Wednesday, February 28, 2018

खुली अर्थव्यवस्था पर आकर्षण कितना!

भारत में विदेषी निवेष और उससे जुड़े आकर्शण को लेकर मोदी सरकार बीते चार वर्शों से वे सारे हथकण्डे अपनाये जो विदेषी निवेष हेतु वृहत्तम हो सकता था। इसके लिए मेक इन इण्डिया से लेकर स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया तथा डिजिटल इण्डिया समेत रेड टेप को खत्म करने व रेड कारपेट जैसी तमाम नीतिगत मापदण्डों पर कदमताल किया। बावजूद इसके क्या भारत में विदेषी निवेष संतोशजनक कहा जा सकता है यदि निवेष को संतोशजनक मान भी लेते हैं तो भी दूसरा प्रष्न उठता है कि क्या मानव विकास सूचकांक में इसकी उपादेयता पूरी तरह प्रासंगिक हो रही है। हालात को देखते हुए ऐसा कहना सम्भव नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में भारत में विदेषी निवेष का प्रवाह 27 प्रतिषत बढ़कर करीब 31 अरब डाॅलर रहा जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा माॅरिषस का था। हालांकि इसी क्रम को 35 अरब डाॅलर के तौर पर भी आगे इसे देखा जा सकता है। उपरोक्त से यह परिलक्षित होता है कि देष में प्रत्यक्ष विदेषी निवेष को लेकर बढ़त तो मिली है पर आधारभूत ढांचा समेत गुणवत्ता से भरे जीवन के मामले में कितनी सफलता मिली इस पर राय अलग-अलग है। प्रधानमंत्री जीडीपी के आधार पर भारत को पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था मान रहे हैं जबकि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देष में हर पांचवां गरीब और हर चैथा अषिक्षित है साथ ही 65 फीसदी युवा के लिए रोजगार सृजन की संतोशजनक लकीर भी लगभग नदारद है। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि डाॅ0 मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मात्र एक साल अर्थात् 2010 में 10 लाख से अधिक रोजगार दिये गये थे जबकि मोदी के अब तक के लगभग चार साल के अपने षासनकाल में भी यह आंकड़ा नहीं छू पायी है। हालांकि मुद्रा बैंकिंग के तहत ऋण लेने वालों से लेकर स्टार्टअप तक को रोजगार से जोड़कर सरकार बता रही है पर इनका हाल क्या है और इसकी सफलता कितनी रही इसका आंकड़ा नहीं है। 
बीते 27 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी भारत-दक्षिण कोरिया समिट में विदेषी निवेष का आह्वान करते हुए कहा कि भारत विष्व की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और दुनिया के साथ कारोबार करने के लिए तैयार है। उक्त से यह आषय है कि निवेष के मामले में भारत पहले की तुलना में कहीं कुछ बदलाव लिये हुए है। जिस प्रकार मोदी दुनिया में भारत को परोसने का काम किया है साथ ही यह संदेष दिया कि विदेषी सफल और कुषल व्यापार भारत के साथ कर सकते हैं वाकई सराहनीय है। इतना ही नहीं विनिर्माण को लेकर यदि कोई देष सुरक्षित स्थान की खोज में है तो वह स्थान भारत है जैसे तमाम संदर्भ मोदी के वक्तव्य में देखे जा सकते हैं। वैसे देखा जाय तो भारत अब खुला बाजार तो है परन्तु नियमों की जटिलता से अभी पूरी तरह मुक्त नहीं है। साल 2017 में 7 हजार करोड़पति भारतीयों ने देष छोड़ दिया इसके पीछे कई कारणों में एक वजह यहां कि कर व्यवस्था को भी बताया गया था। समिट में प्रधानमंत्री मोदी 1400 से अधिक पुराने नियम-कानूनों को पूरी तरह हटाने की भी बात कही। षायद वो कहना चाहते हैं कि कारोबारी सुगमता के लिए जटिलताओं को समाप्त कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि औद्योगिक लाइसेंसों की वैधता तीन साल से बढ़ा 15 साल और इससे अधिक कर दिया गया है। जिस प्रकार कारोबार में सुषासन को मोदी सरकार ने गढ़ने की कोषिष की है उससे लगता है कि पुरानी व्यवस्था से जो नई व्यवस्था पनपी है वह लाइसेंस के मामले में तुलनात्मक ढ़ीली हुई है। पीएम मोदी यह मानते हैं कि 65 से 70 फीसदी उत्पाद बिना लाइसेंस के बनाये जा सकते हैं गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के लागू होने के साथ लाइसेंसिंग प्रणाली में व्यापक ढ़ीलापन लाया गया था। उसी का नतीजा है कि देष की अर्थव्यवस्था खुली और उसी को मोदी और खोल रहे हैं। तब वित्त मंत्री डाॅ0 मनमोहन सिंह थे जो बाद में 2004 से 2014 तक देष के प्रधानमंत्री भी रहे। देखा जाय तो मोदी उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं। 
