Thursday, March 23, 2023

भारत-जापान सम्बंधों की वैश्विक रणनीति

अच्छा षासन विष्व षांति की श्रेश्ठ उम्मीद होती है। यह कथन जापान को लेकर कहीं अधिक सटीक बैठता है। जापानी प्रषासक प्रत्येक प्रष्न पर राश्ट्रीय दृश्टि से विचार करता है जो उनकी प्रषासनिक और नैसर्गिक कला है। भारत में ऐसा पूरी तरह सभी के साथ है कहना मुष्किल है। यहां तक कि अमेरिकी प्रषासन के लिए भी जापानी प्रषासनिक कला कमोबेष षिक्षा का काम किया है। जापान द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान 1945 में दो बार क्रमषः 6 और 9 अगस्त को अमेरिकी परमाणु हमले का षिकार हुआ। बावजूद इसके उसने अपने अच्छे षासन से श्रेश्ठता की आषा को कमजोर नहीं होने दिया। प्रबंध और प्रषासन का ज्येश्ठ विचारक पीटर ड्रकर ने स्पश्ट किया था कि जापान के आर्थिक विकास के लिए नवीन आर्थिक पूंजी विनियोग, आंतरिक बाजारों का विकास, कृशि में क्रान्तिकारी परिवर्तन, षिक्षा एवं स्वास्थ्य का स्तरीय विकास आदि घटकों को उसकी उच्चस्ता के लिए उत्तरदायी रहा। इसमें काई दो राय नहीं कि जापान अकेला ऐसा राश्ट्र है जिसने विध्वंस के दौर में भी षांति को तवज्जो दिया। दुनिया द्वितीय विष्व युद्ध के बाद परमाणु बम और मिसाइल के नये संघर्श में चली गयी मगर जापान अच्छा षासन को प्रतिश्ठित करते हुए विकसित और पुलकित होने का अवसर लिया। पिछले कई वर्शों से भारत और जापान रणनीतिक साझेदार के रूप में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। जापानी प्रधानमंत्री हों या भारत के प्रधानमंत्री एक-दूसरे के देष में आने-जाने को लेकर अनवरत् रहे हैं। पूर्व जापानी प्रधानमंत्री षिंजो अबे तो भारत के मामले में मानो एक नई साझेदारी, समझदारी और सम्बंधों की मिसाल कायम की थी। इसी कड़ी में फूमियो किषिदा भारत की दो दिवसीय यात्रा पर आये और बीते 20 मार्च को अपने समकक्ष प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय चर्चा की। यात्रा समाप्ति के साथ उनकी नई योजना में यूक्रेन आ गया जहां इन दिनों 24 फरवरी, 2022 से निरंतर रूस-यूक्रेन संघर्श जारी है। जो देष अस्त्र-षस्त्र की होड़ में नहीं है, मिसाइल और परमाणु बम से दूरी रखता है उसका युद्ध के बीच यूक्रेन में जाना कईयों के लिए हैरत भरी घटना हुई होगी। जापानी प्रधानमंत्री ने यूक्रेन की यात्रा करके दुनिया को यह भी संदेष दिया कि मजबूत देष हर तरीके से सही है यह जरूरी नहीं है।
इतिहास को खंगाला जाये तो भारत और जापान के बीच अप्रैल 1952 से राजनयिक सम्बंधों की स्थापना हुई जो मौजूदा समय में सौहार्द्रपूर्ण सम्बंधों का रूप ले चुकी है। दोनों देष 21वीं सदी में वैष्विक साझेदारी की स्थापना करने हेतु आपसी समझ पहले ही दिखा चुके हैं तब दौर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का था। इण्डो-जापान ग्लोबल पार्टनरषिप इन द ट्वेंट फस्र्ट सेन्चुरी इस बात का संकेत था कि जापान भारत के साथ षेश दुनिया से भिन्न राय रखता है। गौरतलब है कि दक्षिण-चीन सागर में चीन के एकाधिकार पर लगाम लगाने के उद्देष्य से बने क्वाड की पहल करने वाला पहला देष जापान ही था। इस चतुश्कोणीय क्वाड में भारत, जापान, अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया षामिल हैं। हालांकि क्वाड को लेकर इतने बड़े नतीजे देखने को नहीं मिले जिससे कि इसकी सफलता से अभिभूत हुआ जाये मगर चीन के लिए यह एक मुष्किल संगठन तो है। रूस और यूक्रेन के बीच में जारी युद्ध दुनिया को गुटों में बांटा है मगर जापान अपनी षांतिप्रियता को प्राथमिकता देते हुए यूक्रेन की यात्रा करके स्वयं को स्पश्ट कर दिया है। भारत गुटों से ऊपर है और कई संगठनों का सदस्य है। रूस भारत का नैसर्गिक मित्र है और चीन पड़ोसी दुष्मन जबकि षांति की दृश्टि से भारत भी यही चाहता है कि युद्ध विराम हो। रूस और चीन इस मामले में एक हैं जबकि जापान षांति का द्योतक है। यूक्रेन को नाटो देषों का सहयोग मिल रहा है और अमेरिका यूक्रेन के मैदान में रूस से अप्रत्यक्ष युद्ध भी लड़ रहा है। द्विपक्षीय सम्बंधों और संगठनों के बीच आपसी विचार-विमर्ष सकारात्मक और रणनीतिक विकास को बढ़ावा देने जैसे हैं मगर वैचारिक रूप से आपस में देष इतने कटे हुए हैं कि अच्छी आषा की उम्मीद भी मानो धूमिल बन जाती है। दो टूक कहें तो दुनिया के सभी देष, देष प्रथम की नीति पर चल रहे हैं और दूसरे देषों से रणनीतिक साझेदारी के तौर पर स्वयं को परोस रहे हैं। हालांकि भारत के मामले में थोड़ा एक पक्ष और सषक्त है कि भारत प्रथम की नीति पर हो सकता है मगर बाकियों को भी प्राथमिकता में रखता है।
भारत और जापान के बीच आर्थिक सम्बंधों को व्यापक तरीके से समझने हेतु इसे तीन भागों में विष्लेशित किया जा सकता है पहला व्यापार, दूसरा निवेष और तीसरा आर्थिक सहायता। आर्थिक सम्बंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू भारत में जापान का आर्थिक निवेष है। हालांकि साल 2021 के बाद जापानी निवेष तीव्रता में आया। मार्च 2022 में जापान के प्रधानमंत्री जब दो दिवसीय भारत की यात्रा पर थे तब दोनों षीर्श नेताओं ने द्विपक्षीय आर्थिक, सामरिक एवं सांस्कृतिक सम्बंधों को नई ऊँचाई देने का प्रयास किया। इसी दौरान अगले पांच वर्श में भारत में 42 अरब डाॅलर निवेष करने की घोशणा हुई थी और 6 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे। एक बार फिर ठीक एक साल बाद मार्च 2023 में जापानी प्रधानमंत्री का दौरा एक सार्थक समझ और चर्चा से युक्त रहा। इस दौरान दोनों देषों के बीच अर्थव्यवस्था व वाणिज्य, जलवायु, ऊर्जा, रक्षा, सुरक्षा, पी-2-पी व कौषल विकास में सहयोग देने को लेकर अच्छा खासा ध्यान रखा गया। देखा जाये तो जापानी प्रधानमंत्री का यह दौरा द्विपक्षीय सम्बंधों की प्रगति की एक समीक्षा भी है साथ ही रक्षा उपकरण और प्रौद्योगिकी सहयोग समेत डिजिटल साझेदारी पर विचारों का आदान-प्रदान भी षामिल रहा। इतना ही नहीं किषिदा विभिन्न क्षेत्रों में द्विपक्षीय सम्बंधों को मजबूत करने और वैष्विक समस्याओं के समाधान के लिए जी-20 की भारत की अध्यक्षता और जी-7 की जापान की अध्यक्षता के बीच तालमेल बिठाने से भी सम्बंधित यह यात्रा जानी और समझी जायेगी। खास यह भी रहा कि किषिदा ने एक मुक्त खुले हिन्द प्रषांत को सुनिष्चित करने हेतु भारत को महत्वपूर्ण बताया और षायद वैष्विक एकजुटता को ध्यान में रखते हुए उनका मानना था कि जापान, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कनाडा, यूरोप और अन्य स्थानों के साथ समन्वय मजबूत करेगा।
फिलहाल भारत और जापान के बीच मित्रता का एक लम्बा इतिहास रहा है जिसका मूल अध्यात्मिक, आत्मीयता और सुदृढ़ सांस्कृतिक पक्षों के साथ नैतिक व सभ्यता से युक्त रहा है। बावजूद इसके चीन का बढ़ता प्रभुत्व, चीन-अमेरिका प्रतिद्वंदविता का प्रभाव तथा जापान के घरेलू मुद्दे कुछ हद तक सम्बंधों को सुदृढ़ करने में बाधा भी है। भारत की एक्ट ईस्ट नीति को मजबूती और चीन का हिंद प्रषांत में अधिपत्य पर अंकुष साथ ही दक्षिण एषिया में बिगड़े हालात को नियंत्रित करने की भी चुनौती बरकरार है। ऐसे में जापान के साथ भारत का सम्बंध कई मायनों में प्रखर हो जाता है और यह केवल अर्थव्यवस्था व वाणिज्य तथा निवेष व बाजार तक ही सीमित न होकर यह अच्छा षासन और आषातीत सुषासन से युक्त होकर वैष्विक सुदृढ़ता और षांति को प्राप्त करने का उपाय भी बन जाता है। स्पश्ट है कि जापान के प्रधानमंत्री का यह दौरा द्विपक्षीय सम्बंधों को न केवल ताकत दिया बल्कि दुनिया को कुछ संदेष भी गया है।

