Monday, September 28, 2015

प्रासंगिक होती प्रधानमंत्री की सितम्बर यात्रा

    सतत् विकास की अवधारणा दषकों से देष में विकेन्द्रित रूप लिए हुए है। यह एक ऐसी आर्थिक अवधारणा है जिसकी चाह विष्व के सभी देष रखते हैं। 25 सितम्बर को संयुक्त राश्ट्र महासचिव बान की मून द्वारा आयोजित सतत् विकास सम्मेलन को प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी में सम्बोधित किया। इस सम्बोधन के माध्यम से कई प्रक्रियागत् अवधारणाओं को उजागर होते हुए देखा जा सकता है। संयुक्त राश्ट्र के सम्मेलनों में हिन्दी में भाशण देने की षुरूआत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अस्सी के दषक में षुरू हुई थी। हालांकि ऐसे सम्मेलनों में अब हिन्दी में सम्बोधन आम चलन में आ चुका है। इसे हिन्दी के प्रति ताकत भरने के लिए भी आवष्यक कहा जा सकता है। दुनिया की षीर्श पंचायत संयुक्त राश्ट्र संघ में भी समय के साथ बड़े बदलाव की दरकार है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी विष्वसनीयता के लिए सुरक्षा परिशद् में सुधार किया जाना जरूरी बताया। अक्सर देखा गया है कि ऐसे मंचों पर भारत अधिक उदार और सहभागी रवैया रखने से गुरेज नहीं करता। इसके अलावा आलोचनात्मक परिपे्रक्ष्य को नजरअंदाज करते हुए समरसता से भरे दृश्टिकोण का आदान-प्रदान करने के इच्छुक रहता है। जिस प्रकार भारत वैष्विक पटल पर बोध और सोच के मामले में खरा उतरता है ठीक इसके उलट पाकिस्तान को कई छटपटाहट के साथ ऐसे मंचों पर देखा जाता रहा है। ताजे घटनाक्रम में पाकिस्तान ने संयुक्त राश्ट्र संघ में यह षिकायत करने की कोषिष की है कि भारत बातचीत का इच्छुक नहीं है, और नियंत्रण रेखा पर दीवार बनाने का भी आरोप लगाया। ये दोनों बातें पाकिस्तान की विक्षिप्त मानसिकता की ही परिचायक कही जाएंगी। यहां पाकिस्तान का उद्देष्य संयुक्त राश्ट्र में भारत के पक्ष को कमजोर करना मात्र है।
    प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा को यदि सितम्बर यात्रा की संज्ञा दी जाए तो समुचित होगा। पिछले वर्श अमेरिका के बुलावे पर अपने पांच दिन की यात्रा पर मोदी 25 सितम्बर को रवाना हुए थे। तब अवसर नवरात्रि का था और मोदी का उपवास भी चल रहा था जबकि इस वर्श 24 सितम्बर को वाया आयरलैंड उनकी लैंडिंग अमेरिका में हुई। यह महज संयोग है कि अमेरिका की लगातार दोनों यात्राएं सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में कार्यक्रमित हो रही हैं और इस बार की भी यात्रा पांच दिवसीय ही है। पहली यात्रा की तरह ही दूसरी यात्रा में भी मोदी का भरपूर स्वागत हुआ। उस यात्रा में 50 से ज्यादा कार्यक्रमों में मोदी ने भाग लिया था। संयुक्त राश्ट्र महासभा में सम्बोधन से लेकर ‘मेडिसिन स्क्वायर‘ में लच्छेदार भाशण तक इसमें षामिल थे। उस समय भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से बातचीत का कोई निर्धारित कार्यक्रम नहीं था कमोबेष इस बार भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। भारत-पाकिस्तान जब भी अमेरिका की धरती पर होते हैं तो ये अटकलें तेज हो जाती हैं कि विदेष के धरातल पर क्या गुल खिलेगा पर चिंतन से भरा दृश्टिकोण यह है कि भारत जिस विकास और विचार से युक्त होता है पाकिस्तान ठीक इसके उलट धोखे और अविष्वास से परिपूर्ण रहता है। ऐसे में उसे हासिल तो कुछ नहीं होता पर द्विपक्षीय मसले को बहुपक्षीय बनाने में अपनी पूरी कूबत झोंक देता है। जिस भांति मोदी को वैष्विक समर्थन मिल चुका है और मिल रहा है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना आसान है कि पाकिस्तान की गलत नीयत कहीं भी कारगर सिद्ध नहीं होने वाली।
    अमेरिका की धरती पर भारत-अमेरिका सम्बन्ध या दूसरे षब्दों में कहें तो मोदी-ओबामा का मिलन नये मुकाम को गढ़ने में कामयाबी पायेगा साथ ही दोनों के बीच आर्थिक रिष्तों में और भी मजबूती आएगी। एषिया समेत दुनिया भर में राजनीतिक और सुरक्षा सहयोग को बढ़ाने में इनकी मुलाकात अहम् भूमिका अदा करेगी। हर कोई मानता है कि भारत और अमेरिका रिष्तों की मजबूती और आर्थिक एवं व्यापारिक समझौते के लिए प्रतिबद्ध हैं। अमेरिकी उद्यमियों ने भी मोदी को न केवल हाथों-हाथ लिया बल्कि भारत के प्रति उनका नजरिया संतोश से परिपूर्ण है। गूगल के भारतीय मूल के सीईओ सुन्दर पिचाई ने डिजिटल इण्डिया का जहां समर्थन किया वहीं अन्य उद्यमियों ने मोदी की अलग-अलग तरीके से व्याख्या की। जब बात इतने बड़े देषों और मंच की हो तो एक-दो मसलों तक ही बात नहीं रहती। मोदी जब संयुक्त राश्ट्र सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे तब राश्ट्रपिता को याद करते हुए कहा कि दुनिया भर में आज भी एक अरब तीस करोड़ लोग गरीबी में जीवन जी रहे हैं। संयुक्त राश्ट्र के गरीबी हटाने के लक्ष्य को भारत ने समर्थन दिया है। इसी सम्मेलन में मोदी ने ‘क्लाइमेट चेंज‘ के स्थान पर ‘क्लाइमेट जस्टिस‘ की बात कही। दीगर बात है कि आज विष्व का हर देष जलवायुवीय समस्याओं से जूझ रहा है और भारत इस समाधान में भी बहुत कुछ करने के लिए आतुर रहता है। जिस भांति प्रधानमंत्री मोदी विदेष में अपने ढंग को बदल लेते हैं और सभी में षामिल होने की बड़ी कोषिष करते हैं इससे यह विष्वास बढ़ने लगता है कि देष की कई समस्याएं इन प्रयासों से हल की ओर होंगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति की तस्वीर को उद्यमियों के सामने रख कर भारत में निवेष हेतु प्रेरित करना और कूटनीतिक क्षमता का परिचय देना  और प्रतिउत्तर में अतिरिक्त सकारात्मक वातावरण का बनना इस बात का सबूत है कि विष्व समुदाय भारत को बड़ी गम्भीरता से लेता है पर देखने वाली बात यह है कि आर्थिक सुधार को प्राथमिकता में रखने वाले मोदी अमेरिकी उद्यमियों को निवेष हेतु आकर्शित करने में कितने सफल होते हैं।
प्रधानमंत्री ने अमेरिका की करीब पचास कम्पनियों के सीईओ से मुलाकात की। गूगल के रूपर्ट मर्डोक ने मोदी को आजाद भारत का सबसे अच्छा प्रधानमंत्री करार दिया, कहा कि इनके पास बेहतरीन नीतियां हैं जबकि फाॅच्र्यून पत्रिका के सम्पादक एलन मूरै के विचार में भारत को लेकर कुछ असमंजस सा देखने को मिला जिसके चलते उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से भारत में कारोबार संचालित करने वाले जटिल कानून, अत्यधिक परमिट और भ्रमजाल फैलाने वाली नौकरषाही, खराब आधारभूत संरचना और बोझिल कर प्रणाली को बदलने की दिषा में गति की बात कही। यह काफी हद तक सही कहा जा सकता है कि भारत में संरचनात्मक-प्रकार्यवाद उस रवैये में नहीं है जैसा कि एक विकासात्मक दृश्टिकोण वाले देष को चाहिए। ऐसे तमाम कारक भारत की विष्वसनीयता पर संदेह करने वाले रहे हैं। ध्यानतव्य है कि जापान की यात्रा पर मोदी ने कहा था कि अब भारत ‘रेड टैप‘ नहीं बल्कि ‘रेड कारपेट‘ वाला देष है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वैष्विक पटल पर भारत ऐसे सवालों से घिरा रहा है पर दो टूक यह भी सही है कि काफी हद तक इन दिनों की विदेष नीति के चलते भारत के प्रति विदेषी षासकों और निवेषकों की राय बदली है। कूटनीति का सबब भी यही होता है कि दुनिया में अपनी बात इस प्रकार प्रस्तुत करो और उसका पूरा कराने के लिए ऐसी कोषिष करो जिससे कि न केवल हमारी नीतियां सराही जाएं बल्कि उपलब्ध आर्थिक विकल्प से भी मुनाफा मिले। इसी तर्ज पर मोदी  ‘मेक इन इण्डिया‘, ‘डिजिटल इण्डिया‘ और ‘स्किल इण्डिया‘ को एक मारक हथियार के रूप में प्रयोग करते रहे हैं और अमेरिका में भी यह क्रम जारी है। हालांकि अभी यात्रा बाकी है जाहिर है कि समाप्ति के पष्चात् और बेहतर मूल्यांकन हो सकेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Thursday, September 24, 2015

आखिर फैसला संभलेगा कैसे!