अर्थषास्त्र का एक सामान्य नियम यह भी है कि पैसे का काम पैसे से ही होगा। जाहिर है या तो देष में विनिर्माण के लिए स्वयं की ताकत हो अन्यथा विदेषी निवेष को देष की ओर आकर्शित किया जाय। भारत और चीन में भले ही राजनीतिक व कूटनीतिक असहमति हो बावजूद इसके चीनी एफडीआई में वृद्धि हुई है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कष्मीर के कुछ हिस्से से गुजरने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में चीन का 46 बिलियन डाॅलर के निवेष पर भारत ने एतराज जताया जो सही है। बीजिंग ने परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता लेने के लिए भारत के प्रयासों को असफल किया इसके अलावा संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में जैष-ए-मोहम्मद के सरगना आतंकी अज़हर मसूद के मामले में भी अड़ंगा लगाया परन्तु व्यापार के मामले में मौजूदा 70 अरब डाॅलर की स्थिति को सौ अरब के लिए रजामंद है। साफ है कि आर्थिक मसलों पर चीन भारत के साथ सुगम रवैया रखता है जबकि कूटनीतिक मामलों में वह भारत से 36 का आंकड़ा रखता है। चीन में सूचना प्रौद्योगिकी, कृशि और दवा उद्योगों में चीन के बाजार में घुसने के भारत के प्रयासों को एक दषक से भी अधिक समय से अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है जबकि इलैक्ट्राॅनिक उपकरण से लेकर तमाम उत्पादों को भारत के बाजार में वह उतार कर बड़े हिस्से पर कब्जा किये हुए है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा पिछले साल करीब 47 अरब डाॅलर तक पहुंच गया था जाहिर है कि भारत चीन से मामूली पा रहा है जबकि चीन मालामाल हो रहा है। भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था में माॅरिषस जैसे छोटे देषों का निवेष सर्वाधिक है इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन का नम्बर आता है। माॅरिषस का निवेष इसलिए भी अधिक माना जाता है क्योंकि टैक्स हैवन माॅरिषस को हवाला की जगह भारत की ब्लैक मनी को व्हाइट करने का रूट भी कहा जाता है। 2016-17 की रिज़र्व बैंक की एफडीआई रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि सिंगापुर और जापान निवेष के मामले में क्रमषः चैथे और पांचवें मामले में हैं। चैंकाने वाला तथ्य यह है कि कुल विदेषी निवेष का लगभग 22 फीसदी हिस्सा माॅरिषस का है। 
भारत बदल रहा है और भारत के प्रति दुनिया का नजरिया भी ऐसा प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि समय के साथ देष का स्वाभाविक विकास हुआ है पर जिस सम्भावना के साथ सत्ताधारियों ने भारत का भाग्य बदलने का प्रयास किया वह अभी अधूरा है। देष में भ्रश्टाचार भी काफी पाया गया है और सबसे अधिक निवेष बीते तीन सालों में ही हुआ है ऐसा मोदी मानते हैं पर यह बात दावे से नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों कृत्यों से देष का प्रत्येक सेक्टर सुधरा है। भले ही भारत में कारोबारी माहौल सुधरा हो पर नोटबंदी के चलते रोजगार भी छिने हैं और कारोबार भी बंद हुए हैं। हालांकि ग्लोबल रैंकिंग में भारत 130वें से 100वें नम्बर पर है। जीएसटी को टैक्स सुधार का सबसे बड़ा हथियार माना जा रहा है परन्तु अभी इसे ठीक करने की ही कोषिष चल रही है इसके बारे में भी समुचित राय तभी हो सकेगी जब करदाताओं का जीवन पहले से अधिक सुगम हो। यह भी सच है कि भारत में निवेष को बेहतर संरक्षण मिल सकता है बावजूद इसके विदेषी पूरा विष्वास नहीं जुटा पा रहे हैं। इसके पीछे भारत में कभी कदार बिगड़ने वाला माहौल भी जिम्मेदार है। अच्छा कानून और अच्छी कर व्यवस्था न केवल भारतीयों के लिए बेहतर होगा बल्कि विदेषी निवेष को भी बढ़ावा देगा यह कहीं अधिक सटीक बात है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, February 26, 2018

खोजनी होगी चीन की काट

