Monday, June 28, 2021

सियासी समीकरण बदल सकता है परिसीमन

5 अगस्त 2019 को विषेश राज्य का दर्जा खत्म किये जाने के बाद जम्मू-कष्मीर के सभी बड़े दलों के साथ केन्द्र सरकार की बीते 24 जून को एक बैठक हुई जो हर लिहाज से सर्वदलीय थी। इसकी खास बात यह रही कि इसमें जम्मू-कष्मीर के कई छोटे-बड़े नेतृत्व ने अपनी राय साझा की और राज्य को लेकर कुछ चिंताओं से केन्द्र सरकार को अवगत कराया। गौरतलब है कि नेषनल कांफ्रेंस ने पूर्ण राज्य की जहां जरूरत बतायी वहीं अनुच्छेद 370 वापस लाने के लिए अदालती रास्ते पर जाने की बात भी कही। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने तो अनुच्छेद 370 हटाने को ही अवैध करार दे दिया और इसकी वापसी की बात कही। वैसे देखा जाये तो महबूबा मुफ्ती को अनुच्छेद 370 हटाया जाना सबसे ज्यादा तकलीफ देय है और इनका सियासी पैंतरा पाकिस्तान परस्त रहा है और अभी भी इसी राह पर है। इसके अलावा भी कई भिन्न-भिन्न बातें सर्वदलीय बैठक में हुई हैं। जाहिर है इस बैठक का सकारात्मक संदर्भ जहां अनुच्छेद 370 के खात्मे के साथ कई तल्खी उभरी थी उसको कम करने का यहां काम हुआ और यह भी समझने का प्रयास देखा जा सकता है कि अब जम्मू-कष्मीर को विकास की राह पर कैसे आगे और बढ़ाया जाये। कांग्रेस की भी यह मांग रही है कि पूर्ण राज्य का दर्जा जम्मू-कष्मीर को देते हुए विधानसभा का तुरन्त चुनाव हो, जमीन और नौकरी की सुरक्षा की गारंटी दी जाये तथा कष्मीरी पंडितों को वापस लाया जाये और राजनीतिक कैदियों की रिहाई की जाये। हालांकि केन्द्र सरकार ने अपनी एक मिलीजुली प्रतिक्रिया दी है जिससे यह साफ है कि मोदी सरकार की ऐसे मुद्दों को लेकर एक तरफा सोच नहीं रख रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पश्ट किया है कि जम्मू-कष्मीर के नेताओं के साथ हुई बैठक राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए कहीं अधिक अहम है। बैठक में यह भी बात बाहर आयी कि परिसीमन के बाद जम्मू-कष्मीर में चुनाव सम्पन्न होगा। 

गौरतलब है कि अनुच्छेद 370 और 35ए का जम्मू-कष्मीर से समाप्त किया जाना किसी ऐतिहासिक घटना से कम नहीं है। घाटी की परिस्थितियां जिस पैमाने पर बदलाव लेती रही हैं उसे देखते हुए चुनाव के लिए लम्बा इंतजार कोई हैरत की बात नहीं है। केन्द्र सरकार ने साफ किया है कि परिसीमन के बाद राज्य में चुनाव सम्पन्न होंगे। मार्च 2020 में जम्मू-कष्मीर के लिए परिसीमन आयोग का गठन किया जा चुका है। परिसीमन के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि राज्य के सभी चुनावी क्षेत्रों में विधानसभा सीटों की संख्या और क्षेत्र की जनसंख्या का अनुपात समान रहे। हालांकि कयास यह है कि यहां सीटें बढ़ सकती हैं। परिसीमन सियासी समीकरण को कुछ बदलने में कामयाब जरूर होंगे। जम्मू-कष्मीर में कुल 111 विधानसभा सीटें हैं लेकिन चुनाव केवल 87 सीटों पर होता था। इसमें से बची हुई 24 सीटें पाक अधिकृत कष्मीर में हैं जहां चुनाव सम्पन्न कराना सम्भव नहीं था। 46 सीटें कष्मीर में 37 सीटें जम्मू में और 4 सीटें लद्दाख में आती हैं। बहुमत के लिए 44 सीट की आवष्यकता होती थी। गौरतलब है कि पिछले चुनाव में बीजेपी कष्मीर में खाता नहीं खोल पायी थी लेकिन जम्मू में 37 के मुकाबले 25 सीट जीती थी और 2015 में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार भी चला चुकी है। यह वही पीडीपी है जो अलगाववाद से प्रेरित है। लद्दाख को एक अलग केन्द्र षासित प्रदेष बना दिया गया है। हालांकि विधानसभा सीट की संख्या इस क्षेत्र में मात्र 4 रही है ऐसे में जम्मू-कष्मीर में जो अलग से केन्द्र षासित प्रदेष है सीटों का बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। कयास यह भी है कि विधानसभा की यहां सीटें तुलनात्मक बढ़ सकती हैं। स्पश्ट कर दें कि जब 1993 में जम्मू-कष्मीर के परिसीमन के लिए एक आयोग गठित किया गया था जिसकी रिपोर्ट 1995 में लागू हुई तब यहां 12 सीटें बढ़ी थी। पड़ताल बताती है कि राज्य में विधानसभा की सीटों पर परिसीमन 1963 और 1973 में इसके पहले भी हो चुका है।

जम्मू-कष्मीर के भौगोलिक संदर्भ को समझें तो अब यह पहले की तुलना में कहीं अधिक छोटा और केन्द्र षासित प्रदेष की संज्ञा में है। 5 अगस्त 2019 से पहले लद्दाख समेत इसका क्षेत्रफल विषाल था अब 58 फीसद भूभाग लद्दाख में है षेश जम्मू-कष्मीर में है। यहां का सियासी पारा भी यहां धर्म और वर्ग में बंटे देखे जा सकते हैं। लद्दाख जो बौद्ध बाहुल्य है और आतंक से कोई नाता नहीं है। 26 प्रतिषत भूभाग जम्मू में आता है जो हिन्दू बाहुल्य है मगर आतंक की छिटपुट घटनाएं इसे चपेट में लेती रही। जबकि कष्मीर घाटी और षेश 16 फीसद हिस्सा मुस्लिम बाहुल्य है और यहां आतंक की मण्डी लगती है। सियासी दांव पेंच भी इसके इर्द-गिर्द देखे जा सकते हैं। परिसीमन से यदि सीटें जम्मू की ओर बढ़ती हैं तो कष्मीर में जो राजनीतिक घराने अपना वर्चस्व दषकों से बनाये रखे हैं उनके लिए मुष्किलें होंगी। हालांकि सीटें कहां कितनी बढ़ेगी कहना मुष्किल है मगर सीटों का जोड़-घटाव सियासी पारे का उतार-चढ़ाव भी सिद्ध होगा। नेषनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे कष्मीर के बड़े दल अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने के विरोध में हैं। बाकी दर्जन भर ऐसे भी दल हैं जो ऐसी ही राय रखते हैं मगर परिसंघीय ढांचे में अब जम्मू-कष्मीर भारत के षेश क्षेत्रों की तरह है जिसे देखते हुए अब विरोध बेकार की बात है। हालांकि राजनतिक दबदबा जब जमींदोज होता है तो मुसीबत का पहाड़ टूटता है सभी जानते हैं कि जम्मू-कष्मीर में दो परिवारों की अमूमन सत्ता रही है। हालांकि सत्ता तो कांग्रेस की भी रही है मगर तकलीफ सबसे ज्यादा षेख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती में दिखाई देता है। ऐसा उनका सियासी जमीन खिसकने के चलते है। 

दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ 14 वरिश्ठ नेताओं ने बैठक में हिस्सा लिया था। इसमें गुलाम नबी आजाद और फारूख अब्दुल्ला समेत 4 पूर्व मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री षामिल थे। जिस सद्भावना के साथ बैठक को एक मुकाम देने का प्रयास हुआ है उससे यह भी साफ है कि केन्द्र भी कष्मीर के स्थानीय नेताओं के साथ अब किसी प्रकार का तनाव या रार नहीं चाहती। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी क्षेत्र विषेश का विकास जितना विकेन्द्रित भावना के साथ हो सकता है उतना केन्द्रीय दबदबे से नहीं। जम्मू-कष्मीर अनुच्छेद 370 और 35ए की बेड़ियों से 70 सालों तक जकड़ा रहा और इससे मुक्ति का उद्देष्य भी यही रहा है कि राज्य को विषेश से मुख्य धारा की ओर लाया जाये और इसकी संवेदनषीलता को समझते हुए विकास की पटरी पर दौड़ाया जाये। यह तर्क भी गैर वाजिब नहीं है कि इन सबके लिए अभी भी केन्द्र सरकार की आवष्यकता तुलनात्मक अधिक बनी रहेगी। ऐसा वहां के सियासी दलों के अलगाववादी नजरिये के चलते कहा जा सकता है जो 370 और 35ए की अभी भी हिमायत कर रहे हैं। फिलहाल परिसीमन तत्पष्चात् चुनाव जम्मू-कष्मीर की पहली जरूरत है ताकि चुनी हुई सरकार और केन्द्र के प्रयास वहां के निवासियों की अपेक्षा को पूरा करे। संदर्भ निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि जम्मू-कष्मीर से सटे केन्द्र षासित लद्दाख को बेहतर विकास मिलने से इस सीमावर्ती प्रान्त कई अन्य समस्याओं को निपटने में न केवल सहायत होगा बल्कि मजबूत भारत में मददगार भी सिद्ध होगा।

(25 जून, 2021)



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


स्मार्ट व ई-गवर्नेंस के पथ पर आयकर विभाग

कई तकनीकी दक्षता के बावजूद रिटर्न फाइल करने वाले तमाम आम व खास जानकारों के लिए आयकर की वेबसाइट समस्या खड़ी करती रही है। मगर इस बार जारी नई वेबसाइट एक ऐसे संस्करण के तौर पर समझा जा सकेगा जो उपयोगकर्ता के लिए न केवल अनुकूल होगा बल्कि इसे मोबाइल से भी संचालित किया जाना पूरी तरह संभव है। इसके अलावा एक ही जगह से सारे समाधान इसमें निहित जो ई-गवर्नेंस की दिशा में एक जबरदस्त कदम कहा जा सकता है। ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते किसी भी तंत्र में तकनीक को समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाइयों को समाप्त करने साथ ही उसे तुलनात्मक सरल बनाने का संदर्भ निहित है और इसी से व्यवस्था अनुकूल, सरल और स्मार्ट बनती है। सरकार इसी ई-गवर्नेंस योजना के तहत आयकर विभाग में एक नई वेबसाइट बीते 7 जून को लांच की। जिसका मकसद करोड़ों करदाताओं को इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करने के लिए ई-फाइलिंग हेतु दी जाने वाली सुविधा को और सुविधाजनक व स्मार्ट बनाना। यह पूरी तरह से नया पोर्टल है जो कि जनता के लिए की ई-फाइलिंग को आसान बनाता है। इसमें स्पष्ट है कि इस पोर्टल का उद्देश्य करदाताओं और संबद्ध पक्षों के लिए आयकर संबंधी सेवाओं को देखते हुए एकल खिड़की उपलब्ध कराना है। गौरतलब है कि आयकर विभाग के लिए नीतियां बनाने वाले केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने नई ई-फाइलिंग वेबसाइट को जारी किया था। जिस पर ऑनलाइन भुगतान प्रणाली जैसे सुविधाएं बीते 18 जून से शुरू तो हो गई मगर वेबसाइट शुरू होते हैं कई तरह की कठिनाइयां भी सामने देखने को मिल रही हैं। इस पोर्टल में 40 से अधिक समस्याएं बताई जा रही हैं। जाहिर है सुविधा देने वाला यह पोर्टल अभी कई असुविधा से स्वयं जकड़ा भी है। गौरतलब है कि आयकर संबंधी पेशेवर सेवा देने वालों के संगठन डायरेक्ट टैक्स प्रोफेशनल एसोसिएशन अर्थात डीपीटीए ने स्पष्ट किया है कि आयकर पोर्टल में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जिस बाबत डीपीटीए द्वारा वित्त मंत्री को एक पत्र लिखने की बात सामने आई है। 


तकनीक हो या सामान्य संदर्भ एक क्रमिक रूप लेने समय तो लेता ही है। आयकर विभाग का यह नया पोर्टल भी इसी तरह की एक व्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है। आधारभूत मापदंडों में देखें तो पहली बार आयकर विभाग ने करदाताओं को कुछ बेहतरीन सुविधा देने का प्रयास किया है। नई वेबसाइट में कई ऐसे बिंदु हैं जो करदाताओं को रिटर्न दाखिल करने तक ही नहीं बल्कि रिटर्न और रिफंड का पता लगाने के लिए आयकर अधिकारियों से संपर्क साधने जैसे एकल खिड़की की व्यवस्था है। वैसे ई-गवर्नेंस एक ऐसा ढांचागत स्वरूप है जहां सिंगल विंडो संस्कृति का परिपक्व होना अपरिहार्य होता है। इस पोर्टल में आयकर रिटर्न के तत्काल प्रोसेसिंग की सुविधा है ताकि आयकरदाता को शीघ्र रिफंड जारी किया जा सके। सभी लेन-देन और अपलोड्स या पेंडिंग काम एक ही विंडो पर दिखाई देंगे जिसके चलते सभी चीजें एक ही पेज पर मिल जाएंगे। ताकि वह आगे की कार्रवाई आगे कर सके। नि:शुल्क आईटीआर सॉफ्टवेयर मिलेगा और भी सवाल पूछने
 पर उसका जवाब भी मिलेगा। बिना किसी टैक्स जानकारी के कोई भी टैक्सपेयर कम से कम डाटा दर्ज कर आराम से फाइलिंग कर सकेगा। यह मुफ्त में मिलने वाला आइटीआर प्रिपरेशन सॉफ्टवेयर होगा जिसे ऑनलाइन और ऑफलाइन एक साथ काम किया जा सकेगा। इतना ही नहीं फाइलिंग से जुड़ी कोई दिक्कत है उसकी जानकारी चाहिए तो फोन पर मदद ले सकते हैं। इससे टैक्सपेयर को अपना आईटीआर खुद भरने में आसानी होगी। करदाता को किसी भी प्रकार के सवाल जवाब देने के लिए नया कॉल सेंटर होगा। आयकर फॉर्म भरने वाले भरने टैक्स प्रोफेशनल को जोड़ने, स्कूटनी व अपील में नोटिस के जवाब प्रस्तुत करने की सुविधाएं उपलब्ध होंगे। टीडीएस या एसएफटी विवरण के अपलोड होने के बाद वेतन, आय, ब्याज, लाभांश और पूंजीगत लाभ को पहले से ही भरने की विस्तृत क्षमता उपलब्ध रहेगी। जिसकी अंतिम तारीख फिलहाल 30 जून तय है लेकिन इसे सरकार परिस्थितियों के साथ घटा-बढ़ा सकती है। उक्त विवरण इस बात का इशारा करते हैं के अनेकों आयकर दाताओं चार्टर्ड अकाउंटेंट्स, टैक्स के एडवोकेट्स और तकनीकी तौर पर इससे जुड़े व्यक्तियों के लिए यह नई संशोधित वेबसाइट कहीं अधिक कारगर रहेगी और शायद उनका लंबे समय से एक बेहतर पोर्टल का इंतजार भी खत्म होगा। खास यह भी है कि आयकर की इस नए पोर्टल में एक नया संस्करण का उदय दिखाई देता है।  यह कर नियमों,  कर विवादों, उसके समाधान और कर रिफंड से संबंधित हर चीज के लिए एक सुविधाजनक मार्ग के रूप में समझा जा सकता है। खास यह भी है कि यह वेबसाइट मोबाइल के अनुकूल है जाहिर है मोबाइल गवर्नेंस को भी इससे बढ़ावा मिलेगा। 

