Tuesday, November 1, 2022

सामाजिक अपसंस्कृति बनती भोजन की बर्बादी

भारतीय संस्कृति में ऐसी अवधारणा है कि जहां अन्न का अपमान होता है वहां लक्ष्मी का वास नहीं होता मगर अब यही सामाजिक अपसंस्कृति में तब्दील होती जा रही है। भारत समेत दुनिया के लोग षायद इस बात को गम्भीरता से नहीं ले पा रहे हैं कि भोजन के जिस हिस्से को वे कूड़ेदान में फेंक रहे हैं उससे किसी भूखे की भूख मिटाई जा सकती है। विकसित और विकासषील देषों में भोजन की बर्बादी का सिलसिला लगातार जारी है। इस मामले में चीन पहले तो भारत दूसरे नम्बर पर है। हैरत इस बात की है कि दुनिया में जहां 83 करोड़ से अधिक लोग भूखे सो जाते हैं वहीं खाने की बर्बादी कई करोड़ टन रोज की दर से हो रहा है। इंटरनेषनल डे ऑफ अवरनेस ऑफ फूड लॉस एण्ड वेस्ट 2022 यूएनईपी की रिपोर्ट से पता चलता है कि चीन हर साल 9.6 करोड़ टन भोजन बर्बाद करता है और भारत में यही आंकड़ा 6.87 करोड़ टन का है। अमेरिका 1.93 के आंकड़े के साथ तीसरे स्थान पर देखा जा सकता है। यूएनईपी फूड इंडेक्स 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में पूरी दुनिया में कुल जमा 93 करोड़ टन से अधिक खाना बर्बाद हुआ अब यह आंकड़ा और बड़ा हो चुका है। नेषनल हेल्थ सर्वे को देखें तो 130 करोड़ के भारत में 19 करोड़ लोग रोजाना भूखे सो जाते हैं। यहां खाद्य उत्पाद का 40 फीसद हिस्सा बर्बाद होता है। रूपए में देखा जाये तो भारत में सालाना 92 हजार करोड़ रूपए का भोजन कूड़ेदान में चला जाता है। आंकड़े यह इषारा करते हैं कि समस्या खाद्य पदार्थों की उतनी नहीं जितनी बर्बादी के चलते कई भोजन की थाली से दूर हैं। आष्चर्य की बात यह भी है कि देष में हालिया हंगर इंडेक्स 2022 में भारत 101वें से खिसक कर 107वें पर चला गया है जो भोजन की बर्बादी और भूख के बीच एक नये चिंतन की ओर इषारा कर रहा है। गौरतलब है कि प्रति व्यक्ति भोजन बर्बादी में ऑस्ट्रेलिया प्रथम स्थान पर है जबकि फ्रांस, स्पेन और इंग्लैण्ड क्रमषः दूसरे, तीसरे और चौथे नम्बर पर हैं। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देष चाहे विकासषील हो या विकसित भोजन बर्बादी में कोई कम नहीं है। अंतर है तो इस बात का कि विकसित देष इतनी बड़ी भोजन बर्बादी के बावजूद हद तक उच्च जीवन जीने में सक्षम हैं जबकि भारत जैसे देष की एक बड़ी जनसंख्या भोजन की फिराक में रोज दो-चार होती है और इसमें से करोड़ों भूखे भी सो जाते हैं।
भारत में भोजन की बर्बादी एक गम्भीर समस्या है जिसका समाधान जागरूकता और बढ़ी हुई चेतना से ही सम्भव नहीं है बल्कि इसके लिए संवेदनषीलता और भूख के प्रति बेहतरीन चिंतन से ही इसे रोकना सम्भव होगा। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रथम विष्व खाद्य सुरक्षा दिवस के अवसर पर भारत के सभी नागरिकों को ‘कम खाओ, सही खाओ‘ मुहिम को जन आंदोलन बनाने का आह्वान किया और इस संकल्प की बात कही कि एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए। जाहिर है भोजन की बर्बादी को रोक कर और खाद्य सुरक्षा को बढ़ाकर देष की गरीबी, भुखमरी और कुपोशण को जड़ से मिटाया जा सकता है। देष की षीर्श अदालत ने भोजन बर्बादी पर दिषा-निर्देष दिया था कि सभी वैवाहिक स्थल, होटल, मोटल और फार्म हाउस में होने वाले षादी समारोहों में भोजन की बर्बादी को रोका जाना चाहिए। इसमें कोई दुविधा नहीं कि मानव सभ्यता में अन्न का पहला और सबसे बड़ा योगदान है। दुनिया सभ्यता की चरम पर भले ही खड़ी हो मगर सुबह का नाष्ता, दोपहर का भोजन और रात की दो रोटी पेट में न जाये तो सब कुछ बेमानी सा लगता है। यह सभ्य समाज के लिए भी चुनौती है कि करोड़ों भूखे क्यों और कैसे सो रहे हैं। भोजन की बर्बादी से न केवल सरकार बल्कि सामाजिक संगठन भी चिंतित हैं। बावजूद इसके यह सिलसिला थम नहीं रहा है। वैसे इस बात पर भी गौर करने की आवष्यकता है कि खाने की बर्बादी का मुख्य कारण क्या है। आम तौर पर बड़े देषों में ज्यादातर खाना खेत और बाजार के बीच होता है। भोजन का खराब भण्डारण और संचालन, खराब पोशण, अपर्याप्त आधारभूत संरचना, घरों में खाने की बर्बादी, रख-रखाव में लापरवाही फलस्वरूप भोजन की खराबी और कूड़ेदान तक पहुंच स्वाभाविक हो जाती है।
यह बड़ा असहज करने वाला सवाल है कि एक तरफ दुनिया भुखमरी का दंष झेल रही है तो दूसरी तरफ करोड़ों टन अन्न बर्बाद हो रहे हैं। इसे देखते हुए मानस पटल पर दो प्रष्न उभरते हैं पहला यह कि मानव जिस सभ्यता की ऊँचाई पर है क्या उसकी जड़ नहीं पहचान पा रहा है? दूसरा क्या मानव यह समझने में नाकाम है कि पृथ्वी एक सीमा के बाद भोजन देने में सक्षम नहीं है? गौरतलब है कि पृथ्वी दस अरब लोगों का ही पेट भर सकती है और दुनिया 8 अरब के आस-पास खड़ी है। भोजन फेंकने की आदत पूरी दुनिया में एक अपसंस्कृति बन गयी है। अनुमान तो यह भी है कि 2050 तक दुनिया भर में अपषिश्ट भोज्य पदार्थों की बर्बादी दोगुनी हो सकती है और यह बर्बादी इसी दर पर जारी रही तो 2030 तक दुनिया भर में भुखमरी उन्मूलन के लिए संयुक्त राश्ट्र द्वारा निर्धारित लक्ष्य जीरो हंगर का उद्देष्य हासिल करना भी मुष्किल होगा। दरअसल भोजन की बर्बादी वाली आदत एक ऐसी आर्थिक अवधारणा से युक्त है कि कीमत चुकाया गया है तो चाहे खायें या बर्बाद करें। बड़े-बड़े होटलों या पार्टियों में अतिरिक्त भोजन के साथ विभिन्न रूपों में खाद्य सामग्री परोसने की आदत के चलते बर्बादी में बढ़ोत्तरी हुई। इस बात का समर्थन सभी करेंगे कि भोजन की बर्बादी न केवल सामाजिक और नैतिक अपराध है कि बल्कि अन्न के प्रति स्वयं का बिगड़ा हुआ अनुषासन है। यह न केवल भुखमरी को अवसर दे रहा है बल्कि पर्यावरणीय व सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों को भी बढ़ा रहा है। अध्ययन से पता चलता है कि थाली के झूठन से पर्यावरणीय दुश्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट ऑफ रॉकफेलर फाउंडेषन द्वारा किये गये षोध के अनुसार भोजन की बर्बादी के चलते ग्रीन हाउस गैसों में 8-10 फीसद तक की बढ़ोत्तरी होती है। जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से भी भोजन की बर्बादी एक समस्या बनी हुई है। इतना ही नहीं भोजन के सड़े-गले अवषेशों से कई बीमारियां जन्म लेती हैं। आंकड़े बताते हैं कि अवषिश्ट भोजन से प्रत्येक वर्श साढ़े चार गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। विदित हो कि पेरिस जलवायु समझौते के अन्तर्गत दुनिया से दो डिग्री सेल्सियस तापमान घटाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। यदि भोजन की बर्बादी पर विराम लग जाये तो ग्रीन हाउस गैसों में न केवल कटौती होगी बल्कि जलवायु परिवर्तन की समस्या के साथ-साथ भुखमरी की समस्या से भी कमोबेष निजात मिल सकता है।
तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह दर्षाता है कि भोजन बर्बादी के मामले में भारत की स्थिति दक्षिण एषियाई देषों में थोड़ी बेहतर है यहां साल भर में एक व्यक्ति 50 किलो भोजन व्यर्थ कर देता है जबकि अफगानिस्तान में 82, नेपाल और भूटान में 79, श्रीलंका में 76, पाकिस्तान में 74, बांग्लादेष और मालदीव क्रमषः 65 और 71 किलो भोजन बर्बाद होता है। उक्त को देखते हुए परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि एक अच्छी आदत से भोजन की बर्बादी को कम किया जा सकता है और यह अच्छी आदत बच्चों को बड़े सिखाये और बड़े अन्न की कद्र करें और होटल और रेस्तरां में परोसी गई थाली रूपए से आंकने के बजाये जरूरत और जीवन के आधार पर मूल्यांकन किया जाये ताकि भोजन की बर्बादी रोकी जा सके। बर्बाद होते भोजन को देखते हुए साथ ही इसे लेकर बढ़ी हुई समस्या के चलते दुनिया के तमाम देष सरकारी नीतियों और जागरूकता को लेकर कई सराहनीय पहल भी किये जा रहे हैं। गौरतलब है कि संसार के कई देषों में 2030 तक भोजन की बर्बादी को आधा करने का लक्ष्य बना लिया है। भोजन बर्बादी रोकने के मामले में सबसे पहला नाम ऑस्ट्रेलिया का है। ऑस्ट्रेलिया ऐसा देष है जहां एक व्यक्ति एक वर्श में 102 किलोग्राम खाना बर्बाद करता है जो सर्वाधिक है। इतने व्यापक पैमाने पर भोजन बर्बादी के चलते वहां की अर्थव्यवस्था पर हर साल 20 मिलियन डॉलर का नुकसान होता है। ऐसे में यहां अन्न बर्बादी रोकने में जुड़ी संस्थाओं को सरकार प्रोत्साहन दे रही है और अच्छा खासा निवेष कर रही है। नार्वे एक ऐसा देष जहां मानव विकास सूचकांक के मामले में षीर्श देषों में षामिल है जबकि वहां भी हर साल साढ़े तीन लाख टन भोजन कूड़ेदान में जाता है। यहां का एक नागरिक भी 68 किलो भोजन बर्बाद कर देता है। इसने भी 2030 तक इस बर्बादी को आधा करने का नियोजन बनाया है। चीन भोजन बर्बादी के मामले में अव्वल है। ऑप्रेषन इंप्टी प्लेट की नीति लागू कर इससे निपटने का उपाय में वह भी लगा हुआ है। इस नीति के तहत थाली में खाना छोड़ने पर रेस्तरां में जुर्माना लगाया जा रहा है। यूरोपीय देषों में फ्रांस दुनिया का पहला देष है जिसने सूपर मार्केट को बिना बिके भोजन को बाहर फेंकने को साल 2016 में प्रतिबंधित कर दिया था। गौरतलब है कि फ्रांस और इटली जैसे देषों में ऐसे भोजन को दान देने पर जोर दिया जा रहा है। कुछ इसी तर्ज पर लंदन, स्टॉकहोम, कॉपेनहेगन, न्यूजीलैंड के ऑकलैण्ड और इटली के मिलान जैसे षहरों में अतिरिक्त भोजन को जरूरतमंदो के बीच बांटने का काम होता है। भारत में रोटी बैंक के माध्यम से भोजन को जरूरतमंदों के बीच बांटा जा रहा है मगर जिस तर्ज पर भारत में भोजन बर्बादी है उसे पूरी तरह से समाप्त करने के लिए रोटी बैंक जैसी संस्थाओं के प्रति लोगों की चेतना और जागरूकता बढ़नी चाहिए ताकि बचे हुए भोजन को बर्बाद होने से पहले इन तक पहुंचाया जा सके। सालों पहले प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात में भोजन की बर्बादी को लेकर कुछ बातें कही। मगर विडम्बना यह है कि देष गरीबी और भुखमरी की राह पर सरपट दौड़ रहा है और भोजन की बर्बादी के प्रति लोगों की संवेदनषीलता जमींदोज होती जा रही है।
 दिनांक : 27/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

चुनौतियों के बीच बनता इतिहास

इतिहास खंगालकर देखें तो इतिहास में परत-दर-परत ऐसे संदर्भ देखने को मिलते हैं जहां से कम-ज्यादा वापसी स्वाभाविक है। ऐसा ही इन दिनों ब्रिटेन में हुए सत्ता परिवर्तन के चलते देखने को मिला जहां भारतीय मूल के ऋशि सुनक प्रधानमंत्री तक पहुंच बनाकर मानो इतिहास की तुरपाई कर रहे हों। फिलहाल सत्ता परिवर्तन की कवायद से ब्रिटेन अभी उबरा नहीं है साथ ही मंदी के साये से पीछा छूटा नहीं है। ड्यूज़ बैंक और बार्कलेज बैंक ने यह अनुमान लगाया है कि ब्रिटिष सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ इंग्लैण्ड नवम्बर में होने वाली बैठक में ब्याज दर में 0.75 फीसद की बढ़ोत्तरी करेगा। ऐसे में आर्थिक विकास की सम्भावना और कम होगी साथ ही ब्रिटेन में ब्याज दर 4.75 फीसद तक पहुंच जायेगी। ब्याज दर में बढ़ोत्तरी एक ऐसा आर्थिक सत्य है जो देष विषेश में सभी के लिए एक नई आर्थिक कठिनाई खड़ा कर देता है। हालांकि ऐसा करने के पीछे आर्थिक मजबूरी होती है मगर इसका नियोजन बेहतर न हो तो ब्रिटेन जैसे देष भी मन्दी के साये से बच नहीं सकते जैसा कि वर्तमान परिस्थिति इसी की ओर इषारा करती है। गौरतलब है कि ब्रिटेन की लिज ट्रस सरकार की नीतियां भारी पड़ रही हैं। ट्रस सत्ता संभालते ही कॉरपोरेट टैक्स में कटौती का एलान कर दिया था। इसके अलावा निजी आयकर में भी छूट देने की घोशणा की थी। इन सबके बावजूद ट्रस सरकार ने यह बताने में सक्षम नहीं रही कि कटौतियों के चलते सरकारी खजाने से जो नुकसान होगा उसकी भरपाई कैसे होगी। नतीजन ब्राण्ड बाजार ढहने के करीब पहुंच गया और माहौल अफरा-तफरी में तब्दील होने लगा। स्थिति को देखते हुए ट्रस ने गलती सुधारते हुए तमाम रियायतों पर यू टर्न ले लिया और वित्त मंत्री पर आरोप मढ़ते हुए उनकी बर्खास्तगी कर दी। यह सब कुछ ब्रिटेन के इतिहास में महज डेढ़ महीने के भीतर हो गया। लिज ट्रस जमा डेढ़ महीने ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बामुष्किल रहीं और फलक को कई चर्चे से भर दिया। बीते 20 अक्टूबर को लिज ट्रस के इस्तीफे के साथ ऋशि युग की षुरूआत की आहट एक बार फिर हुई जो अब मुकम्मल भी हो गयी है। ध्यानतव्य हो कि बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भारतीय मूल के ऋशि सुनक का मुकाबला इस दौड़ में लिज ट्रस से ही था। प्रधानमंत्री बनने की बाजी तो लिज ट्रस के हाथ लगी मगर सत्ता टिक नहीं पायी।
