Monday, December 14, 2015

विकास की खबर से बेफिक्र होती संसद

चाहे नेषनल हेराल्ड को लेकर भाजपा नेताओं की भ्रश्टाचार के आरोपो पर कांग्रेस पर दबाव बनाने की रणनीति हो या फिर कांग्रेस की पीछे न हटने की हठ हो इससे साफ है कि बाकी का षीत सत्र भी कम गरम नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने एक अखबार के कार्यक्रम में यह साफ किया है कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार काम नहीं कर सकता, बात उचित है पर सवाल है कि इन दिनों की संसद तो अपनी भी मर्जी का काम नहीं कर रही। मोदी का यह भी कहना है कि लोकतंत्र के समक्ष दो बड़े खतरे हैं जिसमें से एक ‘मनतंत्र‘ दूसरा ‘धनतंत्र‘ है। जिस चिंता से मोदी देष को अवगत कराना चाहते हैं दरअसल उसकी तस्वीर संसद में इन दिनों रोज उभरती है। 27 दिन चलने वाले षीत सत्र का एक पखवाड़ा निकल गया है। संसद की कार्यवाही इस उम्मीद में प्रतीक्षारत् होती है कि षायद किसी दिन लोकतंत्र की इस संस्था से विकास की खबर आये पर सांसद विमर्ष और परिचर्चा ऐसे मुद्दों पर करने में लगे हैं मानों संसद बेफिक्र हो। जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर जनजीवन पर पड़ता है पर जब यही प्रगति थम जाए तो इसके उलट परिणाम होते हैं। समावेषी राजनीति हो या सहभागी राजनीति पड़ताल बताती है कि दायित्व आभाव में सभी की अपनी-अपनी विफलताएं रहीं हैं। विकास का विशय जब भी मूल्यांकन की दीर्घा में आता है तो राजनीति से लेकर सरकार और प्रषासन का मोल पता चल जाता है। जब 1996 में मानव विकास रिपोर्ट में विकास के कारण अमीर तथा गरीब के मध्य बढ़ती खाई तथा उसके चलते मानव विकास की बिगड़ती हुई स्थिति के बारे में चिंता व्यक्त की गयी तो वैष्विक स्तर पर कई देषों के कान खड़े हुए थे पर सीख किसने ली ये वहां के विकास से आंका जा सकता है। भारत के मामले में यह बात इसलिए भी ज्यादा संवेदनषील है क्योंकि यहां मानव विकास का पैमाना न तो स्तरीय है और न ही निकट भविश्य में षीघ्र इसकी सम्भावना दिखाई देती है।
वर्श 1996 से 2015 तक के इस दो दषक में चाहे धारणीय विकास हो या समावेषी उसका आभाव आज भी बड़ी खाई के साथ बरकरार है। इससे जुड़े सवाल हमेषा से इस जवाब की फिराक में रहेंगे कि विकास के उन तत्वों को कितनी गम्भीरता दी गयी है जो जीवन के लिए अनिवार्य है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि देष की संसद देष के विकासात्मक नीति एवं कानून के मामले में बड़ी रेस लगाने का जो प्रदर्षन करती है वह पसीना बहाने के काम में तो आता है पर काज के पैमाने पर सही नहीं उतरती दिखाई देती। क्या यह आज के परिप्रेक्ष्य में उचित करार दिया जा सकता है। बीते 26 नवम्बर से संसद का बेषकीमती वक्त कई गैर संवेदनषील मुद्दों में खर्च कर दिया गया। दूसरे षब्दों में कहें तो गैर संसदीय मुद्दे भी संसद में छाये रहे मसलन नेषनल हेराल्ड का मुद्दा। ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूर्ण समाज का आर्थिक विकास तो हो रहा है परन्तु इस आर्थिक उन्नति में रोजगार को देखें तो उपलब्धि सिकुड़ती जा रही है और अमीर-गरीब के बीच खाई बन रही है। टिकाऊ राजनीति के बड़े अर्थ होते हैं इसमें सत्ता का भरपूर और व्यापक पैमाने पर प्रयोग और प्रसार निहित होता है। लोगों की अपेक्षाओं पर कहीं अधिक खरे उतरने की गुंजाइष भी बरकरार रहती है। लोकतंत्र में जब किसी को पूर्ण बहुमत की सत्ता मिलती है तो यह धारणा स्थान घेरती ही है कि राजनीति हर हाल में टिकाऊ है पर ऐसे टिकाऊपन का क्या मतलब जिसमें लोकतंत्र की अपेक्षाएं अधूरापन लिये रहें। वर्तमान मोदी सरकार कुछ इसी प्रकार की मजबूत सत्ता वाली टिकाऊ सरकार है पर विरोध के चलते लोकतंत्र की उस संज्ञा को बेहतरी से परिभाशित न कर पाना सरकार के लिए षुभ संकेत नहीं हैं।