हलाकि कई तकनीकी खामियों से यह नई वेबसाइट जूझ रही है मगर इसके सुधार को लेकर भी एड़ी चोटी का जोर इन दिनों लगाते हुए देखा जा सकता है। जब वेबसाइट  बीते 7 जून को लॉन्च हुई थी तभी से इसकी तकनीकी समस्या को दूर करने के लिए इंफोसिस अपना काम कर रहा है। गौरतलब है कि इंफोसिस से 2019 में अगली पीढ़ी के आयकर फाइलिंग प्रणाली तैयार करने का अनुबंध किया गया था। जिसका मकसद रिटर्न की प्रसंस्करण प्रक्रिया में लगने वाले 63 दिन के समय को कम करके एक दिन करने और रिफंड प्रक्रिया को तेज करना था। वित्त मंत्री ने भी इंफोसिस और उसके चेयरमैन नंदन नीलेकणि से आयकर विभाग की नई ई-फाइलिंग वेबसाइट में आ रही तकनीकी गड़बड़ियों को दूर करने के लिए कहा है।  नीलेकणि की ओर से भी यह ट्वीट है कि नई ई-फाइलिंग पोर्टल पर रिटर्न फाइल करने की प्रक्रिया को सुगम बनाया जाएगा और उपयोगकर्ताओं को बेहतर अनुभव मिलेगा। फिलहाल आयकर विभाग की इस नई प्रणाली से नई पीढ़ी की जरूरतों को उड़ान मिलेगी। कार्य का तरीका स्मार्ट होगा और बेहतर अनुकूलन की उम्मीद की जानी चाहिए। पिछले कई वर्षों की तुलना में देखा जाए तोर टैक्स रिटर्न फॉर्म भी निरंतर सरल बनाए जाते रहे हैं और अब तकनीकी सरलता से इसकी सुगमता और बढ़ जाती है। कई तकनीकी और कागज परिप्रेक्ष्य को एक साथ करना भी कई कठिनाइयों को कम करने की तरह ही है मसलन बैंक खाते, पैन कार्ड और आधार को आपस में जोड़ा जाना। कई प्रकार के रिफंड में तेजी, सिंगल डैशबोर्ड, फ्री आईटीआर सॉफ्टवेयर, नया कॉल सेंटर व मोबाइल ऐप पर हर सुविधा समेत सरल टैक्स पेमेंट सिस्टम इत्यादि यह दर्शाता है कि नई वेबसाइट सुविधाओं का अंबार है। बशर्ते इसमें कुछ तकनीकी खामियां मौजूदा समय में है परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं इसकी सुगमता को नकारा जाए।
(21 जून, 2021)


 डॉ सुशील कुमार सिंह 
निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

सरकार को कोई यह खबर क्यों नहीं देता

तार्किक और वास्तविक संदर्भ यह भी है कि जीवन रोजाना की दर से जिया जाता है और इसके संतुलन के लिए कई जरूर पक्षों से प्रतिदिन जूझना होता है। इन्हीं में से एक पेट्रोल और डीजल भी है जो इन दिनों कीमत के मामले में आसमान को चीर चुका है। इसी से जुड़ा एक रोचक वाकया यह है कि हाल ही में पेट्रोल पंप पर गाड़ी में तेल डलवाने की पंक्ति में मै भी शामिल था। इसी दौरान एक ग्राहक को जोर से यह कहते सुना कि कोई सरकार को यह खबर क्यों नहीं देता कि कोरोना कमाई पर पहले ही डाका डाल चुका है और अब हर दिन बढ़ती तेल की कीमतें तो जीवन ही दूभर बना देगी। बात भले ही किसी एक ग्राहक ने कही हो पर इसमें सभी का दर्द शामिल हैं। उक्त संदर्भ कहीं अधिक समुचित और उचित है कि डीजल और पेट्रोल की कीमतों ने आम जनमानस को धराशाई कर दिया है। मई से अब तक के आंकड़े बताते हैं कि 26 बार डीजल और पेट्रोल के दाम बढ़ चुके हैं और कहीं कहीं तो पेट्रोल सौ रुपए प्रति लीटर की दर से बिक रहा है और डीजल की भी स्थिति कुछ शहरों में इसी आंकड़ों को छूते देखा जा सकता है। हैरत यह है कि जो डीजल पेट्रोल से मीलों पीछे होता था आज उसके साथ वह भी कदमताल कर रहा है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में तो पेट्रोल लगभग 105 रूपए लीटर के कगार पर है। वैसे भोपाल के अलावा मुंबई, हैदराबाद व बेंगलुरु जैसे देश के कई ऐसे शहर हैं जहां पेट्रोल सौ के पार है और कमोवेश डीजल सौ के समीप खड़ा है। बता दें कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हर रोज सुबह 6 बजे बदलाव होता है। पेट्रोल-डीजल के दाम में एक्साइज ड्यूटी, डीलर कमीशन और दूसरी चीजें जोड़ने के बाद इसका दाम करीब दोगुना हो जाता है। विदेशी मुद्रा दरों के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमत क्या है, इस आधार पर रोज पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बदलाव होता है।


दो टूक यह कि क्रूड आयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। करोना के समय मई 2020 में कच्चा तेल न्यूनतम स्तर पर था तब सरकार ने पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज ड्यूटी लगाकर इसके सस्ता होने की गुंजाइश 5 मई को ही खत्म कर दिया था। जबकि उसी साल मार्च में एक बार पहले भी यह महंगा हो चुका था। गौरतलब है कि मोदी शासनकाल में कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है और करोना काल में यह 20 डालर प्रति बैरल तक आ चुका था। तब देश को तेल की इतनीआवश्यकता नहीं थी क्योंकि सभी लॉकडाउन में थे। ऐसे में खपत गिरा जिससे न केवल ऑयल कंपनियां व उत्पादन करने वाले देशों को घाटा हुआ बल्कि सरकार का खजाना भी कमजोर हुआ। पिछले साल मई में बढ़ाई गई एक्साइज ड्यूटी का लक्ष्य एक लाख साठ हजार करोड़ रुपए कोष में जमा करने का था। जाहिर है जिस प्रकार तेल की कीमत में वृद्धि जारी है और सरकार अपने मुनाफे की चिंता करती रही है वही तेल की बेलगाम कीमत जनता को चोटिल भी कर रही है। चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक देश है। कोरोना की पहली लहर
व लॉकडाउन के दौरान भारत में तेल की खपत में 30 से 35 फीसद की कमी आई थी। दूसरी लहर में भी स्थिति डांवाडोल हुई है। गौरतलब है कि कोरोना की दूसरी लहर से पहले ही तेल की कीमत से आम जनमानस हताहत था पर कोरोना में कमजोर कमाई के बीच बढ़ी तेल की कीमत लोगों की जेब पर और भारी पड़ रही है। गौरतलब है कि अपनी आवश्यकता का 86 फीसद तेल भारत आयात करता है जो अधिकतम खाड़ी देशों से आता है। इस समय सऊदी अरब पहले नंबर पर है। जिन देशों में तेल की खपत घटी थी उनकी अर्थव्यवस्था इसके चलते चरमराई और तेल उत्पादन इकाइयों के लिए खतरा होने लगा था। खास यह भी है कि 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी है।

महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि भारत के पास तेल भंडारण की क्षमता अधिक नहीं है। जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। चीन ने एक तरफ दुनिया को करोना में डाला तो दूसरी तरफ सस्ते कच्चे तेल का भंडारण किया। भारत में रोजाना 46 लाख प्रति बैरल तेल की खपत होती है। अगर तेल सस्ता भी हो जाए तो उसे रखने की जगह नहीं होती है। भारत ने हाल ही में 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिजर्व बनाएं जबकि यह चार गुना होना चाहिए था। चीन के पास तो 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिजर्व की क्षमता है। इसकी तुलना में भारत 14 गुना पीछे है। कच्चे तेल का दाम घटते ही चीन ने अपना पिछले साल अपना रिजर्व मजबूत कर लिया था और यह इतनी बड़ी मात्रा में था कि यहां 2 साल तक तेल के दाम न बढ़ाए जाएं तो भी स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जबकि भारत की स्थिति यह है कि लॉकडाउन में तेल जमा नहीं कर पाया और अनेक में  कीमत बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। यह पहले भी हुआ है और अब भी जारी है। वैसे भी चौतरफा अर्थव्यवस्था की मार झेल रही सरकार तेल से कमाई का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। कच्चे तेल के दाम कुछ भी रहे हो भारत में तेल पर लगने वाले टैक्स हमेशा ऊपर ही रहे जिससे जनता की जेब खाली होती रही। जाहिर है तेल से होने वाली कमाई भारत को राजकोषीय घाटा कम करने में मदद करती है। मगर यहां सरकार को भी सोचना होगा कि अर्थव्यवस्था की मार उन्हीं पर नहीं बल्कि 130 करोड़ जनता पर भी पड़ी है। यह बता दें कि जून 2017 से जिस डीजल और पेट्रोल का दाम तय करने का जिम्मा सरकार ने आयल कंपनियों को दे दिया अब कंपनियां किसी भी स्थिति में घाटे में नहीं रहती है और सरकार मुनाफा लेने से नहीं चूकती। जिसके कारण जनता को सस्ता तेल मिल ही नहीं पाता है। जबकि मिट्टी का तेल और रसोई गैस पर नियंत्रण अभी भी सरकार का है। पड़ताल करके देखें तो तेल की कीमतें विदेशी मुद्रा दरों और अंतरराष्ट्रीय बाजार के कच्चे तेल की कीमतों पर के आधार पर बदलती रहती है। इन्हीं मांगों के आधार पर तेल कंपनियां प्रतिदिन तेल के दाम तय करती रहती है। जिसमें रिफाइनरी, तेल कंपनियों के मुनाफे, पेट्रोल पंप का कमीशन, केंद्र की एक्साइज ड्यूटी और राज्य का वैट साथ ही कस्टम और रोड सेस ससभी जुड़ा रहता है।

 तेल की बढ़ती कीमतें इस बात का द्योतक है कि महंगाई चरम पर होगी और इसे देखा भी जा सकता है। इस देश में 94 फीसद गैर संगठित क्षेत्र है और करोना काल में आर्थिक तौर पर यह वर्ग काफी हद तक जमींदोज हुआ है। कमाई खत्म हुई, बचत समाप्त हो गई और आगे की उम्मीदें भी कहीं ना कहीं अभी धूमिल है। ऐसे में यदि तेल की कीमतें बेलगाम बनी रहेगी तो आम जनमानस जीवन के जद्दोजहद में कहीं अधिक कमजोर सिद्ध होगा। लोकतंत्र से भरी सरकारें लोगों की चिंता करती हैं और यह संदर्भ हर लिहाज से उचित है कि महंगाई पर लगाम लगाना सरकार का नैतिक धर्म है। ऐसा ना हो पाने की स्थिति में जनता के साथ सरकार द्वार छल ही कहा जाएगा । मई 2014 में मोदी सरकार के प्रतिष्ठित होने से पहले 109 डॉलर प्रति बैरल कच्चा तेल था तब पेट्रोल 72-73 रुपए प्रति लीटर मिला करता था। इतना ही नहीं मनमोहन के शासनकाल में ही कच्चे तेल की कीमत 145 डॉलर प्रति बैरल भी रही है मगर कीमत 80 के पार नहीं गए। जबकि मोदी शासनकाल में 20 डॉलर प्रति बैरल तेल की कीमत होने के बावजूद महंगाई से लोगों का पीछा नहीं छूटा।  पेट्रोल तो छोड़िए डीजल को भी सौ के आस पास खड़ा कर दिया गया है अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस सहित कई देशों की तुलना में भारत में तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स है। भारत के बाद टैक्स जर्मनी में है जबकि अमेरिका में तो भारत से 3 गुना कम टैक्स है। समझने वाली बात यह है कि तेल की कीमत के चलते रसोई महंगी हो जाती है, बाजार की वस्तु में आसमान छूने लगती हैं, परिवहन सुविधाएं बेकाबू होने लगती हैं और जीवन की भरपाई पेट कटौती में चली जाती है। ऐसे में सवाल है कि जनता से वोट लेकर भारी-भरकम सरकार चलाने वाले उसी की जेब और जीवन पर क्यों भारी पड़ते हैं?
(19 जून, 2021)

सुशील कुमार सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार 

मोबाइल गवर्नेंस की ताकत

सरकार की क्षमता को बेहतर बनाने हेतु सूचना और संचार तकनीक के उपयोग को ई-गवर्नेंस के नाम से परिभाषित करते हैं। इसी ई-गवर्नेंस का एक उप डोमेन मोबाइल गवर्नेंस (एम-गवर्नेंस) जो समावेशी और सतत विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया हो गया है। जिसके चलते सुशासन का मार्ग भी और चौड़ा हो रहा है। समावेशी विकास के लिए किसी कुंजी से कम नहीं मोबाइल गवर्नेंस देश में 136 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में 120 करोड़ मोबाइल का उपयोग किया जा रहा है। हालांकि इस बात में पूरी स्पष्टता नहीं है कि कितनों के पास मोबाइल दो या उससे अधिक है लेकिन यह भारी-भरकम आंकड़ा दर्शाता है कि भारत मोबाइल केंद्रित हुआ है। सरकार की योजनाओं की पहुंच का यह एक अच्छा तकनीक व रास्ता भी बना है। गौरतलब है कि ई-गवर्नमेंट के अंतर्गत ही ई-प्रशासन और ई-सेवाएं आती है। इसके अलावा सरकारी सेवाओं के ऑनलाइन प्रावधान ने भी सेवा क्षमता का विकास किया है। जाहिर है यह पारदर्शिता के साथ खुलेपन का पयार्य है। बावजूद इसके भ्रष्टाचार के प्रवेश द्वार पूरी तरह बंद है ऐसा कहना इसलिए कठिन है क्योंकि समावेशी विकास के इस दौर में सभी का सर्वोदय अभी भी संभव नहीं हुआ है जिसके लिए दशकों से प्रयास जारी है। गौरतलब है कि ई-लोकतंत्र समाज के सभी तबकों द्वारा राज्य के अभिशासन में भाग ले सकने की क्षमता के माध्यम से लोकतंत्र के विकास की दिशा में भी सूचना और संचार तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ई-लोकतंत्र पारदर्शिता, दायित्वशीलता और प्रतिभागिता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करता है। मोबाइल शासन के चलते कार्य तेजी से और आसानी से होने लगे है। समावेशी विकास रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा चिकित्सा, बिजली,पानी, रोजगार समेत कई बुनियादी तत्वों से युक्त है जिसकी पहुंच सभी तक हो, ऐसा सुशासन से भरी किसी भी सरकार की यह पहली ड्यूटी है। गौरतलब है कि भारत में साल 2025 तक 90 से अधिक लोग सीधे इंटरनेट से जुड़े जाएंगे जबकि मौजूदा स्थिति में यह आंकड़ा 65 से 70 करोड़ के आसपास है जाहिर है इंटरनेट कनेक्टिविटी मोबाइल गवर्नेंस को और ताकत भरेगा। जिसके चलते सतत और समावेशी विकास के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त करना तुलनात्मक आसान होगा।

