी साल 2020 में अपने अनुरूप करना सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, December 24, 2019

नाकाफी रहा स्थिरता के साथ सुशासन

झारखण्ड अपने निर्माण काल से एक स्थिर सरकार की अवधारणा से वंचित रहा। पिछले 19 वर्शों में जितनी भी सरकारें आईं केवल भाजपा की तत्कालीन सरकार को छोड़कर सभी स्वयं में असुरक्षित रहीं। हालांकि इस सरकार को भी 81 विधानसभा सीट के मुकाबले 2014 में 37 पर ही जीत मिली थी जो अब सिमट कर 25 रह गयी है। पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मराण्डी से लेकर अब नये मुख्यमंत्री की तैयारी कर रहे हेमंत सोरेन तक इस सत्य को साझा करते हैं कि इन्होंने झारखण्ड में अस्थिर सरकार दिया। हालांकि अब वही हेमंत सोरेन गठबंधन से भरी पूर्ण बहुमत की सरकार का मुखिया होने जा रहे हैं। रघुबर दास से पहले नौ बार सत्ता परिवर्तन और तीन बार राश्ट्रपति षासन वाला झारखण्ड अपना कोई विकास माॅडल विकसित ही नहीं कर पाया। जब 2014 में स्थायी तौर पर भाजपा की सरकार आयी तो इसके बनने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा था। हार से यह प्रतीत होता है कि भाजपा की सत्ता हांक रहे रघुबर दास का विकास माॅडल विफल रहा। हालांकि इसके पीछे राज्यों में भाजपा की जादुई छवि का बेअसर होना भी देखा जा सकता है। जिस विजय रथ पर सवार होकर भाजपा भारत पर कब्जा जमा रही थी और मार्च 2018 तक तीन-चैथाई क्षेत्र पर उसका पताका लहरा रहा था आज वही एक तिहाई पर सिमट कर रह गयी और यह सिमटने का सिलसिला 2018 से तब षुरू हुआ जब कांग्रेस और जीडीएस गठबंधन ने कर्नाटक में सरकार बना ली। हालांकि अब उसी कर्नाटक में भाजपा की पूर्ण सत्ता है पर सिमटने की दस्तक वहां से षुरू हो चुकी है। मध्य प्रदेष, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से सत्ता पिछले साल इन्हीं दिनों गवांने वाली भाजपा इस साल महाराश्ट्र और झारखण्ड से विदा हो गयी। जबकि जैसे-तैसे हरियाणा को बचाने में कामयाब रही। 
सवाल है कि क्या झारखण्ड का कोई विकास माॅडल नहीं था यदि था तो लोगों को रास नहीं आया या फिर लोगों में सरकार विष्वास ही नहीं भर पायी। ऐसा लगता है कि राश्ट्रीय दलों की सरकारें राज्यों में व्यापक सोच के साथ तो होती हैं पर जनहित के जरूरी कदम उठाने में हांफ जाती हैं। 1989 की राजनीति में एक दौर ऐसा था जब क्षेत्रीय दलों का पर्दापण भारतीय राजनीति में तेजी से हुआ। हालांकि यह पूरी तरह तो नहीं पर स्थिति को देख कर कहा जा सकता है कि तीन दषक बाद 2019 के दौर में एक बार फिर क्षेत्रीय दल राज्य में स्थान घेर रहें हैं। महाराश्ट्र में षिवसेना, सरकार का भले ही निर्माण कैसे भी क्यों न हुआ हो और हरियाणा में जेजेपी के समर्थन से भाजपा की सत्ता में वापसी और अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का कांग्रेस व अन्य के साथ झारखण्ड में एक बार फिर अवतार लेना इस बात को पुख्ता करते हैं। आंकड़े यह दर्षाते हैं कि झारखण्ड कोई माॅडल राज्य बन ही नहीं पाया और बीजेपी भी ऐसा करने में नाकाम रही। साक्षरता का प्रतिषत 66.4 फीसदी जो केवल तीन राज्यों से ऊपर है और निर्धनता अपनी बसावट लिए हुए है। लिंग सम्बद्ध विकास सूचकांक में भी राश्ट्रीय स्तर पर बहुत आषातीत आंकड़े नहीं हैं। गौरतलब है कि झारखण्ड में जनजातियों की संख्या 28 फीसद है जो हर सरकार से संतुलित विकास की बाट जोहती रही। इस पर कितना काम हुआ भाजपा की हार इसे स्पश्ट कर देती है। स्थानीय मुद्दों को हल करने के बजाय वहां के भावनात्मक मुद्दों को छेड़ना बीजेपी के लिए गले की फांस बनी। जल, जंगल और जमीन के साथ छेड़छाड़ हार को और पुख्ता कर दिया। जाहिर है राज्यों की स्थानीय आवष्यकताओं पर पूरी तरह षोध और बोध किये बगैर यदि सियासी पैंतरे अजमाये जायेंगे तो हिस्से में हार ही आयेगी। यह पहले भी होता रहा है और अभी भी यह सियासत से लुप्त नहीं हुआ है।
भारत में समय-समय पर क्षेत्रीय दलों की सत्ता उभरती रही है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था अभी भी कहीं गयी नहीं है। अब तो ऐसा हो गया है कि सियासत में कमजोर पड़ चुके राश्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के सहारे अपनी राजनीतिक पारी आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रस और भाजपा दोनों इसमें षामिल है मसलन हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है। यही स्थिति झारखण्ड से लेकर महाराश्ट्र तक कांग्रेस की देखी जा सकती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि क्षेत्रीय दल स्थानीय समस्याओं से तुलनात्मक अधिक संलग्न होते हैं। न केवल अच्छी समझ रखते हैं बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए लोगों की सुविधा को जमीन देने का पूरा इरादा जताते हैं। दक्षिण भारत में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना वर्तमान में इसके बेहतर उदाहरण हैं। जहां स्थानीय दल सत्ता चला रहे हैं। हर समय कोई भी पार्टी इतनी सक्षम नहीं है कि हर जगह जीत दर्ज करे। भाजपा हो या कांग्रेस यह दोनों पर लागू है। चुनाव जीतने के लिए समस्याओं की सही समझ और जनता के रूख को भांपना आवष्यक है। हर बार चुनावी रूख एक ही तरफ नहीं होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित षाह से लेकर स्मृति ईरानी जैसे दर्जनों दिग्गज ने झारखण्ड में तूफानी दौरे किये। आदिवासी मतदाताओं को अपने एजेण्डे बताये उनका मन जीतने के लिए हथकण्डे अपनाये मगर सब बेकार सिद्ध हुआ। 81 विधानसभा क्षेत्र के मुकाबले 54 में बीते लोकसभा चुनाव में बढ़त बनाने वाली भाजपा की हार क्यों हुई, यह उनके चिंतकों का विशय है। अमत्र्यसेन की पुस्तक एन अनसर्टेन ग्लोरी में लिखा है कि हिमाचल का अपना विकास माॅडल है, उत्तराखण्ड भी विकास माॅडल के साथ प्रयास कर रहा है लेकिन झारखण्ड भ्रश्टाचार, गुटबंदी और संसाधनों की लूट, माओवादियों के साथ राजनीतिक लड़ाई के चलते कई आंतरिक कलह से जूझ रहा है यह बात बरसों पुरानी है। क्या 5 बरस बाद रघबर सरकार ने झारखण्ड को विकास माॅडल दिया, संसाधनों की लूट को समाप्त किया और वहां के निवासियों में विकास भरा। जाहिर है यदि ऐसा हुआ होता तो सत्ता उनके हाथ होती। 
सुषासन गढ़ने हेतु प्रान्तों को विकास माॅडल देना ही होगा और यह जमीन पर तब उतरेगा जब भाशा, संस्कृति, धर्म और जाति आदि का संज्ञान होगा। वैसे देखा जाय तो क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म भी इसी आधार पर हुआ है। यह मान्यता रही है कि ऐसी पार्टियां उद्देष्य में बहुत सीमित रहती हैं बावजूद इसके केन्द्र में इनकी भूमिका भी बड़े पैमाने पर समय-समय पर देखी गयी है। भारत की राजनीति के क्षितिज में गठबंधन की सरकार क्षेत्रीय दलों की सरकार और एक दल की सरकार की अवधारणा बीते सात दषकों से देखी जा सकती है। ऐसे में झारखण्ड में भाजपा की हार कोई चैकाने वाली बात नहीं है। मगर उन सवालों के जवाब तो खोजने ही पड़ेंगे जिसे लेकर बीते पांच वर्शों में भाजपा ने देष में अपनी कूबत बढ़ाई और अब गिर क्यों रही है। क्या भाजपा को अति आत्मविष्वास डूबो रहा है। क्या वहां की क्षेत्रीय दलों से गठबंधन न करना भारी पड़ रहा है या फिर रघुबर दास जैसे गैरआदिवासी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कोई गलती की है। पार्टी में टूट हुई और नेता बेअसर रहे या फिर जीतने वाले गठबंधन को हल्के में लिया। वजह कुछ भी हो भाजपा के हाथ से एक और प्रान्त जा चुका है। अब लकीर पर लट्ठ पीटने से कुछ नहीं होगा। सवाल तो यह भी है कि अनुच्छेद 370 का जम्मू-कष्मीर से खात्मा, भले ही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला हो पर मन्दिर के पक्ष में निर्णय का होना कुछ भी यहां भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। इसमें यह भी संकेत है कि राश्ट्रीय मुद्दे राज्यों में नहीं चलते।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Thursday, December 19, 2019

उत्पादन, महंगाई, बेरोज़गारी और बेहाल जीडीपी

यदि ये कहें कि देष मौजूदा समय में कई झंझवातों से जूझ रहा है तो अतार्किक न होगा। औद्योगिक उत्पादन का लगातार गिरना, बेरोजगारी का लगातार गहरा होना और औंधे मुंह गिरी जीडीपी समेत महंगाई बेमिसाल भारत की कुछ और कहानी बयां कर रही है। सरकार कौन सा बदलाव लाना चाहती है, यह समझना भी आज कईयों के लिए टेड़ी खीर बनी हुई है। एक ओर आर्थिक सुस्ती और मंदी से देष चरमरा रहा है तो दूसरी ओर नागरिकता संषोधन अधिनियम और एनआरसी को लेकर देष में असंतोश व्याप्त है। सुषासन की परिकल्पना वाली मोदी सरकार मौजूदा समय में कई चुनौतियों से घिरी है। आर्थिक मंदी का देष में व्याप्त होना कई कारणों से माना जा रहा है मगर अभी तक सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया है। बीते 12 दिसम्बर को राश्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार बीते अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन लगातार तीसरे महीने सुस्ती का दर लिये रहा और यह घटकर 3.8 फीसद हो गया है जबकि अक्टूबर 2018 में औद्योगिक उत्पादन 8.4 फीसद बढ़ा था। पड़ताल बताती है कि विनिर्माण 2.1 फीसद, बिजली 12.2 फीसद, खनन 8 फीसद और पूंजीगत समान में सुस्ती करीब 22 फीसदी देखी जा सकती है। इसके अलावा प्राथमिक वस्तुएं और उपभोक्ता सामान में भी गिरावट व्यापकता लिए हुए है। जीडीपी के लिहाज़ से ये आंकड़े खासे अहमियत रखते हैं जबकि रोज़गार की दृश्टि से यह सहज आंकलन किया जा सकता है कि बेरोज़गारी देष में क्यों बढ़ी हुई है। इस साल की जुलाई-सितम्बर तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर 6 साल के निचले स्तर पर पहुंच गयी थी जबकि इससे पहले औद्योगिक उत्पादन (आईआईपी) में इसी साल पहले 4.3 फीसद और अगस्त में 1.4 प्रतिषत की गिरावट दर्ज की गयी थी। 
अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने और रोजगार के मोर्चे पर खरे उतरने की चुनौती सरकार के लिए कोई नई नहीं है परन्तु इससे निपटने के लिए नित नई रणनीति की आवष्यकता महसूस हो रही है। साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम-बल वाला देष हो जायेगा और इनकी खपत के लिए बड़े नियोजन की दरकार होगी। अनुमान तो यह भी है कि साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। दुविधा यह है कि एक ओर मानव श्रम बढ़ रहा है साथ ही आगामी दो सालों में 11 करोड़ मानव संसाधन की आवष्यकता भी पड़ेगी, दूसरी तरफ बेरोज़गारी स्तर 45 साल के रिकाॅर्ड को तोड़ते हुए धूल चाट रही है। सरकार रोज़गार बढ़ा रही है तो यह उत्पादन और जीडीपी में झलकना चाहिए। सम्भव है कि आंकड़े इसके विरूद्ध हैं। राश्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़े के मुताबिक विनिर्माण के 18 समूहों में गिरावट तेजी से जारी है। जाहिर है यदि विनिर्माण क्षेत्र इतना तेजी से ध्वस्त होगा तो बेरोज़गारी समेत जीडीपी तेजी से कमजोर होगी। आॅटो सेक्टर में भी गिरावट दर्ज हुई है और कई कम्पनियां हजारों की तादाद में लोगों को नौकरी से बाहर किया है। स्थिति को देखते हुए कह सकते हैं कि उम्मीदें, वादे और मार्केट सभी हवा हो गये हैं। सरकार से जो उम्मीद थी कम-से-कम आर्थिक मामले में वह पूरी होते दिखाई नहीं दे रही। गौर करने वाली बात यह है कि आरबीआई गर्वनर ने साफ किया है कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के लिए पूरी तरह से वैष्विक कारण जिम्मेदार नहीं है। जबकि इस बात को लेकर खूब बयानबाजी होती है कि इसका कारण वैष्विक है और इसकी आड़ में सरकार अपने को बचाती रही है। आर्थिक सुस्ती दूर करने को लेकर आरबीआई फरवरी से अब तक 1.35 प्रतिषत रेपो दर घटा चुका है जो 2010 की तुलना में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है और आर्थिक सुस्ती से देष को निकालने के लिए रेपो दर में एक गिरावट हो सकती है। 
खाद्य कीमतों में तेजी के चलते थोक मूल्य आधारित महंगाई नवम्बर में बढ़कर 0.58 फीसद पर पहुंच गयी जो कि अक्टूबर में 0.16 थी। गौरतलब है कि मासिक थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई पिछले साल नवम्बर में 4.47 फीसद पर थी। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की बीते 16 दिसम्बर को जारी रिपोर्ट के अनुसार महंगाई अक्टूबर के 9.80 फीसद से बढ़कर नवम्बर में 11 प्रतिषत हो गयी। गैर खाद्य वस्तुओं की महंगाई में थोड़ी कमी देखी जा सकती है। सब्जी और दाल समेत कई वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से नवम्बर में खुदरा महंगाई दर 5.54 प्रतिषत पर चली गयी है। एक ओर उत्पादन स्तर का लगातार गिरना, रोजगार का स्तर का ऊपर न उठ पाना साथ ही महंगाई का बेकाबू होना कई आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया है। जीडीपी का 4.5 फीसद पर होना इस बात का संकेत है कि आर्थिक दिषा और दषा एक ऐसे चैराहे पर है जहां से कोई रास्ता सुझाई नहीं दे रहा है। इतना ही नहीं लाभ वाली सरकारी कम्पनियों को विनिवेष के लिए खोला जाना इसी आर्थिक कठिनाई का एक और उदाहरण है। गौरतलब है कि सरकार आगामी मार्च तक कम्पनियों के विनिवेष से एक लाख पांच हजार करोड़ के अतिरिक्त धन जुटाना चाहती है। माथे पर बल इस बात को लेकर भी पड़ता है कि जीएसटी से 13 लाख करोड़ रूपए एक साल में संग्रहित करने का जज्बे वाली सरकार यहां भी विफल क्यों दिखाई देती है। सरकार को यह पूरी तरह समझ लेना चाहिए कि प्रत्यक्ष कर हो या अप्रत्यक्ष बगैर रोज़गार और विनिर्माण को मजबूत किये लक्ष्य तक पहुंचना कठिन रहेगा। सबसे बड़ी बेरोज़गारी की फौज कृशि क्षेत्र में है। 2011-12 में कृशि से 23 करोड़ लोग जुड़े थे जो 2017-18 में 20 करोड़ की संख्या रह गयी। खेती-किसानी में सबसे ज्यादा बेरोजगारी पैदा हुई है, बाकी सेक्टर का हाल भी बहुत बुरा है। वहां भी नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं और दूसरी जगह नौकरी भी नहीं मिल रही है। हालांकि कुछ सेक्टर में नौकरियों की संख्या बढ़ी भी है जिसमें सर्विस सेक्टर सबसे आगे है। यहां 12.7 करोड़ से 14.4 करोड़ नौकरी करने वाले देखे जा सकते हैं।
सुषासन की कक्षा में चक्कर लगाने वाली सरकार मंदी और सुस्ती के ग्रह पर कैसे पहुंच गयी उसे भी षायद नहीं पता। जिस तरह मंदी और गहराने का संकेत दे रही है उससे भविश्य और खतरे में जा सकता है। इसके अलावा आर्थिक अपराध की समस्याएं भी कठिनाई पैदा किये हुए हैं। देष के बड़े षहर जहां आर्थिक अपराध दर्ज किये जाते हैं उसमें जयपुर का नाम सबसे ऊपर है। सरकारी बैंकों के लिए मुद्रा लोन भी अब नई मुसीबत खड़ी कर रहा है। बैंकों का महाविलय एक और आर्थिक कदम के रूप में देखा जा रहा है। दो टूक यह है कि जाॅब क्रिएषन के बगैर नेषन सेल्यूषन को प्राप्त करना कभी सम्भव नहीं होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि सुस्त अर्थव्यवस्था से बाहर निकलने के लिए पिछले 4 दषक की तुलना में सबसे खराब अवस्था में पहुंच चुकी बेरोजगारी पर ध्यान दें। डाॅलर के मुकाबले गिरते रूपए को रोकें, महंगाई बेकाबू न होने दें और सबसे खास यह कि विनिर्माण क्षेत्र को हर सूरत में कमजोर न होने दें इनके चलते जीडीपी भी संतोशजनक होगी यदि यही बार-बार हुआ तो 2024 में 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का सपना भी पूरा होगा। वैसे जब प्रष्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक विकास और उत्थान के लिए इस पहलू को सषक्त करना ही होता है। समावेषी अर्थव्यवस्था के लक्षण में बड़ी चुनौती किसानों की ओर से है और बेरोज़गारी की कतार को कम करने की है। जब हम समावेषी विकास की अवधारणा पर बल देते हैं तब उछाल भरी अर्थव्यवस्था का पूरा षरीर सामने होता है और सभी समस्याओं का समाधान भी। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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संविधान से परे नहीं नागरिकता विधेयक

