Friday, June 30, 2017

आर्थिक इंजन जीएसटी की उड़ान

बरसों की कवायद के बाद आखिरकार जीएसटी आज धरातल पर उतर गया। सम्भव है कि तमाम महत्वाकांक्षी अवधारणा से पोषित  आर्थिक परिवर्तन का गुणात्मक पक्ष लिये जीएसटी देश  की तस्वीर बदल देगा। गौरतलब है कि वर्श 2014 के षीत सत्र से जीएसटी को लेकर आंख मिचैली चल रही थी। हालांकि इसकी कहानी एक दषक पुरानी है पर बीते तीन वर्शों में इसे लेकर जो कोषिषें मोदी सरकार में हुई वैसी षायद पहले नहीं हुई थी। वर्श 1991 में जब उदारीकरण देष में आया तब भी देष बदलने की आस जगी थी और उस पर वह खरा भी उतरा। जाहिर है ढ़ाई दषक बाद यह दूसरा परिप्रेक्ष्य है जब एक बार फिर आर्थिक परिवर्तन की उम्मीद जीएसटी के चलते जगी है। देष में गुड्स एवं सर्विसेज़ टैक्स यानी जीएसटी लागू होने को स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक कदम भी माना जा रहा है। गौरतलब है पिछले कुछ महीनों से राजनीति के क्षितिज पर जीएसटी ही छाया रहा और अब 1 जुलाई को लागू होने के साथ इसका पटाक्षेप तो हो जायेगा पर इसके नतीजे को लेकर चर्चाओं का बाजार षायद अभी थमने वाला नहीं है। जब 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी का एक बड़ा आर्थिक फैसला मोदी सरकार की ओर से आया था तब भी देष की राजनीति में भूचाल और जनमानस में कई प्रकार की हलचलों का दौर था। बाद में आई रिर्पोटों से यह भी परिलक्षित हुआ कि देष के विकास दर की रफ्तार थमी है परिणामतः जीडीपी में 1 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी। हालांकि सरकार इसकी वजह नोटबंदी नहीं मानती। फिलहाल पूरे देष में एक समान कर प्रणाली लागू करने का सपना जीएसटी के माध्यम से पूरा हो गया है साथ ही अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में ऐतिहासिक बदलाव के साथ इसे अंजाम तक पहुंचा भी दिया गया है। इतना ही नहीं आने वाले दिनों में जब भी सरकारों की सियासत परवान चढ़ेगी तो जीएसटी लागू करने के लिए मोदी का नाम सुर्खियों में जरूर रहेगा। 
जीएसटी के क्या फायदे हैं और क्या नुकसान हैं इसकी चिंता भी खूब होती रही है? इसे लेकर बीते कुछ महीनों से आंकड़े और सूचनाएं भी परोसी जाती रही हैं। सरकार भी इसे लेकर काफी सफाई देती रही। स्पश्ट है कि सरकार दो तरह के कर लेती है जिसे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष के तौर पर जाना जाता है। आयकर प्रत्यक्ष तो किसी समान या सेवा पर लगाया गया कर अप्रत्यक्ष की श्रेणी में माना जाता है। कमाई भी अप्रत्यक्ष कर में अधिक है और इसका एक हिस्सा राज्यों को भी देना होता है लेकिन इसकी अपनी एक दिक्कत यह है कि कई समानों पर अप्रत्यक्ष करों की दरों में एक राज्य से दूसरे राज्यों में व्यापक अंतर था। इसी को समाप्त करते हुए इसे एक रूप दिया गया और इसका नारा है एक राश्ट्र, एक कर। राहत यह है कि इस कर से रोज़मर्रा के खाने-पीने के समान को मुक्त रखा गया है। जाहिर है यहां बदलाव सस्ते की ओर है परन्तु कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर करों में फेरबदल का पूरा असर है। टेलीकाॅम, रेस्टोरेंट में खाना खाना, हवाई टिकट समेत अस्पताल, बीमा, बैंकिंग आदि पर इसका प्रभाव महंगा दिखेगा। षिक्षा पर कोई कर नहीं है पर कोचिंग की षिक्षा पर तुलनात्मक तीन फीसदी बढ़त से यह क्षेत्र महंगा हुआ है। देखा जाय तो जीएसटी 5 फीसदी से लेकर 28 फीसदी के बीच है। जाहिर है कर के उतार-चढ़ाव के चलते कुछ सस्ती तो कुछ महंगी वस्तुएं बाजार में देखने को मिलेंगी। उदारीकरण के बाद से भारत की अर्थव्यवस्था में व्यापक फेरबदल देखने को मिला था। तब देष के वित्त मंत्री पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ0 मनमोहन सिंह थे जो जीएसटी को लेकर हमेषा सकारात्मक राय रखते रहे। ये बात और है कि प्रमुख विपक्षी कांग्रेस मोदी की इस नीति से चार कदम की दूरी अभी भी बनाये हुए हैं जबकि जीएसटी वर्श 2006-07 के बजट में यूपीए के कार्यकाल में ही पहली बार प्रस्तावित किया गया था।