प्रत्येक राष्ट्र अपनी जनता और सरकार के साझा मूल्यों द्वारा निर्देशित होता है। राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, गुटनिरपेक्षता, एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था भारत के मूल्यों में निहित है। सभी को ईज आफ लिविंग और गरिमामय जीवन का अधिकार है मगर यह बिना सरकार  के भागीरथ प्रयास के संभव नहीं है। भले ही तकनीक इतनी ही मजबूत क्यों ना हो जाए यदि संसाधन पूरे ना हों उद्देश्य पूरे नहीं हो सकते। समावेशी विकास का एक लक्ष्य 2022 तक दो करोड़ घर देने और किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य है। हालांकि यह लक्ष्य समय पर मिलेगा अभी टेढ़ी खीर लगती है क्योंकि पिछले ढेड साल से देश कोरोना से जूझ रहा है। मार्च 2019 तक सरकार का यह लक्ष्य था कि समावेशी विकास को सुनिश्चित करने हेतु 55 हजार से अधिक गांव में मोबाइल कनेक्टिविटी उपलब्ध कराना और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना जनधन खाते, डेबिट कार्ड, आधार कार्ड, भीम एप्प आदि को जन-जन तक पहुंचाना भी सरकार का ही लक्ष्य था। ताकि लोगों को डिजिटल लेनदेन से जोड़ा जा सके और सारी योजनाओं का सीधा लाभ लाभ मिल सके। मोबाइल गवर्नेंस को बाकायदा यहां प्रभावशाली होते देखा जा सकता है। गौरतलब है कि समय समावेशी इंटरनेट सूचकांक 2020 में भारत 46 वें स्थान पर है जिसमें समय के साथ बड़े सुधार की आवश्यकता है ताकि इन गवर्नेंस को और मजबूत किया जा सके। गौरतलब है कि सुशासन के उद्देश्य की पूर्ति में मोबाइल शासन यहां  मात्र एक तकनीक है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुशासन क्या है इसे भी समझना सही रहेगा। दरअसल सुशासन के समक्ष खड़ी केंद्रीय चुनौती का संबंध सामाजिक विकास से है। सुशासन का अपरिहार्य उद्देश्य सामाजिक अवसरों का विस्तार और गरीबी उन्मूलन होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो सुशासन का अभिप्राय न्याय, सशक्तिकरण और रोजगार एवं क्षमता पूर्वक सेवा प्रदान सुनिश्चित करने से है। सुशासन अभी विविध प्रकार की चुनौतियों से जकड़ा है मसलन गरीबी, निरक्षरता, पहचान आधारित संघर्ष, क्षेत्रीयता, नक्सलवाद, आतंकवाद इत्यादि कुछ प्रबल चुनौतियां हैं। जो सुशासन को पूरी तरह सक्षम बनने में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। इन चुनौतियों के साथ-साथ राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्टाचार भी इसके पथ को खुरदरा बनाए हुए हैं।

भारत सरकार का लक्ष्य मोबाइल फोन की व्यापक पहुंच का उपयोग करना और सार्वजनिक सेवाओं विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में आसान और 24 घंटे पहुंच को सक्षम बनाने व मोबाइल ढांचा के साथ मोबाइल एप्लीकेशन क्षमता का उपयोग बढ़ाकर एम-गवर्नेंस को बड़ा करना।
गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने साल 2012 में मोबाइल गवर्नेंस के लिए रूपरेखा विकसित और अधिसूचित की थी। फिलहाल भारत सरकार के शासन ढांचे का उद्देश्य मोबाइल फोन की विशाल पहुंच का उपयोग करना। जाहिर है मोबाइल गवर्नेंस के कई लाभ हैं, पैसे की बचत, नागरिकों को बेहतर बेहतर सेवाएं, पारदर्शिता, कार्य में शीघ्रता, आसान पहुंच और बातचीत सहित किसी प्रकार का भुगतान व सरकार की योजनाओं की पूरी जानकारी तीव्रता से पहुंच जाती है।  गौरतलब है कि 15 अगस्त 2015 को लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने सुशासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई- गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है। जाहिर है एम-गवर्नमेंट ई-गवर्नेंस का उप-डोमेन है जो समावेशी विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया तो है। जिसके चलते सुशासन आगे बढ़ा और आगे भी व्यापक बनाया ही नहीं जा सकता बल्कि बल्कि समावेशी विकास की चुनौती को देखते हुए नव लोक प्रबंधन की प्रणाली भी विकसित करना भी आसान होगा। लोक चयन उपागम का भी यह एक मजबूत रास्ता है। डिजिटल गवर्नेंस जितना तेजी से आगे बढ़ेगा भ्रष्टाचार को कमजोरी मिलेगी। हालांकि पारदर्शिता और प्रासंगिकता जहां पर है यह जरूरी नहीं कि वहां अनियमितता पूरी तरह खत्म है। मोबाइल गवर्नेंस एक ऐसी विधा है जिसे जेब का शासन भी कह सकते हैं जो शासन के लिए ही नहीं बल्कि जनमानस के लिए भी सरल सुगम और सहज पथ है।
(16 जून, 2021)

सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार 

ताकि सामाजिक सुरक्षा को गारंटी मिल सके!

 प्रत्येक नागरिक को राज्य द्वारा उचित जीवन यापन का आश्वासन दशकों पहले आजादी के साथ ही अनिवार्य कर दिया गया था। जिसका पूरा लेखा-जोखा भारतीय संविधान में देखा जा सकता है। और समाज के कमजोर लोगों जैसे विकलांग,अनाथ बच्चे, निराश्रित वृद्ध, विधाएं और दलित शोषित लोग आदि को सक्षम और समर्थ बनाने के लिए पूर्ण जिम्मेदारी है राज्यों ने अपने कंधों पर ले ली ताकि इन लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने बनाते हुए स्वास्थ व समतामूलक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण तैयार किया जा सके। समय कहां किसे लाकर खड़ा कर देगा इसका अंदाजा पहले से नहीं लगाया जा सकता। मगर उस समय के आईने में शासन -प्रशासन और सुशासन सभी की परख होती जरूर है। जैसा कि करोना काल में जनमानस की तकलीफों के बीच सरकार और सिस्टम की स्थिति क्या है और उसकी ताकत और कमजोरी कहां और कितनी है इन सबका बाकायदा खुलासा हुआ। कोरोना के इस कालखंड के भीतर जिस कदर समस्याएं बेकाबू हुई है। वह ईज आफ लिविंग से लेकर जीवन के जरूरी और अनिवार्य पक्ष को मील पीछे धकेल दिया। सतर्क रहने और स्वस्थ रहने का भरसक प्रयास अभी निरन्तरता लिए हुए है।हलाकि सरकार द्वारा जो बन पड़ रहा है वो किया जा रहा है। गौरतलब है कि दीपावली तक 80 करोड़ लोगों को भूख मिटाने के लिए अनाज की व्यवस्था और मुफ्त टीके की बात हो चुकी है। भारतीय समाज अधिकांश एक पिछड़ा समाज है। गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, अशिक्षा, बीमारी  सामाजिक-आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता आदि विकराल समस्याओं से देश को अभी भी जूझता पड़ता है। इन बुराइयों का सामना और समाधान सुशासन से भरी सामाजिक लोकनीति के माध्यम से ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से भारत जैसे विकासशील देश में राज्य की भूमिका केवल कानून-व्यवस्था देखने तक सीमित नहीं हो सकती बल्कि एक बेहतर सामाजिक प्रशासन का प्रदर्शन करना और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के साथ एक संवेदनशील लोक कल्याण को वितरित करना उनकी उनकी व्यापक जिम्मेदारी में शामिल माना जाता है। मगर जब यही राज्य कोरोना के सामने बेबस हो तब सामाजिक प्रशासन को एक बड़ा झटका लगता है

धीमा पड़ चुका कोरोना जिस गति से पैर पसारा। वह आम जनजीवन और सभ्यता के लिए एक बड़े खतरे का सूचक बन गया। देश में कोरोना की दूसरी लहर ने कहर ढाया। कोरोनावायरस का साइड इफेक्ट आम जनमानस पर भी आसानी से देखा जा सकता है। आंकड़े इशारा करते हैं कि कोरोना ने भारत में करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया है और मध्यम वर्ग की कमर टूट रही है जो सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से एक बड़ी चुनौती है। दूसरी लहर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर भी अपना कहर ढा रही है। साथ ही आम जनजीवन को भी हाशिए पर धकेल दिया है। भारत के विकास को लेकर जारी तमाम रेटिंगस् भी अनुमान से नीचे दिखाई दे रहे हैं। साफ है कि एक ओर भारत की अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है तो दूसरी ओर आम जनमानस गरीबी और मुफलिसी के चलते सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के मामले में हाशिए पर है। देश के तमाम अर्थशास्त्रियों का भी यही मानना है कि कोरोना की पहली और दूसरी लहर से बहुत सारे सेक्टर  बुरी तरह प्रभावित हुए हैं तो कई ऐसे भी हैं जो जोरदार प्रदर्शन कर रहे हैं और वह अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर लाने और दौड़ाने  में अहम रोल अदा कर रहे हैं।  ई-कॉमर्स सेक्टर,  सूचना प्रौद्योगिकी, फार्मास्यूटिकल, दूरसंचार क्षेत्र आदि इस मामले में बेहतर माने जा रहे हैं। गौरतलब है कि लॉकडाउन से पिछले साल रिकॉर्ड 27 फीसद बेरोजगारी दर्ज की गई थी। आर्थिक सुधारों के बाद जनवरी 2021 में हालात कुछ बेहतर होने लगे थे मगर मौजूदा समय में दूसरी लहर ने यह फिर एक खराब स्थिति को पैदा कर दिया। जाहिर है करोना को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से लाखों श्रमिकों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। पाई-पाई का मोहताज होना पड़ा है और खर्च चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए मजबूर भी होना पड़ा।

अमेरिकी रिसर्च एजेंसी प्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों पर विश्वास करें तो करोना महामारी के चलते भारत के मध्यम वर्ग खतरे में है। कोरोना काल में आए वित्तीय संकट ने कितनी परेशानी खड़ी की इसका कुछ हिसाब- किताब अब दिखाई देने लगा है। गौरतलब है कि भारत में मिडिल क्लास की पिछले कुछ सालों में बढ़ोतरी हुई थी मगर कोरोना ने करोड़ों को पटरी कर दिया। कोरोना से पहले देश में मध्यम वर्ग की श्रेणी में करीब 10 करोड़ लोग थे अब संख्या घटकर 7 करोड़ से भी कम हो गई है। यह भी है कि चीन की तुलना में भारत के मध्यम वर्ग में अधिक कमी और गरीबी में भी अधिक वृद्धि होने की संभावना देखी जा रही है। साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम वर्ग की श्रेणी में शामिल हुए थे मगर कोरोना ने एक दशक की इस कूवत को एक दशक में ही आधा रौद दिया। गौरतलब है कि जनवरी 2020 में विश्व बैंक ने भारत और चीन की विकास दर की तुलना की थी जिसमें अनुमान था कि भारत 5.8 फीसद चीन और 5.9 फीसद के स्तर पर रहेगा लेकिन कुछ ही महीने बाद भारत का विकास दर ऋणात्मक स्थिति से साथ भर-भरा गया।कोरोना से बिगड़े आर्थिक हालात को देखते हुए सरकार द्वारा मई 2020 में 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज भी आवंटित किए गए मगर भीषण आर्थिक तबाही का सिलसिला जारी रहा और और मध्यम वर्ग के आर्थिक दुर्दशा के साथ करोड़ों गरीबी में गुजर-बसर के लिए मजबूर हो गये।

गौरतलब है कि काम-धंधे पहले ही बंद हो गए थे, कल कारखानों के ताले अभी खुले नहीं थे कि दूसरी लहर आ गई। गांव से शहर तक रोजी-रोजगार का संकट बरकरार है जाहिर है आर्थिक दुष्चक्र से पीछा जल्दी छूटने वाला नहीं है। पहली लहर में 14 करोड़ लोगों का एक साथ बेरोजगार होना काफी कुछ बयां कर देता है।  करोड़ों की तादाद में यदि मध्यमवर्ग सूची से बाहर होता है तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मगर एक यक्ष प्रश्न यह है कि कोरोनावायरस इतनी बड़ी तबाही मचा दी और देश लगातार मुसीबतों को झेलता रहा बावजूद इसके इससे निपटने के बेजोड़ नीति अभी अधूरी क्यों ?  ढेड साल से अधिक समय करोना को आए हो गया। तीसरी लहर की संभावना भी व्यक्त की जा चुकी है। यदि लहर पर लहर आती रही और इसका निस्तारण समय रहते ना हुआ तो इसमें कोई शक नहीं कि देश में गरीबों की तादाद बढ़ेगी। भुखमरी और मुफलिसी के आगोश में करोड़ों समाएंगे और विकास के धुरी पर घूमने वाला भारत आर्थिक दुष्चक्र में फंस कर उलझ सकता है साथ ही सामाजिक सुरक्षा बहुत बड़े खतरे की ओर होगा। अब सरकार इस मामले में कितनी खरी उतरती है यह उसे सोचना है और साथ ही जनता को भी यह विचार करना है कि आखिर कोरोना के इस भंवरजाल से कैसे बाहर निकले। सादगी और संजीदगी यही कहती है कि समय रहते दोनों को होश में आ जाना चाहिए ताकि सभ्यता,संस्कृति और देश सभी को आसानी से पटरी पर लाया जा सके। फिलहाल देश में सबसे पहले टीकाकरण की रफ्तार तेज करनी होगी। रोजगार को दुरुस्त करना होगा। पर्यटन समेत कई सेक्टर पर विशेष बल देने की आवश्यकता होगी। शिक्षा व चिकित्सा समेत कई बुनियादी ढांचे एक बार नए सिरे से सही करना होगा। ताकि ऐसी आपदाओं के बीच नुकसान की गुंजाइश कम रहे और सामाजिक सुरक्षा को गारन्टी मिल सके।

(12  जून, 2021)

 
 
डॉ. सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रशासनिक चिन्तक 
मोबाइल: 9456120502

आईएएस के तर्ज पर चिकित्सा सेवा

 गौरतलब है कि लोक स्वास्थ्य, संविधान की सातवीं अनुसूची में निहित राज्य सूची का विषय है। जिस पर कानून बनाने का जिम्मा राज्यों का है। बावजूद इसके दायित्व की दृष्टि से केंद्र की भूमिका कमतर नहीं होती। बिगड़े हालात में चिकित्सीय व्यवस्था चरमराई है और अलग-अलग राज्यों की अपनी मजबूरियां जनमानस के लिए कठिनाई भी पैदा किया है। यह बात पहले से ही उठती रही है कि आईएएस की तर्ज पर चिकित्सा सेवा बने। हाल ही में स्वास्थ्य पर बने एक स्वतंत्र आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि समाज और समुदाय तक स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की तरह चिकित्सा सेवा को भी विकसित किया जाए। कुछ दिन पहले ही 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष ने स्वास्थ्य को संविधान की समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने की बात कही थी। जाहिर ऐसा होने से केंद्र का प्रभाव लोक स्वास्थ्य पर सीधे तौर पर बड़े पैमाने देखा जा सकेगा। गौरतलब है कि जब कोई विषय समवर्ती सूची में होता है तो उसमें केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं लेकिन असहमति की स्थिति में केंद्र की ही बात अंतिम सत्य होती है।


 यदि स्वास्थ्य को अखिल भारतीय रुप दिया जाता है जिसमें कैडर व अवधि प्रणाली होती है। कैडर के अंतर्गत राज्य विशेष में सेवा देते हैं और अवधि प्रणाली  में  कुछ समय के लिए केंद्र में प्रतिनियुक्ति के तौर पर देखे जा सकते है। इस सेवा के गठन से अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी को दूर करना, स्वास्थ्य सुविधाओं का आधारभूत संरचना व दवाइयों की किल्लत से निपटने में आसानी हो सकती है। कुशल व प्रशिक्षक नर्सिंग स्टाफ एवं अन्य सुविधाओं की भारी कमी का निपटान भी संभव है। ध्यानतव्य हो  विश्व स्वास्थ्य संगठन एक हजार जनसंख्या पर एक डॉक्टर की नियुक्ति की बात करता है। जबकि भारत में 11हजार से अधिक लोगों पर एक चिकित्सक है। अंदाजा लगा सकते हैं कि चिकित्सकों की एक बड़ी तादात की कमी है। हॉस्पिटल की संख्या तो कम है उसमें बेड भी सीमित संख्या के साथ अन्य सुविधाएं भी कठिनाई में है।