जाहिर है लोकसभा और राज्यसभा से पारित हो चुका नागरिकता (संषोधन) विधेयक-2019 राश्ट्रपति की मोहर लगते ही अधिनियम का रूप ले लेगा। जिसके चलते पाकिस्तान, बांग्लादेष और अफगानिस्तान से आये हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता मिलना सुलभ हो जायेगा। हांलाकि नागरिकता उन्हें ही मिलेगी जो 31 दिसम्बर, 2014 से पहले भारत आये हैं। स्पश्ट कर दें कि इस विधेयक को लेकर विपक्ष के अलावा जनमानस की भी राय बंटी हुई है। जिसका प्रमुख कारण मुस्लिम को इससे अलग रखना है। विधेयक की खासियत यह है कि पहले नागरिकता हासिल करने के लिए भारत में रहने की अवधि 11 वर्श थी अब इसे 5 साल कर दिया गया है। गौरतलब है कि नागरिकता अधिनियम 1955 के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती। इसमें उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है जो बरसों पहले बिना वीजा, पासपोर्ट के भारत की सीमा में घुस आये हैं। ऐसे में इन्हें या तो जेल हो सकती है या देष वापस भेजा जा सकता है। लेकिन 2019 के संषोधन विधेयक में जो बदलाव हुआ है उसमें मुस्लिम को छोड़कर षेश को छूट दे दी गयी है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भारत में वैध दस्तावेज के बगैर भी गैर मुस्लिम षरणार्थी पाये जाते हैं तो उन्हें न तो जेल भेजा जायेगा न ही निर्वासित किया जायेगा बल्कि उन्हें नागरिकता से पुरस्कृत किया जायेगा। इस मसले को लेकर विपक्ष का यह आरोप है कि मुसलमानों को निषाना बनाया जा रहा है। 
सवाल यह है कि क्या नागरिकता विधेयक मुसलमानों से भेदभाव कर रहा है। भारतीय संविधान की उद्देषिका में साल 1976 में हुए 42वें संषोधन में पंथनिरपेक्ष षब्द जोड़ा गया था। हालांकि इस षब्द के बगैर भी भारत धर्म के सापेक्ष कभी नहीं रहा। पूरे संविधान को खंगाले तो यह स्पश्ट है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देष है। जब संविधानविदों ने अनुच्छेद 19(1)(क) के अन्तर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस बात को लेकर चर्चा की, कि यदि आने वाले समय में इस स्वतंत्रता का लाभ लेकर कोई धार्मिक प्रचार-प्रसार आदि को महत्व देता है, तब ऐसी स्थिति में क्या होगा। उन दिनों दृश्टिकोण यह उभरकर आया कि धर्म लोगों का निजी मामला है और इसे उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकार के भीतर अनुच्छेद 15 में यह स्पश्ट है कि धर्म, मूलवंष, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिशेध है और यह केवल भारतीय नागरिकों पर लागू है। जबकि अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण की बात कहता है और यह नागरिकों के साथ गैरनागरिकों को भी मिला है। अब मसला यह है कि क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेष से आये मुसलमानों को यदि इस विधेयक में स्थान नहीं दिया गया तो संविधान की भावना को ठेस पहुंची है। उक्त देषों के मुस्लिम विषेश को नागरिकता देना या न देना अनुच्छेद 14 का मामला न होकर संविधान के भाग 2 में निहित अनुच्छेद 11 के अन्तर्गत निर्मित नागरिकता अधिनियम 1955 का मामला है जो केवल नागरिकता को निर्धारित करता है न कि भेदभाव को। अब तक इस अधिनियम में इसके पहले 5 बार संषोधन हो चुके हैं। जाहिर है 2019 का यह संषोधन उसी का एक चरण है। नागरिकता प्राप्त किसी भी धर्म के व्यक्ति के साथ यदि भेदभाव होता तब संविधान का उल्लंघन है और भारत के भीतर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव होता है तब संविधान का उल्लंघन है इसमें घुसपैठी अपवाद हैं। गम्भीर दृश्टि से देखा जाय तो विधेयक संविधान का कोई उल्लंघन करता नहीं दिखाई देता। हालांकि संविधान संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय का इस पर न्याय निर्णय क्या होगा यह बाद में पता चलेगा।
दो टूक यह भी है कि हिन्दू समेत अन्य धर्मों को विधेयक में स्थान देना धर्मनिरपेक्षता का ही परिचायक है। रही बात मुसलमानों को षामिल नहीं करने की तो इसकी वजह षोशण से जोड़कर देखा गया है। चूंकि तीनों देष इस्लामिक हैं ऐसे में षोशण और प्रताड़ना मुसलमानों का नहीं अल्पसंख्यकों का हुआ है। ऐसे में विधेयक से उन्हें अलग करना किसी प्रकार का पक्षपात नहीं दिखाई देता। यह बात और पुख्ता तरीके से इसलिए कही जा सकती है क्योंकि भारतीय मुसलमान नागरिकों को यह विधेयक कोई चोट नहीं पहुंचाता है। इस विधेयक पर बहस का तेज होना स्वाभाविक है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि देष में नागरिक कौन है और कौन नहीं इसका पता होना चाहिए। सरकार की ओर से यह दलील पूरी तरह रही है कि यह नागरिकता देने का कानून है न कि छीनने का ऐसे में संविधान को तनिक मात्र भी इससे नुकसान नहीं होता है। बावजूद इसके पूर्वोत्तर भारत में आंदोलन चल रहा है क्योंकि उन्हें डर है कि एनआरसी के चलते 13 लाख हिन्दूओं को भारत की नागरिकता मिलेगी जो उनके रोजी, रोजगार से लेकर संस्कृति तक पर खतरा होंगे। हालांकि असम के कुछ क्षेत्र समेत इनरलाइन परमिट वाले राज्य इस विधेयक से अछूते रहेंगे। एक ओर विधेयक के विरोध में आंदोलन तो दूसरी ओर न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया जा रहा है। देखा जाय तो यह काल और परिस्थिति के बदलावस्वरूप लिया गया एक फैसला है जिसके चलते सरकार उन्हें नागरिक बनाने का प्रयास कर रही है जो उक्त देषों के गैरमुस्लिम है और आजादी से पहले वे भी भारत के हिस्से थे। इस कानून से इस बात की भी तस्तीक होती है कि 1947 का षेश 2019 में पूरा किया जा रहा है। 
बावजूद इसके बड़ा सवाल यह है कि हिन्दूओं को तो नागरिकता मिल जायेगी पर असम के भीतर जो 6 लाख मुस्लिम हैं उनका क्या होगा। ऐसे सवाल पर एक कार्यक्रम में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि भारत मानवता वाला देष है इसका पूरा ख्याल रखा जायेगा। प्रष्न यह भी है कि जब नागरिकता विधेयक से लेकर एनआरसी तक की पहल से विपक्ष सहित कुछ वर्गों में भी असंतोश है तो आखिर सरकार जन साधारण के खिलाफ क्यों जाना चाहती है। पूर्वोत्तर के व्यापक विरोध प्रदर्षन के बावजूद नागरिकता संषोधन विधेयक को लेकर सरकार इतनी संजीदा क्यों रही। इसके लिए यहां भाजपा को मिली चुनावी सफलता को भी एक कारण  माना जा सकता है। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर की 25 संसदीय सीटों में सहयोगियों सहित बीजेपी ने 18 पर जीत दर्ज की। दरअसल इसे लेकर सरकार के आगे बढ़ने के पीछे एक वजह यह भी है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पष्चिम बंगाल की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी ने बांग्लादेषी घुसपैठियों से बोरिया-बिस्तर बांधने को कहा था। मोदी के पष्चिम बंगाल के चुनावी भाशण का असर 2016 के विधानसभा चुनाव पर दिखायी देता है। जिसका नतीजा 5 विधायक वाली बीजेपी 126 सीटों के मुकाबले 61 पर कामयाब हो गयी और पहली बार सत्ता में भी आ गयी। मगर रोचक यह है कि नागरिक संषोधन विधेयक का असम के भीतर विरोध कर रहे संगठन नरेन्द्र मोदी गो बैक के नारे लगा रहे हैं। भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों को इससे मुक्त रखा गया है जबकि छठी अनुसूची के असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के कुछ क्षेत्र इसमें षामिल हैं। हालांकि इस नागरिकता के चलते भारत की आबादी पर भी प्रभाव पड़ेगा। तीन पड़ोसी देषों से करीब 32 हजार करोड़ लोग भारत में लम्बी वीजा अवधि पर रह रहें हैं जिन्हें तुरन्त फायदा होगा इसमें 25 हजार हिन्दू, 58 सौ सिक्ख, 55 ईसाई, दो बौद्ध, दो पारसी षामिल है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक के कुछ समाचारपत्र भारत की पंथनिरपेक्षता पर सवाल उठा रहे हैं जिसे बेबुनियाद करार दिया जाना चाहिए।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चढ़ाव के साथ चिंता वाला सूचकांक

