Wednesday, March 30, 2022

नीति आयोग की प्रासंगिकता और सुशासन

सही काम करना कामों को सही तरीके से करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सेवाओं की प्रभावी डिलीवरी की योजना की मुख्य विषेशता को इस तथ्य के आलोक में देखे जाने की जरूरत है कि मांग का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए न कि ऊपर से नीचे की ओर। सुविधाएं आखिरकार किन के पांस पहुंच रही हैं और कौन है जो समावेषी विकास से दूर है। इसकी भी चिंता करना सही काम करने जैसा है। सुषासन भी एक ऐसा आर्थिक न्याय है जहां लोक कल्याण और संवेदनषील षासन की अधिक मांग रहती है। समय के साथ नये मापदण्ड और विकास से जुड़े नये प्रारूपों का होना एक सतत् विकास का परिचायक है। यह समझते हुए कि भारत गांवों का देष है और राज्यों को प्रषासनिक स्वायत्तता मिली हुई है तथा दोनों की मजबूती एक मजबूत राश्ट्र के लिए मानो अपरिहार्य है। गौरतलब है कि 1 जनवरी 2015 को योजना आयोग के स्थान पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के एक संकल्प पर थिंक टैंक नीति आयोग का गठन किया गया। जिसके मूल में दो केन्द्र हैं एक टीम इण्डिया हब तो दूसरा ज्ञान और अभिनव। एक जहां केन्द्र सरकार के साथ राज्यों की भागीदारी का नेतृत्व करता है तो वहीं दूसरा ज्ञान और नूतनता से सम्बंधित थिंक टैंक क्षमताओं का निर्माण करता है। 65 वर्श पुराने योजना आयोग को इतिश्री करते हुए जब नीति आयोग को प्रकाष में लाया गया तो इसके पीछे कुछ वाजिब तर्क थे। विविधताओं से भरा भारत और इसके राज्य आर्थिक विकास के विभिन्न चरण में हैं जिसके अपनी भिन्न-भिन्न ताकतें और कमजोरियां हैं। जाहिर है आर्थिक नियोजन के लिए सभी पर एक प्रारूप लागू हो यह समय के साथ सही नहीं रहा। मौजूदा वैष्विक अर्थव्यवस्था में मापदण्ड बदले हैं और भारत को स्पर्धी के तौर पर स्थापित करने में योजना आयोग को अप्रासंगिक समझा गया। फलस्वरूप नीति आयोग जैसे थिंक टैंक को महत्व दिया गया जिसमें सहकारी संघवाद की भावना को केन्द्र में रखते हुए अधिकतम षासन और न्यूनतम सरकार की परिकल्पना निहित थी। 

नीति आयोग जिस मूल भावना पर टिका है उसमें बाॅटम-अप-अप्रोच भी षामिल है। हालांकि इसे न तो नीति लागू करने का अधिकार है और न ही इसे धन आबंटन करने की षक्तियां हैं। यह व्यापक विषेशज्ञता पर बल देता है और एक सलाहकार थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है। उक्त के चलते देष में कुषल, पारदर्षी, नवीन और जवाबदेह षासन प्रणाली का प्रतिनिधि बनने की क्षमता इसमें है। यह परिवर्तन के एक एजेंट के रूप में समय-समय पर उभरा भी है। सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर डिलीवरी तथा उसमें सुधार के एजेण्डे पर अच्छा योगदान की अपेक्षा नीति आयोग से रही है। इसके कार्यप्रणाली में राश्ट्रीय सुरक्षा के हितों, आर्थिक रणनीति और नीतियां षामिल की गयी हैं। समाज के उन वर्गों पर विषेश ध्यान देना जो आज भी पर्याप्त रूप से लाभान्वित नहीं है। ऐसे तमाम बिन्दुओं से युक्त नीति आयोग समावेषी और सतत् विकास का परिचायक है। गौरतलब है कि नीति आयोग ने तीन दस्तावेज जारी किये हैं जिसमें तीन वर्शीय एजेण्डा, 7 वर्शीय मध्यम अवधि की रणनीति का दस्तावेज और 15 वर्शीय लक्ष्य दस्तावेज षामिल है। विषेशज्ञों का यह मत है कि नीति आयोग के पास केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्यक्रमों का स्वतंत्र अवलोकन करने की षक्ति है। कुछ का यह भी मानना है कि यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में इसमें स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय हुआ करता था जिसे समाप्त कर दिया गया। अपनी स्थापना के बाद से नीति आयोग ने अर्थव्यवस्था के विकास और देष के नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाने के उद्देष्य से कई पहल की जिसमें कृशि उत्पादन, विपणन सहित अधिनियम के सुधार, मेडिकल एजुकेषन को सुधारना, डिजिटल भुगतान आंदोलन, अटल इनोवेषन मिषन, भारत में गरीबी उन्मूलन पर कार्यबल साथ ही कृशि विकास पर कार्यबल समेत कई बिन्दुओं पर इसे विस्तार से देखा जा सकता है।

सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है। जो जनता को सामाजिक-आर्थिक विकास और न्याय के दायरे में समावेषी और सतत् विकास की अवधारणा से ओत-प्रोत है। नीति आयोग और सुषासन का गहरा सम्बंध है। एक थिंक टैंक के रूप में नीति आयोग जिस नूतनता से देष को नई राह देने का चिंतन लिए हुए है उसमें यहां का हर वर्ग षामिल है। यह संस्था भी लम्बा रास्ता तय कर चुकी है कई विषेशताओं से युक्त यह थिंक टैंक आर्थिक सुधार एवं ज्ञान व नवाचार के एक केन्द्र के रूप में बीते 6 वर्शों में उभार लिया है। प्रधानमंत्री कार्यालय की टेढ़ी नजर अब कथित नजर अपने प्रमुख थिंक टैंक नीति आयोग पर है इसने इसकी 6 वर्शों की कारगुजारी के विस्तृत आदेष दिये हैं। गौरतलब है कि जब योजना आयोग के स्थान पर इसे गठित किया गया तब यह चर्चा भी जोर लिए हुए थी कि अपने उन उद्देष्यों के अनुरूप नहीं दिख रहा है जिसके लिए गठित किया गया है। ऐसे में इस पर पुर्नविचार की जरूरत है। गौरतलब है कि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का आधा समय पार कर चुकी है अब अधिक सक्रिय नीति आयोग की परिकल्पना करती है जो बाहरी विषेशज्ञों के साथ विचार-विमर्ष के लिए खुला तथा एक नाॅलेज पूल का निर्माण करता है जो केन्द्र के साथ राज्यों के लिए लाभकारी होगा। कई अच्छे क्रियाकलापों के लिए गठित नीति आयोग के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं हैं। नीति आयोग के कार्य क्षेत्र अन्तर्राज्यीय परिशद् के कार्यक्षेत्र से कहीं-कहीं टकरा जाता है। अन्तर्राज्यीय परिशद् एक संवैधानिक निकाय है जब नीति आयोग एक कार्यकारी थिंक टैंक है। समृद्ध राज्यों का पक्ष तथा इसमें यह गुंजाइष रहती है कि पिछड़े राज्यों को हानि हो सकती है। सक्रिय कार्यवाही योग्य लक्ष्यों का अभाव और कार्यान्वयन पर सीमित फोकस जैसी चुनौतियों से नीति आयोग अटा पड़ा है। इतना ही नहीं भारत सतत् विकास लक्ष्य 2030 प्राप्त करने के मार्ग में कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने कई मिषन मोड कार्यक्रम प्रारम्भ किये जिसमें स्मार्ट सिटी, कौषल भारत-कुषल भारत, स्वच्छ भारत, सभी के लिए आवास और बिजली आदि षामिल है। जाहिर है इन सभी की सफलता केन्द्र और राज्य के बीच सक्रिय सहयोग और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर निर्भर करती है। जिसमें नीति आयोग की बड़ी भूमिका है। उपरोक्त लक्ष्य या चुनौतियां सुषासन के मार्ग को भी चिकना करती है। मौजूदा सरकार सुषासन उन्मुख अवधारणा को उकेरती रही है। जिसे प्राप्त करने के लिए नीति आयोग जैसे थिंक टैंक को अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करनी होगी।