क्या जीएसटी को लेकर किसी को इतना भी नुकसान है कि बड़ी हड़ताल देष में की जाय। बीते गुरूवार को जीएसटी के विरोध में कपड़ा व्यापारी सड़क पर हैं। गौरतलब है कि कपड़े पर 5 फीसदी जीएसटी लगाने का विरोध किया जा रहा है। इनका मानना है कि 70 साल के इतिहास में कभी भी कपड़े पर कोई टैक्स नहीं लगा। यहां यह बात स्पश्ट करने में सरकार षायद सफल नहीं रही कि 5 फीसदी का कर तुलनात्मक कई करों से कम ही है पर यदि ऐसा नहीं है तो सभी वर्गों को यह प्रभावित करेगा। दो टूक यह भी है कि जीएसटी को लेकर सरकार की रणनीति प्रसारवादी कम रजानीति से प्रेरित अधिक रही है। दूसरे षब्दों में कहें तो राज्य की सरकारों को केन्द्र सरकार विष्वास में लेती रही जबकि जनमानस सहित तमाम कारोबारी एवं व्यापारी के मामले में यह जहमत नहीं उठायी। षायद उसी का नतीजा कपड़ा व्यापारियों की हड़ताल है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में हो सकता है सरकार को इस तरह की दिक्कतें और झेलनी पड़े। सवाल यह भी है कि क्या जीएसटी एक जोखिम भरा कदम है यदि है तो इसके लागू होने के कुछ समय बाद ही पता चलेगा। देष इससे कितना मुनाफा ले सकता है जाहिर है 1 जुलाई से लागू जीएसटी भारत के आर्थिक दुनिया को नया मोड़ देगा पर कई मोड़ धुंध से भी घिरे हो सकते हैं जैसा कि विष्व के तमाम देषों में लागू जीएसटी वाले देषों की पड़ताल बताती है। 
गौरतलब है दुनिया के सैकड़ों देष अब तक जीएसटी को अपना चुके हें। इस सूची में अब भारत भी षामिल हो गया है। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि बहुतायत की स्थिति षुरूआती दिनों में सुखद नहीं रही है। पड़ताल बताती है कि एषिया के 19 देषों में इसी प्रकार के कर प्रावधान हैं जबकि यूरोप में तो 53 देष इसमें सूचीबद्ध हैं। इसी प्रकार अफ्रीका में 44, साउथ अमेरिका में 11 समेत दुनिया भर में सौ से अधिक देष इसमें षुमार हैं। रोचक यह भी है कि जीएसटी को लागू करने वाली कई सरकारों की आगामी चुनाव में वापसी नहीं हुई अर्थात् जीएसटी भी एंटी इन्कम्बेंसी का काम करती है। देखा जाय तो आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान और सिंगापुर जैसे देषों ने 1991 से 2000 के बीच जीएसटी को लागू किया पर जीडीपी में गिरावट का दौर चला। सिंगापुर जैसे देषों की गिरावट तो कहीं अधिक नकारात्मक थी। मलेषिया में 2015 में जीएसटी लागू हुआ था यहां भी गिरावट दर्ज तो की गयी पर वापसी करने वाले देषों में यह सर्वाधिक षीघ्रता के लिए भी जाना जाता है। हालांकि जिन देषों ने जीएसटी अपनाया और जिनकी हालत षुरूआती दिनों में उम्मीद से अधिक खराब हुई उसके पीछे एक कारण टैक्स स्लैब भी माना जा सकता है साथ ही इन देषों की जनसंख्या और आर्थिक संदर्भ व संसाधन भी काफी हद तक जिम्मेदार रहे हैं। भारत जनंसख्या के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देष है साथ ही यहां कि आर्थिकी औरों की तुलना में भिन्न और काफी हद तक स्थायित्व लिये हुए है। ऐसे में जीएसटी का जीडीपी पर बहुत अधिक असर न होने का अनुमान तो है पर असर नहीं होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भारत में टैक्स स्लैब चार प्रकार के हैं साथ ही कुछ वस्तुओं को इससे मुक्त भी रखा गया है जबकि तमाम देषों में टैक्स स्लैब एक ही थे और कर की दर भी कम थी मसलन आॅस्ट्रेलिया में 10 फीसदी था। अन्ततः जीएसटी की उड़ान से कर चोरी घटेगी, ईमानदार कारोबारियों को लाभ मिलेगा, बार-बार कर चुकाने के झंझट से मुक्ति भी मिलेगी और एक राश्ट्र, एक कर की भावना से राश्ट्रीय एकता और अखण्डता को तुलनात्मक कहीं अधिक बल भी मिलेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, June 22, 2017

बड़ी क्रांति की आहट जनसंख्या रिपोर्ट