    उत्तर प्रदेष में षिक्षा मित्रों पर जो गाज इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के चलते गिरी है उसे देखते हुए यह समझना आसान है कि निष्चित तौर पर बाकी राज्यों में भी चिंता बढ़ी होगी। विभिन्न राज्यों मसलन बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड तथा हरियाणा जैसे राज्यों में भी षिक्षा मित्रों को लम्बे समय से संघर्श करते हुए देखा जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने दो साल पहले षिक्षा मित्रों को उद्दंड की संज्ञा दी थी। इसके पीछे कारण यह था कि इन्होंने नीतीष कुमार की अधिकार यात्रा का कड़ा विरोध किया था। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देष की षिक्षा व्यवस्था कई गड़बड़ियों में उलझी हुई है। यह जिस पारदर्षिता के लिए जानी जाती है उतनी है नहीं। ज्ञानकर्मियों का कत्र्तव्य भी गैर संदेह वाला नहीं कहा जा सकता। कई ऐसे हैं जो फर्जी डिग्री और डिप्लोमा के चलते एक षिक्षक के रूप में आज भी कार्यरत् होंगे। बीते दिनों बिहार के हाईकोर्ट ने जब यह मषविरा दिया कि फर्जी डिग्रीधारी षिक्षक यदि स्वयं से पद छोड़ देते हैं तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। इस निर्देष के बाद सैकड़ों की तादाद में लोगों ने नौकरी छोड़ी थी। इस राय से कोई गुरेज नहीं करेगा कि फर्जी डिग्री, फर्जी भर्ती और फर्जी नियुक्ति की पड़ताल की जाए तो अनुपात में मामले षिक्षा जगत में ही मिलेंगे। देखा जाए तो फर्जीवाड़ा का बाकायदा तामझाम इस क्षेत्र में काफी रचता-बसता है। दरअसल षिक्षकों की नियुक्ति के अपने कुछ मानक हैं जिस पर राज्यों ने वोट की सियासत या अन्य दबाव के चलते मनचाहा बना दिया है। कई प्रांतों में षिक्षकों की भर्ती में धांधली के प्रमाण भी देखे जा सकते हैं। हरियाणा में षिक्षक भर्ती घोटाले में ओम प्रकाष चोटाला आज भी जेल काट रहे हैं। ज्ञानकर्मियों को लेकर देष में अलग-अलग विमर्ष हो सकते हैं पर सोचने वाली बात यह भी है कि षिक्षा जैसी परिपक्व और पारदर्षी व्यवस्था इतने झमेलों से क्यों गुजरती है। जब मामलें कोर्ट के षिकंजे में फंसते हैं तो पता चलता है कि ज्ञान की इस दुनिया में कितने गैर कानूनी काज और सरकारों की मनमानी हुई है।
उत्तर प्रदेष में षिक्षा मित्रों से जुड़ी वर्तमान घटना को समझने के लिए इसके पूरे पहलुओं को समझना जरूरी है। जब षिक्षा मित्रों को सर्व षिक्षा अभियान में जोड़ा जा रहा था तो स्पश्ट था कि इससे षिक्षकों को मदद मिलेगी पर धीरे-धीरे इनकी संख्या बल इस कदर बढ़ी कि कोई भी राजनीतिक दल इन्हें लेकर गैर संवेदनषील नहीं होना चाहता था। सरकारों द्वारा वोट बैंक को मजबूत करने के फिराक में षिक्षा मित्रों को लुभाने के लिए कई अनाप-षनाप वादे भी किये जाते रहे हैं। यह सोचने की जहमत किसी ने नहीं उठाई कि इन्हें पूरा कैसे किया जाएगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने क्षण भर में 1 लाख 72 हजार षिक्षकों को बेरोजगारी की पंक्ति में खड़ा कर दिया। सवाल खड़ा होता है कि इसका असल जिम्मेदार कौन है। इसे लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का तीखापन होना भी स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेष की सत्ता चलाने वाली समाजवादी पार्टी पर आरोप है कि षिक्षामित्रों के साथ इसने धोखाधड़ी की है। हालात को देखते हुए बात यहीं तक नहीं रह जाती आगे की उम्मीदों में क्या होगा अभी धुंधलका छटा नहीं है। आखिर ऐसे विवाद बढ़ते हैं या जानबूझ कर डिजाइन किये जाते हैं। इस पर भी पड़ताल जरूरी प्रतीत होती है। जब से यह फैसला आया है तब से उत्तर प्रदेष में कई हाहाकार मचें हैं। एक तो बेरोजगारों की चितकार, दूसरे इस पर जमकर सियासत का होना। यहां तक तो अनमने ढंग से ठीक कहा जा सकता है पर कई षिक्षा मित्रों ने फैसले के चलते स्वयं को सड़क पर पाकर खुदकुषी का रास्ता चुनने से भी गुरेज नहीं किया जो इस समस्या की संवेदनषीलता को उजागर करता है।
    षिक्षा मित्रों का अवतार तत्पष्चात् विवाद की पटकथा को देखें तो यह डेढ़ दषक पुरानी है। असल में वर्श 2001 में इण्टरमीडिएट पास युवाओं को संविदा पर षिक्षा मित्र नियुक्त करने की प्रक्रिया षुरू की गई थी। उस दौर में इन्हें प्रति माह दो हजार रूपए मानदेय मिलता था। सरकार ने षासनादेष जारी करके यह स्पश्ट कर दिया था कि इनकी तैनाती सेवायोजन नहीं मानी जाएगी। धीरे-धीरे इनकी संख्या 1 लाख 72 हजार पहुंच गयी और मानदेय पैंतीस सौ कर दिया गया। इतनी बढ़ी संख्या में संविदा पर की गयी नियुक्ति का बड़ा राजनीतिक लाभ भी उठाने से षायद ही कोई गुरेज करता। सवाल था कि षिक्षा मित्रों को संविदा से कैसे बाहर निकालते हुए स्थायी नियुक्ति में बदला जाए। वर्श 2011 में स्नातक डिग्री धारक षिक्षा मित्रों के लिए एनसीटीई ने दो साल की ट्रेनिंग करने की अनुमति दे दी। जुलाई 2012 में दूरस्थ षिक्षा के तहत बीटीसी टेªनिंग पूरी करने वाले षिक्षा मित्रों को उत्तर प्रदेष की अखिलेष सरकार ने षिक्षक बनाने का फैसला किया। यहां से षिक्षा मित्रों को राहत और सरकार का कसौटी पर होना समझा जा सकता है। अखिलेष सरकार ने ही जनवरी 2014 में प्रदेष की नियमावली में संषोधन करते हुए षिक्षा मित्रों को षिक्षक बनाने को लेकर टीईटी से छूट देने का फैसला भी कर दिया पर सब कुछ जितना आसान होता दिख रहा था उतना था नहीं। अब सवाल षिक्षा मित्रों के समायोजन का था रही सही कसर इसकी भी जुलाई 2014 से जून 2015 के बीच पूरी कर दी गयी। हुआ यह कि षिक्षा मित्रों को बाकायदा षिक्षक के तौर पर समायोजित कर लिया गया। मामला कोर्ट के विचाराधीन आया 6 जुलाई, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने टीईटी के बगैर षिक्षक बनाने की अखिलेष सरकार के फैसले पर रोक लगा दी। यहां तक मामला बहुत बिगड़ाव की स्थिति में नहीं था। समस्या तब बढ़ गयी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट में 12 सितम्बर, 2015 को षिक्षा मित्रों के षिक्षक के तौर पर समायोजन को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त करने का फैसला सुना दिया।
    इन तमाम घटनाओं से दर्जनों सवाल मुखर होते हैं। क्या षिक्षा मित्रों की संख्या बल को देखते हुए वोट की राजनीति इसमें षामिल नहीं है? क्या सरकार ने अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल नहीं किया है? क्या लोक-लुभावन नियम कानून बनाकर षिक्षा मित्रों के साथ कुछ हद तक ठगी का काम नहीं किया गया? क्या सियासी भंवर में बुरी तरह फंसे षिक्षा मित्र को बेरोजगारी की पंक्ति में खड़ा करने का गैर जरूरी काम नहीं किया गया है? जिन षिक्षा मित्रों ने खुदकुषी कर ली क्या उनके परिवारों को आर्थिक प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ेगी? ऐसे तमाम ‘क्या‘ हैं जिसको उभारने में कोई समस्या नहीं है पर इससे किसका क्या बनेगा इसे सोच कर अधिक तूल देने की जरूरत नहीं है। देखा जाए तो सरकार ने समय और परिस्थिति के साथ षिक्षा मित्रों को समायोजित करके सामाजिक समस्या को हल करने का एक गम्भीर प्रयास किया था मगर ऐसी समस्या हल करते समय उन विधानों पर भी जोर दिया जाना चाहिए था जो रास्ते में कांटे का काम कर सकते थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला भले ही सरकार और षिक्षा मित्रों के लिए सकते में डालने वाला हो पर इस फैसले की गम्भीरता को इस नजरिये से भी देखने की जरूरत है कि खामियों के साथ षिक्षकों का समायोजन क्यों किया गया? जाहिर है कोर्ट का फैसला है तो मानना ही पड़ेगा पर यह कैसे संभलेगा कहना कठिन है।


सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, September 23, 2015

उम्मीदों से भरी यात्रा

प्रधानमंत्री मोदी की आयरलैंड एवं अमेरिकी यात्रा के संदर्भ में आलेख
    वर्तमान भूमंडलीकृत विष्व की अनिवार्यताओं को देखते हुए भारत सरकार को खासा वक्त विदेष नीति पर खर्च करना होता है। किसी भी देष की विदेष नीति का मुख्य आधार सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक वर्चस्व पर तो टिका ही होता है साथ ही कूटनीतिक, सुरक्षा, व्यापार, वाणिज्य, निवेष तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के आदान-प्रदान आदि पर तो ये पूरी षिद्दत लिए होता है। सवा साल पुरानी मोदी सरकार कुछ ऐसे ही दृश्टिकोणों से अभिभूत अब तक दो दर्जन देषों से सम्बन्धों का यष प्राप्त कर चुकी है। इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी की आयरलैंड और अमेरिका की नूतन यात्रा 23 सितम्बर से षुरू हो चुकी है जो 29 सितम्बर को विराम लेगी। संयुक्त राश्ट्र संघ की बैठक को सम्बोधित करने से लेकर कैलिफोर्निया के सिलिकाॅन सिटी में हजारों व्यवसायी से रूबरू होने तक की यात्रा वृतान्त इसमें षामिल है। सप्ताह भर की यह यात्रा एक बार फिर कई नई उम्मीदों को समेटे हुए है। ध्यानतव्य है कि सितम्बर, 2014 के अन्तिम सप्ताह में ही मोदी अमेरिका की यात्रा पर थे और यहीं से भारत-अमेरिका सम्बन्ध दूसरे षब्दों में कहें तो मोदी-ओबामा सम्बन्ध की नई पटकथा लिखी गयी थी। प्रधानमंत्री की वैदेषिक यात्राओं की पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि बहुत हद तक कामयाबी से यह सराबोर रही है। जिस प्रकार का चिर-परिचित अंदाज मोदी का है उसे देखते हुए यह अंदाजा लगाना आसान है कि सप्ताह भर के इस बार के वैष्विक यात्रा में भी बेहतर नतीजे देखने को मिलेंगे। कार्यक्रम की फहरिस्त लम्बी है आयरलैंड से षुरू सितम्बर यात्रा की एक खासियत यह भी है कि यहां की धरती पर लैंड करने वाले मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे। आयरलैंड के साथ भारत का सम्बन्ध भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में कहीं अधिक व्यापक रूप लिये हुए था। भारतीय संविधान में निहित नीति-निर्देषक तत्व का सम्बन्ध यहीं से है। मोदी यहां अपने समकक्ष टी.ई. केन्नी से मुलाकात करेंगे और उनकी विदेष यात्रा की सूची में न केवल यूरोप का एक देष षुमार होगा बल्कि नये सिरे से आयरलैंड के साथ पुल का भी निर्माण किया जाना सम्भव होगा।
    मोदी आयरलैंड से 24 सितम्बर को अमेरिका में लैंडिंग करेंगे। पहुंचने से पहले एक सकारात्मक काज यह हुआ है कि रक्षा सौदे के मामले हरी झण्डी मिल गई है। यात्रा के एक दिन पूर्व सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने अमेरिकी कम्पनी बोइंग के साथ 2.5 बिलियन डाॅलर अर्थात 165 अरब रूपए के रक्षा सौदे को मंजूरी दे दी है जो एनडीए सरकार के कार्यकाल का अब तक का सबसे बड़ा रक्षा सौदा है। दरअसल कई मामलों में मोदी के षासन काल की षुरूआत से ही अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा के साथ केमिस्ट्री अच्छी रही है। कईयों की तो यह भी राय है कि कुछ बातों को छोड़ दिया जाए तो भारत-अमेरिकी सम्बन्ध एक बेहतर मुकाम की ओर हैं ऐसे में इस प्रकार के सौदे दोनों देषों के न केवल कूटनीतिक सम्बन्धों के परिणाम हैं बल्कि बढ़े आपसी समझ के भी पर्याय हैं। इस सौदे के चलते अमेरिकी विमानन कम्पनी बोइंग से 22 अपाषे अटैक हेलिकाॅप्टर और 15 हैवी लिफ्ट हेलिकाॅप्टरों की खरीदारी की जाएगी। हालांकि इन हेलिकाॅप्टरों को खरीदने की कवायद यूपीए सरकार के समय वर्श 2009 से ही षुरू हो चुकी थी जो तीन साल तक अटका रहा साथ ही 13 बार इसकी कीमतों में सुधार किया गया। अन्ततः वर्श 2013 में लागत वार्ता को अन्तिम रूप भी दे दिया गया। उम्मीद तो यह थी कि यह सौदा जून में ही अन्तिम रूप ले लेगा क्योंकि इस दौरान अमेरिकी रक्षा मंत्री का भारत दौरा हुआ था पर अब यह डील पक्की है।
    भारत और अमेरिका कई मामलों में साझीदार है जिसमें वे प्रायः एक-दूसरे के स्वाभाविक मित्र होने की बात कहते हैं। भारत विष्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है जबकि अमेरिका विष्व का सबसे पुराना जनतंत्र है। दोनों कानूनों का सम्मान करते हैं, दोनों अपने-अपने संघीय ढांचे में है साथ ही दोनों स्वतंत्रता के आदर्षों को संजो कर रखते हैं इतना ही नहीं दोनों के समाज गत्यात्मक, बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और काफी हद तक खुले है। ऐसे में कई अपेक्षाओं का एक साथ पाया जाना और पूरा होना समझा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी 25 सितम्बर को संयुक्त राश्ट्र महासचिव बान की मून द्वारा आयोजित सतत् विकास सम्मेलन को सम्बोधित करेंगे जिसमें भारत की प्रक्रियागत् अवधारणा भी उजागर हो सकती है। इसी सम्मेलन में 2030 का एजेण्डा भी रखा जाएगा साथ ही भारत के दृश्टिकोण और चुनौतियों को भी मोदी द्वारा स्पश्टता मिलेगी। हालांकि इससे पहले मोदी 24 सितम्बर को आयरलैंड से अमेरिका पहुंचेंगे। अनुमान है कि ‘मेक इन इण्डिया‘ और ‘डिजिटल इण्डिया‘ का व्यापक एजेण्डा यहां विस्तार लेगा। इसी क्रम में कैलिफोर्निया में भारत-अमेरिकी फोरम से टाॅक इण्डिया तर्ज पर बातचीत और मुलाकात होगी। असल में प्रधानमंत्री मोदी ने बीते एक वर्श में कई विविध आर्थिक और वैज्ञानिक पहलुओं को एक विशय के रूप में उभार कर वैष्विक ध्यान आकर्शित किया है जिसमें ‘मेक इन इण्डिया‘ और ‘डिजिटल इण्डिया‘ पर्याप्त महत्व वाले हैं पर कठिनाई यह रही है कि इसकी वैष्विक पहुंच या देषीय प्रसार में अभी स्तरीय काम होना बाकी है। अमेरिका के सैन जोन के एसएपी सेन्टर में ‘डिजिटल इण्डिया‘ की सोच को आगे बढ़ाते हुए मोदी 27 सितम्बर को हजारों लोगों को सम्बोधित करेंगे। यह अमेरिका में की गयी ‘डिजिटल इण्डिया‘ के परिप्रेक्ष्य में बड़ा काज होगा।
    मोदी की अमेरिकी यात्रा का पड़ाव जैसे-जैसे अन्त की ओर होगा चिंता और चुनौती भी उसी अनुपात में प्रखर हो सकती है। भारत आतंकवाद को विष्व षांति के लिए खतरा मानता रहा है। मुख्यतः अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियों के चलते षांति हाषिये पर बनी रहती है। ऐसे में पड़ोसियों की भी चर्चा सुरक्षा के लिहाज से जरूरत के मुताबिक की जा सकती है। एजेण्डे के अनुसार देखें तो मोदी संयुक्त राश्ट्र में षांति संरक्षण के दूसरे सम्मेलन में भी बोलेंगे। मान्यता तो यह भी है कि आधारभूत प्रसंग को उम्दा बनाना हो तो देष एवं विदेष दोनों के संयोजन को पिरोना आना चाहिए। जाहिर है मोदी-ओबामा सम्बन्ध बाखूबी इस काम में लाया जा सकता है। इनके बीच तीसरी द्विपक्षीय वार्ता भी प्रस्तावित है साथ ही द्विपक्षीय आवाजाही भी जारी है। ओबामा भी बीते गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि के तौर पर मोदी षासन काल में भारत आ चुके हैं और सम्बन्ध भी फलक पर रहा है। ऐसे में द्विपक्षीय वार्ता की सफलता में कोई पेंच होगा मुमकिन नहीं लगता। दोनों देषों के बीच असैन्य परमाणु करार और वाणिज्यिक समझौते की चर्चाएं कहीं अधिक प्रगतिषील रही हैं। रही बात विज्ञान, तकनीक, रक्षा व वैकल्पिक उर्जा पर होने वाली चर्चा की, तो यहां भी सम्बन्धों को देखते हुए काफी कुछ हासिल किया जाना कठिन नहीं प्रतीत होता। इस यात्रा के अर्थ में विमर्ष के कई केन्द्र निहित हैं पर कौन कितनी मजबूती से उभरेगा यह यात्रा के मूल्यांकन के बाद ही पता चलेगा। इसके अलावा कई कूटनीतिक अप्रत्यक्ष संदर्भ भी मजबूती की ओर झुकेंगे ऐसी भी सोच रखी जा सकती है। हालांकि नीतिगत परिप्रेक्ष्य यह भी है कि वैदेषिक सम्बन्ध कभी भी एक जैसे नहीं रहते। अमेरिका के साथ भारत का नाता काफी उतार-चढ़ाव वाला भी रहा है। बावजूद इसके पिछले सवा साल में जिस प्रकार का वातावरण दोनों देषों के बीच कायम है उसे देखते हुए यह यात्रा भी उम्मीदों से भरी प्रतीत होती है।