    जाहिर है नये प्रधानमंत्री के रूप में ऋशि सुनक भारत-ब्रिटेन सम्बंधों में बदलाव करना चाहेंगे। कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन के छात्रों और कम्पनियों की भारत में आसान पहुंच होगी और ब्रिटेन के लिए भारत में कारोबार और काम करने के अवसर के बारे में भी हद तक वे जागरूक दिखे। ऋशि सुनक का भारतीय मूल का होना मनोवैज्ञानिक लाभ तो देगा मगर कूटनीतिक और आर्थिक स्तर पर अधिक अपेक्षा के साथ भारत को ज्यादा का फायदा होगा यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। दो टूक यह भी है कि आर्थिक मोर्चे पर ब्रिटेन इन दिनों जिस स्थिति से गुजर रहा है भारत की ओर देखना पसंद करेगा। भारत निवेष के लिए बड़ा और प्रमुख अवसर है और ब्रिटेन एक महत्वपूर्ण आयातक देष है। ऐसे में भारत में होने वाले मुक्त व्यापार समझौते पर भी ऋशि सुनक अच्छा फैसला ले सकते हैं। हालांकि लिज ट्रस से भी ऐसा ही होने की आषा थी। मगर उनकी सत्ता टिकाऊ न होने से अब यह उम्मीद ऋशि सुनक से लगायी जा सकती है। गौरतलब है कि भारत और ब्रिटेन के बीच लगभग 23 अरब डॉलर का सालाना व्यापार होता है और ब्रिटेन भी यह जानता है कि मुक्त व्यापार के जरिये इसे 2030 तक दोगुना किया जा सकता है। हिन्द प्रषांत क्षेत्र में बाजार हिस्सेदारी और रक्षा विशयों पर दोनों देषों के बीच साल 2015 में ही समझौते हो चुके हैं। ऋशि सुनक के चलते द्विपक्षी सम्बंधों को और मजबूती मिल सकती है साथ ही ब्रिटेन हिंद प्रषांत क्षेत्र की विकासषील अर्थव्यवस्था को अपना अवसर बना सकता है। ध्यानतव्य हो कि इस क्षेत्र में दुनिया के 48 देष के करीब 65 फीसद आबादी रहती है। विदित हो कि ऋशि सुनक का मिजाज चीन को लेकर काफी सख्त रहा है। ऐसे में वे नहीं चाहेंगे कि इन देषों के असीम खनिज संसाधनों पर चीन अपना रास्ता बनाये। वैसे देखा जाये तो कई देषों के बंदरगाहों पर कब्जा करना चीन की सामरिक नीति रही है और क्वॉड के माध्यम से उस पर नकेल कसने की जहमत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया समेत भारत पहले ही उठा चुके हैं। यदि ब्रिटेन अपने बाजार और व्यापार समेत आर्थिक नीतियों को भारत के साथ व्यापक पैमाने पर साझा के साथ मुक्त बनाये रखता है तो द्विपक्षीय मुनाफा तो होगा ही साथ ही चीन को संतुलित करने में भी मदद मिलेगी।
ऋशि सुनक के दिल में भारत बसता है। दरअसल इन्फोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति की बेटी उनकी पत्नी है और उनके पुरखे अविभाजित भारत के बाषिन्दे थे। विन्चेस्टर कॉलेज, ऑक्सफोर्ड और स्टैनफोर्ड से षिक्षा लेने वाले सुनक महज 42 बरस के हैं। एक प्रतिश्ठित षिक्षाविद् ने मुझे यह सूचना भेजते हुए हर्श जताया कि 1608 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में अपने सूरत-ए-हाल को बिखेरा था और अब 414 साल बाद एक भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन की जमीन पर सत्ता का बड़ा वृक्ष बन रहा है। आमतौर पर देखें तो यह दीपावली के अवसर भारतीयों के मन में जागृत एक ऐसी रोषनी है जो अच्छे का एहसास करा रही है। हालांकि ऋशि सुनक के सामने चुनौतियों का अम्बार कम नहीं है जो गलतियां निवर्तमान प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने की उससे वे सबक जरूर लेंगे और ब्रिटेन के बाषिन्दे जिस तर्ज पर ईज़ ऑफ लिविंग खोजते हैं उस पर उन्हें खरा भी उतरना होगा। दुनिया की 5वीं अर्थव्यवस्था वाला भारत ब्रिटेन को ही पछाड़ा था। सुनक से ब्रिटेन की जनता आर्थिक विकास के बेहतरीन रोड मैप की अपेक्षा किये हुए है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्रिटेन जैसे देष में जनता निहायत जागरूक है। वहां बाजार और सरकार दोनों को समझने में कोई गलती नहीं करती है। लिज़ ट्रस ने इन दोनों का भरोसा इतनी जल्दी खो दिया कि सरकार गंवानी पड़ी। वैसे भारत और ब्रिटेन के मध्य मजबूत ऐतिहासिक सम्बंधों के साथ-साथ आधुनिक और परिमार्जित कूटनीतिक सम्बंधा देखे जा सकते हैं। साल 2004 में दोनों देषों के बीच द्विपक्षीय सम्बंधों में रणनीतिक साझेदारी ने विकास का रूप लिया और यह निरंतरता के साथ मजबूत अवस्था को बनाये रखा। हालांकि षेश यूरोप से भी भारत के द्विपक्षीय सम्बंध विगत कई वर्शों से प्रगाढ़ हो गये हैं। बावजूद इसके ब्रिटेन से मजबूत दोस्ती पूरे यूरोप के लिए बेहतरी की अवस्था है क्योंकि यूरोप में व्यापार करने के लिए भारत ब्रिटेन को द्वार समझता है। ऐसे में नई सरकार के साथ भारत की ओर से नई रणनीति और प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर गठजोड़ की एक ऐसी बेजोड़ कवायद करने की आवष्यकता है जहां से भारतीय मूल के ऋशि सुनक के ब्रिटेन में होने का सबसे बेहतर लाभ लिया जा सके। साथ ही दुनिया में भारत की बढ़ती साख को और सषक्त बनाने में मदद मिल सके।

दिनांक : 25/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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उद्यमशील सरकार का सुशासनिक परिप्रेक्ष्य

नवीन लोक प्रबंधन के आदर्ष उद्देष्य का वर्णन पूर्व अमेरिकी उपराश्ट्रपति अल गोर की राश्ट्रीय कार्य-प्रदर्षन समीक्षा पर रिपोर्ट ”वह सरकार जिसका काम बेहतर और लागत कम हो“ में किया गया है। गौरतलब है कि नव लोक प्रबंधन जिसमें नागरिक या ग्राहक को केन्द्र में रखा जाता है साथ ही परिणामों के लिए उत्तरदायित्व पर बल दिया जाता है। यह समाज एवं अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम करना चाहता है और एक उद्यमषील सरकार की स्थापना से इसका सरोकार जहां कुषलता, अर्थव्यवस्था और प्रभावषीलता तीन लक्ष्य हैं। न्यूजीलैण्ड दुनिया का पहला देष है जिसने नव लोक प्रबंधन को 1990 के दषक में अपनाया। अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन रीइंवेंटिंग गवर्नमेंट नामक पुस्तक की प्रषंसा में लिखा था कि यह एक ब्लू प्रिंट है इस संदर्भ के चलते नवीन लोक प्रबंधन के आधार को और सषक्तता मिलती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह प्रबंधन आसानी से वामपंथ और दक्षिणपंथ की सीमा लांघता है और सुषासन की अवधारणा में अंतर्निहित हो जाता है। सुषासन विष्व बैंक की 1989 की रिपोर्ट ‘फ्रॉम द स्टेट टू मार्केट‘ के अन्तर्गत प्रस्फुटित एक ऐसी विचारधारा है जहां लोक प्रवर्धित अवधारणा को मजबूती मिलती है साथ ही लोक सषक्तिकरण पर बल दिया जाता है। यह एक आर्थिक परिभाशा है और इसमें न्याय का सरोकार निहित है। षासन वही अच्छा जिसका प्रषासन अच्छा होता है और दोनों तब अच्छे होते हैं जब लोक कल्याण होता है और लोक कल्याण कम लागत में अधिक करने की योजना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देषों के लिए कहीं अधिक आवष्यक है।