दिनांक : 28/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

समस्याओं के समुद्र में श्रीलंका

इन दिनों श्रीलंका बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा है। हालात को देखते हुए यदि 2022 में श्रीलंका अपने को दिवालिया घोशित कर दे तो भारत समेत विष्व के षायद ही किसी देष को हैरानी हो। गौरतलब है कि श्रीलंका दो सगे भाई चला रहे हैं। जिसमें महिन्द्रा राजपक्षे प्रधानमंत्री तो गोटबाया राजपक्षे राश्ट्रपति की कुर्सी सम्भाले हुए है और यह दोनों का झुकाव चीन की ओर माना जाता रहा है। आर्थिक हालात वहां इस कदर बिगड़े हैं कि सरकारी पेट्रोल पंपों पर सेना तैनात कर दी गयी है। असल में यहां पेट्रोल और डीजल की भारी किल्लत की वजह से पेट्रोल पम्पों की लम्बी-लम्बी लाइनें लग रही हैं। भीड़ किसी प्रकार का हंगामा न करे और लोग हिंसक न हों इसी को ध्यान में रखते हुए सेना की तैनात की गयी है। पेट्रोल, डीजल की किल्लत के पीछे भी आर्थिकी ही है। श्रीलंका का विदेषी मुद्रा भंडार काफी घट गया है। जिसके चलते पेट्रोल, डीजल का आयात उसके लिए मुष्किल हो गया है। इतना ही नहीं महंगाई भी चरम पर है। हालात जिस स्वरूप को ले चुके हैं उसे देखते हुए किसी देष का यूं समस्याग्रस्त होना यह जताता है कि अगर देष साधने और चलाने को लेकर चैकन्ने नहीं है और किसी के चंगुल में फंस रहे हो तो अंजाम बुरा होगा। वैसे श्रीलंका में इस हालात के लिए कोरोना और चीन दोनों बराबर के हिस्सेदार हैं। चीन एक ऐसा देष है जो षुभचिंतक की आड़ में उस देष को ही कंगाल कर देता है क्योंकि चीन का कर्ज और उस देष की कंगाली दिन दूनी और रात चैगुनी की तर्ज पर वट वृक्ष का रूप लेती है जिसमें पाकिस्तान पर लगा कर्जा भी इस बात को पुख्ता करता है और इन दिनों कंगाली की राह पर श्रीलंका भी इस बात को तस्तीक करता है। 

श्रीलंका में अनाज, चीनी, सब्जियों से लेकर दवाओं की कमी हो रही है। महंगाई के चलते लोगों का खर्चा चार गुना तक बढ़ गया है। विदेषी मुद्रा में कमी के कारण श्रीलंका पड़ोसी देषों से इन चीजों को खरीद भी नहीं पा रहा है। इतना ही नहीं हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि देष में स्कूल छात्रों की परीक्षा का पेपर छापने के लिए कागज और सियाही तक के पैसे नहीं है जिसके चलते परीक्षा को भी रद्द करना पड़ा। गौरतलब है कि श्रीलंका के मुष्किल दौर में भारत कई अवसरों पर मदद कर रहा है। जनवरी 2022 में श्रीलंका स्थित भारतीय उच्चायोग ने 90 करोड़ डाॅलर की मदद की घोशणा की थी। आवष्यकता के अनुपात में यह मदद कम कही जायेगी जाहिर है श्रीलंका का इतने से काम नहीं चलेगा। स्थिति को देखते हुए भारत ने जनवरी में ही 50 करोड़ डाॅलर की एक और मदद दी ताकि श्रीलंका पेट्रोलियम उत्पाद खरीद सके। तब श्रीलंका के अखबारों में भारत की इस मदद को बहुत तवज्जो दिया गया। वहां के एक अखबार डेली मिरर में यह छपा था कि तेल के प्यासे श्रीलंका को भारत ने दी लाइफ लाइन। वैसे श्रीलंका को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि वह इतनी बड़ी आर्थिक तकलीफ का निपटारा भारत के भरोसे कर लेगा। जिस आर्थिकी के खराब दौर से श्रीलंका गुजर रहा है उसे यह नसीहत देना ठीक रहेगा कि इसके लिए एक स्थायी समाधान की ओर कदम बढ़ाये। जिस हेतु अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश से बात करनी चाहिए। हालांकि वह इस पर पहल कर चुका है। गौरतलब है कि वर्शों पहले ग्रीस आर्थिक कठिनाईयों से जूझ रहा था और डिफाॅल्टर के कगार पर खड़ा था तब उसने भी तमाम कोषिषों के बाद स्वयं को मुक्त करने का रास्ता बना लिया था। उस दौरान भी ग्रीस अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश से बेल आउट पैकेज की मांग की थी। हालांकि श्रीलंका और ग्रीस की स्थिति बहुत अलग है। ग्रीस यूरोपीय संघ का हिस्सा है ऐसे में उसके खराब आर्थिक स्थिति के समय कई और षुभचिंतक थे। श्रीलंका में इन दिनों अनाज, तेल ओर दवाओं की खरीद के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। भारत ने एक अरब डाॅलर का कर्ज देने का वादा किया है। चीन भी श्रीलंका को ढ़ाई अरब डाॅलर का कर्ज दे सकता है। स्पश्ट कर दें कि 1948 में स्वतंत्र होने के बाद श्रीलंका सबसे भयावह आर्थिक संकट का सामना वर्तमान में कर रहा है। 

श्रीलंका में वस्तुओं की खरीदारी को लेकर स्थिति इतनी खराब है कि पेट्रोल और केरोसिन की लाइन में खड़े लोगों में से कई मर चुके हैं। रसोई गैस के लिए भी लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हुई हैं। भारी बिजली संकट का सामना भी हिन्द महासागर का यह द्वीप कर रहा है। मार्च के षुरूआत में सरकार ने अधिकतम साढ़े सात घण्टे तक बिजली कटौती का एलान भी किया था। आंकड़े बताते हैं कि श्रीलंका का विदेषी मुद्रा भण्डार जो जनवरी 2022 में करीब 25 फीसद घट कर 2.36 अरब डाॅलर रह गया था। अनुमान यह भी है कि 24 फरवरी से षुरू रूस और यूक्रेन की लड़ाई के चलते श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था की हालत बदतर हो सकती है। दरअसल रूस श्रीलंका की चाय का सबसे बड़ा आयातक है जो युद्ध के चलते इस पर भी व्यवधान हो गया है। सवाल यह उठता है कि जो श्रीलंका 7 दषक से अधिक समय से कमोबेष अपनी आर्थिक स्थिति को संजोते हुए संयमित रूप से आगे बढ़ रहा था आखिर उस पर किसकी नजर लग गयी। श्रीलंका की इस स्थिति के लिए आखिरकार कौन जिम्मेदार है। गौरतलब है कि यहां की अर्थव्यवस्था काफी हद तक पर्यटन उद्योग पर निर्भर है और जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 10 फीसद है। मगर कोरोना ने पर्यटन की इस धार को कुंद कर दिया। एक प्रकार से श्रीलंका में पर्यटकों का आना बंद हो गया और 10 फीसद की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी। इसका प्रभाव विदेषी मुद्रा भण्डार पर पड़ा जिसके चलते कनाडा जैसे तमाम देष श्रीलंका में निवेष बंद कर दिया। उक्त से स्पश्ट है कि पहली मार इस पर कोरोना की पड़ी है।

सरकार के गलत फैसले भी इस हालात में लाने के लिए जिम्मेदार हैं। नवम्बर 2019 में राश्ट्रपति गोटबाया की ताजपोषी हुई और महिन्द्रा राजपक्षे प्रधानमंत्री बने। नव निर्वाचित सरकार ने लोगों पर खर्च करने की क्षमता को बढ़ाने के चलते टैक्स कम कर दिया। जाहिर है इससे राजस्व पर प्रभाव पड़ा। इतना ही नहीं रासायनिक उर्वरक से खेती बंद करने का आदेष भी घातक सिद्ध हुआ। इससे फसल उत्पादन में गिरावट आयी और कर्ज की मात्रा बढ़ गयी। स्पश्ट है कि चीन से श्रीलंका ने 5 अरब डाॅलर का कर्ज लिया है इसके अलावा भारत और जापान जैसे देषों का भी इस पर काफी कर्ज है। 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार श्रीलंका को 7 अरब डाॅलर का कर्ज चुकाना है और मौजूदा हालात में यह डिफाल्टर की कतार में है। हालांकि श्रीलंकाई सरकार अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश से बेल आउट पैकेज की गुहार भी लगायी है। यदि यहां से निराषा मिली तो श्रीलंका छिन्न-भिन्न हो सकता है। उक्त से यह साफ है कि श्रीलंका का खजाना खाली हो चुका है। पहले कोविड महामारी, पर्यटन उद्योग की तबाही, बढ़ते सरकारी कर्ज और टैक्स में जारी कटौती के चलते खजाना खाली हुआ और साथ ही कर्ज के भुगतान का दबाव लगातार बढ़ते रहना साथ ही विदेषी मुद्रा भण्डार ऐतिहासिक गिरावट के स्तर तक पहुंचना इसकी बर्बादी के कारण हैं। वैसे श्रीलंका के लिए चीन की गोद का पसंद आना घातक रहा जबकि भारत पड़ोसी धर्म निभाता रहा। अब उसे खामियाजा भुगतना पड़ रहा है यदि वह दिवालिया होता है तो इसका कसूरवार चीन को ही कहा जायेगा। 

 दिनांक : 24/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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साक्षरता और सुशासन