तीन दशक पहले भारत में जनसंख्या नियंत्रण को पुख्ता करने के लिए जब हम दो, हमारे दो के नारे गूंज रहे थे तब षायद ही किसी ने इसके प्रति गहरी संवेदनषीलता और भविश्य में इसके प्रभावों को लेकर गहरी सोच रखा हो। ध्यान आता है कि प्राइमरी स्कूल की दीवारों पर इस प्रकार के ष्लोगन भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे मिलते थे। आज भी कुछ सार्वजनिक स्थानों मसलन रेलवे स्टेषन एवं बस अड्डों आदि की दीवारों पर जीवन सुरक्षा, पर्यावरण के प्रति चेतना तथा जनसंख्या की वृद्धि के प्रति आगाह एवं इसके साइड-इफेक्ट को ध्यान में रख कर लिखे गये ष्लोगन नजरों के सामने से कभी कभार गुजर ही जाते हैं पर नज़रअंदाज करने की आदत के चलते इस पर गम्भीरता का भाव षायद ही अब भी पनपता हो। अब जो बात कहने जा रहे हैं उसे जानने समझने के बाद सभी वर्गों की मुष्किलें बढ़ा सकता है। संयुक्त राश्ट्र की हालिया रिपोर्ट ने यह अलर्ट जारी कर दिया है कि मात्र 7 वर्श बाद अर्थात् 2024 तक भारत की आबादी चीन से अधिक हो जायेगी साथ ही 2030 तक भारत सवा अरब से डेढ़ अरब वाला देष हो जायेगा। हालांकि 2021 और 2031 की जनगणना से चित्र षीषे की तरह साफ हो जायेगा। संयुक्त राश्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मामले के विभाग ने ‘द वल्र्ड पाॅपुलेषन प्राॅस्पेक्ट्स: द 2017 रिवीज़न‘ रिपोर्ट जारी करते हुए यह आगाह किया है कि मौजूदा चीन की जनसंख्या जो 1 अरब 41 करोड़ है उसकी तुलना में भारत 1 अरब 34 करोड़ तक पहुंच रहा है और यह फासला जल्द ही तय कर लेगा। जिस परिप्रेक्ष्य में जनसंख्या को लेकर बरसों पहले से चिंता होती रही है और उनमें संवेदनषीलता का जिस कदर आभाव था उसी का नतीजा यह रिपोर्ट है। देष में प्रति दस वर्श में एक बार जनसंख्या की गिनती होती है और हर बार आंकड़े देख कर एक नये सिरे से नियंत्रण की कवायद षुरू होती है पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे हैं। नियंत्रण की दर बहुत कमजोर है यह बात किसी से छुपी नहीं है पर मजबूत कैसे होगी सरकारों के प्रयासों को देखते हुए लगता है कि निदान इनके पास भी नहीं है। 
हमारी सामूहिक भौतिक समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या वृद्धि ही है यह बात जितनी षीघ्र समझ में आ जायेगी निदान उतना ही समीप होगा। भारत की भूमि और मौजूदा अर्थव्यवस्था जितने लोगों का भार वहन कर सकती है मामला उससे ऊपर तो जा चुका है। चारों तरफ बिगड़ा संतुलन इसके साइड इफेक्ट ही हैं। इसके पहले अनुमान यह था कि भारत जनसंख्या के मामले में चीन को 2028 में पीछे छोड़ेगा पर यह अनुमान भी गलत सिद्ध हो गया। बावजूद इसके जिस गति से भारत में जनसंख्या को लेकर गिरावट दर्ज की गयी है उसके अनुपात में अनुमान है कि 2050 के बाद ही इसमें कमी परिलक्षित होगी पर तब तक देष की आबादी कहां जाकर रूकेगी इसका अनुमान तो किसी के पास नहीं है। आंकड़े इसका भी समर्थन करते हैं कि इतने ही वर्शों में दुनिया के दस देषों की आबादी पूरी दुनिया की तुलना में आधी होगी। वैसे देखा जाय तो इन दस देषों में षामिल नाइजीरिया की आबादी सबसे तेजी से बढ़ रही है और 2050 तक यह भारत, चीन के बाद तीसरा सर्वाधिक आबादी वाला देष होगा। अब यहां यह समझना होगा कि इतने बड़े हिस्से की जरूरत पूरी कैसे हो। भारत में 65 फीसदी युवा रहता है। हालात यह है कि सरकार दो फीसदी से अधिक नौकरी दे नहीं सकती। इसमें भी कटौती जारी है। निजी संस्थानों में काबिलियत और कूबत परवान चढ़ रहे हैं। यहां भी सम्भावना उन्ही की है जो हुनरमंद है। अब सवाल है कि करोड़ों की तादाद में प्रतिवर्श की दर से बढ़ रहे बेरोज़गार युवक कहां खपत होंगे। यह केवल सरकार को सोचना है या अन्य को भी बता पाना मेरे लिये भी मुष्किल है। अमेरिका जैसे देष भी संकुचित सोच की ओर जा रहे हैं। खाड़ी देष भी रोज़गार के मामले मे पहले जैसे खुले विचारों के नहीं रह गये। यूरोपीय देषों में भी हाल कम खराब नहीं है। ऐसे में आने वाले दिनों में दिषा तय करना यदि मुष्किल होगा तो यह जनसंख्या का साइड इफेक्ट ही कहा जायेगा। 