अगर भारत यह समझ रहा है कि डोकलाम से चीन का पीछे हटना विवाद का पूरा निपटारा था तो वह षायद सही नहीं समझ रहा है और यदि वह यह समझ रहा है कि मालदीव में उत्पन्न संकट को लेकर चीन कोई चालबाजी नहीं करेगा तो भी समझ को उचित करार नहीं दिया जा सकता। लाख टके का सवाल है कि सीमा विवाद के मामले में चीन का रवैया कभी भी उदार नहीं था। जून 2017 में उत्पन्न डोकलाम विवाद का भले ही निपटारा जुलाई के अन्त में आषा के अनुरूप हो गया हो पर उसे लेकर चीनी चाल अभी भी जारी है। सूचना है कि चीन भूटान को डोकलाम के बदले जमीन दे रहा है। गौरतलब है कि डोकलाम मुद्दे पर चीन का पीछे हटना उसके मात खाने जैसी बात रही है। ध्यानतव्य हो कि अगस्त 2017 के प्रथम सप्ताह में चीन में ब्रिक्स देषों की बैठक होनी थी स्थिति को देखते हुए चीन ने इस मामले को पटाक्षेप करना ही सही समझा। उन दिनों इज़राइल से लेकर जापान तक और अमेरिका ने भी डोकलाम विवाद पर भारत का ही साथ दिया था। बावजूद चीन जिस तरीके से धौंस जमा रहा था और युद्ध के मुहाने पर अपने को खड़ा किया था उससे साफ लग रहा था कि डोकलाम उसके लिए हठ बन गया है। अलबत्ता पीछे हटने के मामले में भारत की कूटनीतिक विजय हुई है पर चीन की चाल को समझना बड़े पैमाने पर बुद्धि खर्च करने के बराबर है। इन दिनों चर्चा है कि भूटान के लिए विवादित जमीन के बदले चीन उत्तर-पूर्व या उत्तर-पष्चिम में ज्यादा जमीन छोड़ने का प्रलोभन दे रहा है। इतना ही नहीं भूटान को बुनियादी ढांचे के लिए एकमुष्त राषि पेषकष करने वाली बात भी सामने आ रही है। यदि इसमें सच्चाई है तो ड्रेगन की यह चाल बेहद गम्भीर है और इसकी काट खोजना भारत की जिम्मेदारी है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कहीं चीन भूटान को अपने जाल में उलझाकर डोकलाम जैसे अहम क्षेत्र को हथिया न ले। यदि ऐसा हुआ तो उत्तर-पूर्व समेत उत्तर भारत उसकी नजर में आसानी से बना रहेगा। 
कूटनीति के जानकार भी मानते हैं कि चीन जब अपनी चाल को पीछे खींचता है तो दूसरे रास्ते से उससे बड़ी चाल चलता है। तरह-तरह की रणनीतिक चाल से भारत को घेरने का फिलहाल वह प्रयास कर रहा है। भारत षान्ति और संयम से भरा देष है जबकि चीन कुटिल चाल से लबालब रहता है। वह भूटान पर इस तरह से दबाव बना रहा है कि अगर उसने चीन के प्रलोभनों को स्वीकार नहीं किया तो उसे सामरिक या रणनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। अब भारत को दो प्रकार की कसरत करनी है पहला यह कि वह भूटान को इन दबाव से मुक्त करे, दूसरा चीन के इस बदले रूख के बदले में कोई कूटनीतिक कदम उठाये।वैसे दृश्टिकोण तो यह भी है कि भारत भूटान में अपनी विकास योजनाओं का आकार बढ़ाने के साथ उसे सुरक्षा का भाव देने की कोषिष में लगा हुआ है। दो टूक यह भी है कि चीन की चतुराई इसलिए हतप्रभ करती है कि वह भारत को नुकसान पहुंचाने का कोई अवसर छोड़ता नहीं जबकि भारत चीन की जरा सी नरमी देखकर बेपरवाह हो जाता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन भूटान के विकास के लिए करोड़ों डाॅलर की राषि की पेषकष भी कर चुका है। सच्चाई यह है कि वह भूटान से दोस्ती गांठने की फिराक में है ताकि भारत को दूर किया जा सके। देखा जाय तो चीन जिस तरह नेपाल पर नजरें गड़ाये हुए है और इन दिनों हिन्द महासागर में स्थित मालदीव में व्याप्त संकट पर भारत की तुलना में सघन चाल चलने में लगा हुआ है उसी तर्ज पर भूटान में ऐसी राह बनाने की कोषिष में है कि भारत दरकिनार हो जाय। अगर भूटान में किसी तरह वह दखल बढ़ाने में कामयाब होता है तो यह भारत की रणनीतिक और कूटनीतिक हार होगी। जाहिर है इसकी काट खोजनी होगी। 
विचारषील संदर्भ यह भी है कि नेपाल में नई सरकार के0पी0 ओली के नेतृत्व में हाल ही में बनी है जिनकी चीन से बड़ी निकटता है। वैसे ओली चीन से निकटता बनाकर भारत से ज्यादा लाभ उठाने को लेकर भी जाने जाते हैं। गौरतलब है कि साल 2015 के सितम्बर में जब नेपाल ने नये संविधान को अपनाया था तब मधेषियों के अधिकारों को लेकर बड़ा आन्दोलन नेपाल के तरायी इलाकों में छिड़ा हुआ था। सुषील कोइराला के स्थान पर ओली प्रधानमंत्री बने थे और आरोप यह मढ़ा गया था कि भारत के इषारे पर यह सब हो रहा है जबकि सच्चाई यह है कि यह अव्वल दर्जे का झूठ था। दरअसल पौने तीन करोड़ नेपालियों ने सवा करोड़ मधेषी हैं जो तराई के इलाके में रहते हैं ये मूलतः भारत के हैं। संविधान में अपने अधिकारों को लेकर इन्होंने चिन्ता जतायी और सड़कों पर जाम लगाया, रसद सामग्री षेश नेपाल में पहुंचने नहीं दिया फलस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली ने धमकी दी कि वह चीन की तरफ झुक सकते हैं खास यह भी है कि समस्या समाप्ति के बाद वे भारत आये थे परन्तु उसके पहले चीन की यात्रा पर गये थे। मौजूदा समय में एक बार फिर नेपाल के प्रधानमंत्री ओली हैं। ऐसे में भारत को कई मोर्चों पर चीन से सावधान रहने की जरूरत पड़ेगी। स्थिति और बदलती परिस्थिति को भांपते हुए भारत का यह अभ्यास होना चाहिए कि पड़ोसी देषों के साथ बेहतर सम्बंध की एक बार फिर पुनरावृत्ति और चीन के साथ गहरी कूटनीति पर अमल किया जाय।
