Wednesday, July 25, 2018

स्विस बैंक के काले धन पर सफेद सियासत

जब किसी एक बिन्दु पर संदेह गहराने लगे और सरकार सही जवाब की तलाष में काफी कुछ दांव पर लगा दे तो समझिये मुद्दा गरम हो चला है और मामला काले धन से जुड़ा हो तो गरम ही नहीं मुद्दा उबाल मारने लगता है। इन दिनों भारत की सियासत में सत्ता और विपक्ष के बीच ऐसी ही कुछ स्थिति बनी है। काले धन के मुद्दे को हवा देने में जुटी कांग्रेस को उल्टे सत्ता पक्ष ने ही कुछ इस तरह घेर लिया कि उसकी हवाईयां उड़ने लगी। सरकार का दावा है कि स्विट्जरलैण्ड से आधिकारिक जानकारी मंगा कर 2016 के मुकाबले 2017 में स्विस बैंकों में भारतीयों का राषि जिसमें लोन व डिपोज़िट खाते में 34.5 फीसद की कमी हुई जबकि साल 2013 से 2017 के बीच व्यक्तिगत या काॅरपोरेट खाते के माध्यम से स्विस बैंकों में रखी जाने वाली राषि में 80.2 फीसदी की कमी आयी है। सरकार की ओर से यह बयानबाजी इसलिये गले नहीं उतर रही है क्योंकि बीते जून के आखिर में स्विस नेषनल बैंक के हवाले से यह कहा गया कि 2017 में स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राषि में 50 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विपक्ष ने सरकार को घेरने का प्रयास किया था जिस पर सरकार ने ऐसा नहले पर दहला चला है कि सभी के होष पुख्ता हो गये हैं। दो तरह के बयानों के चलते देष में एक भ्रामक स्थिति पैदा हो गयी है। मौजूदा वित्त मंत्री पीयूश गोयल जिस तरह आत्मविष्वास से भर कर विपक्ष को काले धन का चित्र दिखा रहे हैं उससे किसी का भी चष्मा धुंधला हो सकता है। सवाल यह है कि जून में जारी रिपोर्ट सही है या फिर सरकार ने जो अधिकारिक जानकारी मंगाई है वह पुख्ता है। अभी भी स्थिति भ्रम में है। आम तौर पर या तो ऐसे मुद्दे वक्त के साथ अभिरूचि के विशय नहीं रह जाते या फिर लोग इसे झमेला मान कर आगे बढ़ जाते हैं।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर सत्ता और विपक्ष सियासी चाल चलने में लग गये हैं। राफेल और काले धन को विपक्ष बड़ा मुद्दा बनाना चाहता है जबकि सरकार दोनों मामले में अपनी नाक ऊंची रखना चाहती है। सरकार यह भी कह रही है कि स्विस बैंक का सारा पैसा काला धन नहीं है पर यह कौन बतायेगा कि कितना काला और कितना सफेद है। इसका आंकड़ा तो सही मायने में सरकार के पास भी नहीं। जब मोदी सरकार सत्ता में आयी थी तो स्विस बैंक में जमा राषि के मामले में भारत 61वें स्थान पर था। 2015 में यह 75वें स्थान पर चला गया, साल 2016 में काला धन जमा की राषि में 44 फीसदी की घटोत्तरी बतायी गयी जिसके परिणामस्वरूप भारत 88वें स्थान पर खिसक गया। परन्तु 2017 में 50 फीसदी बढ़त के साथ अब इसकी पोजिषन 73वें पर है जबकि सरकार मोदी षासनकाल के पूरे अनुपात को 80 फीसदी काले धन की जमा में गिरावट बता रही है। गौरतलब है कि इस मामले में इंग्लैण्ड पहले नम्बर पर और अमेरिका दूसरे नम्बर पर आता है जबकि पड़ोसी पाकिस्तान 72वें स्थान पर है। काला धन विरोधी हो या सत्ताधारी दोनों को षूल की तरह चुभ रहा है पर इससे मुक्ति कैसे मिले राह किसी के पास नहीं है। हालांकि 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री मोदी षपथ लेते ही काले धन पर एक एसआईटी गठित की थी। उसी साल 20 नवम्बर को आॅस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में होने वाले जी-20 सम्मेलन में काले धन का मुद्दा जोर-षोर से उठाया जिस पर अमेरिका, रूस और चीन समेत सभी देषों की रजामंदी भी थी। मोदी का यह प्रयास काफी सराहनीय था। वैष्विक मंच पर काला धन और आतंक के मामले में मोदी ने हर बार बात उठायी है पर अभी उसका पूरा लाभ काले धन के मामले में मिल नहीं पाया। बीते वर्शों तय हुआ था कि जनवरी 2019 से स्विस बैंक जमा धन पर जानकारी आदान-प्रदान करने लगेगा जिसमें अभी थोड़ा वक्त बाकी है। 
सरकार चतुर होती है यह आरोप लगाना कोई दुश्कर कृत्य नहीं है। काला धन को एजेण्डे में षामिल कर मोदी 2014 में सत्ता के गलियारे तक पहुंचे थे कुर्सी भी मिली और सत्ता का अंतिम वर्श भी चल रहा है पर काला धन अभी भी स्याह बना हुआ है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि इस मसले पर भारत के पास ठोस रणनीति का हो सकता है आभाव न रहा हो पर दूसरे देषों के साथ आर्थिक प्रतिपुश्टि व अन्तर्राश्ट्रीय कानून जरूर आड़े आया है। स्विस बैंक ने बाद में स्पश्ट किया कि भारत को 2018 तक सूचनाओं के आदान-प्रदान के मामले में इंतजार करना पड़ेगा। असल में काला धन की वापसी का मामला एक बेहतर सफेद नीति पर निर्भर है परन्तु सियासत में इसकी सम्भावना कम ही रहती है। सरकार ने जो आंकड़े दिये है उस पर पूरा भरोसा करना मुष्किल हो रहा है और राफेल डील के मामले में सरकार की सफाई सुनकर विपक्ष पर भी पूरा भरोसा करना मुमकिन नहीं है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि सियासतदान अवसर और दस्तूर देखकर अपनी राजनीति चमकाते हैं और ऐसे भ्रमों का सहारा लेकर जनता से वोट हथियाते हैं। यह बात कितनी वाजिब है कि जिस मोदी सरकार ने सौ दिन के भीतर काला धन लाने का वायदा किया आज चार साल से अधिक सरकार चलाने के बाद काला धन तो लाना छोड़िये उसका ठीक से हिसाब बताना भी मुष्किल हो रहा है। सरकार के कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूश गोयल स्विटजरलैण्ड की आधिकारिक जानकारी का हवाला देकर राहुल गांधी पर देष की छवि धूमिल करने का आरोप लगा रहे हैं जबकि राहुल गांधी स्विस नेषनल बैंक की जून में जारी रिपोर्ट का हवाला देकर ही सरकार को घेर रहे हैं। कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ पता करना इस समय तो मुष्किल है लेकिन भ्रम में सभी फंसे हैं यह साफ दिख रहा है। 
सब कुछ के बाद सवाल उठता है कि क्या सियासत के पथ को चिकना करने की फिराक में आंकड़ों में हेरफेर किया जा सकता है। राहुल गांधी विपक्ष के नेता के रूप में ब्राण्ड बनने की फिराक में है। कांग्रेस भी उन्हें मोदी के मुकाबले इसी रूप में पेष करने की कवायद में आ चुकी है। बीते 20 जुलाई को अविष्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का भाशण और बाद में प्रधानमंत्री मोदी के भाशण को लेकर बड़ी तुलना हो रही है। लगभग यह संकेत मिल चुका है कि 2019 का चुनाव राहुल बनाम मोदी हो सकता है। यदि ऐसा है तो राहुल गांधी मुख्य विपक्षी होने के नाते सरकार पर जो आरोप लगायेंगे उसका जवाब दिये बिना सरकार बच नहीं सकती। षायद यही वजह है कि अविष्वास प्रस्ताव के दिन दर्जनों मुद्दों में से कहीं अधिक संवेदनषील राफेल और काले धन के मुद्दे पर सरकार विपक्ष का मुंह बंद कराना चाहती है। इसीलिए आनन-फानन में कांग्रेस के आरोप के उलट मजबूत जवाब के साथ पीयूश गोयल राहुल पर प्रहार कर रहे हैं। सवाल राहुल तक का नहीं है सवाल उन आर्थिक विषेशज्ञों का भी है जो ऐसे मामलों से ताल्लुकात रखते हैं। भले ही सियासत में तेवर के साथ बात कह कर मुद्दे को रफा-दफा कर दिया जाय पर वोटरों में यदि भ्रम चला गया तो यह किसी के लिये भी बड़ा नुकसान कर सकता है। किसानों की समस्या और युवाओं में व्याप्त बेरोजगारी समेत कई ऐसी प्रमुख आधारभूत समस्याएं उफान मार रही हैं जिसे लेकर जनमानस सरकार से निराष भी हैं। जवाबदेही सरकार की है कि सबके लिये सही रास्ता निकाले यदि भ्रम है तो भी इसको दूर करे। केवल सांख्यिकीय चेतना में उलझाकर बात को इतिश्री नहीं माना जा सकता। इसके लिये अच्छी कोषिष और सुन्दर सरकार का स्वरूप दिखाना होगा। यह तभी होगा जब कम से कम काले धन पर लोगों के स्याह मन को सरकार उजला कर देगी न कि उलझा कर वोट का हथियार बनाती रहेगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