अपर्याप्त भोजन फिलहाल उनके लिए जो दो जून के लिए आज भी तरस रहे हैं पर जनसंख्या पर काबू नहीं रहा तो समस्या सबके लिए बढ़ेगी। कम उत्पादन और कर्ज के दबाव में किसान मौत को गले लगा रहे हैं चाहे उपज की कीमत की समस्या हो या घट रहे जोत की हो या उसमें गिरता उत्पादन की दर हो। यहां भी जनसंख्या विस्फोट ही अक्ष पर घूमता दिखाई देता है। प्रसिद्ध अर्थषास्त्री माल्थस ने लिखा है कि जिस गति से जनसंख्या का प्रवाह बढ़ता है उस गति से उत्पादन बढ़ सकना सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए समझदार लोगों का कत्र्तव्य है कि अपने समाज में अनावष्यक जनसंख्या न बढ़ने दें। यह बात सभी जानते हैं कि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से संसाधन उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। राश्ट्रीय विकास की दृश्टि से जीवन स्तर उठाने का पूरा प्रयत्न हुआ है। अषिक्षा, दरिद्रता और बीमारी से जंग अभी भी लड़ी जा रही है बावजूद इसके भारत में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतना ही अषिक्षित है। व्यक्तिगत जीवन में भी जनसंख्या विस्फोट का घातक प्रभाव पड़ रहा है। बच्चों का उचित पालन-पोशण न हो पाना साथ ही षिक्षा, स्वास्थ समेत बुनियादी मांगों को पूरा न कर पाने की वर्ग विषेश में मुष्किलें साफ-साफ दिखने लगी हैं। ऐसे कई समस्याएं जनसंख्या के साइड इफेक्ट के तौर पर पंक्तिबद्ध की जा सकती हैं। इसमें कोई षक नहीं कि भारत में अनियंत्रित जनसंख्या का प्रवाह हो रहा है जैसा कि आंकड़े इषारा कर रहे हैं यह इस बात की भी आहट है कि इसमें कोई विस्फोटक क्रान्ति छुपी हुई है।
पहला सवाल यह उठता है कि क्या इस पर नियंत्रण को लेकर समय निकल गया है या अभी बचा है। 1951 में 36 करोड़ का देष जब डेढ़ अरब के कगार पर हो तो समय निकला हुआ ही कहा जायेगा। दूसरा सवाल है कि सरकारों ने क्या किया साथ ही प्रष्न यह भी है कि नागरिकों ने क्या किया? सरकार पहली जनसंख्या नीति 1948 में लाई इसके बाद 1974 में तत्पष्चात् 1976 में कुछ बदलाव किये पर तीव्रता पर कोई लगाम नहीं लगा। वर्श 2000 में एक नई जनसंख्या नीति आई जिसमें जनसंख्या दर में गिरावट के साथ छोटे परिवार की अवधारणा का विकास करना षामिल था। इसी में यह भी था कि 2045 तक स्थिर जनसंख्या का लक्ष्य प्राप्त किया जायेगा। 2001 की जनगणना के समय देष की जनसंख्या 84 करोड़ से 102 करोड़ हुई थी जबकि 2011 में यह आंकड़ा 121 करोड़ पर जाकर रूका। तुलनात्मक गिरावट दर्ज हुई पर भयावह स्थिति को रोकना सम्भव नहीं हुआ। आखिर जनसंख्या नीति भारत में इतनी असफल क्यों और चीन में इतनी सफल क्यों है? साफ है भारत में जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर चीन जैसी कठोर नीति कभी अपनाई ही नहीं गयी। चीन में दषकों तक एक बच्चे का प्रावधान था जबकि भारत में इसकी कोई चिंता नहीं की गयी। इसके पीछे सरकारों की उदासीनता अव्वल रही है। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति के चलते राजनेता जनता को भगवान करार देते रहे पर वे किस आपदा में फंसेगे इससे वे अनभिज्ञ बने रहे। अब तो पानी सर के ऊपर बह रहा है। मौजूदा मोदी सरकार तीन बरस की सत्ता हांकने के बाद भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की। फिलहाल संयुक्त राश्ट्र की इस हालिया रिपोर्ट से यह भी स्पश्ट हुआ है कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में भारत न केवल फिसड्डी है बल्कि कई समस्याओं का जन्मदाता भी है। 


सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, June 21, 2017

दांव राष्ट्रपति का दृष्टि अगली सत्ता पर