ताजा घटनाक्रम में मालदीव संकट के बीच पूर्वी हिन्द महासागर में चीनी युद्ध पोतों की पहंच चिन्ता का विशय है। वैसे भारत सरकार का कहना है कि मालदीव के निकट कोई चीनी युद्ध पोत नहीं है। सारे घटना पर नजर रखी जा रही है हालांकि यह कहा गया है कि कुछ दिनों पहले विध्वंसक पोत और एक फ्रिजेट हिन्द महासागर के पूर्वी हिस्से में देखा गया था। वैसे देखा जाय तो दक्षिण चीन सागर की तरफ जाने के क्रम में ये सुण्डा स्ट्रेट से वहां आये थे। सबके बावजूद एक बात यह भी है कि पाकिस्तान के बाद मालदीव चीन का सर्वाधिक कर्जदार देष है। वहां के मौजूदा राश्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन चीन की तरफ झुकाव रखते हैं जबकि श्रीलंका में रह रहे मालदीव के पूर्व राश्ट्रपति मोहम्मद नषीद का झुकाव भारत की ओर है। मालदीव में उत्पन्न संकट पर चीन अपनी सफल चाल चलना चाहता है और हिन्द महासागर में अपनी पैठ बनाने की फिराक में है। भारत को यहां भी उसकी इस कुटिल चाल का वाजिब जवाब रखना होगा। हांलाकि भारत इस मामले में बहुत चैकन्ना है पर यह तभी काम आयेगा जब चीन की चाल से अधिक स्पीड से भारत की कूटनीति चलेगी। दो-तीन प्रष्न खड़े होते हैं कि दक्षिण एषिया के दो देष एक मालदीव और दूसरे भूटान पर चीन लगातार डोरे डाल रहा है और भारत इन दोनों के बीच सधा हुआ कदम उठाना चाहता है पर सफलता तभी मानी जायेगी जब चीन यहां असफल होगा। नेपाल से भारत के सम्बंध अच्छे हैं परन्तु ओली का झुकाव थोड़ा चीन की ओर रहता है सम्भव है चीन की नजरों से नेपाल को भी दागदार होने से बचाना है। नेपाल, भूटान और मालदीव सामरिक दृश्टि से महत्वपूर्ण देष हैं। दक्षिण चीन सागर में एकाधिकार का मनसूबा रखने वाला चीन मालदीव के सहारे हिन्द महासागर में भी एंट्री मारना चाहता है जाहिर है उपरोक्त की काट खोजना भारत के लिए चुनौती है पर नामुमकिन नहीं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, February 19, 2018

नये मोड पर भारत-ईरान संबंध

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारत की पष्चिम की ओर देखो नीति दषकों पुरानी है जबकि इतिहास में झांका जाय तो यह सदियों पुरानी है। इन दिनों भारत और ईरान के बीच एक नई राह बनी है जो समतल भी है और बेहतर भी। इसका यह तात्पर्य नहीं कि राह अभी-अभी बनी है बल्कि दौर के अनुपात में इसमें मोड़ नये हैं। दोनों देषों के बीच बीते षनिवार को हुए 9 समझौतों में सब तो नये नहीं हैं पर द्विपक्षीय दृश्टि से इन्हें सुसंगत कहा जा सकता है। आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे और चाबहार परियोजना के षाहिद बहेस्ती बंदरगाह के पट्टे को भारत को देने का करार तो खास ही कहा जायेगा। दोनों देषों ने जिन अन्य मुद्दों पर रजामंदी दिखाई है उसमें दोहरे कराधान एवं राजस्व चोरी से बचने, प्रत्यर्पण सन्धि के क्रियान्वयन, स्वास्थ एवं चिकित्सा समेत व्यापार बेहतरी के लिए विषेश समूह बनाने जैसी कई बातें षामिल हैं। ईरानी राश्ट्रपति का यह संकल्प कि हम आतंकवाद और चरमपंथ से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं वाकई भारत की दृश्टि से काफी महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक गैस और पेट्रोकेमिकल क्षेत्र में सहयोग का फैसला भी अच्छा है। प्रधानमंत्री मोदी का यह मानना कि रूहानी की यह यात्रा रिष्तों को मजबूती देगा बेषक सही है पर पष्चिम की ओर देखो नीति में जिस तरीके से भारत विस्तार लिये हुए है और इसे निरंतरता दे रहा है उसमें केवल देष विषेश पर केन्द्रित नहीं हुआ जा सकता। जाहिर है आसपास के देषों को भी ध्यान में रखना होगा। गौरतलब है कि पष्चिम एषिया के अरब देषों के बीच आपस में काफी तनी-तना है और भारत का सरोकार लगभग सभी से है। मसलन ईरान और इज़राइल फिलिस्तीन और इज़राइल आदि।