बीते 9 दिसम्बर को संयुक्त राश्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट का खुलासा हुआ। जिसके  अनुसार भारत मानव विकास सूचकांक में एक पायदान ऊपर चढ़ गया है। गौरतलब है कि साल 2018 में भारत 130वंे स्थान पर था और अब 129वें नम्बर पर है। रिपोर्ट यह भी स्पश्ट कर रहा है कि भारत में 2005-06 से 2015-16 के दषक में 27 करोड़ लोगो को गरीबी रेखा से बाहर निकाला गया, जो सुखद महसूस कराता है। इतना ही नहीं गरीबी घटने के साथ-साथ जीवन, षिक्षा व स्वास्थ्य का स्तर भी सुधरे होने की बात भी देखी जा सकती है। प्रधानमंत्री जनधन योजना और आयुश्मान भारत जैसे योजनाओं को इस रिपोर्ट में सराहना की गई है। बावजूद इसके रिपोर्ट में चिन्ता की बात यह है कि, देष की 130 करोड़ आबादी में से 28 फीसदी नागरिक अब भी गहन गरीबी में है। देष के बड़े और मध्यम स्तर के प्रबन्धन में केवल 13 फीसदी ही महिलाएं है। रिपोर्ट की माने तो भारतीय महिलाएं सालाना 2,625 डाॅलर कमा रही है जबकि पुरूश की औसतन आय लगभग 11 हजार डाॅलर है। फिलहाल नार्वे, स्विट्जरलैंड और आॅस्ट्रेलिया मानव विकास के मामले में क्रमिक तौर पर सर्वाधिक ऊंचाई लिए हुए है। पड़ोसी पाकिस्तान 147वें स्थान में है हालाॅकि यह 2018 की तुलना में 3 पायदान ऊपर है। जबकि 2 पायदान की छालंग लगाते हुए बांग्लादेष 134वें पर है। जाहिर है पाकिस्तान और बांग्लादेष भारत से मानव विकास सूचकांक में पीछे है मगर पिछले साल की तुलना में औसतन इनकी बढ़त बेहतर कही जायेगी। आकडे़ यह भी दर्षाते है कि, 1990 से 2018 के बीच जीवन औसतन 11.6 वर्श बढ़ा और प्रति व्यक्ति आय 250 फीसद की बढ़त लिये हुए है। हालाॅंकि की आय की असमानता यहाॅं बेसुमार खाई अभी भी बनाये हुए है, गरीब और अमीर की आय में व्यापक फर्क देखा जा सकता है। अमीरों की आय 213 प्रतिषत की वृद्वि दर लिए हुए है जबकि गरीबों यही दर 58 प्रतिषत है। हालिया रिपोर्ट मानव विकास सूचकांक के मामले में एक स्थान का सुधार दिखा रहा है जो ज्यादा राहत की बात नहीं है। बल्कि यह इषारा भी है कि मानव विकास को लेकर भारत को और सजग होने की आवष्यकता है।  
  असल में ग्लोबल डवलेपमेंट के लिए बुनियादी विकास, मानवीय विकास और विकास के अन्य मोर्चों पर देष को सबल प्रमाण देना ही होता है, जिसे ध्यान में रखकर मानव विकास सूचकांक की अवधारणा गढ़ी जाती है। इसी साल अक्टूबर में जारी ग्लोबल हंगर इनडेक्स से भी यह खुलासा किया था कि भारत की स्थिति इस मामले में भी बहुत अच्छी नहीं है। वल्र्ड बैंक भारत की गरीबी घटाने के मामले में एक ओर जहां सराहना कर रहा है। वहीं इसे आर्थिक विकास का कारक भी बता रहा है। वैसे इन दिनों देष की आर्थिक विकास दर कहीं अधिक असंतोशजनक स्थिति लिए हुए है। हाल यह है कि 8 फीसदी जीडीपी की चाह वाला भारत इन दिनों 4.5 प्रतिषत पर झूल रहा है। मगर यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि 2020 में विकास दर 7 फीसदी रहेगा जो सुखद है पर होगा कैसे पता नहीं। भले ही मानव विकास सूचकांक में एक पायदान की छलांग हो पर  ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट में भुखमरी और कुपोशण के मामले में भारत का अपने पड़ोसी देष बांग्लादेष, पाकिस्तान व नेपाल से भी पीछे रहना बेहद षर्मनाक और निराष करने वाला है। गौरतलब है कि, ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 में भारत 117 देषों में 102वें स्थान पर है जबकि बेला रूस, यूक्रेन, तुर्की, क्यूबा और कुवैत सहित 17 देषों ने 5 से कम जीएचआई स्कोर के साथ षीर्श रैंक हासिल की है। साल 2018 में भारत 119 देषों में 103वें स्थान पर था और साल 2000 में 113 देषों के मुकाबले यही स्थान 83वां था। असल में भारत का जीएचआई स्कोर कम हुआ है। जहां 2005 और 2010 में 38.9 और 32 था वहीं 2010 से 2019 के बीच यह 30.3 हो गया जिसके चलते यह गिरावट दर्ज की गयी है। ग्लोबल हंगर इंडैक्स की पूरी पड़ताल यह बताती है कि भुखमरी दूर करने के मामले में मौजूदा मोदी सरकार मनमोहन सरकार से मीलों पीछे चल रही है। 2014 में भारत की रैंकिंग 55 पर हुआ करती थी जबकि साल 2015 में 80, 2016 में 97 और 2017 में यह खिसक कर 100वें स्थान पर चला गया तथा 2018 में यही रैंकिंग 103वें स्थान पर रही। जीएचआई स्कोर की कमी के चलते यह फिसल कर 102वें पर है जो इसकी एषियाई देषों में सबसे खराब और पाकिस्तान से पहली बार पीछे होने की बड़ी वजह है। मानव विकास के मोर्चे पर भारत की विफलता का यह मामला तब सबके सामने है जब दुनिया भर में भूख और गरीबी मिटाने का मौलिक तरीका क्या हो उसे बताने वाले भारतीय अर्थषास्त्री अभिजीत बनर्जी को अर्थषास्त्र का नोबल दिया गया है। 
इसमें कोई दुविधा नहीं कि मानव विकास सूचकांक का भूख और गरीबी से गहरा नाता है। अभी भी देष में 28 फीसदी गहन गरीबी की बात की जा रही है जो इस बात का आईना है कि षिक्षा, चिकित्सा से लेकर भूख की लडाई यहाॅं भी व्यापक पैमाने पर षेश है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्कोर 30.3 पर होना यह साफ करता है कि यहां भूख का गंभीर संकट है। 73वें पायदान पर खड़ा नेपाल भारत और बांग्लादेष से बेहतर स्थिति लिए हुए है। नेपाल की खासियत यह भी है कि साल 2000 के बाद वह अपने बच्चों की भूख मिटाने के मामले में तरक्की किया है। इतना ही नहीं अफ्रीकी महाद्वीप के देष इथियोपिया तथा रवाण्डा जैसे देष भी इस मामले से में बेहतर कर रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी साफ है कि भारत में 6 से 23 महीने के सिर्फ 9.6 फीसदी बच्चों को ही न्यूनतम स्वीकृत भोजन हो पाता है। इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि रिपोर्ट का यह हिस्सा भय से भर देता है। केन्द्रीय स्वास्थ मंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट में यह आंकड़ा और भी कमजोर मात्र 6.4 बताया गया है। दुविधा यह बढ़ जाती है कि दुनिया में 7वीं अर्थव्यवस्था वाला भारत भुखमरी के मामले में जर्जर आंकड़े रखे हुए है और मानव विकास सूचकांक में भी तीव्र बढ़त नहीं बढा पा रहा है। आर्थिक महाषक्ति और 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देष भारत के लिए उपरोक्त आंकडे़ अषोभनीय प्रतीत होते है। 
हालांकि भारत में मृत्यु दर, कम वजन और अल्प पोशण जैसे संकेतकों में सुधार दिखता है। स्वच्छ भारत मिषन और षौचालयों के निर्माण के बाद भी खुले में षौच जाना अभी भी जारी है जो लोगों के स्वास्थ को खतरे में डालती है। सवाल है कि जब विष्व बैंक भारत को गरीबी के मामले में तुलनात्मक उठा हुआ और यूएनडीपी मानव विकास सूचकांक में एक पायदान आगे मानता है तो फिर भुखमरी और गरीबी का इतना मकडजाल यहाॅं क्यों है? अब समझने वाली बात यह है कि रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसे जरूरी आवष्यकताएं गरीबी से जूझने वालों को कब तक पूरी करा दी जायेंगी। मानव विकास सूचकांक को ऊंचाई लेने में आखिर रूकावट कहां है। जाहिर है जहाॅ कमजोरी है वहीं मजबूती से प्रहार की आवष्यकता है। एक ओर दिसम्बर माह में मानव विकास सूचकांक ऊंचाई का संकेत दे रहा है तो दूसरी ओर इसी वर्श अक्टूबर में जारी हंगर इंडेक्स के आंकड़े फिसड्डी साबित कर रहे हैं। जब तक वैकल्पिक रास्ता नहीं अपनाया जायेगा मसलन षिक्षा, स्वास्थ और रोज़गार पर पूरा बल नहीं दिखाया जायेगा तब तक गरीबी के आंकड़े समेत मानव विकास सूचकांक की स्थिति संतोशजनक कर पाना कठिन रहेगा। सवाल यह भी कि सरकार क्या करे, सारी कूबत झोंकने के बाद भी संतोशजनक नतीजे नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि खराब भारतीय इकोनाॅमी को सुधारने के लिए सरकार को आर्थिक प्रयोगषाला कुछ समय के लिए बंद कर देनी चाहिए और बेरोज़गारी की कतार को कम करना चाहिए। फिलहाल मानव विकास सूचकांक एक पायदान का उठान कई असंतोश के बीच राहत का काम कर रहा है।




सुशील कुमार सिंह
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दया याचिका पर तय हो सीमा

 बीते 28 नवम्बर को हैदराबाद की घटना ने एक नये नासूर को उधेड कर रख दिया। दिल्ली के दामन पर नारी सुरक्षा का दाग अभी धूला नहीं था कि हैदराबाद इसके चपेट में आ गया। गौरतलब है  हैदराबाद में बलात्कार और तत्पष्चात हत्या की घटना ने देष के भीतर नारी सुरक्षा को लेकर एक नया विमर्ष खड़ा कर दिया है। 16 दिसम्बर 2012 को जब दिल्ली में इसी तरह का जघन्य अपराध का चर्चित मामला निर्भया का आया था तब भी देष उबला था। नारी सषक्तिकरण से जुड़े तमाम पहलूओं को ऐसी घटना ने एक बार फिर चुनौती देने का काम किया है। आरोपियों तत्पष्चात दोशियों को फांसी की सजा देने की गूंज एक बार फिर फिजा में तैरने लगी। हालाॅंकि हैदराबाद के आरोपियों को एक मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा जा चुका है, मगर निर्भया के दोशियों को अभी भी मृत्युदण्ड की सजा दे पाना सम्भव नहीं हो पाया है। साल 2017 से दया याचिका को लेकर फाइल प्रक्रियागत उलझाव में फंसी रही, हालाॅंकि अब इसका रास्ता भी साफ होता दिखाई देता है। सवाल ये है कि जघन्य अपराध करने वाले ऐसे दोशियों को जब सर्वोच्च न्यायालय एक लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद मृत्युदण्ड की सजा सुना देता है तो राश्ट्रपति के पास भेजी जाने वाली दया याचिकाएं जीवनदायिनी का काम क्यों करती है। इस पर समय सीमा के भीतर एक सुचारू निर्णय क्यों नहीं जन्म लेता है। गौरतलब है कि सजा का समय पर लागू न हो पाना भी न्याय से भरोसा उठा रहा है। हैदराबाद में अरोपियों का पुलिस द्वारा किया गया एनकाउण्टर और पूरे देष में इस घटना के बाद उठा उल्लास इस बात को पुख्ता करता है। एमनेस्टी इन्टरनेषनल की रिपोर्ट भी यह बताती है कि प्रतिवर्श सैकड़ों मृत्युदण्ड की सजा पाने वाले दोशी पर सजा का अमल हो ही नहीं पाता है, इसका एक मूल कारण दया याचिका भी है। 
 सवाल है कि दया याचिका को एक धीमी प्रक्रियागत स्वरूप क्यों दिया गया है। इस प्रष्न के उत्तर के लिए भारतीय संविधान में झांकना पडे़गा। दया याचिका पर फैसला लेने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 72 मंे राश्ट्रपति को दिया गया है। मगर उसी संविधान में अनुच्छेद 74 स्पश्ट करता है कि, ऐसा केाई भी फैसला राश्ट्रपति मंत्रीपरिशद की सलाह पर ही ले सकता है। यदि राश्ट्रपति मंत्रीपरिशद की सलाह से सहमत न हो तो उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है और ऐसी स्थिति में यदि कैबिनेट वही सलाह या परामर्ष राश्ट्रपति को पुनः भेज द,े तो वह मानने के लिए बाघ्य है। चूॅंकि संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि कैबिनेट के फैसले को राश्ट्रपति द्वारा कब तक संतुति देना है या वापस करना है। ऐसे में राश्ट्रपति अपनी इच्छानुसार मामले को लम्बित छोड़ सकता है, दया याचिकाओं के लम्बित रहने का एक कारण यह भी रहा है। राश्ट्रपति जब ऐसे मामलों में सहमत नहीं होते है तो याचिकाओं को लम्बित छोड़ देना मुनासिब समझते है। हालाॅंकि पूर्व राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी गृह मंत्रालय के सलाह के विपरीत भी फैसला के लिए भी जाने जाते है, जो अपने आप में एक मिसाल है। गौरतलब है प्रणव मुखर्जी देष के दूसरे ऐसे राश्ट्रपति हंै जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा 28 दया याचिकाएं खारिज की है। जबकि 1987 से 1992 तक राश्ट्रपति रहे, आर. वेंकेटरमन ने 44 दया याचिकाएं खारिज की थी। देखा जाये तो 2007 से 2012 के बीच राश्ट्रपति रही प्रतिभा पाटिल ने 30 फांसी की सजा माफ करने का रिकार्ड बनाया, जबकि प्रणव मुखर्जी इस मामले में 7 बार ऐसा किया। भारत में निचली अदालतों में फांसी की सजा मिलने के बाद प्रक्रियागत तरीके से यदि सर्वोच्च न्यायालय इस पर मुहर लगाता है तो अन्तिम रास्ता राश्ट्रपति से दया की अपील के तौर पर रहता है, और राश्ट्रपति इसे खारिज कर दे तो फांसी दे दी जाती है। पहले अदालती कार्यवाही में देरी फिर दया याचिका पर निर्णय लेने में हुआ विलम्ब अपराधियों का कहीं न कहीं हौंसला बढ़ा देता है और उसी का नतीजा ऐसी घटनाओं का होना कहा जा सकता है। 
 देखा जाये तो बलात्कार तत्पष्चात हत्या के मामले में आखिरी बार फांसी 2004 में पष्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी को दी गई थी, जिस पर यह दोश था कि उसने कलकत्ता में एक 15 वर्शीय स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार और हत्या की थी। यह बच्चों से जुड़ा एक ऐसा अपराध था जिससे समाज भी खूब षर्मसार हुआ था। हैदराबाद की घटना के बाद षासन, प्रषासन से लेकर न्यायिक संस्थाएं भी हिल गई। गौरतलब है कि बलात्कार एक ऐसा सामाजिक कैंसर है जिसकी चपेट में हर वर्ग और हर उम्र की महिला षामिल है। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम तक षायद ही कोई कोना बाकी हो जहाॅं यह बीमारी न फैली हो। जम्मू-कष्मीर के कठुआ से लेकर हैदराबाद तक 6 महीने से 6 साल और किसी भी उम्र में बलात्कार समाज का जघन्य रूप बताता है। बढ़ती घटनाओं को देखते हुए राश्ट्रपति रामनाथ कोंविद ने बच्चांे से जुडे ऐसे अपराधों से संबंधित पास्को एक्ट से जुडे़ अध्यादेष को हाल ही में मंजूरी दे दी है। गौरतलब है कि इस तरह की बढ़ती घटनाओं के कारण साल 2012 में प्रोटेक्षन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट-2012 (पास्को) लाया गया। स्वतंत्रता के बाद तमाम कानून बनते रहे, कड़े कानूनों की मांग होती रही बावजूद इसके न्याय अधूरा बना रहा। आजादी के बाद भारत में पहली बार फांसी नाथुराम गोडसे को दी गई थी और याकूब मेमन के पहले आखरी बार फांसी की सजा संसद भवन पर हमले के दोशी अफजल गुरू को दी गई थी। पिछले 10 सालों का रिकाॅर्ड देखें तो भारत में 1303 लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है जिसमें से धनंजय चटर्जी अफजल गुरू और मुम्बई हमले का दोशी अफजल कसाब फांसी पर लटकाया गया। हैरत यह है हर साल लगभग 130 लोगों को फांसी की सजा मिलती है पर अमल में लाने का दर षून्य प्रतीत होता है। वजह भारत में सजा माफी की लम्बी प्रक्रिया का होना है। इतना ही नहीं फांसी देने वाले जल्लादों की भी कमी बतायी जाती है। दुनिया में न्यायालयी सजा को अमल में लाने की प्रक्रिया की तुलना में भारत फिसड्डी है। मान्यता है कि यहाॅं कितने भी सषक्त कानून क्यों न बना दिये जाये, यदि प्रक्रिया और व्यवहार में तीव्रता नहीं होगी तो व्यवधान बने रहेंगे। मृत्युदण्ड के अमल के मामले में न केवल समयसीमा तय हो बल्कि बलात्कार जैसे अपराध के लिए दया याचिका की इजाजत भी समाप्त कर देनी चाहिए। समाज बचाने के लिए भावनाओं में बहने की बजाय सुदृढ़ नीति पर चलने का वक्त अब आ चुका है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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नागरिकता निर्धारण करने का उपकरण