पड़ताल बताती है कि भारत में लोक प्रबंधन के नवीन आयामों में लोक कल्याणकारी व्यय को घटाया गया है मसलन रसोई गैस से हटाई गयी सब्सिडी और ऊपर से लगातार बढ़ती कीमत। लोक उद्यमों का विनिवेष व निजीकरण एवं उनमें समझौता, नवरत्न, महारत्न जैसी श्रेणियां प्रदान करने की प्रविधियां। विकेन्द्रीकरण और निजी निकायों के द्वारा ठेका प्रथा से कार्य करवाना आदि। हालांकि ई-गवर्नेंस को लागू करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा नव लोक प्रबंध और सुषासन के चलते ही सम्भव हुआ है। जैसे ई-बैंकिंग, ई-टिकटिंग, ई-सुविधा, ई-अदालत, ई-षिक्षा समेत विभिन्न आयामों में इलेक्ट्रॉनिक पद्धति का समावेषन आदि के चलते सुषासन में निहित पारदर्षिता और खुलेपन को मजबूती मिली है। इतना ही नहीं सरकारी संगठनों का निगमीकरण, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरषिप जैसी तकनीकों पर आगे बढ़ाना नव लोक प्रबंधन के नवीन आयाम ही हैं। साल 1997 का नागरिक अधिकारपत्र, 2005 का सूचना का अधिकार कानून, 2006 में राश्ट्र ई-गवर्नेंस आंदोलन, प्रषासनिक सुधार के लिए आयोगों का गठन, समावेषी व धारणीय विकास पर अमल करने समेत स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज आदि विभिन्न परिप्रेक्ष्य भारत में लोक प्रबंध के नये आयाम को ही दर्षाते हैं। दरअसल प्रषासनिक सुधार और सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे से तार्किक सम्बंध रखते हैं। प्रषासनिक सुधार राजनीतिक इच्छाषक्ति का परिणाम होती है। सरकार परिवर्तन और सुधार की दृश्टि से जितना अधिक जन उन्मुख होगी सुषासन उतना अधिक प्रभावी होगा मगर जब सरकारें कुषलता के साथ अर्थव्यवस्था पर तो जो देती हैं मगर जब आम जनमानस में इसकी प्रभावषीलता समावेषी अनुपात में नहीं होती है तो पूंजीवाद का विकास सम्भव होता है।
भारत गांवों का देष है मगर अब बढ़ते षहरों के चलते इसकी पहचान गांव तक ही सिमट कर नहीं रहती। भारत खेत-खलिहानों के साथ-साथ कल-कारखानों से युक्त हो चला है। बीते 75 वर्शों में विकास परत-दर-परत अनवरत बना हुआ है। स्वतंत्रता के बाद संविधान के लागू होने के पष्चात् विकास का प्रषासन व प्रषासनिक विकास समेत सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा साथ हो चली थी। बावजूद इसके समावेषी ढांचे का न जाने क्यों सषक्त निर्माण षायद देने में सफल हो ही नहीं पाये। यही कारण है कि आज भी गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महंगाई, षिक्षा, सड़क, सुरक्षा आदि समेत कई बुनियादी तथ्य भरपूर समाधान से परे हैं। 1991 के उदारीकरण बदलते वैष्विक परिप्रेक्ष्य के साथ भारत में बदलाव की एक नई तारीख बनी। 1992 में समावेषी विकास व सुषासन की धारणा भी मूर्त रूप ली फिर भी बुनियादी विकास, मानव विकास सूचकांक व ईज़ ऑफ लिविंग के मामले में आम जनमानस की जद्दोजहद कम नहीं हो रही है। दो टूक यह भी है कि प्रषासन और जनता के बीच संकुचित दायरे के सम्बंधों ने अब व्यापक आधार ले लिया है और षासन, सुषासन के प्रति तुलनात्मक कहीं अधिक प्रतिबद्धता भी दर्षाती हैं। पड़ताल बताती है कि नवीन लोक प्रबंधन वैष्वीकरण, उदारीकरण के दौर में नौकरषाही को नई दिषा में मोड़ने और उसे नई संरचना देने का भी प्रयास किया है। नव लोक प्रबंधन एक ऐसा परिदृष्य है जिस पर कई उत्प्रेरक तत्वों का प्रभाव पड़ा है। जिसने राज्य को पृश्ठभूमि में रखने मार्केट मैकेनिज्म को प्रमुख रूप से उभारने एवं प्रतियोगिता तथा प्रभावषीलता की जरूरत को समर्थित किया। उक्त तथ्य यह दर्षाते हैं कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देष में प्रतियोगिता नागरिकों को ग्राहक बना देती है और सफल ग्राहक वही है जोे कमाई के साथ मार्केट मैकेनिज्म को अंगीकृत कर सके। भारत में आर्थिक दृश्टि से अनेकों वर्ग हैं जो मार्केट मैकेनिज्म के साथ कदम-से-कदम मिलाने में इनमें से कई अक्षम भी हैं। यह कहना अतार्किक न होगा कि विकासषील देषों का बाजार हो या प्रतियोगिता बड़ी तो हो जाती है मगर मानव संसाधन में समुचित दक्षता और उचित रोजगार की कमी से उक्त मॉडल या तो विफल हो जाता है या फिर जनता असफल हो जाती है। इसी वर्श दो करोड़ मकान देने और किसानों की आमदनी दोगुनी का लक्ष्य भी पूरा होना है। सुषासन की दृश्टि से यह स्थिति कहां है कुछ कहा नहीं जा सकता मगर उद्यमषील सरकार की दृश्टि से इस पर खरा उतरना चाहिए।
सुषासन के मूल्यांकन के भी तीन परत हैं जिसमें मानव विकास सूचकांक, मानव गरीबी सूचकांक इसके हिस्से हैं। यदि यह किसी भी स्तर पर देष में व्याप्त है तो सुषासन को चोटिल करता है और उद्यमषीलता का दम भरने वाली सरकारों पर प्रष्न चिह्न लगाता है। मानव विकास सूचकांक 2021-22 के आंकड़े बताते हैं कि भारत 191 देषों के मुकाबले 132वें स्थान पर है जबकि वैष्विक भूख सूचकांक-2022 में 107वें स्थान पर जो 2021 के 101वें स्थान के मुकाबले कहीं पीछे चला गया। भारत जो विष्व के सबसे बड़े खाद्यान्न भण्डार वाला देष है में विष्व की खाद्य असुरक्षित आबादी का एक-चौथाई हिस्सा मौजूद है। देखा जाये तो खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के बावजूद भर पेट भोजन कईयों के हिस्से से अभी दूर भी है। इतना ही नहीं खाद्य पदार्थों की कीमत में भी इन दिनों जमकर उछाल लिए हुए है। उक्त संदर्भ नव लोक प्रबंधन और सुषासन दोनों दृश्टि से समुचित नहीं है। नव लोक प्रबंधन उत्तरदायी परिणाम प्रतियोगिता, पारदर्षिता तथा आनुबंधिक सम्बंधों पर आश्रित और इस प्रकार पुराने व्यवस्था से भिन्न है जबकि सुषासन लोक कल्याण, लोक सषक्तिकरण और लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सर्वोदय और अन्त्योदय को समाहित किये हुए है। सवाल यह है कि देष किससे बनता है और किस के साथ चलता है। लोकतंत्र में जनता का षासन होता है और साफ है कि कोई भी जनता समावेषी व बुनियादी विकास से अछूती रहने वाली व्यवस्था देर तक नहीं चलाना चाहेगी।

 दिनांक : 20/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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नव लोक प्रबंधन और सुशासन

नवीन लोक प्रबंधन के आदर्ष उद्देष्य का वर्णन पूर्व अमेरिकी उपराश्ट्रपति अल गोर की राश्ट्रीय कार्य-प्रदर्षन समीक्षा पर रिपोर्ट ”वह सरकार जिसका काम बेहतर और लागत कम हो“ में किया गया है। गौरतलब है कि नव लोक प्रबंधन जिसमें नागरिक या ग्राहक को केन्द्र में रखा जाता है साथ ही परिणामों के लिए उत्तरदायित्व पर बल दिया जाता है। यह समाज एवं अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम करना चाहता है और एक उद्यमषील सरकार की स्थापना से इसका सरोकार जहां कुषलता, अर्थव्यवस्था और प्रभावषीलता तीन लक्ष्य हैं। न्यूजीलैण्ड दुनिया का पहला देष है जिसने नव लोक प्रबंधन को 1990 के दषक में अपनाया। अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन रीइंवेंटिंग गवर्नमेंट नामक पुस्तक की प्रषंसा में लिखा था कि यह एक ब्लू प्रिंट है इस संदर्भ के चलते नवीन लोक प्रबंधन के आधार को और सषक्तता मिलती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह प्रबंधन आसानी से वामपंथ और दक्षिणपंथ की सीमा लांघता है और सुषासन की अवधारणा में अंतर्निहित हो जाता है। सुषासन विष्व बैंक की 1989 की रिपोर्ट ‘फ्रॉम द स्टेट टू मार्केट‘ के अन्तर्गत प्रस्फुटित एक ऐसी विचारधारा है जहां लोक प्रवर्धित अवधारणा को मजबूती मिलती है साथ ही लोक सषक्तिकरण पर बल दिया जाता है। यह एक आर्थिक परिभाशा है और इसमें न्याय का सरोकार निहित है। षासन वही अच्छा जिसका प्रषासन अच्छा होता है और दोनों तब अच्छे होते हैं जब लोक कल्याण होता है और लोक कल्याण कम लागत में अधिक करने की योजना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देषों के लिए कहीं अधिक आवष्यक है। इसका मूल कारण यहां आमदनी का अठन्नी होना और खर्चा रूपैया है। यदि यह तर्क असंगत ठहराना है तो यह बात पुख्ता तौर पर सिद्ध करनी होगी कि भारत की आधारभूत संरचना व समावेषी विकास दोनों कार्यात्मक दृश्टि से सर्वोदय को प्राप्त कर लिए हैं।