भारत और ईरान के बीच काफी खट्टे-मीठे अनुभव वाले सम्बंध भी हैं बावजूद इसके भारत यह जानता है कि ईरान एक बड़ी क्षेत्रीय षक्ति है जिसकी भौगोलिक स्थिति उसे पड़ोसी क्षेत्रों जैसे परषिया की खाड़ी पष्चिम एषिया, काॅकेषस, कैस्पियन तथा दक्षिण व मध्य एषिया में उसे महत्वपूर्ण बनाती है। गौरतलब है कि विष्व के प्राकृतिक गैस का 10 फीसदी भण्डार रखने वाला ईरान ओपेक देषों में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है। जिसके चलते भारत और ईरान के बीच ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं। हालांकि भारत-पाकिस्तान-ईरान गैस पाईपलाइन समझौता लम्बे समय तक कागजी ही रहा और अब तो नाउम्मीद के ही संकेत हैं। प्रधानमंत्री मोदी साल 2016 के 22 मई को ईरान की दो दिवसीय यात्रा पर थे जहां महत्वपूर्ण समझौते भी हुए। तब इस दौरान भारत ने पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और यूरोप तक की अपनी पहुंच सुनिष्चित करने वाले चाबहार समझौते पर सहमति की मोहर लगायी। इसी चाबहार को अब बीते 17 फरवरी के समझौते में 18 माह तक संचालन करने का अधिकार भारत को दिया जाना दोनों देषों के सम्बंध को मिसाल में बदल सकता है। द्विपक्षीय समझौते रणनीतिक और कारोबारी दृश्टि से अहम माने जा सकते हैं जबकि एक बार फिर यह समझौता पाकिस्तान समेत चीन को जरूर खटकेगा। दरअसल इस समझौते के चलते भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच सीधे बंदरगाह स्थापित हो जायेंगे और इस इलाके में बढ़ते चीन और पाकिस्तान के असर कम हो जायेंगे। 
चाबहार समझौता भारत को मध्य एषिया से सीधे जोड़ देगा साथ ही रूस तक भी पहंुच आसान हो जायेगी। गौरतलब है कि साल 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा चाबहार को विकसित करने को लेकर सहमति बनी थी। तब से खटायी में पड़े चाबहार समझौते को मोदी ने 2016 में ईरान दौरे के दौरान संजीदा बनाने की सकारात्मक कूटनीति की थी जिसका प्रतिफल इन दिनों देखा जा सकता है। राश्ट्रपति हसन रूहानी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच हैदराबाद हाऊस की प्रतिनिधिमण्डल के बीच दोनों पक्षों ने सूफीवाद की षान्ति एवं सहिश्णुता की साझी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए आतंकवाद और कट्टरवाद फैलाने वालों को रोकने की प्रतिबद्धता व्यक्त की। विदित है कि पाक प्रायोजित आतंकवाद से भारत त्रस्त रहा है। फिलहाल देखा जाय तो इन दिनों पाकिस्तान अपनी इन्हीं करतूतों के चलते दुनिया के निषाने पर है। मोदी की एक नीति यह रही है कि द्विपक्षीय मामला हो या बहुपक्षीय मंच पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए हमेषा वे एड़ी-चोटी का जोर लगाते रहे हैं जिसके नतीजे भी साफ दिखने लगे हैं। पाकिस्तान के भीतर आतंक को समाप्त करने को लेकर उसे अमेरिका से मिलती लगातार धमकी और इस बात का भी डर कि 18 से 23 फरवरी के बीच पेरिस में जारी फाइनेंषियल एक्षन टास्क फोर्स की सालाना बैठक में उसके खिलाफ कोई कड़े कदम उठाये जा सकते हैं। गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा जारी फण्डिंग पर पहले ही रोक लगायी जा चुकी है। 
वैसे भारत-ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त षासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं। विष्व के सात आष्चर्य में षामिल ताजमहल का वर्णन प्रायः भारतीय षरीर में ईरानी आत्मा के प्रवेष के रूप में किया जाता है। स्वतंत्रता के षरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च 1950 को एक चिरस्थायी षान्ति और मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर भी हुए थे। हालांकि षीत युद्ध के दौरान दोनों के बीच अच्छे सम्बंध नहीं थे। ऐसा ईरान का अमेरिकी गुट में षामिल होने के चलते था इसके अलावा भी कई उतार-चढ़ाव समय के साथ रहे हैं पर अब दोनों देषों के बीच एक सहज कूटनीति विद्यमान है। दोनों देषों के बीच ऊर्जा, व्यापार और निवेष आदि को लेकर भी काफी कुछ मंथन हुआ है। कृशि एवं सम्बंधित क्षेत्र में भी समझौते हुए हैं। दो टूक यह भी है कि भारत पूरब के साथ पष्चिम की