भारत में साक्षरता शक्ति का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। जो महिलाएं षिक्षित हैं, वे साक्षर बच्चों की एक पीढ़ी पैदा कर सकती हैं और यही पीढ़ी देष में कुषल कार्यबल बन सकती है। फलस्वरूप भारत की पहचान दुनिया के देषों में विकसित की ओर होगी। स्पश्ट है कि साक्षरता में कौषल और प्रतिभा का संदर्भ निहित है। बाजार में ऐसे अवसरों की मांग बढ़ेगी और जीवन स्तर में सुधार होगा। नतीजन प्रति व्यक्ति आय ऊंची होगी और देष की आर्थिकता छलांग लगायेगी। इन सबके साथ दषकों से सुषासन की जद्दोजहद में फंसा षासन अपनी अस्मिता और गरिमा के साथ पथ और चिकना कर लेगा। गरिमामयी तथा उद्देष्यपूर्ण जीवन जीने के लिए व्यक्ति को कम से कम साक्षर होना तो बहुत जरूरी है। जाहिर है इसके आभाव में अपनी क्षमताओं के प्रति ने केवल व्यक्ति अनभिज्ञ बना रहता है बल्कि समाज में भी स्वयं को पूरी तरह स्थापित करने में कमतर रह जाता है। साक्षरता मुक्त सोच को जन्म देती है। आर्थिक विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामुदायिक कल्याण के लिए भी यह महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आत्मसम्मान और सषक्तिकरण भी इसमें निहित है। अब सवाल यह है कि जब साक्षरता इतने गुणात्मक पक्षों से युक्त है तो अभी भी हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित क्यों है? क्या इसके पीछे व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है या फिर सरकार की नीतियां और मषीनरी जवाबदेह है? कारण कुछ भी हो मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि साक्षरता का अभाव सुषासन की राह में रोड़ा तो है। गौरतलब है कि सुषासन एक जन केन्द्रित संवेदनषील और लोक कल्याणकारी भावनाओं से युक्त एक ऐसी व्यवस्था है जिसके दोनों छोर पर केवल व्यक्ति ही होता है। यह एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जहां से सामाजिक-आर्थिक उत्थान अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है। बदले दौर के अनुपात में सरकार की नीतियां और जन अपेक्षायें भी बदली हैं। बावजूद इसके पूरा फायदा तभी उठाया जा सकता है जब देष निरक्षरता से मुक्त होगा। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद 1951 में 18.33 फीसद लोग साक्षर थे जो 1981 में बढ़कर 41 फीसद तो हुए लेकिन जनसंख्या के अनुपात में यह क्रमषः 30 करोड़ से बढ़कर 44 करोड़ हो गये। ऐसे में राश्ट्रीय साक्षरता मिषन की कल्पना अस्तित्व में आई। 5 मई 1988 को षुरू हुए इस मिषन का उद्देष्य था कि लोग अनपढ़ न रहें। कम से कम साक्षर तो जरूर हो जायें। इस मिषन ने असर तो दिखाया लेकिन षत-प्रतिषत साक्षरता के लिए यह नाकाफी रहा। इसी के ठीक 3 बरस बाद 25 जुलाई 1991 को आर्थिक उदारीकरण का पर्दापण हुआ और 1992 में नई करवट के साथ भारत में सुषासन का बिगुल बजा। उस दौर में क्रमषः राजीव गांधी और नरसिम्हाराव की सरकार थी जिसका सम्बंध कांग्रेस से था। साक्षरता और सुषासन की यात्रा को तीन दषक से अधिक वक्त हो गया। जाहिर है दोनों एक-दूसरे के पूरक तो हैं मगर अभी देष में इन दोनों का पूरी तरह स्थापित होना बाकी है। 

भारत में साक्षरता सामाजिक-आर्थिक प्रगति की कुंजी है और सुषासन का पूरा परिप्रेक्ष्य भी इसी अवधारणा से युक्त है। जाहिर है साक्षरता और सुषासन का गहरा सम्बंध है। दुनिया के किसी भी देष में बिना षिक्षित समाज के सुषासन के उद्देष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। साक्षरता से जागरूकता को बढ़ाया जा सकता है और जागरूकता के चलते स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता को बढ़त मिल सकती है और ये तमाम परिस्थितियां सुषासन की राह को समतल कर सकती हैं। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर निरक्षरता को मिटाने के मकसद से एक अभियान का क्रियान्वयन किया गया जो अन्तर्राश्ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप में विद्यमान है जिसकी षुरूआत 1966 में यूनेस्को ने किया था। जिसका उद्देष्य था कि 1990 में किसी भी देष में कोई भी व्यक्ति निरक्षर न रहे। मगर हालिया स्थिति यह है कि भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार बामुष्किल 74 फीसद ही साक्षरता है। जबकि राश्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने 2017-18 में साक्षरता का सर्वेक्षण 77.7 प्रतिषत किया। इतना ही नहीं साक्षरता दर में व्यापक लैंगिक असमानता भी विद्यमान है। साक्षरता का षाब्दिक अर्थ है व्यक्ति का पढ़ने और लिखने में सक्षम होना। आसान षब्दों में कहें तो जिस व्यक्ति को अक्षरों का ज्ञान हो तथा पढ़ने-लिखने में सक्षम हो वह सरकार की नीतियों, बैंकिंग व्यवस्था, खेत-खलिहानों से जुड़ी जानकारियां, व्यवसाय व कारोबार से जुड़े उतार-चढ़ाव साथ ही अन्य तमाम से संलग्न होना सरल हो जायेगा। निरक्षरता के अभाव में लोकतंत्र की मजबूती से लेकर आत्मनिर्भर भारत की यात्रा भी तुलनात्मक सहज हो सकती है। गिरते मतदान प्रतिषत को साक्षरता दर बढ़ाकर फलक प्रदान किया जा सकता है। भारत के केन्द्रीय षिक्षा मंत्रालय ने हाल ही में वयस्क षिक्षा को बढ़ावा देने तथा निरक्षरता के उन्मूलन के लिए पढ़ना-लिखना अभियान की षुरूआत की है। इस अभियान का उद्देष्य 2030 तक देष में साक्षरता दर को सौ प्रतिषत तक हासिल होना है साथ ही महिला साक्षरता को बढ़ावा देना और अनुसूचित जाति और जनजाति सहित दूसरे वंचित समूहों के बीच षिक्षा को लेकर अलख जगाना है। जाहिर है यह अभियान साक्षर भारत-आत्मनिर्भर भारत के ध्येय को भी पूरा करने में मदद कर सकती है। गौरतलब है कि सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य पर दृश्टि रखते हुए साल 2009 में साक्षर भारत कार्यक्रम योजना की षुरूआत की गयी थी। जिसमें यह निहित था कि राश्ट्रीय स्तर पर यह दर 80 फीसद तक पहुंचाना है। हालांकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार देष की साक्षरता दर 74 फीसद ही थी। कोविड-19 के चलते साल 2021 में होने वाली जनगणना सम्भव नहीं हुई ऐसे में साक्षरता की मौजूदा स्थिति क्या है इसका कोई स्पश्ट आंकड़ा नहीं है। मगर जिस तरह 2030 तक षत् प्रतिषत साक्षरता का लक्ष्य रखा गया है उसे देखते हुए कह सकते हैं कि 2031 की जनगणना में आंकड़े देष में अषिक्षा से मुक्ति की ओर होंगे।

सुषासन की परिपाटी भले ही 20वीं सदी के अंतिम दषक में परिलक्षित हुई हो मगर साक्षरता को लेकर चिंता जमाने से रही है। साक्षरता और जागरूकता की उपस्थिति सदियों पुरानी है। यदि बार-बार अच्छा षासन ही सुषासन है तो इस तर्ज पर अषिक्षा से मुक्ति और बार-बार साक्षरता पर जोर देना सुषासन की मजबूती भी है। असल में कौषल विकास के मामले में भारत में बड़े नीतिगत फैसले या तो हुए नहीं यदि हुए भी तो साक्षरता और जागरूकता में कमी के चलते उसे काफी हद तक जमीन पर उतारना कठिन बना रहा। स्किल इण्डिया कार्यक्रम सुषासन को एक अनुकूल जगह दे सकता है बषर्ते इसके लिए जागरूकता को बड़ा किया जाये और उसके पहले अषिक्षा से मुक्ति सम्भव की जाये। गौरतलब है कि स्किल इण्डिया कार्यक्रम के अंतर्गत 2022 तक कम से कम 30 करोड़ लोगों को कौषल प्रदान करना है जिसकी राह में दो महत्वपूर्ण अवरोध हैं। पहला यह कि देष में मात्र 25 हजार ही कौषल विकास केन्द्र हैं जो संख्या के अनुपात में अपर्याप्त प्रतीत होते हैं। दूसरा साक्षरता के अभाव में कौषल कार्यक्रम के उद्देष्य को पूरा करना स्वयं में एक समस्या है। यही कारण है कि योजनाएं तो लोक कल्याण और जनहित को सुसज्जित करने के लिए कई आती रही हैं मगर इसकी पूरी पहुंच साक्षरता और जागरूकता की कमी के चलते सम्भव नहीं हुई। 2014 में जब कौषल विकास उद्यमिता मंत्रालय का निर्माण किया गया तब यह उम्मीद से लगा हुआ था और अब यह बोझ से दबा हुआ है। कौषल विकास कई चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें अपर्याप्त प्रषिक्षण क्षमता और उद्यमी कौषल की कमी आदि प्रमुख कारण हैं। जिसका ताना-बाना संरचनात्मक और कार्यात्मक विकास के साथ-साथ अषिक्षा से भी सम्बंधित है। 