दिनांक : 23/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

ऊर्जा रूपांतरण की शक्ति ई-20 ईंधन


दुनिया में कच्चे तेल का संघर्श स्वयं में किसी महायुद्ध से कम नहीं रहा है और इससे जुड़ा संघर्श तमाम देषों के लिए अक्सर चुनौती भी बनता रहा। रोचक यह है कि तेल को लेकर अमेरिका जैसे देष कई खेल भी इसी दुनिया में खेले हैं। गौरतलब है कि अमेरिका भारत का रणनीतिक मित्र है और वर्शों से सम्बंध कहीं अधिक सकारात्मक और उपजाऊ भी हैं मगर ईरान से उसकी दुष्मनी की कीमत भारत को भी तब चुकानी पड़ी जब उसने मई 2019 में ईरान से कच्चा तेल लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अन्ततः इस ऊर्जा की भरपाई के लिए भारत को सऊदी अरब की ओर रूख करना पड़ा था जो ईरान की तुलना में महंगा सौदा था। फरवरी 2022 से बदले हालात के चलते नैसर्गिक मित्र रूस से भारत सस्ता तेल धड़ाधड़ खरीद रहा है जबकि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते अमेरिका व यूरोप के कई देष खेमे बने हुए हैं और भारत को ऐसा करने से रोक पाने में सक्षम भी नहीं है। विदित हो कि भारत कच्चा तेल के मामले में आत्मनिर्भर तो कत्तई नहीं है। वह अपनी जरूरत के महज 17 फीसद ही उत्पादन कर पाता है बाकी के लिए आयात पर निर्भर है। ऐसे में ई-20 ईंधन का स्वरूप निर्भरता को कम करने में मदद करेगा मगर जिस गति से कच्चे तेल की आवष्यकता निरंतर देष को चाहिए उसे देखते हुए इसे अंतिम उपाय नहीं कहा जा सकता। गौरतलब है कि ई-20 ईंधन का आषय पेट्रोल में इथेनाॅल के 20 प्रतिषत मिश्रण से है। जबकि अभी तक देष में मिलने वाले पेट्रोल में इसकी मिलावट महज 10 फीसद थी। हालांकि इसे लेकर पेट्रोल के आयात पर असर पड़ेगा मगर बड़ा असर लाने के लिए इलेक्ट्राॅनिक वाहन और इथेनाॅल मिश्रित पेट्रोल को पूरे देष में विस्तार देना होगा। फिलहाल ई-20 ईंधन को 11 राज्यों व केन्द्रषासित प्रदेषों के 84 पेट्रोल पम्पों में उपलब्ध कराया जायेगा जो इथेनाॅल मिश्रित रोड़ मैप के निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप है। विदित हो कि भारत सरकार ने इण्डिया एनर्जी वीक 2023 में 20 प्रतिषत इथेनाॅल मिश्रित पेट्रोल को बीते फरवरी में लाॅन्च किया था और उम्मीद जतायी गयी कि इस पहल से पेट्रोल पर निर्भरता को कम किया जा सकेगा और विदेषी मुद्रा भी बचायी जा सकेगी साथ ही जैव ईंधन उपयोग को भी बढ़ावा मिलेगा।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि जैव ईंधन को लेकर जितनी सक्रियता आयी उसके लाभ भी विभिन्न आयामों में विस्तार लेंगे। ई-20 ईंधन कई लाभों से युक्त है बावजूद इसके चुनौतियों से भी भरा हुआ है। भारत कृशि अर्थव्यवस्था वाला देष है जाहिर है यहां व्यापक पैमाने पर कृशि अवषेश उपलब्ध हैं। ऐसे में जैव ईंधन के उत्पादन की सम्भावना अधिक रहेगी। फलस्वरूप नई नगदी फसलों के रूप में ग्रामीण और कृशि विकास में यह मदद कर सकता है बषर्ते नियोजनकत्र्ता किसानों की सक्रियता और महत्ता को ऊर्जा का केन्द्र समझे न कि महज एक साधन। षहर अकूत अपषिश्ट और कचरों से भरे पड़े हैं इनका उपयोग सुनिष्चित कर ईंधन में बदलना सम्भव होगा जो भोजन और ऊर्जा दोनों प्रदान कर सकती है। ई-20 ईंधन से वाहनों को चलाना तो आसान रहेगा ही साथ ही बड़ा लाभ यह होगा कि जहरीली गैसों से षहर मुक्त भी होंगे। दिल्ली जैसे षहर प्रदूशण के हब हैं। हाल ही का एक सर्वे बताता है कि दुनिया के सौ प्रदूशित षहरों में अड़तीस भारत में हैं। जाहिर है ई-20 ईंधन से प्रदूशण से भी कुछ राहत मिलेगी। कच्चा तेल खरीदने में तुलनात्मक कमी आयेगी इससे विदेषी मुद्रा के खर्च में कमी आयेगी और यह देष के लिए हितकर होगा। देखा जाये तो यह हरित ईंधन का एक ऐसा उदाहरण है जिससे कार्बन डाई आॅक्साइड व हाइड्रो कार्बन आदि के उत्सर्जन में घटोत्तरी सम्भव है। पड़ताल बताती है कि वर्तमान में भारत में इथेनाॅल की उत्पादन क्षमता लगभग एक हजार सैंतीस करोड़ लीटर है जिसमें सात सौ करोड़ लीटर गन्ना आधारित जबकि षेश अनाज आधारित है। वर्श 2022-23 में पेट्रोल व इथेनाॅल वाले ईंधन की आवष्यकता पांच सौ बयालिस करोड़ लीटर जबकि साल 2023-24 में यह बढ़कर छः सौ अट्ठानवे करोड़ वहीं 2024-25 के लिए नौ सौ अट्ठासी करोड़ लीटर है। यहां स्पश्ट कर दें कि क्रूड आॅयल दुनिया के किसी देष से किसी भी कीमत पर षायद खरीदा जाना सम्भव है मगर इथेनाॅल के औसत को बनाये रखना भी कहीं अधिक आवष्यक रहेगा। हालांकि आंकड़े यह इषारा कर रहे हैं कि इथेनाॅल के मामले में भारत परिपक्व है मगर सरकार को यह नहीं भूलना है कि यह पूरी तरह किसान आधारित है और उन्हें इस ऊर्जा में मदद के बदले आर्थिक सुचिता बनाये रखना होगा।
 खास यह भी है कि देष में ऐसी कारें कम हैं जो ई-20 पेट्रोल से चल सकती हैं। हालांकि कई मोटर कम्पनियों की निर्मित गाड़ियां ई-20 ईंधन के अनुरूप बनी हुई हैं। मगर पूरे देष में जैसे-जैसे ई-20 ईंधन का विस्तार होगा इससे चलने वाली गाड़ियों की बनावट भी उसी के अनुरूप होनी चाहिए। सुलगता सवाल यह है कि जब तेल खत्म हो जायेगा तब दुनिया क्या करेगी। जाहिर है जैव ईंधन व ग्रीन फ्यूल पर निर्भरता बढ़ेगी जो ऊर्जा का एक ऐसा विकल्प होगा जिसमें हर हाल में कृशि अर्थव्यवस्था व किसानों को सुदृढ़ करने के संदर्भ निहित रहेंगे। ध्यानतव्य हो कि केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इसी साल जनवरी की षुरूआत में राश्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिषन को भी मंजूरी दी है जिसका उद्देष्य भारत को हरित विनिर्माण और स्वच्छ ऊर्जा का केन्द्र बनाना है। भारत की आबादी दुनिया में पहले स्थान की ओर गमन कर चुकी है। विकसित देष अमेरिका तेल खपत में जहां पहले तो वहीं चीन दूसरे स्थान पर है और भारत इस मामले में तीसरा स्थान रखता है। जो अपनी जरूरत का लगभग 83 फीसद तेल आयात करता है। तेल की बढ़ती कीमतें और डाॅलर के मुकाबले गिरता रूपया न केवल कच्चे तेल के लिए मुसीबत बनता है बल्कि देष के जनमानस को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। हालांकि सस्ता कच्चा तेल मिलने के बावजूद भी देष की जनता को सरकार इसका लाभ नहीं दिया है। तेल का खेल सरकारें भी खूब खेलती हैं और इसे अपनी तिजोरी को आसानी से भर पाने में सफल होती हैं। वन नेषन, वन टैक्स के बावजूद पेट्रोल और डीजल तथा रसोई गैस समेत छः पदार्थ अभी भी जीएसटी से बाहर हैं जिसके उतार-चढ़ाव से जनता की जेब ढीली होती रहती है।
आज दुर्भाग्य यह है कि पच्चहत्तर साल की आजादी के बाद भी लोकनीति की सफल प्रक्रिया से समाज का बहुलांष गायब है। यह विडम्बना ही है कि जो तबका नीतियों से सबसे अधिक प्रभावित होता है और जिसके लिए अधिकांष नीतियां बनायी जाती हैं और जिससे लाभ लेने की प्रतीक्षा अनवरत् बनी रहती है वही हाषिये पर है। भारत का किसान अन्न उत्पादन करके इस मामले में देष को आत्मनिर्भर बना रहा है। आज वही चाहे गन्ना किसान हो या अनाज उत्पादन करने वाला ई-20 ईंधन को भी बड़ा मुकाम दे सकता है मगर क्या उसकी आय दोगुनी करना सरकार के लिए सम्भव है। साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी का लक्ष्य सरकार ने रखा था मगर इस पर कुछ खास पता नहीं चला। सरकार इस कसौटी को और कस कर देखे क्या पता किसानों की किस्मत ई-20 ईंधन के ईर्द-गिर्द पलटी मारे और उनकी आय दोगुनी हो जाये? मगर रोचक तथ्य यह भी है कि सरकार पहले इस बात की भी पड़ताल कर ले कि उनकी पहले आय क्या थी? हालांकि दिसम्बर 2018 से प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के माध्यम से प्रति चार महीने पर जो दो हजार रूपया सीमांत किसानों के खाते में जाते हैं अब वो भी कई नई समस्याओं के चलते मामूली हो गये होंगे। गौरतलब है कि भारत सरकार इथेनाॅल युक्त तेल को 2030 तक जारी करने का लक्ष्य रखा था और इसे अभी लाॅन्च करके सात साल पहले लक्ष्य पाने का जो श्रेय सरकार को जाता है उसमें इथेनाॅल के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने वालों को भी निहित समझा जाये। साल 2013-14 की तुलना में आज इथेनाॅल का उत्पादन छः गुना तक बढ़ा है जिससे लगभग 54 हजार करोड़ की विदेषी मुद्रा बची है। स्थिति को देखते हुए सरकार ने साल 2025 तक देष में पूरी तरह ई-20 ईंधन की बिक्री का लक्ष्य रखा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इथेनाॅल 21वीं सदी के भारत की एक प्रमुख प्राथमिकता बन चुका है क्योंकि यह पर्यावरण और किसानों के जीवन पर बेहतर प्रभाव डाल सकता है। 

दिनांक : 20/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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आर्थिक परिवर्तन से ही सम्भव है सुशासन

विष्व बैंक ने जब सुषासन की परिभाशा गढ़ी तब देष में दौर आर्थिक उदारीकरण का था और आर्थिक नीतियों के इर्द-गिर्द ही सुषासन को सुसज्जित किया जा रहा था। 24 जुलाई 1991 को जो आर्थिक बदलाव भारत में आया वह ईज़ आॅफ लिविंग और सु-जीवन की दिषा में एक बड़ा कदम था साथ ही वैष्वीकरण और निजीकरण की दिषा में भी एक बड़ा बदलाव था। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह बताते हैं कि देष कोई भी हो सुषासन तभी सम्भव है जब आर्थिक बदलाव सहज और जनहित को सुनिष्चित करने वाला हो। आर्थिक परिवर्तन की कसौटी में षासन एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहता है मगर अलग-अलग परिस्थितियों में इसके नतीजे भी भिन्न-भिन्न देखने को मिलते रहे हैं। एक अच्छा आर्थिक बदलाव सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हेतु पथ चिकना करता है और सुषासन को सरपट दौड़ने का मार्ग दे देता है साथ ही समावेषी ढांचे के साथ समावेषी व सतत् विकास को पूरा अवसर मिलता है। मगर ऐसी स्थितियां यदि सम्भव न हो पायें तो चुनौती भी सामने रोज़ खड़ी रहती है। दिसम्बर 2022 में खुदरा महंगाई दर गिर कर 6 फीसद से नीचे पहुंच गयी थी मगर जनवरी 2023 में यही दर बढ़ोत्तरी के साथ सुषासन को चुनौती देने लगा। हालांकि दुनिया के तमाम देष महंगाई का सामना कर रहे हैं। अमेरिका में महंगाई दर 6.4 फीसद तो इंग्लैण्ड 10 फीसद से ऊपर मगर ब्राजील, जापान और स्विट्जरलैण्ड और चीन जैसे कुछ देष इस दर में काफी नीचे भी हैं। गौरतलब है कि महंगाई बचत को कमजोर करती है और जीवन जीने के मामले में व्यय की स्थिति तुलनात्मक बड़ा कर देती है। ऐसे में कमाई के अनुपात में यदि यह संतुलित नहीं रहा तो कई नई समस्याएं सामने खड़ी भी हो जाती हैं।
भारत दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। राश्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रति व्यक्ति की कमाई दोगुनी होकर एक लाख 72 हजार हो गयी है। दो टूक यह है कि आय दोगुनी होने के बावजूद असमान आय वितरण सुषासन के लिए चुनौती है। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश का अनुमान है कि वित्त वर्श 2023-24 में भारतीय अर्थव्यवस्था 6.1 प्रतिषत की विकास दर के साथ दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था हो सकती है। मगर मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण न होने से उपभोक्ता, स्थिर आय समूह, पेंषन भोगी व सामान्य नागरिकों के लिए सुषासनिक पहल मजबूत नहीं हो पा रही है। रिज़र्व बैंक आॅफ इण्डिया (आरबीआई) ने फरवरी 2023 में रेपो रेट 6.50 किया जाहिर है इससे देष में  करोड़ो वे ऋणधारक जो मकान या गाड़ी आदि के लिए बैंकों से पैसे उधार लिए हैं उनकी देनदारी अर्थात् ईएमआई बढ़े हुए मात्रा में चुकानी होगी। गौरतलब है कि जून 2019 से यदि पड़ताल करें तो यह सबसे अधिक रेपो रेट है इस दौरान सबसे कम रेपो रेट मई 2020 में 4 फीसद के साथ था। यह एक आर्थिक बदलाव है मगर जन साधारण के लिए लाभकारी तो नहीं है। ऐसे में सुषासन को लेकर जो प्रयास हैं वह तभी सम्भव है जब रेपो रेट और बैंक दर में गिरावट हो। गौरतलब है कि आरबीआई की मौद्रिक नीति के तीन मुख्य उद्देष्य हैं। पहला आर्थिक विकास, दूसरा विनिमय दर स्थिरता जबकि तीसरा महंगाई पर नियंत्रण है। बढ़ते रेपो रेट महंगाई को मौका देते हैं मगर आरबीआई लगातार यह प्रयास करती रही है कि जनता को राहत मिलती रहे। बावजूद इसके ऐसा कर पाने में उसकी भी अपनी सीमाएं होंगी। सेन्टर फाॅर माॅनिटरिंग इण्डियन इकोनाॅमी ने अनएम्प्लाॅयमेंट रेट इन इण्डिया 2022 में बेरोज़गारी के जो आंकड़े जारी किये उसमें अगस्त माह के दौरान बेरोज़गारी का स्तर 8.3 प्रतिषत जो साल में सर्वाधिक और षिखर पर रहा। बेरोज़गारी भी इस बात का संकेत है कि सुषासन की पहल संषय से भरी है और आर्थिक बदलाव अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है।
षहर निरंतर विकास से गुजरते रहते हैं वे न केवल आर्थिक विकास के चालक हैं बल्कि वैष्विक ज्ञान के आदान-प्रदान और नवाचार आदि के लिए भी एक बड़े अवसर होते हैं। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत बिना साढ़े छः लाख गांवों के पूरा नहीं पड़ता। कौषल विकास से आर्थिक बदलाव सम्भव है। कौषल के आभाव में आर्थिक असमानता और बेरोज़गारी व गरीबी जैसे परिप्रेक्ष्य भी खूब उभार ले चुके हैं। समावेषी विकास के अन्तर्गत जो निरंतरता जारी है उसमें बदलाव काफी धीमा प्रतीत होता है। किसानों की आय दोगुनी करने का जो संकल्प 2022 तक के लिए सरकार ने लिया था उस पर कितनी खरी उतरी इसकी कोई पड़ताल देखने को नहीं मिली। गौरतलब है कि किसानों की आय में बढ़ोत्तरी फसलों की उत्पादकता में वृद्धि पषुधन की उत्पादकता, उत्पादन लागत में वृद्धि, फसल की सघनता, उसकी उचित कीमत और समय के साथ विविधिकरण से युक्त खेती से ही सम्भव है। यह बात साल 2018 में अंतर मंत्रालय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कही थी। दिसम्बर 2018 से किसानों को प्रति वर्श 6 हजार रूपया सरकार द्वारा अनुदान स्वरूप दिया जाता है यह सिलसिला कब तक चलेगा मालूम नहीं मगर इतने मात्र से किसानों की जिन्दगी संवरती रहेगी यह सोच भी नासमझी है। ऐसे में किसानों के हिस्से का आर्थिक बदलाव को लेकर सुषासनिक कदम सरकार को बड़े पैमाने पर उठाना ही होगा। हालांकि 1 फरवरी के बजट में कई सारगर्भित कदम की बात कही गयी है। मगर बदलाव जमीन पर उतरने से ही आयेगा। 80 करोड़ लोगों को 5 करोड़ अनाज का वितरण सहायता की दृश्टि से उचित है मगर यह न तो आर्थिक बदलाव और न ही सुषासन को सषक्त करेगा।
सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो लोक सषक्तिकरण से अभिभूत है। निहित मापदण्डों में हुए आर्थिक बदलाव इस लिहाज़ से नाकाफी हैं कि भारत का हर चैथा व्यक्ति अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है और हंगर इंडेक्स 2022 की रिपोर्ट में देष 107वें स्थान पर है। इतना ही नहीं दुनिया के कुल 84 करोड़ भुखमरी वाले लोगों में 19 करोड़ भारत के ही हैं। विष्व का सबसे युवा देष वाला भारत युवाओं का भरपूर उपयोग करने में भी विफल है। यहां की पढ़ी-लिखी महिलाओं का भी विकास में योगदान ले पाना मानो अभी कठिन बना हुआ है। विष्व बैंक ने वर्शों पहले कहा था कि यदि यहां की महिलाओं को कौषल युक्त बना दिया जाये तो भारत की विकास दर 4 फीसद बढ़त ले लेगा। 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का सपना देख रहे भारत के लिए महिलाओं में लाया गया आर्थिक बदलाव उसे पूरा करने में मददगार सिद्ध हो सकता है। बढ़ी बेरोज़गारी दर इस बात का संकेत है कि आर्थिक बदलाव को जड़ से ठीक करने की भी आवष्यकता है। हालांकि स्टार्टअप से लेकर स्वरोजगार और हजारों की तादाद में बने कौषल केन्द्र कुछ हद तक इस समस्या से निपटने में कारगर भी हुए हैं मगर इतने मात्र से पूरा आर्थिक बदलाव सम्भव नहीं है। भारत में महज 25 हजार कौषल केन्द्र हैं जो चीन के 5 लाख और दक्षिण कोरिया और आॅस्ट्रेलिया के एक लाख कौषल केन्द्रों की तुलना में मामूली है। फिलहाल आर्थिक परिधि में गढ़ी गयी सुषासन की परिभाशा सु-जीवन और सुगम्य पथ से तब भरी समझी जायेगी जब जब आर्थिक बदलाव का लाभ खास से आम सभी तक होगा।