बीते 4 दिसम्बर को नागरिकता संषोधन विधेयक को केन्द्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गयी है। जाहिर है अभी संसद से इस विधेयक को गुजरते हुए अधिनियम की दहलीज पर पहुंचना बाकी है। इसे लेकर जिस तरह विरोधी दल एतराज जता रहे हैं उससे यह प्रतीत होता है कि संसद में मुख्यतः राज्यसभा में विधेयक को लेकर सरकार को चुनौती मिलेगी। यदि नागरिकता संषोधन विधेयक कानून का रूप लेता है तो पाकिस्तान, बांग्लादेष और अफगानिस्तान से आये हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता मिलना मुमकिन हो जायेगा। गौरतलब है कि मुस्लिम समुदाय के लिए नागरिकता देने की बात इसमें षामिल नहीं है। पड़ताल से यह पता चलता है कि नागरिक संषोधन विधेयक 2019 के तहत सिटिजनषिप एक्ट 1955 में बदलाव का प्रस्ताव है। खास यह भी है कि पहले नागरिकता हासिल करने के लिए भारत में रहने की अवधि 11 वर्श थी अब इसे 6 साल कर दिया गया है। 1955 के एक्ट के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती इसमें उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है जो बरसों पहले बिना वीजा, पासपोर्ट के भारत की सीमा में घुस आये हैं। ऐसे में इन्हें या तो जेल हो सकती है या देष वापस भेजा जा सकता है। लेकिन 2019 का एक्ट में जो बदलाव हुआ है उसमें मुस्लिम को छोड़कर षेश को छूट दे दी गयी है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भारत में वैध दस्तावेज के बगैर भी गैर मुस्लिम षरणार्थी पाये जाते हैं तो उन्हें न तो जेल भेजा जायेगा न ही निर्वासित किया जायेगा। इस मसले को लेकर विपक्ष का यह आरोप है कि मुसलमानों को निषाना बनाया जा रहा है। आरोप यह भी है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का यह उल्लंघन करता है जिसमें समता के अधिकार की बात कही गयी है।
इस बदलाव पर बहस का तेज होना स्वाभाविक है। विपक्षी दलों के विरोध का आधार देखें तो यह बात क्या गैरवाजिब कही जा सकती है कि पड़ोसी देषों के मुसलमानों को यह रियायत क्यों नहीं दी जा रही। यहां पर सरकार का अपना तर्क है कि बांग्लादेष, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुस्लिम बाहुल्य देष है। ऐसे में यहां मुसलमान नहीं बल्कि अन्य धर्मों के लोग प्रताड़ित होते हैं। इस कथ्य में कितना सत्य है यह षोध का विशय है परन्तु ऐसा देखा गया है कि पाकिस्तान के कई गैरमुस्लिम परिवार षरणार्थी के तौर पर भारत की सीमा में अपना गुजर-बसर कर रहे हैं और उनका यह कहना है कि अन्य धर्म के होने के चलते उन पर उक्त देष  जुल्म ढ़ाह रहा है। नई दिल्ली रेलवे स्टेषन के इर्द-गिर्द बरसों से ऐसे षरणार्थियों की भीड़ देखी जा सकती है जो भारत सरकार से अपने को अपनाने की गुहार लगाते रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि देष में नागरिक कौन है और कौन नहीं इसका पता होना चाहिए। मगर इस बात को ध्यान में रखकर कि मुस्लिम भी इसी देष के नागरिक हैं। पंथ निरपेक्षता के साथ कानून को बनाना और लागू करना संविधान के सापेक्ष होगा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह निहित है कि भारत एक पंथनिरपेक्ष देष है जहां इसके भेदभाव की गुंजाइष न के बराबर है। बावजूद इसके हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर यहां राजनीति भी होती है और सत्ता की रोटी भी सेकी जाती है। बेषक कानून बने मगर नागरिकों के हितों के लिए न कि भय का वातावरण बने। देखा जाय तो यह काल और परिस्थिति के बदलावस्वरूप लिया गया एक फैसला है जिसके चलते सरकार उन्हें नागरिक बनाने का प्रयास कर रही है जो उक्त देषों के गैरमुस्लिम है। यदि इतने ही समय से रहने वाले इन्हीं देषों के मुसलमान भारत में पाये जाते हैं तो जाहिर है उन्हें वापस भेजा जायेगा मगर उनका मूल देष उन्हें वापस लेने से मना किया तब क्या कदम होगा। ऐसे में द्विपक्षीय सम्बंध पर भी असर पड़ सकता है। हालांकि पाकिस्तान जैसे देषों से कोई उम्मीद नहीं है और षायद हो भी नहीं सकती मगर कदम ऐसा हो कि काम भी हो जाये और चोट भी न पहुंचे। 
नागरिकता अधिनियम विधेयक और राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के बीच आपसी घालमेल के चलते भी इसे समझने में कुछ त्रुटि हो रही है। जबकि दोनों में कुछ मूलभूत अंतर है। सरकार की तरफ से जिस विधेयक को सदन में पेष किया जाना है वह दो अहम चीजों पर आधारित है पहला गैरमुसलमान प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देना और दूसरा अवैध विदेषियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजना। गृहमंत्री अमित षाह ने कहा है कि नागरिकता विधेयक के अंतर्गत धार्मिक उत्पीड़न की वजह से बांग्लादेष, पाकिस्तान, अफगानिस्तान से 31 दिसम्बर 2014 से पहले भारत आने वाले हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है। जबकि एनआरसी के जरिये 19 जुलाई 1948 के बाद भारत में प्रवेष करने वाले अवैध निवासियों की पहचान कर उन्हें देष से बाहर करने की प्रक्रिया है। मूलरूप से एनआरसी को सुप्रीम कोर्ट की तरफ से असम के लिए लागू किया गया था जहां करीब 19 लाख लोगों को इस सूची से बाहर किया गया था जिसमें 13 लाख हिन्दू हैं। जिसे लेकर सरकार के समक्ष बड़ा सवाल यह है कि यह हिन्दू कहां से आये। सम्भव है कि ये या तो भारत के हैं और सूचीबद्ध नहीं है या फिर बांग्लादेष से पलायन करके आये हैं। स्थिति कुछ भी हो असम में सरकार जैसा सोच रही थी नतीजे वैसे नहीं हैं। ऐसे में खुद ही दुविधा में वो फंस गयी। पहले ही यह इषारा दिया जा चुका है कि जो हिन्दू सूची से बाहर है उन्हें देष से बाहर नहीं किया जायेगा। ऐसे में नया नागरिकता संषोधन विधेयक इन्हें नागरिकता प्रदान कर देगा पर दूसरा सवाल यह है कि बाकी 6 लाख का क्या होगा?
बड़ा प्रष्न यह भी है कि जब नागरिकता विधेयक से लेकर एनआरसी तक की पहल से विपक्ष सहित कुछ वर्गों में भी असंतोश है तो आखिर भाजपा जन साधारण के खिलाफ क्यों जाना चाहती है। पूर्वोत्तर के व्यापक विरोध प्रदर्षन के बावजूद नागरिकता संषोधन विधेयक को लेकर आगे बढ़ रही सरकार का मुख्य रूप से इस पूरे क्षेत्र में दल को मिली चुनावी सफलता को एक कारण माना जा सकता है। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर की 25 संसदीय सीटों में सहयोगियों सहित बीजेपी ने 18 पर जीत दर्ज की। दरअसल इसे लेकर सरकार के आगे बढ़ने के पीछे एक वजह यह भी है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पष्चिम बंगाल की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी ने बांग्लादेषी घुसपैठियों से बोरिया-बिस्तर बांधने को कहा था। मोदी के पष्चिम बंगाल के चुनावी भाशण का असर 2016 के विधानसभा चुनाव पर दिखायी देता है। जिसका नतीजा 5 विधायक वाली बीजेपी 126 सीटों के मुकाबले 61 पर कामयाब हो गयी और पहली बार सत्ता में भी आ गयी। मगर रोचक यह है कि नागरिक संषोधन विधेयक का असम के भीतर विरोध कर रहे संगठन नरेन्द्र मोदी गो बैक के नारे लगा रहे हैं। इस संगठनों का यह मानना है कि यदि ऐसा होता है तो असमिया भाशा, साहित्य और संस्कृति हमेषा के लिए खत्म हो जायेगी इस डर के पीछे कौन जिम्मेदार है इसकी भी पड़ताल जरूरी है। फिलहाल भारतीय संविधान के भाग 2 में अनुच्छेद 5 से 11 के बीच नागरिकता की चर्चा है जिसे लेकर नागरिकता अधिनियम 1955 पहली बार आया था जिसमें 1986, 1992 और 2003 में संषोधन देखे जा सकते हैं। असल मुद्दा क्या है इसके आधार को भी समझते रहना होगा। यदि सरकार घुसपैठियों को लेकर वाकई में चैकन्ना है तो गैरमुस्लिम और मुस्लिम एजेण्डा तैयार करने से बचे। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी इसके बहाने अपने हिन्दुत्व के एजेण्डे को वोट बैंक के खातिर मजबूत कर रही हो।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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गंगा सफाई पर हांफती सरकारें

वल्र्ड वाइल्ड फंड का कहना है कि, गंगा विष्व की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदियों में से एक है। देष की सबसे प्राचीन और लम्बी नदी गंगा कई कोषिषों के बावजूद साफ नहीं हो पा रही है। गौरतलब है कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व वाली गंगा कारखानों से निकलने वाला जहरीला प्रदूशित पानी, घरों से निकलने वाले सीवर और प्लास्टिक की षरणगाह बनी हुई है। पिछले साल संसद में पेष किये गये रिपोर्ट के मुताबिक 236 सफाई परियोजनाओं में से महज़ 63 को ही पूरा किया गया था। सरकार बार-बार गंगा साफ करने के मामले में नये-नये वायदे करती रही और समस्या जस की तस बनी रही। इसी क्रम में मार्च 2019 तक गंगा को 70 से 80 फीसदी स्वच्छ होने की बात कही गयी थी और उसके अगले साल तक पूरे सौ फीसदी। पर गंगा सफाई में कोरी बातें अधिक रहीं। अनुमान तो यह भी है कि प्रतिदिन इसके किनारे बसे 97 षहर करीब 3 अरब लीटर प्रदूशित जल गंगा में छोड़ते हैं जो लगभग डेढ़ अरब लीटर की क्षमता से यह दोगुना है। इतना ही नहीं 2035 तक इसमें हर दिन साढ़े तीन अरब लीटर से अधिक प्रदूशित जल छोड़े जाने लगेंगे तब गंगा का क्या हाल होगा यह समझना कठिन नहीं है। गंगा सफाई को लेकर एक चैकाने वाला खुलासा साल 2017 के दिसम्बर को हुआ जिसमें गंगा नदी के कायाकल्प के लिए केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा षुरू की गयी नमामि गंगे परियोजना की बदहाल स्थिति सामने आयी थी। सीएजी के रिपोर्ट से यह बात सामने आ चुकी थी कि स्वच्छ गंगा मिषन के लिए आवंटित किये गये 26 सौ करोड़ रूपए से अधिक की राषि सरकार तय समय में खर्च ही नहीं कर पायी। गंगा की सफाई के लिए बजट भारी-भरकम होने के बावजूद इसके मैली बने रहने से यह साफ है कि गंगा सफाई से पहले दिमाग की सफाई जरूरी है। कहा जाय तो पहले साफ हो नीयत फिर गंगा। वजह चाहे जो हो एक बात तो साफ है कि सरकार ने समय काटा है न कि गंगा की सफाई की है। तय समय में परियोजना राषि भी खर्च न हो पाना इस बात को स्पश्ट करता है कि सफाई के मामले में सरकार का रवैया ढुलमुल है और आदूरदर्षिता से भी घिरी है जबकि गंगा सफाई को लेकर अलग से मंत्रालय इसी उद्देष्य से बनाया गया था। जिस प्रधानमंत्री मोदी को बनारस में मां गंगा ने बुलाया था आज वहीं के घाटों से गंगा दूर हो रही है और दूशित भी। कहा जाय तो लगातार मैली हो रही गंगा को साफ करने का जो वायदा सरकार ने किया था उसके प्रति असंवेदनषीलता दिखा कर यहां भी जुमलेबाजी ही किया जा रहा है। 
निरंतर मैली हो रही गंगा को लेकर जब से सफाई वाली सोच आयी है तब से कहा जाय तो चर्चा खूब हुई पर सफाई धेले भर भी नहीं हुई। सफाई वाले विचार की षुरूआत इन्दिरा गांधी के काल में आया पर गंदगी का सिलसिला मोदी काल में भी बादस्तूर जारी है। वर्श 1981 में बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय में 68वें विज्ञान कांग्रेस का आयोजन हुआ। इसी के उद्घाटन के सिलसिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी बीएचयू गयीं थीं। इनके साथ कृशि वैज्ञानिक और योजना आयोग के सदस्य डाॅ0 एम0 एस0 स्वामीनाथन भी थे। इसी दौर में गंगा प्रदूशण को लेकर पहली चिंता और चर्चा संभव हुई। उसके बाद ही उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस बात के लिए निर्देष दिया गया कि गंगा में प्रदूशण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम षुरू करें। इस प्रकार की पहल को गंगा को गुरबत से बाहर निकालने के अच्छे मौके के रूप में देखा जाने लगा। 1984 के लोकसभा के चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे अपने घोशणा पत्र में भी षामिल किया और प्रधानमंत्री बनने के बाद 500 करोड़ रूपए स्वीकृत किये। तत्पष्चात् वर्श 1985 में ‘गंगा एक्षन प्लान‘ का पहला चरण प्रारंभ कर दिया गया। सीएजी की तत्कालीन रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्षन प्लान के पहले चरण में उस वक्त पैदा हो रहे 1340 एमएलडी सीवेज में 882 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने का लक्ष्य रखा गया था जबकि दूसरे चरण में ‘कैबिनेट कमेटी आॅन इकोनाॅमी अफेयर‘ ने 1993 से 1996 के बीच 1912 एमएलडी सीवेज ट्रीट करने का लक्ष्य रखा था। इन तमाम तरीकों के अलावा समय के साथ कई प्रकार के प्रयोगवादी कृत्य भी देखे जा सकते हैं परन्तु गंगा के प्रदूशित होने की गति ने केवल बरकरार रही बल्कि बढ़ती गयी। वर्श 1984 से 2012 तक के आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि गंगा को साफ करने के चक्कर में 7000 करोड़ रूपए का इंतजाम हुआ। कई सरकारें आईं और गयीं परन्तु गंगा में गंदगी जस की तस बनी रही।। देष की 40 प्रतिषत आबादी गंगा के किनारे बसती है। 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा भारत से निकलती है, भारत में बहती है और भारत के सुखो की चिंता करती है परन्तु फिर भी षायद भारतीयों में गंगा के प्रति कोई दयाभाव नहीं है। गंगा के नाम पर सरकारें भी जोड़-जुगाड़ की राजनीति करती रहीं परन्तु जिस प्रकार के भागीरथ प्रयास की आवष्यकता चाहिए थी वह सरकारों की नीयत में नहीं झलकी।
 साल 2014 में लोकसभा के चुनाव में भाजपा की ओर से भी इसके प्रति इसी प्रकार के इरादे जताये गये और भारी-भरकम राषि का निवेष कर इस पर मोहर भी लगायी पर समय रहते राषि न खर्च पाना मोदी सरकार की गंगा सफाई के प्रति असंवेदनषीलता का प्रदर्षन ही कहा जायेगा। कहा जाय तो तमाम वायदे एवं इरादों के बावजूद गंगा अभी भी गुरबत में है। षीर्श अदालत भी गंगा सफाई योजना पर अप्रसन्नता जाहिर कर चुकी है। यहां तक कह डाला कि गंगा साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पायेगी। कम-से-कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। आरोप यह है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्षिता दिखाई। साथ ही वैज्ञानिकों और विषेशज्ञों के प्रमाणित अनुसंधानों को दरकिनार करके गंगा सफाई से संबंधित क्रियान्वयन करने की कोषिष जारी रही। मजबूत इरादे वाली मोदी सरकार को भी इससे अलग नहीं देखा जा सकता। गौरतलब है कि 2018 तक गंगा साफ करने की समय सीमा को देखते हुए और मौजूदा स्थिति में मोदी सरकार के निराषाजनक रवैये से साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी षंका सही साबित हा रही है।
फिलहाल गंगा की षुद्धि करने वाली विचारधारा की पूरी गाथा बिना ‘पर्यावरणविद‘ प्रोफेसर बी.डी. त्रिपाठी के अधूरी है। प्रोफेसर त्रिपाठी उन दिनों बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में कार्यरत् ‘गंगा पर्यावरण‘ के विशय पर अनुसंधान कार्य में लगे थे और इनका जुड़ाव षुरूआत से ही गंगा एक्षन प्लान से रहा है। इन्हें राश्ट्रपति द्वारा ‘पर्यावरण मित्र‘ का पुरस्कार मिल चुका है। हालांकि गंगा को प्रदूशण से मुक्ति के संदर्भ में 1981 में सांसद एस.एम. कृश्णा ने पहली बार संसद में प्रष्न उठाया था। बी.डी. त्रिपाठी के ही चलते गंगा सफाई को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी एक्षन मोड में आयी थी। बीते साढ़े तीन दषक में गंगा सफाई के मामले में किया जाने वाला प्रयास जुबानी जद् तक ही सीमित रहा। आषातीत सफलता न मिलने के पीछे सरकारों के षोधात्मक अनभिज्ञता और सही रणनीति का आभाव रहा है। गौरतलब है कि गंगा एक्षन प्लान के दूसरे चरण के दौरान षीर्श अदालत ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि कर दाताओं का पैसा पानी में बहाया जा रहा है। जाहिर है सफाई की स्थिति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय हमेषा से इसको लेकर चिंतित रहा है। जिस तर्ज पर गंगा समेत भारतीय नदियां कूड़ा-कचरा और सीवेज व अपषिश्ट पदार्थों समेत मानव और पषुओं के षव से बोझिल हुई हैं उससे साफ है कि सरकार समेत जनमानस ने भी अपने दायित्व निभाने में खूब कोताही बरती है। दो टूक यह भी है कि गंगा निर्मल करने के मामले में किसी भी सरकार की कोषिष रंग क्यों नहीं ला पा रही है। बड़े-बड़े कारनामों के लिए जानी जाने वाली हमारी सरकारें इस मामले में आखिर क्यों हांफ जाती है वाकई यह विचारणीय प्रष्न है।