देखा जाये तो नव लोक प्रबंधन कोई प्रषासनिक सिद्धांत नहीं है और न ही कोई आंदोलन है बल्कि यह दोनों का मिश्रण है जहां हर हाल में बेहतरी की खोज बनी रहती है। जो निजी हित के साथ-साथ पूरे समाज के लिए बेहतर की गुंजाइष पैदा करता है। पड़ताल बताती है कि भारत में लोक प्रबंधन के नवीन आयामों में लोक कल्याणकारी व्यय को घटाया गया है मसलन रसोई गैस से हटाई गयी सब्सिडी और ऊपर से लगातार बढ़ती कीमत। लोक उद्यमों का विनिवेष व निजीकरण एवं उनमें समझौता, नवरत्न, महारत्न जैसी श्रेणियां प्रदान करने की प्रविधियां। विकेन्द्रीकरण और निजी निकायों के द्वारा ठेका प्रथा से कार्य करवाना आदि। हालांकि ई-गवर्नेंस को लागू करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा नव लोक प्रबंध और सुषासन के चलते ही सम्भव हुआ है। जैसे ई-बैंकिंग, ई-टिकटिंग, ई-सुविधा, ई-अदालत, ई-षिक्षा समेत विभिन्न आयामों में इलेक्ट्रॉनिक पद्धति का समावेषन आदि के चलते सुषासन में निहित पारदर्षिता और खुलेपन को मजबूती मिली है। इतना ही नहीं सरकारी संगठनों का निगमीकरण, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरषिप जैसी तकनीकों पर आगे बढ़ाना नव लोक प्रबंधन के नवीन आयाम ही हैं। साल 1997 का नागरिक अधिकारपत्र, 2005 का सूचना का अधिकार कानून, 2006 में राश्ट्र ई-गवर्नेंस आंदोलन, प्रषासनिक सुधार के लिए आयोगों का गठन, समावेषी व धारणीय विकास पर अमल करने समेत स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज आदि विभिन्न परिप्रेक्ष्य भारत में लोक प्रबंध के नये आयाम को ही दर्षाते हैं। दरअसल प्रषासनिक सुधार और सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे से तार्किक सम्बंध रखते हैं। प्रषासनिक सुधार राजनीतिक इच्छाषक्ति का परिणाम होती है। सरकार परिवर्तन और सुधार की दृश्टि से जितना अधिक जन उन्मुख होगी सुषासन उतना अधिक प्रभावी होगा मगर जब सरकारें कुषलता के साथ अर्थव्यवस्था पर तो जो देती हैं मगर जब आम जनमानस में इसकी प्रभावषीलता समावेषी अनुपात में नहीं होती है तो पूंजीवाद का विकास सम्भव होता है। हालांकि पूंजीवाद के विकास के अनेक और कारण हो सकते हैं। गौरतलब है अर्थव्यवस्था की कई लहर होती है जहां पहली लहर में बाजार मुख्य संस्था होती है वहीं दूसरी लहर प्रतियोगिता के लिए जानी जाती है। अर्थषास्त्र के पिता एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक द वेल्थ ऑफ नेषन जो 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध की है उसमें भी पहली लहर का सरोकार देखा जा सकता है।
भारत गांवों का देष है मगर अब बढ़ते षहरों के चलते इसकी पहचान गांव तक ही सिमट कर नहीं रहती। भारत खेत-खलिहानों के साथ-साथ कल-कारखानों से युक्त हो चला है। बीते 75 वर्शों में विकास परत-दर-परत अनवरत बना हुआ है। स्वतंत्रता के बाद संविधान के लागू होने के पष्चात् विकास का प्रषासन व प्रषासनिक विकास समेत सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा साथ हो चली थी। बावजूद इसके समावेषी ढांचे का न जाने क्यों सषक्त निर्माण षायद देने में सफल हो ही नहीं पाये। यही कारण है कि आज भी गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महंगाई, षिक्षा, सड़क, सुरक्षा आदि समेत कई बुनियादी तथ्य भरपूर समाधान से परे हैं। 1991 के उदारीकरण बदलते वैष्विक परिप्रेक्ष्य के साथ भारत में बदलाव की एक नई तारीख बनी। 1992 में समावेषी विकास व सुषासन की धारणा भी मूर्त रूप ली फिर भी बुनियादी विकास, मानव विकास सूचकांक व ईज़ ऑफ लिविंग के मामले में आम जनमानस की जद्दोजहद कम नहीं हो रही है। दो टूक यह भी है कि प्रषासन और जनता के बीच संकुचित दायरे के सम्बंधों ने अब व्यापक आधार ले लिया है और षासन, सुषासन के प्रति तुलनात्मक कहीं अधिक प्रतिबद्धता भी दर्षाती हैं। पड़ताल बताती है कि नवीन लोक प्रबंधन वैष्वीकरण, उदारीकरण के दौर में नौकरषाही को नई दिषा में मोड़ने और उसे नई संरचना देने का भी प्रयास किया है। नव लोक प्रबंधन एक ऐसा परिदृष्य है जिस पर कई उत्प्रेरक तत्वों का प्रभाव पड़ा है। जिसने राज्य को पृश्ठभूमि में रखने मार्केट मैकेनिज्म को प्रमुख रूप से उभारने एवं प्रतियोगिता तथा प्रभावषीलता की जरूरत को समर्थित किया। उक्त तथ्य यह दर्षाते हैं कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देष में प्रतियोगिता नागरिकों को ग्राहक बना देती है और सफल ग्राहक वही है जोे कमाई के साथ मार्केट मैकेनिज्म को अंगीकृत कर सके। भारत में आर्थिक दृश्टि से अनेकों वर्ग हैं जो मार्केट मैकेनिज्म के साथ कदम-से-कदम मिलाने में इनमें से कई अक्षम भी हैं। यह कहना अतार्किक न होगा कि विकासषील देषों का बाजार हो या प्रतियोगिता बड़ी तो हो जाती है मगर मानव संसाधन में समुचित दक्षता और उचित रोजगार की कमी से उक्त मॉडल या तो विफल हो जाता है या फिर जनता असफल हो जाती है। जिस देष में 80 करोड़ नागरिकों का सालों-साल सरकार की ओर से दिये गये 5 किलो मुफ्त अनाज पर गुजर-बसर होता हो वहां बाजार और प्रतियोगिता का अर्थ अनसुलझे सवाल की तरह ही है। इसी वर्श दो करोड़ मकान देने और किसानों की आमदनी दोगुनी का लक्ष्य भी पूरा होना है। सुषासन की दृश्टि से यह स्थिति कहां है कुछ कहा नहीं जा सकता मगर उद्यमषील सरकार की दृश्टि से इस पर खरा उतरना चाहिए।