बहरहाल भारत के समक्ष राश्ट्रीय साक्षरता दर को सौ फीसद तक ले जाने के अतिरिक्त स्त्री-पुरूश साक्षरता की खाई को पाटना भी एक चुनौती रही है। संयुक्त राश्ट्र ने 2030 तक पूरी दुनिया से सभी क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का संकल्प लिया है। देखा जाये तो भारत में पिछले तीन दषकों में स्त्री-पुरूश साक्षरता दर का अंतर 10 प्रतिषत तक तो घटा है। मगर पिछली जनगणना को देखें तो यह अंतर एक खायी के रूप में परिलक्षित होता है। जहां पुरूशों की साक्षरता दर 82 फीसद से अधिक है तो वहीं महिलायें बामुष्किल 65 फीसद से थोड़े अधिक हैं। दरअसल षिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक विशमता बढ़ने के कई कारण हैं और ऐसी विशमताओं ने सुषासन पर चोट किया है। षिक्षा के प्रति समाज का एक हिस्सा आज भी जागरूक नहीं है। इसके पीछे भी अषिक्षित होने की अवधारणा ही निहित देखी जा सकती है। सुषासन के निहित परिप्रेक्ष्य से यह विचारधारा स्थान लेती है कि साक्षरता कई समस्याओं का हल भी है। यह बात और है कि तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद देष में यह खरा नहीं उतरा है मगर 1991 के उदारीकरण के बाद जिस तरह तकनीकी बदलाव देष में आये हैं उसमें साक्षरता के कई आयाम भी प्रस्फुटित हुए हैं मसलन अक्षर साक्षरता के अलावा तकनीकी साक्षरता, कानूनी साक्षरता, डिजिटल साक्षरता अधिकारों को जानने के प्रति जागरूकता समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य हैं जो जनता के लिए न केवल जरूरी हैं बल्कि इससे उसी में उनका लाभ भी निहित हैं। उपरोक्त संदर्भ के अलावा भी कई ऐसे बिन्दु हैं जो साक्षरता और जागरूकता के चलते एक अच्छी आदत और जीवन में मदद मिल सकती है और षासन को सुषासन का बल भी तुलनात्मक बढ़ेगा। दो टूक यह भी है कि सम्पूर्ण साक्षरता के बगैर सुषासन स्वयं में अधूरा है। 

दिनांक : 21/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

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ई-कचरा और हमारा सुशासन

सभ्यता और तकनीक की बेहद ऊंचाई पर पहुंची दुनिया अब ई-कचरा से परेषान हैं। दुनिया भर में जैसे-जैसे इलेक्ट्राॅनिक उत्पादों की मांग बढ़ रही है वैसे-वैसे इलेक्ट्राॅनिक कचरे भी उफान ले रहे हैं। गौरतलब है हम अपने घरों और उद्योगों में जिन इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्राॅनिक सामानों को इस्तेमाल के बाद फेंक देते है वहीं कबाड़ ई-वेस्ट अर्थात ई-कचरा की संज्ञा में आता हैं। संयुक्त राश्ट्र द्वारा जारी ग्लोबल ई-वेस्ट माॅनीटर 2020 की रिपोर्ट दर्षाती है कि 2019 में 5.36 करोड़ मैट्रिक टन इलेक्ट्राॅनिक कचरा उत्पन्न हुआ था। हैरत यह भी है कि 2030 तक ई-कचरा बढ़कर 7.4 करोड़ मैट्रिक टन पर पहुंच जाएगा। पूरी दुनिया में ई-कचरा को यदि महाद्वीपों के आधार पर बांटकर देखे तो एषिया में 2.49 करोड़ टन अमेरिका में 1.31 करोड़ टन यूरोप में 1.2 करोड़ टन और अफ्रीका में 29 लाख टन कचरा उत्पन्न देखा जा सकता हैं। यही ओषिनिया (आॅस्ट्रेलिया) में 7 लाख टन इलेक्ट्राॅनिक वेस्ट हैं। अनुमान तो यह भी है कि 16 वर्शों के भीतर ई-कचरा दोगुना हो जाएगा। भारत जैसे विकासषील देष में जहां इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्राॅनिक वस्तुएं जनसंख्या के एक बहुत बड़े हिस्से तक अभी पूरी तरह पहुंची ही नहीं है बावजूद इसके 10 लाख टन से अधिक कचरा उत्पन्न हो रहा हैं। केन्द्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड की दिसम्बर 2020 की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा देखा जा सकता हैं। गौरतलब है कि ई-कबाड़ प्रबन्धन का एक जटिल प्रक्रिया है और सुषासन के लिए बड़ी चुनौती भी। भारत में ई-कबाड़ प्रबन्धन नीति 2011 से ही उपलब्ध हैं और इसके दायरे का साल 2016 और 2018 में विस्तार भी किया गया है मगर जमीनी हकीकत यह है कि इस पर किया गया अमल असंतोश से भरा हुआ हैं। रोचक यह भी है कि देष में उत्पन्न कुल ई-कचरा का महज़ 5 फीसद ही रीसाइकिलिंग केन्द्रों के जरिए प्रसंस्करण किया जाता हैं जाहिर है बाकि बचा हुआ 95 फीसद ई-कबाड़ का निस्तारण अनौपचारिक क्षेत्र के हवाले हैं। 

वैसे देखा जाए तो सरकार ने साल 2008 में सामान्य कबाड़ प्रबन्धन नियम लागू किया था। इन नियमों में ई-कचरा के प्रबन्धन को लेकर जिम्मेदार ढ़ंग से काम करने की बात भी निहित थी हालांकि तब समस्या इतनी बड़ी नहीं थी। गौरतलब है कि ई-कचरा तब पैदा होता है जब किसी उत्पाद का उपयोगकत्र्ता यह तय करता है कि इस सामान का उसके लिए कोई उपयोग नहीं हैं। मौजूदा समय में भारत में 136 करोड़ की जनसंख्या में 120 करोड़ मोबाइल हैं जब यही मोबाइल इस्तेमाल के लायक नहीं रहते तो जाहिर है ई-कचरे के एक प्रारूप के रूप में सामने आते हैं। गौरतलब है कि भारत में 2025 तक इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 90 करोड़ हो जाएगी फिलहाल अभी यह संख्या 65 करोड़ के आस-पास हैं। भारत में ई-कचरा का उत्पादन 2014 में 1.7 मिलियन टन से बढ़कर साल 2015 में 1.9 मिलियन टन हो गया था। ई-कचरे में बाढ़ आने की परम्परा वैसे तो ज्यादा पुरानी नहीं है मगर मौजूदा समय इस मामले में कहीं अधिक बढ़त लिए हुए हैं। संदर्भ निहित बात यह भी है कि राश्ट्रीय ई-कबाड़ कानून के अन्तर्गत इलेक्ट्राॅनिक वस्तुओं का प्रबन्धन औपचारिक संग्रह के जरिए ही किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह से इकट्ठे किए गए कबाड़ को विषेश प्रसंस्करण केन्द्र में ले जाया जा सकता हैं। जहां इसे रिसाइकिलिंग करते समय पर्यावरण और स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखना संभव हैं। हांलाकि भारत में इस मामले में स्थिति फिसड्डी हैं। साल 2018 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय न्यायाधिकरण को बताया था कि भारत में ई-कचरे का 95 फीसद पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता हैं। इतना ही नहीं अधिकांष स्क्रैप डीलरों द्वारा व इसका निपटान अवैज्ञानिक तरीका अपनाकर इसे जलाकर एसिड के माध्यम के किया जाता हैं। 