पाकिस्तान में चुनाव पर नाउम्मीद भारत

बीते 25 जुलाई को पाकिस्तान में चुनाव सम्पन्न हुआ जिसके नतीजे आने बाकी हैं। षायद कई दषकों के बाद यह पहला अवसर होगा जब चुनाव को लेकर न तो भारत उत्साहित है और न ही नई सत्ता से कोई उम्मीद रखता है। इसके पीछे बरसों से पाकिस्तान से चल रहे खराब रिष्ते तो हैं ही साथ ही एक वजह यह भी है कि पाकिस्तानी सेना के इषारे पर यहां बहुत कुछ हो रहा है। वैसे साफ-साफ देखा जाय तो जेल काट रहे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ और पूरे पाकिस्तान में हंगामा काटने वाले क्रिकेटर से राजनेता बने तहरीक-ए-इंसाफ के इमरान खान के बीच कांटे की टक्कर है। माना तो यह भी जा रहा है कि यदि इमरान खान सत्ता में आते हैं तो भारत से अच्छे सम्बंध मुष्किल में रहेगा इसका एक बड़ा कारण इमरान के साथ खड़ी पाकिस्तानी सेना को देखा जा सकता है। पाकिस्तान की सत्ता में सेना, आईएसआई समेत आतंकियों का घोर दखल हमेषा से रहा है। अब तो आतंकी सरगना हाफिज़ सईद भी चुनावी मैदान में है। सेना की दखलअंदाजी किसी से छुपी नहीं है। यहां की नीतियों पर इसका पूरा प्रभाव दिखता भी है। दो टूक यह भी है कि पाकिस्तान में इस बार का चुनाव आषंका से भी ग्रस्त है और चिंता से भी। नवाज़ षरीफ पहले भी आरोप लगा चुके हैं कि इमरान के साथ सेना खड़ी है और इमरान खान बरसों से नवाज़ षरीफ की सत्ता उखाड़ने के लिये इस्लामाबाद की सड़कों पर कई बार ताण्डव कर चुके हैं। इमरान ने षरीफ का जितना लानत-मलानत किया षायद ही किसी और ने ऐसा किया हो। देखा जाय तो दोनों के बीच सियासी दुष्मनी बरसों पुरानी है और इस बार के चुनाव में टक्कर इन्हीं के बीच मानी जा रही है। हालांकि प्रत्यक्ष रूप से नवाज़ षरीफ चुनाव में उपलब्ध नहीं है पर उनके भाई षहबाज़ षरीफ ताल ठोंक रहे हैं। गौरतलब है कि चुनाव से ठीक पहले इंग्लैण्ड से सजायाफ्ता नवाज़ षरीफ ने एंट्री मारकर इमरान का खेल भी काफी बिगाड़ दिया है अन्यथा इमरान की गद्दी लगभग तय थी। 
पाकिस्तान में सम्पन्न चुनाव को लेकर अटकलों का बाजार इसलिए भी गरम है क्योंकि इस सियासत का पाक के अंदर और बाहर कई मायने हैं। एक तरफ पाकिस्तान के भीतर बेलगाम आतंक को समाप्त करना नई सरकार की चुनौती होगी तो दूसरी तरफ भारत के साथ नये सिरे से कूटनीति भी करवट लेगी। हालांकि इस मामले में भारत का उत्साह फीका है क्योंकि पाकिस्तान की लगभग सरकारों ने नाउम्मीदी ही दी है। अमेरिका का दबाव पाकिस्तान पर इन दिनों दो तरफा है एक आतंक के खात्मे को लेकर तो दूसरे आर्थिक प्रतिबंध के चलते उसकी समस्या गहरा गयी है। पाकिस्तान में गरीबी, बेरोज़गारी और बीमारी का खुल्लम-खुल्ला खेल देखा जा सकता है। भारत से दुष्मनी निभाने की फिराक में पाकिस्तान अपने को सदियों पीछे धकेल चुका है। इतना ही नहीं बीते तीन दषकों से पाक अधिकृत कष्मीर समेत करांची और लाहौर में तो आतंकियों के बड़े-बड़े विष्वविद्यालय खोल दिये गये। आन्तरिक कलह से भी वह इतना जूझ रहा है कि ब्लूचिस्तान अलगाव की कगार पर है जबकि पाक अधिकृत कष्मीर में इस्लामाबाद के नारे लगते हैं और वे भी पाक की जलालत से मुक्ति चाहते हैं। मौजूदा स्थिति में तो पाकिस्तान तीन धड़ों में बंटा दिखता है। चीन का व्यापक पैमाने पर कर्जदार बना पाकिस्तान इन दिनों तो मानो पूरी दुनिया से ही कटा हो। हालांकि इस मामले में मौजूदा भारत सरकार की बड़ी भूमिका है। दुनिया के मंचों पर प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान में पनपे और पोशित किये गये आतंकवाद को लेकर जो आवाज उठायी उसका खामियाजा भी पाकिस्तान भुगत रहा है। बावजूद इसके भारत से छद्म युद्ध करने से वह बाज नहीं आ रहा है। बेहिसाब समस्याओं से ग्रस्त पाकिस्तान भारत को आंख दिखाता है जबकि पाक नागरिकों की हालत इतनी बद्तर है कि वहां बुनियादी समस्याओं से एक बड़ी जनसंख्या जूझ रही है। 10 करोड़ से अधिक मतदाता वाले पाकिस्तान में भले ही नई सरकार का आगाज हो रहा हो पर उसकी तकदीर तभी बदलेगी जब जब बदले की भावना और आतंक से विमुख होकर पाकिस्तान राह चुनेगा। षहबाज़ षरीफ कह रहे हैं वे भारत से अच्छा पाकिस्तान बनायेंगे यह बात अभी तक समझ में नहीं आयी कि ऐसा वे क्यों बोल रहे हैं। दो टूक यह भी है कि सरकार चाहे षरीफ घराने में जाये या इमरान के साथ हो या फिर गठबंधन की हो जिस मोड़ पर भारत-पाक रिष्ते हैं उसमें सुधार की गुंजाइष बहुत कम दिखाई देती है।
 सर्वे भी यह बता चुके हैं कि पूर्ण बहुमत की स्थिति से पाकिस्तान की सरकार दूर हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ को वहां की उच्चत्तम न्यायालय ने पार्टी और पद दोनों से बेदखल कर दिया है फिर भी यहां पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (पीएमएलएन) को नवाज़ षरीफ की पार्टी के रूप में सम्बोधित करते हुए बात आगे कहने का प्रयास है कि तहरीक-ए-इंसाफ के अलावा बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) भी पूरी ताकत लगाये हुए है। इतना ही नहीं आतंकी हाफिज़ सईद ने मिल्ली मुस्लिम लीग पार्टी बनाकर जिन लोगों को चुनाव के लिये संगठित किया था उन्हें पार्टी का रजिस्ट्रेषन न होने की स्थिति में अल्लाहो अकबर तहरीक (एएटी) से मैदान में उतार दिया। इसके अलावा पाकिस्तान के कई छोटे-मोटे राजनीतिक दल मसलन तहरीक-ए-लब्बैक पाक, अल्लाह-ए-सुन्नत, मजलिस-ए-अमल आदि भी चुनावी मैदान में है। ये सभी पार्टियां धार्मिक हैं जिनके आपसी टकराव के चलते चुनाव परिणाम आने तक स्थिति संवेदनषील रह सकती है। पूरे देष में 85 हजार मतदाता केन्द्र में लगभग 4 लाख सैनिक तैनात किये गये। यह पाकिस्तान के चुनाव के बीच हिंसा के डर से यह सब किया गया। पिछले 2013 के आम चुनाव में नवाज़ षरीफ की पीएमएल (एन) 126 सीटों के साथ सत्ता में आयी थी जबकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी 31 स्थानों पर चुनाव जीता था और इमरान खान की पार्टी उम्मीद से कहीं अधिक पीछे थी। पाकिस्तान की नेषनल असेम्बली 342 सदस्यीय है हालांकि सीधे चुनाव 272 सीटों के लिये होता है जिसमें बहुमत का आंकड़ा 137 है। बाकी 70 सीटें महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिये आरक्षित की गयी हैं। खास यह भी है कि पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि जब किसी दल ने कार्यकाल पूरा किया। पाकिस्तान में एक बात यह भी रही है कि जो पंजाब जीतता है वही सत्ता में आता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस बार करांची से भी चैंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं। हालांकि ब्लूचिस्तान, खैबर पख्तुनख्वा और सिंध के वोटरों में बेहद उत्साह की कमी भी देखी गयी। 
सवाल है कि पाक में नई सरकार की ताजपोषी के बाद क्या भारत से वह रिष्ता सही रखेगा। गौरतलब है कि मई 2014 में मौजूदा मोदी सरकार जब अपने षपथ ग्रहण के समय सार्क देषों के सभी प्रधानमंत्रियों को आमंत्रित किया था जिसमें नवाज़ षरीफ की उपस्थिति दिल्ली में थी। गौरतलब है कि जब नई सत्ता देष में आती है तो पड़ोसी देषों को भी बेहतर सम्बंध की उम्मीद होती है। भारत बीते चार सालों में पड़ोसियों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरा उतरा पर पाकिस्तान इस मामले में फिसड्डी सिद्ध हुआ है। हद तो तब हो गयी जब 25 दिसम्बर 2015 को बिना किसी नियोजन के मोदी षरीफ से मिलने लाहौर गये और 1 जनवरी 2016 को पठानकोट में पाक प्रायोजित आतंकवादियों ने हमला कर दिया। यह कैसा सम्बंध है जब-जब भारत पाक पर भरोसा किया तब-तब उसे धोखा मिला। तीन दषकों का इतिहास ऐसे ही धोखाधड़ी से भरा है कभी सेना तो कभी आतंकियों के दबाव से युक्त पाक की सरकारें भारत के लिये जहर बोती रही और भारत बार-बार उम्मीद करता रहा। षायद यही वजह है कि सीमा के पार नई सरकार के गठन की कवायद चल रही है और भारत के भीतर उसे लेकर कोई खास चर्चा नहीं है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, July 23, 2018

.. तो क्या 2019 राहुल बनाम मोदी होगा !