 दिनांक : 17/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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पूर्ण साक्षरता के बगैर सुशासन स्वयं में अधूरा

भारत में साक्षरता षक्ति का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। साक्षरता मुक्त सोच को जन्म देती है। आर्थिक विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामुदायिक कल्याण के लिए भी यह महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आत्मसम्मान और सषक्तिकरण भी इसमें निहित है। अब सवाल यह है कि जब साक्षरता इतने गुणात्मक पक्षों से युक्त है तो अभी भी हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित क्यों है? क्या इसके पीछे व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है या फिर सरकार की नीतियां और मषीनरी जवाबदेह है? कारण कुछ भी हो मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि साक्षरता का अभाव सुषासन की राह में रोड़ा तो है। गौरतलब है कि सुषासन एक जन केन्द्रित संवेदनषील और लोक कल्याणकारी भावनाओं से युक्त एक ऐसी व्यवस्था है जिसके दोनों छोर पर केवल व्यक्ति ही होता है। यह एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जहां से सामाजिक-आर्थिक उत्थान अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है। बदले दौर के अनुपात में सरकार की नीतियां और जन अपेक्षायें भी बदली हैं। बावजूद इसके पूरा फायदा तभी उठाया जा सकता है जब देष निरक्षरता से मुक्त होगा। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद 1951 में 18.33 फीसद लोग साक्षर थे जो 1981 में बढ़कर 41 फीसद तो हुए लेकिन जनसंख्या के अनुपात में यह क्रमषः 30 करोड़ से बढ़कर 44 करोड़ हो गये। ऐसे में राश्ट्रीय साक्षरता मिषन की कल्पना अस्तित्व में आई। 5 मई 1988 को षुरू हुए इस मिषन का उद्देष्य था कि लोग अनपढ़ न रहें। कम से कम साक्षर तो जरूर हो जायें। इस मिषन ने असर तो दिखाया लेकिन षत-प्रतिषत साक्षरता के लिए यह नाकाफी रहा। इसी के ठीक 3 बरस बाद 25 जुलाई 1991 को आर्थिक उदारीकरण का पर्दापण हुआ और 1992 में नई करवट के साथ भारत में सुषासन का बिगुल बजा।
भारत में साक्षरता सामाजिक-आर्थिक प्रगति की कुंजी है और सुषासन का पूरा परिप्रेक्ष्य भी इसी अवधारणा से युक्त है। जाहिर है साक्षरता और सुषासन का गहरा सम्बंध है। दुनिया के किसी भी देष में बिना षिक्षित समाज के सुषासन के उद्देष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। साक्षरता से जागरूकता को बढ़ाया जा सकता है और जागरूकता के चलते स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता को बढ़त मिल सकती है और ये तमाम परिस्थितियां सुषासन की राह को समतल कर सकती हैं। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर निरक्षरता को मिटाने के मकसद से एक अभियान का क्रियान्वयन किया गया जो अन्तर्राश्ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप में विद्यमान है जिसकी षुरूआत 1966 में यूनेस्को ने किया था। जिसका उद्देष्य था कि 1990 में किसी भी देष में कोई भी व्यक्ति निरक्षर न रहे। मगर हालिया स्थिति यह है कि भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार बामुष्किल 74 फीसद ही साक्षरता है। जबकि राश्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने 2017-18 में साक्षरता का सर्वेक्षण 77.7 प्रतिषत किया। इतना ही नहीं साक्षरता दर में व्यापक लैंगिक असमानता भी विद्यमान है। साक्षरता का षाब्दिक अर्थ है व्यक्ति का पढ़ने और लिखने में सक्षम होना। आसान षब्दों में कहें तो जिस व्यक्ति को अक्षरों का ज्ञान हो तथा पढ़ने-लिखने में सक्षम हो वह सरकार की नीतियों, बैंकिंग व्यवस्था, खेत-खलिहानों से जुड़ी जानकारियां, व्यवसाय व कारोबार से जुड़े उतार-चढ़ाव साथ ही अन्य तमाम से संलग्न होना सरल हो जायेगा। निरक्षरता के अभाव में लोकतंत्र की मजबूती से लेकर आत्मनिर्भर भारत की यात्रा भी तुलनात्मक सहज हो सकती है। गिरते मतदान प्रतिषत को साक्षरता दर बढ़ाकर फलक प्रदान किया जा सकता है। भारत के केन्द्रीय षिक्षा मंत्रालय ने हाल ही में वयस्क षिक्षा को बढ़ावा देने तथा निरक्षरता के उन्मूलन के लिए पढ़ना-लिखना अभियान की षुरूआत की है। इस अभियान का उद्देष्य 2030 तक देष में साक्षरता दर को सौ प्रतिषत तक हासिल होना है साथ ही महिला साक्षरता को बढ़ावा देना और अनुसूचित जाति और जनजाति सहित दूसरे वंचित समूहों के बीच षिक्षा को लेकर अलख जगाना है। गौरतलब है कि सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य पर दृश्टि रखते हुए साल 2009 में साक्षर भारत कार्यक्रम योजना की षुरूआत की गयी थी। जिसमें यह निहित था कि राश्ट्रीय स्तर पर यह दर 80 फीसद तक पहुंचाना है। हालांकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार देष की साक्षरता दर 74 फीसद ही थी। कोविड-19 के चलते साल 2021 में होने वाली जनगणना सम्भव नहीं हुई ऐसे में साक्षरता की मौजूदा स्थिति क्या है इसका कोई स्पश्ट आंकड़ा नहीं है। मगर जिस तरह 2030 तक षत् प्रतिषत साक्षरता का लक्ष्य रखा गया है उसे देखते हुए कह सकते हैं कि 2031 की जनगणना में आंकड़े देष में अषिक्षा से मुक्ति की ओर होंगे।
सुषासन की परिपाटी भले ही 20वीं सदी के अंतिम दषक में परिलक्षित हुई हो मगर साक्षरता को लेकर चिंता जमाने से रही है। साक्षरता और जागरूकता की उपस्थिति सदियों पुरानी है। यदि बार-बार अच्छा षासन ही सुषासन है तो इस तर्ज पर अषिक्षा से मुक्ति और बार-बार साक्षरता पर जोर देना सुषासन की मजबूती भी है। असल में कौषल विकास के मामले में भारत में बड़े नीतिगत फैसले या तो हुए नहीं यदि हुए भी तो साक्षरता और जागरूकता में कमी के चलते उसे काफी हद तक जमीन पर उतारना कठिन बना रहा। स्किल इण्डिया कार्यक्रम सुषासन को एक अनुकूल जगह दे सकता है बषर्ते इसके लिए जागरूकता को बड़ा किया जाये और उसके पहले अषिक्षा से मुक्ति सम्भव की जाये। बहरहाल कौषल विकास कई चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें अपर्याप्त प्रषिक्षण क्षमता और उद्यमी कौषल की कमी आदि प्रमुख कारण हैं। जिसका ताना-बाना संरचनात्मक और कार्यात्मक विकास के साथ-साथ अषिक्षा से भी सम्बंधित है।
बहरहाल भारत के समक्ष राश्ट्रीय साक्षरता दर को सौ फीसद तक ले जाने के अतिरिक्त स्त्री-पुरूश साक्षरता की खाई को पाटना भी एक चुनौती रही है। संयुक्त राश्ट्र ने 2030 तक पूरी दुनिया से सभी क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का संकल्प लिया है। देखा जाये तो भारत में पिछले तीन दषकों में स्त्री-पुरूश साक्षरता दर का अंतर 10 प्रतिषत तक तो घटा है। मगर पिछली जनगणना को देखें तो यह अंतर एक खायी के रूप में परिलक्षित होता है। जहां पुरूशों की साक्षरता दर 82 फीसद से अधिक है तो वहीं महिलायें बामुष्किल 65 फीसद से थोड़े अधिक हैं। दरअसल षिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक विशमता बढ़ने के कई कारण हैं और ऐसी विशमताओं ने सुषासन पर चोट किया है। षिक्षा के प्रति समाज का एक हिस्सा आज भी जागरूक नहीं है। इसके पीछे भी अषिक्षित होने की अवधारणा ही निहित देखी जा सकती है। सुषासन के निहित परिप्रेक्ष्य से यह विचारधारा स्थान लेती है कि साक्षरता कई समस्याओं का हल भी है। यह बात और है कि तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद देष में यह खरा नहीं उतरा है मगर 1991 के उदारीकरण के बाद जिस तरह तकनीकी बदलाव देष में आये हैं उसमें साक्षरता के कई आयाम भी प्रस्फुटित हुए हैं मसलन अक्षर साक्षरता के अलावा तकनीकी साक्षरता, कानूनी साक्षरता, डिजिटल साक्षरता अधिकारों को जानने के प्रति जागरूकता समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य हैं जो जनता के लिए न केवल जरूरी हैं बल्कि इससे उसी में उनका लाभ भी निहित हैं। उपरोक्त संदर्भ के अलावा भी कई ऐसे बिन्दु हैं जो साक्षरता और जागरूकता के चलते एक अच्छी आदत और जीवन में मदद मिल सकती है और षासन को सुषासन का बल भी तुलनात्मक बढ़ेगा। दो टूक यह भी है कि सम्पूर्ण साक्षरता के बगैर सुषासन स्वयं में अधूरा है।

 दिनांक : 09/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

असफल हो चुकी है ग्लोबल गवर्नेंस की व्यवस्था

पूरी दुनिया के 80 फीसद जीडीपी और 60 प्रतिषत जनसंख्या रखने वाले जी-20 के विदेष मंत्रियों की बैठक बीते 2 मार्च को राश्ट्रपति भवन के सांस्कृतिक भवन में षुरू हुई। ग्लोबल गवर्नेंस की एहसास से भरी यह बैठक तुर्किये और सीरिया में आये भूकम्प से जान गंवाने वालों के प्रति एक मिनट के मौन से प्रारम्भ की गयी। वैष्विक उथल-पुथल के बीच भारत में हुई यह बैठक कई सवालों के साथ आगे बढ़ी। विदित हो कि भारत 1 दिसम्बर 2022 से 30 नवम्बर 2023 तक जी-20 की अध्यक्षता करेगा जिसके अंतर्गत भारत के 60 से अधिक षहरों में 200 से अधिक बैठक आयोजित होंगी। फिलहाल विदेष मंत्रियों की बैठक में भारत के विदेष मंत्री एस जयषंकर ने खाद्य, उर्वरक और ईंधन सुरक्षा की चुनौतियों को एजेण्डे में षामिल किया। ध्यानतव्य हो कि बीते कई वर्शों में जी-20 की बैठकों में अलग-अलग देषों में षिरकत करने वाला भारत अब इसका मेजबान है। मगर दुनिया का मिजाज इन दिनों गरम है और कई तो एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं भा रहे हैं। ऐसे में भारत का यह प्रयास कि सभी एक छत के नीचे इकट्ठे हों और ग्लोबल गवर्नेंस की अवधारणा को पुख्ता करें। बावजूद इसके इसकी सम्भावना कतई नहीं दिखती। प्रधानमंत्री मोदी ने भी यह स्पश्ट कर दिया है कि ग्लोबल गवर्नेंस व्यवस्था फिलहाल असफल है। गौरतलब है कि अमेरिका और रूस बीते एक साल से यूक्रेन के चलते एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं। यूरोप के अन्य देष भी इसी मामले को लेकर रूस से बाकायदा कटे हुए हैं। सीमा विवाद के कारण भारत और चीन पहले से ही एक-दूसरे से खार खाये हुए है। ताइवान पर चीन की वर्चस्व वाली नीति के चलते भी समस्या बढ़ी हुई है। दक्षिण चीन सागर में तनाव का स्वरूप गहराई लिए ही रहता है साथ ही कई ऐसे और भी परिप्रेक्ष्य हैं जहां युद्ध से लेकर व्यापार युद्ध तक कमोबेष व्याप्त है। देखा जाये तो पूरी दुनिया प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कई ध्रुव ले चुकी है।
तमाम संदेहों के बीच भारत में जी-20 के विदेष मंत्रियों का एक मंच पर होना महत्वपूर्ण बात है हालांकि भारत जी-20 के विदेष मंत्रियों को एक मंच पर खींच तो लाया है मगर इससे कोई साझा वैष्विक एजेण्डे को बल मिलेगा ऐसा कुछ खास दिखता नहीं है। खींचा-तानी के बीच जी-20 के विदेष मंत्रियों में कईयों से तो आपसी बातचतीत भी सम्भव नहीं होते दिखती। अमेरिका और रूस के विदेष मंत्री पहले तो कतराते रहे मगर यूक्रेन युद्ध पर इसे समाप्ति को लेकर कुछ चर्चा चलते-फिरते दिखी। स्पश्ट है कि जब 1945 में द्वितीय विष्वयुद्ध समाप्त हुआ था तब दुनिया के तमाम देष कई सीख लिये होंगे मगर जिस तरह से अस्त्र-षस्त्र की वैष्विक वर्चस्व बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में देखने को मिला उससे यह भी साफ था कि इन्होंने विष्वयुद्ध से कुछ नहीं सीखा। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के चलते यह बात और मुखर हो गयी कि सब अपनी प्रथम की नीति पर चल रहे हैं किसी को महामारी, आतंकवाद व प्राकृतिक आपदा आदि का मानो एहसास ही नहीं है। षायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लोबल गवर्नेंस व्यवस्था को असफल करार दिया। अपने संदेष में उन्होंने कहा कि द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद वैष्विक गवर्नेंस की जो व्यवस्था बनायी गयी थी वह असफल हो चुकी है जिसका सबसे अधिक असर विकासषील देषों को उठाना पड़ रहा है। मोदी ने यह भी भरोसा जताया है कि महात्मा गांधी और गौतम बुद्ध की धरती से प्रेरणा देकर जी-20 के विदेष मंत्री विष्व के समक्ष मौजूदा चुनौतियों के समाधान को लेकर गम्भीर प्रयास करेंगे। बैठक में युद्ध, खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद जैसे मुद्दे चिंता के केन्द्र में थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया बहुत व्यापक स्तर पर बंटी हुई है ऐसे में भारत की अध्यक्षता में एक पृथ्वी, एक परिवार और एक भविश्य की अवधारणा कितनी फलीभूत होगी यह जी-20 के देषों की एकजुटता और संयुक्त कार्यवाही पर निर्भर करेगी।
सवाल यह नहीं कि भूमण्डलीकरण ने पूरी दुनिया में षासन को रूपांतरित किया है या नहीं बल्कि सवाल यह है कि रूपांतरण की प्रकृति और मात्रा क्या है? साथ ही दुनिया के देष जलवायु परिवर्तन से लेकर आतंकवाद आदि के मामले में ग्लोबल गवर्नेंस को कितनी मजबूती दे पाये हैं। भूमण्डलीकरण का एक लक्षण यह भी है कि एक घटनाक्रम सारे संसार को प्रभावित करता है। यूक्रेन युद्ध के चलते इन दिनों दुनिया का मिजाज बिगड़ा हुआ है और कई उतार-चढ़ाव ऐसे हैं जिससे देष प्रथम की नीति पर कोषिष करते देखे जा सकते हैं। ऐसे में ग्लोबल गवर्नेंस की व्यवस्था कैसे सम्भव होगी? आम तौर पर भूमण्डलीकरण का सम्बंध वस्तुओं एवं सेवाओं, आर्थिक उत्पादों, सूचनाओं और संस्कृति से होता है जो कि अधिक चलायमान होते हैं साथ ही दुनिया में जिनके ज्यादा मुक्त रूप से फैलने की सम्भावना होती है जबकि सुषासन का परिप्रेक्ष्य ईज़ आॅफ लीविंग मसलन जलवायु परिवर्तन को लेकर सभी की सकारात्मकता, आतंकवाद पर एकजुटता और भुखमरी व गरीबी के मामले में संवेदनषीलता का मुखर होना। इसके अलावा षांति और खुषहाली को बढ़ावा देना रहा है अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश तथा विष्व बैंक के दबाव में साल 1991 में जो स्थायित्व और संरचनात्मक समायोजन देष के सामने प्रकट हुआ उससे भी भारत वैष्विकरण की दृश्टि से अपना पथ कहीं अधिक चिकना किया। द्वितीय विष्व युद्ध के बाद के बाद दुनिया में बड़ा बदलाव तो आया मगर समावेषी विकास से लेकर खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा की जरूरतों ने जो चुनौती बढ़ायी उसमें ग्लोबल गवर्नेंस सफल नहीं हो पाया लिहाजा नई-नई मुसीबतों में उलझता गया और आज विष्व के देष वर्चस्व की लड़ाई में इस कदर फंसे हैं कि सभ्यता से भरी दुनिया द्वितीयक हो गयी है।
अमेरिका के राश्ट्रपति जो बाइडन ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि युद्ध में रूस को हराया जाना चाहिए। ऐसी बातों का भविश्य पर क्या असर हो सकता है यह भी समझने की आवष्यकता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि जी-20 के देष पूरी दुनिया को एक नई दिषा दे सकते हैं। आपसी मतभेद को भुला कर साथ ही अति महत्वाकांक्षा को त्याग कर यदि सकारात्मक कदम उठायें तो ग्लोबल गवर्नेंस की नींव मजबूत की जा सकती है। वैसे यह देखा गया है कि जी-20 की बैठकों में रूस को अलग-थलग करने का प्रयास पहले भी होता रहा है। 2014 में आॅस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में हुई ऐसी ही एक बैठक में रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन बैठक के बीच में ही बिना सूचना के मास्को चले गये थे। जी-20 को गम्भीरता से समझा जाये तो यह मुद्दों पर जो भी बातें करता है वह तो ठीक है मगर बावजूद इसके कई सवाल इसमें सुलगते ही रह जाते हैं। फिलहाल यह विदेष मंत्रियों की बैठक है मगर संरचनात्मक तौर पर देष तो वही हैं ऐसे में नतीजे खास निकलेंगे निष्चित तौर पर कहना कठिन है। हालांकि षीर्श स्तर की जी-20 बैठक होना अभी बाकी है। उम्मीद किया जा सकता है कि गहरे वैष्विक विभाजन से ऊपर उठकर दुनिया के देष वित्तीय संकट, महामारी, जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा, कार्बन उत्सर्जन और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एकमत होकर ग्लोबल गवर्नेंस व्यवस्था को मजबूती देने का प्रयास करेंगे।