ओर भी देखता है। साथ ही दक्षिण एषिया में बड़े भाई की भूमिका में रहना चाहता है परन्तु पाकिस्तान जैसों के चलते कुछ उद्देष्य पूरे नहीं हो रहे हैं साथ ही चीन की कुदृश्टि और उसकी पाकिस्तान की पीठ थपथपाने की नीति के कारण भारत को कहीं अधिक सधी हुई कूटनीति करनी होती है। यही कारण है कि जब भी सघन और व्यापक रणनीति देष की होती है तो दोनों पड़ोसियों को खलता है। फिलहाल ईरान के साथ मौजूदा सम्बंध एक बार फिर एक नये मोड़ को अख्तियार किया है। दो साल पहले मोदी ने कहा था कि भारत और ईरान की दोस्ती उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इतिहास यह बात बिल्कुल सही है साथ ही इसमें कोई दुविधा नहीं कि ईरान से गाढ़े सम्बंध देष की गुणता को बढ़ाने के काम आयेंगे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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पीएनबी फर्जीवाड़े से सुलगे सवाल

भारत में घोटाला, धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े जैसे कृत्य अमूमन होते रहे हैं षायद यही वजह है कि इनके खुलासे देष की जनता को उतना नहीं चैंकाते जितने असल में होने चाहिये। हां यह बात सही है कि सत्ता और विपक्ष इस मामले में कहीं अधिक सक्रिय हो जाते हैं कि इससे उपजे सवाल की रडार पर वो न आयें। पीएनबी घोटाला एक ऐसा प्रकरण है जो अच्छे-अच्छों का होष उड़ा दे। जिस तरह चैंकाने वाली जानकारियां सामने आयी हैं उससे यह साफ होता है कि रसूकदारों के दोनों हाथों से बैंक कैसे लुटते हैं जबकि गरीब पेट काट-काट कर कर्ज देने की कोषिष करता है परन्तु देर कर दे तो यही बैंक उसका जीना मुहाल कर देते हैं। लगभग साढ़े ग्यारह हजार करोड़ के इस फर्जीवाड़े की चपेट में सरकारी बैंक पीएनबी, यूनियन बैंक आॅफ इण्डिया तथा इलाहाबाद बैंक समेत प्राइवेट बैंक एक्सिस आदि हैं। पूरे मामले की जड़ में लेटर आॅफ अण्डरटेकिंग यानी एलओयू षामिल है। गौरतलब है कि यह एक तरह की गारंटी होती है जिसके आधार पर दूसरे बैंक खातेदार को पैसा उपलब्ध करा देते हैं परन्तु यदि खातेदार डिफाॅल्ट कर जाये तो जिम्मेदारी एलओयू जारी करने वाले बैंक की होती है। जाहिर है लेटर आॅफ अण्डरटेकिंग पीएनबी ने जारी किया है तो सम्बन्धित बैंकों के बकाये या कहा जाय तो जो उन्हें चपत लगी है उसका भुगतान पीएनबी करेगा। सवाल बड़ा है पर जरूरी है कि अरबों रूपयों का भुगतान पीएनबी कहां से करेगा। कहीं ऐसा न हो कि धोखाधड़ी की रकम की पूर्ति के लिये खाताधारकों पर कोई नयी मुसीबत आये। नीरव मोदी ने जिस तर्ज पर लूट मचाई और मामला खुलने से पहले ही जिस प्रकार स्वयं को देष निकाला भी कर लिया उससे साफ है कि फिलहाल वह अपनी योजना में पूरी तरह सफल है। भारत के भीतर उसके संगठनों पर ताबड़तोड़ छापों से कुछ हासिल करने की कोषिष की गयी है। अनुमान है कि 6 हजार करोड़ के आसपास की सम्पदा हाथ लगी है मगर धोखाधड़ी की एवज में यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही कहा जायेगा। 
फर्जीवाड़ा का यह खेल बहुत बड़ा है और इसका कप्तान नीरव मोदी है जो देष के बाहर है। हालांकि आखिरी बार इनका चित्र दावोस में प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक ग्रुप फोटों में दिखाई दिया था। खास यह भी है कि बरसों से जारी इस खेल के बारे में इसी वर्श जनवरी में तब पता चला जब लेटर आॅफ अण्डरटेकिंग की अवधि खत्म हो गयी और भारतीय बैंकों की विदेषी षाखाओं को कर्ज की रकम वापस नहीं मिली। जाहिर है ऐसे में बैंक गारण्टी लेने वाले बैंक से सम्पर्क करेंगे। यहीं से स्थिति प्रकाष में आयी। पीएनबी ने भी आनन-फानन में अपने हिस्से की सफाई दे दी और 10 कर्मचारियों को निलंबित भी किया साथ ही सीबीआई को यह भी बताया कि आरोपी को पहला एलओयू 16 जनवरी को जारी किया गया था। फिलहाल जांच के घेरे में कई कंपनियां हैं मसलन गीतांजलि, गिन्नी और नक्षत्र आदि। गौरतलब है ये सभी आभूशण बनाने वाली कंपनियां हैं। फिलहाल इस मसले को लेकर नित नये आयाम देखने को मिल रहे हैं। नीरव की कंपनी के अफसर भी गिरफ्तार हो रहे हैं और ईडी के छापे जारी हैं। हीरे, रत्न, आभूशण जब्त किये जा रहे हैं और राजनीति भी सुलग रही है। कोई इसे कांग्रेस का तो कोई भाजपा का घोटाला बता रहा