पड़ताल बताती है कि स्वतंत्रता के पश्चात सबसे पहले देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कैडर गठित करने का सुझाव मुदलियार समिति ने दिया था। समिति ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य कल्याण की समस्या से संबंधित कर्मियों के पास एक समग्र दृष्टिकोण के साथ प्रशासन का अनुभव होना चाहिए। दो दशक के बाद साल 1973 में गठित करतार सिंह कमेटी ने कहा था कि संक्रामक रोग नियंत्रण, निगरानी प्रणाली  डेटा प्रबंधन समिति आदि मामलों में चिकित्सकों को कोई औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। स्वास्थ्य कैडर के लिए 1997 में पांचवें वेतन आयोग में भी सिफारिश की थी। साल 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में इस बात की वकालत की गई थी। गौरतलब कोरोना महामारी के बीच  मार्च 2021 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की संसदीय समिति ने अनुदान समिति मांगों पर अपनी 126 भी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि आईएएस आईपीएस और आईएफएस की भांति अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा के रूप में एक अलग तरह का कैडर गठित किया जाए। समझने वाली बात यह भी है कि स्वतंत्रता से पहले भारतीय चिकित्सा सेवा एक अखिल भारतीय सेवा का रूप रही है। वैसे यह सेवा 1763 में सबसे पहली बार देखने को मिली और यह उस दौर के तीन प्रेसिडेंसी बंगाल, मद्रास और बाम्बे में स्थापित देखे जा सकते हैं। 

दो टूक यह भी है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा  संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है मगर यह सरकारों की दृष्टि में मानो कभी प्राथमिकता में रहा ही न हो। वर्तमान में देश में तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं, भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा एवं वन सेवा जिनके अधिकारी केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहते हुए भारत के प्रत्येक राज्य में अपनी सेवाएं देते हैं। जिन्हें अखिल भारतीय सेवा कहते हैं। इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से देखा जा सकता है। मगर ऐसी सेवाओं पर यह भी आरोप रहा है कि यह राज्य सरकार के नियंत्रण से बाहर होती है। गौरतलब है कि सुशासन का केंद्र बिंदु नागरिक है और नागरिकों को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवा यदि समय पर ना मिले तो जीवन के अधिकार को खतरा पहुंच सकता है  ऐसे में स्वास्थ्य  सुशासन से जुड़े इस संदर्भ को सूझबूझ के साथ देखने की आवश्यकता है कि क्या वाकई में आईएएस के तर्ज पर कैडर विकसित करना स्वास्थ्य सुशासन को मजबूत और पुख्ता करेगा साथ ही जनता को  चिकित्सा का पूरा अधिकार सुविधा मिलेगी।
(11  जून, 2021)

डॉ. सुशील कुमार सिंह 
निदेशक,  वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन

दौर ई-एजुकेशन और ई-गवर्नेंस का

महामारी के इस कालखंड में शिक्षा बहुत बड़ी मुश्किल का सामना कर रही है और इससे निपटने के लिए स्कूल,  कॉलेज और विश्वविद्यालयों ने डिजिटल अर्थात ई-शिक्षा का रास्ता चुना। ऑनलाइन कक्षाएं तो किसी तरह पहले और दूसरी लहर में भी जारी रहीं मगर कोरोना के कहर ने 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा को रद्द करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। जाहिर है पढ़ाई और परीक्षा दोनों दृष्टि से करोना बहुत भारी कीमत चुकाने के लिए मजबूर किया। गौरतलब है कि जब 2006 में ई- गवर्नेंस आंदोलन मूर्त रूप लिया था तब से देश में डिजिटलीकरण का प्रभाव तेजी से बढ़ा।  हालांकि ई-शिक्षा दुनिया में नई विधा नहीं है मगर वर्तमान में इसका विस्तार व्यापक रूप ले लिया है। स्टडी ऐट होम की अवधारणा से युक्त ई-शिक्षा एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरी है। कक्षा से लेकर परीक्षा तक इसकी उपादेयता देखी जा सकती है। कोरोनावायरस का प्रभाव हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर न पड़े ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता और नहीं शिक्षा व्यवस्था के पहले जैसे होने की स्थिति दिखती है। बहुत से लोग जब पीछे मुड़ कर देखेंगे तो पाएंगे कि उनके जीवन की कई चीजें बदल गई है। स्कूल का विद्यार्थी हो या विश्वविद्यालय का शोधार्थी या फिर सिविल सेवा परीक्षा का प्रतियोगी सभी मोबाइल स्टडी की जकड़न में आ चुके हैं। गौरतलब है कि भारत समेत दुनिया के अनेक देशों और जाने-माने शिक्षण संस्थाएं क्लासरूम टीचिंग से डिजिटल शिक्षा की ओर तेजी से कदम बढ़ा चुकी है। दुनिया समय भारत का शैक्षणिक वातावरण ऑनलाइन पर इन दिनों टिक गया है। यूनेस्को की मानें तो पिछले साल 14 अप्रैल 2020 तक जब भारत का पहला 21 दिन का लॉकडाउन समाप्त हुआ था तब तक दुनिया के डेढ़ अरब से अधिक छात्र-छात्राओं की शिक्षा प्रभावित हो चुकी थी। रूस ऑस्ट्रेलिया कनाडा अमेरिका ब्रिटेन इटली फ्रांस जर्मनी समेत ग्रीनलैंड व भारत आदि देश लंबे समय तक लॉकडाउन में रहे जिनका सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव शिक्षा पर भी देखा जा सकता है।  


जब कभी देश में ई-गवर्नेंस की बात होती थी तब नए डिजाइन और सिंगल विंडो संस्कृति प्रखर होती थी।  नागरिक केंद्रित व्यवस्था के लिए सुशासन प्राप्त करना एक लंबे समय की दरकार रही है। ऐसे में ई-गवर्नेंस इसका बहुत बड़ा आधार है। गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरशाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाइयों को समाप्त किया जा सकता है। देखा जाए तो नागरिकों को सरकारी सेवाओं की बेहतर आपूर्ति, प्रशासन में पारदर्शिता की वृद्धि के साथ ही सुशासन प्रक्रिया में व्यापक नागरिक भागीदारी मनमाफिक पाने हेतु ई- गवर्नेंस कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। ई गवर्नेंस ने ही स्मार्ट एजुकेशन और शिक्षा को रास्ता दिया है जो शिक्षा में सुशासन का एक चौड़ा मार्ग है। गौरतलब है कि इसकी यात्रा पांच दशक पुरानी है। भारत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक विभाग की स्थापना 1970 में की और 1977 में राष्ट्रीय सूचना केंद्र के गठन के साथ ही ई-शासन की दिशा में कदम रख दिया गया था। जिसका मुखर पक्ष जुलाई 1991 के उदारीकरण के बाद दिखाई देता है। साल 2006 में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकृति करण ने दक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेहीता को सुनिश्चित कर दिया। प्रशासनिक प्रक्रियाओं को न केवल सरल किया बल्कि नीति निर्माण से लेकर नीति क्रियान्वयन तक पारदर्शिता और जवाबदेहीता को फलक पर ला दिया।  इसी के चलते सिंगल विंडो कल्चर की प्रासंगिकता देखी जा सकती है जो कार्य सरलीकरण का परिचायक है। शिक्षा को बढ़ावा देने में आज इसकी भूमिका बढ़े हुए कल के साथ देखी जा सकती है। एक दर्जन शिक्षा से संबंधित चैनल का निर्माण किया जाना पठन-पाठन को सशक्त बनाने की दिशा में बड़ा कदम है। जबकि करोड़ों छात्र-छात्राएं छात्रवृत्ति हेतु ई-पोर्टल से बरसों पहले ही जुड़ चुके हैं। डिजिटल साक्षरता को भी खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। ई-बैंकिंग को भी बढ़त के तौर पर देखा जा सकता है मगर कोरोना के वर्तमान दौर में डिजिटल लेनदेन घटा है और नगद निकासी में तेजी आई है यह कहीं ना कहीं आर्थिक असुरक्षा के चलते है। 

ई-लर्निंग एक ऐसी व्यवस्था जिससे घर बैठे सुविधा तो मिलती है मगर इसमें कई तकनीकी और इंटरनेट तक सभी का पहुंच न होना इसकी प्रमुख बाधाएं हैं। भारत एक विकासशील देश है यहां साइबरी जाल पूरी तरह अभी मुमकिन नहीं हैऔर ना सबकी पहुंच में है। भारत में साढे छ: लाख गांव, ढाई लाख पंचायतें और लगभग 7  सौ जिले हैं जहां व्यापक आर्थिक असमानता विद्यमान है। फलस्वरुप सभी की पहुंच इलेक्ट्रॉनिक विधायक तक हो अभी संभव नहीं। ऐसे में ई-शिक्षा बड़े और मझोले शहर तक सीमित है। ऑडिट एंड मार्केटिंग की शीर्ष एजेंसी केपीएमजी और गूगल ने भारत में ऑनलाइन शिक्षा 2021 शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें 2016 से 2021 की अवधि के बीच की शिक्षा कारोबार 8 गुना वृद्धि करने की बात है। साल 2016 में यह 25 करोड़ डॉलर का था और 2021 में दो अरब डॉलर की संभावना बताई गई है। फिलहाल देश के हजार विश्वविद्यालय और 40 हजार महाविद्यालय में चार करोड़ से अधिक विद्यार्थी हैं। 10वीं 12वीं कक्षाओं कक्षा में अलग-अलग बोर्डों को मिलाकर करोड़ों के में छात्र हैं। इन्हें देखते हुए इंटरनेट शिक्षा यानी ई-शिक्षा के लाभ और कारोबार को समझा जा सकता है। मगर आने वाले वर्षों में यह सभी तक इसकी पहुंच तभी बना पाएगा जब इंटरनेट और बिजली से भारत का कोना युक्त  होगा। अमेरिका में डेढ़ दशक पहले साल 2006 में ही ई-शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ और 2014 आते-आते यहां उच्च शिक्षा में ई-शिक्षा बड़े पैमाने पर विकसित हुआ। गौरतलब है कि 33 करोड का की जनसंख्या वाला अमेरिका कोरोना की चपेट में दुनिया के किसी भी देश के सर्वाधिक पीड़ित वाला देश है। हलाकि की दूसरी लहर में यही बात भारत के लिए भी कहा जा सकता है। जाहिर है अमेरिका जैसे देशों इसका सबसे बड़ा फायदा इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि यह नेटवर्क इंटरनेट कनेक्टिविटी कमोबेश सभी की पहुंच में है। भारत में ई-शिक्षा व्यापक संभावनाओं से भरा हुआ है। कोरोना के बीच इंटरनेट कनेक्टिविटी को लेकर कार्यों में गति आई है। मगर समस्या यह है भी है कि यहां हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित युक्त और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे है। ऐसे में आर्थिक संकट के चलते उसे इंटरनेट से जोड़ पाना मुश्किल हो रहा है। साल 2017 तक भारत में केवल 34 फीसद आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती थी।  वर्तमान में यह आंकड़ा 65 करोड़ पार कर गया है और 2025 तक यह 90 करोड़ हो जाएगा।

पिछले साल महामारी के बीच ही 29 जुलाई को नई शिक्षा नीति 2020 का पदार्पण हुआ। नई शिक्षा नीति को आने वाले वर्षों में सशक्त संभावना के रूप में देखा जा रहा है। देश की प्रगति की कुंजी यदि सुशासन है तो उसमें शामिल विभिन्न आयाम उसके उपकरण हैं जिसमें ई-शिक्षा प्रमुख है।  ई-गवर्नेंस का एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी कवायद गुड गवर्नेंस है। सुशासन लोक सशक्तिकरण की एक अवधारणा है भारत में उदारीकरण के बाद यह परिलक्षित हुई जबकि इंग्लैंड दुनिया का पहला देश है जिसमें 1992 मैं इसे अपनाया। विश्व बैंक की एक आर्थिक अवधारणा का सीधा आशय समावेशी विकास से है मगर इस मामले में भारत अभी पीछे है। हालांकि 1992 की आठवीं पंचवर्षीय योजना समावेशी विकास पर ही टिकी थी। फिलहाल ई गवर्नेंस के चलते न केवल समावेशी विकास को प्राप्त किया जा सकता है बल्कि आत्मनिर्भर भारत की कोशिश को भी मजबूती मिल सकती है। सरकार के समस्त कार्यों में प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग ई गवर्नेंस कहलाता है। जबकि न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन सुशासन का परिप्रेक्ष्य है। जहां नैतिकता जवाबदेही उत्तरदायित्व की भावना के साथ संवेदनशीलता को बल मिलता है। इन दिनों मोबाइल शासन का दौर भारत में देखा जा सकता है और इसी के चलते ही ई-व्यवस्था की बाढ़ आई है तथा इससे  ई-शिक्षा को भी बल मिल रहा है।  गौरतलब है कि कोरोना जैसे संकट के लिए शायद ही कोई देश तैयार रहा हो ऐसे में जहां की ई-व्यवस्थाएं पहले से व्यापकता लिए रही उन्हें काफी मदद मिल रही है। भारत का शानदार आईटी उद्योग डिजिटलीकरण को जिस प्रकार से आगे बढ़ाया है उसी ने ई गवर्नेंस के माध्यम से गुड गवर्नेंस का भी नक्शा बदला है। ई-गवर्नेंस के कारण ही नौकरशाही का कठोर ढांचा नरम हुआ है और स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय की महामारी में भी कुछ हद तक शिक्षा से लोगों को जोड़ने का काम किया है। फिलहाल ई-गवर्नेंस का विस्तार शिक्षा के लिए वरदान हो सकता है और न्यू इंडिया के लिए भी कारगर सिद्ध होगा। भारत बीते डेढ़ दशकों से यह ई-लोकतंत्र के ताना-बाना से भी युक्त है। जाहिर है कि शासन, प्रशासन और व्यवस्था जिस अनुपात में गति लेगी उसी अनुपात में शिक्षा स्वास्थ्य व तमाम सुविधाएं प्रसार करेंगी।
(5 जून, 2021)