सुशील कुमार सिंह
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Monday, September 21, 2015

लोकतंत्र, गणतंत्र और अब नव संविधानतंत्र

    विरोध और हिंसा के बीच नेपाल अपना पहला नव लिखित संविधान बीते रविवार को लागू कर दिया जिसकी बनाने की कवायद पिछले सात वर्शों से की जा रही थी। कई मुष्किलों के बावजूद नेपाल में वह सब मुमकिन हुआ जो एक लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए कहीं अधिक जरूरी होता है। हिन्दू राश्ट्र से धर्मनिरपेक्षता की काया ग्रहण करने वाला नेपाल कईयों का ध्यान एक सकारात्मक विमर्ष के लिए भी आकर्शित कर रहा है। इसके पूर्व नेपाल में अन्तरिम संविधान सक्रिय था। जाहिर है नये संविधान के लागू होने से अब पुराना संविधान निश्क्रिय हो चुका है। नेपाल में करीब 239 वर्शों तक षाह वंषों का षासन देखा जा सकता है जिसके अन्तिम षासक ज्ञानेन्द्र षाह रहे हैं इन्हीं के दौर में माओवादियों का उपद्रव व्यापक पैमाने पर बढ़ा था जिसको षांत कराने में भारत की अहम् भूमिका देखी जा सकती है। भारत की मध्यस्थता के चलते ही वर्श 2006 में माओवादी षांत हुए थे और यहां से वर्श 2008 में राजषाही का भी अन्त हो गया था। यहीं से नेपाल को एक नये परिवेष की अवधारणा से युक्त देखा जा सकता है। फिलहाल अब भारत की भांति नेपाल भी धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य की सूची में षुमार हो गया है लेकिन नेपाल में लागू नया संविधान अल्पसंख्यक मधेसी समूह का विरोध भी झेल रहा है। यहां यह समझना आवष्यक है कि आखिर यह मधेसी कौन हैं? दरअसल तराई के नाम से मषहूर मैदानी हिस्सों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को पहाड़ी समुदाय मधेसी के नाम से पुकारते हैं। इन्हें नये संविधान से कुछ मुद्दों पर आपत्ति है। नेपाल में कुल सात राज्य हैं। धर्मनिरपेक्ष राज्य वाले संघीय ढांचे का कुछ समूह इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे फिर से वे इसे हिन्दू राश्ट्र बनाने की मांग कर रहे हैं तो कुछ समूह भारतीय सीमा से सटे मैदानी सीमा के लिए इसे सही नहीं मान रहे।
    फिलहाल नये संविधान के चलते मधेसी असंतोश ने एक नये संघर्श की ओर नेपाल को धकेल दिया है। संविधान स्वीकार करने की एक ओर खुषी है तो दूसरी ओर विरोध और हिंसा की आग लगी हुई है। कहा जाए तो उत्साह की जगह हिंसा ने ले ली है। भारत में भी स्थिति को समझते हुए यह चिंता जताई है और माना कि मामले को षान्ति से निराकरण तक पहुंचा जाए। जिन मुद्दों पर विरोध है उन्हें भी विस्तार से समझना सही होगा। पहला यह कि नेपाल में धर्मनिरपेक्ष षब्द को लेकर आपत्ति बढ़ी है। असल में यह षब्द नेपाल को हिन्दू राश्ट्र होने से वंचित करता है जिसे लेकर देष भर में प्रदर्षन जारी है। दूसरा धार्मिक और सांस्कृतिक आजादी पर भी मतभेद है। कुछ की आपत्ति यह है कि प्राचीन मान्यताओं का संरक्षण कहीं अधिक जरूरी है जिसके कारण हिन्दुत्व को बल मिलेगा। धर्मांतरण भी यहां तीसरे मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है। आरोप है कि निचली जातियों और वंचित समूहों के इसाई धर्म स्वीकार किये जाने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अन्तिम तो नहीं पर चैथा मुद्दा यह है कि नागरिकता को लेकर भी कई बातें खटकने वाली हैं। कुछ का आरोप है कि महिलाओं की नागरिकता में भेद है। नये संविधान के तहत प्रस्तावित प्रांत और सीमाएं भी अभी तय नहीं हैं। ऐसे तमाम जटिल मुद्दों से नेपाल का नया संविधान कुछ हद तक विरोध झेल रहा है।
    जब बात धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक गणराज्य की हो तो भारत से बेहतर उदाहरण इस धरा पर षायद सम्भव नहीं है। नेपाल अपने नये लिखित संविधान के चलते काफी कुछ भारत के और समीप आ गया है। करीब तीन करोड़ की आबादी रखने वाले नेपाल में 81 फीसदी हिन्दू और बौद्ध हैं जबकि एक करोड़ बीस लाख से अधिक की जनसंख्या मधेसियों की है। करीब 60 लाख नेपाली नागरिक भारत में बस चुके हैं जबकि नेपाल में बसने वाले भारतीयों की संख्या 6 लाख के आस-पास है। नेपाली बिना परिमट के भारत में काम कर सकते हैं, खाता खोल सकते हैं और सम्पत्ति भी रख सकते हैं साथ ही आवागमन को निर्बाध रूप से जारी रख सकते हैं। इतना ही नहीं नेपाल के विदेष व्यापार में एफडीआई का 47 फीसद हिस्सा भारत से ही है। सवाल है कि सब कुछ बेहतर और समुचित होने के बावजूद नये संविधान तत्पष्चात् नये नेपाल से भारत को कुछ उम्मीदें तो होगी जिस पर खरे उतरने की जिम्मेदारी नेपाल की भी है। सुरक्षा और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एवं तस्करी व नकली मुद्रा के मामले में सहयोग की अपेक्षा जरूर रहेगी। वर्श 2014 में प्रधानमंत्री मोदी का नेपाल दौरा तत्पष्चात् सार्क की बैठक में काठमांडू जाना और बीते अप्रैल में भूकम्प के दिनों में सहयोग देने वाले भारत के बारे में नेपाल भी काफी गम्भीर होगा। दोनों देषों के संयुक्त लाभ के लिए विकास भागीदारी का सुनिष्चित होना आदि। हालांकि भारत और नेपाल के बीच कुछ खटास वाली बातें भी हैं। हाल ही में पन बिजली विकास के लिए एक समझौते की पेषकष जब भारत द्वारा की गयी तो नेपाल की राजनीति में उबाल आ गया था। इसके पूर्व वर्श 1997 में महाकाली नदी समझौते के तहत पंचेष्वर परियोजना ऐसे विवाद में उलझी कि 18 साल बाद भी कागजी कार्यवाही से बाहर नहीं आ सकी।
देखा जाए तो नेपाल में जनतंत्र के जन्म का सफर जो 65 वर्श पुराना है वह मूर्त रूप ले चुका है। 601 सदस्यीय सभा ने नया संविधान 25 के मुकाबले 507 वोटों से पारित करके नेपाल को आतिषबाजी करने का पूरा अवसर दे दिया है। नेपाली संविधान में 37 भाग, 308 अनुच्छेद और 9 अनुसूचियां हैं जो भारत के संविधान के बराबर तो नहीं पर इर्द-गिर्द खड़ा दिखाई देता है। कायाकल्प की चाह रखने वाले नेपाल में फिलहाल सात प्रांतों के माॅडल वाले संविधान के विरोध में उतरे मधेसी दल अभी षांत नहीं पड़े हैं पर नेपाल जिस खासियत के साथ अपने संविधान को धरातल पर लाया है इससे यह संकेत मिलता है कि हिमालय में बसा पड़ोसी लोकतंत्र के नये युग की ओर कदम बढ़ा चुका है।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Thursday, September 17, 2015