जैसा प्रतीत हो रहा था हूबहू वैसा ही हुआ। कांग्रेस 2019 के लोकसभा का चुनाव राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाकर और समान विचार वाले दलों से समझौता करके लड़ने का इरादा जता दिया है। साथ ही यह भी तय कर दिया है कि सहयोगियों के बूते वह 300 सीट जीतना चाहेगी जबकि अकेले के बूते आंकड़ा इससे आधा बता रही है। बीते 20 जुलाई को अविष्वास प्रस्ताव की रस्म अदायगी पूरी हुई जो दिन में राहुल बनाम मोदी और रात में मोदी बनाम राहुल हो गया था। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण कहता है कि 2014 के चुनाव के बाद कांग्रेस एक अस्वस्थ राजनीति की ओर चली गयी है। लगातार विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिये निराषा के अलावा कुछ नहीं दिये। हालांकि पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की और मणिपुर तथा गोवा में सत्ता के समीप रही पर सरकार भाजपा के हिस्से आयी। गुजरात और हिमाचल में भी मोदी मैजिक जारी रहा जबकि उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में तो मोदी मैजिक सर चढ़कर बोला। हालांकि बीते मई में कर्नाटक मंे गठबंधन के साथ सत्ता में आकर कांग्रेस ने अपनी सियासत को थोड़ा धारदार किया है मगर पड़ताल बताती है कि भारत के कुल 29 राज्यों में जमा 5 में यह सिकुड़ कर रह गयी है जो उसके सियासत में सबसे खराब दौर है। लोकसभा का चुनाव अगले वर्श होना है इन चार सालों में मोदी सरकार ने कुछ अच्छे तो कुछ कठघरे में खड़े होने वाले काम भी किये हैं। अविष्वास प्रस्ताव के समय राहुल गांधी बदले तेवर में सरकार की कमजोरियां बता रहे थे जिसमें किसानों के मुद्दे, बेरोजगारी, भागीदारी, देष में बिगड़ी कानून-व्यवस्था समेत राफेल डील को लेकर कई सवाल खड़े किये। 11 घण्टे से अधिक उस दिन सदन की कार्यवाही चली और विभिन्न दलों के दर्जनों लोकसभा सदस्य व मंत्री अपना-अपना भाशण दिये। सत्ता के विरोध में जो भाशण था कमोबेष राहुल गांधी के मुद्दों के इर्द-गिर्द था जिससे लगा कि सरकार के सामने कांग्रेस ही विरोधी के तौर पर है और केन्द्र में राहुल गांधी है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि अविष्वास प्रस्ताव से जुड़ी पूरी कार्यवाही मोदी बनाम राहुल था। तो क्या यह मान लिया जाय कि जिस मुद्दों पर राहुल गांधी ने सदन में दमखम दिखाया वही 2019 की लोकसभा में भी रहेगा और सरकार जिस तरह सफाई देकर अपना बचाव किया और आंकड़ों के साथ विपक्ष को चित्त करने की कोषिष की उससे यही लगता है कि सदन में राहुल ने मोदी को और बाद में मोदी ने राहुल को जवाब दिया। यदि ऐसा है तो बीते 22 जुलाई को राहुल गांधी को कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रधानमंत्री के रूप में जो पेषगी की वह काफी हद तक मुनासिब प्रतीत होता है। 
कांग्रेस कार्यसमिति का फैसला जल्दबाजी का तो नहीं लगता पर मोदी के मुकाबले राहुल को लेकर देष कितना सहज होगा यह समझने वाली बात है। अविष्वास के दिन राहुल गांधी का आत्मविष्वास बढ़ा हुआ तो दिखाई दिया। यदि समय रहते यह संदेष लोगों में चला गया कि 2019 राहुल बनाम मोदी है तो यह राहुल के लिये बड़ी बात होगी परन्तु रास्ता सहज होगा कहना कठिन है हालांकि इसका फायदा भाजपा उठाना चाहेगी। सवाल उठता है कि क्या 2019 के लोकसभा में एनडीए अपने स्वरूप में रह पायेगा और कांग्रेस को वे समान विचारधारा वाले लोग मिल पायेंगे जिसकी वे उम्मीद लगाये बैठे हैं। ठीक-ठीक कहना दोनों तरफ से सम्भव नहीं है। विष्वास मत के दिन दो पहलू दिखे, पहला यह कि एनडीए के घटक षिवसेना ने इससे दूरी बनायी जबकि स्वर्गीय जय ललिता का दल एआईडीएमके के 37 सांसदों ने मोदी का समर्थन किया। उड़ीसा का जनता दल और तेलंगाना का तेलंगाना राश्ट्र समिति ने अविष्वास प्रस्ताव के समय सदन से अनुपस्थित रह कर यह संदेष दे दिया है कि सरकार को फायदा तो पहुंचायेंगे परन्तु प्रत्यक्ष नहीं होंगे। साथ ही यह भी बता दिया कि केन्द्र में किसी की भी सरकार हो बिगाड़ नहीं करेंगे। बाकी दलों ने अपने-अपने ढंग से काम किया है। राहुल गांधी को पीएम के तौर पर परोसना कांग्रेस के लिये भी कोई सरल काज नहीं है। 44 से 48 सीट हो चुकी कांग्रेस अकेले 150 कैसे पहुंचेगी यह गुणा-भाग कांग्रेस ही जाने और गठबंधन के बूते 300 का आंकड़ा भी पूरी तरह पच नहीं रहा है। यदि ऐसा होता भी है तो प्रधानमंत्री के दावेदार और भी उभर सकते हैं हालांकि कांग्रेस ने राहुल गांधी का नाम आगे बढ़ा कर यह जता दिया है कि महागठबंधन में जो आयेगा साफ है कि राहुल के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है। वैसे ठीक बात तो यह है कि मोदी के मुकाबले राहुल बड़े नेता नहीं है पर खानदानी नेता होने के नाते धाक जमा सकते हैं। बसपा की मायावती, सपा के अखिलेष यादव, टीएमसी की ममता बनर्जी समेत वामपंथ से लेकर नरम-गरम बहुत सारे पंथ मोदी को हराने की फिराक में हैं पर दाल कैसे गलेगी इसकी रणनीति षायद ही किसी के पास हो। रोचक यह भी है कि महागठबंधन के नेता राहुल गांधी घोशित कर दिये गये जिसमें कांग्रेस के अलावा कोई दल नहीं है। समझ से परे है कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री उम्मीदवार राहुल गांधी महागठबंधन के प्रधानमंत्री उम्मीदवार कैसे हो गये।
खास यह भी है कि जिन्होंने अविष्वास प्रस्ताव के दिन सरकार का साथ दिया है जरूरी नहीं है कि 2019 में भी साथ होंगे। एआईडीएमके ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं जबकि रजनीकांत तमिलनाडु में ताल ठोंक रहे हैं। हो सकता है भाजपा सेंधमारी करते हुए एआईडीएमके को पटकनी देने के लिये रजनीकांत से हाथ मिला ले। हालांकि फायदे में भाजपा तब रहेगी जब एआईडीएमके का साथ मिले। उड़ीसा में बीजू जनता दल भाजपा के सीधे विरोध में है पर सदन में अनुपस्थित रहकर नरम रूख दिखाया है। मगर ऐसा लगता है कि असल राजनीति में तो आमने-सामने ही रहेगी। बिहार में नीतीष कुमार बहुत छटपटा रहे हैं। पूरी तरह तो नहीं कहा जा सकता पर तेजस्वी यादव के राजद की बढ़त से उन्हें चिंता हो रही है। जाहिर है राजद, जदयू और कांग्रेस का 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन था जो अब छिन्न-भिन्न हो चुका है। राहुल गांधी को राजद का साथ मिल सकता है परन्तु उत्तर प्रदेष में मायावती और अखिलेष यादव का जो उपचुनाव में गठबंधन दिखा वह आगे जारी रह सकता है जैसा कि संकेत दिया जा चुका है मगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री के रूप में भी इन्हें स्वीकार होंगे यह मामला खटाई में ही दिखता है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वामपंथियों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है और तीसरे दल के रूप में भाजपा भी वहां उलट-फेर की फिराक में रहती है। इसके आसार कम ही हैं कि टीएमसी और वामपंथ साथ आयेंगे। आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना में सियासत अलग किस्म की है। जहां चन्द्र बाबू नायडू की तेलुगू देषम पार्टी एनडीए से हटकर अविष्वास प्रस्ताव ला चुकी है वहीं टीआरएस सदन से अनुपस्थित रह कर न तो सरकार के पक्ष में और न ही विपक्ष में होने का संकेत दे दिया है। ये दोनों दल भविश्य में किस करवट बैठेंगे आगे पता चलेगा हालांकि चन्द्र बाबू नायडू आन्ध्र प्रदेष के विषेश दर्जे को लेकर मोदी के विरोधी में हैं पर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करेंगे इसकी सम्भावना कम ही दिखती है। समान विचारधारा का क्या मतलब है इसका उत्तर किसी भी दल के पास स्पश्टता के साथ नहीं है जो सियासत के काम आ जाये चाहे मजबूरी में ही सही वही समान विचारधारा हो जाती है। महाराश्ट्र में षिवसेना और भाजपा के विचार दो रास्ते पर चल पड़े हैं। सम्भव है कि मंजिल भी अलग-अलग हो जाये। यहीं से राजनीति करने वाले षरद पंवार भी काफी नरम रवैये वाले नेता रहे हैं हो सकता है राहुल गांधी को महत्व दे दें। फिलहाल देष की सियासत का मजनून यह है कि मोदी के मुकाबले राहुल को खड़ा किया जा चुका है। अब देखना यह है कि इन दोनों के साथ कौन खड़ा होता है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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फायदे में सरकार पर विपक्ष को क्या मिला !