है। कानून मंत्री रविषंकर प्रसाद ने बताया कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को साल 2012 से 2016 के बीच 22 हजार करोड़ से अधिक का चूना लगाया गया है। आंकड़े कितने भी साफगोही से रखे जा रहे हों पर यह तो साफ है कि लापरवाही बरती गयी है। भारत के पांच सबसे बड़े बैंक घोटाले में यह महानतम घोटाला है। नीरव मोदी का मसला 2011 से जारी है पर पकड़ में अभी आया है जाहिर है कि मोदी सरकार इससे पल्ला नहीं झाड़ सकती कि इसकी षुरूआत कांग्रेस सरकार के समय हुई थी। वैसे बैंकिंग सेक्टर से भी लोगों का विष्वास उठ रहा है यह बात कहीं अधिक गौर करने वाली है। 
मकसद तो यह था कि साफ-सुथरी और जिम्मेदार बैंकिंग सुविधा हो पर ऐसे मामलों के चलते सवाल भी बड़े हो गये हैं और उठ खड़े भी हुए हैं कि क्या खाताधारकों का पैसा बैंकों में सुरक्षित है। पीएनबी धोखाधड़ी के बाद अब मन में यह सवाल घूम रहा है कि खाते में जमा रकम डूबेगी तो नहीं। अफवाह तो यह भी उड़ी थी कि ऐसे भी नियम बनने जा रहे हैं कि बैंकों में आम आदमी की जमा राषि के साथ कुछ ऊँच-नीच होती है तो सरकार की गारण्टी नहीं है लेकिन सरकार ने इसका खण्डन करके अफवाहों से बाहर तो निकाल दिया है पर इस बात की गारण्टी नहीं कि खाताधारकों की रकम के साथ बैंक खिलवाड़ नहीं करेगा। मसलन जमा करने और निकालने पर कटौती, एटीएम का कई बार उपयोग पर कटौती साथ ही चैक बाउंस की दर में वृद्धि आदि ऐसे प्रकरण हैं जहां बैंक अपनी क्षतिपूर्ति के लिए खाताधारकों के खाते से रकम आहिस्ता से खींच रहे हैं। वैसे नोटबंदी के बाद बैंकों का आधारभूत ढांचा क्या है का भी खुलासा हो गया था। कतार में खड़े लोगों को 4 हजार न दे पाने वाले बैंकों में कुछ ने करोड़ों का हेरफेर भी किया था। देष में 2 लाख से अधिक एटीएम काम करते हैं और इनकी स्थिति दो तरह की है या तो इसमें रकम नहीं होगी या इनके षटर डाऊन होंगे। एक खाताधारक जब तक दो से तीन एटीएम का चक्कर नहीं लगाता तब तक उसका काम नहीं बनता है। सरकार भले ही तमाम वायदे करे पर नीरव मोदी जैसे चपत लगाने वाले व्यापारियों को बैंक के लोग ही संरक्षण देते हैं और हित पोशण की फिराक में व्यवस्था को धता बता देते हैं।
विजय माल्या भी बैंकों को 9 हजार करोड़ का चूना लगाकर लंदन में गुजर-बसर कर रहे हैं और इस घाटे को पाटने की फिराक में बैंक आम जनता की गाढ़ी कमाई में सेंध लगा रही है। दुःखद यह भी है कि इसी देष में सिविल समाज भी है, सिविल सेवा भी है और सरकार भी साथ ही सिटिजन चार्टर भी है बावजूद इसके महकमे जनहित को सुनिष्चित करने वाले मापदण्डों पर चलने से बाज आ रहे हैं। अब बैंकिंग को ही देख लीजिये चैक बाउंस होने के बाद ग्राहक को पता चलता है कि अब इसका चार्ज बढ़ गया है। कुछ बचत खाताधारकों के ऐसे भी उदाहरण हैं कि बिना किसी लेनदेन के उनकी राषि खाते से खिसक गयी है। सवाल तो यह भी बड़ा है कि धोखाधड़ी के षिकार बैंक अपना पैसा वापस तो नहीं ला पा रहे हैं पर उसकी पूर्ति के लिए अनाप-षनाप पर उतारू हो सकते हैं। पीएनबी में हुए साढ़े ग्यारह हजार के महाघोटाले ने बैंकिंग सेक्टर, षेयर मार्केट के साथ-साथ सरकार की भी नींद उड़ा रखी हैं। भले ही एजेंसियां नीरव मोदी के ठिकानों पर छापेमारी करके रिकवरी की बात कर रही हैं पर बड़ी सच्चाई यह है कि घोटाले का असर किसी न किसी रूप में आम लोगों पर पड़ेगा। सबसे ज्यादा असर इन्वेस्टर्स पर पड़ेगा। आर्थिक मामलों के जानकार भी मानते हैं कि इस घोटाले से बैंक घाटे में जायेंगे। गौरतलब है कि पीएनबी के 43 फीसदी षेयर पब्लिक के पास हैं ऐसे में बड़ा नुकसान किसका होगा समझना आसान है। लेटर आॅफ अण्डरटेकिंग पर देष के 30 बैंकों ने करीब 2 हजार करोड़ से ज्यादा का कर्ज दिया था। पीएनबी पहले यह कह कर पल्ला झाड़ दिया कि एलओयू फर्जी था इसलिये वह कर्ज की रकम नहीं चुकायेगा जब रिज़र्व बैंक ने साफ कर दिया कि पैसा पीएनबी को ही भरना पड़ेगा ऐसे में क्या पीएनबी समेत जनता इसकी जद में नहीं आयेगी।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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अंतराष्ट्रिय प्रतिबंधों से बचने का स्वांग