मन की बात पर बखेड़ा

    आम जीवन से गायब हो चुका रेडियो पुनः अस्तित्व में मानो तब आया जब वर्श 2014 में अक्टूबर की तीन तारीख से मोदी के ‘मन की बात‘ की षुरूआत हुई। यह आकाषवाणी पर प्रसारित होने वाला अब ऐसा कार्यक्रम बन गया है जिसके जरिए भारत के प्रधानमंत्री मोदी न केवल इसका प्रयोग नागरिकों को सम्बोधित करने में करते हैं बल्कि उनसे संवाद भी स्थापित कर रहे हैं। ‘मन की बात‘ का प्रसारण जब पहली बार हुआ तो यह अंदाजा लगाना कठिन था कि इसके कितने सकारात्मक नतीजे होंगे। इसके चलते न केवल रेडियो की प्रासंगिकता बढ़ी बल्कि देष के सामने एक नया विमर्ष भी तैयार हुआ। पहली बार के प्रसारण में कोई निर्धारित विशय तो नहीं था पर जिस भांति देष के लोगों में सुनने की उत्सुकता थी उसे लेकर कहना सहज है कि एक नई परम्परा की प्रारम्भिकी रेडियो के माध्यम से आविश्कार का रूप ले चुकी थी। किसी भी प्रधानमंत्री का इस प्रकार का सम्बोधन देष में पहले कभी नहीं हुआ था। सबके बावजूद रोचक तथ्य यह है कि ऐसे सम्बोधन अब तक कितने असरदार सिद्ध हुए हैं? बहरहाल जब से ‘मन की बात‘ का सिलसिला षुरू हुआ प्रति माह की दर से यह निरन्तरता लिए हुए है। दूसरी बार इसका प्रसारण 2 नवम्बर, 2014 को हुआ था जिसमें काला धन, स्वच्छता अभियान आदि विशय इसके केन्द्र बिन्दु थे। हर बार एक नये विशय के साथ लगभग प्रतिमाह इसे देखा जा सकता है। बीते 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के साथ 27 जनवरी को चैथी बार मोदी ने ‘मन की बात‘ के अन्तर्गत जनता के पत्रों का रेडियो के माध्यम से उत्तर दिया। कभी युवाओं, कभी परीक्षा में छात्रों का उत्साहवर्धन करते हुए तो कभी बेटी बचाओ जैसे सामाजिक सरोकारों वाले मुद्दे पर यह प्रसारण नियमित रूप लिये हुए है।
    बीते दिनों ‘मन की बात‘ में विपक्ष को कुछ बातें खटक गयी। असल में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी की जा चुकी है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने मोदी के ‘मन की बात‘ को आचार संहिता का उल्लंघन करार देते हुए 20 सितम्बर को होने वाले इस कार्यक्रम को लेकर चुनाव आयोग से रोकने की अपील की थी। हालांकि महागठबंधन की मांग पर चुनाव आयोग ने अपना रूख स्पश्ट कर दिया है। संकेत है कि कैबिनेट की बैठक और ‘मन की बात‘ जैसे कार्यक्रम पर रोक सम्भव नहीं है। जाहिर है विरोधी को यह रास नहीं आया होगा। दरअसल ‘मन की बात‘ का कार्यक्रम मोदी द्वारा खोज की गयी एक ऐसी अवधारणा है जो धीरे-धीरे व्यापक पैमाने पर पैर पसार चुकी है। अलग-अलग मुद्दों पर आधारित कार्यक्रम को लोकप्रियता भी भरपूर मात्रा में मिल रही है। ऐसे में चुनावी समर के दौरान इसका मुनाफा भी भाजपा को हो सकता है। इसी आषंका के चलते चुनाव तक इस पर रोक लगाने की गुहार विरोधियों द्वारा लगाई गयी थी। हालांकि अब तक ग्यारह बार हुए इस कार्यक्रम से कोई बड़ा राजनीतिक संदेष देखने को नहीं मिला पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे ऐसी ही निरंतरता बनी रहेगी। हो सकता है कि चुनावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आने वाले दिनों में होने वाली ‘मन की बात‘ में मोदी ऐसा कुछ कहें जिससे मतदाताओं को प्रभावित करने में इसका इस्तेमाल दिखे। जिस प्रकार की राजनीतिक हलचल में पक्ष और विपक्ष की साख दांव पर लगी है उसे देखते हुए ‘मन की बात‘ को पूरी तरह वाजिब कहा जाना थोड़ा कठिन तो है पर चुनाव आयोग ने इस पर दो टूक राय दे दी है।
    संदर्भ तो यह भी है कि पहले होने वाले ‘मन की बात‘ को लेकर विरोधी न तो तूल देते थे, न ही तवज्जो और न ही उनके मन में यह भय था कि मोदी की इन बातों से उनकी सियासी दांवपेंच पर कोई असर पड़ेगा। परिवर्तित परिस्थितियों को देखते हुए ‘मन की बात‘ के विरोध में अब विपक्ष की बात का उभार हुआ है। ऐसे में बखेड़ा यह खड़ा हो जाता है कि विपक्ष की ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का जन मानस के पटल पर क्या चित्र बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि 15 महीने की मोदी सरकार 12वीं बार इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जनता के समक्ष रूबरू होने जा रही है जिसका फलसफा एक नये विशय और विमर्ष के साथ जन भागीदारी का होना सुनिष्चित है। निष्चित तौर पर तो नहीं पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी का रूख इस बार कुछ भिन्न हो सकता है और चुनाव आयोग से लेकर विरोधी तक जरूर इस बार रेडियो के इस कार्यक्रम पर कड़ी दृश्टि रख सकते हैं तथा उन पक्षों की पड़ताल भी इसमें षामिल हो सकती है जो मतदाताओं को रिझाने में इस्तेमाल की गयी हो। जहां तक लगता है मोदी एक चतुर षासक हैं स्थिति और परिस्थिति को भांपते हुए ऐसा षायद वे कुछ नहीं करेंगे जिससे कि विरोधियों को किसी प्रकार का अवसर मिले। यह भी सही है कि दिल्ली चुनाव हारने के बाद भाजपा के लिए बिहार चुनाव काफी हद तक नाक की लड़ाई भी है। सारे विरोधी जिस कदर एक होकर मोदी को चुनौती देने में लगे हैं इससे साफ है कि आरोप-प्रत्यारोप आगे भी खूब देखने को मिलेंगे।
    देष की राजनीति में सियासत की जितनी बातें की जाती हैं यदि उसमें कुछ फीसदी देष की बात हो जाए तो इस प्रकार की जकड़न से सभी को मुक्ति मिल सकती है। सखाराम गणेष देउस्कर ने एक पुस्तक की रचना की जिसका नाम ‘देष की बात‘ है। सवाल है कि क्या मोदी के ‘मन की बात‘ में ‘देष की बात‘ षामिल नहीं है? बहुतायत में ऐसा देखा गया है कि जब सियासत को परवान चढ़ाना होता है तो हर प्रकार का पलटवार षामिल होता है। बेषक महागठबंधन का एतराज जायज न हो पर उनकी चिंता को पूरी तरह नाजायज भी नहीं कहा जा सकता। जदयू, राजद और कांग्रेस के चुनाव तक ‘मन की बात‘ के प्रसारण पर रोक लगाने की गुहार क्या पूरी तरह दरकिनार की जा सकती है? यद्यपि चुनाव आयोग की ‘मन की बात‘ क्या है ये आने वाले दिनों में और अधिक मुखर हो सकती है। विपक्ष के ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का झगड़ा तो फिलहाल खड़ा ही है। ऐसे में एहतियात बरतने की जिम्मेदारी भी दोनों की है। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही मोदी बिहार में परिवर्तन रैली कर चुके हैं और काफी कुछ बातें मंच से भी कह चुके हैं। अभी दर्जन भर रैलियों के माध्यम से उन्हें ‘मन की बात‘ करनी भी है। मन की बात करना एक संवैधानिक अधिकार भी है अन्तर यह है कि यह कि कहीं गयी बात का परिप्रेक्ष्य क्या है। फिलहाल विरोधी का रूख बिहार जीत को लेकर राह आसान करने की है न कि मोदी क्या कहते हैं और क्यों कहते हैं पर है मगर वह यह भी जानते हैं कि चाहे मंच हो या रेडियो मोदी की बात का असर काफी हद तक लोगों को घर करता है। ऐसे में किसी बहाने सरकार या मोदी को घेरना और चुनावी मुनाफे की ओर स्वयं को ले जाना विरोधियों की मजबूरी भी षामिल है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Wednesday, September 16, 2015