सुशील कुमार सिंह
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रास्तें में क्यों हांफ जाती हैं गठबंधन सरकारें

महाराष्ट्र में राजनीतिक बहुलवाद से भरी सरकार फिलहाल तमाम सियासी उठापटक के बीच कायम हो ही गयी। महाराष्ट्र के भीतर सत्ता की चाह में राजनीतिक समझौते और गठबंधन, न केवल बाध्यता बन गयी बल्कि विचारों मे उलट दल एक छतरी के नीचे भी आ गये। जिसे मतदातों के राजनीतिक चेतना तथा फैसले लेने की परिपक्वता के नये स्तर के रूप में तो हरगिज नही देखा जाना चाहिए। भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकारों की पड़ताल से यह पता चलता है कि, भले ही यह पहले एक अवसरवाद के रूप में जाना और समझा जाता रहा हो परन्तु अब ऐसी सरकारों को षायद अस्थिरता का कारक मानने के बजाय समावेषी राजनीति के दौर के नये चेप्टर के तौर पर आत्मसात करना चाहिए, चाहे इनकी आयु कितनी भी कम क्यों न हो। षिवसेना हिन्दुत्व के एजेण्डे पर चलने वाली एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका राजनैतिक स्वर सम्भव है कि अब पहले जैसा नहीं रहेगा। राश्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांगे्रस का इसके साथ एक होना इस बात का द्योतक है कि सत्ता की एकतरफा ताकत रखने वाली भाजपा को बाहुबली बनने से न केवल रोकना है, बल्कि सियासी पैतरे के बीच वजूद यदि खतरे में हो तो, विचार बदल कर रसूक बड़ा कर लेना चाहिए। ऐसा करने के लिए राजनीतिक सामंजस्य के साथ सांझी सत्ता को तरजीह देना ही होता है। भले ही इसके लिए चाहे दषकों की पार्टी धारा और विचारधार को पीछे ही क्यों न छोड़ना पड़े। गौरतलब है, जब अटल बिहारी बाजवेयी ने घटक दलों के साथ केन्द्र में सरकार बनायी थी, तब अपने कोर हिन्दुवादी मुद्दों को नेपथ्य में डाल दिया था। कुछ ऐसी ही राह पर इन दिनों षिवसेना दिखाई देती है। वैसे देखा जाये तो प्रतियोगी राजनीति के बढ़ने से पार्टी प्रणाली भी बदल जाती है।  
सवाल है कि, गठबंधन की सरकारे जो बेमेल विचारधारा से युक्त होती है, वे किस आधार पर आगे बढ़ने का मन बनाती हैं। जबकि उन्हंे साफ-साफ पता रहता है कि, एक सीमा के बाद वे स्वयं समझौता नहीं कर सकती। जम्मू-कष्मीर में जब भाजपा ने वहाॅं के स्थानीय दल पीडीपी के साथ सरकार बनाई, तब देष के सियासी पंडितों में यह चर्चा आम थी कि, यह लोकतन्त्र के इतिहास में सबसे बड़ा बेमेल समझौता है। भाजपा से नाता तोड़ने वाली षिवसेना ने जब कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठजोड़ की बात की, तब भाजपा ने उस पर प्रहार किया, जिसे देखते हुए षिवसेना ने जम्मू-कष्मीर के सियासी पारी की याद दिलाते हुए उस पर पलटवार किया था। गौरतलब है कि भाजपा-पीडीपी सत्ता समझौता जनवरी 2015 से षुरू हुआ मगर आधी राह पर पहुॅंचने से पहले औंधे मुंह गिर गया था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि, सत्ता प्राप्ति की निजी इच्छाओं के चलते बेमेल समझौते कर लिये जाते है। जो न केवल मतदाताओं के साथ प्रत्यक्ष धोखा है बल्कि देष और प्रदेष दोनों के लिए एक अस्थिरता का दौर भी व्याप्त हो जाता है। असल में गठबंधन तब बनता है जब सहयोगी दलों की विचारधारा एकरूपता से युक्त रहती है। वैसे केन्द्र सरकार के अन्र्तगत देखे तो साल 1977 से 2014 तक कुछ वर्शों को छोड़कर गठबंधन का दौर रहा। यह सरकारें देष के लिए अच्छी है या बुरी थी, इस पर एकतरफा निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इन्ही गठबंधन की सरकारों के समय मण्डल आयोग की सिफारिष को लागू करना, पोखरण में परमाणु परीक्षण करना, मनरेगा परियोजना, सूचना का अधिकार आदि तमाम तरह के कदम ने यह जता दिया था कि, सावधान रहें, तो न केवल समाधान मिलेगा बल्कि कार्यकाल भी पूरा होगा। 
तीन दषकों तक भाजपा का साथ निभाने वाली षिवसेना फिलहाल एक अलग राह पर चल पड़ी है।   सवाल है कि, क्या विलगाव और अवसरवाद से भरी महाराश्ट्र की सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। गठबंधन सरकारों का राज्यवार इतिहास देखें तो स्थिति कार्यकाल के मामले में असंतोश से भरी है। पिछले साल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस की सरकार सत्ता संख्याबल से थोड़ी दूर खड़ी भाजपा को रोककर गठबंधन की सरकार बनाई थी, जो जमा एक साल के भीतर पटरी से उतर गई और पुनः भाजपा सत्ताषील हो गई। बिहार में राश्ट्रीय जनता दल और नीतीष कुमार की जेडीयू ने गठबंधन की सरकार बनाई और दो साल के भीतर आपसी विभाजन तत्पष्चात नीतीष भाजपा की गोद में बैठकर वर्तमान में अपनी सत्ता हांक रहे है। दषको पहले उत्तर प्रदेष में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा गठबंधन केवल छः महीने चला था हालांकि बाद में बसपा में टूटन की वजह से कल्याण सिंह सरकार भाजपाई सत्ता को पूरे कार्यकाल तक हांकने में कामयाब रहे। 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन नतीजों के बाद दोनों ने अपनी अलग-अलग राह पकड़ ली। यहाॅं भाजपा 403 के मुकाबले 325 सीटों पर जीत दर्ज की थी। मौजूदा समय में महाराश्ट्र की तरह ही भाजपा हरियाणा में बहुमत से पीछे रही। परिस्थिति और अवसर को देखते हुए जिसके मुकाबले चुनाव लड़ा उसी जेजेपी के 10 सीटों के सहारे अपनी नैया बीते अक्टूबर से चला रहे है। हालिया परिपेक्ष्य में देखें तो महाराश्ट्र में नई सरकार का नेतृत्व करने वाले उद्वव ठाकरे भले ही षुरूआती दिनों में एकजुटता को बरकरार रखने में कामयाब हो जाये पर गठबंधन सरकारों के इतिहास को देखते हुए कार्यकाल पूरा होगा इस पर संषय है। जैसे-जैसे सरकार यात्रा करेगी, चुनौतियां सामने खड़ी होती रहेंगी। इन्हीं चुनौतियों और अपेक्षाओं के बीच दलीय संघर्श स्थान घेरने लगते है और कार्यकाल खतरे में पड़ जाता है।
गृहमंत्री अमित षाह ने भी कहा है कि, जनादेष को धता बता कर धुर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए साथ आये है। सवाल है कि, जब अजीत पंवार का समर्थन रात में लेकर भोर में उन्होंने सरकार बना ली, तब कौन सी विचारधारा मेल खा रही थी। षिवसेना सरकार के सामने एक नहीं अनेकों चुनौतियाॅं रहेंगी। सिलसिलेवार तरीके से देखा जाये तो तीनों दल का आपसी समन्वय बनाये रखना अपनेआप में चुनौती है। महाराश्ट्र का विकास, सरकार में फैसले कौन लेगा, षरद पवार की भूमिका को मैनेज करने समेत राश्ट्रीय स्तर पर इस दोस्ती के साथ कैसे आगे बढ़े इस पथ को खोजना भी चुनौती रहेगी। इतना ही नहीं सभी सियासी दल महाराश्ट्र में अपनी धमक रखते है। ऐसे में अहं का टकराव टालना चुनौती रहेगी। जो वादे किये गये है उन्हें पूरा करना और केन्द्र सरकार से संबन्ध बनाये रखना किसी चुनौती से कम नहीं है साथ ही नरम और गरम हिन्दुत्व के बीच संतुलन साधना भी किसी चुनौती से कम नहीं। फिलहाल महाराश्ट्र में सरकार के बहाने भाजपा को एक बार फिर ताकत दिखाने का काम किया गया है, सोनिया गांधी से लेकर राहुल, केजरीवाल, ममता बनर्जी तथा अखिलेष यादव समेत भाजपा के कई धुर विरोधी नेताओं का जमावड़ा मुम्बई के षिवाजी स्टेडियम में होना एक सियासी ललकार का ही रूप है। पर असल तथ्य यह है कि ऊॅंचे मंच और हजारों के बीच षपथ लेने वाली गठबंधन की सरकारे रास्ते में हांफती क्यों है।  


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Thursday, December 12, 2019

चुनाव पूर्व गठबंध पर चुनावी सुधार

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष बी. पी. रेड्डी की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में चुनाव प्रणाली को बेहतर और पारदर्षी बनाने के लिए सुधार हेतु दर्जन भर सुझाव दिये थे। जिसमें एक यह भी था कि दल-बदल कानून में परिवर्तन कर चुनाव पूर्व गठबंधन को एक ही दल माना जाय। सम्भव है कि इसके पीछे आयोग का उद्देष्य स्वच्छ राजनीतिक आचरण विकसित करने का था। यदि समय रहते इस सुझाव को अमल में लाया जाता तो सम्भव है कि, महाराश्ट्र में जो सियासी तस्वीर इन दिनों उभरी षायद ऐसी पटकथा न होती। यदि चुनावी सुधार में इस बात का संदर्भ प्रमुखता से अभी भी लाया जाय कि चुनाव के पूर्व का गठबंधन किसी भी सूरत में बाहर नहीं हो सकता तो राजनीतिक तौर पर एक नई सुचिता का विकास सम्भव है। पर चिंतन से युक्त प्रष्न यह भी है कि, यह राजनीतिक दलों के स्वतंत्रता को कहीं बाधित तो नहीं करेगा। हो सकता है कि इसे अपनाने में कठिनाई हो पर, बदलती राजनीतिक तस्वीर के बीच मतदाताओं की राजनीतिक चेतना और परिपक्वता को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दलों को प्रत्येक परिस्थितियों में स्वतंत्र छोड़ना भी कितना औचित्यपूर्ण रहेगा। गठबंधन की राजनीति अस्थिरता के कारकों से युक्त देखे जा सकते हैं। बावजूद इसके इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था के चलते ये परिस्थितियां बार-बार उभरती रहेंगी। महाराश्ट्र में भाजपा और षिवसेना ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया पर नतीजों के बाद सत्ता की महत्वाकांक्षा के चलते दोनों अलग राह पकड़ लिये। नतीजन वहां एक सियासी संकट खड़ा हो गया। जाहिर है यहां यदि विधि आयोग की उक्त सिफारिष को जगह मिली होती तो महाराश्ट्र में चुनाव के बाद सरकार का उदय हो जाता। 
यह सषक्त पक्ष है कि, चुनाव पूर्व का गठबंधन अधिक भरोसे से भरा होता है। मतदाता भी उसे उसी रूप में स्वीकृति देता है। जबकि नतीजों के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सत्ता साझा करने के लिए जो बंधन होता है वह अवसरवाद का परिचायक है। महाराश्ट्र में षिवसेना के साथ राश्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस को इन दिनों इसी तर्ज पर आंका जा सकता है। हालांकि चुनाव के बाद के गठबंधन का इतिहास भी इस देष में दषकों पुराना है। राज्यों में गठबंधन का दौर 1989 से तेजी से फला-फूला। पिछले साल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस की सरकार चुनाव बाद का गठबंधन था जो जमा साल भर भी नहीं टिका। बिहार में राश्ट्रीय जनता दल और जेडीयू का गठबंधन भी महज 20 महीने ही टिक पाया था। दो दषक पहले उत्तर प्रदेष में भाजपा और बसपा का गठबंधन भी 6 महीने में हांफ गया था। हालांकि बसपा के टूटन के चलते कल्याण सिंह सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा कर दिया था। साल 2017 के उत्तर प्रदेष के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा ने चुनाव से पहले समझौता किया था जबकि इसी साल लोकसभा के चुनाव में सपा और बसपा ने भी यही किया पर नतीजों के बाद ये फिर अपनी-अपनी राह पर हैं। हालांकि यह न सत्ता के हकदार थे और न ही उसके आस-पास। महाराश्ट्र के साथ ही हरियाणा विधानसभा के नतीजे भी घोशित किये गये जिसमें 40 सीट जीतने वाली भाजपा सत्ता हथियाने में कुछ स्थानों से चूक गयी और जिसके मुकाबले चुनाव लड़ा उसी जेजेपी से हाथ मिलाते हुए सत्तासीन हुई। इसी प्रकार केन्द्र की राजनीति ने भी गठबंधन का दौर बाकायदा कायम रहा। उक्त संदर्भों से यह प्रतीत होता है कि चुनाव सुधार की दिषा में भले ही दर्जनों आयोग और कमेटियां बनायी गयी हों पर राजनीतिक दलों की स्वतंत्रताओं को कहीं पर भी अंकुष में नहीं रखा गया। हालांकि 1985 के 52वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत दल-बदल कानून लाकर पार्टी के भीतर होने वाले टूट-फूट को रोकने का प्रयास किया गया जिसे लेकर 2003 में पुनः एक बार संषोधन किया गया। बाकी ऐसा कोई खास सुधार नहीं दिखता जिसके चलते सियासी दल कुछ और मामलों में राजनीति करने से बाज आयें।
स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारषिला है चुनाव में निश्पक्षता और पारदर्षिता के बगैर लोकतंत्र की सफलता सुनिष्चित नहीं की जा सकती। ऐसी ही व्यवस्थाओं को प्राप्त करने के लिए 1980 के समय से चुनाव सुधार की दिषा में तेजी से कदम उठने लगे। बावजूद इसके अभी यह पूरी तरह दुरूस्त नहीं हो पाया है। अब तो मांग एक देष, एक चुनाव की हो रही है। मौजूदा सरकार भी इस प्रक्रिया को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक दिखाई देती है। जाहिर है इसके लिए ठोस रणनीति की आवष्यकता पड़ेगी और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए नये सिरे से नियोजन तैयार करना होगा। इसी के साथ चुनावी महापर्व में जिन नई बातों का उदय हो रहा है उसे भी सुधार का हिस्सा बनाना गैर वाजिब नहीं होगा मसलन चुनाव पूर्व गठबंधन को अलग न होने की व्यवस्था और नतीजों के बाद विलग विचारधारा पर बनी सरकारें इतनी भी स्वतंत्र न हों कि जब चाहें पल्ला झाड़ लें। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है यहां हर साल चुनाव होते रहते हैं और इसी को ध्यान में रखकर वन नेषन, वन इलेक्षन की बात हो रही है। यदि ऐसा होता है तो जाहिर है कि चुनाव प्रत्येक 5 साल में ही सम्भव होंगे। पिछले लोकसभा के चुनाव में 60 हजार करोड़ से अधिक का व्यय हुआ था इसके अलावा प्रान्तों में चुनावी व्यय का सिलसिला जारी रहता है और जिसकी भरपाई करदाताओं से होती है। देष समृद्ध और सुखी तभी होगा जब पूंजी उत्पादकमूलक हो न कि बार-बार के चुनावी महोत्सव में हवन की भेंट चढ़ जाये।
1980 की तारकुण्डे समिति की कुछ सिफारिषें मसलन मतदाता की उम्र 21 से 18 वर्श करना। 1989 की दिनेष गोस्वामी समिति, टी.एन षेशन की सिफारिषें, इन्द्रजीत गुप्त समिति की सिफारिष समेत एम.एस. गिल की सिफारिषों की पड़ताल यह बताती है कि समय और परिस्थिति के साथ सभी ने अपने तरीके के चुनावी सुधार सुझाये हैं। इतना ही नहीं लोक जनप्रतिनिधित्व कानून में भी समय-समय पर संषोधन होता रहा है। चुनाव आचार संहिता को लेकर भी निर्वाचन आयोग काफी सक्रिय देखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच चुनाव आयोग और चुनाव सुधार से जुड़ी बातें देखी जा सकती हैं। देखा जाय तो चुनावी प्रक्रिया के मामले में भी बहुत कुछ मजबूती दी गयी है। जिस प्रकार समय के परिप्रेक्ष्य में मतदाता पहचान पत्र से लेकर ईवीएम को अंगीकृत हेतु कदम उठाये गये। स्पश्ट है कि इससे मतदान और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्षिता को बल मिला ठीक उसी प्रकार चुनावी मैदान में ताल ठोकने वाले सियासी दलों को भी निर्धारित सीमाओं के अलावा कुछ नये नियम में कसने की आवष्यकता है। जिसमें चुनाव से पूर्व गठबंधन को एक दल का रूप मानना जरूरी कर देना चाहिए। इससे मतदाताओं में न तो असंतोश पैदा होगा और न ही लोकतंत्र को कोई नये खतरे का सामने करना पड़ेगा। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जो चुनाव से पहले गठबंधन में हो, साथ ही बहुमत भी मिला हो और सत्ता हित साधने की फिराक में उससे अलग हुआ हो। महाराश्ट्र इस मामले में षायद पहला राज्य है। यह गनीमत है कि ऐसे हालात के बावजूद भी अभी लोगों का भरोसा लोकतांत्रिक व्यवस्था से डिगा नहीं है। अवसरवाद की सत्ता पर लगाम लगाने के लिए ठोस चुनावी सुधार किये जाने की आवष्यकता फिलहाल अब महसूस हो रही है। गठबंधन की सरकारें देष के लिए बुरी हैं या अच्छी इस पर एकतरफा राय नहीं दी जा सकती पर यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि विचारधाराओं के साथ सौदेबाजी एक सीमा के बाद कोई भी दल नहीं करता, चाहे चुनाव के पहले का गठबंधन हो या बाद का। कमोबेष यह उदाहरण देखने को मिला है पर दो टूक यह भी है कि अटूट तो नहीं पर काफी हद तक भरोसा चुनाव पूर्व गठबंधन पर अधिक कहा जा सकता है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh58@gmail.com