बीते 20 जुलाई को 11 घण्टे की लम्बी गरमागरम बहस के बाद विपक्ष द्वारा लाया गया अविष्वास प्रस्ताव फिलहाल औंधे मुंह गिर गया। प्रस्ताव के पक्ष में 126 मत और विपक्ष में 325 मत पड़े। रोचक यह है कि परिणाम तय था पर सदन में मात्र एक जिद को पूरा करना था। आष्चर्य तो इस बात पर है कि विपक्ष को जब मालूम था कि उसकी संख्या बल सत्ता पक्ष के मुकाबले न्यून है तो फिर अविष्वास प्रस्ताव लाया ही क्यों गया। सम्भव है कि विरोधी इस बहाने 2019 लोकसभा चुनाव को लेकर अपनी ताकत और एकजुटता दिखाना चाह रहा था लेकिन मात्र 126 की संख्या के साथ यहां भी वे उतने सफल नहीं दिख रहे हैं। बीजू जनता दल और टीआरएस (तेलंगाना राश्ट्र समिति) अविष्वास प्रस्ताव पर मतदान के दौरान अनुपस्थित रही जिससे परोक्ष रूप से सरकार को फायदा हुआ। हालांकि एनडीए के घटक षिवसेना का भी सदन में न होना सरकार से लम्बे समय से चल रही तल्खी बरकरार दिखाई देती है लेकिन सत्ता पक्ष को एआईडीएमके के 37 लोकसभा सदस्यों का साथ मिलने से राजनीतिक गणित कुछ और इषारा करने लगी है। गौरतलब है कि एआईडीएमके एनडीके का अंग नहीं है जबकि बीजद और टीएसआर दूरी बनाकर यह इषारा कर रहे हैं कि केन्द्र में सरकार किसी की हो बिगाड़ नहीं रखेंगे। 
वैसे अविष्वास प्रस्ताव पर दो टूक कहा जाय तो यह दिन में राहुल बनाम मोदी था जबकि रात में मोदी बनाम राहुल हो गया था। राहुल गांधी प्रधानमंत्री की फिराक में हैं इसमें कुछ गलत भी नहीं है इसे तो देष की जनता कोे तय करना है। अविष्वास प्रस्ताव के दिन भाशण देते समय राहुल का विष्वास बढ़ा हुआ दिखाई दिया था। बोलने वाले कई दलों से दर्जनों थे पर उन्होंने यह जताया कि मुख्य विपक्षी की भूमिका में कांग्रेस ही है। महागठबंधन के नेता राहुल होंगे। आनन-फानन में इसका निर्णय बीते 22 जुलाई को भी हो चुका है और साफ किया गया है कि कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री का चेहरा राहुल होंगे और समान विचारधारा वाले दलों से समझौता करके कांग्रेस चुनाव लड़ेगी। अब यह पुख्ता हो जाता है कि अविष्वास प्रस्ताव के बहाने राहुल गांधी को मोदी के मुकाबले पेष करना था। जाहिर है 2019 का चुनाव राहुल बनाम मोदी तो होगा पर फायदा राहुल गांधी को मिलेगा अभी कहना दूर की कौड़ी है। राहुल गांधी ने सदन में कई उम्दा मुद्दे उठाये जिसमें किसान, बेरोजगार, भागीदार, विकास और राफेल सहित कई संवेदनषील हैं। जिसे लेकर सरकार बच नहीं सकती पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण में जिस तरह डेढ़ घण्टा बोले उससे यही लगा कि विपक्ष अपनी ही चाल में कुछ हद तक फंस गया। भारी-भरकम आंकड़ों के साथ मोदी ने अविष्वास प्रस्ताव के बहाने देष को एक बार फिर बता दिया कि देष को उनकी क्यों जरूरत है। जबकि राहुल गांधी द्वारा उठाये गये संवेदनषील मुद्दों के बावजूद पूरा मीडिया उनको मोदी के गले लगना और आंख वाली अदा पर केन्द्रित हो कर रह गया। हालांकि इससे मुद्दे मरते नहीं है पर जो फायदा राहुल गांधी को मिलना चाहिए षायद उसमें कुछ कमी तो रह गयी। 
गौरतलब है कि बीते मार्च में बजट सत्र के दूसरे चरण में आन्ध्र प्रदेष के विषेश राज्य के दर्जे को लेकर एनडीए के घटक टीडीपी ने नाता तोड़ लिया था और सरकार के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव लाने की जिद की थी जिसका समापन 20 जुलाई को हुआ। बहस के केन्द्र में राहुल रहे जिन्हें अपने हिस्से का फायदा उठाना था पर सर्जिकल स्ट्राइक को जुमला स्ट्राइक बोलकर अपनी मुसीबत बढ़ाई। राफेल के मामले में उनका दावा तब कमजोर हो गया जब फ्रांस ने उनके दावे पर अपनी प्रतिक्रिया दी। हालांकि मोदी के मुकाबले राहुल गांधी को स्वीकार किया जाना राहुल गांधी के लिये लाभ का सौदा है परन्तु यदि इसका फायदा लेने में वे नाकाम रहते हैं तो चुनावी बिसात में हश्र अविष्वास प्रस्ताव जैसा ही हो सकता है। विपक्ष के तमाम नेताओं के कहने का तरीका भले ही अलग रहा हो पर मुद्दे राहुल गांधी की तरह ही थे तो क्या यह मान लिया जाय कि 2019 में जो मुद्दे होंगे वो राहुल ने तय कर दिये हैं। फिलहाल अगले कुछ महीनों में राजस्थान, मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होंगे जिसमें राहुल गांधी का कद एक बार फिर आंका जायेगा। हांलाकि आंकलन तो मोदी का भी होगा पर यह चुनाव यह भी तय करेगा कि राहुल गांधी को लेकर विपक्ष कांग्रेस के साथ किस मात्रा में होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Thursday, July 12, 2018

परस्पर लाभ मे भारत और दक्षिण कोरिया

दक्षिण कोरिया के राश्ट्रपति मून बीते 9 जुलाई से चार दिन के लिये भारत की यात्रा पर थे। देखा जाय तो दोनों देषों के बीच आर्थिक क्षेत्र में द्विपक्षीय भागीदारी पहले से ही है और अब इस यात्रा से इसके बढ़ने की गुंजाइष और बढ़ गयी है। दिल्ली से सटे नोएडा में दुनिया के सबसे बड़े मोबाइल फोन फैक्ट्री का उद्घाटन दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति में हुआ। यह कारखाना साल में 12 करोड़ मोबाइल फोन का निर्माण करेगी। पिछले वर्श जून में कम्पनी ने नोएडा प्लांट का विस्तार और उत्पादन दोगुना करने के लिये 5 हजार करोड़ के निवेष की घोशणा की थी। जाहिर है सैमसंग दक्षिण कोरिया की कम्पनी है जो मोबाइल बनाने के मामले में अग्रणी मानी जाती है। प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इण्डिया की नीति के अन्तर्गत भी इसे देखे तो यह उसी दिषा में एक कदम है। फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी और दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून सामरिक सम्बंधों को और मजबूत बनाने पर जोर देते दिखाई दिये जिसे लेकर कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। कारोबार उपचार के विशय पर भी सहमति बनी भविश्य की रणनीति सम्बंधी समूह ‘फ्यूचर स्ट्रैटेजी ग्रुप‘ पर भी दोनों नेता सहमत देखे गये। भारत और कोरिया ने सांस्कृतिक सम्बंधों को गहरा बनाने और सम्पर्क बढ़ाने के उद्देष्य से 2018-22 तक के लिये सांस्कृतिक आदान-प्रदान के मसौदे पर भी हस्ताक्षर किये हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कोरियाई प्रायद्वीप में षान्ति प्रक्रिया का भारत पक्षधर है और इसके लिये हमारा योगदान जारी रहेगा। जाहिर है दक्षिण कोरिया से भारत के रिष्ते सीमित और सधे हुए तो हमेषा से रहे हैं परन्तु अब इसका व्यापक रूप सामने देखने को मिल सकता है। 
रोचक यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी का कार्यकाल मई 2019 में पूरा हो रहा है और उन्हें 2020 में दक्षिण कोरिया जाने का निमंत्रण है। दरअसल राश्ट्रपति मून ने नरेन्द्र मोदी के साथ संयुक्त घोशणा में कहा कि 2020 में प्रधानमंत्री की कोरिया यात्रा का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। उक्त से स्पश्ट है कि मून मानते हैं कि 2019 का चुनाव भी मोदी के पक्ष में रहेगा और वे सत्ता में लौटेंगे। हालांकि ऐसी मान्यता चीन की भी है कि मोदी आगे भी प्रधानमंत्री बने रहेंगे। इतना ही नहीं अमेरिकी अखबार न्यूयाॅर्क टाइम्स में भी यह खबर छप चुकी है कि मोदी अगला चुनाव जीतेंगे। फिलहाल ये तो भविश्य में ही तय होगा कि आने वाला चुनाव किस करवट बैठेगा। रही बात दक्षिण कोरिया से प्रगाढ़ता की तो यह दषकों से कमोबेष बना हुआ है मगर गति बहुत धीमी थी। दोनों देषों के बीच दूतावासी सम्बंधों की स्थापना साल 1962 में हुई जबकि राजनयिक सम्बंध 1973 से देखे जा सकते हैं। राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक तथा आपसी हितों के मुद्दे पर विचार विमर्ष करने के लिये दोनों देषों में संयुक्त आयोग भी गठित किये जा चुके हैं। साल 2004 में दक्षिण कोरिया के तत्कालीन राश्ट्रपति रोह मू ह्युन भारत की यात्रा कर चुके हैं जबकि 2006 में तत्कालीन भारतीय राश्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम की दक्षिण कोरिया की यात्रा के चलते सम्बंधों को बेहतर बनाने का मार्ग प्रषस्त हुआ। यद्यपि व्यापार संवर्द्धन तथा आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग पर समझौते 1974 में हुए मगर सम्बंधों में तेजी 90 के दषक में भारत में उदारीकरण के बाद आयी। इस दौरान द्विपक्षीय व्यापार केवल 530 मिलियन डाॅलर था जो 2005 आते-आते तुलनात्मक 40 प्रतिषत की वृद्धि किया। पिछले साल यह आंकड़ा 20 अरब अमेरिकी डाॅलर को भी पार कर दिया और अब दोनों देषों ने इसे 40 अरब डाॅलर तक का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। यह बात दुविधा से परे है कि भारत के लिये दक्षिण कोरिया चैकाने वाला परिवर्तन दे सकता है। इसकी बड़ी वजह दक्षिण कोरिया की उसकी विष्वस्तरीय बुनियादी ढांचे में अग्रणी राश्ट्रों में गिनती का होना है। 
कोरियाई ब्राण्ड आज भारत के घर-घर में उपलब्ध है और कोरिया की कम्पनियां कहीं न कहीं मोदी के डिजिटल इण्डिया और मेक इन इण्डिया में योगदान दे रहे हैं। भारत के लिये यह सम्बंध पूरब की ओर देखो की अवधारणा को भी पूरा करती है। मोदी के ‘एक्ट ईस्ट8 और मून की नई ‘दक्षिण नीति‘ को इससे मजबूती मिलेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं भारत को तेज विकास की आवष्यकता है और इसमें दक्षिण कोरिया एक महत्व का देष तो है। हालांकि इसी तरह का महत्व जापान का भी है। भारत की आबादी दक्षिण कोरिया से करीब 24 गुना अधिक है जबकि प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में यह महज़ सोलहवां हिस्सा ही है। दक्षिण कोरिया के पास उन्नत तकनीक और विषेशज्ञों के साथ पूंजी की मौजूदगी है जबकि भारत के पास बहुत बड़ा बाजार और व्यापक पैमाने पर कच्चा माल है। भारत बुनियादी तौर पर अभी बहुत पीछे है जिसे लेकर दक्षिण कोरिया काफी लाभकारी हो सकता है। आंकड़े तो यह भी जताते हैं कि दषकों से दक्षिण कोरिया को किये जाने वाले भारतीय निर्यातों में भारत की पारस्परिक वस्तुओं जैसे सूती वस्त्र, खली, कच्चा लोहा, लौह एवं इस्पात, जैविक-अजैविक रसायन, विद्युत मषीनरी एवं उपकरण आदि रहे हैं। देखा जाय तो पिछले कुछ वर्शों में दक्षिण कोरिया में भारतीय निर्यात का आकार बढ़ा है और भारत में उसका निवेष भी बढ़ा है। दोनों देष के बीच सम्बंधों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर उड़ीसा के पाराद्वीप में स्थापित किया जाने वाला पास्को समन्वित इस्पात संयंत्र है। मोदी से पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी दक्षिण कोरिया से व्यापारिक और आर्थिक साझेदारी पर समझौते कर चुके हैं। साल 2005 में आसियान सम्मेलन के दिषा निर्देेष के तहत एक बैठक तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दक्षिण कोरिया के राश्ट्रपति रहे ह्युन के साथ समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इतना ही नहीं भारत की तरह दक्षिण कोरिया भी अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवाद तथा व्यापक नरसंहार की प्रौद्योगिकी की तस्करी के सम्बंध में एक समान दृश्टिकोण रखते हैं।
फिलहाल भारत और दक्षिण कोरिया के बीच एक मजबूत पहल इन दिनों हो चुकी है। दक्षिण कोरिया से प्रगाढ़ता का सीधा अर्थ है कि तकनीकी रूप से भारत उससे फायदा लेगा और वह उसे निवेष के लिये बाजार देगा। इससे चीन की बढ़ती स्थिति को थोड़ा हतोत्साहित करने में भी मदद मिल सकती है। तकनीकी मजबूती से भारत में बने उत्पाद यदि सस्ते होते हैं तो चीनी उत्पादों को जो भारत में जड़ जमा चुके हैं उससे पीछा छुड़ाना आसान होगा मुख्यतः इलेक्ट्रिाॅनिक क्षेत्र में। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 70 अरब डाॅलर का व्यापार होता है और सौ अरब का एएमयू पर हस्ताक्षर हो चुके हैं जिसमें एकतरफा फायदा चीन को ही होता है। मेक इन इण्डिया और डिजिटल इण्डिया को दक्षिण कोरिया के चलते फायदा होगा और दूसरे देषों को भी इससे प्रोत्साहन मिल सकता है। मून और मोदी के बीच कई समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिसमें दोहरे कर से बचाव और आय पर करों के संदर्भ में कर चोरी निरोधक सन्धि, दोनों देषों के बीच राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद को लेकर सहमति और जहाजरानी एवं परिवहन पर भी सहमति देखी जा सकती है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी और दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून की पहली मुलाकात हैम्पबर्ग में सम्पन्न जी-20 सम्मेलन में हुई थी और उसी समय उन्हें भारत आने का निमंत्रण मिला था। सबके बावजूद निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भारत के साथ उसके सम्बंधों में मजबूती 1997 के पूर्वी एषियाई द्वितीय संकट के बाद दक्षिण कोरिया में हुए अभूतपूर्व विकास की वजह से पिछले दो दषकों के दौरान आयी परन्तु रफ्तार धीमी रही। आषा भरी दृश्टि यह है कि आने वाले दिनों में दोनों देषों के सम्बंध बड़े रूप में उभरेगें जिसका परस्पर लाभ दोनों को मिलेगा। 