 धारणीय विकास की दृश्टि से यदि देष की पड़ताल करें तो सरकार के मजबूत होने से विकास की सम्भावनाएं प्रबल हो जाती हैं और काम के अनुपात में देखें तो ऐसा होते हुए दिखाई भी देता है पर नतीजे सार्थक हैं इसे षिद्दत से स्वीकार करने में आज भी कठिनाई क्यों है? आर्थिक उन्नति की इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की महत्ता बरकरार रखने की जिम्मेदारी सरकार की है मगर विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सूरत एक-दूसरे के आइने में देखी जाती है ऐसे में जिम्मेदारी से तो वे भी नहीं बच सकते। यदि आर्थिक उन्नति की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों को महत्व नहीं दिया गया तो इसे आवाजविहीन विकास कहेंगे।संसद देष की गूंज है, संसद केवल षोर के लिए नहीं बनाया गया है, यहां से नीति से भरी सुरीली आवाज भी निकलनी चाहिए जिसका आभाव है जो देष की संस्कृति तथा सभ्यता के अनुरूप नहीं है। वर्श 2014 के षीत सत्र से लेकर वर्तमान षीत सत्र तक अड़चनें एक साल बीतने के बावजूद उसी भांति बरकरार है। राजनीतिक संदर्भ में देखें तो संसद का वर्तमान षीत सत्र षोर होते हुए भी आवाजविहीन है और तमाम मूल्यों और संस्कृतियों की दुहाई देने के बावजूद जड़विहीन प्रतीत होती है। इनके बीच फंसा लोकतंत्र हाषिये पर है। समझ लेना चाहिए कि यदि संसद इसी गतिरोध से अटी रहेगी तो कूबत के बावजूद धारणाीय विकास की अवधारणा से जनमानस कटा रहेगा।
देष में तीन बड़े सेक्टर हैं कृशि एवं पषुपालन, उद्योग और सेवा इस क्रम के विलोम की क्रमिकता में देष की जीडीपी अधिक से कम की ओर है। कृशि सकल घरेलू उत्पाद के मामले में सिमटती जा रही है जिसे लेकर नीतियां हैं, नियोजन भी हैं पर विकासविहीन सिद्ध हो रहे हैं। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि विगत् मार्च-अप्रैल में देष में कई बार बेमौसम बारिष हुई। रबी की फसलें बर्बाद हो गयीं। किसानों ने इस त्रासदी के चलते आत्महत्या की। इतना ही नहीं खरीफ के समय भी मानसून की कमजोरी ने रही सही कसर पूरी कर दी। सूखे के चलते किसान तो झंझवात में ही फंस गया। आंकड़े भी बताते हैं कि पंजाब, उत्तर प्रदेष, बुंदेलखण्ड और महाराश्ट्र विदर्भ सहित कई राज्यों के हजारों किसानों ने आत्महत्या की। आंकड़ें इस बात का भी समर्थन करते हैं कि अबतक देष में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों का हितैशी होने का सभी सियासी दल प्रदर्षन करते हैं परन्तु जब देष के खेत-खलिहानों और किसानों के लिए कुछ करने का वक्त आया तो क्या सत्ता, क्या विपक्ष दोनों एक जैसे नजर आये। षीत सत्र में सूखे पर चर्चे को लेकर विपक्ष गायब रहा, विपक्षी बेंच पर महज कुछ ही सदस्य उपलब्ध थे। सरकार की ओर से भी इस पर कोई खास गम्भीरता भी नहीं दिखाई गयी साथ ही केन्द्र सरकार किसान आयोग बनाने से स्पश्ट इंकार कर दिया। कहा अभी इसे लेकर कोई योजना नहीं है। विकास प्रक्रिया में हम आज की आवष्यकता को ध्यान में रखकर क्या वह सब कर रहे हैं जो समय की मांग में निहित है। जाहिर है देष में किसान एक बड़ा वर्ग है और इसे नजरअंदाज करना यह साफ करता है कि भविश्यविहीन विकास की अवधारणा को उजागर किया जा रहा है जो अच्छे संकेत नहीं हैं। इसके अलावा जीएसटी सहित कई विधेयकों में रोड़ा बने विपक्ष का हठयोग भी खराब संकेत ही कहा जायेगा।





सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

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