प्रबंध षास्त्र में एक स्थान पर यह पढ़ने को मिला था कि जनवाद की विचारधारा का मुंह यदि अपनी ओर मोड़ना हो तो भले ही आपका तात्कालिक निर्णय कईयों के गले न उतरे पर दीर्घकालिक नतीजे गुणोत्तर में होने चाहिए। ठीक इसी तर्ज पर मौजूदा सरकार चला रहे मोदी के राश्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के निर्णय और उसमें छुपे भविश्य के नतीजे जांचे-परखे जा सकते हैं। विदित हो कि बीते दिनों एनडीए की ओर से राश्ट्रपति पद के लिए बिहार के गवर्नर अब इस्तीफा दे चुके रामनाथ कोविंद को चुना गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि राश्ट्रपति के उम्मीदवार को लेकर बीते कुछ दिनों से जो भी कयास चल रहे थे उन सभी पर विराम लगाते हुए एक बार फिर मोदी के निर्णयों ने सभी को चैंका दिया। रामनाथ कोविंद का नाम जैसे ही फलक पर आया सियासत का बाजार भी गरम हो गया। विपक्षियों की सरगर्मी भी तेज हुई साथ ही आगे की रणनीति को लेकर अटकलें भी लगाई जाने लगी। दलित के बदले दलित उतारने की कवायद भी जोर पकड़ने लगी जिसमें पूर्व स्पीकर मीरा कुमार का नाम हवा में तैरने लगा। हालांकि अभी विपक्ष के पूरे पत्ते नहीं खुले हैं परन्तु यदि पत्ते खुलते भी है तो भी एनडीए में बेचैनी कम ही होगी क्योंकि कुछ पत्ते पहले से ही बिखरे और खुले हुए हैं। देखा जाय तो मोदी से बरसों से खार खाये बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार सर्मथन देने से मना नहीं किये हैं। घोशणा के दिन से भंवे ताने बैठे उद्धव ठाकरे भी अब साथ खड़े हैं। टीआरएस भी समर्थन का संकेत कर चुकी है जबकि उड़ीसा के नवीन पटनायक साथ होने का एलान पहले ही कर चुके हैं। चुनाव की राह में रोड़े अधिक नहीं है पर षिकायत तो कईयों की बहुत है। बहुजन समाज पार्टी मुखिया मायावती दलित चेहरे की स्थिति को देखते हुए मना तो नहीं कर पाई हैं पर असमंजस से जरूर गुजर रही होंगी। वामपंथ की षिकायत यह है कि उम्मीदवारी के मामले में निर्णय एकतरफा है। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी असंतोश व्यक्त कर रही हैं। हालांकि मामला इतना टेढ़ा नहीं है कि रामनाथ कोविंद के विरोध में नतीजे आयें पर मोदी समेत एनडीए का इरादा कुछ और ही है। 
देखा जाय तो राश्ट्रपति के चुनाव को लेकर आंकड़े एनडीए की ओर झुके हुए दिखाई देते हैं पर एनडीए का मानना है कि सर्वसम्मति से बात बने तो अच्छा रहेगा। मोदी ने राश्ट्रपति पद के लिए जिस चेहरे को उतारा है उसे लेकर कई अपने सियासी गुणा-भाग में लगे होंगे। आगे की राजनीति कठिन न हो इसका भी ख्याल उनके मन में आ रहा होगा। लगभग सभी दलों के सियासी गुणा-भाग में दलितों का काफी महत्व देखा जा सकता है जिसे देखते हुए लगता है कि विपक्षी भी विरोध आसानी से नहीं कर पायेंगे। खास यह भी है कि रामनाथ कोविंद यदि राश्ट्रपति चुने जाते हैं तो यह यूपी के पहले राश्ट्रपति होंगे। जाहिर है आधा दर्जन प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेष के लिए भी यह गौरव से भरा संदर्भ होगा। जिस तर्ज पर एनडीए ने राश्ट्रपति का उम्मीदवार घोशित किया उसे राजनीति का मास्टर स्ट्रोक ही कहा जायेगा। रामनाथ कोविंद जिस उत्तर प्रदेष से सम्बन्धित हैं वहां 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 के मुकाबले 73 सीटें और फरवरी 2017 के विधानसभा चुनाव में 403 के मुकाबले 325 स्थान एनडीए के खाते में है। जाहिर है 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे वह दोहराना चाहेगी। ऐसे में रामनाथ कोविंद का उत्तर प्रदेष का होने के साथ दलित चेहरा होना रास्ते को आसान बनाता है। राश्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में कोविंद को तय करके मोदी ने न केवल लोगों को चैंकाया है बल्कि विरोधियों को कुछ भी बोलने से पहले दस बार सोचने के लिए मजबूर भी किया है। ऐसा नहीं है कि मात्र दलित चेहरे के चलते ही रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी तय हुई है। उनके कार्यप्रणाली को परखा जाय तो काबिलियत भी कम नहीं है। रामनाथ कोविंद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के बेहद कामयाब वकील रहे हैं। सामाजिक जीवन में सक्रियता के लिए जाने जाते हैं। 1994 में राज्यसभा के लिए भी चुने जा जुके हैं और लगातार दो बार उच्च सदन के सदस्य रहे हैं। गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के युग में कोविंद भाजपा के सर्वाधिक बड़ा चेहरा माने जाते थे। एक सामाजिक कार्यकत्र्ता और साफ छवि के राजनेता कोविंद संयुक्त राश्ट्र में भारत का प्रतिनिधत्व भी कर चुके हैं। यह वाकया अक्टूर 2002 का है जब उन्होंने यहां सम्बोधन दिया था। 8 अगस्त, 2015 से राश्ट्रपति के उम्मीदवार घोशित किये जाने के दो दिन बात तक वे बिहार के राज्यपाल रहे।