सुषासन के मूल्यांकन के भी तीन परत हैं जिसमें मानव विकास सूचकांक, मानव गरीबी सूचकांक इसके हिस्से हैं। यदि यह किसी भी स्तर पर देष में व्याप्त है तो सुषासन को चोटिल करता है और उद्यमषीलता का दम भरने वाली सरकारों पर प्रष्न चिह्न लगाता है। मानव विकास सूचकांक 2021-22 के आंकड़े बताते हैं कि भारत 191 देषों के मुकाबले 132वें स्थान पर है जबकि वैष्विक भूख सूचकांक-2021 में 101वें स्थान पर। किसी भी देष में बेरोज़गारी कंगाली, बीमारी और गरीबी की जड़ है। इन दिनों भारत में बेरोज़गारी दर रिकॉर्ड स्तर को पार कर चुकी है। गरीबी उन्मूलन 5वीं पंचवर्शीय योजना से जारी है मगर 27 करोड़ गरीबों से भारत अभी भी अटा हुआ है। हालांकि इस पर आंकड़े अलग तरीके से भी पेष किए जाते रहे हैं। भारत जो विष्व के सबसे बड़े खाद्यान्न भण्डार वाला देष है में विष्व की खाद्य असुरक्षित आबादी का एक-चौथाई हिस्सा मौजूद है। देखा जाये तो खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के बावजूद भर पेट भोजन कईयों के हिस्से से अभी दूर भी है। इतना ही नहीं खाद्य पदार्थों की कीमत में भी इन दिनों जमकर उछाल लिए हुए है। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अनुसार गेहूं, आटा, चावल, दाल के साथ-साथ तेल और आलू, प्याज के भाव तेजी से बढ़े हुए है। ताजा उदाहरण यह है कि चावल का भाव 9 अक्टूबर 2022 को 37 रूपए 65 पैसा प्रति किलो था जबकि 11 अक्टूबर को यही 38 रूपए 6 पैसे हो गया था। गेहूं और आटे में भी क्रमषः 30 रूपए 9 पैसे से 30 रूपए 97 पैसे और 35 रूपए से 36 रूपए 26 पैसे की वृद्धि देखी जा सकती है जबकि आलू, प्याज तथा टमाटर की कीमतें भी उछाल के मामले में कमतर नहीं हैं। उक्त संदर्भ नव लोक प्रबंधन और सुषासन दोनों दृश्टि से समुचित नहीं है। नव लोक प्रबंधन उत्तरदायी परिणाम प्रतियोगिता, पारदर्षिता तथा आनुबंधिक सम्बंधों पर आश्रित और इस प्रकार पुराने व्यवस्था से भिन्न है जबकि सुषासन लोक कल्याण, लोक सषक्तिकरण और लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सर्वोदय और अन्त्योदय को समाहित किये हुए है। सवाल यह है कि देष किससे बनता है और किस के साथ चलता है। लोकतंत्र में जनता का षासन होता है और साफ है कि कोई भी जनता समावेषी व बुनियादी विकास से अछूती रहने वाली व्यवस्था देर तक नहीं चलाना चाहेगी। यदि महंगाई, बेरोजगारी तथा जीवन से जुड़े तमाम सुजीवन योग्य व्यवस्थाएं पटरी पर न हों तो भारी मन से यह कहना पड़ता है कि जनता का षासन कहीं जनता पर षासन तो नहीं हो गया। हालांकि जहां सुषासन की बयार की बात हो और उद्यमषील सरकार में संतुलन का भाव व्याप्त हो वहां लोकतंत्र और जनता का षासन ही कायम रहता है।

 दिनांक : 13/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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ताकि नागरिक और राश्ट्र का विकास सुनिश्चित हो सके

भारत में बरसों से उच्च षिक्षा षोध और नवाचार को लेकर चिंता जताई जाती रही है। बाजारवाद षनैः षनैः षिक्षा की अवस्था को मात्रात्मक बढ़ाया है मगर गुणवत्ता में यह फिसड्डी ही रही। षायद यही कारण है कि विष्वविद्यालयों की जब वैष्विक रैंकिंग जारी होती है तो उच्च षिक्षण संस्थाएं बड़ी छलांग नहीं लगा पाती हैं। दो टूक कहें तो नवाचार लाने की प्रमुख जिम्मेदारी ऐसी ही षिक्षण संस्थाओं की है। फिलहाल नवाचार किसी भी देष की सषक्तता का वह परिप्रेक्ष्य है जहां से यह समझना आसान होता है कि जीवन के विभिन्न पहलू और राश्ट्र के विकास के तमाम आयामों में नूतनता का अनुप्रयोग जारी है। भारत में नवाचार को लेकर जो कोषिषें अभी तक हुई हैं वह भले ही आषातीत नतीजे न दे पायी हो बावजूद इसके उम्मीद को एक नई उड़ान मिलते दिखाई देती है। वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी ऑर्गेनाइजेषन द्वारा जारी 2022 के ग्लोबल इनोवेषन इंडेक्स में उछाल के साथ भारत 40वें स्थान पर आ गया है। यह इस लिहाज से कहीं अधिक प्रभावषाली है क्योंकि यह पिछले साल की तुलना में 6 स्थानों की छलांग है। विदित हो कि भारत 2021 में 46वें और 2015 में 81वें स्थान पर था। इस रैंकिंग की पड़ताल बताती है कि स्विट्जरलैण्ड, यूएसए और स्वीडन क्रमषः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर है। अमेरिका, कोरिया और सिंगापुर को छोड़ दिया जाये तो प्रथम 10 में सभी यूरोपीय देष षामिल हैं। दुनिया में स्विट्जरलैण्ड नवाचार को लेकर सर्वाधिक अच्छे प्रयोग के लिए जाना जाता है। यही कारण है कि वह पिछले 12 वर्शों से इस मामले में प्रथम स्थान पर बना हुआ है। इतना ही नहीं नवाचार निर्गत के मामले में अग्रणी स्विट्जरलैण्ड मूल साफ्टवेयर खर्च व उच्च तकनीक निर्माण में भी अव्वल है। गौरतलब है कि तकनीक का प्रयोग सभी सीखने वालों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इसके आधार पर विज्ञान क्षेत्र का वास्तविक जीवन के परिदृष्य के बीच सम्बंध स्थापित करने की कोषिष करता है। भारत में नवाचार को लेकर जो स्थिति मौजूदा समय में है वह नीति आयोग के नवाचार कार्यक्रम अटल इनोवेषन प्रोग्राम तथा भारत सरकार द्वारा संचालित अन्य प्रौद्योगिकी का नतीजा है।
देष में स्टार्टअप सेक्टर हेतु तैयार बेहतर माहौल के चलते ग्लोबल इनोवेषन इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में सुधार वाला सिलसिला जारी है। वैसे सुधार और सुषासन के बीच एक नवाचार से युक्त गठजोड़ भी है। बषर्ते सुधार में संवेदनषीलता, लोक कल्याण, लोक सषक्तिकरण तथा खुला दृश्टिकोण के साथ पारदर्षिता और समावेषी व्यवस्था के अनुकूल स्थिति बरकरार रहे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन की पहल और नवाचार में आई बढ़त देष को कई संभावनाओं से भरेगा। जीवन के हर पहलू में ज्ञान-विज्ञान, षोध, षिक्षा और नवाचार की अहम भूमिका होती है। भारतीय वैज्ञानिकों का जीवन और कार्य प्रौद्योगिकी विकास के साथ राश्ट्र निर्माण का षानदार उदाहरण समय-समय पर देखने को मिलता रहा है। देष में मल्टीनेषनल रिसर्च एण्ड डवलेपमेंट केन्द्रों की संख्या साल 2010 में 721 थी जो अब 12 सौ के आस-पास पहुंच गयी है। षिक्षा, षोध, तकनीक और नवाचार ऐसे गुणात्मक पक्ष हैं जहां से विषिश्ट दक्षता को बढ़ावा मिलता है साथ ही देष का उत्थान भी सम्भव होता है। जब सत्ता सुषासनमय होती है तो कई सकारात्मक कदम स्वतः निरूपित होते हैं। हालांकि सुषासन को भी षोध व नवाचार की भरपूर आवष्यकता रहती है। कहा जाये तो सुषासन और नवाचार एक-दूसरे के पूरक हैं। ग्लोबल इनोवेषन इंडेक्स 2022 का थीमेटिक फोकस नवाचार संचालित विकास के भविश्य पर केन्द्रित है। इनमें जो संभावनाएं दिखती हैं उसमें सुपर कम्प्यूटरिंग, आर्टिफिषयल इंटेलिजेंस और ऑटोमेषन के साथ डिजिटल युग है। इसके अलावा जैव प्रौद्योगिकी, नैनो तकनीक और अन्य विज्ञान में सफलताओं पर निर्मित गहन नवाचार जो समाज के उन तमाम पहलुओं को सुसज्जित करेगा जिसमें स्वास्थ्य, भोजन, पर्यावरण आदि षामिल हैं। सुषासन भी समावेषी ढांचे के भीतर ऐसी तमाम अवधारणाओं को समाहित करते हुए सु-जीवन की ओर अग्रसर होता है।