2010 में संसद की कार्यवाही के दौरान के उत्पन्न आंकड़े इषारा करते हैं कि भारतीय इलेक्ट्राॅनिक क्षेत्र ने 21वीं सदी के पहले दषक में जबरदस्त प्रगति की। 2004-2005 में 11.5 अरब अमेरिकी डाॅलर से यह क्षेत्र 2009-2010 में 32 अरब अमेरिकी डाॅलर पर पहुंच गया। गौरतलब है कि इन्हीं दिनों में इलेक्ट्राॅनिक वस्तुओं के स्वदेष में उत्पादन और आयात में आयी वृद्धि के साथ ई-कचरा ने भी समृद्धि हासिल कर ली। इसी के चलते इस क्षेत्र पर नियामक नियंत्रण की आवष्यकता महसूस की जाने लगी और भारत में ई-कचरा प्रबन्धन नीति 2011 लाई गई। विकसित देषों में यह देखा गया है कि ई-कचरा की रिसाइकिलिंग का खर्च ज्यादा हैं। इन देषों में टूटे और खराब उपकरणों के प्रबन्धन व निस्तारण के लिए कम्पनियों को भुगतान करना पड़ता हैं। दरअसल ई-कचरा निपटान से जुड़ी समस्या में कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार है कि उसे लेकर बड़े समझ की आवष्यकता हैं। इस मामले में पहला मुद्दा तो मूल्य का है और अगला संदर्भ औपचारिक रिसाइकिलिंग कत्र्ताओं की तुलना में अनौपचारिक तौर पर रिसाइकिलिंग करने वालों का संचालन खर्च कम होना भी है। इतना ही नहीं संग्रहकत्र्ता भी ज्यादातर अनौपचारिक ही हैं जिनकी मांग तुरन्त नकद भुगतान की होती हैं। जाहिर है ई-कचरा रिसाइकिलिंग श्रृंखला को बिना मजबूती दिए बिना इस कबाड़ से निपटना संभव नहीं हैं। ऐसा करने के लिए सख्त निगरानी, अनुपालन और उसकी क्षमता के सर्वोत्तम उपयोग के अलावा वैष्विक सहयोग की आवष्यकता पड़ सकती हैं जो सुषासन की ही एक बेहतरीन परिपाटी का स्वरूप हैं।  

पुराने कम्प्यूटर, मोबाइल, सीडी, टीवी, माइक्रोवेव ओवन, फ्रिज और एसी जैसे तमाम आइटम जब कचरों के डिब्बे में जाते हैं तो ई-कचरा हो जाते हैं और यह समस्या पूरी दुनिया में फैली हुई हैं। यदि 2019 से जुड़े वैष्विक स्तर के आंकड़ों पर दृश्टि डाले तो वर्श विषेश में 17.4 फीसद ई-वेस्ट को एकत्र और रिसाइकिल किया गया था जबकि बाकी एक बड़ा 82.6 फीसद हिस्से को ऐसे ही फेंक दिया गया था। इसका साफ अर्थ यह है कि इस कचरे में मौजूद सोना, चांदी, तांबा, प्लेटिनम समेत तमाम अन्य कीमतों सामानों को ऐसे ही बर्बाद कर दिया गया। यह बात भारत पर तुलनात्मक और अधिक लागू होती हैं। ई-कचरा से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्ध स्तर की कार्ययोजना की आवष्यकता है जिसमें सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्मात्ताओं, उपभोक्ताओं और स्वयंसेवी समूहों साथ ही सरकारों के स्तर पर जागरूकता  पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत हैं। केन्द्रीय प्रदूशण नियन्त्रण बोर्ड इस मामले में चेतावनी भी दिया है कि इसके दुश्प्रभाव को भी समझा जाए। इसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे देष में लाखों टन ई-कचरा में से 3 से 10 फीसद कचरा ही इकट्ठा किया जाता हैं। इसके निस्तारण का कुछ नैतिक तरीका भी हो सकता है जैसे जरूरतमंदों को पुराना कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य इलेक्ट्राॅनिक पदार्थ फेंकने के बजाय भेंट कर देना या फिर कम्पनियों को वापस कर देना और कुछ न हो सके तो सही निस्तारण की राह खोजना। दुविधा भरी बात यह है कि भारत में हरित विकास की अवधारणा अभी जोर नहीं पकड़ पाई है मगर ई-कचरा पसरता जा रहा हैं। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यही बताते हैं कि धरा को धरोहर की तरह बनाए रखने की जिम्मेदारी सभी की हैं। तकनीक के सहारे जीवन आसान होना सौ टके का संदर्भ है मगर लाख टके का सवाल यह भी है कि रोजाना तीव्र गति से उत्पन्न हो रहा ई-कचरा उसी आसान जीवन को नई समस्या की ओर ले जाने में कारगर भी हैं। 

 दिनांक : 17/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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भारत और भारतीयता का सारगर्भित अवलोकन

समाज और संस्कृति को समझना साथ ही उसे जन-जन तक पहुंचाना भारत बोध की अवधारणा का ही एक अध्याय है। अनेक बाधाओं और उपलब्धियों के बावजूद भारतवासियों ने देष को सषक्त, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई अतुल्य और सफल गाथा लिखी। एक लेखक व षिक्षाविद् के रूप में मैंने भी पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से कई ऐसे संदर्भों की रोपाई की है और उसे अन्यों तक पहुंचाने का प्रयास रहा ताकि संवाद का कोई कोना अधूरा न रहे। भारत बोध का नया समय नामक यह पुस्तक जब कई दिनों तक पढ़ा तो मन में कई सवाल आये भी और कई सवालों के समाधान मिले भी। वाकई में इस पुस्तक के माध्यम से लेखक, पत्रकार और प्राध्यापक तथा वर्तमान में भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली के महानिदेषक प्रोफेसर संजय द्विवेदी ने एक साथ कई बात कहने का प्रयास किया है। पुर्नजागरण की राह को चिकना बनाने से लेकर षिक्षा और जागरूकता की तमाम यात्रा इस पुस्तक में निहित है। एक ओर जहां स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिता का ताना-बाना है तो वहीं मौजूदा समय में इसके नैतिकता को लेकर भी उद्बोधन इसमें झलकता है। पुस्तक के माध्यम से प्रोफेसर द्विवेदी ने प्रेरक व्यक्तित्व को एक बार फिर उद्घाटित किया मसलन हिंद स्वराज के बहाने गांधी की याद और युवा षक्ति में जोष भरने को लेकर विवेकानंद को तरो-ताजा करते दिखते हैं। वैसे पुस्तकें किसी दस्तावेज से कम नहीं होती और यह युगों का चित्रण करती हैं साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए युग दृश्टा का काम करती हैं। प्रधानमंत्री मोदी पिछले कई बरसों से रेडियो के माध्यम से मन की बात करते हैं। मन की बात में जो मर्म और मार्ग छिपा है उसका भी चेहरा इस पुस्तक के आईने में परिलक्षित होता है। नये भारत में कितनी चुनौती है यह इसके नये पन में ही झलकता है। प्रोफेसर द्विवेदी ने नया भारत बनाने की चुनौती को लेकर अपने विचार को उद्घाटित किया है। मिषन कर्मयोगी, स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत व बेटा-बेटी एक समान जैसे तमाम प्रसंग को इस पुस्तक में बड़े षालीनता से वाक्य विन्यास दिया है। 

वैचारिकी का अपना एक आयाम होता है। देष कभी अनिष्चितताओं में नहीं जीता है और देष के लोग चुनौतीविहीन नहीं होते। अध्यात्म से जुड़ी चेतना हो या जड़वादी विचारधारा को ध्यान में रखकर बात कहने की हो इस पुस्तक में ऐसी कोषिष भी की गयी है कि जन सरोकारों और देष के विचारों मंे एकत्व रूप दिया जाये। चूंकि लेखक स्वयं पत्रकारिता और षिक्षा जगत से है ऐसे में उनका झुकाव ऐसे विशयों की ओर होना लाज़मी है। पुस्तक में सामायिकता का पर्याप्त पुट भी दिखाई देता है। निबंधात्मक षैली में लिखी गयी यह पुस्तक कोरोना की भीशण तबाही को भी उद्घाटित करती है जिसमें सामुहिक प्रयत्नों से कोरोना की लड़ाई जीतने का ताना-बाना निहित है। इसमें कोई दुविधा नहीं की राश्ट्र निर्माण में देष की सबसे बड़ी पंचायत संसद की सबसे बड़ी भूमिका है। आजादी का अमृत महोत्सव के इस पावन अवसर पर चुप्पियों को तोड़ने और कुछ हद तक चुप रहने का वक्त भी हो सकता है। लेखक ने यहां चुनी हुई चुप्पियों का समय को लेकर एक बेहतरीन प्रसंग प्रकट किया है और भारत की संसद की उपादेयता और भूमिका का भी बाकायदा जिक्र किया है। 

भारत बोध का नया समय यह षीर्शक अपने आप में एक नयी दिषा देता है। एक पुस्तक में एक साथ कई विचारों को समेटना लेखक की क्षमता को भी दर्षाता है। भाशा और लेखन षैली साथ ही प्रस्तुत करने का तरीका इसके प्रति एक अच्छे आकर्शण का संकेत है। जो मुद्दे पुस्तक में निहित हैं वे काफी हद तक मौजूदा वक्त की आवष्यकता हैं साथ ही इसकी खासियत यह भी है कि यह कहीं पर संवाद विहीन नहीं होने देती है। रटे रटाये पैटर्न से बाहर निकलते हुए इसमें अनुप्रयोगिक और व्यावहारिक बातों का उल्लेख है। कहा जाये तो युग समावेषी है और सतत् प्रक्रिया से गुजर रहा है ऐसे में विचारों के गुलदस्ता से भरा भारत बोध का नया समय नामक पुस्तक एक सारगर्भित भारत अवलोकन है। 