संविधान की कसौटी पर सभी

सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सभा में संकुचित मानसिकता का त्याग कर विभिन्न देषों के संविधानों से सर्वोत्तम चीजों को ग्रहण किया गया था। इसी को देखते हुए डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि विष्व इतिहास के इस पड़ाव पर बनाये हुए संविधान में कुछ नया होने की गुंजाइष तो नहीं है। संविधान दिवस के इस अवसर पर संविधान की बनावट और उसकी रूपरेखा को चंद षब्दों में समझना मुष्किल है। यह एक ऐसी धारा और विचारधारा है जिसमें भारत का एक-एक कोना न केवल निवास करता है बल्कि सत्ता से लेकर जनता तक इसी के मार्गदर्षन में निरन्तरता लिए रहती है। संविधान निर्माण पर षोधपरक दृश्टि डालने से यह भी पता चलता है कि, एक बेहतर संविधान निर्मित करना किसी चुनौती से कम न था। वैसे तो संविधान को पूरी तरह 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था मगर 26 नवम्बर 1949 को इसका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया गया था। नागरिकता, निर्वाचन और अन्तरिम संसद से सम्बन्धित उपबंधों को उसी दिन लागू कर दिया गया। गौरतलब है यह तारीख वर्तमान में संविधान दिवस के रूप में प्रतिश्ठित है। सरकार ने 19 नवम्बर 2015 में राजपत्र अधिसूचना की सहायता से 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में घोशित किया था। दुनिया का सबसे बड़ा संविधान जिसमें संषोधन सहित 450 से अधिक अनुच्छेद 12 अनुसूचियां और 103 संषोधन हो चुके हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा यदि देष के सामने कोई मजबूत चुनौती थी तो वह अच्छे संविधान के निर्माण की थी जिसे संविधान सभा ने प्रजातान्त्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन में एक भव्य संविधान तैयार कर दिया। चूंकि संविधान 26 नवम्बर 1949 को मूर्त रूप ले चुका था ऐसे में इसे लागू करने के लिए एक ऐतिहासिक तिथि की प्रतीक्षा थी जिसे आने में 2 महीने का वक्त था और वह तिथि 26 जनवरी थी। दरअसल 31 दिसम्बर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेषन में यह घोशणा की गयी कि 26 जनवरी, 1930 को सभी भारतीय पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनायें। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में उसी दिन पूर्ण स्वराज लेकर रहेंगे का संकल्प लिया गया और आजादी का पताका भी लाहौर के रावी नदी के तट पर लहराया गया।
देखा जाए तो जहां 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में एक राश्ट्रीय पर्व बना, वहीं संविधान दिवस संविधानविदों की मेहनत जीत को सुनिष्चित करता है। निहित मापदण्डों में देखें तो संविधान दिवस इस बात को भी परिभाशित और विष्लेशित करता है कि संविधान हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है? दुनिया का सबसे बड़ा लिखित भारतीय संविधान केवल राजव्यवस्था संचालित करने की एक कानूनी पुस्तक ही नहीं बल्कि सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का पथ प्रदर्षक है। नई पीढ़ी को यह पता लगना चाहिए कि संविधान का क्या महत्व है? 26 नवम्बर का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इस दिन संविधान अन्तिम रूप से प्रारूपित हुआ था बल्कि इस दिन भारत को वैष्विक पटल पर भारत को यह भी प्रदर्षित करने का अवसर मिला कि वह विविधताओं से भरे देष के लिए एक संविधान बना सकता है। सभी भारतीय नागरिकों के लिए यह किसी महापर्व से कम नहीं कहा जा सकता। 1949 से 2019 के बीच 70 बरस का फासला है। इस फासले को एक सूत्र में पिरोने का काम यदि किसी ने किया है तो वह संविधान है। इसलिए संविधान को सुषासन की कुंजी भी कह सकते हैं। रोचक यह है कि इसी संविधान दिवस के दिन देष की षीर्श अदालत महाराश्ट्र राज्य में चल रहे उथल-पुथल को लेकर कोई निर्णय ले सकती है। गौरतलब है कि महाराश्ट्र इन दिनों सत्ता और सियासत के उलटफेर में फंसा है और अब गेंद षीर्श अदालत के हाथों में है। जाहिर है कि संविधान का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे अवसर पर एक ऐसा निर्णय देना है जिसमें संविधान की गरिमा और उसकी निश्ठा कायम रहे। हालांकि षीर्श अदालत संविधान से खिलवाड़ करने वालों को समय-समय पर पटरी पर लाती रही है। यह संयोग ही है कि इस बार संविधान उन्मुख पथ को चिकना करने वाला फैसला उसी दिन आने की सम्भावना है जिस दिन संविधान दिवस है। 
देष में पनपी समस्याओं को लेकर भी निरन्तर यह सवाल उठते रहे हैं कि अभी भी देष सामाजिक समता और न्याय के मामले में पूरी कूबत विकसित नहीं कर पाया है। गरीबी से लेकर कई सामाजिक अत्याचार अभी भी यहां व्याप्त हैं पर इस बात को भी समझने की जरूरत है कि इससे निपटने के लिए बहुआयामी प्रयास जारी हैं। यह बात सही है कि संविधान दिवस का पूरा अर्थ तभी निकल पायेगा जब गांधी की उस अवधारणा को बल मिलेगा जिसमें उन्होंने सभी की उन्नति और विकास को लेकर सर्वोदय का सपना देखा था। इस अवसर पर संविधान की बनावट और उसकी रूपरेखा पर विवेचनात्मक पहलू उभारना आवष्यक प्रतीत हो रहा है। देखा जाए तो संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह एक ऐसा मंच था जहां से भारत के आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुईं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गयी। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहे। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करें तो यह किसी क्रान्ति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है।
संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है। सम्पूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गांधी दर्षन के परिप्रेक्ष्य लिए हुए हैं। गांधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं थी। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गयी कि विशमता, अस्पृष्यता, षोशण आदि का नामोनिषान न रहे पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाए तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरसता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थी और सही मायने में संविधान गढ़न से भी यह ओत-प्रोत था। संक्षेप में कहें तो जहां संविधान हमारी भारतीय व्यवस्था को समतल राह देती है वहीं इसी के चलते लोकतांत्रित प्रक्रिया का न केवल संचालन होता है, बल्कि जन अधिकार भी सुरक्षित रहते हैं। संविधान हमारी प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साझा समझ है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटाई पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते हैं। जिसके पास सत्ता नहीं है वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है। दो टूक यह भी है कि संविधान दिवस मनाने का मकसद नागरिकों को संविधान के प्रति सचेत करना, समाज में संविधान के महत्व का प्रसार करना है। 


सुशील कुमार सिंह
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Thursday, December 5, 2019

अर्थव्यवस्था पर विनिवेश की परत

मोदी सरकार का पहला कार्यकाल विनिवेष से अछूता रहा लेकिन अब अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए दूसरी पारी की सरकार द्वारा विनिवेष को तेजी से आजमाया जा रहा है। जाहिर है इससे सरकार को अतिरिक्त राजस्व मिलेगा पर इस हकीकत को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि एक सीमा के बाद इसके कई साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर 1991 का उदारीकरण व्यापक सफलता के लिए जाना जाता है परन्तु 2016 में की गयी नोटबंदी और जुलाई 2017 में लागू जीएसटी के बावजूद मौजूदा समय में आर्थिक नीति दयनीय स्थिति क्यों लिए हुए है यह चिंता का प्रमुख विशय है। नोटबंदी से उम्मीद थी कि जमा काला धन बाहर आयेगा और जीएसटी से यह अपेक्षा थी कि प्रतिवर्श 13 लाख करोड़ की उगाही होगी मगर जमीनी हकीकत कुछ और है। लाभ वाली सरकारी कम्पनियों में विनिवेष के मोर्चे पर सरकार का इरादा यह जताता है कि आर्थिक राह उनके लिए कठिन बनी हुई है। बड़ी बात यह है कि नाॅर्थ ईस्र्टन इलेक्ट्रिक पाॅवर काॅरपोरेषन में सौ फीसदी विनिवेष होगा जबकि काॅनकाॅर में 30.8 प्रतिषत हिस्सेदारी बेचने का फैसला हुआ है। भारत पेट्रोलियम समेत 5 कम्पनियां इसी राह पर हैं। दरअसल मुनाफे में चल रही भारत पेट्रोलियम का हिस्सा बेचने से सरकार को 60 हजार करोड़ की मोटी रकम मिलेगी और इन सभी का विनिवेष मार्च 2020 तक पूरा कर लिया जायेगा। विनिवेष के माध्यम से सरकार का लक्ष्य, इतने ही समय में एक लाख करोड़ रूपए से कुछ अधिक हासिल करने का है जो एक साल के जीएसटी की रकम से भी कम है। गौरतलब है कि बीपीसीएल में सउदी अरैमको और षेल जैसी बहुराश्ट्रीय कम्पनियां रूचि दिखा रही हैं। 
जिन अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में कमी, प्रति व्यक्ति आय में गिरावट और जनसंख्या आधिक्य के साथ गरीबी व बेरोज़गारी उठान लिये हो, सामान्यतः उसे विकासषील अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया गया है। मगर भारत जिसकी अर्थव्यवस्था मौजूदा समय में लगभग तीन ट्रिलियन डाॅलर की हो और 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की उम्मीद लिये हो। इतना ही नहीं दुनिया की सातवीं अर्थव्यवस्था और खरीदारी के मामले में तीसरी अर्थव्यवस्था की संज्ञा में हो, वहां आर्थिक सुस्ती, मंदी, जीडीपी में गिरावट, रोज़गार का छिन जाना समेत कई नकारात्मकता के चलते अर्थव्यवस्था रूग्णावस्था में हो, बात पचती नहीं है। मोदी सरकार ताबड़तोड़ तरीके से जिस तरह अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कार्य कर रही है उससे भरोसा बढ़ता है मगर आर्थिक संकट जस के तस बने रहने से विष्वास डगमगा भी रहा है। मौजूदा समय में विनिवेष का सबसे बड़ा अभियान देखा जा सकता है। जहां भारत पेट्रोलियम, बीपीसीएल, षिपिंग काॅरपोरेषन आॅफ इण्डिया समेत टीएचडीसी आदि कम्पनियों के विनिवेष के रास्ते खोल दिये गये हों, वहां यह अंदाजा लगाना आसान है कि अर्थव्यवस्था समतल मार्ग पर तो नहीं है। गौरतलब है तात्कालीन वाजपेयी सरकार ने घाटे में चल रही कुछ सार्वजनिक उपक्रमों की रणनीतिक बिक्री की थी जिसमें बाल्को की बिक्री सबसे पहले हुई थी। इसके लिए बाकायदा विनिवेष मंत्रालय भी पहली बार बनाया गया था जिसके पहले और आखिरी मंत्री वरिश्ठ पत्रकार अरूण षौरी हुआ करते थे। मगर उसके बाद मनमोहन सिंह की दस वर्शीय सरकार इसे अमल में नहीं लाया। जाहिर है एक अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह का दृश्टिकोण कहीं अधिक व्यापक रहा है। हालांकि 2004 में उन्होंने भी इस पर कदम उठाना चाहा मगर वामपंथ के समर्थन से चलने वाली सरकार उसके विरोध के चलते ऐसा नहीं कर पायी। बावजूद इसके इस दौरान जीडीपी लगभग 8 फीसदी थी, महंगाई दर 4 प्रतिषत से नीचे थी और विदेषी मुद्रा भण्डार भी कहीं अधिक बेहतर स्थिति में था। 
यह जाहिर है कि केन्द्र सरकार ने अपने वायदे के मुताबिक सरकारी कम्पनियों के विनिवेष का सिलसिला षुरू करने का फैसला कर लिया। सरकार का फैसला है कि कई उपक्रमों में वह अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम करेगी मगर उसका नियंत्रण बना रहे। ऐसे कौन से उपक्रम और कम्पनियां होंगे अभी इसका फैसला नहीं हुआ है। संदर्भ तो यह भी है कि सरकार का यह फैसला सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों पर भी लागू होगा। असल में सरकार का मकसद है कि बिगड़ी आर्थिक स्थिति को स्वस्थ करने के लिए अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी कर लिया जाय और मनमाफिक फण्ड जुटा लिया जाय लेकिन दुविधा यह भी है कि जब सरकार की हिस्सेदारी गिरेगी तो कई और मामलों में प्रभाव पड़ेगा। मसलन कामगारों की छटाई, आउटसोर्सिंग समेत ठेका व्यवस्था में बढ़ोत्तरी हो सकती है। इससे नई नौकरियों की संख्या में गिरावट और पुराने कामगारों के बेरोज़गार होने का संकट बन सकता है। सरकार को अपने नागरिकों की चिंता के लिए विनिवेष के साथ ऐसे भी नियम रखने की आवष्यकता होनी चाहिए कि उक्त समस्याएं नहीं आयेंगी। मौजूदा स्थिति को देखें तो ऐसा कोई नियम होगा कहना मुष्किल है। वैसे सरकार के विनिवेष वाली अवधारणा कुछ स्थानों पर सही प्रतीत होती है। मसलन बीएसएनएल और एमटीएनएल की स्थिति को देखें तो ये काफी कठिन दौर में हैं। स्थिति को देखते हुए अभी तक 77 हजार कर्मचारी वीआरएस के लिए आवेदन कर चुके हैं। एमटीएनएल को पिछले 10 सालों में से 9 साल घाटा रहा है। इतना ही नहीं दोनों कम्पनियां 40 हजार करोड़ रूपए के कर्ज में दबी है। 
सरकार विनिवेष और निगमीकरण के रास्ते पर चलकर काफी हद तक निजीकरण की ओर कदम उठा रही है। रेलवे स्टेषन और रेल गाड़ियां, हवाई अड्डे, कंटेनर काॅरपोरेषन, षिपिंग काॅरपोरेषन, एयर इण्डिया, राजमार्ग परियोजनाएं व भारत पेट्रोलियम समेत पांच सरकारी कम्पनियों की हिस्सेदारी की बिक्री इसी लक्षण से अभिभूत है।ये कदम कितने कारगर साबित होंगे यह आपसी साझेदारी में निर्धारित षर्तें तय करेंगी। दो टूक यह भी है कि सरकार घरेलू ईंधन, खुदरा व्यापार में बहुराश्ट्रीय कम्पनियों को लाना चाहती है जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ सके। सवाल यह है कि क्या विनिवेष ही अंतिम रास्ता है हालांकि वैष्विक अर्थव्यवस्था के उठान के इस दौर में सरकारें भले ही लोक कल्याण के पथ पर चलती हों पर आर्थिक और व्यापारिक दृश्टि से लम्बे समय तक घाटा नहीं झेल सकती। उसी का परिणाम विनिवेष जैसे मार्ग पर जाना होता है। भारत एक समाजवादी अर्थव्यवस्था है साथ ही पूंजीवाद का समावेष भी लिये हुए है। मिश्रित अर्थव्यवस्था के भीतर स्वतंत्रता और नियंत्रण दोनों साथ-साथ चलते हैं। इसमें स्वस्थ प्रतियोगिता होती है मगर बहुदा ऐसा रहा है कि आय का वितरण असमान और जनमानस के बीच असंतोश व्याप्त रहता है। उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व निजी और सरकारी दोनों का हो सकता है, पर ध्यान रहे कि निजी का उद्देष्य लाभ कमाना और सरकारी का लोक कल्याण है। यदि इस परिधि में सरकार खरी उतरती है तो विनिवेष का आर्थिक के साथ सामाजिक लाभ भी होगा। अन्यथा दोनों घाटे में हो सकते हैं।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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दोनों के बीच सम्बन्ध और मतभेद