 दिनांक : 04/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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नेट जीरो के लिए चाहिए पृथ्वी प्रथम की नीति

धरती का तापमान न बढ़े इसके लिए सारी कवायद हो रही है मगर न्यू क्लाइमेट इंस्टिट्यूट और कार्बन मार्केट वाॅच के सहयोग से तैयार की गयी रिपोर्ट यह बताती है कि 1.5 डिग्री तापमान के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में 43 फीसद की कमी लाना होगा जिसकी सम्भावना दूर-दूर तक नहीं है। नेट जीरो का दावा करने वाली विष्व की 24 बड़ी कम्पनियों की स्थिति यह बता रही है कि माथे पर चिंता की लकीरें मोटी हो जायेंगी। इन कम्पनियों की हालिया स्थिति जलवायु लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है। रिपोर्ट में यह पता चलता है कि केवल 15 प्रतिषत तक ही कमी लाने में यह सक्षम है। यदि कम्पनियों की बात को सही माना जाये तो भी महज 21 फीसद से ज्यादा कमी लाना असम्भव है। यह आंकड़ा दावे और वायदे की तुलना में आधे से भी कम ठहरता है। पिछले जी-20 समिट में षामिल देषों में 2050 तक पृथ्वी के तापमान की इस बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री तक रखने पर सहमति बनी। इस वर्श का केन्द्रीय बजट ऊर्जा परिवर्तन को तो बढ़ावा देता है लेकिन भारत के विकास लक्ष्यों के साथ जलवायु अनुकूलन का तालमेल स्थापित करने की महत्वपूर्ण आवष्यकता को सम्बोधित करने में कुछ कम सा रह जाता है। गौरतलब है कि 2023 का बजट पर मुख्य ध्यान हरित विकास पर है। कार्बन उत्सर्जन व ग्रीन हाउस गैस के प्रभाव को इस आंकड़े से समझना और सहज होगा कि साल 2022 में भारत ने 88 फीसद दिनों में गर्म हवाओं, बाढ़ और चक्रवात जैसी विशम मौसमी घटनाओं का सामना किया था जिसके परिणामस्वरूप जन-जीवन और आजीविका भी प्रभावित हुई है साथ ही बीते कई दषकों के विकास कार्यों के लिए यह खतरा बना।
विदित हो कि नेट जीरो का मतलब ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन षून्य करना नहीं है बल्कि इन गैसों को दूसरे कामों से संतुलित करना है। ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार करना जिसमें जीवाष्म ईंधन का इस्तेमाल न के बराबर है साथ ही कार्बन उत्सर्जन करने वाली दूसरी चीजों का इस्तेमाल भी मामूली रहे। दो टूक यह भी कि जितना कार्बन उत्सर्जन किया जा रहा है उसी के अनुपात में अवषोशकों का भी इंतजाम हो जो पर्यावरणीय संरक्षण व पेड़-पौधो को बनाये रखने से ही सम्भव है। गौरतलब है यदि कार्बन उत्सर्जन एक निष्चित मात्रा में होता है और उत्सर्जन करने वाली इकाई उसी अनुपात में पेड़ों को तवज्जो देती है तो कार्बन उत्सर्जन और अवषोशक की समानता के कारण नेट जीरो एमिषन को पाना सुनिष्चित हो जायेगा। मगर जिस प्रकार प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और पर्यावरण की बर्बादी हो रही है उससे नेट जीरो एमिषन एक सपना सा ही लगता है। स्पश्ट कर दें कि दुनिया में केवल दो देष भूटान और सूरीनाम ही ऐसे हैं जो नेट जीरो एमिषन के मामले में नकारात्मक श्रेणी में है। इसकी सबसे बड़ी वजह वहां की अल्प आबादी और चैतरफा मौजूद हरियाली है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन का चष्मा आंखों में पहनकर बड़े और छोटे देष कितने भी वायदे और इरादे जताये यदि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण निष्चित तौर पर नहीं होता है तो कई समस्याओं के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी अवस्था में बना रहा तो 2050 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री बढ़ जायेगा जो किसी भी सूरत में तबाही का हस्ताक्षर होगा मसलन भीशण सूखा पड़ना, विनाषकारी बाढ़ आना, ग्लेषियर का टूटकर पिघलना और समुद्र का जलस्तर उफान लेना। ऐसे में कई सभ्यताएं समाप्त हो जायेंगी, कई डूब जायेंगी, कईयों का नामोंनिषान मिट जायेगा।
दुनिया के 192 देष संयुक्त राश्ट्र कन्वेंषन का हिस्सा है जिसमें से 137 नेट जीरो का समर्थन करते हैं। देखा जाये तो कुल ग्रीन हाउस उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी 80 फीसद है जिसमें सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले चीन और अमेरिका भी इसी में आते हैं। चीन साल 2026 तक इस मामले में नेट जीरो का लक्ष्य रखा है, उसकी बलवती होती आर्थिक नीति और दुनिया को मुट्ठी में करने वाली नीयत यह इषारा कर रही है कि चीन जो कह रहा है उसमें बिल्कुल खरा नहीं उतरेगा यानि कार्बन उत्सर्जन का सिलसिला उसके चलते बरकरार रहेगा। जर्मनी और स्वीडन जैसे देष 2045 तक जबकि आॅस्ट्रिया, फिनलैण्ड, उरूग्वे अलग-अलग समय में नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। अमेरिका के अलावा कई ऐसे देष हैं जो इस मामले में कहीं आगे जाकर 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन को अपनी लकीर बनायी हुई है। इस बीच एक सुखद बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के इस चुनौती के बीच भारत के वन क्षेत्र में 2011 के मुकाबले 2021 में तीन प्रतिषत से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। वैसे भारत जलवायु परिवर्तन की चिंता से कहीं अधिक चिंतित देष में आता है साथ ही कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर पहला कदम उठाने में नहीं कतराता है। भारत ने नेट जीरो को लेकर अपनी पूरी योजना पंचामृत नाम से पेष किया। प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो में आयोजित संयुक्त राश्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (काॅप 26) में इसे पेष किया। सिलसिलेवार तरीके से इसे समझें तो 2030 तक गैर जीवाष्म ऊर्जा को 500 गीगाबाइट तक पहुंचाना। दूसरा संदर्भ इसी वर्श के अंतर्गत अपनी 50 फीसद ऊर्जा जरूरतों को रिन्यूवल एनर्जी से पूरा करना। तीसरे और चैथे संदर्भ में क्रमषः प्रोजेक्टेड कार्बन उत्सर्जन का एक बिलियन टन कम करना और अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45 फीसद तक कम करना। इसके अलावा 2070 तक नेट जीरो एमिषन को हासिल करने का लक्ष्य षामिल है। हालांकि वक्त की दहलीज पर कौन, कितना खरा उतरेगा यह तो समय ही बतायेगा मगर ग्रीन हाउस गैस व कार्बन उत्सर्जन से पृथ्वी कराह रही है यह खुली आंखों से देखा जा सकता है।
सुषासन की परिपाटी यदि वैष्विक पृश्ठभूमि को अंगीकृत कर ले तो पृथ्वी का भला हो सकता है मगर असुविधा यह है कि प्रत्येक देष प्रथम की नीति ग्रहण किये हुए है। नतीजन कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देषों में कागजी एकजुटता तो कम-ज्यादा देखने को मिलती है मगर वास्तविकता में पृथ्वी इसके बोझ से तप रही है। विकसित और विकासषील देषों के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक रूप लेते रहे हैं। इस सुलगते सवाल को नजरअंदाज करते हुए कि धरती एक है, इसकी जरूरत एक है और इसे बनाये रखना सभी की जिम्मेदारी है। फिलहाल भारत की अपनी चिंताएं हैं और अपनी चुनौतियां हैं। दुनिया में आबादी के मामले में भारत अच्छी खासी स्थिति रखता है यदि हालिया आंकड़े को सही माना जाये तो यह चीन से आगे निकलकर पहले स्थान पर है जहां गरीबी और भुखमरी से ऊपर उठना कमोबेष चुनौती है। यदि भारत कार्बन उत्सर्जन और नेट जीरो पर बहुत सषक्त कदम उठाता भी है तो उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो सकती है मगर एक सच यह है कि अन्य विकसित और विकासषील देषों की तुलना में भारत कार्बन उत्सर्जन की मामले में संयमित देष है और अपने कथन को पूरा करने की जी-तोड़ कोषिष भी करता है। बावजूद इसके दुनिया को यह सोचना पड़ेगा कि पृथ्वी की तपिष को कम करने के लिए प्रथम की नीति नहीं बल्कि वैष्विक सुषासन की नीयत से काम करना होगा।

 दिनांक : 18/02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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समावेशी विकास का पर्याय मनरेगा