डॉ. सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रशासनिक चिन्तक 

केंद्र और राज्य के बीच मुख्य सचिव

हालिया विवाद केंद्र-राज्य संबंध के बीच एक नई रंजिश को मानो नये तरीके से हवा दे रहा है। जिसके केंद्र में पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव हैं जो बीते 31 मई को रिटायर्ड हुए और आनन-फानन में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें अपना प्रमुख सलाहकार भी नियुक्त कर दिया। जाहिर है यह ममता का केंद्र के विरोध में एक बडा दावं है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में बीते अप्रैल में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ जिसके नतीजे 2 मई को घोषित हुए थे। जिसमें ममता बनर्जी तीन चौथाई बहुमत के साथ एक बार फिर गद्दी पाने में कामयाब रहीं। इस चुनावी समर में भी व्यक्तिगत और निजी हमलों भी खूब देखने को मिले। हो न हो यही राजनीतिक खटास प्रशासनिक अखाड़ा को भी तैयार कर दिया हो। जाहिर है कि ततत्कालीन मुख्य सचिव अलापन बंधोपाध्याय को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार और ममता बनर्जी आमने-सामने हैं। समझना यह भी सही रहेगा कि आखिर विवाद है क्या? असल में  बीते 25 मई को पश्चिम बंगाल सरकार ने  24 मई को केंद्र की मंजूरी का हवाला देते हुए एक आदेश जारी किया था कि सार्वजनिक सेवा के हित में अलापन बंधोपाध्याय की सेवा का विस्तार 3 महीने के लिए किया जाता है। लेकिन 28 मई को केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने लिखा कि कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने बंधोपाध्याय की सेवा को तत्काल प्रभाव से भारत सरकार के साथ स्थानांतरित किया है। और राज्य सरकार से यह अनुरोध है कि अधिकारी विशेष को तत्काल प्रभाव से कार्यमुक्त कर दें। दो टूक यह भी है कि केंद्र सरकार की यह कार्रवाई प्रकाश में तब आई जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और मुख्य सचिव अलापन बंधोपाध्याय प्रधानमंत्री मोदी की समीक्षा बैठक में आधे घंटे देरी से पहुंचे। गौरतलब है कि हाल ही में यास तूफान से बंगाल का सामना हुआ था और उसके नुकसान की समीक्षा बैठक प्रधानमंत्री कर रहे थे। 

परिपेक्ष्य और दृष्टिकोण यह भी है कि अखिल भारतीय सेवा अर्थात आईएएस सरीखे अधिकारी की भर्ती, प्रशिक्षण व नियुक्ति केंद्र सरकार के अधीन कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा होता है जिसका प्रभार प्रधानमंत्री के पास ही होता है। अनियमितता स्थिति में राज्य इन्हें निलंबित कर सकते हैं पर बर्खास्तगी का अधिकार केंद्र को है। कैडर प्रणाली के तहत राज्यों में काम करते हैं और अवधि प्रणाली व प्रतिनियुक्ति के आधार पर समय-समय पर केंद्र में भी। नियम यह संकेत करता है कि कोई अधिकारी राज्य में तैनात है तो उस पर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर कार्यवाही करने के लिए राज्यों से अनुमति लेनी होती है और राज्य मानने से इंकार कर सकते हैं। किसी अफसर को दिल्ली तलब करने का भी राज्य की मंजूरी जरूरी है जबकि केंद्र सरकार ने अलापन बंदोपाध्याय दिल्ली तलब किया लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने इससे वास्ता नहीं रखा। अखिल भारतीय सेवा (अनुशासन और अपील) नियम1969 के नियम 7 में भी है स्पष्ट है कि यदि अधिकारी राज्य में सेवा कर रहे हैं तो कार्यवाही शुरू करने और जुर्माना लगाने का अधिकार राज्य सरकार का होगा। नियम तो यह भी कहता है कि ऐसे किसी भी अधिकारी के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के लिए राज्य और केंद्र दोनों को सहमत होने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और वन सेवा (आईफएस) ये तीनों मौजूदा समय में अखिल भारतीय सेवाएं है। जिसमें कैडर और अवधि प्रणाली पाई जाती है। अवधि प्रणाली की शुरुआत 1905 में लॉर्ड लॉर्ड कर्जन द्वारा की गई थी। कैडर के अंतर्गत राज्य होता है और अधिकारी वही काम करते हैं। जबकि अवधि प्रणाली ( टैन्योर सिस्टम) में केंद्र समय-समय पर ऐसी सूची तैयार करता है जिसमें राज्य के इन्ही अधिकारियों को केंद्र के लिए दिल्ली में  कार्यरत होते हैं जिसकी अधिकतम अवधि 3 साल है।


भारत में कैबिनेट सचिव सबसे वरिष्ठ आईएएस माना जाता है जबकि राज्यों में मुख्य सचिव। कैबिनेट सचिव की तुलना में मुख्य सचिव कार्य की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली होते हैं। मुख्य सचिव प्रशासनिक दृष्टि से राज्य का सर्वोच्च पद है। अलग-अलग राज्यों में इसकी अपनी भिन्न-भिन्न उपादेयता है। राज्य प्रशासन में सफलतापूर्वक कार्य संचालन के लिए मुख्यमंत्री को परामर्श देना। शासकीय नीतियों के निरूपण में सहयोग, मंत्रिमंडल के उप समितियों के कार्य में मदद और केंद्र-राज्य संबंध के मामले में क्षेत्रीय परिषदों में पत्र व्यवहार एवं समन्वय स्थापित करना। राज्य के विकास के लिए कार्यक्रम योजना का निर्माण व परामर्श देना। केंद्र और राज्य सरकार के बीच यदि कोई विवाद हो तो उसमें समन्वय स्थापित करने जैसे तमाम कार्य देखे जा सकते हैं।  रोचक यह भी है कि जो मुख्य सचिव केंद्र-राज्य के बीच एक सकारात्मक समन्वयकारी भूमिका में होता है वही बंगाल में विवाद का कारण भी बना। फिलहाल सचिवों का सचिव मुख्य सचिव तथा सचिवालय जिसे राज्य विशेष का दिमाग कहते हैं। जाहिर है कि टकराहट पैदा होगी तो केंद्र और राज्य दोनों नुकसान में रहेंगे। 1987 बैच के आईएएस अलापन बंदोपाध्याय को लेकर उठा विवाद किस करवट बैठेगा यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। लेकिन ऐसी बातें विकास और संबंध दोनों को चोट पहुंचाती हैं। वैसे एक लोक प्रशासन के साहित्य में जितनी आलोचना लोक सेवकों के बारे में की जाती है संभवत उतनी किसी अन्य व्यवस्था में शायद ही हो। यह एक तार्किक तथा वैध सत्ता के रूप में निर्मित व्यवस्था है और राजनीतिक कार्यपालिका के आवरण यह ढका रहता है। जिसे कार्यकारी दृष्टि से प्रशासनिक सत्ता के रूप में पहचान सकते है। पड़ताल बताती है कि समय-समय पर अखिल भारतीय मुख्य सचिव सम्मेलन और मुख्यमंत्रियों की बैठक होती रही है। ऐसे आयोजनो के पीछे बड़ी वजह यही थी कि संघीय ढांचे को ताकत देना साथ ही राज्य प्रशासनिक और कार्यकारी दृष्टि से कहीं अधिक स्वायत्त और शक्तिशाली रहें। ताकि आर्थिक लोकतंत्र और लोक कल्याणकारी नीतियों बनाने और लागू करने के साथ-साथ संविधान और लोक सशक्तिकरण को ताकतमिलती रहे।
(1 जून, 2021)

डॉ सुशील कुमार सिंह 
निदेशक,  वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

Wednesday, June 23, 2021

सरकार को संतुलन भरा कदम उठाना ही चाहिए

देश में कोविड-19 की वर्तमान लहर का संक्रमण पहली लहर की तुलना में काफी तेजी से फैला जिससे शासन के हाथ पांव तो फूले ही स्वास्थ्य सुशासन भी हांफता नजर आया। राज्य सरकारें लॉकडाउन और कर्फ्यू की ओर कदम बढ़ाया और कमोबेश ये अभी जारी है। महामारी ने एक बार फिर जनजीवन को अस्त-व्यस्त किया। कोरोनावायरस की लहर ने देश में स्टार्टअप और एमएसएमई यानी छोटे उद्योगों के सामने आर्थिक संकट खड़ा कर दिया। वैसे देश में 94 फीसद असंगठित क्षेत्र की हालत रोजगार और अर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर हुई है। सर्वे से यह पता चलता है कि देश के स्टार्ट अप और छोटे उद्योगों के पास पूंजी संकट है जिसमें 59 फीसद अगले एक साल में अपना आकार कम करने के लिए भी मजबूर हो जाएंगे। लॉकडाउन के चलते रोजगार से लोगों को हाथ धोना पड़ा, बचत खत्म हो गई और पाई-पाई के मोहताज हो रहे हैं। परिवार को घर चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए भी मजबूर होना पड़ रहा है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट को देखें तो  41 करोड़ से अधिक श्रमिक देश में काम करते हैं जिन पर कोरोना का सबसे बड़ा असर पड़ा है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि गरीबी 20 फीसद शहरी तो 15 फीसद ग्रामीण इलाकों में बढ़ गई है। कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए तमाम रेटिंग एजेंसियों नेेेे भारत के विकास अनुमान को भी घटा दिया है। गौरतलब है कि पिछले साल देश व्यापी लॉकडाउन के चलते 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरी खत्म और 20 करोड़ का काम-धंधा बुरी तरह प्रभावित हुआ था। वैसे एक हकीकत यह भी की केरोना ने रोजगार और काम-धंधे को कहीं अधिक चौपट किया है। मसलन फैक्ट्री पर तालाबंदी,  दफ्तर का बंद होना, स्कूल- कॉलेज मेंं पढ़ाई-लिखाई बंद होना व कोचिंग का कारोबार ठप्प होना आदि। नतीजन करोड़ो का घर बैठ जाना, इसमें कमाई कम और खर्च निरंतरता लिए रहता है और आखिरकार चुनौती आर्थिकी खड़ी हो जाती है। इन सब का सीधा असर बैंक से लिए गए ऋण पर भी पड़ रहा है। गौरतलब हैै कि जिन्होंने बैंकों से मकान, दुकान,गाड़ी या स्टार्टअप या छोटा कोई उद्योग शुरू करने के लिए कर्ज लिया था। अब उन्हे  ईएमआई जमा करना मुश्किल हो रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 8 करोड़ 54 लाख कर दाताओं में करीब 3 करोड़  के ऑटोमेशन पेमेंट या चेक  बीते अप्रैल में बाउंस हुए है। जबकि मार्च में इसकी प्रतिशत कम थी। बीते एक साल में ऐसी स्थिति जून 2000 में भी आई थी जब 45 फीसद ईएमआई बाउंस कर रहे थे । अभी स्थिति 34 फीसद की है लेकिन जिस तरीके की स्थितियां बनी है उसे देखते हुए कैसे दिए जाएंगे और बैंक अपने को एनपीए होने से कैसे रोक पाएंगे।  


कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए कंपनियों ने ऑफिस और मैनेजमेंट वाली नौकरियां पर रोक लगा दी। कंपनियों का एक दृष्टिकोण यह भी रहा है कि उनकी पहली प्राथमिकता अपने मौजूदा कर्मियों और कारोबार को कोरोनावायरस से बचाना। यही कारण है कि वह विस्तार वाली योजना को ठंडे बस्ते में डाल रहे हैं। गौरतलब है कि शहर के अधिकांश वाहन कंपनियों के डीलर ने शोरूम भी बंद कर दिये। रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में 26500 शोरूम है महामारी के चलते 20 से 25 हजार करोड़  नुकसान की आशंका बताई जा रही है।  फैक्ट्रियों के उत्पादन पर भी अच्छा खासा प्रभाव पड़ा है। रोजगार की कमी के चलते शहर से गांव की ओर एक बार फिर पलायन तेज हुआ है और मनरेगा में रोजगार के लिए पंजीकरण की मात्रा तुलनात्मक बड़ी है।  इसके चलते मनरेगा में रोजगार के लिए पंजीयन अप्रैल महीने में लगभग 4 करोड़ हो गया था वही मार्च में 3.6 करोड़ श्रमिक मनरेगा में पंजीकृत थे। इतना ही नहीं करोना संक्रमण रोकने के लिए राज्य सरकारें नए प्रतिबंधों  लेकर घोषणाएं करती रहीं । इससे अर्थव्यवस्था का पहिया रुकना लाजमी था। देश का विकास कोरोना की दूसरी लहर में भी बुरी तरह चपेट में आया। अधिकांश बाजार,मॉल, शॉपिंग कंपलेक्स आदि बंद है। बाजार बंद होने से असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों की जरूरत ही कम हो गई। इससे बेरोजगारी बढ़ी और मानसिक दबाव भी तेजी से बढ़ने लगा। संक्रामक रोगों का सभी पर एक गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। उन पर भी जो वायरस से प्रभावित नहीं है। इसके एक नहीं अनेक कारण हो सकते है। 2003 में सार्स के प्रकोप के दौरान शोधकर्ताओं ने बीमारी के साथ-साथ आने वाली कई मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं को भी रेखांकित किया था। जिनमें अवसाद,तनाव, और मनोविकृति और पैनिक अटैक शामिल था।

 कोरोनावायरस महामारी ने विश्व भर के करोड़ों लोगों की पूरी दिनचर्या को बिगाड़ कर रख दिया है। तनाव चिंता और घबराहट की परेशानी से दो-चार होना पड़ रहा है। मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्या केवल भारत के लिए नहीं बल्कि अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत दुनिया के तमाम देश इसमें शमिल हैं। भारत में भी कोरोनावायरस ने करोड़ों लोगों को अलग-थलग और बेरोजगार किया है डॉक्टर भी चेतावनी देते रहे हैं कि चिंता,  डिप्रेशन और आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं और देश में मानसिक स्वास्थ्य नए संकट का रूप ले सकता है। गौरतलब है कि 24 मार्च 2020 को देश भर में पहली बार लॉकडाउन लागू किया गया था। इंडियन साइक्रटी सेंटर के एक सर्वे से पता चला था कि लॉकडाउन लागू होने के बाद से मानसिक बीमारी के मामले 20 फीसद बढ़े और हर पांच में से एक भारतीय में इसमे शामिल हो गया। भारत में हाल के दिनों में कई कारणों से मानसिक संकट का खतरा पैदा हो गया है। रोजी-रोटी का छिन जाना, आर्थिक तंगी बढ़ना, अलग-थलग होना और घरेलू हिंसा बढ़ना भी इसमें शामिल है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने 2017 में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम पेश किया था जिसके अंतर्गत सरकारी स्वास्थ्य देखभाल और इलाज के जरिए लोगों का अच्छा मानसिक स्तर सुनिश्चित करने की बात कही गई थी।  

सवाल है कि अब आगे क्या किया जाए ? रोजगार को कैसे पटरी पर लाया जाए और उत्पादन ईकाई समेत बेपटरी हो चुके छोटे-बड़े कामकाज कैसे रफ्तार दी जाए। पहली लहर के दौरान सरकार ने मई 2020 में 20 लाख करोड़ रुपए का एक आर्थिक पैकेज घोषित किया था। अभी इस बार इसकी मुनादी होना बाकी है। वैसे बेरोजगारी का आंकड़ा 2019 में ही 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ चुका है। दो टूक यह भी है कि मोदी सरकार रोजगार मामले में उतनी सफल नहीं रही है। सवाल है कि कोरोना के के चलते जो व्यवस्था बिगड़ी है उसमें सरकार को क्या कदम लेना चाहिए। फिलहाल जरूरत अब ऐसे कदमों की है जिसमें खपत का सहारा मिले और उत्पादन में बढ़त्तरी हो। एक बड़ी जरूरत गरीब तबकों को मदद देने की है। उद्द्योगो को आर्थिक पैकेज और अन्य असंगठित क्षेत्र को भी आर्थिक रूप से एक संतुलन विकसित करते हुए कम ब्याज पर उधार या फिर कोई सब्सिडी व आर्थिक पैकेज का ऐलान सरकार को करना चाहिए। ताकि मानसिक विकृति और टूटन में फंसे लोगों का यह सहारा बन सके। इस बात को भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि लघु और कुटीर उद्योगों को पर्याप्त सुविधा मिले और मझोली किस्म की इकाइयां जिसमें रोजगार की मात्रा अधिक है आर्थिक और मानसिक दोनों रूप से बाहर निकालने के लिए एक नया अवसर दिया जाए। मध्यमवर्ग की भी कमर झुकी हुई है उसके लिए सरकार को रास्ता खोजना चाहिए। ताकि वह भी मानसिक व्याधि से बाहर आ सके। समझने वाली बात तो यह भी है कि नागरिक सुशासन का मतलब ईज आफ लिविंग होता है। मगर जब वही जीवन शांति और खुशहाली की राह से भटक कर आर्थिक बदहाली और  मानसिक दुुष्चक्र मेें फंस जाए तो सरकार को संतुलन भरा कदम उठाना ही चाहिए। 
(31 मई , 2021)