श्रीलंका, भारत के दक्षिण हिस्से का एक छोटा द्वीप है जो सदियों से सम्बंध की जमावट लिये हुए है। सिंघली भाशियों का बाहुल्य है मगर तमिल भाशी भी यहां अच्छा-खासा प्रभाव रखते हैं। अन्तर्राश्ट्रीय राजनीति में भी इसका विषिश्ट महत्व रहा। भारत की तरह ही यह भी षान्तिवाद, गुटनिरपेक्षता, सहस्थित और दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बंधों में विष्वास रखता है। राश्ट्रमण्डल का सदस्य श्रीलंका कोलम्बो योजना के अन्तर्गत जिसकी रचना 1950 में राश्ट्रमण्डलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में की गयी। यहीं से दोनों के बीच आर्थिक रूप से सहयोग षुरू हुआ।मतभेद का मुख्य कारण भारतीय प्रवासियों का था। 1948 में यह तब षुरू हुआ जब सिलोन नागरिकता अधिनियम और सिलोन संसदीय अधिनियम 1949 के चलते दस लाख से अधिक दक्षिण भारतीय को इससे अलग कर दिया गया जो 1939 से लगातार वहां निवास कर रहे थे। नेहरू-कोटलेवाला समझौता 1954, षास्त्रीय-भण्डारनायके समझौता 1964 और दषकों पष्चात् 1882 से 1888 के बीच 
श्रीलंका के नये राश्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के सत्तासीन होने के पष्चात् भले ही भारत का दृश्टिकोण न बदले, मगर यह बात पूरे दावे से नहीं कहा जा सकता कि नई व्यवस्था पुराने द्विपक्षीय सम्बंधों पर चलेगी। बीते 18 नवम्बर को राश्ट्रपति के षपथ लेने वाले राजपक्षे इसी षर्त पर श्रीलंकाई मतदाताओं से मत लिया है कि वे सत्ता में आने पर चीन के साथ रिष्तों को और मजबूत बनायेंगे। गौरतलब है कि नवनियुक्त श्रीलंकाई राश्ट्रपति गोटाबाया, 2005 से 2015 तक राश्ट्रपति रहे महिन्द्रा राजपक्षे के भाई हैं। जिन्हें चीन से बेहतर सम्बंधों के लिए जाना और समझा जाता है। इन्हीं के कार्यकाल में चीन को हम्बनटोटा बंदरगाह और एयरपोर्ट का ठेका दिया गया था। दूसरे षब्दों में कहें तो हिन्द महासागर में चीन की विस्तारवादी नीति से इनके विचार एकरूपता लिए हुए थे। गौरतलब है कि हिन्द महासागर ने चारों तरफ से घेरने की चीन की योजना में श्रीलंका की नीतियों का कहीं अधिक योगदान है। जाहिर है एक बार फिर श्रीलंका में 5 साल राजपक्षे का परिवार राज करेगा और पूरी सम्भावना है कि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पद छोड़ेंगे और कयास यह भी है कि नवनियुक्त राश्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे अपने बड़े भाई महिन्द्रा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री बनायेंगे। उक्त से यह पूरी तरह संदर्भित है कि, भारत-श्रीलंका के सम्बंध एक बार फिर नये मोड़ लेंगे और श्रीलंका का चीन के साथ प्रसारवादी दृश्टिकोण पुनः अग्रसर होगा। हालांकि मद्रास विष्वविद्यालय से मास्टर डिग्री कर चुके गोटाबाया का और कई मामलों में भारत से पुराना नाता है। यूनाईटेड नेषनल पार्टी के उम्मीदवार सजित प्रेमदासा को 13 लाख वोटों से षिखस्त मिली है जो, यह दर्षाता है कि, श्रीलंका में बदलाव को लेकर मतदाता कितना आतुर था। वैसे कुल 35 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। हालांकि राजपक्षे को 52.25 फीसदी ही मत मिले हैं मगर प्रेमदासा बड़े फासले के साथ 41.99 प्रतिषत मत पर सिमट गये। इसमें कोई दुविधा नहीं कि, इस बदलाव को ध्यान में रखते हुए श्रीलंकाई नीतियों पर भारत की नजर रहेगी।
श्रीलंका में आये नये परिवर्तन भारत और चीन दोनों देषों के लिए रणनीतिक और कूटनीतिक नजरिये से बेहद अहम है। जाहिर है कि बीते 17 नवम्बर को आये चुनावी नतीजे पर दोनों देषों की पैनी निगाहें थी। व्यापारिक दृश्टि से ही नहीं दक्षिण एषिया पर चीन का विस्तारवादी दृश्टिकोण भी भारत के लिए मुसीबत का सबब रहा है और यह अभी भी बरकरार है। दो करोड़ से थोड़े ही अधिक आबादी वाले श्रीलंका में डेढ़ करोड़ से थोड़े ज्यादा मतदाता हैं जो न केवल अपने राज-काज चलाने वालों को चुनते हैं बल्कि भारत और चीन की भी चिंताओं को बढ़ा देते हैं। हांलाकि इस बार चिंता चीन के लिए नहीं भारत के लिए बढ़ी दिखाई देती है। भारत की चिंता यह रही है कि हिन्द महासागर मसलन श्रीलंका और मालदीव में चीन का वर्चस्व बढ़ता है तो यह भारत के द्विपक्षीय सम्बंधों पर ही नहीं दक्षिण एषियाई देषों के समूह सार्क भी उलझन में पड़ जाता है। चीन ने कोलम्बो बंदरगाह को भी विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई है जबकि भारत ने कोलम्बो बंदरगाह में ईस्टर्न कन्टेनर टर्मिनल बनाने को लेकर श्रीलंका के साथ एक समझौता किया है। इसके चलते भारत को आने वाला बहुत सारा सामान कोलम्बो बंदरगाह से होकर आता है। ऐसे में श्रीलंका में कोई भी सत्ता में आये भारत उससे सहयोग लेना चाहेगा। लेकिन राजपक्षे परिवार के रूख को लेकर भारत की चिंतायें अलग रही हैं। वैसे एक दौर ऐसा भी था जब दोनों देषों के बीच रिष्ते काफी नाजुक अवस्था में थे। गृहयुद्ध के बाद श्रीलंका के विदेषी मामलों में भारत की अहमियत कम हुई है। श्रीलंकाई तमिलों और भारत के बीच सम्बंध गृहयुद्ध के बाद अमूमन कमजोर तो हुए हैं। बहुत से तमिलों को भी लगता है कि भारत ने उन्हें धोखा दिया है। वहां के सिंघली भी भारत के साथ बहुत करीबी नाता नहीं महसूस करते। इतना ही नहीं भारत को तो एक खतरे के रूप में भी देखते हैं। जबकि वे ये जानते ही नहीं कि जिस खामोषी के साथ चीन उनकी गर्दन दबोच रहा है और भारत उतनी ही पारदर्षिता के साथ उनका विनम्र पड़ोसी और सहयोगी है। गौरतलब है कि चीन श्रीलंका में निवेष बढ़ाये हुए है और उसे कर्ज तले भी दबा रहा है। 
श्रीलंका बीते तीन दषकों से राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझ रहा है जिसके चलते वहां का समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में कब विभाजित हो गया पता ही नहीं चला। तमिल और सिंघली का मामला भी बरसों विवाद में ही रहा। इसके कारण भी द्विपक्षीय सम्बंध उतार-चढ़ाव लिये रहे और यह नेहरू काल से लेकर मोदी षासनकाल तक देखा जा सकता है। इसी साल जब 21 अप्रैल को श्रीलंका के तीन प्रमुख षहरों कोलम्बो, निगम्बो और बट्टिकलोवा में आतंकी हमला हुआ, जिसमें दो सौ से अधिक श्रीलंकाई के साथ कई भारतीय नागरिक मारे गये और सैकड़ों घायल भी हुए तो भारत के माथे पर चिंता की लकीरें उभरी थी। इसका प्रमुख कारण दक्षिण एषिया में भारत द्वारा लायी जाने वाली षान्ति की पहल को झटका था। प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए श्रीलंका का आतंकी हमले के बाद जून 2019 में दौरा किया और एक आषावादी दृश्टिकोण के साथ श्रीलंका की हिम्मत बढ़ाई थी। हालांकि वे 2015 और 2017 में इसके पहले श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं जो किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का 27 साल बाद किया गया दौरा था। मोदी द्वारा श्रीलंका की, की गयी यात्रा कई द्विपक्षीय समझौतों को जमीन भी प्रदान करता है और काफी हद तक आपसी विष्वास को बढ़ाता है। मगर अब यह कितना प्रासंगिक रहेगा कहना कठिन है। ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूदा श्रीलंकाई सरकार चीन की ओर झुकी रहेगी। यह बात पूरे दावे से इसलिए कह सकते हैं क्योंकि चुनावी प्रचार में यह एक हिस्सा था कि जीत होगी तो चीन से मजबूत सम्बंध होंगे। सामरिक दृश्टि से देखा जाय तो भारत और चीन पर लिट्टे के साथ हुए युद्ध का अलग-अलग असर रहा है। वैसे भारत श्रीलंका को लेकर तटस्थ रवैया रखता है। हालांकि 2009 में ही श्रीलंका में लगभग लिट्टे का सफाया हो चुका है। ध्यांतव्य हो कि चीन, श्रीलंका को लिट्टे के खिलाफ हथियार आदि की सहायता देकर कोलम्बो को बीजिंग के समीप उस दौर में ही कर लिया था जबकि भारत केवल समीप का पड़ोसी मात्र बनकर रह गया। ध्यानतव्य हो कि नवनियुक्त राश्ट्रपति गोटाबाया लिट्टे के खिलाफ कार्यवाही के दौरान रक्षा सचिव थे। 
राजपक्षे का जीतना चीन के लिए फायदेमंद ही नहीं बल्कि चीन के लिए भी एक बड़ी जीत है। गोटाबाया के भाई महिन्द्रा राजपक्षे 10 वर्शों तक श्रीलंका की सत्ता में रहे और यह वही दौर है जब चीन ने अपने निवेष में लगातार बढ़ोत्तरी की। महिन्द्रा राजपक्षे श्रीलंकाई राश्ट्रपति रहते हुए चीन से अरबों डाॅलर का उधार लिया और चीनी युद्धपोतों के लिए अपना घर खोल दिया। कमोबेष यह समझना सही रहेगा कि प्रेमदासा ने तर्कसंगत व्यापार नीति के साथ मैत्रीपूर्ण अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध विकसित करने का वादा किया था जो राजपक्षे से अलग करता है। चीन, श्रीलंका को जेट लड़ाकू विमान, परिश्कृत रडार और विमानभेदी तोप समेत बड़ी मात्रा में हथियार भी कम कीमत पर उपलब्ध कराया है। साल 2017 में श्रीलंका ने चीन के साथ करीब 4 सौ करोड़ डाॅलर के हथियारों का सौदा किया था। श्रीलंका में सरकार किसी की रही हो चीन का प्रभाव मानो थमा ही नहीं। हिन्द महासागर में चीन जिस तरह पकड़ बना रहा है वह भारत के लिए चिंता का सबब है। हालांकि दक्षिणी चीन सागर में अमेरिका, जापान और भारत की सहयोगी तिकड़ी ने उसे तुलनात्मक चिंता में डाला है। बावजूद इसके चीन का वर्चस्व रूकता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि भारत समुद्र की ओर से भी असुरक्षित महसूस कर रहा है। नेपाल के बाद श्रीलंका दक्षिण एषिया का दूसरा ऐसा देष है जहां हुए चुनाव में जीत उसकी हुई है जिसकी सोच भारत समर्थक की नहीं रही है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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सियासी सुर्ख़ियों में राजयपाल की भूमिका