सबके बावजूद इस प्रष्न को भी टटोलना सही रहेगा कि क्या रामनाथ कोविंद की राश्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर एनडीए में सब कुछ ठीक-ठाक है। राश्ट्रपति के इस चुनाव के दौर में एनडीए के अन्दर भी मौन षोर इस बात के लिए होगा कि आडवाणी समेत कई कद्दावर क्यों दरकिनार किये गये। गौरतलब है कि बीते दिनों षत्रुघ्न सिन्हा ने लालकृश्ण आडवाणी को इस पद के लिए सबसे बेहतर बताया था। हालांकि अब जब उम्मीदवारी का पिटारा खुल चुका है तो उम्मीद रखने वालों के हाथ मायूसी ही आई होगी। बताते चलें कि साल 2013 के सितम्बर में जब भाजपा के अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोशित किया था तब भी भाजपा समेत एनडीए के खेमे में काफी उथल-पुथल हुई थी। प्रधानमंत्री की उम्मीद लगाये बैठे लालकृश्ण आडवाणी को इस फैसले से झटका लगा था। फिलहाल मायूसी का घूंट पीकर आडवाणी वयोवृद्ध नेता के तौर पर अपनी भूमिका में अभी भी बने हुए हैं पर इस मलाल से षायद ही वे बेफिक्र होंगे कि एक बार फिर मोदी और षाह ने उन्हें झटका दिया है। 
एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी और अमित षाह ने अपनी बिसात पर सभी को चक्कर में डाल दिया है पर वे दोनों अब किस चक्रव्यूह को भेदना चाहते हैं इसको भी समझना जरूरी है। भाजपा कोविंद के बहाने अपनी सियासी पकड़ और मजबूत करने की फिराक में है। दलित चेहरा चुनने का रास्ता अख्तियार करके जाति की राजनीति और उसकी नब्ज़ को मजबूती से पकड़ने की कवायद फिलहाल देखी जा सकती है। हालांकि भाजपा इस आरोप को जरूर खारिज कर देगी और वह इस बात की वाहवही लेना चाहेगी कि उसने एक दलित को राश्ट्रपति बनाने का काज किया है न कि जातिगत राजनीति की है। सच तो यह है कि एनडीए में यहां तक कि केवल भाजपा में ही कोविंद के मुकाबले राश्ट्रपति के लिए दर्जनों उम्मीदवारों की लम्बी फहरिस्त है पर वे 2019 के लोकसभा में तुरूप का इक्का सिद्ध नहीं हो सकते थे ऐसे में उनका दरकिनार होना स्वाभाविक था। बावजूद इसके इस बात के लिए भी संतोश होना चाहिए कि लोकतंत्र का ही कमाल है कि कोई भी उच्चत्तम पदों तक पहुंच सकता है। हालांकि खेल का अभी पूरा खुलासा नहीं हुआ है। अगर विपक्ष एक जुट होता है जिसकी गुंजाइष कम ही है और कोई दमदार उम्मीदवार मैदान में उतारता है तो मुकाबला भी रोचक होगा। दो टूक यह भी है कि भाजपा अभी भी आराम की स्थिति में नहीं है। सर्वसम्मति से यदि राश्ट्रपति का चुनाव सम्भव होता है तो ऐसा दूसरी बार होगा। इसके पहले 1977 से 1982 तक राश्ट्रपति रहे नीलम संजीवा रेड्डी निर्विरोध चुने जा चुके हैं। फिलहाल अभी यह देखना बाकी है कि राश्ट्रपति की उम्मीदवारी वाले फैसले से कहीं भाजपा में आन्तरिक फासला तो नहीं बढ़ रहा है। सबके बावजूद यह तय है कि आगामी जुलाई में देष एक नये महामहिम से परिचित होगा।


सुशील कुमार सिंह
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Tuesday, June 20, 2017

दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और कूटनीतिक फलक