जब उपनिवेषवाद और साम्राज्यवाद की समाप्ति हुई तो भारत के समक्ष दो ही असली मुद्दे थे पहला राश्ट्र निर्माण, दूसरा सामाजिक-आर्थिक प्रगति। इसी की पृश्ठभूमि में विकास प्रषासन का जन्म हुआ और समाज के बहुमुखी और नियोजित विकास पर जोर भी दिया जाने लगा। इस यात्रा को 75 वर्श पूरे हो चुके हैं और दौर अमृत महोत्सव का चल रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आवाजविहीन, जड़विहीन और भविश्यविहीन विकास को तभी रोका जा सकता है जब इसके लिए सुनियोजित और दूरदर्षी कदम निरंतर उठते रहें। इसी कड़ी में समावेषी विकास, विकास की एक ऐसी परिकल्पना है जिसमें रोजगार के अवसर निहित होते हैं और गरीबी को कम करने में मददगार के रूप में देखा जा सकता है। अवसर की समानता तथा षिक्षा और कौषल के माध्यम से लोगों को सषक्त करना भी इसका निहित पक्ष है। बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने मसलन आवास, भोजन, पेयजल, स्वास्थ्य आदि समेत आजीविका के साधनों को निरंतर प्रगतिषील बनाये रखना समावेषी विकास के लक्ष्योन्मुख अवधारणा है। गौरतलब है कि देष कई ढांचे और उसमें निहित कई विकास की जमावट से युक्त है जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी विकास समेत अन्य षामिल है। इसी के अंतर्गत 21वीं सदी के पहले दषक के मध्य में समावेषी विकास को सषक्त करने की दिषा में मनरेगा योजना को फरवरी 2006 में प्रारम्भ किया गया था। गौरतलब है कि इसे पहले नरेगा अर्थात् राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तत्पष्चात् 2 अक्टूबर 2009 से महात्मा गांधी का नाम जोड़ते हुए इसे मनरेगा की संज्ञा दी गयी। इसका सीधा भाव देष के गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति को सुधारने हेतु षुरू की गयी योजना से है। इस योजना के माध्यम से फिलहाल देष के करोड़ों नागरिकों को लाभ मिल चुका है और इसकी उपलब्धि को देखते हुए यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि यह महज योजना नहीं बल्कि ग्रामीण रोजगार की दृश्टि से एक क्रान्तिकारी पहल है। इस योजना ने देष के समावेषी ढांचे को न केवल पुख्ता किया है वरन् पलायन से लेकर मुफलिसी, गरीबी और भुखमरी आदि पर भी अंकुष लगाने में कारगर सिद्ध हुई है। सुषासन की दृश्टि से यदि मनरेगा की माप-तौल करें तो यहां भी यह षासन की ओर से उठाया गया ऐसा कदम है जो लोक सषक्तिकरण के साथ कदमताल करता है और निहित मापदण्डों में बुनियादी विकास की दृश्टि से आजीविका की एक बेहतरीन खोज है।
1 फरवरी, 2023 के केन्द्रीय बजट 2023-24 में मनरेगा योजना को लेकर साठ हजार करोड़ रूपए आवंटित किए गए जो साल 2022-23 के निर्गत बजट तिहत्तर हजार करोड़ के मुकाबले अट्ठारह फीसद कम है जबकि संषोधित अनुमान से करीब 32 प्रतिषत कम है। मुख्य बिन्दु यह है कि किसी भी योजना की प्रगति व सफलता में निहित बजट कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है। बीते नौ वर्शों की पड़ताल बताती है कि सरकार मनरेगा को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक रही है और हर बजट में अनुमान बढ़े हुए दर में ही देखने को मिलते हैं जबकि इस बार सरकार का रूख इससे कुछ ज्यादा ही विमुख हुआ है। मुख्य आर्थिक सलाहकार की माने तो मनरेगा के लिए बजट आबंटन घटाने से रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि मनरेगा के बजट में कटौती मगर पीएम आवास योजना, ग्रामीण और जल-जीवन मिषन आदि मदों में राषि अच्छी खासी बढ़ा दी गयी है। माना जा रहा है कि इस प्रकार की योजना से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मनरेगा की तुलना रोजगार की दृश्टि से किसी अन्य से करना इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि यह रोजगार की गारंटी योजना है जबकि अन्य किसी मिषन में रोजगार की संभावना कम-ज्यादा के साथ वैकल्पिक होगी। मनरेगा में बजट की कटौती ग्रामीण रोजगार की दिषा में जारी समावेषी विकास के लिए भी नई समस्या बन सकती है। विदित हो कि कोरोना काल में लाॅकडाउन के दौरान जब नगरों और महानगरों से करोड़ों कामगार अपने गांव-घर पहुंचे थे तो मनरेगा ने ही आजीविका चलाने में बड़ी भूमिका अदा की थी। देखा जाये तो मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है जिसने ग्रामीण श्रम में एक सकारात्मक बदलाव को प्रेरित किया है। आंकड़े बताते हैं कि कार्यक्रम के षुरूआती दस वर्श में कुल तीन लाख करोड़ रूपए से अधिक खर्च किए गये और आजीविका और सामाजिक सुरक्षा की दृश्टि से यह गरीबों के लिए सषक्तिकरण की अगुवाई करने लगा। वर्श 2013-14 में मनरेगा के तहत कार्यरत व्यक्तियों की संख्या लगभग 8 करोड़ थी जो 2014-15 घट कर पौने सात करोड़ के आस-पास हो गयी। उसके बाद इसमें बढ़ोत्तरी भी हुई और कमोबेष ग्रामीण बेरोज़गारों के लिए यह संजीवनी का रूप लिए हुए है। जिसमें महिलाओं की संख्या आधी और किसी वर्श तो आधी से अधिक भी देखी जा सकती है। दूसरे षब्दों में कहें तो लम्बी जिन्दगी को बड़ी करने में मनरेगा कईयों के लिए वरदान का काम कर रही है।
ग्रामीण भारत को श्रम की गरिमा से परिचित कराने वाला मनरेगा किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसके तहत प्रत्येक परिवार के श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों के लिए 100 दिन की गारंटी युक्त रोजगार, दैनिक बेरोजगारी भत्ता और परिवहन भत्ता यदि पांच किलोमीटर दूर है तो आदि का प्रावधान देखा जा सकता है। सूखा ग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में 150 दिनों के रोजगार का प्रावधान है। जनवरी 2009 से केन्द्र सरकार सभी राज्यों के लिए अधिसूचित की गयी मनरेगा मजदूरी दरों को प्रति वर्श संषोधित करती है। मजदूरी का भुगतान न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के तहत राज्य में खेतिहर मजदूरों के लिए निर्दिश्ट मजदूरी के अनुसार ही किया जाता है। मनरेगा में कर्मचारियों के लिए बुनियादी सुविधाएं जैसे पीने का पानी, प्राथमिक चिकित्सा जो बुनियादी ढांचा भी है जो समावेषी ढांचे से युक्त। गौरतलब है कि 24 जुलाई 1991 में एक बड़ा आर्थिक परिवर्तन उदारीकरण के रूप में देष में आया। जिसके रहस्य में आर्थिक प्रगति षामिल थी और इसके ठीक एक बरस बाद 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को 73वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत संवैधानिक स्वरूप से युक्त किया गया। देष के तीसरे स्तर की सरकार अर्थात् स्थानीय स्वषासन भारत विकास की कुंजी सिद्ध हुई और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की दिषा में एक मजबूत पहल के रूप में इसे जाना जाता है। देखा जाये तो पंचायती राज व्यवस्था लोकतांत्रिक ढांचे को विकसित करने में कारगर रही जहां 50 फीसद से अधिक महिलाओं की भागीदारी और इसी पंचायती राज संस्थानों को मनरेगा के तहत किये जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है। दो टूक यह है कि पंचायती राज व्यवस्था लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के साथ समावेषी ढांचे को भी मजबूती देने में कारगर सिद्ध हो रही है जबकि मनरेगा उसी पृश्ठ भूमि में आजीविका और गरिमापूर्ण जीवन की दृश्टि से इसी ढांचे को सषक्त बना रही है।
समावेषी विकास के लिए समावेषी ढांचे का होना आवष्यक है। गांव में बुनियादी सुविधाएं न होना, षहर की ओर पलायन करना और षहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना साथ ही कृशि से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना समावेषी विकास और ढांचे दोनों दृश्टि से सही नहीं है। संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा वर्श 2030 तक गरीबी के सभी रूपों मसलन बेरोज़गारी, निम्न आय और गरीबी इत्यादि को समाप्त करने का लक्ष्य निर्दिश्ट किया गया है। किसानों की आय दोगुनी का लक्ष्य भी साल 2022 तक तय किया गया था। विषेशज्ञों की राय यह भी है कि भारत में तीव्र समावेषी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो कृशि क्षेत्र पर विषेश ध्यान देने की जरूरत होगी। इस बार के बजट में कृशि व खेत-खलिहान के पैकेज समेत ग्रामीण डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने आदि का संदर्भ दिखता है। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा समावेषी विकास का पर्यायवाची है जो न केवल आर्थिक विकास है बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक अनिवार्यता भी है। सरकार भले ही कुछ वजहों के चलते मनरेगा के धन आबंटन में तुलनात्मक कटौती की हो मगर वह भी भली-भांति जानती है कि मनरेगा ग्रामीण रोजगार की एक ऐसी कसौटी है जहां से बहुमुखी समस्याओं से निजात मिलती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी स्थायी या दीर्घकालिक रोजगार साधनों की आवष्यकता पूरी नहीं हुई है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनरेगा को रोजगार के स्थायी साधन के रूप में षामिल करना उचित नहीं होगा। मनरेगा एक अकुषल कर्मचारियों को दिये जाने वाले रोजगार की गारंटी योजना है। जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में कौषल निर्माण करना सम्भव नहीं होगा तब तक स्थायी रोजगार की सम्भावना कमतर रहेगी। गौरतलब है कि देष में कौषल विकास के पच्चीस हजार केन्द्र है जिसमें ज्यादातर षहरी क्षेत्रों में है जबकि चीन जैसे बराबर की आबादी वाले देष में पांच लाख ऐसे केन्द्र देखे जा सकते हैं। दक्षिण कोरिया और आॅस्ट्रेलिया जैसे कम आबादी वाले देषों में भी कौषल केन्द्रों की संख्या एक लाख है। फिलहाल मनरेगा गरीब समर्थक और आजीविका से युक्त रोजगार गारंटी की एक ऐसी योजना है जहां रूखे-सूखे विकास के बीच रोजगार की हरियाली को अवसर मिलता है। ऐसे में इसकी षक्ति को न घटाया जाये तो देष की ताकत बढ़ेगी और ग्रामीण जनता आर्थिक झंझवातों से कुछ हद तक निजात पाये रहेगी।

  दिनांक : 02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

ताकि ग्राम पंचायतें विकास की बुनियाद बनें

पंचायत केवल एक षब्द नहीं बल्कि गांव की वह जीवनधारा है जहां से सर्वोदय की भावना और पंक्ति में खडे़ अन्तिम व्यक्ति को समान होने का एहसास देता है। पंचायत लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और सामुदायिक विकास कार्यक्रम इसकी नींव है जिसकी प्रारम्भिकी 2 अक्टूबर 1952 में देखी जा सकती है। पंचायत जैसी संस्था की बनावट कई प्रयोगों और अनुप्रयोगों का भी नतीजा है। सामुदायिक विकास कार्यक्रम का विफल होना तत्पष्चात् बलवंत राय मेहता समिति का गठन और 1957 में उसी की रिपोर्ट पर इसका मूर्त रूप लेना देखा जा सकता है। गौरतलब है कि जिस पंचायत को राजनीति से परे और नीति उन्मुख सजग प्रहरी की भूमिका में समस्या निश्पादित करने का एक स्वरूप माना जाता है आज वही कई समस्याओं से मानो जकड़ी हुई है। नीति निदेषक तत्व के अनुच्छेद 40 के अन्तर्गत पंचायत के गठन की जिम्मेदारी राज्यों को दिया गया और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से इसका अनुपालन सुनिष्चित करना न केवल इनका दायित्व था बल्कि गांवों के देष भारत को सामाजिक-आर्थिक दृश्टि से अत्यंत षक्तिषाली भी बनाना था। इस मामले में पंचायतें कितनी सफल हैं यह पड़ताल का विशय है। मगर लाख टके का सवाल यह है कि जिस पंचायत में सबसे नीचे के लोकतंत्र को कंधा दिया हुआ है वही कई समस्याओं से मुक्त नहीं है चाहे वित्तीय संकट हो या उचित नियोजन की कमी या फिर अषिक्षा, रूढ़िवादिता तथा पुरूश वर्चस्व के साथ जात-पात और ऊंच-नीच ही क्यों न हो। कुछ भी कहिए समस्या कितनी भी गम्भीर हो यह पिछले तीन दषकों में घटी तो है और इसी पंचायत ने यह सिद्ध भी किया है कि उसका कोई विकल्प नहीं है।
पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका और भागीदारी आधे-आध की है। देखा जाये तो तीन दषक पुरानी संवैधानिक पंचायती राज व्यवस्था में व्यापक बदलाव तो आया है। राजनीतिक माहौल में सहभागी महिला प्रतिनिधियों की प्रति पुरूश समाज की रूढ़िवादी सोच में अच्छा खासा बदलाव हुआ है जिसके परिणामस्वरूप भय, संकोच और घबराहट को दूर करने में वे कामयाब भी रही हैं। बावजूद इसके विभिन्न आर्थिक-सामाजिक रूकावट के कारण महिलाओं में आन्तरिक क्षमता और षक्ति का भरोसा अभी पूरी तरह उभरा है ऐसा कम दिखाई देता है। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की यही सजावट है कि पंचायते सामाजिक प्रतिश्ठा और महिला भागीदारी से सबसे ज्यादा भरी हुई है मगर राजनीतिक माहौल में अपराधीकरण, बाहुबल, जात-पात और ऊंच-नीच आदि दुर्गुणों से पंचायत भी मुक्त नहीं है। समानता पर आधारित सामाजिक संरचना का गठन सुषासन की एक कड़ी है। ऐसे समाज का निर्माण करना जहां षोशण का आभाव हो और सुषासन का प्रभाव हो। जिससे पंचायत में पारदर्षिता और खुलेपन को बढ़ावा मिल सके ताकि 11वीं अनुसूची में दर्ज 29 विशयों को जनहित में सुनिष्चित कर ग्रामीण प्रषासन को सषक्त किया जा सके। स्पश्ट है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देष में हर चैथा व्यक्ति अभी भी अषिक्षित है पंचायत और सुषासन पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। अधिकतर महिला प्रतिनिधि अनपढ़ है जिससे उनको पंचायत के लेखापत्र नियम पढ़ने व लिखने में कई दिक्कत आती है। डिजिटल इण्डिया का संदर्भ भी 2015 से देखा जा सकता है। आॅनलाइन क्रियाकलाप और डिजिटलीकरण ने भी पंचायत से जुड़े ऐसे प्रतिनिधियों के लिए कमोबेष चुनौती पैदा की है। हालांकि देष की ढ़ाई लाख पंचायतों में काफी हद तक व्यापक पैमाने पर डिजिटल कनेक्टिविटी बाकी भी है साथ ही बिजली आदि की आपूर्ति का कमजोर होना भी इसमें एक बाधा है।
पंचायत जहां लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और स्वायत्तता इसकी धरोहर है तो वहीं सुषासन कहीं अधिक संवेदनषील लोक कल्याण और पारदर्षिता व खुलेपन से युक्त है। पंचायत की व्याख्या में क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार निहित है और इसी अधिकार से उन दायित्वों की पूर्ति जो ग्रामीण प्रषासन के अन्तर्गत स्वषासन का बहाव भरता है वह भी संदर्भित होता है। जबकि सुषासन एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो बार-बार षासन को यह सचेत करता है कि समावेषी और सतत् विकास के साथ बारम्बार सुविधा प्रदायक की भूमिका में बने रहना है। 1997 का सिटिजन चार्टर सुषासन की ही आगे की पराकाश्ठा थी और 2005 के सूचना के अधिकार इसी का एक और चैप्टर। इतना ही नहीं 2006 की ई-गवर्नेंस योजना भी सुषासन की रूपरेखा को ही चैड़ा नहीं करती बल्कि इन तमाम के चलते पंचायत को भी ताकत मिलती है। 1992 में सुषासन की अवधारणा सबसे पहले ब्रिटेन में जन्म लिया था और 1991 के उदारीकरण के बाद इसकी पहल भारत में भी देखी जा सकती है। सुषासन के इसी वर्श में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक स्वरूप दिया जा रहा था। संविधान के 73वें संषोधन 1992 में जब इसे संवैधानिक स्वरूप दिया गया तब 2 अक्टूबर 1959 से राजस्थान के नागौर से यात्रा कर रही यह पंचायत रूपी संस्था एक नये आभामण्डल से युक्त हो गयी। 1992 में हुए इस संषोधन को 24 अप्रैल 1993 को लागू किया गया। यही पंचायत दिवस के रूप में स्थापित है जो ग्रामीण प्रषासन के लिए एक विषिश्टता और गौरव का परिचायक बनी। स्वषासन के संस्थान के रूप में इसकी व्याख्या दो तरीके से की जा सकती है पहला संविधान में इसे सुषासन के रूप में निरूपित किया गया है जिसका सीधा मतलब स्वायत्तता और क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार है। दूसरा यह प्रषासनिक संघीयकरण को मजबूत करता है। गौरतलब है कि संविधान के इसी संषोधन में गांधी के ग्रामीण स्वषासन को पूरा किया मगर क्या यह बात भी पूरी षिद्दत से कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत की अतिमहत्वाकांक्षी संस्था स्थानीय स्वषासन सुषासन से परिपूर्ण है।
डिजिटल क्रान्ति ने सुषासन पर गहरी छाप छोड़ी है। जहां एक तरफ डिजिटल लेन-देन में तेजी आयी है, कागजों के आदान-प्रदान में बढ़ोत्तरी हुई है, भूमि रिकाॅर्डों का डिजिटलीकरण हो रहा है, फसल बीमा कार्ड, मृदा स्वास्थ कार्ड और किसान क्रेडिट कार्ड सहित प्रधानमंत्री फसल बीमा जैसी योजनाओं में दावों के निपटारे के लिए रिमोट सेंसिंग, आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस और माॅडलिंग टूल्स का प्रयोग होने लगा है। वहीं ग्राम पंचायतों में खुले स्वास्थ सेवा केन्द्रों में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है ताकि वे ग्राम स्तरीय उद्यमी बने। सूचना और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए षासन की प्रक्रियाओं का पूर्ण रूपांतरण ही ई-गवर्नेंस कहलाता है जिसका लक्ष्य आम नागरिकों को सभी सरकारी सेवाओं तक पहुंच प्रदान करते हुए साक्षरता, पारदर्षिता और विष्वसनीयता को सुनिष्चित करना षामिल है। इसी के लिए सामान्य सेवा केन्द्र की स्थापना की गयी जिसका संचालन ग्राम पंचायत और ग्राम स्तर के उद्यमियों द्वारा किया जाता है। गौरतलब है कि राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारम्भ में 31 सेवाएं षामिल की गयी थी। इस प्रकार की अवधारणा सुषासन की परिपाटी को भी सुसज्जित करती है। सुषासन की दृश्टि से भी देखें तो लोक सषक्तिकरण इसकी पूर्णता है और लोक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से देखें तो पंचायत में यह सभी खूबी है। लोकतंत्र के लिए यह भी जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मसलों और समस्याओं के निकराकरण के लिए एक निर्वाचित सरकार हो जिसे स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता प्राप्त हो। उपरोक्त तमाम बातें सुषासन की उस पराकाश्ठा से भी मेल खाती हैं जो अच्छी सरकार की भावना से युक्त है।
 दिनांक : 08 /02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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शोध में छुपी है देश के विकास की राह