 दिनांक : 17/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

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बंद आवाज के दस्तावेज

दौर को दस्तावेज के रूप में की गयी पेषगी ही इतिहास है और इसी दस्तावेज के माध्यम से घटनाओं को समझना सहज रहा है। ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना 1990 के दौर में कष्मीर से हिन्दुओं के पलायन की है जो इन दिनों एक फिल्म ‘द कष्मीर फाइल्स‘ से फिर फलक पर है। देष के सिनेमा घरों में इस फिल्म को देखने के लिए भारी-भरकम भीड़ उमड़ रही है और फिल्म देखकर कष्मीरी पण्डितों पर उन दिनों क्या गुजरी थी उस त्रासदी और घाव से कलेजा मुंह को आ रहा है। सवाल उस समय भी था और आज भी है कि आखिर यह अनहोनी कैसे घटी और इसके लिए कौन जिम्मेदार है। 1989 में देष की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन हुआ था जब कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई थी और भाजपा के समर्थन से इसी साल 2 दिसम्बर को विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का पर्दापण हुआ था। उन दिनों अपनी उम्र तो कम थी मगर इलाहाबाद में बीएससी द्वितीय वर्श में अध्ययन करते हुए सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में संलग्नता के साथ अखबार पढ़ना बड़े षौक में षामिल था। 1990 के षुरूआती दिनों से ही कष्मीर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार की खबरें अखबारों की सुर्खियां हुआ करती थी। खबरे कितनी थी और कितनी जनता तक पहुंच रही थी यह कह पाना मुष्किल है। मगर जितनी भी थी उससे यही पता चलता था कि वहां गला घोंटा जा रहा है और आवाजे बंद हो रही हैं। फिल्म के माध्यम से भी यह पता चलता है कि कष्मीरी हिन्दुओं ने बेइंतहा सहा है। अब तीन दषक के बाद ‘द कष्मीर फाइल्स‘ देखने से तो यही लगता है कि जितना कष्मीरी हिन्दुओं के बारे में आम भारतीय जानता है उससे कहीं अधिक नहीं भी जानता है। घटनाक्रम को देखते हुए एक अप्रकाषित उपन्यास ‘बंद आवाज‘ भी लिखने की चेश्टा मैंने की थी मगर हालात के आगे यह पूरी न हो सकी। कष्मीरी पण्डितों पर हो रहे अत्याचार और आतंक से जिस तरह कष्मीर जल रहा था और सरकारें इसे रोकने में नाकाम रहीं इससे उनकी कमजोरी का भी खुलासा होता है। 

माहौल 1980 के बाद बदलने लगा था और 1990 के बाद तो यह इतना बदल गया कि कुल आबादी का 15 फीसद कष्मीरी हिन्दू 1991 तक महज 0.1 फीसद ही बचा। 14 सितम्बर 1989 को श्रीनगर में हुई वो हत्या जहां से पलायन की कहानी जन्म लेती है। यदि उसी समय बड़ा एक्षन हो जाता तो इतिहास अलग करवट लिए होता। 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिजबुल मुजाहिद्दीन ने छपवाया कि सारे हिन्दू कष्मीर की घाटी छोड़ दें। कष्मीरी पण्डित संघर्श समिति के अनुसार जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75 हजार से अधिक परिवार थे और 1992 तक 70 हजार से ज्यादा परिवारों ने घाटी छोड़ दी। पिछले तीन दषक के दौरान घाटी में बामुष्किल 8 सौ हिन्दू परिवार बचे हैं। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए जो जम्मू-कष्मीर को विषेश राज्य का दर्जा देता था उसे मोदी सरकार ने साहस दिखाते हुए खत्म कर दिया। यह वही कष्मीर है जब उन दिनों लाल चैक पर तिरंगा लहराना मानो किसी युद्ध को जीतने जैसा था। जिस तरीके से कष्मीर की घाटी में अलगाववादियों ने भारत से अलग राह चुनी और वह काफी हद तक इसमें सफल हो रहे थे आखिर इसके पीछे कठोर कदम क्यों नहीं उठाये गये। तीन दषक से कष्मीर छोड़ने की पीड़ा भोग रहे कष्मीरी हिन्दुओं को पूरा न्याय अभी तक क्यों नहीं मिला। ये सवाल किसी को भी झकझोर सकता है। पहले सुरक्षा में बड़ी चूक और बाद में पुर्नवास के ढांचे में बड़ी गड़बड़ी ने समस्या को जिन्दा रखा। हालांकि मौजूदा समय में सक्रिय आतंकवादियों की संख्या गिर कर दो सौ से भी कम है और युवा इसमें भर्ती न हो इस पर भी कड़ी नजर रखी जा रही है।  

1987 के चुनाव में कट्टरपंथी हार गये थे जो इस बात का सबूत था कि जनता षान्ति चाहती है। तब इन्हीं कट्टरपंथियों ने चुनाव पर धंाधली का आरोप लगाते हुए इस्लाम को ही खतरे में बता दिया था। जुलाई 1988 में जम्मू कष्मीर लिबरेषन फ्रंट (जेकेएलएफ) बना। कष्मीर से भारत को अलग करने के लिए कष्मीरियत मानो अब मुसलमानों की रह गयी और यहीं से कष्मीरी पण्डितों को भुला दिया गया। जब पहली हत्या कष्मीरी पण्डित की हुई तो हत्यारे न तो पकड़ में आये और न ही इन पर कोई रोक लग पायी। आम से खास की हत्या का सिलसिला घाटी में उफान लेने लगा। हैरत यह भी है कि जुलाई से नवम्बर 1989 के बीच 70 अपराधियों को जेल से भी रिहा कर दिया गया जिसका जवाब उस समय की नेषनल कांफ्रेंस की सरकार ने कभी नहीं दिया। विस्थापित परिवारों के लिए संसद में भावनात्मक भाशण खूब चले और तमाम राज्य सरकारें और केन्द्र सरकारें तरह-तरह के पैकेज निकालती रहीं। कभी घर देने की बात करते तो कभी पैसा पर किसी ने यह सुध नहीं लिया कि उनकी वापसी के लिए ठोस नीति क्या हो। इतना ही नहीं 1997, 1998, और 2003 में भी नर संहार हुए और 2001 सर्वाधिक हिंसक वर्श रहा। गृह मंत्रालय के अनुसार साल 1990 से लेकर 9 अप्रैल 1917 तक स्थानीय नागरिक, सुरक्षा बल के जवान और आतंकवादी समेत 40 हजार से ज्यादा मौते कष्मीर में हो चुकी हैं। मोदी सरकार ने 2015 में कष्मीर पण्डितों के पुर्नवास के लिए 2 हजार करोड़ के पैकेज की घोशणा की थी। लेकिन पलायन की व्यापकता को देखते हुए यह कितना काम आया होगा यह समझा जा सकता है। हालांकि अनुच्छेद 370 को खत्म करना यह बताता है कि सरकार उस स्तर पर कोषिष कर रही है जहां मवाद बरसों से जमा हुआ था। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1990 में खूनी खेल खेलने वाला मकबूल भट से लेकर 2016 के बुरहान वानी तक कष्मीर की वादी पूरी तरह षान्त हो ही नहीं पायी। वक्त लम्बा जरूर बीत चुका है पर पलायन का दंष अभी भी कहीं गया नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या उसी तरह से एक बार फिर कष्मीर कष्मीरी हिन्दुओं से आबाद हो सकेगी जबकि अब अलगाववादी को सरकार ने रसातल का रास्ता दिखा दिया है। फिलहाल ‘द कष्मीर फाइल्स‘ को कष्मीरी पण्डितों के बंद आवाज का एक दस्तावेज कहा जा सकता है।

दिनांक : 14/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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हमारी सुविधाओं को बढ़ाता ई-गवर्नेंस