सुशासन विहीन होती उच्च शिक्षा

    उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व पटल पर तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो दूसरा सवाल यह है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है? तमाम ऐसे और ‘क्या‘ हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण ‘भूमण्डलीय सीख‘ और ‘भूमण्डलीय हिस्सेदारी‘ के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च षिक्षा सवालों में घिरती चली गयी। यूजीसी द्वारा जारी विष्वविद्यालयों की सूची में 225 निजी विष्वविद्यालय पूरे देष में विद्यमान हैं जो आधारभूत संरचना के निर्माण में ही पूरी ताकत झोंके हुए है। यहां की षिक्षा व्यवस्था अत्यंत चिंताजनक है जबकि फीस उगाही में अव्वल है। भारत में उच्च षिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई ऐसा इसलिए कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया जिसे लेकर एक निष्चित नियोजन होना चाहिए था। उच्च षिक्षा में गुणवत्ता तभी आती है जब इसे षोधयुक्त बनाने का प्रयास किया जाता है न कि रोजगार जुटाने का जरिया बनाया जाता है। निजी विष्वविद्यालय बेषक फीस वसूलने में पूरा दम लगाये हुए हैं पर उच्च षिक्षा के प्रति मानो इनकी प्रतिबद्धता ही न हो। यहां षिक्षा एक पेषा है, इसका अपना एक ‘आकर्शण लाभ‘ है और युवकों और संरक्षकों में यह कहीं अधिक पसंद की जाती है। इसके पीछे कोई विषेश कारण न होकर इनका सुविधाप्रदायक होना ही है।
इन दिनों उच्च षिक्षा को लेकर कुछ राहत वाली सूचना भी है। क्वाकुरैली साइमंड्स (क्यूएस) की ओर से बीते मंगलवार को वर्श 2015-16 के लिए वैष्विक विष्वविद्यालयों की रैंकिंग जारी की गयी हालांकि प्रथम सौ में भारत का कोई भी विष्वविद्यालय षुमार नहीं है पर ऐसा पहली बार हुआ जब भारत के दो षिक्षण संस्थानों ने दुनिया के षीर्श 200 विष्वविद्यालयों में अपना स्थान पक्का किया। दुनिया भर के बेहतरीन विष्वविद्यालयों की सूची में इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस बंगलुरू को 147वां और आईआईटी दिल्ली को 179वां स्थान मिला। इसके अलावा 200 से बाहर की सूची में आईआईटी बाॅम्बे (202), आईआईटी चेन्नई (254), आईआईटी कानपुर (271), आईआईटी खड़गपुर (286) और आईआईटी रूड़की (391) स्थान पर है। उक्त षिक्षण संस्थाओं को बारीकी से देखा जाए तो यह भारत की वे संस्थाएं हैं जो निहायत बेहतरी के लिए जानी जाती हैं बावजूद इसके रैंकिंग में ये काफी पीछे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैष्विक स्तर पर जो षैक्षणिक वातावरण और उच्च षिक्षा की स्थिति है उसकी तुलना में भारत अभी भी मीलों पीछे चल रहा है। अमेरिका का मेसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलोजी पहले की तरह अव्वल बना हुआ है जबकि यहीं का हावर्ड विष्वविद्यालय चैथे स्थान की छलांग लगाकर दूसरे स्थान पर है। ब्रिटेन का कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय तीसरे स्थान पर है हालांकि यह विगत् वर्श दूसरे पर था। इसी क्रम में अमेरिका और यूरोप के अन्य उच्च षिक्षण संस्थानों का हाल देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के पूर्व से ही यहां की संस्थाएं विष्व भर के लिए आकर्शण का केन्द्र बनी रही हैं। नेहरू, गांधी, अम्बेडकर जैसे तमाम नेता विदेषों में अध्ययन कर चुके हैं। साथ ही यहां के षैक्षणिक वातावरण षोध और अनुसंधान की दृश्टि में काफी प्रखर रहे हैं। डाॅ0 सी.वी. रमन से लेकर सुब्रमण्यम चन्द्रषेखर तक ने इन्हीं पष्चिमी उच्च षैक्षणिक संस्थाओं से न केवल भारत सहित दुनिया में नाम कमाया बल्कि नोबेल सम्मान से भी नवाजे गये।
भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पाई पर तसल्ली वाली बात यह है कि इस बार भारत की दो षिक्षण संस्थाएं दुनिया के विष्वविद्यालयों की सूची में 200 के अन्दर है। राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इस उपलब्धि पर बधाई संदेष भेजा है। असल में षिक्षा कोई रातों-रात विकसित होने वाली व्यवस्था नहीं है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्चतर षिक्षा के संदर्भ में समानान्तर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यवहारिक तौर पर यह विफल दिखाई देते हैं। भारत में उच्च षिक्षा को लेकर विगत् दो दषकों से काफी नरम रवैया देखा जा सकता है जो उच्च षिक्षा की गिरावट की षुरूआत भी है। इन्हीं गिरावटों के चलते ही पंजीकरण कराने वालों का अनुपात यहां दुनिया में सबसे कम 11 प्रतिषत है जबकि अमेरिका में यह 83 फीसदी है साथ ही विद्यालयी पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से केवल एक ही काॅलेज पहुंच पाता है। वर्श 1956 से कार्यरत् यूजीसी जैसी संस्थाओं के पास भी मानो उच्च षिक्षा में सुधार के फाॅर्मूले का आभाव हो गया हो। देष की षिक्षा व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन तो चाहिए ही साथ ही इसे उम्मीदों से भरा भी बनाना होगा। आजादी के 50 साल बाद और उसके बाद उच्च षिक्षा संस्थाओं में बड़ा फर्क आया है। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि देष के 90 फीसदी काॅलेज और 70 फीसदी विष्वविद्यालय बेहद कमजोर हैं। नैसकाॅम और मैकेन्से के ताजा षोध के मुताबिक मानविकी में प्रत्येक दस में एक और इंजीनियरिंग डिग्री धारक चार में से एक ही नौकरी के योग्य है। उच्च षिक्षा के गिरते स्तर को लेकर देष के राश्ट्रपति और केन्द्रीय विष्वविद्यालयों के कुलाधिपति प्रणब मुखर्जी ने भी चिंता करते हुए विष्वविद्यालयों के कुलपतियों की बैठक बुलाई। स्थिति को समझने के लिए उन्होंने स्वयं केन्द्रीय विष्वविद्यालयों का दौरा किया और वहां के षिक्षकों एवं छात्रों से मिले। इसे इस दिषा में उठाया गया एक बढ़िया कदम कहा जा सकता है। बावजूद इसके सुधार को लेकर अभी कोई ठोस रणनीति तो फिलहाल नहीं आई है।
षिक्षक, षिक्षार्थी और षैक्षणिक वातावरण किसी भी संस्थान की सफलता की गारंटी हैं। देष में विद्यमान कुछ निजी और कुछ सरकारी संस्थाएं आधारभूत भरपाई मात्र हैं न कि गुण प्रधान षिक्षा। उच्च षिक्षा की पड़ताल एजेन्सी में यूजीसी का नाम आता है पर 1956 की यह संस्था के पास भी मानो पड़ताल के अच्छे फाॅर्मूलों का अकाल हो। कई निजी विष्वविद्यालय ऐसे हैं जिसमें यूजीसी की पड़ताल टीम को पहुंचने में बरसों लग जाते हैं तब तक न जाने कितनी डिग्रियां वहां से बंट चुकी होती हैं। इतना ही नहीं उच्च षिक्षा में जिस कदर माफियागिरी चल रही है वे हालात को बद से बदतर बना रहे हैं। स्नातक, परास्नातक यहां तक कि पीएचडी के लिए भी मोटी रकम खर्च कीजिए और डिग्री समय से पहले और बिना कूबत खर्च किये प्राप्त कीजिए। बिगड़े हालात तो यही दर्षाते हैं कि षिक्षा के वैष्वीकरण के इस दौर में उच्च षिक्षा नौकरी पाने की एक आम अवधारणा से जुड़ गयी है जो निहायत खतरनाक है। इससे क्षेत्र विषेश में चुनौतियां घटने के बजाय बढ़ती ही हैं। समय की मांग यह है कि अधकचरी मनोदषा वाली उच्च षिक्षा को निराषा के भंवर से बाहर निकाल कर आषा और सुषासन के मार्ग की ओर धकेला जाए।

सुशील कुमार सिंह
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Saturday, September 12, 2015

नब्बे के दशक के बाद की राजनीति

    भारतीय राजव्यवस्था का इतिहास विचित्र और रोचक दोनों किस्म समेटे हुए है। विचित्र इसलिए कि 65 बरस की उम्र के बावजूद राजव्यवस्था में उन घटकों का निर्माण नहीं हो पाया जहां से संघीय ढांचे को पूरा बल मिलता हो जबकि रोचक इसलिए कि इसमें ऐसा इतिहास सिमटा है जहां कई सोपान व उतार-चढ़ाव षामिल हैं। यह कभी परिपक्व तो कभी गैर परिपक्व का बर्ताव करती रही है। इस सच से भी कोई इंकार नहीं करेगा कि भारतीय राजव्यवस्था के विभिन्न स्तरों के बीच एक सांगठनिक सिद्धांत के तौर पर संघवाद का विचार बहुत प्राचीन है। भारत राज्यों का संघ है और यहीं से संघवाद की मजबूत लकीर खिंचती है। यहां यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि जिस संघवाद की परिकल्पना संविधान में निहित थी वह तभी सफल हो सकता है जब लोकतंत्र की आधारषिला व्यापक हो और उसकी जड़ें गहरी हों। देष में लोकतांत्रिक अवधारणा समय के साथ प्रबल और सक्षम होती गयी पर यह सबलता मतदान दर के दायरे में सिमटी रही जबकि असल लोकतांत्रिक चेतना का आभाव इसलिए माना जा सकता है क्योंकि लोक प्रवर्धित अवधारणा का अभी पूरा विस्तार भारत में हुआ ही नहीं है। मत प्रतिषत के आधार पर लोकतंत्र को मजबूत और मनमाफिक कहना समुचित प्रतीत नहीं होता। दरअसल जनता उस पैमाने पर ताकतवर नहीं बन पाई जिस पैमाने पर लोकतंत्र की अवधारणा गढ़ी गयी है। परिप्रेक्ष्य तो यह भी है कि राज्य सरकारें केन्द्र सरकारों का अटूट हिस्सा आज भी नहीं बन पायी हैं। इतना ही नहीं दलीय स्थिति केन्द्र और राज्य के बीच की संघीय स्थिति को तय करती है। केन्द्र और राज्य में एक ही दल की सरकारें हैं तो संघीय ढांचा मजबूत होगा यदि ऐसा नहीं है तो ढांचा कमजोर होगा पर क्या यह पूरा सच है?
    1990 के बाद के काल में भारतीय केन्द्रीय राजनीति में गठबंधन युग की क्रमिक षुरूआत हो चुकी थी। इसी की परिधि में मन्दिर, मण्डल और मार्केट की राजनीति भी घूर्णन कर रही थी। इस बदली फिजा का हाल यह था कि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का केन्द्र में दखल बढ़ गया था। राज्य तय करने लगे थे कि केन्द्र की सत्ता की बागडोर किसके हाथ में होगी। इन्हीं दिनों उत्तर प्रदेष से मुलायम सिंह और बिहार से लालू प्रसाद यादव का कद भारतीय राजनीति में फलक पर था और दोनों मुख्यमंत्री के पद पर भी आसीन थे और यह सिलसिला बरसों तक चला जबकि केन्द्र में वी.पी. सिंह तत्पष्चात् चन्द्रषेखर और दूसरी पारी में एच.डी. देवगोड़ा तथा इन्द्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री के तौर पर संघीय सत्ता के अभ्यास में जुटे थे। सियासत का चेहरा कभी स्याह तो कभी चमकदार देखने को मिलता रहा है। संविधान ने सभी को अपना काम बाखूबी बताया है। केन्द्र को क्या करना है और राज्य क्या कर सकते हैं सुनिष्चित किया गया है। हालांकि संघीय अवधारणा हर हाल में केन्द्र उन्मुख है। वक्त के साथ सियासत थोड़ी मटमैली भी होती गयी। इसका मूल कारण लोकतंत्र में जात-पात और धर्म का खूब अनुप्रयोग होना था। हैरत तो इस बात की रही है कि जो जिस जाति से था उसका नेता बना हुआ था। जातियों के नाम पर ध्रुवीकरण करने में उत्तर प्रदेष और बिहार के नेता अगुवा के रूप में थे जिसमें मुलायम सिंह, मायावती और लालू प्रसाद का उदाहरण गैर वाजिब नहीं होगा। इतना ही नहीं जातीय सियासत के खेल में रचे बसे प्रदेषों ने नये-नये अवतारों को जन्म दिया पर इस सच से अनभिज्ञ रहे कि प्रदेष का विकास और जनता की इच्छा क्या है? जाति वोट हथियाने का एक अच्छा जरिया बनी आज भी इसे आजमाने से नेता नहीं चूकते।
     मौजूदा स्थिति में भारत की राजनीति कई बदलाव के साथ यहां तक पहुंची है। नब्बे के दषक से अब तक क्रमिक रूप से गठबंधन एवं महागठबंधन की सरकार और अब पूर्ण बहुमत की सरकार को रेखांकित होते हुए देखा जा सकता है। एक बात स्पश्ट करना मुनासिब लगता है कि जब मई, 2014 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आये तो षायद ही किसी को उम्मीद रही हो कि भाजपा को पूरा बहुमत मिलेगा। इस चुनाव का सकून वाला पक्ष यह है कि काफी हद तक जातीय ध्रुवीकरण से यह विमुख था पर जब यही चुनाव प्रदेष स्तर पर होता है तो जातीय ध्रुवीकरण मुखर हो जाता है। चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद की राजनीतिक यात्रा कब की समाप्त हो चुकी है पर सियासत की बिसात पर वंषवाद को उकेरने का विचार उनका थमा नहीं। सियासत की मजबूरी में अटके लालू प्रसाद आने वाली पीढ़ी के लिए सत्ता की जमीन तैयार करना चाहते हैं जबकि बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह आरोप-प्रत्यारोप रहे हैं कि लालू और राबड़ी के कार्यकाल में बिहार का बेड़ा गर्क हुआ है। नीतीष कुमार लालू विरोध में ही सत्ता हथियाए थे आज उन्हीं के साथ सत्ता में काबिज रहना चाहते हैं। अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित, सुषासन-कुषासन आदि के आधार पर सियासत की रोटी सेकने का कारोबार आज भी जारी है। किसी भी राजनेता पर कितनी उंगली उठाई जाए इसे एक बार में तय नहीं किया जा सकता। अगर क्षेत्रीयता को हम कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक चरित्र के तौर पर देखते हैं तो हमें भारतीय राजनीति का एक अलग ही संयोग और प्रयोग देखने को मिलता है। जिस कदर कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के साथ प्रादेषिक स्तर के चुनाव में ताल ठोंक रही है उससे उसकी व्यथा को बाखूबी समझा जा सकता है। भारतीय राजनीति के इतिहास में कांग्रेस के इतने बुरे दिन कभी नहीं आये थे। उत्तर प्रदेष और बिहार में कांग्रेस नब्बे के दषक से ही मिटती रही है और अब लोकसभा में भी हाषिये पर खड़ी है। बावजूद इसके एक अन्तर कांग्रेस में यह है कि इसने जाति की राजनीति उस पैमाने पर नहीं कि जिस पैमाने पर लालू, मुलायम और मायावती जैसे लोगों ने की है।
    नब्बे और बाद के दषक में तो क्षेत्रीय राजनीति इतनी मजबूत हो गयी कि उसने कई बार देष की विदेष नीति तक पर प्रभाव डालने की कोषिष कर दी। बहुत दिन नहीं हुए जब यूपीए-2 के दरमियान पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेष जाने को तैयार नहीं हुईं क्योंकि तीस्ता जल बंटवारे के मामले में अनबन थी। हालांकि वर्तमान हालात भी कम खराब नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी के नीति आयोग की बैठक में पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की उपस्थिति यहां भी नहीं थी। यह केन्द्रीय और क्षेत्रीय सियासत की एक जंग है जो न समाप्त हो सकती है और न ही इसके आसार दिखाई देते हैं। राज्य को लोकतांत्रिक होने की प्रवृत्ति उसके विकास को तय करती है पर अति क्षेत्रीय होने या बुजुर्वा होने या फिर विरासत की मान्यता से सत्ता चलाने वालों के लिए उक्त बातें बेमानी होती हैं। गौरतलब है कि भारत एक ऐसी अर्धसंघीय स्थिति वाला देष है जहां जिम्मेदारी बंटने के बावजूद घालमेल की सम्भावना बनी रहती है। मसलन कार्यकारी और वित्तीय मामले में ऐसा होता रहा है। यहां महत्वपूर्ण है कि मुद्दों पर सौदेबाजी न करते हुए विकास के खेल को खेला जाये तो लोकतंत्र भी मजबूत होगा और जनता भी सुखी होगी। भारतीय लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण का काम फिलहाल अभी अधूरा है यह तभी पूरा होगा जब संविधान के बुनियादी मूल्य और इसके स्वरूपों के प्रति सम्मान बढ़े न कि सियासत की चाह में असल मकसद को ही नजरअंदाज करें।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Friday, September 11, 2015