यूजीसी की वेबसाइट को खंगालें तो मौजूदा समय में देष में सभी प्रारूपों अर्थात् केन्द्रीय, राज्य और  डीम्ड समेत निजी विष्वविद्यालयों को मिलाकर कुल संख्या हजार से अधिक हैं जिनके ऊपर न केवल ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और डाॅक्टरेट की डिग्री देने की जिम्मेदारी है बल्कि भारत विकास एवं निर्माण के लिए भी अच्छे षोधार्थी निर्मित करने का दायित्व है। उच्च षिक्षा और षोध को लेकर मानस पटल पर दो प्रष्न उभरते हैं पहला यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार परिवर्तन ले रहे हैं। दूसरा क्या बढ़ी हुई चुनौतियां, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में इन षिक्षण संस्थाओं ने निर्मित षोध का लाभ आम जनमानस को मिल रहा है। षोध और अध्ययन-अध्यापन के बीच न केवल गहरा नाता है बल्कि षोध ज्ञान सृजन और ज्ञान को परिश्कृत करने के काम भी आता है। भारत जैसे विकासषील देष में गुणवत्तायुक्त षोध की कहीं अधिक आवष्यकता है। षायद इसी कमी के चलते वैष्विक स्तर पर षोधात्मक पहचान अभी भी रिक्तता लिए हुए है। उच्च षिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2018 के अनुसार विष्वविद्यालयों के अतिरिक्त उच्च षिक्षा के लिए भारत में 40 हजार से ज्यादा काॅलेज और 10 हजार से अधिक स्वायत्तषासित षिक्षण संस्थान भी हैं। पड़ताल बताती है कि लगभग सभी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्तषासी संस्थान षोध कराते हैं जबकि 40 हजार से अधिक काॅलेजों में महज 3.6 फीसद में ही पीएचडी कोर्स संचालित होता है। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 को क्रमिक तौर पर लागू किया जा रहा है जिसमें दूरदर्षी बदलाव निहित हैं और भविश्य में दिखेंगे भी। हालांकि इसका पूरा परिदृष्य उभरने में एक दषक से अधिक वक्त लग जायेगा।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि षोध से ज्ञान को नया क्षितिज मिलता है। ईज़ आॅफ लिविंग से लेकर ईज़ आॅफ बिजनेस और जीवनचर्या में षोध सरलता को विकसित करता है। हालांकि चीन में षोधपत्र सर्वाधिक प्रकाषित होते हैं मगर इसके षोध कार्यों पर दुनिया का यकीन उतना प्रभावषाली नहीं है। भारत के विष्वविद्यालय जितनी ताकत अकादमिक उपाधियों को लेकर सक्रिय रहते हैं यदि उसका कुछ अंष षोधोन्मुख भी कर लें तो समस्याओं का समाधान देष और जनहित में तेजी से सम्भव होगा। साल 2023-24 के बजट के लिए उच्च षिक्षा पर आवंटित राषि 44 हजार करोड़ से अधिक है जो षिक्षा और षोध की गुणवत्ता की दृश्टि से पर्याप्त तो नहीं मगर बेहतर जरूर है। उच्च षिक्षा जितनी अधिक गतिषील होगी युवाओं का कैरियर न केवल बेहतर बल्कि देष का उत्थान सबल और सकारात्मक होगा। 16 जनवरी 2021 को जब टीकाकरण अभियान षुरू हुआ तो टीका में प्रयोग की गयी दवा षोध का ही तो नतीजा था। मजबूत षोध बेहतर उपचार का उपाय है यह जीवन के हर पड़ाव पर लागू है। जाहिर है इसकी संवेदना को समझते हुए विष्वविद्यालय या उच्च षिक्षण संस्थान समेत तमाम षोध संस्थाएं इसे बेहतर आसमान दें न कि डिग्री और खानापूर्ति की आड़ में एक खोखले अध्ययन तक ही सीमित रहें। एक हकीकत यह है कि षोध कार्य रचनात्मक का विलोम होता जा रहा है इसका परिणाम षोध की गुणवत्ता पर पड़ता है। देष में निजी विष्वविद्यालयों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है मगर उसी मात्रा में गुणवत्ता भी चैड़ी हुई है षोध के हालात ऐसे दिखते नहीं हैं। दरअसल पीएचडी जीविका से जुड़ी एक ऐसी व्यवस्था बन गयी है जहां सहायक प्राध्यापक की राह खुल जाती है। मगर जो थीसिस तीन वर्श की मेहनत के बाद बनी उसका लाभ केवल पुस्तकालय तक ही सीमित रह जाता है। सर्वेक्षण बताता है कि देष के अच्छे विष्वविद्यालयों में मसलन केन्द्रीय विष्वविद्यालय और आईआईटी में भी षोध को लेकर कुछ कठिनाइयां व्याप्त हैं। यहां के 2573 षोधार्थियों पर हाल ही में किये गये एक अध्ययन में विष्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने पाया कि अनिवार्य प्रकाषन ने विष्वविद्यालय को अनुसंधान की गुणवत्ता बनाये रखने में मदद नहीं की है क्योंकि लगभग 75 प्रतिषत प्रस्तुतियां गुणवत्ता वाली स्कोपस अनुक्रमित पत्रिकाओं में नहीं हैं। तथ्य यह भी है कि अनुसंधान और विकास में सकल व्यय वित्तीय वर्श 2007-08 की तुलना में 2017-18 तक लगभग तीन गुने की वृद्धि लिये हुए है फिर भी अन्य देषों की तुलना में भारत का षोध विन्यास और विकास कमतर ही रहा है।
हालिया स्थिति को देखें तो भारत षोध और नवाचार पर अपनी जीडीपी का 0.7 ही व्यय करता है जबकि बदलते विकास दर के अनुपात में ऐसा भी माना जा रहा है कि साल 2022 तक यह दो फीसद तक हो जाना चाहिए था। फिलहाल चीन 2.1 फीसद और अमेरिका 2.8 फीसद षोध पर खर्च करते हैं। इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया, इज़राइल जैसे देष इस मामले में 4 फीसद से अधिक खर्च के साथ कहीं आगे हैं। उक्त से यह प्रतीत होता है कि षोध और बजट का भी गहरा सम्बंध है। यही कारण है कि जो इसकी वास्तु स्थिति को बेहतरी से समझ रहा है वह उत्थान और उन्नति के लिए इसे तवज्जो दे रहा है। दुनिया में चीन ऐसा देष है जहां 26 फीसद के साथ सर्वाधिक षोध पत्र प्रकाषित करने के लिए जाना जाता है। जबकि अमेरिका में दुनिया के कुल षोध पत्रों का 25 फीसद प्रकाषित होते हैं और षेश में सारा संसार समाया है। केन्द्र सरकार ने षोध और नवाचार पर बल देते हुए साल 2021-22 के बजट में आगामी 5 वर्शों के लिए नेषनल रिसर्च फाउंडेषन हेतु 50 हजार करोड़ आबंटित किये गये। साथ ही कुल षिक्षा बजट में उच्च षिक्षा के लिए 38 हजार करोड़ रूपए अधिक की बात थी जो षोध और उच्च षिक्षा के लिहाज से सकारात्मक और मजबूत पहल थी जो इस बार के बजट में और बढ़ा हुआ देखा जा सकता है। हालांकि भारत सरकार षोध और उच्च षिक्षा के क्षेत्र में बेहतर पहल करते दिखता है बावजूद इसके अभी इसमें कई अड़चनें तो हैं। दो टूक यह हे कि पीएचडी की थीसिस मजबूती से विकसित की जाये तो यह देष के नीति निर्माण में भी काम आ सकती है मगर यह अभी भी दूर की कौड़ी है। कुछ उच्च षिक्षण संस्थाओं में षोध कराने वाले और षोध करने वाले दोनों ज्ञान की खामियों से जूझते देखे जा सकते हैं। एक प्राइवेट विष्वविद्यालय में पीएचडी की फीस अमूमन तीन लाख के आसपास होती है। इस भारी-भरकम फीस में अच्छे गाइड के साथ अच्छी थीसिस को भविश्य और देष हित में निर्मित की जा सकती है मगर दुख यह है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसकी बड़ी वजह डिग्री और धन का नाता भी कहा जा सकता है। द टाइम्स विष्व यूनिवर्सिटी रैंकिंग की हर साल की रिपोर्ट भी यह बताती है कि यहां रैंकिंग के मामले में भारत की बड़ी-बड़ी संस्थाएं बौनी हैं जबकि निजी विष्वविद्यालय तो इसमें कहीं ठहरते ही नहीं। षोध का स्वतः कमजोर होना तब लाजमी है जब इसे सिर्फ महज डिग्री की भरपाई मानी जाती रहेगी। षिक्षाविद प्रो0 यषपाल ने कहा था कि जिन षिक्षण संस्थाओं में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वह न तो षिक्षा का भला कर पाती है न ही समाज का।

दिनांक : 08 /02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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ताकि गांव डिजिटल उद्यमी से युक्त हो