सुशील कुमार सिंह
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उछाल भरी अर्थव्यवस्था कितनी समवेशी!

फ्रांस को पछाड़ते हुए भारत विष्व की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। विष्व बैंक का 2017 का आंकड़ा तो यही कहता है कि भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद पिछले साल के अंत में 2.597 खरब डाॅलर था जो फ्रांस की अर्थव्यवस्था 2.582 खरब डाॅलर से थोड़ अधिक है। इस ताजा रिपोर्ट से जो आंकलन दिखता है उससे लाजमी है भारत की रैंकिंग बढ़ी है और इसका मतलब है कि देष में कारोबार और निवेष का बेहतर माहौल होना चाहिए। गौरतलब है कि दुनिया के निवेषक अच्छी रैंकिंग वाले देषों में अपने पैसा लगाते हैं। जाहिर है जब विदेषी निवेष बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था की लम्बाई-चैड़ाई भी बढ़ेगी तो रोज़गार भी विस्तार लेगा। यह बात इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देष 65 फीसदी युवाओं से भरा है जहां बेरोजगारी की लम्बी कतार है। आंकड़े के लिहाज़ से देखें तो भले ही भारत फ्रांस से आगे हो पर प्रति व्यक्ति आय में वह कई गुना पीछे है। हालांकि भारत की आबादी सवा सौ करोड़ से अधिक है जबकि फ्रांस की जनसंख्या 6 करोड़ से थोड़ी ही ज्यादा है। देष की जीडीपी बढ़ने से प्रति व्यक्ति आय में भी बढ़ोत्तरी होती है। इससे व्यय करने की क्षमता भी बढ़ती है और अन्ततः भारत में खरीदारी क्षमता की रैंकिंग भी बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तो वस्तुओं का निर्माण बढ़ेगा, आयात भी बढ़ सकता है और हो सकता है कि मेक इन इण्डिया को भी इसके माध्यम से बल मिले जिसके लिये बीते चार साल से प्रयास जारी है। दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बन चुका भारत इस मामले में तसल्ली कर सकता है कि उसकी अर्थव्यवस्था में उछाल है पर इस यथार्थ पर भी गौर करने की जरूरत है कि बुनियादी विकास और समावेषी अर्थव्यवस्था की क्या अवस्था है। जब अर्थव्यवस्था का मुंह चैड़ा होता है तो बुनियादी समस्याएं मसलन गरीबी, बेरोज़गारी, स्वास्थ व भुखमरी जैसी समस्या से देष को छुटकारा मिल जाना चाहिए पर भारत में ऐसा है नहीं।
पड़ताल बताती है कि दुनिया में अमेरिका सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देष है उसके बाद बारी चीन की आती है। जापान और जर्मनी क्रमषः तीसरे और चैथे नम्बर पर हैं और ब्रिटेन भारत से एक पायदान ऊपर पांचवें नम्बर पर है। इस लिहाज से फ्रांस के स्थान को भारत ने ले लिया और ब्रिटेन के समीप पहुंच गया। लंदन स्थित कन्सलटेन्सी फर्म सेंटर फाॅर इकोनोमिक्स एण्ड बिजनेस रिसर्च ने पिछले साल के आखिर में ही कहा था कि भारत जल्द ही जीडीपी के मामले में फ्रांस और ब्रिटेन दोनों को पीछे छोड़ देगा। मौजूदा समय में फ्रांस को पीछे धकेल दिया है। गौरतलब है कि ब्रिटेन की कुल जीडीपी 2.622 खरब डाॅलर है जो भारत से थोड़े ही ज्यादा है। इतना ही नहीं 2025 तक यह अनुमान है कि भारत की जीडीपी दोगुनी हो जायेगी। यदि ऐसा हुआ तो एषिया में एक बड़ी ताकत वाले देष के तौर पर उभार होगा। हालांकि पड़ोसी चीन के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था कहीं अधिक पीछे है। चीन का जीडीपी 12.237 खरब डाॅलर है साफ है कि भारत अभी इससे मीलों दूर है। विष्व बैंक पहले यह उल्लेख किया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी के प्रभाव से उभर चुकी है और 2018 में विकास दर 7.3 रहने की उम्मीद है जो बिल्कुल उचित भी प्रतीत होता है। अंतर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश भी कह चुका है कि भारत साल 2018-19 में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा। इस वर्श जीडीपी 7.8 फीसदी रहने की उम्मीद है। उपरोक्त परिप्रेक्ष्य यह दर्षाते हैं कि दुनिया में विकास दर से लेकर आर्थिक उत्थान की होड़ लगी हुई है पर यथार्थ यह भी है कि खुली और उछली अर्थव्यवस्था में किसका कितना आकर्शण है। भारत में विदेषी निवेष को लेकर मन माफिक परिणाम नहीं मिले। इसी वर्श फरवरी में मोदी भारत-दक्षिण कोरिया समिट में विदेषी निवेष का आह्वान करते हुए कहा था कि भारत विष्व की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और दुनिया के साथ कारोबार करने के लिए तैयार है। यह बात इसलिए बार-बार कही जा रही है क्योंकि भारत में निवेष की गुंजाइष भी है और जरूरत भी है। निवेष के चलते यहां समोवषी विकास की अवधारणा को भी बल मिलेगा तब कहीं जाकर उछाल भरी अर्थव्यवस्था का पूरा अर्थ निकलेगा। 
जब प्रष्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक उत्थान और विकास के लिए इस पहलू को सषक्त करना ही होता है। बीते कुछ वर्शों से आर्थिक वृद्धि को लेकर तरह-तरह की कोषिषें की जा रही हैं मसलन काले धन पर चोट, नोटबंदी और जीएसटी जैसे संदर्भ फलक पर देखे जा सकते हैं। कहां कितनी सफलता मिली बड़ा सवाल उठ सकता है पर विष्व बैंक की माने तो भारत इससे उभर चुका है। भारत के सामने चुनौतियां कई हैं एक तरफ दुनिया से आर्थिक होड़ लेना है तो दूसरी तरफ देष के भीतर बढ़ रही गरीबी, बेरोजगारी और बेहिसाब बीमारी से निपटना है। इसके अलावा भी षिक्षा समेत कई बुनियादी तत्व इसी धारा में षामिल है। जिसके चलते देष की अर्थव्यवस्था की राह कठिन भी हो जाती है और चुनौतीपूर्ण भी। डाॅलर के मुकाबले रूपया रिकाॅर्ड स्तर को पार कर गया है जबकि कच्चे तेल के बढ़ते दाम ने देष के चालू खाता घाटा को बढ़ा दिया है और अर्थव्यवस्था पर साईड इफैक्ट डाल रहा है। समावेषी अर्थव्यवस्था के लक्षण में बड़ी चुनौती किसानों की ओर से है कि उनकी फसलों की सही कीमत कैसे मिले। हालांकि सरकार ने बीते 4 जुलाई को 14 खरीफ की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य वृद्धि की घोशणा की है पर सवाल यह बने हुए हैं कि यह कितने वाजिब हैं। समर्थन मूल्य को लेकर सरकार पर स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार पर डेढ़ गुना की मांग पुरानी है और मोदी सरकार के सामने यह चुनौती अभी भी बाकी है। फसलों के उचित दाम न मिलने और अनाज का उचित प्रबंधन न हो पाना भी बड़ी चुनौती है। भारतीय बैंकों की हालत भी काफी खराब है और वे खराब कर्ज से दबे जा रहे हैं। मार्च 2018 तक खराब कर्ज का आंकड़ा सवा दस लाख करोड़ रूपये पहुंच गया। ज्वलंत प्रष्न यह है कि यदि बैंकों की हालत खराब होती गयी तो सरकार उसकी भरपायी टैक्स की रकम से करेगी जो कई अन्य प्रकार के विकास को चरमरा सकता है। 
विष्व बैंक की रिपोर्ट तो यह भी कह रही है कि जलवायु परिवर्तन भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ सकती है और इसके चलते जीडीपी को नुकसान हो सकता है। जलवायु परिवर्तन का यह बदलाव 2050 तक भारत की आधी आबादी के जीवन स्तर को प्रभावित कर देगा। भले ही अर्थव्यवस्था उछाल ले ले या कहीं अधिक खुली हो जाय पर यदि वह आस पास के चुनौतियों से मुक्त नहीं होती है तो कठिनाई जस की तस रह सकती है। फ्रांस से बेहतर अर्थव्यवस्था हो गयी है पर क्या मानव विकास सूचकांक में भी यही बात कह सकते हैं और बुनियादी विकास में भी क्या हम उतना उछाल ले चुके हैं। सम्भव है कि इसका जवाब न में ही मिलेगा। आर्थिक आंकड़े विकास का जरिया हो सकते हैं पर केवल आंकड़ों के आदर्षवाद से काम नहीं चलता है। जमीनी हकीकत यह है कि बढ़े विकास दर और दुनिया के मुकाबले आसमान छूती अर्थव्यवस्था का लाभ अभी जनता को मिलना बाकी है। 8वीं पंचवर्शीय योजना उदारीकरण के बाद की पहली योजना थी जिसका समावेषी रूप-रंग था। सभी में परिवर्तन भरने की षुभ इच्छा लिये यह पांच साल चली। कुछ हद तक  परिवर्तन भी किया होगा पर मंजिल पूरी तरह मिली नहीं है। कह सकते हैं कि अभी भी होमवर्क अधूरा है और जनता की प्यास भी बुझी नहीं है। हालांकि मोदी सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए है। भारत की अर्थव्यवस्था को वैष्विक एजेंसियों ने आये दिन मजबूत करार दिया है इस आधार पर आषा कर सकते हैं कि ये देष के जनमानस को भी मजबूत करने के काम आयेगी। 