 

 डॉ सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रशासनिक चिन्तक 

Tuesday, June 22, 2021

असल परीक्षा में तो सुशासन

निर्णायक रूप से सुशासन की अवधारणा की रूपरेखा महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गये स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रची गई। शोषणकारी-साम्राज्यवादी,आधुनिक उपनिवेशवादी शक्तियों से भारत के लोगों का सामना होने से उन्हें शासन के एक बेहतर स्वरूप की तलाश करने का अवसर मिला। आधुनिक भारत में यहीं से सुशासन की एक पटकथा सामने आयी। सर्वोदय इसका सबसे बेहतर उदाहरण है जहां से सभी के उदय की संकल्पना और प्रतिबद्धता दिखाई देती है। जब तक समय के आईने में न देखा जाए तब तक सुशासन का कोई भी सिद्धांत बोधगम्य नहीं हो सकता। कोरोना के इस कालखंड के भीतर जनमानस की अग्नि परीक्षा खूब हुई और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है।

गौरतलब है कि लॉकडाउन के चलते रोजगार पर गाज गिरी। आर्थिक गतिविधियों बंद होने से जनजीवन पर असर पड़ना लाजिमी है। बीमारी, भुखमरी  शिक्षा और चिकित्सा से लेकर तमाम बुनियादी विकास के साथ सतत, समावेशी और साधारण विकास व समृद्धि के समस्त आयाम हाशिए पर चले गए। यह इस बात का प्रमाण है कि सुशासन एक नई परीक्षा से जूझ रहा है और आगे कई वर्षों तक उसे सब कुछ पटरी पर लाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जूझना ही पड़गा। हीगल पहले दार्शनिक थे जिन्होंने राज्य और नागरिक समाज के बीच अंतर स्थापित किया और इसे परिभाषित करते हुए कहा कि यह एक ऐसा समाज है जहां मानवीय खुशियों को बढ़ावा दिया जाता है। गौरतलब है कि सुशासन भी शांति और खुशियों को ही आगे बढ़ाता है। लोक विकास की कुंजी सुशासन कोविड-19 के चलते कई झंझावात में उलझा है। और मौजूदा समय में इसकी वास्तविक उपलब्धि क्या है इसका जवाब आसानी से नहीं मिलेगा। मगर दो टूक यह है कि इसका उत्तर कोरोना से मुक्ति और ईज आफ लिविंग है। 

देश में कोविड-19 की वर्तमान लहर का संक्रमण पहली लहर की तुलना में काफी तेजी से फैला जिससे शासन के हाथ पांव तो फूले ही स्वास्थ्य सुशासन भी हांफता नजर आया। राज्य सरकारें लॉकडाउन और कर्फ्यू की ओर कदम बढ़ाया और कमोबेश ये अभी जारी है। महामारी ने एक बार फिर जनजीवन को अस्त-व्यस्त किया। कोरोना महामारी ने भारत के करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया है। लॉकडाउन के चलते रोजगार से लोगों को हाथ धोना पड़ा, बचत खत्म हो गई और पाई-पाई के मोहताज हो रहे परिवार को घर चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए भी मजबूर होना पड़ रहा है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट को देखें तो यह पता चलता है कि कोरोना संकट की सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ी है। वैसे एक हकीकत यह भी है कि कई निम्न व मध्यवर्गीय आय वाले भी अब गरीबी की ओर गमन कर चुके हैं। गौरतलब है कि 1.9 डॉलर से अधिक की प्रतिदिन कमाई करने वाला गरीबी रेखा के ऊपर होता है। 10 डॉलर तक की कमाई करने वाला निम्न आय वर्ग का समझा जाता है। जबकि इसके ऊपर मध्यम आय वर्ग है लेकिन यह 50 डॉलर तक जाता है और 50 डालर से अधिक कमाने वाले उच्च आय वर्ग में गिने जाते हैं। मध्यम वर्ग में जो 10 और 20 डालर के बीच है उनकी हालत बहुत पतली है और वह या तो निम्न आय वर्ग की ओर जा रहे हैं गरीब  हो रहे है। प्यू रिसर्च सेंटर से तो यह भी पता चलता कि साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम आय वर्ग में चले गए थे। करोना काल में तीन करोड़ लोग फिर निम्न आय वर्ग की ओर वापस आ गए। जाहिर  है 10 साल की कोशिश को  एक साल के कोरोनावायरस ने नष्ट कर दिया। रिसर्च से तो यह भी पता चला है कि कि मार्च 2020 से अक्टूबर 2020 के बीच 23 करोड़ गरीब मजदूरों की कमाई 1 दिन की तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं हो पाती थी। 41 करोड़ से अधिक श्रमिक देश में काम करते हैं जिन पर कोरोना का सबसे बुरा असर पड़ा है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि गरीबी 20 फीसद  शहरी तो 15 फीसद ग्रामीण इलाकों में बढ़ गई है। कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए तमाम रेटिंग एजेंसियों नेेेे भारत के विकास अनुमान को भी घटा दिया है। गौरतलब है कि पिछले साल देश व्यापी लॉकडाउन के चलते 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरी खत्म और 20 करोड़ का काम-धंधा  बुरी तरह प्रभावित हुआ।वैसे एक हकीकत यह भी की केरोना ने रोजगार की तुलना मेें काम-धंधे को कहीं अधिक चौपट किया है। मसलन दफ्त दफ्तरों का बंद होना स्कूल- कॉलेज मेंं पढ़ाई-लिखाई बंद होना। कोचिंग का कारोबार ठप्प होना आदि। नतीजन लाखोंं की घर बैठ जाते हैं, इसमें कमाई कम और खर्च निरंतरता लिए रहता है और आखिरकार चुनौती आर्थिकी खड़ी हो जाती है।  यही अन्य देशों के लिए भी कही जा सकती हैहै ठ  र  व्यवस्था को कोरोनावायरस के भंवर जाल में फिर  उलझी। इतना ही नहीं सतत विकास, समावेशी विकास और साधारण विकास समेत कई विकास और समृद्धि के रास्ते जाहिर अब पहले जैसे नहीं रहे। देखा जाए तो समतल होती व्यवस्था उबड़-खाबड़ मार्ग पर है और हिचकोले सुशासन खा रहा है। गौरतलब है कि सुशासन एक जन केंद्रित, कल्याणकारी और संवेदनशील शासन व्यवस्था है। जहां विधि के शासन की स्थापना के साथ-साथ संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। मगर जब जनता में अजीब सी छटपटाहट हो। बुनियादी विकास को लेकर हाहाकार हो। रोटी, कपड़ा व मकान सताओं पर लगे ऐसे में सुशासन बेचारा सा हो जाता है देखा जाए तो परीक्षा जितना देश के नागरिकों की है उससे कहीं अधिक स्वयं सुशासन की है सुशासन के केंद्र में रहने वाला नागरिक जिस सामाजिक आर्थिक विकास की खोज में अभी वह दूर की कौड़ी नजर आती है!
(27 मई , 2021)

सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार 

आईएएस के तर्ज स्वास्थ सेवा !

बदलती परिस्थितियों और परिमार्जित दृष्टिकोण के अंतर्गत देखा जाए तो समय के साथ ढांचा, प्रक्रिया और व्यवहार को बदल लेना ही अच्छा होता है। वर्तमान दौर स्वास्थ्य व  चिकित्सा की दृष्टि से बहुत कठिन कहा जाएगा। चुनौतियां बता रही हैं कि इसके स्वभाव को बदलने का सही वक्त आ गया है। गौरतलब है कि लोक स्वास्थ्य, संविधान की सातवीं अनुसूची में निहित राज्य सूची का विषय है। जिस पर कानून बनाने का जिम्मा राज्यों का है। बावजूद इसके दायित्व की दृष्टि से केंद्र की भूमिका कमतर नहीं होती। बिगड़े हालात में चिकित्सीय व्यवस्था चरमराई है और अलग-अलग राज्यों की अपनी मजबूरियां जनमानस के लिए कठिनाई भी पैदा कर रही है।

यह बात पहले से ही उठनती रही है कि आईएएस की तर्ज पर स्वास्थ्य सेवा कैडर बने। हाल ही में स्वास्थ्य पर बने एक स्वतंत्र आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि समाज और समुदाय तक स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की तरह स्वास्थ्य सेवा को भी विकसित किया जाए। कुछ दिन पहले ही 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष ने स्वास्थ्य को संविधान की समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने की बात कही थी। जाहिर ऐसा होने से केंद्र का प्रभाव लोक स्वास्थ्य पर सीधे तौर पर बड़े पैमाने देखा जा सकेगा। गौरतलब है कि जब कोई विषय समवर्ती सूची में होता है तो उसमें केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं लेकिन असहमति की स्थिति में केंद्र की ही बात अंतिम सत्य होती है। 

अखिल भारतीय स्वरूप देने में इसकी सघनता और स्पष्टता और बढ़ सकती है। विशेषज्ञता का प्रयोग और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी भी संभव है। हालांकि वित्त आयोग ने स्वास्थ्य पर साल 2025 तक जीडीपी का 2.5 फीसद खर्च करने की बात कही है। कोरोना को  देखते हुए साल 2021-22 के स्वास्थ्य बजट में 137 फीसद की बढ़ोत्तरी की गई थी। गौरतलब है यदि स्वास्थ्य को अखिल भारतीय रुप दिया जाता है तो इस सेवा के गठन से अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी को दूर करना, स्वास्थ्य सुविधाओं का आधारभूत संरचना व दवाइयों की किल्लत से निपटने में आसानी हो सकती है। कुशल व प्रशिक्षक नर्सिंग स्टाफ एवं अन्य सुविधाओं की भारी कमी का निपटान भी संभव है। ध्यानतव्य हो  विश्व स्वास्थ्य संगठन एक हजार जनसंख्या पर एक डॉक्टर की नियुक्ति की बात करता है। जबकि भारत में 11हजार से अधिक लोगों पर एक चिकित्सक है। अंदाजा लगा सकते हैं कि चिकित्सकों की एक बड़ी तादात की कमी है। हॉस्पिटल की संख्या तो कम है उसमें बेड भी सीमित संख्या के साथ अन्य सुविधाएं भी कठिनाई में है। अखिल भारतीय स्वरूप मिलने से बजट की कमी को दूर करना शायद आसान होगा। हालांकि स्वास्थ्य बजट की हालत को देखते हुए उम्मीद कम ही है। 


पड़ताल बताती है कि स्वतंत्रता के पश्चात सबसे पहले देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कैडर गठित करने का सुझाव मुदलियार समिति ने दिया था। समिति ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य कल्याण की समस्या से संबंधित कर्मियों के पास एक समग्र दृष्टिकोण के साथ प्रशासन का अनुभव होना चाहिए। दो दशक के बाद साल 1973 में गठित करतार सिंह कमेटी ने कहा था कि संक्रामक रोग नियंत्रण, निगरानी प्रणाली  डेटा प्रबंधन समिति आदि मामलों में चिकित्सकों को कोई औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। स्वास्थ्य कैडर के लिए 1997 में पांचवें वेतन आयोग में भी सिफारिश की थी। साल 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में इस बात की वकालत की गई थी। गौरतलब कोरोना महामारी के बीच  मार्च 2021 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की संसदीय समिति ने अनुदान समिति मांगों पर अपनी 126 भी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि आईएएस आईपीएस और आईएफएस की भांति अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा के रूप में एक अलग तरह का कैडर गठित किया जाए। समझने वाली बात यह भी है कि स्वतंत्रता से पहले भारतीय चिकित्सा सेवा एक अखिल भारतीय सेवा का रूप रही है। वैसे यह सेवा 1763 में सबसे पहली बार देखने को मिली और यह उस दौर के तीन प्रेसिडेंसी बंगाल, मद्रास और बाम्बे में स्थापित देखे जा सकते हैं। 

दो टूक यह भी है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा  संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है मगर यह सरकारों की दृष्टि में मानो कभी प्राथमिकता में रहा ही न हो।
वर्तमान में देश में तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं, भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा एवं वन सेवा जिनके अधिकारी केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहते हुए भारत के प्रत्येक राज्य में अपनी सेवाएं देते हैं। जिन्हें अखिल भारतीय सेवा कहते हैं। इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से देखा जा सकता है। इसमें दो प्रकार की व्यवस्था पाई जाती है एक का कैडर सिस्टम दूसरा अवधि प्रणाली है। केन्द्र द्वारा भर्ती अधिकारियों को राज्य में आवंटित की जाती है। अखिल भारतीय सेवा के महत्व समझाते हुए एडी गोरवाला ने कहा था कि राष्ट्रीय एकता की स्थापना में सेवाएं एक महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। मगर ऐसी सेवाओं पर यह भी आरोप रहा है कि यह राज्य सरकार के नियंत्रण से बाहर होती है। इन सेवाओं में सभी राज्यों का समान प्रतिनिधित्व नहीं है। बाहरी राज्य का व्यक्ति अपनी भाषा संस्कृति तथा मूल्यों से ग्रस्त रहता है। राज्यों की स्वतंत्रता में केंद्र का सीधे हस्तक्षेप होता है। जैसा कि आईएएस आईपीएस और आईएफएस के माध्यम से मौजूदा समय में देखा जा सकता है।

 गौरतलब हो कि अखिल भारतीय सेवाओं की भर्ती संघ लोक सेवा आयोग और नियुक्ति केंद्र द्वारा होती है। जबकि सेवा राज्यों में देते हैं,  राज्य को ऐसे अधिकारियों को अनियमितता के चलते निलम्बन करने की शक्ति तो है मगर पद से हटाने का काम केंद्र का ही होता है। ऐसे में यह शिकायतें आम रहती हैं कि यह केंद्र के अधिकारी हैं और राज्यों के साथ समन्वय स्थापित करने में कठिनाई पैदा करते हैं। हालांकि अखिल भारतीय स्वरूप राष्ट्रीय एकता और सुशासन के उस निर्धारक तथ्य और तर्क के तौर पर प्रस्तुत किया गया है जहां से जनकेंद्रीय, लोक कल्याणकारी, और संवेदनशील शासन व्यवस्था का उदय होता है। गौरतलब है कि सुशासन का केंद्र बिंदु नागरिक है और नागरिकों को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवा यदि समय पर ना मिले तो जीवन के अधिकार को खतरा पहुंच सकता है  ऐसे में स्वास्थ्य  सुशासन से जुड़े इस संदर्भ को सूझबूझ के साथ देखने की आवश्यकता है कि क्या वाकई में आईएएस के तर्ज पर कैडर विकसित करना स्वास्थ्य सुशासन को मजबूत और पुख्ता करेगा साथ ही जनता को  चिकित्सा का पूरा अधिकार सुविधा मिलेगी।           
(25  मई, 2021)

डॉ. सुशील कुमार सिंह 
निदेशक,  वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन

एक ऐसा इम्तिहान जिसमें उत्तीर्ण होना ही विकल्प

 गौरतलब है कि बीते अप्रैल-मई में लगातार तेजी से बढ़ते कोरोना संक्रमण के चलते देश की स्वास्थ्य प्रणाली चरमरा गई। अस्पतालों में वेंटिलेटर, जीवन रक्षक दवाएं और ऑक्सीजन की भारी किल्लत इन दिनों बाकायदा देखी गई। हलांकि मामले घट रहे हैं पर समस्या ठीक-ठाक पैमाने अभी भी है। भारत में महामारी के अब तक दो बड़ी लहर देखी गई। लेकिन सर्वाधिक संक्रमित और मौत के आंकडे वाले अमेरिका में शुरुआती तीन लहरों ने काफी कहर बरपाया था और चौथी लहर के बाद मामले में तेजी से गिरावट आई। इतना ही नहीं पर्याप्त टीकाकरण के चलते अमेरिका को मास्क की पाबंदी से भी मुक्ति मिलने लगी है। जबकि भारत में अभी इस महामारी की दूसरी लहर का खौफ भरा चित्र बरकरार है साथ ही तीसरी लहर में नौनिहालों को बचाने की कवायद के पशोपेश में सरकार फंसी है। तीसरी लहर कब आएगी ठीक अंदाजा लगाना शायद मुश्किल है। लेकिन अनुमान है कि यह लहर बच्चों के लिए एक बड़ी मुसीबत हो सकती है। गौरतलब है कि जब देश में कोरोना का आगाज हुआ तब किसी को कोई अंदाजा नहीं था कि इससे निपटने के लिए सबसे उचित तरीका क्या है। देश महीनों तक लॉकडाउन में था और सब कुछ बंदी के रास्ते पर चला गया। धीरे-धीरे करोना का विस्तार पूरे देश में और एक लाख के आसपास संक्रमितो की संख्या प्रतिदिन भी हुई और तुलनात्मक मौत का आंकड़ा भी धीरे-धीरे बढा। समय के साथ इस स्थिति से देश शनै:-शनै: बाहर निकलने लगा लेकिन दूसरी लहर में ऐसा कैद हुआ कि देश मौत के सुनामी चला गया। अब तीसरी लहर का अंदेशा है और बाकायदा इसका खुलासा भी किया गया है। ध्यानतव्य हो कि देश के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के.विजय राघवन ने लोगों को महामारी की तीसरी लहर से चेताया है और ऐसा होना निश्चित रूप से कहा गया है। इतना ही नहीं अन्य विशेषज्ञों व स्वास्थ्य अधिकारी भी अब नियमित रूप से लोगों को कोरोनावायरस की तीसरी लहर की संभावना के बारे में आए दिन चेतावनी देते रहते हैं। आशंका को देखते हुए  केंद्र व राज्य सरकारे संक्रमण के कहर से लोगों को बचाने के लिए तैयारियां तो शुरू कर दी मगर तीसरी लहर की स्थिति कहां और कितनी होगी यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा। मगर इस बार यह एक ऐसा इम्तिहान होगा जिसमें सरकार, सिस्टम और समाज के पास उत्तीर्ण होने के अलावा कोई विकल्प नहीं  होगा क्योंकि इस बार कोरोनावायरस की जद् में देश का नौनिहाल बताया जा रहा है।


पिछले सवा साल से एक अदृश्य दुश्मन से लड़ते-लड़ते देश कई समस्याओं में फंसा। करोड़ो इसकी चपेट में आए, लाखों की जान गई,  अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई और बेरोजगारी समेत गरीबी में इजाफा हुआ। आंकड़े बताते हैं  कि पहली लहर के दौरान आरटी-पीसीआर टेस्ट में 4 फीसद बच्चे भी पॉजिटिव पाए गए थे। और दूसरी लहर में यह स्थिति 10 फ़ीसदी तक पहुंच गई। कहने का तात्पर्य भले ही तीसरी लहर नौनिहालों के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बताया जा रहा हो लेकिन पहली और दूसरी लहर में भी देश में 14 फीसद बच्चे इसके चपेट में आ चुके हैं। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च अर्थात आईसीएमआर कि फरवरी 2021 रिपोर्ट यह बताती है की 25.3 फीसद बच्चों में एंटीबॉडी मौजूद मौजूद थे। एन्टीबाडी इस बात का भी संकेत है कि इतनी मात्रा में बच्चे कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। गौरतलब है कि देश में 30 करोड़ बच्चों की आबादी को तीसरी लहर से कैसे सुरक्षित रखी जाए इसकी कवायद इन दिनों जोरों पर है। जिस प्रकार के अनुमान बताए जा रहे हैं उसके हिसाब से यदि पहली और दूसरी लहर के दौरान कोरोना संक्रमण के आंकड़े और सीरो सर्वे के आंकड़े को मिलाकर देखें तो यह कहा जा सकता है कि 40 फीसद बच्चे कोरोनावायरस के संपर्क में आ चुके हैं जो अपने आप में एक चौकाने वाला आंकड़ा है। आकड़े के लिहाज से देखें तो यह कुल बच्चों का 40 फीसद है। इस हिसाब से 60 फीसद बच्चों पर कोरोना के संक्रमण का ख़तरा हो सकता है। बच्चों को इस महामारी से बचाने के लिए अभी तक कोई वैक्सीन तैयार नहीं की गई है। हालांकि अमेरिका में यह कोशिश जारी होने की बात कही जा रही है। वैसे भारत में टीकाकरण को लेकर हालत काफी खराब है। देश के तमाम राज्यों में 18 से 44 वर्ष उम्र के बीच लगने वाले टीके के लगभग सभी सेंटर बंद हो गए हैं और 45 से अधिक के वैक्सीन की मात्रा पर्याप्त नहीं है। भारत में  टीकाकरण जिस हिसाब चल रहा है  उसमें अभी साल भी लग सकते हैं। ऐसे में बच्चों के टीकाकरण की बात तो दूर की कौड़ी है। जबकि अगली लहर का कहर बच्चों से जुड़ी है ऐसे में वैक्सीनेशन को बढ़ाने और उसके प्रति संजीदगी दिखाने का यही सही वक्त भी है। हालांकि दावा कुछ महीनों का है पर  टीकाकरण हो जाए तो। अब तक की यह तस्वीर भी साफ नहीं है कि 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए कोरोना का टीका कब तक बनेगा। कितने बच्चों को टीका दिया जाएगा अगर यह मान भी लें कि कोरोना की तीसरी लहर इस साल अक्टूबर-नवंबर में आ सकती है जैसा कि कहा जा रहा है तो क्या अगले 4-5 महीने में यह सब कुछ हो जाएगा।

बड़ा सवाल यह है कि तीसरी लहर की चपेट में बच्चे क्यों? असल में मत यह भी है कि की बच्चों के अतिरिक्त 18 साल से अधिक उम्र वालों लोगों को  बड़े पैमाने पर टीका की पहली डोज और अन्य को दूसरी डोज दी जा चुकी होगी। ऐसे में वे तुलनात्मक अधिक सुरक्षित होंगे। गौरतलब है कि कोरोना वैक्सीन केवल 16 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर ही टेस्ट किया गया है। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इससे कम उम्र के बच्चों को वैक्सीन न देने की सलाह दी है। जाहिर है सावधानी और चिकित्सीय सुविधा ही इससे बचने का अंतिम रास्ता होगा। तीसरी लहर से बच्चों को बचाना  सरकार, सिस्टम व समाज के लिए एक बड़ी चुनौती रहेगी। देश की शीर्ष अदालत ने भी केंद्र सरकार से ऑक्सीजन का बफर स्टॉक बनाकर कोरोना की तीसरी लहर की तैयारी को अभी से शुरू करने की बात कही है। अनुभव यह बताता है कि वायरस से बचने के लिए हमारी इम्यूनिटी मजबूत होना बहुत जरूरी है। यदि शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी अच्छी होती है तो बीमारियां कम होगी। मल्टीविटामिन भी हमें मजबूत करती है ताकि शरीर बीमारियों से लड़ सके। ऐसे में बच्चों को कोरोनावायरस से सुरक्षित रखने हेतु स्वास्थ्यवर्धक भोजन,फल और सब्जियां, जूस व अड्डों आदि का भरपूर मात्रा में सेवन की बात भी है। लेकिन जो कमजोर और कुपोषित हैं और जिनके लिए दो वक्त का भोजन मुश्किल है उनका क्या होगा? करोना एक ऐसी बीमारी है जो सांस भी उखाड़ देता है। ऐसे में ऑक्सीजन की किल्लत दवाई की परेशानी और हॉस्पिटल में भर्ती की गुंजाइश में अगर कोई कोताही हुई जैसा कि दूसरी लहर में देखा गया तो यह सभ्य सरकार और सिस्टम दोनों पर तमाचा है। अनुभव यह सिखाता है कि बच्चों के लिए वेंटीलेटर्स, ऑक्सीजन व दवाई से युक्त हास्पिटल को बढ़ावा देना , डॉक्टर्स व स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में बढ़ोतरी और समय रहते राज्यों द्वारा बच्चों का डेटाबेस तैयार करना साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर व्यापक टेस्टिंग और ट्रीटमेन्ट से सुसज्जित व्यवस्था। स्पष्ट है की नौनिहाल सुरक्षित तो देश का भविष्य सुरक्षित ऐसे में कोर कसर की कोई गुंजाइश नही।                                          (24  मई, 2021)

डॉ. सुशील कुमार सिंह 
(वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रशासनिक चिन्तक)

जीवन का अधिकार और संविधान

 यद्यपि देश कोरोना की दूसरी लहर के कहर से बाहर निकलने का भरसक प्रयास कर रहा है, बावजूद इसके बीमारी कब नियंत्रण में आयेगी कहना कठिन है। साथ ही तीसरी की संभावना भी व्यक्त की जा रही है। रोजाना लाखों की तादाद में लोंगो का कोरोनावायरस से संक्रमित होना और चार हजार के आसपास प्रतिदिन मौत का आंकड़ा इसकी भयावह स्थिति को दर्शाता है। जिस पैमाने पर लोगों की जान जा रही है यह जीवन के अधिकार को ही मानो हाशिए पर धकेल दिया है। गौरतलब है कि मानव प्रतिष्ठा हमारे संविधान का एक बहुमूल्य आदर्श है और यह आदर्श लोगों के जीवन को संवारता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में अनुच्छेद 21 को एक नया आयाम दिया था। और इसके क्षेत्र को अत्यंत विशाल बनाया और न्यायालय ने कहा था कि प्राण का अधिकार केवल भौतिक अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानव गरिमा को बनाए रखते हुए जीने का अधिकार है।


 जाहिर है संविधान जीवन के अधिकार को एक आदर्श स्वरूप दिया है लेकिन आज वही जीवन हाशिए पर है। हालांकि बचाव और रखरखाव के लिए सरकार और समाज की ओर से प्रयास जारी है लेकिन कुछ और प्रयास की आवश्यकता हो सकती है। मसलन जीवन के अधिकार को संबल देने वाले अनुच्छेद 21 के तहत सभी करोना पीड़ितो का सरकारी व गैर सरकारी हॉस्पिटल्स में हर तरीके से मुक्त इलाज किया जाना। इससे ना केवल सभ्यता का ठीक से रखरखाव हो सकेगा बल्कि मानवता को भी ऊंचाई तथा सरकार को भी एक नया प्रतिमान गढने के लिए जाना जायेगा। भारतीय संविधान के भाग 3 के अंतर्गत मूल अधिकारों में पहला मूल अधिकार समता का अधिकार है। अनुच्छेद 14 में कानून के समक्ष सभी बराबर होते हैं जबकि अनुच्छेद 19 में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है मगर 21 में जीवन संवारने और  गरिमामय जीवन के अधिकार की अनूठी व्यवस्था देखी जा सकती है। 

 यह बात भी गौर से समझने की आवश्यकता है कि कोरोना एक व्यक्ति की नहीं बल्कि परिवार और समाज  के साथ राष्ट्र की समस्या है। ऐसी बीमारी जहां पीड़ितों की संख्या गुणात्मक बढ़त के साथ सुनामी का रूप लिए हुए है वहीं आर्थिकी के दबाव चलते कई इलाज के लिए पैसे के आभाव से भी जूझ रहे होंगे। इतना ही नहीं मनोवैज्ञानिक टूटन के बीच जीवन इन दिनों कई परीक्षा से भी गुजर रहा है। देखा जाए तो समाज में रहने वाला सामाजिक प्राणी कठिनाइयों से जूझ रहा है। एक अनुमान यह भी रहा है कि कोरोना संक्रमितो में केवल 10 फीसद को ही अस्पताल की आवश्यकता पड़ती है। इस लिहाज से भी देखें तो करोना जब से देश में आया है अब तक पीड़ितों की संख्या पौने तीन करोड़ हो चुकी है। स्पष्ट है कि 27-28 लाख लोगों को अस्पताल की आवश्यकता पड़ी होगी। हालांकि आयुष्मान भारत के तहत देश के 20 हजार हॉस्पिटल में मुफ्त इलाज का भी संदर्भ रहा हैं पर इसकी संख्या मामूली हैं। ऐसे में  कोरोनावायरस से पीड़ितो की एक बड़ा हिस्सा इलाज के लिए स्वयं के पैसों पर निर्भर है। गौरतलब है कि रोजगार और कमाई के ख़ात्मे के चलते इलाज करा पाना सभी के लिए आसान तो कत्तई होगा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआईई) की ओर से जारी रिपोर्ट को देखें तो 16 मई 2021 को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान ग्रामीण बेरोजगारी बीते 1 हफ्ते में दोगुनी उछाल के साथ 14.34 फीसद हो गई है। पिछले हफ्ते में ग्रामीण बेरोजगारी दर 7.29 फीसद थी। इसी दौरान शहर की बेरोजगारी में भी बढ़ोतरी हुई है जो लगभग 11.72 फीसद थी जो अब बढ़कर 14.71 फीसद हो गई है। जब बेरोजगारी एक हफ्ते में दुगनी होगी तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोगों के कमाई पर इसका क्या असर पड़ रहा होगा। ऐसे में चाहिए कि सरकार बड़ा दिल दिखाएं और कोरोना पीड़ितो के लिए मुफ्त इलाज वाला रास्ता अपनाने में अब देरी ना करें।
(19  मई, 2021))

डॉ सुशील कुमार सिंह

फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच कहाँ खड़ा है भारत

गौरतलब है कि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच इन दिनों गोलाबारी जारी है। हालाकि कि यह हमला फिलिस्तीन की सेना नहीं बल्कि हमास कर रही है और हमले के मद्देनजर हमास के कई बड़े नेता भूमिगत हो गए । गौरतलब है कि हमास फिलिस्तीनी क्षेत्र का सबसे प्रमुख इस्लामी चरमपंथी संगठन है। 1987 में एक जन आंदोलन के चलते हमास का उदय हुआ था। जिसे दुनिया  आतंकी संगठन के रूप में देखती है। खास यह भी है कि फिलिस्तीन भी इसे आतंकी संगठन ही मानता है। फिलहाल इजरायल अपनी तेज धार और के साथ गाजा पट्टी में भीषण हमला जारी किए हुए। बीते 16 मई को जहां संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक थी उस दिन सबसे भीषण हमला भी किया गया। हमले में सैकड़ो फिलिस्तीनी की मौत हो चुकी है जिसमें बच्चों की संख्या भी बहुतायत में है जबकि हजारों की तादाद में लोग घायल हो गए हैं। कमोबेश मरने और घायल होने वालों की संख्या इजराइल में भी देखी जा सकती है। इजरायल और हमास के बीच एक हफ्ते से जारी संघर्ष में 16 मई का हवाई हमला अबतक का सबसे भीषण हमला था। हालाकि अंतरराष्ट्रीय पक्षकार भी दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन मुश्किले बढ़ी हुई हैं। क्षेत्र विशेष में तनाव कम करने के लिए संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद की 16 मई को बैठक भी हुई। गौरतलब है कि पूर्वी यरूशलम में मई की शुरुआत में तनाव तब शुरू हुआ था जब फिलिस्तीनियों ने शेख जर्रा से उन्हें निकाले जाने के खिलाफ प्रदर्शन किया और इजरायली पुलिस ने अल अक्सा मस्जिद में कार्रवाई की। गाजा पट्टी की स्थिति को लेकर 57 सदस्यीय इस्लामिक सहयोग संगठन की भी 16 मई को ही आपातकालीन डिजिटल बैठक हुई ताकि इजरायली हमले को रोका जा सके। बावजूद इसके मुश्किलें कम होते दिखाई नहीं दे रही हैं और दुनिया के देश इसे लेकर दो गुटों में बटे जरूर दिखते हैं। जिसमें अमेरिका समेत कई यूरोपीय देश जहां इसराइल की ओर हैं वही अरब देश फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े हैं। तुर्की का कहना है कि मुस्लिम वर्ल्ड को इजरायल के खिलाफ स्पष्ट फैसला लेना चाहिए। भारत की मुश्किल यह है कि वह इजरायल और फिलिस्तीन दोनों से द्विपक्षीय संबंध रखता है। ऐसे में उसका दृष्टिकोण एकतरफा तो बिल्कुल नहीं  हो सकता। सिर्फ इजरायल और फिलीस्तीन के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के लिए भी मायने भारत का दृष्टिकोण मायने रखता है।