हिन्दी भाषा में बढ़ता निवेश

    हिन्दी के बढ़ते वैष्विकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी व तकनीकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भाशाई बढ़त की बात की जा रही है यह संकेत मिलता है कि यहां भी हिन्दी बढ़त ले लेगी। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में अभी हिन्दी विभाग की कमी है पर यह भी सही है कि यहां भाशाई विवाद अब जड़जंग हो रही है ऐसे में हिन्दी के लिए दक्षिणायन का मार्ग सुगम हो सकता है। हालांकि चिंगारी आये दिन उठती रहती है। यदि हिन्दी समृद्ध न होती तो भारत और भारतीयों का क्या होता इतना ही नहीं भाशाई जगत में भारत की पहचान भी किस भांति होती? इस प्रकार के संदर्भ हिन्दी भाशा की महत्ता और प्रासंगिकता दोनों को इसलिए उजागर करते हैं क्योंकि अरब से अधिक जनसंख्या रखने वाला देष में करोड़ों इसी भाशा की परवरिष से आगे बढ़े हैं। भाशा की ताकत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह दुनिया जहान से जुड़ने के काम आती है। किसी भी भाशा का बढ़ता हुआ गौरव उसके मूल के लिए आत्मगौरव का विशय बनता है। हिन्दी भारत देष की व्यापक सम्पर्क भाशा है ऐसे में इसे तमाम भाशाओं और बोलियों को संजोने का माध्यम भी बनाया जा सकता है। भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कुछ इसी प्रकार का बखान किया, उन्होंने कहा अगर हम समय रहते न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठाएंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या तो नश्ट हो जाती है। ऐसी ही मान्यताओं से युक्त विष्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन होता रहा है। यह हिन्दी भाशा का सबसे बड़ा अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन है जिसमें हिन्दी के तमाम विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, भाशाई ज्ञानकर्मी और हिन्दी प्रेमी विष्व भर से आकर जुटते हैं। हिन्दी को लेकर अमूमन कई बातें देखने को मिलती हैं। पहली बात तो यह है कि अंग्रेजी के अनचाहे दबाव से यह लगातार क्षरण की ओर जा रही है। दूसरा हिन्दी का विस्तार तो हो रहा है पर मनोरंजन और सूचना माध्यमों में, मसलन टीवी चैनलों और विज्ञापनों में जबकि अधिकतर स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई होती है और बच्चे हिन्दी में लिखना-पढ़ना नहीं सीख पा रहे हैं जिसके फलस्वरूप नई पीढ़ी में हिन्दी निवेष कम हो रहा है।
पिछले तीन दषकों से विष्व हिन्दी सम्मेलन भारत सहित अलग-अलग देषों में आयोजित होता रहा है। इसे भारत की राश्ट्रभाशा के प्रति सरोकारों और प्रयोगों के तौर पर देखा जा सकता है साथ ही यह भाशाई बढ़त और लोकतिप्रयता की भी पहचान है। एतिहासिक परिदृष्य में अधिक गहराई और मान्यता के साथ विष्व हिन्दी सम्मेलन 1975 से प्रारम्भिकी लेता है। इसका पहला और तीसरा सम्मेलन क्रमषः नागपुर और दिल्ली में जबकि दूसरा और चैथा माॅरीषस के पोर्ट लुई में, पांचवां त्रिनिडाड-टोबेगो, छठा लंदन, सातवां सूरीनाम के पारामरिबो, आठवां सम्मेलन न्यूयाॅर्क और नौवां जोहांसबर्ग में सम्पन्न हुआ था। क्रमिक रूप से भोपाल दसवां विष्व हिन्दी सम्मेलन कहलाएगा। सम्मेलन के षुरूआती दिनों से लेकर अब तक हिन्दी के बारे में वैष्विक स्तर पर एक गम्भीर राय बन चुकी है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग ऐसे ही सम्मेलनों के बेहतर नतीजे के रूप में देखे जा सकते हैं। भोपाल में प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी की ताकत को बड़े पैमाने पर रेखांकित करने का काम किया। उन्होंने कहा कि आने वाले वक्त में डिजिटल दुनिया में केवल तीन भाशाएं अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी ही छाई होगी। मोदी की राय में दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों को हिन्दी भाशा के बाजार का विस्तार करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने जो कहा वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है पर जो नहीं कहा वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसी भारत में कुछ भाशाएं ऐसी भी हैं जो लुप्त होने के कगार पर हैं उन पर भी सोच-विचार की आवष्यकता है।
अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन भाशाई सुचिता को समझने का अवसर देती है। भाशा एक ऐसा आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल पनाह लेता है बल्कि विकास की ओर भी जाता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। विविधता में एकता का भाशाई रूप भी दुनिया के किसी भी देष में इतने व्यापक पैमाने पर तो नहीं है। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत पड़ेगी। निःसंदेह हिन्दी इस हालात तक पहुंच चुकी है कि इसका सामना कर सके। भारत के  दो तिहाई लोग इसी भाशा में अपना जीवन निर्वाह करते हैं जिसमें कोई षक नहीं कि यह भाशा विष्व के भारी-भरकम देषों को भी लुभा रही है। हिन्दी ने कई देषों में अपनी पहचान बना ली है। अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका जैसे तमाम देषों में हिन्दी भाशा सीखी और सिखाई जा रही है। बड़ी संख्या में विदेषियों का हिन्दी सीखने के लिए भारत आगमन होता है। दुनिया के 115 षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें 32 षिक्षण संस्थाएं अमेरिका में है। लंदन, कैम्ब्रिज और यार्क विष्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं। 1942 में चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी जबकि 1950 में जापानी रेडियो से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था, रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का बड़े रूप में अनुवाद हुआ है। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में भी हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर निवेष बरसों से होता रहा है।
हिन्दी वास्तविक रूप से किसी एक प्रदेष या क्षेत्र की भाशा नहीं है यह भारत की सम्पर्क भाशा है ठीक वैसे, जैसे विष्व में तमाम भाशाओं के बावजूद अंग्रेजी है। भारतीयों के बीच हिन्दी में संवाद उनकी एक जैविक विधा भी है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी मातृभाशा गुजराती होने के बावजूद कष्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दी में भाशण देते हैं। सिनेमा जगत ने भी फिल्मों के जरिये हिन्दी को अच्छा खासा मुकाम दिया हैे परन्तु जिस आषा और विन्यास के साथ हिन्दी भाशा का भाव और वर्णन भारत में फैला है वह अभी भी कई कमियों के साथ है। विष्व हिन्दी सम्मेलनों में भी यह चिंता देखने को मिलती रही है कि अन्तर्राश्ट्रीय भाशा के रूप में इसकी सम्भावनाएं कितनी सारगर्भित हैं और इसके लिए गहन प्रयास की भी बात तीसरे सम्मेलन में ही की गयी थी और समय-समय पर इसे सषक्त बनाने के लिए विचार भी आते रहे हैं। फिलहाल भारत में हिन्दी भाशा में अब तक का होने वाला निवेष कहीं अधिक संतोशजनक है और आने वाले दिनों में हिन्दी भारत के लिए बेहतर पहचान और गौरव दोनों के काम आयेगी ऐसी सोच रखना गैर वाजिब नहीं है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, September 9, 2015