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Monday, July 9, 2018

किसान की सक्षमता उसके बदलाव का वाहक

यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृषि प्रधान भारत में कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान आज भी बुरी तरह जूझ रहे हैं। हालात यह संकेत करते हैं कि इससे निपटने के लिये सरकारों के पास बहुत उम्दा रणनीति का आभाव भी रहा है। साल 1952 में प्रथम पंचवर्शीय योजना कृशि प्रधान थी तब देष की जनसंख्या 36 करोड़ थी और 90 फीसदी के आस-पास खेती-बाड़ी से जुड़ी थी। बीज, पानी, और पैदावार समेत सिंचाई सुविधा का आभाव और तकनीकी तौर पर नगण्य कृशि व्यवस्था उस दौर की थी पर अब ऐसे हालात नहीं है। बीते सात दषकों में देष बदला, देष की दिषा बदली, आर्थिक और तकनीकी पक्ष भी बदले, साथ ही खेत-खलिहानों की स्थिति भी बदली। किसानों ने दिल खोलकर पैदावार भी बढ़ाई मगर जिन्दगी बदहाल उन्हीं की रही। दो टूक यह है कि अधिक पैदावार देने के बावजूद भी देष का अन्नदाता पाई-पाई के लिये मोहताज रहा और जिन्दगी को बदहाली से उभरने में नाकाम भी रहा है। सवाल दो हैं पहला यह कि किसान जब उत्पादन देने में अव्वल है तो कीमत देने में सरकारें संकुचित क्यों रही हैं। दूसरा जब तकनीकी तौर पर सरकारों का नियोजन कहीं अधिक उम्दा है तो किसानों के जीवन में बड़ा बदलाव क्यों नहीं आया। बड़ा बदलाव तो छोड़िये आंकड़ों में यह अम्बार है कि बीते ढ़ाई दषकों से तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। मोदी षासन के चार साल में भी किसानों को उतना फायदा नहीं मिला है जितना कहा गया है और उनसे उम्मीद की गयी थी। बीते दिनों सरकार ने समर्थन मूल्य में वृद्धि करने की घोशणा की सम्भव है कि यह 2019 के लोकसभा से प्रेरित होकर उठाया गया कदम है। हालांकि सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिये वचनबद्ध है।
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने किसानों की आय बढ़ाने की बात पिछले बजट में भी की थी। केवल 23 फसलों के समर्थन मूल्य अदायगी पर ही नहीं बल्कि उन तमाम पैदावार पर भी दृश्टि गड़ानी होगी जहां सरकारों की नजर कम पड़ती है और किसानों की हालत पस्त रहती है। आलू, टमाटर, मौसमी फल, साग-सब्जी आदि के चलते किसानों की मौसमी अर्थव्यवस्था को बल मिलता है जबकि आम तौर पर किसान और जनता गेहूं, चावल और दाल आदि पर ही नजर गड़ाये रहती है। अगला बजट जाहिर है चुनावी आचार संहिता के दायरे में होगा ऐसे में विषेश घोशणा कर पाना सरकार के लिये उतना सम्भव नहीं होगा। षायद उसी को ध्यान में रखते हुए फिलहाल समर्थन मूल्य की बढ़त से किसानों की किस्मत बदलने का एक प्रयास अभी-अभी हुआ। सरकार के खरीफ फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के फैसले से कुछ आर्थिक समीकरण भी इधर-उधर होंगे। मुद्रा स्फीतिक दबाव बढ़ने के साथ ही सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर भी 0.1 से 0.2 तक प्रभाव पड़ सकता है जिसके चलते वित्तीय लक्ष्य पाने में भी मुष्किल आयेगी। जीडीपी के इस प्रभाव से साल 2018-19 के राजकोशीय घाटे के लक्ष्य को पाने के लिये ऊँचे राजस्व खर्च कम करने की जरूरत भी होगी। आम चुनाव से पहले किसानों को राहत देने वाला यह फैसला जो बीते 4 जुलाई धान के एमएसपी में दो सौ रूपए प्रति कुंतल की वृद्धि समेत अन्य फसलों के एमएसपी में 52 प्रतिषत तक की बढ़ोत्तरी की गयी है। एमएसपी में की गयी यह बढ़ोत्तरी सरकार, किसान और जनता तीनों के लिये एक साथ षायद ही मुनाफे का हो। ऊंचे एमएसपी से महंगाई बढ़ेगी और जीडीपी से भी असर पड़ेगा मगर राहत भरी बात यह है कि देष के अन्नदाता की माली हालत पहले से कुछ सुधरेगी। विषेशज्ञों का कहना है कि इस कदम से खाद्य सब्सिडी बिल बढ़कर दो लाख करोड़ रूपए तक पहुंच जायेगा। मुद्रा स्फीति बढ़ने का जोखिम है जाहिर है राजकोशीय घाटा भी बढ़ेगा मगर यदि इन सबसे किसान की स्थिति में बड़ा बदलाव आता है तो यही सुकून की बात होगी। 
देष में खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के रिकाॅर्ड लगभग 28 करोड़ टन के उत्पादन को इस वर्श पार कर सकता है इसके पीछे जो वजह बतायी जा रही है उसमें मानसून बेहतर रहने, ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा फसल उत्पादकता में सम्भावित वृद्धि। इस समय खरीफ की फसल धान की रोपायी तेजी पकड़े हुए है। इसके उत्पादक राज्यों में बारिष की भी गुंजाइष बेहतर बतायी गयी है। मोदी सरकार ने 14 खरीफ फसलों का एमएसपी बढ़ाने की घोशणा करके किसानों के मन में यह बात पैदा कर दिया है कि उनके अच्छे दिन आने वाले हैं। फलस्वरूप किसान इसे लेकर प्रोत्साहित हुआ होगा। मानसून यह भी कह रहा है कि कुछ हिस्सों में बारिष कम रहने की वजह से जाहिर है धान की रोपाई भी कम होगी और पैदावार भी। देष की किसानों ने गेहूं, चावल और मोटे अनाजों को लेकर हर किस्म का पैदावार दिया पर उनकी जिन्दगी सतरंगी नहीं हुई है। पिछले साल धान लगभग 80 लाख हेक्टेयर में रोपा गया था जबकि दलहन करीब 42 लाख हेक्टेयर में था। किसानों की एक समस्या यह रही है कि उत्पादन अधिक होने की स्थिति में उनके अनाज बिकते नहीं है और कम होने की स्थिति में सरकारें विदेष से अनाज मंगाती हैं। यही बात प्याज़ जैसे उत्पादन पर भी लागू होती है। वर्शों पहले जब दलहन का दाम आसमान छू रहा था तब मोजाम्बिक और म्यांमार समेत कुछ अन्य देषों से सरकार ने इसकी खरीदारी की। दाल की कीमतों को देखते हुए किसान दलहन की खेती के लिये प्रोत्साहित हुए और उत्पादन तुलनात्मक बेहतर दिया बावजूद इसके एमएसपी से एक-तिहाई दर से कम पर उन्हें दाल अड़ातियों को बेचना पड़ा। मसलन 5050 रूपये दलहन का समर्थन मूल्य था जबकि किसानों ने इसे 35 रूपये कुंतल में बेचा था। दुःखद यह है कि कम उत्पादन में देष नहीं चल सकता और अधिक उत्पादन में किसान के लिये यह जंजाल बनता है। किसानों की किस्मत केवल उत्पादन की बढ़ोत्तरी पर नहीं उचित मूल्य और हर हाल में उसके पैदावार की गारंटी पर ही कुछ बेहतर हो सकता है अन्यथा समर्थन मूल्य की बढ़त से भी बातें आंकड़़ों तक ही रह जायेंगी।
प्रसिद्ध अर्थषास्त्री ज्यां द्रेज जो बेल्जियम मूल के हैं फिलहाल भारत के नागरिक हैं उन्होंने भी मोदी सरकार को आर्थिक वृद्धि की सनक से बाहर निकलने की जरूरत बतायी। ऐसे नजरिये अपनाने की बात कही जिसमें विकास का व्यापक परिप्रेक्ष्य हो। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार आंकड़ों को लेकर बहुत आष्वस्त रहती है जबकि सच्चाई यह है कि बदलाव दिखना चाहिए। देष का हर चैथा व्यक्ति अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है, किसान का आत्महत्या वाला सिलसिला थमा नहीं है, बेरोजगारी 2017 की तुलना में इस वर्श बढ़त में रहेगी इसे भी आंकड़े बता चुके हैं। 2025 तक जीडीपी दोगुनी की बात हो रही है और इसके पहले 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी। चुभता हुआ सवाल यह है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में यदि इतनी बड़ी-बड़ी खासियत छुपी है तो विकास और बदलाव को लेकर अंधेरा क्यों है। बेरोजगारी, बीमारी और गरीबी समेत कई किस्म की बुनियादी समस्याओं का देष में संजाल है और अषिक्षा अभी भी हर चैथे व्यक्ति में है पर आंकड़े सुकून भरे हैं। फिलहाल किसानों से षुरू कहानी का अंत किसानों से ही होना लाज़मी है। इस सच के साथ कि कृशि उत्पादों के दाम तय करने वाले कृशि लागत एवं मूल्य आयोग अर्थात् एमएसपी द्वारा लागत मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया लम्बे समय से सवालों के घेरे में रही है। सवाल है कि क्या किसान को तय मूल्य मिलेंगे यदि मिलेंगे तो उसकी एवज में उनके जीवन की अन्य कठिनाईयां कितनी सुलभ होंगी। बीज, बिजली, सिंचाई और कर्ज की समस्या से किसान आज भी दो-चार होता है। स्पश्ट है कि केवल समर्थन मूल्य की बढ़ोत्तरी से काम नहीं चलेगा बल्कि किसान के स्वयं की सक्षमता उसके जीवन का बदलाव सिद्ध होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: suhsilksingh589@gmail.com