तकनीक किस सीमा तक षासन-प्रषासन की संरचना को तीव्रता देती है और किस सीमा तक संचालन को प्रभावित करती है। यदि इसे असीमित कहा जाय तो अतार्किक न होगा। प्रौद्योगिकी मानवीय पसंदों और विकल्पों द्वारा निर्धारित परिवर्तनों का अनुमान ही नहीं बल्कि परिणाम भी है। ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को फिलहाल समाप्त किया जा सकता है और इस दिषा में कदम आगे बढ़ चुके हैं। नागरिकों को सरकारी सेवाओं की बेहतर आपूर्ति, प्रषासन में पारदर्षिता की वृद्धि साथ ही सुषासन प्रक्रिया में व्यापक नागरिक भागीदारी को मनमाफिक पाने हेतु ई-गवर्नेंस कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है भारत में उदारीकरण के बाद यह परिलक्षित हुआ जिसका सीधा आषय समावेषी विकास है जबकि भारत अभी इस मामले में मीलों पीछे है। इतना ही नहीं प्रषासनिक प्रक्रिया से लालफीताषाही और कागजी कार्यवाही में कटौती भी सुषासन की ही राह है जिसे ई-षासन से सम्भव किया जा सकता है। ई-गवर्नेंस, स्मार्ट सरकार के द्वन्द को भी समाप्त करने में भी यह मददगार है। सरकार के समस्त कार्यों में प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग ई-गवर्नेंस कहलाता है जबकि न्यूनतम सरकार अधिकतम षासन, प्रषासन में नैतिकता, जवाबदेहिता, उत्तरदायित्व की भावना व पारदर्षिता स्मार्ट सरकार के गुण हैं जिसकी पूर्ति ई-षासन के बगैर सम्भव नहीं है। भारत सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना 1970 में की और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र की स्थापना के साथ ई-षासन की दिषा में कदम रख दिया था मगर इसका मुखर पक्ष 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकटीकरण से देखा जा सकता है। देखा जाय तो दक्षता, पारदर्षिता और जवाबदेहिता ई-षासन की सर्वाधिक प्रभावी उपकरण है। बरसों से सरकारें इस बात को लेकर चिंतित रही हैं कि प्रषासनिक प्रक्रियाओं को कैसे सरल किया जाय, कैसे अनावष्यक देरी को खत्म किया जाय, नीति निर्माण से लेकर नीति क्रियान्वयन तक कैसे पारदर्षिता लायी जाय इन सभी से निजात दिलाने में ई-गवर्नेंस से बेहतर कोई विकल्प नहीं।

डिजिटल इण्डिया की सफलता के लिये मजबूत डिजिटल आधारभूत संरचना भी तैयार करना जरूरी है। सम्भव है कि ग्रामीण सुषासन हेतु ऐसे नेटवर्क कहीं अधिक अपरिहार्य हैं। इससे गांव न केवल डिजिटलीकरण से युक्त होंगे बल्कि बुनियादी और समावेषी जरूरतों को भी पूरा कर पायेंगे। षैक्षणिक और षोध संस्थानों के बीच आदान-प्रदान अत्याधुनिक नेटवर्क के माध्यम से खूब किया जा रहा है। राश्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क ने कई तरह के एप्लीकेषन तैयार कर देष भर में इसे बढ़ाने में मदद दी है। डिजिटल सेवाओं के अन्तर्गत जो ई-गवर्नेंस का एक बेहतरीन उपकरण है जिसका तेजी से देष में फैलाव हो रहा है। इसका अंदाजा इन्हीं बातों से लगाया जा सकता है कि करोड़ो छात्र-छात्रायें राश्ट्रीय छात्रवृत्ति हेतु ई-पोर्टल से जुड़ चुके हैं। जीवन प्रमाण के आधार पर देखें तो ई-अस्पताल और आॅनलाईन रजिस्ट्रेषन सेवा षुरू हो चुकी है। मरीज और डाॅक्टर सम्बंध कायम हो रहे हैं। देष के सैकड़ों अस्पताल में यह लागू है। इसी तरह मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जिसके तहत 13 करोड़ कार्ड कोरोना से पहले ही जारी हो चुके थे, इलेक्ट्राॅनिक राश्ट्रीय कृशि बाजार जिसके अंतर्गत लाखो किसान जोड़े गये हैं जो देष के दर्जन भर से अधिक राज्यों में सैकड़ों बाजार इस नेटवर्क से सम्बंधित हैं। ई-वीजा के चलते भी 163 देषों के पर्यटकों को जोड़ने का काम जारी है। अब तक 41 लाख ई-वीजा कुछ साल पहले ही जारी किये जा चुके थे। ई-अदालत के चलते देष भर के विभिन्न अदालत में चल रहे मुकदमे पर निगरानी रखना आसान हुआ है जबकि न्यायिक डेटा ग्रिड के कारण लम्बित पड़े मुकदमे, निपटाये जा चुके मामले और हाई कोर्ट और जिला अदालतों में दायर मुकदमों के बारे में सूचना उपलब्ध होना आसान हुआ है। इसमें दीवानी और फौजदारी दोनों तरह के मामले षामिल हैं। इसके अलावा देष भर में आम लोगों को डिजिटली साक्षरता प्रदान करना, छोटे षहरों में बीपीओ को बढ़ावा देना साथ ही रोज़गार उद्यमिता और सषक्तीकरण के लिए डिजिटल इण्डिया एक बेहतरीन परिप्रेक्ष्य लिये हुए है जिसके चलत ई-गवर्नेंस को तेजी से मजबूती मिल रही है। 

वैसे ई-गवर्नेंस के उद्देष्य में जो मुख्य बातें हैं उनमें भ्रश्टाचार कम करना, अधिक से अधिक जन सामान्य के जीवन में सुधार करना, सरकार और जनता के बीच पारदर्षिता लाना, सुविधा में सुधार करना, जीडीपी में वृद्धि करना और सरकारी कार्य में गति बढ़ाना आदि है। वर्तमान में एक नई आवाज के रूप में ई-प्रषासन व ई-गवर्नेंस को देखा जा सकता है। इलेक्ट्राॅनिक के माध्यम से कार्य करना आसान हुआ है पर दुरूपयोग के कारण अपराध भी बढ़े हैं। साइबर अपराधों की गति और भौगोलिक सीमाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इसकी चूक ने जल, थल और आकाष सभी दिषाओं में अपराध का विस्तार किया है। वित्तीय धोखाधड़ी से लेकर बौद्धिक धोखाधड़ी समेत कई प्रकार के अपराध इसके साइड-इफैक्ट भी हैं। सभी जानते हैं कि ई-षासन के क्षेत्र में डाटा और सूचना दो चीजे हैं इसलिए इससे जुड़े अपराध भी इसी से सम्बंधित हैं। फेसबुक पर भी यह आरोप रहा है कि उसने डेटा का हेरफेर किया है। हमेषा यह चिंता रही है कि छोटी सी चूक डेटा और सूचना में सेंध लगा सकती है। ऐसे में डिजिटल इण्डिया के साथ सचेत इण्डिया का संदर्भ भी ई-व्यवस्था में निहित देखा जा सकता है फिलहाल ई-षासन से दक्षता का विकास हुआ है, प्रषासन की जवाबदेहिता बढ़ी है और जनता को लाभ भी पहुंचा है। यहां यह समझना जरूरी है कि ई-गवर्नेंस सब कुछ नहीं देगा बल्कि जो चाहिए उसमें पारदर्षिता और तीव्रता लायेगा। इसमें कोई षक नहीं ई-गवर्नेंस के कारण नौकरषाही का कठोर ढांचा नरम हुआ है और इन्हें कहीं अधिक लक्ष्योन्मुख बनाया है। षिक्षा, स्वास्थ्य व गरीबी इत्यादि विविध क्षेत्र हैं जो राश्ट्र को हमेषा चुनौती देते रहे हैं। इन्हें दूर करने और संसाधनों की प्रभावी उपयोगिता हेतु षासन व प्रषासन निरंतर प्रयासरत् रहा है। इसी प्रयास को ई-गवर्नेंस तेजी से लक्ष्योन्मुख करने में मददगार हुआ है। षासन-प्रषासन में प्रौद्योगिकी कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसमें व्याप्त पारदर्षिता से आंका जा सकता है। 

कोरोना काल में विकास के नये आयाम के रूप में ई-गवर्नेंस को प्रतिश्ठित रूप में देखा जा सकता है। रफ्तार भले ही धीमी रही हो पर असर व्यापक है। भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है और डिजिटल तकनीक में यह और तेजी ले सकती है। सब कुछ स्मार्ट हो रहा है इस क्रान्ति ने आम आदमी को भी स्मार्ट बना रहा है। मोबाइल षासन का दौर है जो ई-षासन को और भी प्रासंगिक बना रहा है। डिजिटल बदलाव की जो लहर है वह सरकार के लिए भी राहत है क्योंकि कई कोषिषें नागरिक अब स्वयं करने लगे हैं। भारतीय वैष्विक अर्थव्यवस्था भी बदल रही है और सेवाओं का तौर-तरीका भी बदला है। अब कतार में खड़े होने के बजाय डिजिटीकरण से सम्भव हो गया है। भारत का षानदार आईटी उद्योग तेजी लिए हुए है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस उद्योग ने देष का नक्षा बदल दिया है। राश्ट्रीय गवर्नेंस योजना जो 2006 से षुरू हुई बीते एक दषक में बड़ा विस्तार ले चुकी है। सरकार भी अधिकतम नहीं होना चाहती बल्कि अधिकतम गवर्नेंस करना चाहती है। ई-गवर्नेंस ने यहां भी काम आसान कर दिया है। 