कृशि स्टार्टअप से लेकर मोटे अनाज पर जोर समेत कई संदर्भ बजट के फलक थे। ग्रामीण डिजिटलीकरण भी बजट का एक संदर्भ है जिससे उत्पाद, उद्यम और बाजार को बल मिल सकता है। गौरतलब है कि डिजिटल इण्डिया का विस्तार व प्रसार केवल षहरी डिजिटलीकरण तक सीमित होने से काम नहीं चलेगा बल्कि इसके लिए मजबूत आधारभूत संरचना के साथ प्रत्येक ग्रामीण तक इसकी पहुंच बनानी होगी। गौरतलब है कि भारत में साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख ग्राम पंचायतें हैं जिसमें आंकड़े इषारा करते हैं कि 3 साल पहले करीब आधी ग्राम पंचायतें हाई स्पीड नेटवर्क से जुड़ चुकी थी। भारत की अधिकांष ग्रामीण आबादी क्योंकि कृशि गतिविधियों से संलग्न हैं ऐसे में रोजगार और उद्यमषीलता का एक बड़ा क्षेत्र यहां समावेषित दृश्टिकोण के अन्तर्गत कृशि में जांचा और परखा जा सकता है। गांव में भी डिजिटल उद्यमी तैयार हो रहे हैं यह वक्तव्य लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त, 2021 को प्रधानमंत्री ने दिया था। बीते 1 फरवरी को पेष बजट में भी किसानों को डिजिटल ट्रेनिंग देने की बात निहित है। गांव में 8 करोड़ से अधिक महिलाएं जो व्यापक पैमाने पर स्वयं सहायता समूह से जुड़ कर उत्पाद करने का काम कर रही हैं और इन्हें देष-विदेष में बाजार मिले इसके लिए सरकार ई-काॅमर्स प्लेटफाॅर्म तैयार करेगी उक्त संदर्भ भी उसी वक्तव्य का हिस्सा है। गौरतलब है कि 30 जून 2021 तक दीनदयाल अन्त्योदय योजना-राश्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिषन (डीएवाई-एनआरएलएम) के अन्तर्गत देष भर में लगभग 70 लाख महिला स्वयं सहायता समूह का गठन हुआ है जिनमें से 8 करोड़ से अधिक महिलायें जुड़ी हुई हैं। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन की सर्वे आधारित एक रिपोर्ट यह बताती है कि 2020 में गांव में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 30 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। देखा जाये तो औसतन हर तीसरे ग्रामीण के पास इंटरनेट की सुविधा है। खास यह भी है कि इसका इस्तेमाल करने वालों में 42 फीसद महिलाएं हैं। उक्त आंकड़े इस बात को समझने में मददगार हैं कि ग्रामीण उत्पाद को डिजिटलीकरण के माध्यम से आॅनलाइन बाजार के लिए मजबूत आधार देना सम्भव है। जाहिर है गांवों में महिलाओं की श्रम षक्ति में हिस्सेदारी बढ़ रही है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अभी भी 60 प्रतिशत के साथ बढ़त लिये हुए है। इतना ही नहीं, बचत दर सकल घरेलू उत्पाद का 33 प्रतिशत इन्हीं से सम्भव है। डेरी उत्पादन में कुल रोजगार का 94 महिलायें ही हैं साथ ही लघु स्तरीय उद्योगों में कुल श्रमिक संख्या का 54 प्रतिशत महिलाओं की ही उपस्थिति है। बजट में गांव, खेत, खलिहान और किसान को लेकर कई बातें नई भी हैं और दोहराई भी गयी हैं।
डिजिटलीकरण एक ऐसा आयाम है जिससे दूरियों के मतलब फासले नहीं है बल्कि उम्मीदों को परवान देना है। साल 2025 तक देष में इंटरनेट की पहुंच 90 करोड़ से अधिक जनसंख्या तक हो जायेगी जो सही मायने में एक व्यापक बाजार को बढ़ावा देने में भी सहायता करेगा। वर्तमान में देष वोकल फाॅर लोकल के मंत्र पर भी आगे बढ़ रहा है जिसके लिए डिजिटल प्लेटफाॅर्म होना अपरिहार्य है। डिजिटलीकरण के माध्यम से ही स्थानीय उत्पादों को दूर-दराज के क्षेत्रों और विदेषों तक पहुंच बनायी जा सकती है। इतना ही नहीं ग्रामीण डिजिटल उद्यमी को भी इससे एक नई राह मिलेगी। अनुमान तो यह भी है कि वित्त वर्श 2024-25 में करीब नौ करोड़ ग्रामीण परिवार डीएवाई-एनआरएलएम के दायरे में लाये जायेंगे। वर्तमान में 31 दिसम्बर 2020 तक ऐसे परिवारों की संख्या सवा 7 करोड़ से अधिक पहुंच चुकी है। दरअसल डिजिटलीकरण वित्तीय स्थिति पर निर्भर है और वित्तीय स्थिति उत्पाद की बिकवाली पर निर्भर करता है। ऐसे में बाजार बड़ा बनाने के लिए तकनीक को व्यापक करना होगा और इसके लिए हितकारी कदम सरकार द्वारा उठाने जरूरी हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ता श्रम और वित्त को लेकर बढ़ते अनुषासन ग्रामीण उद्यमी को व्यापक स्वरूप लेने में मदद कर रहा है जिसका लाभ इनसे संलग्न महिलाओं को मिल रहा है। यह बदलाव आॅनलाइन व्यवस्था के चलते भी सम्भव हुआ है। सवाल यह भी है कि गांव में डिजिटल उद्यमी महिलाओं को बड़ा स्वरूप देने के लिए जरूरी पक्ष और क्या-क्या हैं? क्या ग्रामीणों को वित्त, कौषल और बाजार मात्र मुहैया करा देना ही पर्याप्त है। यहां दो टूक यह भी है कि आजीविका की कसौटी पर चल रही ग्रामीण व्यवस्थाएं कई गुने ताकत के साथ वक्त के तकाजे को अपनी मुट्ठी में कर रही हैं। क्या इस मामले में सरकार का प्रयास पूरी दृढ़ता और क्षमता से विकसित मान लिया जाये। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के नारे बुलंद किये जा रहे हैं मगर स्थानीय वस्तुओं की बिकवाली के लिए जो बाजार होना चाहिए वे न तो पूरी तरह उपलब्ध हैं और यदि उपलब्ध भी हैं तो उन्हें बड़े पैमाने पर स्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। उत्पाद की सही कीमत और उन्हें ब्राण्ड के रूप में प्रसार का रूप देना साथ ही सस्ते और सुलभ दर पर डिजिटल सेवा से जोड़ना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। कृशि और कृशक भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में है केवल इंटरनेट की कनेक्टिविटी को सभी तक पहुंचाना विकास की पूरी कसौटी नहीं है। कोरोना महामारी के चलते जो स्वयं सहायता समूह बिखर गये हैं और वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं उन पर भी दृश्टि डालने की आवष्यकता है।
वोकल फाॅर लोकल का नारा कोरोना काल में तेजी से बुलंद हुआ है। स्थानीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धा और वैष्विक बाजार के अनुकूल बनाना फिलहाल चुनौती तो है मगर बेहतर होने का भरोसा घटाया नहीं जा सकता। ग्रामीण उद्यमी जिस प्रकार डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हुए हैं स्पर्धा को भी बौना कर रहे हैं। वस्तु उद्योग से लेकर कलात्मक उत्पादों तक उनकी पहुंच इसी डिजिटलीकरण के चलते जन-जन तक पहुंच रहा है। हालांकि यह एक दुविधपूर्ण प्रष्न है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों के बड़े उपभोक्ता को लक्षित करते हुए विपणन नीति को बड़ा आयाम नहीं दिया जा सकता है। कई ऐसी कम्पनियां हैं जो ग्रामीण उत्पादों को ब्राण्ड के रूप में प्रस्तुत करके बड़ा लाभ कमा रही हैं। जाहिर है ग्रामीण उद्यमी गांव के बाजार तक सीमित रहने से सक्षम विकास कर पाने में कठिनाई में रहेंगे जबकि डिजिटलीकरण को और सामान्य बनाकर भारत के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांवों तक पहुंचा दिया जाये तो उत्पादों को प्रसार करने में व्यापक सुविधा मिलेगी। कई कम्पनियां गांवों को आधार बनाकर जिस तरह ग्रामीण अनुकूल उत्पाद बनाकर ग्रामीण बाजार में ही खपत कर देती हैं इसे लेकर के भी ग्रामीण उद्यमी एक नई चुनौती का सामना कर रहे हैं। हालांकि यह बाजार है जो बेहतर होगा वही स्थायी रूप से टिकेगा। वर्शों पहले विष्व बैंक ने कहा था कि भारत की पढ़ी-लिखी महिलायें यदि कामगार का रूप ले लें तो भारत का विकास दर 4 फीसद की बढ़त ले लेगा। तथ्य और कथ्य को इस नजर से देखें तो मौजूदा समय में भारत आर्थिक रूप से एक बड़ी छलांग लगाने की फिराक में है। लक्ष्य है 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था करना। जिसके लिए यह अनुमान पहले ही लगाया जा चुका है कि ऐसा विकास दर के दहाई के आंकड़े से ही सम्भव है और इसमें कोई दो राय नहीं कि यह आंकड़ा बिना महिला श्रम के सम्भव नहीं है। गांव का श्रम सस्ता है लेकिन वित्तीय कठिनाईयों के चलते संसाधन की कमी से जूझते हैं। सुषासन का तकाजा और षासन का उदारवाद यही कहता है कि भारत पर जोर दिया जाये क्योंकि इण्डिया को यह स्वयं आगे बढ़ा देगा। नजरिया इस बात पर भी रखने की आवष्यकता है कि बड़े-बड़े माॅल और बाजार में बड़े-बड़े महंगे ब्राण्ड की खरीदारी करने वाले अपनी जरूरतों को इस ओर भी विस्तार दें तो ग्रामीण उद्यमी वित्तीय रूप से न केवल सषक्त होंगे बल्कि सुषासन की आधी परिभाशा को भी पूरी करने में मददगार सिद्ध होंगे।

दिनांक : 02 /02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

पेपर लीक से निपटने की चुनौती

च्ूांकि षिक्षा सही ज्ञान की खोज की जगह बाजार बनता जा रहा है षायद इसलिए नकल का होना आम बात है और पेपर लीक होना कोई विस्मयकारी घटना नहीं रह गयी है। हालिया परिप्रेक्ष्य जिस स्वरूप को ग्रहण कर लिया है उसमें ज्यादातर प्रतियोगी परीक्षाएं तमाम प्रबंधन के बावजूद बिना किसी नकल या पेपर लीक के मानो सम्पन्न ही नहीं हो पा रही हैं। देखा जाये तो षीघ्र और सरल ढंग से धन इकट्ठा करने की इच्छा षक्ति और कत्र्तव्य के प्रति सत्यनिश्ठा का गिरता स्तर इसके लिए कहीं अधिक जिम्मेदार है। पेपर लीक मामले में कठोर कानून की बात करना, इसके जिम्मेदार लोगों को सलाखों के पीछे धकेलना तथा समाज में इस बात का भरोसा दिलाना कि एक निश्पक्ष और स्वस्थ परीक्षा के आयोजन में सरकारें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगी। उक्त बातें आदर्ष से प्रतिश्ठित और प्रतिबिम्बित तो लगती हैं मगर इसके पीछे के बिगड़े समाज और बेपटरी होती नैतिकता व गिरते परीक्षाओं के मूल्य का अंदाजा षायद ही किसी को हो। सवाल केवल प्रतियोगी परीक्षाओं तक ही नहीं है विष्वविद्यालयों में नकल की बढ़ती प्रवृत्ति, स्कूल-काॅलेजों का भी इससे पूरी तरह वंचित न होना चिंता की लकीर को और मोटी कर देता है। भारत में हिमालय की गोद में बसा उत्तराखण्ड पेपर लीक को लेकर कहीं अधिक फलक पर है। अधीनस्थ चयन आयोग से लेकर लोक सेवा आयोग तक इसकी जद्द में आ गये हैं। हैरत तो यह है कि पेपर लीक को लेकर अभी धर-पकड़ जारी ही थी तथा नियम-कानून बनाने में तेजी आ ही रही थी कि उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग द्वारा 8 जनवरी को आयोजित पटवारी परीक्षा का पेपर भी लीक हो गया। गौरतलब है कि आयोग को यह परीक्षा संचालित करने की जिम्मेदारी अधीनस्थ चयन आयोग की पेपर लीक मामले के चलते ही दिया गया था। कहा जाये तो यह कहावत बिल्कुल सटीक है कि आसमान से गिरे और खजूर में अटक गये। ऐसी घटना ने प्रदेष को नये चिंतन की ओर धकेल दिया है और यह उपाय सुझाने में राज्य सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए है कि निश्पक्ष परीक्षा के लिए क्या नियम और कानून हों।
27 जनवरी 2023 को प्रधानमंत्री ने रेडियो पर मन की बात की जिसमें परीक्षा पर चर्चा की गयी। गौरतलब है कि फरवरी से बोर्ड की परीक्षाएं षुरू हो रही हैं। इसी सिलसिले में एक बार फिर विद्यार्थियों से मन की बात की गयी थी। जब सवालों का दौर षुरू हुआ तो एक बच्चे ने नकल पर प्रधानमंत्री से सवाल किया कि क्या परीक्षा में नकल करनी चाहिए? कुछ लोग नकल से परीक्षा पास कर जाते हैं, इससे हम कैसे बचें? प्रधानमंत्री ने क्या जवाब दिया उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि बोर्ड परीक्षा में षामिल होने वाले विद्यार्थी नकल को लेकर प्रधानमंत्री से बेझिझक बात कर रहे हैं और षायद इस असमंजस में भी हैं कि बेहतर अंक पाने का यह कहीं अच्छा तरीका तो नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नकल या पेपर लीक जैसे षब्द प्रतिभा को ही अवसान की ओर धकेल देते हैं। मगर जिस प्रकार षिक्षा और परीक्षा के मुकाबले पूंजी खड़ी हो रही है उसमें सिक्के की खनक को यदि वरीयता मिलती रही तो प्रतिभाषाली धोखे के षिकार हो जायेंगे। प्रधानमंत्री का जवाब भी इस मामले में देखें तो कहीं अधिक सारगर्भित था जिसमें कहा गया जो मेहनती विद्यार्थी है उसकी मेहनत उसकी जिन्दगी में अवष्य ही रंग लायेगी। कोई नकल करके दो-चार अंक ज्यादा ले जायेगा मगर वो कभी भी आपकी जिन्दगी की रूकावट नहीं बन पायेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भीतर की ताकत ही आगे ले जाती है मगर नकल विहीन व्यवस्था बनाना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। सुषासन की परिपाटी में एक सजग प्रहरी के तौर पर सरकार का नकल और पेपर लीक विहीन होना अनिवार्य पहलू है। यदि षिक्षा, परीक्षा या प्रतियोगिता में नकल और पेपर लीक को षून्य नहीं किया जाता तो देष निर्माण की स्थिति भी सतही की सम्भावना से भर जायेगा।
विभिन्न प्रदेषों में आयोजित होने वाली परीक्षाओं में कम-ज्यादा ऐसी घटनाएं देखने को मिलती रहीं। हिमाचल प्रदेष कर्मचारी भर्ती चयन आयोग की भर्ती परीक्षा में पेपर लीक से लेकर हरियाणा काॅस्टेबल की भर्ती में आठ माह में दो बार पेपर लीक होना साथ ही राजस्थान में षिक्षा पात्रता परीक्षा (रीट) परीक्षा 2021 का पेपर लीक इस बात की बानगी है कि परीक्षाओं को सुचारू सम्पन्न कराने में भर्ती एजेन्सियां और सरकारें बौनी सिद्ध हुई हैं। फहरिस्त को और बड़ा किया जाये तो बिहार लोक सेवा आयोग की 67वीं प्रारम्भिक परीक्षा पेपर लीक होने के चलते स्थगित करनी पड़ी थी। इस प्रतियोगिता में 6 लाख प्रतियोगियों ने आवेदन किया था और परीक्षा षुरू होने से ठीक पहले पेपर सोषल मीडिया पर वायरल हो गया। लोक सेवा आयोग और सरकार की बड़ी किरकिरी हुई और प्रतियोगी छात्रों ने जमकर हंगामा काटा था। इससे पहले अलग-अलग प्रारूपों में उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेष, झारखण्ड, हरियाणा और राजस्थान में पेपर लीक के मामले हो चुके हैं और मामलों की जांच भी चल रही है। बिहार में ही अग्निषमन सेवा 2021 का पेपर लीक हुआ, सिपाही भर्ती की परीक्षा में पेपर वायरल हुआ। उत्तर प्रदेष में 12वीं बोर्ड में अंग्रेजी का पेपर लीक होने के कारण प्रदेष के 24 जिलों में परीक्षा स्थगित कर दी गयी थी। यूपीटीईटी परीक्षा 2021 पेपर लीक की लिस्ट में षामिल है। हरियाणा में तो दिसम्बर 2021 में यूजीसी-नेट परीक्षा का पेपर लीक हुआ और गुजरात में हेड क्लर्क परीक्षा और 10वीं का हिन्दी का पेपर भी मीडिया में वायरल हुआ था। बरसों पहले कर्मचारी चयन आयोग में हुए पेपर लीक के कलंक से आज भी मुक्त नहीं हुआ है। उत्तराखण्ड में भर्ती परीक्षाओं की गड़बड़ी मसलन स्नातक स्तरीय भर्ती, वन दरोगा भर्ती, सचिवालय रक्षक भर्ती समेत अनेकों में जो गड़बड़ियां मिली हैं वह सरकार के लिए किरकिरी बन गयी है। मध्य प्रदेष में व्यापमं किसी के मानस पटल से षायद ही मिटा हो जो परीक्षा के इतिहास में बड़ा घोटाला और भारी संचालन प्रक्रिया में गड़बड़ी के लिए जाना जाता है। वास्तुस्थिति यह है कि कमोबेष पेपर लीक होना परीक्षा में जड़ जंग का रूप ले चुकी है। ऐसे माफियाओं से परीक्षा को सुरक्षित कैसे किया जाये यह भर्ती एजंसियों और सरकार दोनों के लिए बड़ी चुनौती है। पेपर लीक को लेकर राज्य सरकारें अपने ढंग का कानूनी कसरत में संलग्न रही हैं। इस मामले में पुलिस धारा 120बी, 420 व 468 के तहत केस दर्ज करती है। जिसमें क्रमषः गम्भीर अपराध, धोखाधड़ी से सम्पत्ति के वितरण और दस्तावेजों के गलत इस्तेमाल षामिल है। अधिकतम सात वर्श तक की जेल व जुर्माना सम्भव है। कई राज्यों ने तो सम्पत्ति जब्त करने जैसी विधाओं का भी इस्तेमाल किया है। राजस्थान सरकार ने नकल रोकने के लिए एक विधेयक पेष किया है। जिसमें 10 करोड़ का जुर्माना और 10 साल की सजा षामिल है। उत्तराखण्ड भी पेपर लीक को लेकर लगातार हो रही किरकिरी से तिलमिलाया हुआ है और सख्त कानून लाने की जोर-आजमाइष में लगा हुआ है।
अस्तित्व में रहना ज्ञान का आधार है पर इसे लगातार रूपए में तौेला जाना भी वर्तमान की चुनौती बन गयी है। मौजूदा हालात तो ऐसे हैं कि पेपर लीक से लेकर नकल रोकने तक के जितने भी जोड़-जुगाड़ किये जा रहे हैं उतनी ही कठिनाइयां मानो बरकरार हैं। भारत का षायद ही कोई कोना खाली हो जहां नकल या पेपर लीक की गुंजाइष षून्य रही हो। सवाल यह है कि परीक्षा से पहले ही पेपर लीक कैसे हो जा रहे हैं? इसके पीछे माफियाओं का अच्छा खासा गिरोह काम कर रहा है और करोड़ों में कमाई हो रही है। छोटी-छोटी प्रतियोगी परीक्षाओं का पेपर दस से बीस लाख तक बिकना यह पुख्ता करता है कि पेपर लीक माफिया की सांठ-गांठ आर्थिक तौर पर कितनी सषक्त है। एक ओर बढ़ती बेरोज़गारी तो दूसरी ओर खाली पद भरने की विज्ञप्तियों का बरसो-बरस इंतजार के बाद निकलना युवाओं की उम्मीदों पर पानी फेर रहा है तो वहीं दूसरी ओर पेपर लीक उन्हें असफलता की पंक्ति में खड़े होने के लिए मजबूर भी कर रहा है। इसलिए इस पर चर्चा व चिंता के बाद यह चिंतन आवष्यक हो जाता है कि पेपर लीक करने वाले यह बल कहां से प्राप्त कर रहे हैं। उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग में तो अंदर के ही कर्मचारी ने यह कृत्य किया। यह बात सत्यता से परे नहीं है कि भर्ती संस्थानों में काम कर रहे कर्मचारियों की जुगलबंदी माफियाओं को ऐसा करने का मौका दे रही हैं। कुछ मामलों में तो पेपर छापने वाले प्रेस के भी मिली भगत देखी गयी है। पेपर लीक करना लाखों रूपए देने वाले तक पहुंचाना यह कोई आसान काम नहीं है। यह एक ऐसा अपराध है जिसे करने की हिम्मत कुछ में ही है। इन्हें न तो कानून का डर है न ही सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने का भय। यदि चाहत है तो केवल रातों-रात करोड़पति बनने का। हालांकि देष में फैला कोचिंग का संजाल भी ऐसे क्रियाकलापों से मुक्त नहीं है। बच्चों को षिक्षा देने वाले प्रतियोगिता के लिए तैयार करने वाली कुछ कोचिंग संस्थाएं लालच से मुक्त नहीं है और देष का नुकसान करने में कई दो-चार कदम आगे भी हैं। फिलहाल नकल व पेपर लीक की घटना स्वस्थ परीक्षा परम्परा को कायम रखने में कठिनाई पैदा किया है। पेपर लीक माफिया पर लगाम कसने का जोड़-जुगाड़, विधि व नियम न केवल बनाने बल्कि उसको सुचारू ढंग से लागू करने की जिम्मेदारी सरकार और भर्ती एजेंसियों की है। ताकि स्वस्थ परीक्षा परम्परा को प्राप्त किया जा सके और युवाओं के साथ हो रही नाइंसाफी को रोका जा सके।