Wednesday, July 4, 2018

लोकपाल पर अब कोई बहाना नहीं

ये कितना वाजिब है कि जिस लोकपाल के लिये 1968 से कानून बनाने का प्रयास जारी था जब उसे लेकर साल 2013 में विधेयक पारित हुआ और वर्श 2014 में प्रभावी भी कर दिया गया बावजूद इसके अब तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकी है। भ्रश्टाचार को जड़ से खत्म करने की बात करने वाली मोदी सरकार का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया कि आखिर तमाम वैधानिक और संस्थागत ढांचे में इस व्यवस्था को षामिल कर दिया जाय तो उनके मिषन को ही और बल मिलेगा। विधेयक को पारित हुए पांच साल हो गये और लोकपाल के मामले में सरकार की उपलब्धि षून्य ही कही जायेगी। लोकपाल की नियुक्ति में देरी पर देष की षीर्श अदालत ने बीते 2 जुलाई को केन्द्र सरकार से तल्ख भरे लहजे में कहा है कि 10 दिन के भीतर देष में लोकपाल की नियुक्ति की समय सीमा तय कर उसे सूचित करें। न्यायपालिका की यह चिंता लाज़मी है और सरकार को जगाने के लिये यह करना जरूरी भी है। हालांकि सरकार की ओर से पेष महाधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने अदालत को बताया कि लोकपाल चयन समिति की षीघ्र ही बैठक होगी। जाहिर है यह सरकार का रटा-रटाया जवाब भी हो सकता है और ऐसा लगता है कि इस जवाब से उच्चत्तम न्यायालय कतई संतुश्ट नहीं हुआ होगा। समय सीमा मे जवाब देने की बात इसे पुख्ता करती है। लोकपाल और लोकायुक्त को लेकर बीते पांच दषक से कोषिष चल रही है। यह हैरत भरी बात है कि भारत में भ्रश्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के षिकायतों के निवारण के लिये एक वैधानिक संस्था बनाने में पांच दषक से अधिक वक्त खर्च हो गया फिर भी तमाम दावे और इरादे जताने वाली तत्कालीन सरकार लोकपाल देने में फिसड्डी रही। पड़ताल बताती है कि लोकपाल और लोकायुक्त जैसी संस्था को लेकर वर्शों से केन्द्र और राज्य सरकारों ने कसरत किया है। हालांकि कुछ राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति हुई है। पहली बार महाराश्ट्र ने 1973 में लोकायुक्त की नियुक्ति कर इस प्रथा की षुरूआत की जबकि इससे जुड़े विधेयक (1970) को पास करने का श्रेय ओड़िसा को जाता है। भारत के कई राज्य आज भी लोकायुक्त से वंचित हैं। साफ है कि बीते चार वर्शों में केन्द्र ने लोकपाल और कई राज्यों में लोकायुक्त की कमी सरकार के इरादे को सषक्त होने का संकेत तो नहीं देते।
प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-1970) की सिफारिष पर नागरिकों की समस्याओं के समाधान हेतु दो विषेश प्राधिकारियों लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति प्रकाष में आयी जो स्कैण्डनेवियन देषों के इंस्टीट्यूट आॅफ ओम्बुड्समैन और न्यूजीलैण्ड के पार्लियामेन्टरी कमीषन आॅफ इन्वेस्टिगेषन की तर्ज पर की गयी। आयोग ने न्यूजीलैण्ड की तर्ज पर न्यायालयों को इस दायरे से बाहर रखा। हालांकि स्वीडन में न्यायालय भी लोकपाल और लोकायुक्त के दायरे में आते हैं। तत्कालीन सरकार ने इसकी गम्भीरता को देखते हुए 1968 में पहली बार इसे अधिनियमित करने हेतु संसद की चैखट पर रखा पर बात आगे नहीं बढ़ी। सिलसिलेवार तरीके से यह विधेयक दस अलग-अलग समय और सरकारों में उलझता हुआ 2013 में आखिरकार अधिनियमित हो गया। हालांकि इसे अधिनियम रूप देने के लिये देष में व्यापक पैमाने पर आंदोलन हुए। गौरतलब है कि केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त को लेकर गांधीवादी अन्ना हजारे ने धरना प्रदर्षन, उपवास कर तत्कालीन कांगेस की सरकार को कानून बनाने के लिये उन दिनों विवष किया था पर यह अधिनियम उतना मजबूत नहीं माना गया परन्तु इस आधार पर संतुश्टि जतायी गयी थी कि भविश्य में इसकी खामियों को दूर कर लिया जायेगा। वक्त निकलता गया न तो किसी ने अधिनियम पर गौर किया और न ही आज तक लोकपाल की नियुक्ति हुई और लोकायुक्त को लेकर भी कई राज्य मामले लटकाये हुए है। सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे ने इसी साल 23 मार्च को एक बार फिर अनषन पर बैठे थे और कहा था कि इस बार वे आर-पास की लड़ाई लड़ेंगे। गौरतलब है कि लोकपाल अधिनियम बनने से पहले अन्ना आंदोलन से दिल्ली का रामलीला मैदान ही नहीं देष के हर षहर और नुक्कड़ भी आंदोलित था पर जब मार्च में मोदी सरकार के खिलाफ अन्ना एक बार फिर आंदोलन का रूख लिया तो इस बार न तो मीडिया ने कोई रूचि दिखाई और न ही जनता की भीड़ थी। सप्ताह भर के भीतर तीन मांगों वाला आंदोलन जिसमें एक लोकपाल, लोकायुक्त और चुनावी सुधार भी था समाप्त हो गया।
यह बात भी सही है कि सरकारें चाहे मजबूत हो या कमजोर समय-समय पर कभी जनता को तो कभी न्यायपालिका को इन्हें जगाना ही पड़ता है जैसा कि न्यायपालिका ने लोकपाल के मामले में सो रही मोदी सरकार से पूछ लिया है कि लोकपाल क्यों नहीं?दरअसल गैर सरकारी संगठन काॅमन काॅज़ इसके लिये लम्बे समय से लड़ाई लड़ रहा है इसी संगठन की एक याचिका पर 27 अप्रैल, 2017 को षीर्श अदालत ने एक आदेष पारित किया था कि मौजूदा कानून किसी सदस्य की अनुपस्थिति से लोकपाल की नियुक्ति को नहीं रोक सकता। दरअसल वर्तमान कानून के अनुसार चयन समिति में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीष या उनके द्वारा नामित उच्चत्तम न्यायालय का कोई भी न्यायाधीष अथवा विख्यात न्यायविद सदस्य होंगे। इस संदर्भ के अंतर्गत निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं है तो समिति के अन्य सदस्य जाने माने न्यायविद को चुन सकती है। असल में इस कानून में नियुक्ति पैनल में लोकसभा में विपक्ष के नेता का प्रावधान है। मुष्किल यह है कि मौजूदा 16वीं लोकसभा के गठन में विपक्ष का नेता नहीं है। दरअसल मुख्य विपक्षी की भूमिका वाली कांग्रेस 44 लोकसभा सदस्यों के साथ मान्यता प्राप्त विपक्ष से बाहर है। हालांकि उपचुनाव में तीन सीटें बढ़ने से अब यह संख्या 47 हो गयी है। गौरतलब है कि 543 लोकसभा सीट की तुलना में 10 फीसदी सीट पर चुनाव जीतने वाले दल ही इस मान्यता को प्राप्त कर सकते हैं। रोचक यह है कि सरकार इसी खामी का फायदा उठाते हुए लोकपाल नियुक्ति को टालती रही। जिस तर्ज पर यह वाकया है उसे लेकर कुछ वैधानिक रूकावटें दिखती हैं पर सरकार की उदासीनता से ऐसा लगता है कि लोकपाल नियुक्ति के मामले में उसने भी आतुरता नहीं दिखाई है। काॅमन काॅज़ ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के विरूद्ध अवमानना याचिका दायर कर दी। दलील यह दी जा रही है कि सरकार ने षीर्श अदालत के आदेष को दरकिनार किया है। अब जब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तल्खी दिखाई है तो जाहिर है सरकार भी सुस्त नहीं बैठेगी। बावजूद इसके चिंता की बात तो यह है कि जनवरी 2014 से लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून बन चुका है और नियुक्ति के बगैर यह सब चल रहा है। वोट की राजनीति करने वाले सियासी दल जिस कदर लोकपाल को लेकर उदासीनता दिखाई है उससे यह भी साफ होता है कि भ्रश्टाचार से निपटने या नागरिकों के षिकायतों के निवारण के प्रति उनकी कथनी और करनी में अंतर है। वैधानिक और संस्थागत ढांचे के अंतर्गत देष में दो दर्जन से अधिक भ्रश्टाचार पर नियंत्रण की एजेंसियां हैं। बावजूद इसके भ्रश्टाचार के दंष से भारत मुक्त नहीं है। स्कैण्डिनेवियन देषों की जिस तर्ज पर लोकपाल व लोकायुक्त लाने का प्रयास था उन देषों के हालात यह हैं कि वहां भ्रश्टाचार ख्यालों में भी नहीं है और मानव विकास सूचकांक अव्वल है। यहां इस व्यवस्था को आये दो सौ से अधिक वर्श बीत चुके हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का यह आदेष कि बिना नेता विपक्ष के ही लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करें यह अपने आप में संतोश से भरा निर्णय है। जाहिर है अब सरकार कोई बहाना नहीं कर सकती।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, July 2, 2018

समावेशी विकास के कितने समीप जीएसटी !