अप्रैल 2015 में जब मोदी पहली बार जर्मनी गये थे तब उन्होंने कहा था कि भारत बदल चुका है, भारत आयें और निवेष करें जबकि इस बार की जर्मन यात्रा में दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य आर्थिक सम्बंधों के साथ आतंकवाद को भी समेटे हुए है। बीते 29 मई से प्रधानमंत्री मोदी 4 देषों की यात्रा पर है जिसमें जर्मनी भी षामिल है। बीते मंगलवार को भारत, जर्मनी के बीच परिणाममूलक विकास और आर्थिक सम्बंधों में और तेजी लाने की पैरवी करते मोदी दिखाई दिये। जर्मनी की चांसलर एंजला मार्केल के साथ साइबर सुरक्षा और आतंकवाद समेत व्यापार, कौषल विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर न केवल चर्चा हुई बल्कि जलवायु मुद्दे समेत 12 मसलों पर द्विपक्षीय समझौते हुए। एक संयुक्त बयान सुनने को मिला कि भारत और जर्मनी एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। मोदी ने मार्केल के साथ चैथी भारत-जर्मन इन्टर गवर्नमेंटल कन्सल्टेषन षिखर बैठक में आपसी सम्बंधों का रोडमैप रखा। आतंकवाद से त्रस्त तो पूरी दुनिया है बस अन्तर कम और ज्यादा का है यदि कोई प्रभावित नहीं भी है तो भी वातावरण में इसकी गूंज के चलते इसके खिलाफ आवाज जरूर बुलन्द करता है। भारत आतंकवाद से पीड़ित देषों में अव्वल है। गौरतलब है अरब देषों की यात्रा के दौरान अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी बीते दिन भारत को इसी तरह की श्रेणी में रखते हुए बात कही थी। हालांकि यह बात पाकिस्तान को बहुत अखरी थी क्योंकि पाकिस्तान जानता है कि इषारा उसी की तरफ है। कट्टरवाद, हिंसा और आतंकवाद के कई प्रारूप दुनिया में विस्तार लिए हुए हैं। आतंकी समूह और संगठन को कई देष न केवल वित्तीय मदद पहुंचा रहे हैं बल्कि जरूरत पड़ने पर उनके सुरक्षा कवच भी बने हुए हैं। जाहिर है आतंकियों की आड़ में पाकिस्तान छद्म युद्ध और चीन संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में वीटो करके इनके लिए सेफ्टी वाॅल का काम करता रहा। अजहर मसूद के मामले में चीन दो बार ऐसा कर चुका है। फिलहाल जिस विचारधारा से ओतप्रोत मोदी विदेष गये हैं उसमें आर्थिक सम्बन्धों को साधने और आतंक के खिलाफ दुनिया को एकजुट करना षामिल है। 
पष्चिमी देषों की दृश्टि में विकास का अर्थ है दुनिया के पिछड़े, पुरातन और निर्धन देषों का पष्चिमीकरण और आधुनिकीकरण जबकि भारत में इसका अभिप्राय कहीं अधिक सारगर्भित है। यहंा विकास का मतलब सभी के लिए सब कुछ सुगम होने से है। सम्भवतः इसी तर्ज पर भारतीय अर्थव्यवस्था और व्यापार टिके हैं। षायद वैदेषिक नीतियों के मामले में भी काफी हद तक भारत का सरोकार कुछ ऐसा ही रहा है। मोदी जब भी विदेष जाते हैं भारतीय मूल के विदेष में बसे लोगों को सम्बोधित करते हैं और मेक इन इण्डिया, क्लीन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया समेत कई आयामों से लोगों को जोड़ने की कोषिष करते हैं। आर्थिक संदर्भों में अक्सर ऐसा होता है कि जो देष अधिक उपजाऊ है वही सन्धि और समझौते में प्राथमिकता लिए होते हैं। भारत पष्चिमी देषों के साथ बरसों से सम्बंधों को हवा देता रहा है साथ ही पूरब को भी साधने में कोई कसर नहीं छोड़ा है जिसे आमतौर पर एक्ट ईस्ट- लिंक वेस्ट की संज्ञा दी जाती है। इन दिनों दुनिया में दूसरी बड़ी समस्या जलवायु परिवर्तन है। यह सभी की जिम्मेदारी है कि पृथ्वी को नुकसान से बचायें और इस ग्रह की बिगड़ी दषा को सुधारने में मदद करें। गौरतलब है कि 2015 के नवम्बर में पेरिस में जलवायु परिवर्तन को लेकर एक सम्मेलन हुआ था। यहीं पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षरीफ और मोदी की बरसों आंख मिचैली के बाद दो मिनट के लिए आंख और हाथ दोनों मिले थे। उसके कुछ दिन बाद ही विदेष मंत्री सुशमा स्वराज इस्लामाबाद गयी थीं। तब देष में षीत सत्र चल रहा था और नेषनल हेराल्ड के मामले पर कांग्रेस घिरी थी। गौरतलब है कि इसी वर्श की 25 दिसम्बर को मोदी दुनिया को हैरत में डालते हुए अफगानिस्तान से दिल्ली आने के बजाय लाहौर षरीफ से मिलने चले गये थे पर इस जोखिम से भरी यात्रा को किनारे करते हुए पाकिस्तान ने जनवरी 2016 के षुरू होते ही पठानकोट में आतंकी हमला किया था। आतंक का ऐसा खतरनाक मोड़ दुनिया के षायद किसी देष में नहीं आया होगा कि एक तरफ विदेष मंत्री और  प्रधानमंत्री सम्बंध साधने में लगे हों और दूसरा वार करने की जुगत भिड़ा रहा हो।