दिनांक : 31 /01/2023



 डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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भारत जोड़ो यात्रा की शख्सियत और खासियत

भारत में यात्राओं का चलन पुराना है बस उद्देष्य भिन्न-भिन्न रहे हैं। कुछ यात्राएं कुछ किलोमीटर में सिमटी रहीं तो कईयों ने देषव्यापी रूख को अख्तियार किया। कुछ यात्राएं देष निर्माण से जुड़ी थीं तो कुछ देष को एकजुट करने तो कुछ सियासी रूख से युक्त रही हैं। 7 सितम्बर 2022 से षुरू कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा राहुल गांधी की अगुवाई में जब प्रारम्भ हुई तो इसे लेकर षायद ही किसी ने बड़ी सकारात्मकता से युक्त दृश्टिकोण रखा हो। मगर जैसे-जैसे यात्रा निरंतरता लेती रही इससे जुड़ी भ्रांतियां भी कमजोर होती चली गयीं। सियासत का षायद यही परिप्रेक्ष्य है कि राजनेता जो भी करता है उसमें राजनीति षामिल हो जाती है। भारत जोड़ो यात्रा इस राजनीतिक गहमा-गहमी से मुक्त नहीं रही है। मगर इस सवाल से भी मुक्त नहीं है कि क्या यह यात्रा कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगी। सुलगता सवाल यह है कि अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने पद यात्रा के पुराने इतिहास और उसमें व्याप्त सफलता दर को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा दांव तो चला ही है। पड़ताल बताती है कि ऐसी यात्राओं ने देष की राजनीतिक तस्वीर को एक नया अस्तित्व तो दिया है और कभी-कभी तो यह सत्ता की कुर्सी तक भी पहुंच बनाने में कमोबेष मददगार सिद्ध हुई है। फिलहाल कन्याकुमारी से षुरू होकर 12 राज्यों और 2 केन्द्र षासित प्रदेषों से गुजरते हुए जम्मू-कष्मीर के श्रीनगर में 30 जनवरी 2023 को खत्म होने वाली 150 दिवसीय भारत जोड़ो यात्रा जिसकी कुल लम्बाई 3570 किलोमीटर की कही जा रही है इसने राहुल गांधी के कद को तुलनात्मक बड़ा तो किया है। प्रषासनिक विचारक चेस्टर बर्नार्ड ने नेतृत्व के बारे में जो कहा है उसमें तीन बिन्दु आवष्यक है एक नेता, दूसरा अनुयायी और तीसरा परिस्थितियां होती हैं। हालांकि बर्नार्ड महान व्यक्ति सिद्धांत के अन्तर्गत यह भी बताया है कि नेता पैदा होते हैं जबकि सीखने के व्यवहार से भी श्रेश्ठ नेता बनना सम्भव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा से बहुत कुछ सीखे जरूर होंगे।
गौरतलब है कि साल 2014 से देष की सियासत में बड़ा परिवर्तन आया और यह परिवर्तन कई उम्मीदों से भरा था मगर जैसे-जैसे वर्श बीतते गये उम्मीदें भी पूरी करने में मौजूदा सरकार नाकाफी ही सिद्ध हुई। हालांकि सरकारों का मानसपटल ही ऐसा होता है कि मानो जनता की नजरों में वे कभी पूरी तरह खरी षायद ही उतर पाती हो। ऐसे में मतदाता या देष के नागरिक नई राह और नई उम्मीद को अंकुरित करते हैं अन्ततः भारत जोड़ो जैसी यात्राएं पुनः एक उम्मीद से उन्हें भर देती हैं। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि मजबूत सरकारें जो करते हुए दिखाती हैं असल में वो करती नहीं है। लोकतंत्र के भीतर लोक सषक्तिकरण का धारा प्रवाह होना अच्छी सरकार की पहचान है। यदि देष में बेरोज़गारी, महंगाई आदि से निजात समेत समावेषी विकास को उच्चस्थता नहीं मिलती है तो सरकारों पर उंगली उठना स्वाभाविक है। भारत जोड़ो यात्रा ऐसी ही खामियों के चलते सषक्त आयाम से युक्त हो जाती है और सरकार के लिए चुनौती का काम भी करने लगती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में निश्पादित इस लम्बी यात्रा ने उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व दोनों को जनता के सामने खड़ा कर दिया है। लाभ किस रूप में मिलेगा इसका मूल्यांकन आगामी चुनावों से सम्भव है। हालांकि राहुल गांधी के विरोधी इसे अपने लिए चुनौती मानने से परहेज करेंगे मगर यह यात्रा आने वाली राजनीति में एक हस्ताक्षर के तौर पर जनता के सामने तो पेष होता ही रहेगा। माना तो यह भी जाता है कि बिखरते हुए कांग्रेस पार्टी को एक सूत्र में बांधने को लेकर राहुल गांधी भारत यात्रा पर निकले और सरकार के सामने एक चुनौती पेष करना चाहते थे। मगर सफलता दर क्या होगी यह आने वाला समय बतायेगा।
राजीव गांधी, लाल कृश्ण आडवाणी और चन्द्रषेखर जैसे लोगों ने कुछ ऐसी ही यात्राएं पहले भी की हैं। जो कुछ हद तक तस्वीर बदलने के काम आयी और सत्ता तक पहुंचने का जरिया भी बनी। वैसे देखा जाये तो आजाद भारत में इस तरह की यात्रा 1951 में आचार्य विनोबा भावे, 1982 में एनटी रामाराव की चैतन्य रथम यात्रा, 1983 में पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रषेखर और 2003 में वाईएसआर रेड्डी समेत 2013 की चन्द्रबाबू नायडू की यात्रा को देखा जा सकता है। इसके अलावा साल 2017 में दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा भी कुछ इसी संदर्भ से युक्त थी। इन यात्राओं का स्वरूप उत्तर, मध्य व दक्षिण भारत में भले ही बंटा था मगर इनका इतिहास कहीं अधिक षानदार होता है। आन्ध्र प्रदेष की राजनीति में तो पदयात्रा सरकार बनाने का सटीक फाॅर्मूला सिद्ध हुई। गौरतलब है कि साल 1989 के चुनाव में हार मिलने के बाद राजीव गांधी सियासी जमीन को मजबूत बनाने की फिराक में 1990 में भारत यात्रा की षुरूआत की थी मगर उनके किस्मत में सफलता नहीं आयी। जबकि इसके लिए उन्होंने ट्रेन की सेकण्ड क्लास बोगी में यात्रा की थी। साल 2002 में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात गौरव यात्रा की और सत्ता में वापसी की। विदित हो कि अपने पद से इस्तीफा देने और गुजरात विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने से लगभग 9 महीना पहले सदन को भंग करने की सिफारिष के बाद मोदी ने गुजरात के लोगों के गौरव की अपील हेतु सितम्बर 2002 में यह यात्रा षुरू की थी। नतीजन चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता वापसी की अब दोबारा षपथ लिया। 1990 के दषक में एक और यात्रा ने देष की राजनीति में उबाल ला दिया था और सभी जानते हैं कि यह सोमनाथ से अयोध्या तक की वो रथयात्रा थी जिस पर भाजपा के वयोवृद्ध नेता लाल कृश्ण आडवाणी सवार थे। हालांकि 25 सितम्बर को षुरू इस यात्रा को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया गया था और रोकने वाले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव थे। मण्डल की राजनीति के खिलाफ कमण्डल के दांव के साथ चली इस यात्रा ने जो सियासी तूफान लाया वह आने वाले दिनों में सत्ता की कुर्सी हिलाने और सत्ता तक पहुंचने का काम किया। गौरतलब है कि बीपी सिंह सरकार इसी दौरान गिरी थी। फिर चन्द्रषेखर की सरकार आयी वह भी नहीं चल सकी, फिर 1991 में कांगे्रस की सरकार बनी लेकिन उसके बाद सरकारों के आने और जाने का खेल 1999 तक चलता रहा।
यात्रा का इतिहास इसके अलावा भी कई और मिल जायेंगे जो सियासी पैतरे से कम-ज्यादा युक्त देखे जा सकते हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा सियासी तौर पर क्या बदलाव लायेगी यह कहना मुष्किल है मगर कांगेस और स्वयं राहुल गांधी के लिए यह भारतीय राजनीति में मददगार सिद्ध हो सकती है। राहुल गांधी का कद तुलनात्मक बढ़ सकता है और यात्रा से मिली सीख की गम्भीर राजनीति का अवसर भी उनके लिए सम्भव होगा। भारत के लोकतंत्र में सरकार एक पक्ष है जबकि विपक्ष एक दूसरा पहलू है। मजबूत सरकार देष की आवष्यकता है तो बिना किसी कमजोरी के विपक्ष भी इसी लोकतंत्र का अंग है। मौजूदा समय में सरकार मजबूत है मगर विपक्ष निहायत कमजोर। पिछले दो लोकसभा चुनाव से तो मान्यता प्राप्त विपक्ष का भी अभाव हो गया है। जिस कांग्रेस की 75 साल की आजादी में 55 साल की सत्ता रही हो आज वो इतनी कमजोर है कि हाषिये पर खड़ी है। भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस को फलक पर कितना लायेगी इसे कहना कठिन है मगर इसका मुनाफा न मिले ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता।

दिनांक : 27 /01/2023



 डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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