विदित हो कि पूर्वी देश हो या पश्चिमी भारत समय के साथ विभिन्न देशों से संबंध हो गाढ़ा करता रहा है। इसी क्रम में भारत-इजराइल संबंध को भी देखा जा सकता है। गौरतलब है कि 14 जनवरी 2018 को इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भारत की 6 दिवसीय यात्रा की थी जो कई उम्मीदों की भरपाई करने से युक्त दिखाई था। खास यह भी है कि जिस तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी के इजरायल दौरे के दौरान जो जुलाई 2017 में हुआ था उनके समकक्ष ने उनका स्वागत किया था उसी अंदाज को अपनाते हुए प्रधानमंत्री ने प्रोटोकॉल तोड़ते हुए उन्हें गले लगाया था। गौरतलब है कि 1948 को दुनिया के नक्शे में पनपा इजरायल का भारत के साथ कूटनीतिक संबंध महज तीन दशक पुरानी है। हालांकि कई मामलों में सम्बन्धों का संदर्भ पहले से भी देखा जा सकता हैं। मगर कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री कभी भी इजरायल का दौरा नहीं किया। जुलाई 2017 में प्रधानमंत्री मोदी इजरायल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री हुए। तब बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि भारत से मेरा दोस्त आया है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य जिस तरह का है वह सकारात्मकता से ओतप्रोत है। भारत,फिलिस्तीन को लेकर भी उतना ही सकारात्मक है जितना कि इजराइल के मामले में। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दृष्टि से देखें तो इजरायल और फिलिस्तीन के झगड़े पर कई बार यह कह चुके थे कि उनकी सहानुभूति यहूदियों के साथ है लेकिन फिलिस्तीनी क्षेत्र तो अरब के लोगों का ही है और इस विवाद का कोई सैन्य हल नहीं होना चाहिए। जाहिर है ऐसे विचारों से आज का भारत भी अनभिज्ञ नहीं है। शायद यही कारण है कि इन दिनों भारत की स्थिति काफी कुछ चुनौतीपूर्ण तो है। हालांकि बीते 16 मई के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक भारत की ओर से अपना मत बखूबी स्पष्ट कर दिया गया है। जिसका शायद इजरायल के साथ फिलिस्तीन भी कुछ दिनों से इंतजार कर रहा था।

 गौरतलब हो कि नई दिल्ली ने चुप्पी तोड़ते हुए दोनों देशों से शांति बनाए रखने की अपील की है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में इस मुद्दे पर अपना स्पष्ट कर दिया। ध्यानतव्य हो कि भारत इसी साल जनवरी 2021 से 2 साल के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्य के रूप में शामिल है। भारत के स्थाई प्रतिनिधि पीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि हम दोनों पक्षों से यथास्थिति  में एकतरफा बदलाव न करने की अपील करते हैं। दोनों को शांति व्यवस्था बनाए रखना की बात कही गई। साथ ही यह भी कहा कि भारत फिलिस्तीन के जायज मांगों का समर्थन करता है और टू नेशन थ्योरी के तहत मामले में हल के लिए वह वचनबद्ध है। इस बात पर भी दृष्टि डाली गई कि इजरायल का यरूशलम भारत के लिए क्या महत्व रखता है। गौरतलब है कि यहां लाखों भारतीय रहते हैं। जाहिर है इजरायल और फिलिस्तीन में विवाद सुलझाने के लिए प्रत्यक्ष और सार्थक बातचीत होनी चाहिए। खास यह भी है कि भारत ने गाजा पट्टी से इजरायल के रिहायशी इलाकों पर होने वाले हमलों की कड़ी निंदा की है। इसी हमले में केरल की सौम्या संतोष की भी मौत हो गई थी। फिलहाल हालिया संदर्भ यह जताता है कि भारत, इजरायल और फिलिस्तीन के बीच वार्ता बहाल करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने का हर संभव प्रयास करेगा। और जो भारत को करना भी चाहिए। पड़ताल बताती है कि इजरायल निर्माण से लेकर अब तक भारत का इजरायल और फिलिस्तीन के सम्बन्धों में कई मोड़ आए हैं। जाहिर है भारत की टिप्पणी कहीं अधिक संतुलित और सकारात्मक है। ऐसे में हो सकता है इजराइल को अपेक्षा कुछ ज्यादा की हो लेकिन शांति प्रिय देश भारत संयम और संतुलन को बाकायदा जानता है।

देखा जाए तो इजरायल और फिलिस्तीन क्षेत्र का विवाद भारत के आजादी से भी पुराना है और भारत हमेशा से अरब देशों का हिमायती रहा है। भारत की स्वतंत्रता के बाद प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने इजरायल के प्रति महात्मा गांधी के रूख को आगे बढ़ाया। और बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के अनुरोध के बावजूद भारत ने इजरायल के गठन के प्रस्ताव का विरोध किया था। हलाकि सितंबर 1950 में इजराइल को मान्यता भारत ने दे दी । 1962 में जब भारत और चीन का युद्ध हुआ तब तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन को नेहरू ने हथियारों की आपूर्ति का अनुरोध किया। इजरायल की ओर पेशकश मान भी ली गई। मगर भारत ने यह शर्त रखी कि इजरायल समुद्री जहाज से हथियार भेजे और उसका झण्डा जहाज पर ना लगा हो क्योंकि इससे अरब देश नाराज हो जाएंगे। ऐसे में गुरियन ने मना कर दिया। फिलहाल 1971 के भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दौरान भी इजराइल भारत की मदद के लिए सामने आया था और हथियारों का जहाज भेजा था बदले में शर्त राजनीतिक रिश्ते की थी। 1977 में जनता पार्टी की सरकार के दौरान भी इजराइल से संबंध को आगे बढ़ाने की बात आई तब तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कहा था कि 25 अरब देश नाराज हो जाएंगे।  फिलहाल भारत और इजरायल के बीच राजनयिक संबंधों की शुरुआत 29 जनवरी 1992 मानी जाती। पी वी नरसिंह राव उस समय देश के प्रधानमंत्री थे। 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान भारत और इजराइल का सहयोग बड़ा था और शायद यही वजह थी कि साल 2000 में भारत के तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह इजराइल का दौरा किया था। 2004 में मनमोहन सरकार के समय भारत का इजरायल के प्रति रुख संतुलित था और मोदी शासनकाल में संबंध चरम पर पहुंच गया। उक्त संदर्भ  दर्शाते हैं कि भारत का अरब देशों के साथ प्रगाढ़ संबंध तो था तो था मगर इजरायल के साथ भी उसका ताना-बाना था। हालाकि इसके बावजूद भी भारत की विदेश नीति फिलिस्तीनी लोगों के पक्ष में रही।फिलहाल 2014 के बाद इजरायल और फिलीस्तीन के बीच एक बार फिर लंबे युद्ध के आसार बन रहे हैं। एक ओर जहां अमेरिका ने इजरायल का खुला समर्थन किया वहीं दूसरी ओर अरब देश फिलिस्तीन के साथ खड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने मीडिया संस्थानों की इमारत को ध्वस्त करने और मौत को युद्ध का अपराध करार दिया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी गाजा में मृतकों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंता जताई है। जब-जब फिलिस्तीन और इजराइल के बीच इस तरीके की गतिविधियां हुई है नुकसान हमेशा फिलिस्तीन का हुआ है। देखा जाय तो फिलिस्तीन की जमीन हर युद्ध में सिकुड़ जाती है और इजराइल का क्षेत्रफल बढ़ जाता है।                                                                                                                       
 (17 मई, 2021)

सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार 

आर्थिक दुष्चक्र से गुजरता आम जनमानस

धीमा पड़ चुका कोरोना जिस गति से पैर पसार रहा है। वह आम जनजीवन और सभ्यता के लिए एक बड़े खतरे का सूचक है। देश में कोरोना की दूसरी लहर विकराल रूप लिए हुए है। यह जनता की घोर लापरवाही का नतीजा है या फिर सरकार की नीतियों में कमी। फिलहाल इसकी चपेट में देश हैं और इससे निपटने के लिए कर्फ्यू व लॉकडाउन कमोवेश जारी है। साथ ही चिकित्सीय सुविधा पर भी जोर देखा जा सकता है।

 लेकिन हालात इस कदर बेकाबू हैं कि सारी कोशिशे मानो बौनी होती जा रही हैं। दुनिया के देशों ने भी दिल खोल कर भारत को मदद पहुंचाई है मगर देश अभी राहत नहीं महसूस कर रहा है। कोरोनावायरस का साइड इफेक्ट आम जनमानस पर भी आसानी से देखा जा सकता है।  आंकड़े इशारा करते हैं कि कोरोना ने भारत में करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया है और मध्यम वर्ग की कमर टूट रही है। इसकी दूसरी लहर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर भी अपना कहर ढा रही है। सथ ही आम जनजीवन को भी हाशिए पर धकेल दिया है। भारत के विकास को लेकर जारी तमाम रेटिंगस् भी अनुमान से नीचे दिखाई दे रहे हैं साफ है की एक और भारत की अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है तो दूसरी ओर आम जनमानस गरीबी और मुफलिसी की ओर गमन किया है। गौरतलब है की करोना को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से लाखों श्रमिकों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। पाई-पाई का मोहताज होना पड़ा है और खर्च चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए मजबूर भी होना पड़ा। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलता है कि कोरोनावायरस की सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ी है। मार्च 2020 से अक्टूबर 2020 के बीच 23 करोड़ गरीब मजदूरों की कमाई न्यूनतम मजदूरी से भी कम देखी गई। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट कि शहरी इलाकों में गरीबी 20 फीसद जबकि ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत तक बढ़ी है। दूसरी लहर के बाद गरीबों की स्थिति जमींदोज होने की आशंका भी है। ध्यानतव्य हो कि 41 करोड़ से अधिक श्रमिक देश में काम करते हैं जिन पर कोरोना का इन दिनों कहर बनकर टूटा है। 

अमेरिकी रिसर्च एजेंसी प्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों पर विश्वास करें तो करोना महामारी के चलते भारत के मध्यम वर्ग खतरे में है। कोरोना काल में आए वित्तीय संकट ने कितनी परेशानी खड़ी की इसका कुछ हिसाब- किताब अब दिखाई देने लगा है। गौरतलब है कि भारत में मिडिल क्लास की पिछले कुछ सालों में बढ़ोतरी हुई थी मगर कोरोना ने करोड़ों को पटरी कर दिया। कोरोना से पहले देश में मध्यम वर्ग की श्रेणी में करीब 10 करोड़ लोग थे अब संख्या घटकर 7 करोड़ से भी कम हो गई है। गौरतलब है कि जिनकी प्रतिदिन आय 50 डालर या उससे अधिक है वे उच्च श्रेणी में आते हैं जबकि प्रतिदिन 10 डालर से 50 डालर तक की कमाई करने वाला मध्यम वर्ग में आता है। खास यह भी है कि चीन की तुलना में भारत के मध्यम वर्ग में अधिक कमी और गरीबी में भी अधिक वृद्धि होने की संभावना देखी जा रही है। साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम वर्ग की श्रेणी में शामिल हुए थे मगर कोरोना ने एक दशक की इस कूवत को एक दशक में ही आधा रौद दिया। गौरतलब है कि जनवरी 2020 में विश्व बैंक ने भारत और चीन की विकास दर की तुलना की थी जिसमें अनुमान था कि भारत 5.8 फीसद चीन और 5.9 फीसद के स्तर पर रहेगा लेकिन कुछ ही महीने बाद भारत का विकास दर ऋणात्मक स्थिति से साथ भर-भरा गया।कोरोना से बिगड़े आर्थिक हालात को देखते हुए सरकार द्वारा मई 2020 में 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज भी आवंटित किए गए मगर भीषण आर्थिक तबाही का सिलसिला जारी रहा और और मध्यम वर्ग के आर्थिक दुर्दशा के साथ करोड़ों गरीबी में गुजर-बसर के लिए मजबूर हो गये।

गौरतलब है कि काम-धंधे पहले ही बंद हो गए थे, कल कारखानों के ताले अभी खुले नहीं थे कि दूसरी लहर आ गई। गांव से शहर तक रोजी-रोजगार का संकट बरकरार है जाहिर है आर्थिक दुष्चक्र बना रहेगा। पहली लहर में 14 करोड़ लोगों का एक साथ बेरोजगार होना काफी कुछ बयां कर देता है।  करोड़ों की तादाद में यदि मध्यमवर्ग सूची से बाहर होता है तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मगर एक यक्ष प्रश्न यह है कि कोरोनावायरस इतनी बड़ी तबाही मचा दी और देश लगातार मुसीबतों को झेलता रहा बावजूद इसके इससे निपटने के बेजोड़ नीति अभी अधूरी क्यों ? एक साल से अधिक समय करोना को आए हो गया। अब दूसरी लहर उफान पर है, जबकि तीसरी लहर की संभावना भी व्यक्त की जा चुकी है। यदि लहर पर लहर आती रही और इसका निस्तारण समय रहते ना हुआ तो इसमें कोई शक नहीं कि देश में गरीबों की तादाद बढ़ेगी। भुखमरी और मुफलिसी के आगोश में करोड़ों समाएंगे और विकास के धुरी पर घूमने वाला भारत आर्थिक दुष्चक्र में फंस कर उलझ सकता है। सुशासन एक आर्थिक परिभाषा है, जहां से कई सवाल उठते भी हैं और समाधान भी प्राप्त करते हैं। हालांकि दौर सवाल उठाने का नहीं है लेकिन समाधान की चिंता जाहिर है रहेगी। अभिशासन के सिद्धांत में इस बात पर जोर दिया गया है कि सुशासन तब होता है जब सरकार अपने व्यय में मितव्ययिता बरतती है, अपनी शक्तियों को कम करती है, विनम्र भूमिका निभाती है और लोक सशक्तिकरण की ओर झुकी होती है। मौजूदा हालात में यह समय की मांग भी है। अब सरकार इस मामले में कितनी खरी उतरती है यह उसे सोचना है और साथ ही जनता को भी यह विचार करना है कि आखिर कोरोना के इस भंवरजाल से कैसे बाहर निकले। सादगी और संजीदगी यही कहती है कि समय रहते दोनों को होश में आ जाना चाहिए ताकि सभ्यता,संस्कृति और देश सभी को आसानी से पटरी पर लाया जा सके।                                                                                                                                       
 (11 मई, 2021)
 
डॉ. सुशील कुमार सिंह 
निदेशक,  वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन,  देहरादून 
मोबाइल: 9456120502