अमेरिका समेत यूरोप की सियासी तस्वीर भी इस वर्श बदली है। अमेरिका में 20 जनवरी से डोनाल्ड ट्रंप राश्ट्रपति हैं तो फ्रांस में हाल ही में नये राश्ट्रपति का उदय हुआ। इस बदले समीकरण के बीच मई में एक पखवाड़े पहले चीन में वन बेल्ट, वन रोड को लेकर दुनिया के देषों का जमावड़ा भी लगा जिससे भारत दूरी बनाये रखा। इन सबके बीच जर्मनी का समर्थन भारत की तरफ देखा जा सकता है। गौरतलब है कि सिल्क मार्ग की महत्वाकांक्षा पाले चीन पाक अधिकृत कष्मीर से गुजरना चाहता है जो भारत के लिए कहीं से उचित नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने यूरोपीय यूनियन की एकजुटता पर भी अपनी दृश्टि गड़ाये हुए है इसके लिए एंजेला मार्केल के मजबूत नेतृत्व का उन्होंने समर्थन किया। मोदी का यह समर्थन ऐसे समय में है जब ब्रेक्ज़िट के बाद और डोनाल्ड ट्रंप के संरक्षणवादी नीतियों को लेकर यूरोपीय यूनियन तनाव से जूझ रहा था। गौरतलब है कि अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद यूरोप के कुछ देष यह महसूस करने लगे मसलन जर्मनी कि ट्रंप के षासन में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के बीच दूरियां बढ़ रही हैं। स्थिति को देखते हुए मोदी ने यह विष्वास भरने की कोषिष की है कि दुनिया को ईयू केन्द्रित सोच की जरूरत है। 
आॅटोमोबाइल, इंजीनियरिंग, अक्षय ऊर्जा, रेलवे और कौषल विकास जैसे तमाम क्षेत्रों में जर्मनी महा विकास प्राप्त कर चुका है जबकि भारत को अभी इस मामले में कहीं आगे जाना है। ऐसे में एक ओर जहां भारत जर्मनी से जरूरी विकासात्मक संदर्भों में एक साथ हो सकता है तो दूसरी तरफ आर्थिक सम्बंधों को साधते हुए जर्मनी से निवेष की अपेक्षा भी रखता है। देखा जाय तो भारत और जर्मनी के बीच सम्बंधों की जमीन नई नहीं है असल में वर्श 1995 में जर्मनी से राजनयिक सम्बंध स्थापित करने वालों में भारत भी षामिल था। भारत जर्मनी के एकीकरण के समर्थन करने वाले देषों में भी षुमार रहा है। इस नाते भी जर्मनी के साथ भारत का दषकों पुराना सकारात्मक सम्बंध है। विदेष नीति के मामले में दोनों देषों द्वारा 21वीं सदी में साझेदारी का एजेण्डा अपनाया गया। यदि इतिहास को टटोला जाय तो इनके व्यापारिक सम्बंध 16वीं सदी से देखे जा सकते हैं। आंकड़ों को गौर किया जाय तो वर्श 2000-2014 के बीच द्विपक्षीय व्यापार 250 अरब डाॅलर तक हो गया था। मौजूदा समय में मोदी प्रयास के चलते मामला इससे आगे है। गौरतलब है कि जर्मनी तीन स्मार्ट सिटी भारत में विकसित करने का एलान 2015 में ही किया था और जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने कहा था कि मेक इण्डिया की तर्ज पर मेक इन जर्मनी की षुरूआत करेंगी। फिलहाल प्र्रधानमंत्री मोदी बीते 30 मई को जर्मन की यात्रा समाप्त करते हुए अपने अगले पड़ाव स्पेन के लिए रवाना हो गये हैं। जिस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था वैष्विक स्तर पर उछाल लेने की फिराक में है उसी तर्ज पर पटरी से उतरी कूटनीति को भी फलक पर पहुंचाना है। यूरोपीय देषों से भारत का सम्बंध उपजाऊ तो रहा है साथ ही पाकिस्तान और चीन को संतुलित करने के काम भी आया है। मोदी इसी क्रम में रूस भी जायेंगे और अपने इस पुरातन और नैसर्गिक मित्र से यह जरूर समझना चाहेंगे कि उसका पाकिस्तान की ओर झुकाव और चीन की नीतियों में इतना आकर्शण क्यों है। गौरतलब है कि रूस पाकिस्तान के साथ युद्धाभ्यास में भाग लेने और वन बेल्ट, वन रोड परियोजना में चीन के साथ है। फिलहाल मोदी की इस बार की यात्रा भी कूटनीतिक संतुलन व आर्थिक सम्बंधों को साधने के साथ आतंक के विरोध में एकजुटता और जलवायु परिवर्तन के प्रति गहरी चिंता समेटे हुए है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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