 दिनांक : 9/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, March 3, 2022

युद्ध की आंच से गरम होती महंगाई

वैष्विक बाजार में क्रूड आॅयल की आसमान छूती कीमतें यह इषारा कर रही हैं कि आम जनता को महंगे पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के लिए तैयार रहना चाहिए। दुनिया भले ही सभ्यता की गगनचुम्बी मुकाम पर हो मगर रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग को देखते हुए यह स्पश्ट हो चला है कि युद्ध और विध्वंस का विचार कहीं गया नहीं है। भले ही यह युद्ध दो देषों के बीच हो लेकिन दुनिया कई धड़ों में वैचारिक रूप से बंट चुकी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मौजूदा हालात आम जीवन के लिए एक कठिन राह विकसित करेगा। इसी में एक महंगाई है वैसे सामान्य धारणा है कि जंग कोई भी जीते या हारे कीमत सभी को चुकानी पड़ती है। मौजूदा स्थिति को देखें तो मार चैतरफा है मगर क्रूड आॅयल की स्थिति यह बता रही है कि आने वाले कुछ समय में आम लोगों को महंगाई से दो-चार होना पड़ेगा। कच्चे तेल की कीमतें उछाल ले रही हैं जो बीते 8 सालों की तुलना में सर्वाधिक है। गौरतलब है रूस-यूक्रेन के बीच जारी युद्ध से दुनिया भर में कच्चे तेल की सप्लाई पर असर पड़ा है। युद्ध से पहले क्रूड आॅयल 97 डाॅलर प्रति बैरल था जो मौजूदा समय में सवा सौ डाॅलर के इर्द-गिर्द है। रूस से तेल की आपूर्ति में व्यवधान की आषंका से अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल का दाम इतने बड़े उछाल पर है। माना जा रहा है कि 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव अगले सप्ताह में सम्पन्न होने के साथ ही पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ेंगे जिसमें 15 से 20 रूपए प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी हो सकती है। जाहिर है क्रूड आॅयल जिस पैमाने पर महंगा हुआ है तेल की कीमतों में वृद्धि होना स्वाभाविक है। अब तेल कम्पनियों को यह तय करना है कि जनता पर सारा बोझ एक साथ डालेंगी या प्रतिदिन कुछ-कुछ कीमत बढ़ाई जायेगी। गौरतलब है कि भारत में 2 नवम्बर, 2021 से तेल में वृद्धि नहीं की गयी है। इसकी एक बड़ी वजह 5 राज्यों का चुनाव है। इस लिहाज़ से देखें तो तीन महीने से तेल स्थिर अवस्था में बना रहा। रूस-यूक्रेन संकट से अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भले ही कच्चा तेल कीमत के मामले में आसमान छू रहा हो बावजूद इसके घरेलू स्तर पर इनकी कीमतों में अभी बदलाव नहीं हुआ है। फिलहाल दुनिया में सबसे सस्ता पेट्रोल वेनेजुएला में तो सबसे महंगा हांगकांग में बिकता है। 

भारत अपनी जरूरत का करीब 85 फीसद तेल आयात करता है। क्रूड आॅयल के दाम बढ़ने पर खुदरा बाजार में पेट्रोल-डीजल भी महंगा हो जाता है। ऐसा कई बार देखा गया है कि चुनाव के समय सरकार के दबाव में कम्पनियां तेल की कीमतें बढ़ाती नहीं हैं मगर उसके बाद बची हुई कोर-कसर भी उगाही में खर्च कर देती हैं। अनुमान है कि इस बार भी 10 मार्च को 5 विधानसभाओं के चुनाव परिणाम घोशित होने के बाद दाम अचानक बढ़ सकते हैं। जाहिर है आम आदमी एक बार फिर महंगाई की चपेट में हो सकता है। जिस पैमाने पर कच्चा तेल बढ़त बनाये हुए है और लगातार इसमें उछाल जारी है इसे देखते हुए सरकार और कम्पनियां दोनों ही महंगे क्रूड का ज्यादा बोझ सहने की स्थिति में तो नहीं होंगे। एक ओर जहां कोरोना से अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई और उसे समुचित करने का प्रयास जारी है वहीं दूसरी ओर क्रूड आॅयल की कीमतों में आया उछाल पहले से ही महंगाई की मार झेल रही आम जनता के सामने एक नई महंगाई मुंह बाये सामने खड़ी है। गौरतलब है कि डीजल महंगा होने का सीधा असर माल ढुलाई पर पड़ता है और खाने-पीने की चीजें महंगी हो जाती है। किसानों के ऊपर भी आर्थिक दबाव बढ़ जाता है। जाहिर है जुताई-बुआई से लेकर सिंचाई सभी महंगाई की चपेट में होती है। अनाजों की कीमत भी बढ़ जाती हैं। देखा जाये तो सब्जी, फल, अनाज, दूध, अण्डा जैसे तमाम वस्तुएं एक बड़े जनमानस की पहुंच से बाहर होने लगती हैं। दो टूक यह भी है कि क्रूड आॅयल का सीधा सम्बंध खाने के तेल से भी है। माल ढुलाई में खर्च डीजल से खाने का तेल महंगा होना भी लाज़मी है। यहां बताते चलें कि भारत खाने के तेल की कुल जरूरत का 60 फीसद आयात करता है। युद्ध पर इसका असर पड़ने से इसकी सप्लाई भी बाधित हो रही है जिसके चलते सूरजमुखी, सोयाबीन व पाॅल्म समेत कई प्रकार के खाद्य तेल और महंगे हो जायेंगे। स्पश्ट है कि थाली में जो भोजन आम से लेकर खास तक कि बुनियादी और मौलिक आवष्यकता है उस पर महंगाई की आंच और तपिष के साथ बढ़त ले सकती है। 

वैसे एक रोचक संदर्भ यह भी है कि तेल और तेल की धार जीवन की वह धारा रही है जो कभी चर्चे से बाहर रही ही नहीं। देष में नये तरीके का हाहाकार मचाने में इसका बड़ा योगदान रहा है। तेल ने आम जीवन का खेल भी बिगाड़ता रहा है और जेब पर भी भारी पड़ता रहा है। दो टूक यह भी है कि क्रूड आॅयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में क्रूड आॅयल बीते 8 वर्शों की तुलना में सबसे अधिक महंगा है मगर जब यही अप्रैल 2020 में अपने सबसे निम्न स्तर पर था तब भी जनता को तेल सस्ता नहीं मिला था और सस्ते की इस गुंजाइष को सरकार ने डीजल पर 13 रूपए तो पेट्रोल पर 10 रूपए प्रति लीटर एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ा कर 5 मई 2020 को सस्ते होने की गुंजाइष को खत्म कर दिया था। गौरतलब है उन दिनों कच्चा तेल 20 डाॅलर प्रति बैरल पर था। युद्ध की विभीशिका से उबरना अपने आप में एक चुनौती होती है। डाॅलर के मुकाबले कमजोर होता रूपया भी महंगाई पर असर डालता है। भारत का रूपया डाॅलर के मुकाबले बहुत आषातीत प्रदर्षन नहीं कर पाता है। देखा जाये तो इन दिनों रूस की करेंसी रूबल डाॅलर के मुकाबले कहीं अधिक गिरावट ले चुकी है। जब क्रूड आॅयल महंगे होते हैं तो सरकार को अधिक धन खर्च करना पड़ता है और ऐसे में जब रूपया भी डाॅलर के मुकाबले कमजोर हो तो इसकी मात्रा और बढ़ जाती है। अनुमान यह रहा है कि 2021-22 में सरकार को क्रूड आयात पर सौ अरब डाॅलर खर्च करने होंगे जिससे चालू खाते का घाटा बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। मौजूदा क्रूड आॅयल की स्थिति को देखकर यह स्पश्ट है कि घाटे में और इजाफा लाज़मी है जिसका असर विकासदर पर भी पड़ता है। तेल जब पहुंच में नहीं होता है तो जन-जीवन छूटने लगता है। सफर महंगा हो जाता है और ईंधन की खपत बढ़ने से वाहनों की बिक्री पर भी असर पड़ सकता है। कहा जाये तो अर्थव्यवस्था पर चारों तरफ से पड़ने वाली मार से भी इंकार नहीं किया जा सकता। 

तेल की कीमत और इससे जुड़ी आवाज में गूंज तो होती है पर इसका इलाज एक सीमा के बाद सरकार और कम्पनियां दोनों नहीं कर पाती हैं। तेल के मामले में आत्मनिर्भर होना भारत के लिए फिलहाल दूर की कौड़ी है। नवरत्नों में षुमार ओएनजीसी जैसी इकाईयां भी इस मामले में कमजोर सिद्ध हो रही हैं। भारत में तेल के कुंए कैसे बढ़े यह चिंता भी स्वाभाविक है। फिलहाल मौजूदा स्थिति महंगाई की ओर इषारा कर रही है और इसके लिए जनता को तैयार होना ही पड़ेगा। 



  दिनांक : 2/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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