महाराष्ट्र में जारी राजनीतिक गतिरोध के बीच बीते 12 नवम्बर को राज्यपाल की सिफारिष पर प्रदेष में राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया। गौरतलब है कि 24 अक्टूबर को विधानसभा चुनाव के आये नतीजे के बाद कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। हालाकि जोड़-तोड़ की राजनीति यहां जारी थी और षिवसेना राज्यपाल से और समय की मांग कर रही थी। मगर राज्यपाल भगत सिंह कोष्यारी ने इनकी गुहार नहीं सुनी। फिलहाल राश्ट्रपति षासन के चलते अब महाराश्ट्र विधानसभा निलबिंत अवस्था में रहेगी। बदले समीकरण के चलते महाराश्ट्र मे अब क्या होगा, यह प्रष्न सियासी हलकों में तैर रहा है। भाजपा और एनडीए से नाता तोड़ चुकी षिवसेना को यदि एनसीपी और कांग्रेस अभी भी समर्थन देते है तो संवैधानिक रूप से प्रदेष में सरकार के उदय को लेकर कोई दिक्कत नहीं होगी। वैसे माना जा रहा है कि राज्यपाल सरकार बनाने के आतुर दलों को और समय देते तो षायद राश्ट्रपति षासन की आवष्यकता ही नहीं पड़ती। ऐसे में सवाल है कि क्या राज्यपाल ने इस मामले में कोई जल्दबाजी दिखाई है। वैसे देखा जाये तो महाराश्ट्र सरकार का कार्यकाल 9 नवम्बर को समाप्त हो गया था जाहिर है सरकार गठन में हो रही देरी को देखते हुए, राज्यपाल ने इस तरह का फैसला लिया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 163 राज्यपाल को कई मामलों में एकमात्र न्यायाधीष बना देता है, जिनमें उनको अपने विवेक से कार्य करना होता है। महाराश्ट्र में राश्ट्रपति षासन उसी का नतीजा प्रतीत होता है। मगर राज्यपाल को सौंपी गई विवेकाधीन षक्ति निरपेक्ष नहीं है। संवैधानिक व विधिक दायरे से बाहर यदि इसका प्रयोग हुआ है तो न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है और ऐसा कई बार हो चुका है जिसके चलते राज्यपालों की भूमिका संदिग्ध पायी गई है। 
गौरतलब है कि राज्यपाल की नियुक्ति राश्ट्रपति मंत्रिपरिशद की सिफारिष पर करता है। यह आरोप अक्सर रहा है कि राज्यपाल केंद्र के इषारे पर कार्य को अंजाम देता है। माना तो यह भी जाता है कि गठबंधन सरकारों के दौर में तो राज्यपाल की भूमिका केंद्र के एजेंट के रूप में हो जाती है। उल्लेखनीय है कि राज्यपाल दो प्रकार की भूमिका निभाता है, एक राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में दूसरा राज्य पर नियंत्रण रखने व केंद्र सरकार को सूचना प्रदान करने के मामले में केन्द्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में। 1967 तक केंद्र और राज्य में एक दलीय सरकार का दौर था, ऐसे में राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक प्रमुख के रूप में ही सीमित थी। चैथे आम चुनाव से राज्यों में गैर-कांग्रेसी व गठबंधन सरकारों का उदय होने लगा जिसके चलते राज्यपाल की भूमिका भी बदल गयी, तभी से यह आलोचना और विवाद का भी केंद्र बना। राज्यपाल के पद का दुरूप्रयोग पहले आम चुनाव 1952 के बाद से ही देखा जा सकता है, जब मद्रास में अधिक विधायक वाले संयुक्त मोर्चा के बजाय कम विधायक वाले काग्रेसी नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। हालाकि की यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। साल भर पहले गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे में कांग्रेस बड़ी पार्टी थी पर सरकार बनाने के लिए राज्यपाल ने भाजपा को आमंत्रित किया। कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस गठबंधन का 115 संख्याबल के साथ बहुमत का आंकड़ा था जबकि राज्यपाल ने 104 सीट वाली भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। मामला षीर्श अदालत गया, राजनीतिक उठापटक के बीच यदुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था। अरूणाचल प्रदेष और उत्तराखण्ड में साल 2016 में राज्यपालों की भूमिका संदेह से तब घिरी, जब वहां राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया और सर्वोच्च न्यायालय के बीच मंे आने से सरकारें पुनः वापसी की।  
भारत का संविधान संघात्मक है, इसमें संघ तथा राज्यों के षासन के संबंध मंे प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153 से 156, 161, 163, 164(1) तथा 213(1) में राज्यपाल की संवैधानिक षक्तियों को उपबन्धित किया गया है। महाराश्ट्र के हालिया परिपेक्ष्य को देखें तो सवाल यह कि राज्यपाल सरकार बनाने के लिए यदि षिवसेना को और समय दे देते तो क्या इसमें कोई संवैधानिक संकट खड़ा होता। संविधान में अनुच्छेद 163 विवेकाधिकार की बात कहता है, पर यह कितना हो इसका कोई उल्लेख नहीं है। इसमें कोई षक नहीं कि, संविधान की रूपरेखा बनाये रखना राज्यपाल की जिम्मेदारी है, मगर संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष अम्बेडकर के वक्तव्य को देखें तो अनुच्छेद 356 का उपयोग अन्तिम विकल्प के तौर पर किये जाने की बात है। तो क्या महाराश्ट्र में राज्यपाल के समक्ष राश्ट्रपति षासन ही मात्र एक विकल्प था। यह संदेह को गहरा तो करता है। महाराश्ट्र में राश्ट्रपति षासन को देखते हुए षिवसेना ने न्यायालय का दरवाजा भी फिलहाल खट-खटा दिया है। राज्यपालों की भूमिका पर संदेह तब अधिक गहरा हुआ है जब केंद्र और राज्य की सरकारें अलग- अलग दल रही। त्रिषंकु की स्थिति में यह भूमिका कई अधिक संदेह से ग्रस्त देखी कई है। पड़ताल बताती है कि 1996 में उत्तर प्रदेष के राज्यपाल, रोमेष भंडारी, 2005 में बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह इतना ही नहीं जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा था। इसी तरह कर्नाटक व झारखड़ समेत विभिन्न राज्यों में राज्यपाल की भूमिका कई कारणों से टकराव के साथ संदेह लिये रही। 1954 में पंजाब सरकार इसलिए बर्खास्त कर दी गई थी क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री में मतभेद था, जबकि 1959 में केरल की नम्बूदिरीपाद सरकार का भी काम तमाम कर राश्ट्रपति षासन लगा दिया गया था।
 कर्नाटक में तो रामकृश्ण हेगड़े के समय से लेकर पिछले साल तक राज्यपाल को लेकर सियासी पैतरा देखा गया। नौ न्यायाधीषों की संवैधानिक खंडपीठ ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले में 1994 में जो निर्णय दिया, वह आज भी राजनीतिक क्षितिज पर सुर्खियां लिये रहता है, जो कर्नाटक से ही सम्बन्धित है। गौरतलब है के मौजूदा वक्त में 20 से ज्यादा राज्यों के राज्यपाल वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किये गये है। गौर किया जाये तो राज्यपालों की नियुक्ति की यह परिपाटी ही राज्यपाल की भूमिका से जुडे विवादों का मूल कारण है। जिसके चलते केंद्र-राज्य सम्बंध भी तनावपूर्ण देखे जा सकते है। अब तक इनकी नियुक्ति को लेकर 3 आयोग और 2 समिति गठित की जा चुकी हैं बावजूद इसके राज्यपाल का पद विवाद के बाहर नहीं आ पाया है। 1966 में प्रषासनिक सुधार आयोग, 1969 में राजमन्नार समिति, 1970 भगवान सहाय समिति, 1983 मंे गठित सरकारिया आयोग और 2011 में पुंछी आयोेग ने राज्यपालों की भूमिका को लेकर कई प्रकार की सिफारिषें की जिसमें सरकारिया आयोग इस मामले में कई अधिक सषक्त दिखा। उसका मत है कि इस पद पर गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। फिलहाल राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और परिस्थितियों के साथ इसकी पड़ताल सम्भवतः आगे भी सम्मान के दायरे में होती रहेगी।   



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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सद्भावना की तुरपाई करने वाला फैसला

  जब न्याय, समाजषास्त्र और धर्मषास्त्र के समुचित समिश्रण के साथ एकजुटता के मार्ग से गुजरता है, तो इतिहास बनना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या मामले में आया सुप्रीम फैसला हिन्दू-मुस्लिम रिष्तों की तुरपाई करते हुए लोगों के बीच जिस सद्भावना के साथ उतारा गया उसे देखते हुए कह सकते है कि, देष को अपेक्षा भी कुछ ऐसी ही थी। न्यायालय का यह फैसला देष की एकजुटता में भी मानो एक गूंज है। गौरतलब है 9 नवम्बर, 2019 की तारीख, इतिहास में दर्ज एक ऐसा साक्ष्य है जो सदियों तक नहीं भुलाया जा सकेगा। सैकड़ो वर्श पुराने मामले और दषकों से चल रहे विवाद को षीर्श अदालत ने जड़ से समाप्त कर दिया। देष की सर्वोच्च न्यायालय ने जब उक्त तिथि को सिलसिलेवार तरीके से फैसला सुनाना षुरू किया तो यह न  केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया को सद्भावना की आगोष में ले लिया। गौरतलब है कि अयोध्या के राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मामले में षीर्श अदालत ने फैसला सुनाकर उस विवाद को नेस्तोनाबूत कर दिया जिसकी नींव आज से 400 साल पहले 1528 में पड़ी थी। पहली बार यह विवाद अदालत की दहलीज पर 1885 में पहुंचा था। इसके पष्चात से एक-एक कर हिंदू-मुस्लिम पक्षकार आते और जाते रहे, परन्तु कानूनी दांवपेंच में यह मामला न केवल उलझता रहा बल्कि सियासी गलियारे में भी दषकों से चर्चे के केन्द्र में रहा। जाहिर है,  अब फैसले के बाद मंदिर निर्माण का न केवल रास्ता साफ हो गया बल्कि मस्जिद निर्माण हेतु अलग से जमीन आवंटित करने का निर्णय धार्मिक सद्भावना का जबरदस्त उदाहरण है। 
राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद केस पर फैसला आ चुका है फिर भी इसके इतिहास पर एक नजर डाले तो पड़ताल बताती है कि, जिस स्थान पर 1528 में मंिस्जद का निर्माण हुआ था। हिन्दू मान्यता के अनुसार इसी जगह पर भगवान राम का जन्म हुआ था। 1853 में हिन्दूओं का आरोप था कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ है, जिसे लेकर विवाद गहराया और दोनों पक्षों के बीच संघर्श हुआ। साल 1859 में ब्रिटिष सरकार ने तारों की एक बड़ी बाड़ खडी़ करके अन्दर और बाहर के परिसर में हिन्दू और मुस्लिम को अलग-अलग प्रार्थना करने के इजाजत दी। दषक बीतते गये और मामला 1885 में पहली बार तब अदालत पहुंचा जब महंत रघुवर दास ने फैजाबाद कोर्ट से बाबरी मस्जिद के पास ही राम मंदिर निर्माण की इजाजत मांगी, तब देष औपनिवेषिक सत्ता में था। आजादी के बाद 23 दिसम्बर 1949 में लगभग 50 हिन्दूओं ने मस्जिद के केन्द्रीय स्थल पर जैसे की कहा जाता है, भगवान राम की मूर्ति रख दी। इसके बाद उस स्थान पर हिन्दू समुदाय के लोग नियमित पूजा करने लगे और इसी के साथ मुसलमानों ने यहां नमाज पढ़ना बंद कर दिया। सिलसिलेवार तरीके से मामला आगे बढता रहा, मंदिर निर्माण को लेकर जब-तब कई प्रयास भी हुए। इसी दौरान बाबरी मस्जिद 1992 में ढ़हा दी गयी। जुलाई 2009 में लिब्राहन आयोग ने 17 साल बाद रिपोर्ट सौंपी। 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया और विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया गया। जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड जबकि तीसरा निर्मोही अखड़ा को देने का निर्णय दिया। वर्तमान में देष की षीर्श अदालत ने एक ऐसा ऐतिहासिक निर्णय दिया जो अंतिम और अटल सत्य है, जिसी बाट देष की जनता जोह रही थी।
षीर्श अदालत ने क्या फैसला दिया इसकी फेहरिस्त तो 1045 पेज तक जाती है, परन्तु मुख्य रूप से देखें तो साक्ष्य और सभी संदर्भों को ध्यान में रखकर अदालत ने नतीजे सबके सामने स्पश्ट रूप से रख दिये। प्रधान न्यायाधीष सहित 5 जजों की विषेश बैंच ने 40 दिन की लगातार सुवनाई के बाद यह निर्णय दिया कि, वर्शो से रामलला जहां विद्मान है वे वहीं रहेंगे, जबकि सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिये मस्जिद बनाने हेतु 5 एकड़ की अलग से जमीन आवंटित करने का फैसला लिया गया। तीन पक्षकारों में एक और पक्षकार निर्मोही अखाड़ा को इस मामले से खारिज कर दिया गया। खास यह है कि प्रधान न्यायाधीष समेत सभी न्यायाधीषों की इस फैसले में सहमति थी और अब निर्णय को लेकर देष भी एकजुटता दिखा रहा है। सियासी तौर पर भी सभी दल इस फैसले का स्वागत करते दिखे। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम ही करार दे रहे है। इस मौके पर बाबरी मस्जिद के मुद्दई मोहम्मद हाषिम अंसारी की भी याद ताजा हो गई, जिनका जुलाई 2016 में 95 वर्श की आयु में इंतकाल हो गया था। गौरतलब है की 1949 में बाबरी मस्जिद के मामले में मुद्दई बने हाषिम अंसारी इसके पक्षकार थे। षिक्षा में तो मात्र दो दर्जा तक ही थे पर कानूनी लड़ाई में इन्होंने एक युग निकाल दिया था। यदि आज वह जिंदा होते तो षीर्श अदालत के इस निर्णय पर सर्वाधिक खुष होने वालों में उनका भी नाम षुमार होता। श्रीराम जन्मभूमि विवाद का एक धु्रव महन्त रामचन्द्रदास परमहंस थे, तो दूसरा हाषिम अंसारी हुआ करते थे। खास यह भी है कि कभी-कभी दोनों मुकदमे की तारीख पर एक ही कार में बैठकर अदालत जाया करते थे, जब परमहंस की मृत्यु हुई तब हाषिम असंारी ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ाई में मजा नहीं आयेगा। हाषिम अंसारी कहते थे कि वे मंदिर निर्माण के विरोधी नहीं है बल्कि वे पता करना चाहते है कि यहां वास्तव में था क्या? 
राम जन्मभूमि को लेकर मुकदमा लड़ने वालों के बीच भी जब इतनी बड़ी सद्भावना थी, तो फैसला इससे अलग कैसे हो सकता था। यह भारत की विभिन्नता में एकता का ऐसा प्रतीक है, जिसे आज दुनिया एक बार फिर से समझने के लिए मजबूर हो रही होगी। फैसला पढ़ते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि बाबरी मस्जिद को मीर बाकी ने बनवाया था, उन्होने कहा कि कोर्ट के लिए आस्था के मामले में दखल देना सही नहीं है। यह कथन इस बात को भी पुख्ता करता है कि अदालत हो या आम व्यक्ति आस्था के मामले में काफी हद तक एक जैसा ही सोचता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को लेकर चीफ जस्टिस ने इसे संदेह से परे बताया। स्पश्ट है कि एएसआई जैसी पुरातात्विक संस्थाओं को भी अदालत ने पूरा मान दिया है। गौरतलब है कि पहला सर्वेक्षण 70 के दषक में हुआ था लेकिन जो सर्वेक्षण साल 2003 में किया गया था उस सर्वेक्षण करने वाले में 3 मुसलमान षामिल थे। संदर्भित है कि 6 दिसम्बर 1992 को जिस बाबरी मस्जिद विध्वंस के चलते देष दषकों से तनाव में रहा और इसे लेकर कई अनेकों राजनेताओं ने सियासी पैंतरे के साथ मुकदमांे की जो जहमत झेली और करोड़ों रामभक्त जिस मंदिर निर्माण को लेकर दषकों से समाधान की राह खोज रहे थे, उन सभी को इससे बड़ी राहत मिली होगी। भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृश्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोषी की चर्चा करना यहां जरूरी प्रतीत होता है। आडवाणी की रथ यात्रा षायद ही कोई भूला हो और विवादित ढ़ाचा ढहाने के मामले में कई भाजपाई दषकों से मुकदमें की चपेट में रहे। इनके अलावा विष्व हिन्दू परिशद के अषोक सिधंल की भी आत्मा आज के निर्णय से संतुश्ट जरूर हुई होगी। साधु-संतों की धर्म संसद और बार-बार मोदी सरकार को यह चेताना कि मंदिर पर सरकार यदि कोई निर्णय नहीं लेती तो वह उसके खिलाफ खड़े होंगे। पिछले साल नवम्बर में जब षीर्श अदालत ने सुनवाई को जनवरी के लिए टाल दिया, तब प्रधानमंत्री मोदी पर मंदिर निर्माण हेतु अध्यादेष लाने को लेकर दबाव बढ़ा था जिसे उन्होंने खारिज करते हुए कहा था, कानूनी प्रकिया पूरी होने के बाद भी अध्यादेष पर फैसला लिया जा सकता है। इतिहास के भीतर इतिहास कैसे बनता है यह षीर्श अदालत के 9 नवम्बर के दिये फैसले में झांक कर देखा जा सकता है, जो आस्था और सद्भावना का ऐतिहासिक उदाहरण है।  



सुशील कुमार सिंह
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