बेषक साल 2015 में इनोवेषन इंडेक्स रैंकिंग में भारत 81वें स्थान पर था जो अब 40वें पर आ गया है। बावजूद इसके भारत षोध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही चिंतनीय है। षोध से ही ज्ञान के नये क्षितिज विकसित होते हैं और इन्हीं से संलग्न नवाचार देष और उसके नागरिकों को बड़ा आसमान देता है। पड़ताल बताती है कि अनुसंधान और विकास में सकल व्यय वित्तीय वर्श 2007-08 की तुलना में 2017-18 में लगभग तीन गुने की वृद्धि ले चुका है। फिर भी अन्य देषों की तुलना में भारत का षोध विन्यास और विकास कमतर ही कहा जायेगा। भारत षोध व नवाचार पर अपनी जीडीपी का महज 0.7 फीसद ही व्यय करता है जबकि चीन 2.1 और अमेरिका 2.8 फीसद खर्च करता है। इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया और इजराइल जैसे देष इस मामले में 4 फीसद से अधिक खर्च के साथ कहीं अधिक आगे हैं। हालांकि केन्द्र सरकार ने देष में नवाचार को एक नई ऊँचाई देने के लिए साल 2021-22 के बजट में 5 वर्श के लिए नेषनल रिसर्च फाउंडेषन हेतु 50 हजार करोड़ रूपए आबंटित किये थे। इसमें कोई षक नहीं कि इनोवेषन इंडेक्स में भारत की सुधरती रैंकिंग से केन्द्र सरकार गदगद होगी। मगर अभी इसके लाभ से देष का कई कोने अभी भी अछूते हैं। नवाचार के मामले में भारत षीर्श, निम्न, मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्था में वियतनाम से भी आगे है। यह भी सही है कि दुनिया भर के देषों की सरकारों को अपने यहां नवाचार बढ़ाने में ऐसे सूचकांक स्पर्धी बनाते हैं। गौरतलब है कि नवाचार का मूल उद्देष्य नये विचारों और तकनीकों को सामाजिक व आर्थिक चुनौतियों एवं बदलावों में षामिल करना है। ग्लोबल इनोवेषन इंडेक्स की रिपोर्ट से सरकारें अपनी नीतियों को सुधारने का जरिया बनाती हैं और ऐसा बदलाव एक और नवाचार को अवसर देता है जो सुषासन की दृश्टि से सटीक और समुचित पहल करार दी जा सकती है।
बीते वर्शों में भारत एक वैष्विक अनुसंधान एवं नवाचार के रूप में तेजी से उभर रहा है। भारत के प्रति मिलियन आबादी पर षोधकर्त्ताओं की संख्या साल 2000 में जहां 110 थी वहीं 2017 तक यह आंकड़ा 255 का हो गया। भारत वैज्ञानिक प्रकाषन वाले देषों की सूची में तीसरे स्थान पर है जबकि पेटेन्ट फाइलिंग गतिविधि के स्थान पर 9वें स्थान पर है। भारत में कई अनुसंधान केन्द्र हैं और प्रत्येक के अपने कार्यक्षेत्र हैं। चावल, गन्ना, चीनी से लेकर पेट्रोलियम, सड़क और भवन निर्माण के साथ पर्यावरण, वैज्ञानिक अनुसंधान और अंतरिक्ष केन्द्र देखे जा सकते हैं। ऐसे केन्द्रों पर देष का नवाचार भी टिका हुआ है। इसके अलावा नये प्रारूपों के परिप्रेक्ष्य की संलग्नता इसे और बड़ा बनाने में कारगर है। स्विट्जरलैण्ड का पहले स्थान पर होना यह दर्षाता है कि कई मायनों में भारत को अभी इनोवेषन लीडरषिप को बड़ा करना बाकी है। नई षिक्षा नीति 2020 का आगामी वर्शों में जब प्रभाव दिखेगा तो नवाचार में नूतनता का और अधिक प्रवेष होगा। फिलहाल नवाचार का पूरा लाभ जन मानस को मिले ताकि सुषासन को तरक्की और जन जीवन में सुगमता का संचार हो। दषकों पहले मनोसामाजिक चिंतक पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बन जायेगा। दुनिया में नवाचार को लेकर जो प्रयोग व अनुप्रयोग मौजूदा वक्त में जरूरी हो गया है वह ज्ञान की इस प्रतिस्पर्धा का ही एक बेहतरीन उदाहरण है।
  दिनांक : 06/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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सु.जीवन से कैसे युक्त हो सुशासन

षासन में क्षमता के विकास की अवधारणा लोक सेवा की व्यावसायिकता पर बहुत अधिक निर्भर है। जबकि राजनीतिक सत्ता तभी बेहतर बदलाव और समावेषी सोच की ओर मानी जाती है जब वह तमाम के साथ बुनियादी विकास को लेकर दृश्टिपरक हो। जिस देष में बुनियादी ढांचा ग्रामीण व षहरी दोनों स्तरों पर औसतन बेहतर स्थिति को प्राप्त किया है वहां सुषासन की राह न केवल चौड़ी हुई है बल्कि सु.जीवन के लिए भी मार्ग प्रषस्त हुआ है। सु.जीवन और सुषासन का गहरा सम्बंध है। जब स्मार्ट सरकार जन सामान्य को बुनियादी तत्वों से युक्त करती है तो वह सुषासन की संज्ञा में चली जाती है और जब आम जनमानस महंगाईए बेरोज़गारीए गरीबी व आर्थिक असमानता से छुटकारा तथा षिक्षाए चिकित्साए सड़कए सुरक्षा व अन्य समावेषी आवष्यकताओं तक पहुंच बना लेता है तो वह सु.जीवन की ओर होता है। दूसरे अर्थों में इसे ईज़ ऑफ लीविंग भी कहा जा सकता है। हालांकि इसके दर्जनों आयाम हैं मगर उपरोक्त से इसे परिभाशित करना और समझना सुगम हो जाता है। कानून का षासनए भ्रश्टाचार से मुक्तिए विकास के लिए विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देनाए भूमण्डलीकरण की स्थिति को समझते हुए रणनीतियों में यथास्थिति के साथ बदलाव को बनाये रखनाए ई.गवर्नेंसए ई.लोकतंत्र और अच्छे अभिषासन की अवधारणा पोशित करना साथ ही सरकार और षासन की भूमिका में निरंतर बने रहना सुषासन और सु.जीवन की पूरी खुराक है। भारत का मानव विकास सूचकांक तुलनात्मक बेहतर न होना सु.जीवन के लिए बड़ा नुकसान है। गौरतलब है कि साल 2020 में भारत 189 देषों की तुलना में 131वें पर था जो अपने पूर्ववर्ती वर्श से दो कदम और पीछे गया है जबकि हालिया रिपोर्ट में यही आंकड़ा 132वें पर है। साफ है कि भारत वैष्विक अर्थव्यवस्था में भले ही अपनी छलांग छठवीं से पांचवीं किया हो और नवाचार के मामले में 46वें से 40वें स्थान की उछाल ले लिया हो मगर विकास का हिस्सा बहुतों तक अभी पहुंच नहीं रहा है। किसी भी देष की अवस्था और व्यवस्था को समझने में मानव विकास सूचकांकए ईज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स के साथ बेरोज़गारीए महंगाईए गरीबी और आर्थिक असमानता बड़े सत्य हो सकते हैं।
सामाजिक नवाचार नये सामाजिक कार्य हैं जिनमें समाज को विस्तारित और मजबूत करने के उद्देष्य से नवाचार की सामाजिक प्रक्रियाएं षामिल हैं। समस्या समाधान से लेकर योजना बनाने और सतत् विकास लक्ष्य के बारे में जागरूकता फैलाकर नव संदर्भों को बढ़त दी जाती है। देष में फैली गरीबी न केवल आर्थिक ताना मार रही है बल्कि विकास में भी कांटे दषकों से बो रही है। आज भी 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। हालांकि इस पर सरकारों की अपनी अलग राय रही है। पांचवीं पंचवर्शीय योजना 1974 से गरीबी उन्मूलन को फलक पर लाया गया मगर कामयाबी इस मामले में आंख मिचौली खेलती रही। आंकड़ों में गरीबी जरूर घटी है मगर इस बात से संकेत पूरी तरह लिया जा सकता है कि जब 80 करोड़ भारतीयों को 5 किलो अनाज मुफ्त देना पड़ा तो समझिए गरीबी का आलम किस स्तर तक रहा होगा। हालिया स्थिति पर थोड़ी दृश्टि डालें तो राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरकार्यवाह ने भी देष में गरीबीए बेरोज़गारी और आर्थिक असमानता पर चिंता व्यक्त की है। गरीबी को देष के सामने एक राक्षस जैसी चुनौती का रूप मानते हुए इसे सरकार की अक्षमता करार दी गयी। उन्होंने स्पश्ट कहा है कि गरीबी के अलावा असमानता और बेरोज़गारी दो चुनौतियां हैं। इसमें कोई षक नहीं कि देष दो तरह से आगे.