अब मानसूनी दुष्चक्र में फंसे किसान

    मौसम विभाग के अनुमान को देखें तो जून से षुरू होने वाला मानसून 30 सितम्बर तक कायम रहता है पर इस साल सितम्बर माह षुरू होते ही यह उजाड़ की स्थिति में है। बचे हुए दिन में अच्छी बारिष के आसार फिलहाल तो बहुत कम है। पिछले 5 वर्शों में वर्श 2013 के मानसून को छोड़ दिया जाए तो बारिष के हालात देष में अच्छे नहीं रहे। पिछले 2 वर्शों से होने वाली मानसूनी गिरावट माथे पर बल लाने वाली है। लगातार कमजोर मानसून होने का क्या मतलब है? इसकी पड़ताल करके इससे पड़ने वाले प्रभावों का लेखा-जोखा करना भी जरूरी है। विगत् मार्च-अप्रैल में फसलें बेमौसम बारिष के चलते बर्बाद हुईं और अब बारिष के मौसम में यही फसलें चुल्लु भर पानी के लिए तरस रही हैं। भारत को कृशि प्रधान देष कहा जाता है आज भी 65 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर रहती है बावजूद इसके यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा है। किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत न तो सरकार को है और न ही इनके हिमायतियों को पर इस आरोप को दोनों खारिज करेंगे जरूर। जो राजनीतिक दल किसानों और खलिहानों की राजनीति करके अपने वोट दर मजबूत करने में मषगूल हैं उन्हें भी यह चेत नहीं है कि किसान गम्भीर झंझवात में फंसने के चलते दम तोड़ रहा है। केन्द्रीय खूफिया विभाग ने भी हाल ही में किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामले पर एक रिपोर्ट सरकार को दी थी जिसमें आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी। असमान बारिष, ओलावृश्टि, सिंचाई की दिक्कतें, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया जबकि कीमतें तय करना, नीतियां बनाना और विपणन के कार्य को मानव निर्मित वजह बताई गयी है।
    किसानों की आत्महत्या के जारी आंकड़ों को भी झुठलाने में रसूकदार आगे हैं। ताजा हाल यह है कि महाराश्ट्र का मराठवाड़ा इलाका हाल के वर्शों में सबसे ज्यादा सूखे की चपेट में रहा है। यहां जीवन यापन के भीशण खतरे उत्पन्न हो चुके हैं और अकेले बीड़ जिले में बीते अगस्त में 105 किसानों ने आत्महत्या कर ली। जिसके चलते इस साल तक का आंकड़ा अब 177 का हो गया। अनुमान तो यह भी जताते हैं कि देष में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। इस आधार पर प्रत्येक दिन 48 अन्नदाता अपनी जान देने में समर्थ हैं। वर्श 2014 भी किसानों की आत्महत्या में बढ़ोत्तरी वाला ही था। गणना बताती है कि लगातार 12 वर्शों से महाराश्ट्र इस मामले में अव्वल बना हुआ है। पिछले दो दषक में 3 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इसकी बड़ी वजह भूख के साथ कर्ज का लगातार बढ़ना भी है। बैंकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से सूदखोरों एवं महाजनों पर इनकी निर्भरता ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। 25 से 50 फीसदी की दर पर कर्ज लेकर किसान तबाही के उस मंजर तक पहुंच गये हैं जहां से स्वयं से लौटने की ताकत तो उनमें षायद नहीं है। विडम्बना यह है कि फसल न हो तो और अधिक हो जाए तो दोनों परिस्थितियों में किसान दर्द से जूझता है। पिछले सात दषकों में किसान नीति पर फुर्सत से काम नहीं किया गया। बहुत सारी कृशि से सम्बन्धित सरकारी नियोजन आये पर किसानों के हितों को संरक्षित नहीं कर पाये। विषाल आंकड़ों के दबाव में किसान दबता चला गया और पारदर्षी नीति के आभाव में उसके हाथ खाली ही रह गये।
    किसानों के मामले में सरकारों की नीतियां बेषक ढुलमुल रही हैं। किसानों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़ों में भी काफी लीपापोती होती है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर षायद ही कोई विष्वास करता हो। स्वयं ब्यूरो भी विष्वास करने में ईमानदारी से कतरा सकता है। किसानों की मुष्किलें बड़ी हैं और तादाद में भी ज्यादा हैं ऐसे में कृशि और किसान दोनों को प्राथमिकता में रखना कहीं अधिक जरूरी है जबकि नजारा यह है कि कृशि जो प्राथमिक सेक्टर में आती है वह भारत में गैर गम्भीर नजरिए से देखी जा रही है। सरकारों ने कृशि और किसानों के लिए एड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। खामियाजा यह है कि किसान अपना पूरा सामथ्र्य स्वयं को समाप्त करने में लगा रहा है। फसल की बर्बादी हो तो आत्महत्या, कर्ज का बोझ बढ़ जाए तो आत्महत्या, परिवार का लालन-पालन करने में नाकाम हो तो आत्महत्या यदि इन सब से बच भी गया तो भूख से पीछा नहीं छुड़ा पाता। फसलों की कीमतें तय करने के मामले में भी अचूक रणनीति देखने को नहीं मिलती। बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आवास पर देष के षीर्श उद्योगपतियों के साथ बैठक की जिसमें कई मंत्री भी षामिल हुए। बैठक में खेती, किसानी पर खूब चर्चा हुई, उद्योगपतियों को निवेष के सुझाव भी दिये गये। दिलचस्प यह है कि इस बैठक में न ही कोई किसान नेता था और न ही उनका कोई प्रतिनिधि। मोदी ने कहा अब वक्त आ गया है खेतीबाड़ी, सिंचाई सुविधाओं के साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग पर भी निवेष किया जाए। यह देखने वाली बात होगी कि काॅरपोरेट के साथ खलिहान सेक्टर को जोड़ने की मोदी की कवायद भविश्य में किसानों का कितना भला करती है।
    पन्द्रह माह पुरानी मोदी सरकार किसानों के मामले में गम्भीर और चिंतित तो रही है पर कोई खास योजना अभी धरातल पर देखने को नहीं मिली। वजह जल्दी तलाषनी होगी ताकि किसान भूख से न मरे। तमाम आधुनिक उपकरण होने के बावजूद खेत-खलिहान का अधिक पिछड़ा होना सही नहीं है। ऐसा नहीं है कि समस्याएं पिछड़े राज्यों में ही हैं बल्कि कहा जाए तो जहां-जहां किसान हैं कम-ज्यादा सभी स्थानों पर भूख और आत्महत्या के षिकार हैं। हैरतपूर्ण बात है कि जो प्रदेष पैदावार में और फसलों की परवरिष में कुछ बेहतर हैं वहां भी आत्महत्या का सिलसिला थमा नहीं है। पंजाब, गुजरात, मध्यप्रदेष, उत्तर प्रदेष और तमिलनाडु इसमें क्रमिक रूप से षामिल हैं। ऐसे मामले प्रति वर्श की दर से लगातार बढ़ भी रहे हैं जबकि सरकारें सांत्वना के साथ छोटा-मोटा मुआवजा और राहत पैकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं पर समस्या जस की तस बनी रहती है। आत्महत्या का चक्र तो जारी रहता है फर्क यह है कि सिर्फ चेहरे बदलते रहते हैं। मानसून का कमजोर होना केवल कम बारिष की ही समस्या नहीं है बल्कि किसानों की मौत की आहट भी है। क्या इस आहट को समय रहते सुना जा सकता है। जिस प्रकार की देषीय राजनीति है और जिस भांति किसान हाषिये पर हैं उसे देखते हुए उम्मीद करना बेमानी है। जिस कदर भारत में किसान टूटकर आत्महत्या कर रहा है इससे यह संकेत मिलता है कि अन्नदाताओं का जीवन निहायत कम कीमत का है। अचरज तो यह भी है कि आंकड़ों की बाजीगरी में मौतों की संख्या घटा दी जाती है। मुआवजे इतने कम होते हैं कि उससे लेष मात्र की समस्या भी हल नहीं की जा सकती और पीड़ा से जकड़ा किसान कराह कर रह जाता है। सवाल है कि आखिर कब तक किसान मरते रहेंगे, षायद ही किसी सरकार ने किसानों को मन माफिक कुछ दिया हो पर सच यह है कि किसानों से वोट लेकर पूरी सत्ता जरूर कब्जाई जाती रही है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
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Saturday, September 5, 2015

शिक्षा और संकल्प के बढ़त की पाठशाला

    भारतीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब देष के राश्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री ने षिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर अपनी-अपनी पाठषालाएं लगायी। जब एक युग की षुरूआत होती है और भविश्य के प्रति बड़ी चिन्ता जताई जाती है तो इस बात का भी प्रमाण मिलने लगता है कि देर-सवेर कुछ बेहतर होगा। षिक्षक दिवस और कृश्ण जन्माश्टमी का दिन भी संयोग से एक ही है। यह एक ऐसा अनूठा अवसर है जहां षिक्षा और संकल्प दोनों को भारी बढ़त मिल सकती है। दोनों ही षीर्शस्थ पदों पर आसीन नेताओं ने षिक्षा की महत्ता पर तो प्रकाष डाला ही साथ ही छात्रों के जीवन में मां और षिक्षक की भूमिका को भी उजागर किया। बताया कि बेहतर होने के लिए क्या कुछ करना होता है। किसी भी राश्ट्र को यदि समग्र विकास चाहिए तो षिक्षा ही पहली प्राथमिकता होगी। षिक्षा से विष्लेशण षक्ति बढ़ती है, सत्य-असत्य का ज्ञान होता है और जीवन खोज में अर्थ की प्राप्ति भी होती है। नैतिक मूल्यों को वास्तविक रूप से निर्वहन करने में भी षिक्षा ही अहम् है मगर यह कहना कठिन है कि राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रेरणा उन षिक्षकों तक भी पहुंचेगी जो षिक्षा को मौजूदा परिदृष्य में अपने निजी हित को साधने का जरिया मान बैठे हैं। देष की षिक्षा व्यवस्था काफी हद तक संरचनात्मक एवं प्रक्रियात्मक तौर पर कमजोर है जिससे संतुश्ट तो नहीं हुआ जा सकता। हालांकि केन्द्र सरकार एक नई षिक्षा नीति तैयार करने में लगी हुई है पर परिणाम क्या होगा यह लागू किये जाने के बाद ही पता चलेगा।
    देष के प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति का स्कूली छात्रों के साथ समय बिताना एक अनूठी परम्परा की षुरूआत है। राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाकायदा षिक्षक की तरह क्लासरूम में जाकर एक घण्टा देष का राजनीतिक इतिहास पढ़ाया। उन्होंने लोकतंत्र में हर समस्या के समाधान की बात कही साथ ही जन लोकपाल का समर्थन किया। प्रधानमंत्री ने जताया कि स्कूलों में दिए जाने वाले चरित्र प्रमाण पत्र की जगह अब एप्टीट्यूड सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए। देखा जाए तो वर्तमान में सिविल सेवा सहित कई परीक्षाओं में एप्टीट्यूड को षामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि मां जन्म देती है और गुरू जीवन। असल में जब भी षिक्षा व्यवस्था पर चिन्ता जतायी जाती है तो दो बातें स्पश्ट किया जाना जरूरी होता है पहला यह कि षिक्षा के प्रति जो दृश्टिकोण समाज का है उसमें अभी कितना सुधार करना है और क्यों करना है, दूसरा यह केवल रोजगार प्राप्ति का जरिया न होकर व्यक्तित्व प्राप्ति का एक नजरिया भी बने। प्रधानमंत्री की सलाह डिग्री और नौकरी के दायरे से बाहर निकलने की है, इसे सामाजिक प्रतिश्ठा से नहीं जोड़ने की है जो बच्चे जिस क्षेत्र में जाना चाहें वहां जाने देने से है। उन्होंने यह भी कह डाला कि मां-बाप जो नहीं कर पाते वह बच्चों से करवाना चाहते हैं। वर्तमान षिक्षा व्यवस्था पर प्रधानमंत्री की कही गयी बात सौ फीसदी सही ठहरती है। भारत की षिक्षा व्यवस्था समुचित है कहना कठिन है पर स्कूली बच्चे षिक्षा व्यवस्था से दबे हुए हैं इसे कहने में कोई कठिनाई नहीं है। नौनिहालों का जो हाल आज की षिक्षा में है वो कहीं अधिक प्रताड़ित करने वाली है। जिसे हम बड़े सहज तरीके से आज की पीढ़ी में बौद्धिक बाढ़ की संज्ञा देकर छुपा जाते हैं।
    राजनीति में बेहतर लोग नहीं जा रहे हैं पर सवाल है कि बेहतर किसे कहें? मोदी ने बच्चों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया यहां भी प्रधानमंत्री का नजरिया उचित है। यदि सही षिक्षा और सही व्यक्ति का संयोजन प्राप्त कर लिया जाए तो यही बच्चे भविश्य की राजनीति को भी बेहतर कर सकते हैं। अच्छा वक्ता पहले अच्छा श्रोता होता है इस कथन का भी मोदी ने प्रयोग करके बच्चों के आंख-कान खोलने की ओर इषारा किया। यह भारत के इतिहास में अनूठा दिन था जब प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बच्चों को राश्ट्र निर्माण का पाठ पढ़ाया। हालांकि कई चुभने वाले पक्ष भी हैं आलम यह है कि युवा भारत में षिक्षा प्राप्त कर बेहतर अवसर की तलाष में विदेष का रूख करते हैं। पलायन खूब हो रहा है पर रूके कैसे अभी तक फाॅर्मूला नहीं मिल पाया है। सवाल है कि क्या षिक्षा आर्थिक उपादेयता को बढ़ाने का एक जरिया है, क्या सामाजिक प्रतिश्ठा हासिल करने का एक तरीका है या फिर जीवन रचना में यह उपजाऊ है। प्रत्येक की दृश्टि में इसके अलग मायने हो सकते हैं पर इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बेहतर षिक्षा और षिक्षण कार्य सम्मान और आदर्ष का एक अच्छा रूप है। गौरतलब है कि देष की षिक्षा व्यवस्था केवल डिग्री उन्मुख है या उसमें कोई रचनात्मक संवेग भी है। विष्व बैंक भी मानता है कि 90 फीसदी भारतीय ग्रेजुएट काम के लायक नहीं है। बावजूद इसके यह आष्वस्त करने के लिए बेहतर है कि षिक्षा के प्रति चेतना और जागरूकता बीते दो दषकों से खूब बढ़ी है पर चिन्ता का सबब यह है कि षैक्षणिक गुणवत्ता बढ़त के मामले में कमजोर रही है। कमजोर षिक्षा के प्रति जवाबदेही किसकी है इसे लेकर भी बहुत स्पश्ट राय देष में नहीं बन पायी है। प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति ने षिक्षक दिवस के एक दिन पहले उन आदर्ष बिन्दुओं को तो उकेर दिया जहां से एक समूचित षिक्षा की राह खुलती है पर उनका क्या जो बदलाव की फिराक में बदहाली की स्थिति में पहुंच गये हैं।
    षिक्षा सुधार मोदी सरकार की प्राथमिकता में तो है पर 15 माह पुरानी सरकार का षिक्षा नीति पर अभी कोई प्रारूप सामने नहीं आया। षिक्षा कई हिस्सों में बंटी है प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च षिक्षा। देष में एक अचरज भरी बात यह भी रही है कि ज्यादातर सुधार उच्च स्तर पर होते रहे हैं जबकि सभी स्तरों से ही समूचा सुधार पाया जा सकता है। तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए षिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक फेरबदल की आवष्यकता है। षायद ही कोई इन बातों से चिन्तित हो कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच अन्तर का बढ़ना ठीक नहीं है। गम्भीर समस्या तो यह भी है कि राश्ट्र विकास के लिए युवा चाहिए और ये डिग्री धारक भी हैं परन्तु षिक्षा की बुनियादी कमी से जूझ रहे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन की जरूरत सभी समझते हैं पर जड़ता पीछा नहीं छोड़ रही है। षिक्षा को लेकर राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पाठषाला लगाने का कार्यक्रम हर हाल में सराहनीय है पर हमें उन नतीजों की भी चिन्ता करनी चाहिए जिसे प्राप्त करके देष आगे बढ़ेगा। संविधान भी षिक्षा और षिक्षार्थियों के लिए कई बातें अमल कराने के लिए जाना जाता है। देष बड़ा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, सब कुछ पूरी तरह अमल में अचानक आ पाना सम्भव नहीं है पर बदलते परिप्रेक्ष्य में जो षिक्षा की हालत है उसे देखते हुए कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की दरकार है। संवैधानिक पदों पर आसीन षीर्शस्थ षिक्षकों ने षिक्षा में सुषासन की रोपाई तो कर दी पर अभी खाद-पानी की कहीं अधिक जरूरत बनी हुई है साथ ही जो बातें राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा षिक्षा की चिन्ता को लेकर उकेरी गयी हैं उस पर भी अमल करने की आवष्यकता है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Thursday, September 3, 2015