जब 30 जून और 1 जुलाई, 2017 के रात के ठीक 12 बजे तत्कालीन राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मोदी ने बटन दबाकर जीएसटी का षुभारम्भ किया था तब यह उम्मीद जगी थी कि आर्थिक विकास का इंजन कहा जाने वाला जीएसटी अप्रत्यक्ष करों में बाढ़ तो लायेगा ही साथ ही समावेषी विकास को भी बल देने के काम आयेगा। जीएसटी को लागू हुए एक बरस हो गया जाहिर है इस दौरान सरकार ने सपने भी दिखाये और उसे परवान भी चढ़ाने की कोषिष की पर नतीजे कितने सफल कहे जायेंगे यह पड़ताल का विशय है। 1 जुलाई को केन्द्र सरकार ने जीएसटी दिवस मनाने का फैसला लिया जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है वहां जीएसटी को लेकर अनगिनत षिकायतें हैं। भाजपा षासित राज्य और उनके नेता जीएसटी का बखान करने में पूरी कूबत खर्च कर रहे हैं पर इसे समग्रता में देखने की आवष्यकता है। पिछले साल जुलाई में जीएसटी के चलते 95 हजार करोड़ अप्रत्यक्ष कर वसूला गया था जो जून 2018 में भी इसी आंकड़े के साथ बना हुआ है। हालांकि इस बीच आंकड़ा 80 हजार करोड़ से लेकर एक लाख करोड़ से ऊपर देखने को मिला है। मौजूदा वित्त वर्श में सरकार का अनुमान है कि जीएसटी से राजस्व 13 लाख करोड़ रूपए होगा। इस हिसाब से प्रति माह यह एक लाख दस हजार करोड़ के आसपास रहेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार ने जीएसटी के माध्यम से अर्थव्यवस्था को नया रूप देने की कोषिष की पर यह सवाल पहले और अब भी सुलग रहा है कि कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह कितनी भी दुरूस्त क्यों न हो, यह आवष्यक है कि वह समावेषी विकास के कितने समीप है। धन की उगाही से संचित निधि भरा जा सकता है मगर जनहित को सुनिष्चित करने वाली नीतियां यदि आभाव में हो तो इसका अर्थ समुचित नहीं रहता। 
पूरे देष की अप्रत्यक्ष कर की व्यवस्था में एकरूपता लाने के लिये जीएसटी जरूरी थी लेकिन इसमें किये जा रहे निरंतर बदलाव एवं सुधार ने लोगों को बेचैन भी किया और अभी भी यह सिलसिला थमा नहीं है। जीएसटी को नोटबंदी के साथ जोड़कर भी देखा जाना वाजिब है। बामुष्किल 8 महीने के भीतर देष ने दो बड़े बदलाव देखे जिसमंे 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी और 1 जुलाई, 2017 की जीएसटी। हालांकि इसके पीछे देष की भलाई ही देखी गयी पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया इसमें अनेकों खामियां भी सामने आयीं। इसके पहले 24 जुलाई 1991 को देष में तब बड़ा आर्थिक बदलाव आया था जब नई आर्थिक नीति के अंतर्गत उदारीकरण को अपनाया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के साथ बढ़ी हुई चुनौतियों से निपटने के लिये बड़े और जोखिमपूर्ण फैसले लेने पड़ते हैं। देष की सत्ता को आर्थिक बदलाव के बीच यह चिंता रही है कि गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी पर इसका क्या असर पड़ेगा। उदारीकरण के बाद जब वर्श 1992-97 के लिये आठवीं पंचवर्शीय योजना बनी तो उसमें समावेषी विकास को तवज्जो मिला। गरीबी यदि सामाजिक अभिषाप है तो समावेषी विकास इसकी मुक्ति का उपाय है। गरीबी उन्मूलन के लिये पांचवीं पंचवर्शीय योजना में प्रयास षुरू हुए जबकि बेरोजगारी के लिये उदारीकरण एक अच्छा हथियार था पर समय के साथ काज अधूरा रहा। ढ़ाई दषक बाद मोदी सरकार ने नई आर्थिक नीति को तवज्जो देते हुए बरसों से अटके जीएसटी को पिछले वर्श 1 जुलाई को लागू कर लिया पर सवाल दोबारा फिर वही खड़ा हुआ कि आखिर समावेषी अवधारणा का क्या हुआ। देष में अभी भी हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतना ही अषिक्षित भी। प्रति वर्श देष भर से तीन करोड़ ग्रेजुएट बनते हैं और 50 लाख से अधिक पोस्ट ग्रेजुएट और इन्हीं में से कई डाॅक्टरेट की डिग्री लेते हैं। देखा गया है कि बेरोजगारी के चलते उत्तर प्रदेष में चपरासी की नौकरी के लिये पीएचडी धारक भी आवेदन किये थे। भले ही सरकार के तमाम दावे हों और जीएसटी से कर उगाही बेषक बढ़ी हो पर युवाओं की किस्मत बदलने में ये हद तक नाकाम रहे हैं। रोचक यह भी है कि उत्तराखण्ड में वेतन देने के लिये सरकार को ऋण लेना पड़ता है जबकि यहां के वित्त मंत्री कह रहे हैं कि जीएसटी के बाद राज्य की आय दोगुनी हो गयी है। जीएसटी की बड़ाई करते समय वे यह भूल जाते हैं कि यह यदि बढ़त हुई है तो अन्य चीजें आभाव में क्यों हैं। नीतियों को धरातल पर लाकर जनता के जीवन में परिवर्तन भरना लोकतांत्रिक सरकार की ड्यूटी है न कि आंकड़ों की बाजीगरी में उलझाना। क्या यह बात सही नहीं है कि जब उत्तराखण्ड की आय दोगुनी हुई है तो विकास दोगुना क्यों नहीं?
समय के साथ समावेषी विकास की धारा और विचारधारा भी परिमार्जित हुई है। सुगम्य भारत अभियान, अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता और महिला सषक्तिकरण समेत उन्नत कौषल एवं प्रषिक्षण विकास से सुसज्जित होने के लिये कई सामाजिक, आर्थिक कृत्य वर्तमान सरकार के एजेण्डे में हैं। पुराने भारत को न्यू इण्डिया में तब्दील करने की चाहत भी मोदी सरकार की है। कैषलेस का दम भरने वाली सरकार ने 19 लाख करोड़ रूपये से अधिक की नकदी को चलन में लाकर इसका भी पलीता लगभग निकाल दिया है। हालांकि सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि ई-वे बिल से पांच हजार करोड़ तक जीएसटी संग्रह बढ़ा है। कहा जाय तो कोई भी परिवर्तन सरकार की सोच के विरूद्ध नहीं है पर जनता के हित में कितना है यह चिंतन का विशय है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते कमजोर कारोबारी धारणा और नई परियोजनाओं में गिरावट के कारण बिजनेस स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिये भी रोजगार तेजी से घट रहा है। एसोचेम की रिपोर्ट बताती है कि पहले 30 प्रतिषत एमबीए पास करने वाले विद्यार्थियों को रोजगार आसानी से मिल जाता था लेकिन अब यहां भी स्थिति खराब है। आॅल इण्डिया काउंसिल फाॅर टेक्निकल एजुकेषन के आंकड़े भी यह दर्षाते हैं कि जाॅब मार्केट में नौकरी की मौजूदगी कम हुई है। इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों की हालत कहीं अधिक खराब है। अब तो काॅलेजों में आधी भी सीटें नहीं भर रही हैं। कई तो बंद हो चुके हैं और कुछ बंद होने के कगार पर है। इंटरनेषनल लेबर आॅर्गेनाइजेषन की रिपोर्ट के अनुसार 2017 की तुलना में साल 2018 में देष में बेरोजगारी दर बढ़ेगी जबकि सरकार मुद्रा योजना के तहत ऋण लेने वाले और अनेक विधाओं से युक्त युवाओं को रोजगार से जोड़कर एक नई दुविधा पैदा किये हुए है। आमतौर पर सरकार यह मानती है कि उपरोक्त के चलते वह 12 करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार दे चुकी है। यदि यह सही है तो समावेषी विकास का पूरा सामंजस्य समाज में क्यों नहीं दिखता और विकास दर के साथ गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी को लेकर सकारात्मकता देष में क्यों नहीं प्रदर्षित होती।
जीएसटी लागू करने का मकसद एक देष, एक कर प्रणाली है जबकि इस ष्लोगन में भी कुछ खामियां दिखाई देती हैं इसमें एक देष तो है पर कर अनेक हैं। यहां करों का चार स्लैब है जिसमें 5, 12, 18 और 28 फीसदी है। वित्त मंत्री कह रहे हैं कि आय बढ़ी तो टैक्स घटेगा। सभी जानते हैं कि दुनिया में सैकड़ों देष जहां भी जीएसटी लागू है वहां अधिकतम 10 फीसदी ही टैक्स है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी स्पश्ट किया है कि दूध और मर्सिडीज़ पर एक कर सम्भव नहीं है। कथन तो वाजिब है पर जीएसटी में हो रहे प्रयोग को लेकर जल्दी निपटना सही रहेगा। सैद्धान्तिक रूप से जीएसटी एक स्वागत योग्य कदम है पर प्रारूप की गड़बड़ी ने मामला भी उलझा दिया और संघीय ढांचे के अंदर कुछ हद तक आर्थिक उथल-पुथल भी मचाया है। फिलहाल जीएसटी को लेकर खींचातानी से भरी राय अभी भी देष में चल रही है। यह तब तक जारी रहेगी जब तक इसके साइड इफैक्ट से निपटने में सरकार कामयाब नहीं होती। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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