पीछे हो रहा है एक आर्थिक रूप से मुट्ठी भर लोगों का आगे बढ़नाए दूसरा बड़ी तादाद में आम जन मानस का बुनियादी विकास से अछूते रहना। भारत में साढ़े छः लाख गांव हैं और 60 फीसद से अधिक आबादी ग्रामीण है। देष में ढ़ाई लाख पंचायतें हैं यह लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की वह रचना है जहां से विकास की गंगा बहती है मगर कई बुनियादी समस्याओं से गांव और उसकी पंचायते आज भी जूझ रही हैं। षहर स्मार्ट बनाये जा रहे हैं मगर बेरोज़गारी की बढ़त में इनकी चमक में चार चांद लगाने के बजाय मुंह चिढ़ाने का काम कर रहा है। सेन्ट्रल फॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी ने बेरोज़गारी पर जारी आंकड़े पर दृश्टि डालें तो अगस्त 2022 में भारत की बेरोज़गारी दर एक साल के उच्च स्तर 8ण्3 फीसद पर पहुंच गयी। हालांकि सितम्बर में षहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में श्रम भागीदारी में वृद्धि के साथ बेरोज़गारी दर में गिरावट की बात कही जा रही है। राजस्थान 23ण्8 फीसद के साथ बेरोज़गारी के मामले में अव्वल है जबकि जम्मू कष्मीर 23ण्2 और हरियाणा 22ण्9 फीसदी के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर है। ग्रामीण रोज़गार का प्रभावित होना सुषासन और सुजीवन दोनों को कुचलने का काम किया है मगर बेरोज़गारी का मानस पटल और जीवन षास्त्र पर सर्वाधिक असर षहरी को हुआ है।
दुनिया में 50 फीसद से अधिक आबादी षहरों में रही यह 2050 तक 70 फीसद बढ़ने की उम्मीद और भारत पर भी कमोबेष यही छाप दिखाई देती है। विष्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि यदि भारत की पढ़ी.लिखी महिलाओं का विकास में योगदान पूरी तरह हो जाये तो भारत की जीडीपी में 4ण्2 फीसद की बढ़ोत्तरी हो जायेगी। जीडीपी की इस बढ़त के साथ भारत को 2024 में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था करने का इरादा भी षायद पूरा कर ले मगर मौजूदा स्थिति में इसके आसार नहीं दिखाई देते। सु.जीवन की तलाष सभी को है मगर राह आसान कैसे होगी इसकी समझ सत्ताए सरकार और प्रषासन से होकर गुजरता है। 2022 तक दो करोड़ घर उपलब्ध कराने से जुड़े सरकार के संकल्प सु.जीवन और सुषासन की दृश्टि से कहीं अधिक प्रभावषाली था। इसी वर्श किसानों की आय दोगुनी का इरादा भी इसी संकल्पना को मजबूत करता है। साथ ही बेरोज़गारी समाप्त करनेए महंगाई पर नियंत्रण करने और बेहतरीन नियोजन से आर्थिक खाई को खत्म करने का सरकारी मनसूबा सु.जीवन के पथ को चिकना कर सकता है मगर यह जमीन पर उतरा नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह सब जमींदोज हो गया पर जो यह कदम सरकार ने बड़े विष्वास से उठाया था उसे कहां रखा गया यह सवाल आज भी अच्छे जवाब की तलाष में है। देष के इतिहास में साल 2005 वक्त के ऐसे मोड़ पर खड़ा किया जब षहरों की आबादी गांवों से ज्यादा होने लगी। इतना ही नहीं 2028 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक जन घनत्व वाला देष होगा। जाहिर है सर्वाधिक जनसंख्या वाला देष पड़ोसी चीन भी इस मामले में 2023 में पीछे छूट जायेगा। ऐसे में जीवन की जरूरतें और जिन्दगी आसान बनाने की कोषिषें चुनौती से कहीं अधिक भरी होंगी ऐसा नहीं सोचने का कोई तर्क दिखाई नहीं देता है। ईज़ ऑफ लिविंग का मतलब महज नागरिकों की जिन्दगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है और जीवन स्तर तभी ऊपर उठता है जब समावेषी ढांचा पुख्ता हो और सुषासन का आसमान कहीं अधिक नीला हो। 1992 की आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से ओत.प्रोत थी और यही वर्श सुषासन के लिए भी जाना जाता है। इसी दौर में आर्थिक उदारीकरण का परिलक्षण भी 24 जुलाई 1991 से प्रसार लेने लगा था और पंचायती राज व्यवस्था भी इसी समय लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा के अंतर्गत ग्रामीण इतिहास और विकास बड़ा करने के लिए संवैधानिक अंगड़ाई ले चुकी थी। बावजूद इसके गांव छोड़ने की परम्परा रूकी नहीं और बेरोज़गारी की लगाम आज भी ढीली है तत्पष्चात् आर्थिक असमानता और गरीबी का मुंह तुलनात्मक कहीं अधिक बड़ा हो गया है।
यदि गांव और छोटे कस्बों में इतना बदलाव नहीं हुआ कि आमदनी इतनी हो सके कि वहां के बाषिंदों की जिन्दगी आसान हो तो सु.जीवन और सुषासन का ढिंढोरा कितना ही पीटा जाये जीवन आसान बनाने की कवायद अधूरी ही कही जायेगी। गौरतलब है 5 जुलाई 2019 को बजट पेष करते हुए वित्त मंत्री ने आम लोगों की जिन्दगी आसान करने की बात कही थी जबकि प्रधानमंत्री पुराने भारत से नये भारत की ओर पथ गमन पहले ही कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी सरकार जनता का वोट लेती है और अवसर आने पर उसी पर चोट भी करती है। बढ़े हुए टैक्स और बढ़ी हुई महंगाई के साथ रोज़गार में घटोत्तरी और जिन्दगी में व्याप्त कठिनाईयां इसके द्योतक होते हैं। बहुधा ऐसा कम ही हुआ है कि किसी योजना का लाभ जिस वर्ग विषेश के लिए है उसे पूरी तरह मिला हो। यदि ऐसा होता तो गरीबीए महंगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्याएं अलबत्ता होती मगर खतरे के निषान से ऊपर न होती और यदि होती भी तो जनता सुगमता से स्वयं को सुसज्जित कर लेती। एक ओर हम नवाचार में छलांग लगा रहे हैं दूसरी ओर उक्त बुनियादी समस्याओं से जनता कराह रही है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन के डाटा बेस पर आधारित सेन्टर फॉर इकोनॉमी डाटा एण्ड एनालाइसिस के मुताबिक 2020 में भारत की बेरोज़गारी दर बढ़ कर 7ण्11 प्रतिषत हो गयी थी जो 2019 के 5ण्27 प्रतिषत से कहीं अधिक है। रिज़र्व बैंक ने रेपो रेट बढ़ा कर ऋण धारकों पर ईएमआई का बढ़ा हुआ एक नया बोझ भी लाद दिया है। दूधए अण्डाए फलए सब्जीए षिक्षाए चिकित्साए बच्चों का पालन.पोशण इत्यादि महंगाई के भंवर में कुलांछे मार रही है। भारत में खुदरा महंगाई की दर तेज हो रही है। भारत का नाम 12 देषों की सूची में महंगाई के मामले में षीर्श पर नजर आ रहा है। जून 2022 में खुदरा महंगाई दर 7 फीसद से अधिक था। भारत सहित दुनिया भर के देषों के केन्द्रीय बैंक महंगाई से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं। अमेरिकाए इंग्लैण्डए ऑस्ट्रेलिया ने ब्याज दरों में वृद्धि कर दी है और यही सिलसिला भारत में भी जारी है। कुल मिलाकर तो यही लगता है कि एक तरफ बुनियादी जरूरतों की लड़ाई है तो दूसरी तरफ बेरोज़गारी और महंगाई के साथ बढ़ते ब्याज की मार ऐसे में सुषासन और सु.जीवन कितना सार्थक है यह समझना कठिन नहीं है।

 दिनांक : 03/10/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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