काश! उनको भी रास आती हिन्दी

हिन्दी पखवाड़े के परिप्रेक्ष्य में
    राश्ट्रीय स्तर पर विचारणीय है कि भारत के हिन्दी ज्ञान कर्मी अन्य भाशाओं से कितना गुरेज करते हैं। कौषल और ज्ञान में नवाचार यह संकेत करते हैं कि कोई भी ज्ञान का धर्म निभाने वाला किसी भी भाशा के साथ टूटन नहीं चाहेगा। अंग्रेजी में उपलब्ध विपुल साहित्य हिन्दी सहित कई भाशाओं में निरंतर लाने का प्रयास होता रहा है पर दषकों से चल रहे प्रयास के बावजूद खाई चैड़ी बनी हुई है। जनसंख्या अधिक है, अनेक प्रचलित षब्द हो गये हैं बावजूद इसके जड़ता नवाचार को नकारती है। जब-जब भारत में हिन्दी को अगुवा बनाने की कोषिष की जाती है तब-तब दक्षिण को लगता है कि उसका तिरस्कार हो रहा है। हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह का विरोध यहीं से देखा जा सकता है। संविधान 65 बरस की अवधि को पार कर चुका है पर भाशाई सियासत ठण्डी नहीं पड़ी। हिन्दी भाशा की उपादेयता इस बात को प्रमाणित करती है कि यह बहुसंख्यक लोगों की भाशा है, साहित्यकार और कवियों की भाशा है इसका तात्पर्य यह नहीं कि अन्य भाशाओं का यहां कोई विरोध है। देखा जाए तो वोट मांगने की इकलौती और सषक्त भाशा हिन्दी ही है। समाचार चैनलों का उद्योग चमकाने में भी हिन्दी ही काम आती है। भोर में समाचार पत्र के पन्ने ज्यादातर हिन्दी में ही खुलते हैं। देष में फिल्में और टीवी सीरियल सभी में आर्थिक उपादेयता सर्वाधिक हिन्दी में ही छुपी हुई है। क्या इस बात की खुषी नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी अपनी भाशा है। गुलामी के दौर में अंग्रेजी ने देष को चैक चैबंद कर दिया था। देष अंग्रेजियत से ढक दिया गया पर अंग्रेजी जानने वाले भी जानते हैं कि आत्मगौरव तो हिन्दी में ही छुपा है। भले ही दिखावे और आत्मगौरव के बीच द्वन्द चल रहा हो, लोग पेषोपेष में हों पर मंथन किया जाए तो हिन्दी मोह से वे भी अछूते नहीं है।
    हिन्दी के नाम पर उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक आग भड़कती है। बीते दिनों द्रविड़ मुन्नेत्र कशगम के अध्यक्ष एम. करूणानिधि ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाया। इतना ही नहीं कहा कि गैर हिन्दी भाशी इसे बर्दाष्त नहीं करेंगे। असल माजरा यह है कि करूणानिधि हिन्दी विरोध में अपनी सियासत को संजोए रखना चाहते हैं साथ ही जताना चाहते हैं कि हम टस से मस नहीं हुए हैं। भारत की यह विडम्बना है कि हिन्दी के प्रति तमिल विरोध बार-बार उभरा है। क्या गलत है यदि देष की हिन्दी संयुक्त राश्ट्र में भाशा का दर्जा ले ले और कितना गलत है कि देष के दो-तिहाई हिन्दी को ही अपनी षक्ति मानते हैं। संस्कृति की परिभाशा में कहा गया है कि भाशा इसका गहना है। जब इसे परिधान में बदला जाता है तो न केवल व्यक्ति सुन्दर होता है बल्कि उसके होने का अस्तित्व भी प्रकट होता है। करूणानिधि का आरोप है कि हिन्दी सप्ताह और संस्कृत सप्ताह मना कर सरकार कर दाताओं के पैसे का गलत इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने भोपाल में 10 से 12 सितम्बर तक आयोजित होने वाले हिन्दी सम्मेलन की भी आलोचना की। सरकारी टीवी चैनल पर संस्कृत को बढ़ावा देना भी उनके लिए आपत्ति का विशय है। भारत विविधताओं का देष है यहां 1600 से अधिक बोलियों का प्रयोग किया जाता है, 63 भाशाएं गैर भारतीय हैं और संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भारतीय भाशाओं की चर्चा है। ऐसे में चुनौती यह है कि सम्पर्क भाशा किसे बनाया जाए अनचाहे तरीके से अंग्रेजी इसमें सबसे आगे है। हिन्दी सर्वाधिक बोली, पढ़ी और लिखी जाती है। इसे राश्ट्र भाशा के दर्जे में रखा जाना उचित प्रतीत होता है मगर करूणानिधि गैर हिन्दी भाशा को संतुलित करने के चक्कर में हिन्दी का नाष करने पर तुले हैं।
    विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास से 20वीं षताब्दी में औद्योगिक क्रांति आई और 21वीं षताब्दी में सूचना क्रांति। समय का फेर है कि गुलामी के दिनों में मनोबल बढ़ाने वाली हिन्दी आजादी के इन दिनों में मेरी और तेरी में फंस कर रह गयी है। भाशा एक ऐसी ताकत है जो देष और देषवासियों को गौरव प्रदान करती है। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय भाशाओं की एकजुटता ही थी जो देष की आजादी के काम आयी क्या इसी एकजुटता को कायम करके देष को एक सम्पन्न परिस्थिति में नहीं बदल सकते? भाशा की लड़ाई यह संकेत देती है कि मन का मैल नहीं गया है। भारत आज भी राश्ट्र-राज्य की अवधारणा से अभिभूत नहीं हो पाया है। इषारा तो यह भी है कि भले ही संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत राज्यों का संघ हो पर दूरियों के मतलब अभी भी फासले ही हैं। कम-से-कम हिन्दी और गैर हिन्दी के बीच अन्तर करने वाले इसमें जरूर घसीटे जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी मूलतः गुजराती हैं, राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बंगाली हैं क्या देष के इन षीर्शस्थ कार्यकर्ताओं के मन में भाशा विवाद है, जाहिर है उत्तर नहीं में मिलेगा। एक गुजराती प्रधानमंत्री का संस्कृत और हिन्दी को बढ़ावा देना क्या एक सुकून की बात नहीं है। कहना मुनासिब होगा कि इससे देष की अन्य भाशाओं का सम्मान कमतर नहीं हो जाता। वेदों की भाशा से लेकर वैष्विक स्तर पर षुमार संस्कृत और हिन्दी को यदि भाशा संघर्श में उलझा कर कमजोर करने का प्रयास किया जाएगा तो इससे गौरवगाथा भी मलीन होगी। ब्रह्य समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय तो दर्जन भर भाशाओं के जानकार थे उनके लिए तो कोई भाशा उपेक्षित नहीं थी। स्वामी विवेकानंद ने वर्श 1893 में हुए षिकागो के विष्व धर्म सम्मेलन में भारतीय धर्म के साथ भाशा का भी मान बढ़ाया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपाई 80 के दषक में संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी में भाशण देकर देष के गौरव को ऊंचा करने का काम किया था। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्वयं विष्व के दो दर्जन देषों में यात्रा के दौरान हिन्दी में भाशण देकर इसके मुकाम को और गहरा बना दिया गया। ऐसे में सवाल है कि क्यों सियासतदान हिन्दी को अन्य भारतीय भाशाओं के विरोध में खड़ा करके देष के विकास में ही असमंजस का बीज बो देते हैं?
    संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को एक अधिकारिक भाशा के रूप में मान्यता मिल सके इसके लिए 129 देषों का समर्थन जुटाना है। यह काज इतना आसान नहीं है पर भारत के वैष्विक धरातल को देखते हुए यह कठिन भी नहीं प्रतीत होता। बरसों से हिन्दी विस्तार के लिए सभी ने अपने-अपने स्तर पर काम किया है मगर पिछले एक बरस में राजनयिक और कूटनीतिक स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी के विदेषी दौरों में विदेष की धरती पर हिन्दी में जो बढ़त मिली वो षायद पहले नहीं थी। हिन्दी को राश्ट्र भाशा बनाने का विचार बरसों से फैल रहा है। बंगला, मराठी और गुजराती आदि में व्याप्त भावों से यह सूझने लगा है कि हिन्दी उन स्थानों की भी साहित्य भाशा अच्छी तरह हो सकती है। महाराश्ट्र के दरबारों में तो हिन्दी कवियों का बड़ा मान होता था। बावजूद इसके सब कुछ बेहतर नहीं है। भारत बड़ा देष है लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, भाशा में बंटा होना गलत नहीं है पर भाशा विरोध में होना भी सही नहीं है जो हिन्दी की गौरव गाथा से अनभिज्ञ है उन्हें एक बार इस पर मंथन जरूर करना चाहिए।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502