अब पाकिस्तान के किसी भी कदम से हैरत नहीं होती चाहे वह आतंकियों के मामले में झूठ पर झूठ बोले या फिर भारत के दिये गये सबूतों को नकारे पर दुःख इस बात का जरूर है कि सीमा पर भारतीय सेना के षहीद होने के सिलसिले किसी भी सूरत में नहीं रूक रहे हैं। हाल ही में जम्मू के सुंजवां में सेना के ब्रिगेड पर जिस प्रकार फिदायिन हमला किया गया उसे देखकर सितम्बर 2016 की उरी में सेना के कैम्प पर हुये हमले की याद ताजा हो गयी। उरी में उन दिनों 18 सैनिक षहीद हुए थे जबकि सुंजवां में भी 6 जाबांज सैनिक को देष ने खो दिया। गौरतलब है कि उरी की घटना का हफ्ता मात्र ही बीता था कि भारतीय सैनिकों ने पीओके में घुस कर आतंकियों के अड्डे निस्तोनाबूत किये और उनके लाॅचिंग पैड को भी बर्बाद किया था साथ ही 40 से अधिक आतंकी उनके निषाने पर भी आये थे। बावजूद इसके पाकिस्तान की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा मगर एक खास बात यह है कि बीते कुछ महीनों से सीमा पर पाकिस्तान की हरकतों का उसी अंदाज में भारतीय सेना जवाब दे रही है। पाकिस्तान की सेना समेत आतंकी और आईएसआई की धूर्तता इतनी अव्वल दर्जे की है कि हम सेना खोने के सिलसिले को थाम नहीं पा रहे हैं। वैसे पाकिस्तान धोखे और मक्कारी पर चलते हुए आतंक के मामले में दुनिया से झूठ बोलता रहा पर अब उसकी कलई खुल गयी है। बीते 6 महीनों से अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान को इस बात के लिये लानत-मलानत करते रहे कि वह आतंकियों का षरणगाह है। बावजूद इसके पाकिस्तान के कान पर जूं नहीं रेंगी। बाद में ट्रंप ने तो यहां तक कहा कि अगर पाकिस्तान भीतर फैले आतंकवाद को खत्म नहीं करता है तो यह काम अमेरिका कर देगा। अन्ततः कुछ होता न देख डोनाल्ड ट्रंप ने उसे दी जाने वाली सहायता राषि पर फिलहाल रोक लगा दी है। 
इस तथ्य को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तान के भीतर आतंकी संगठन दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर विकसित हुए हैं। इन्हीं आतंकियों में एक खूंखार आतंकी हाफिज सईद है तो दूसरा अजहर मसूद है। हालांकि फहरिस्त इकाई-दहाई में न होकर सैकड़ों की तादाद में है। मुम्बई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद और उसके आतंकी संगठन जमात-उद-दावा पर इन दिनों एक नया फैसला सामने आया है और ऐसा अंतर्राश्ट्रीय प्रतिबंधों के डर के चलते हुआ है। दरअसल फ्रांस में आतंकवाद को आर्थिक मदद के खिलाफ एक अहम बैठक होने जा रही है जिसे देखते हुए पाकिस्तान को यह डर है कि 18 से 23 फरवरी तक पेरिस में चलते वाली फाइनेंषियल एक्षन टास्क फोर्स की इस सालाना बैठक में उसके खिलाफ कोई कड़े कदम न ले लिये जायें। गौरतलब है कि अमेरिका ने पाकिस्तान पर बीते कई महीनों से इस बात के लिये दबाव बनाये हुए हैं कि पाकिस्तान देष के भीतर आतंकवाद समाप्त करे। इसी को लेकर उसने इसे फण्डिंग करने से भी मना किया था। अमरिका ने पाकिस्तान को वैष्विक आतंकियों की फण्डिंग की सूची में डालने को लेकर अन्तर्राश्ट्रीय संगठन एफएटीएफ से भी सम्पर्क साधा। जाहिर है इस कदम से पाकिस्तान सहमा हुआ है और इसी के चलते बैठक से ठीक पहले गुपचुप तरीके से अपने आतंकवाद रोधी कानून में संषोधन कर दिया है जिसके तहत आतंकी सरगना हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा, फलाह-ए-इंसानियत और संयुक्त राश्ट्र की सूची में षामिल कुछ अन्य आतंकी संगठन को जो उसके देष के भीतर हैं आतंकी संगठन मान लिया है। सवाल है कि क्या पाकिस्तान के इस बनावटी कदम से एफएटीएफ के फैसले पर कोई असर पड़ेगा। हालांकि पाकिस्तान की आदतों को देखते हुए षायद ही यह उसके पक्ष में जायेगा। जिस तरह आतंक की पाठषालायें पाकिस्तान ने अपने यहां खोली और हाफिज़ सईद और अजहर मसूद और लखवी समेत तमाम आतंकी गुर्गों को पाला-पोसा उससे साफ है कि मात्र इतने से उसका काम नहीं चलेगा। 
गौर करने वाली बात यह भी है कि अमेरिका और भारत पाक में पसरे आतंकी नेटवर्क को निस्तोनाबूत करने को लेकर एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए हैं। मनी लाॅड्रिंग और टेरर फण्डिंग पर नजर रखने वाली एफएटीएफ की काली सूची में सम्भव है कि इस बार पाकिस्तान का नाम आयेगा जबकि पाकिस्तान अपनी छवि साफ-सुथरी दिखाने की फिराक में है। गौरतलब है कि साल 2012 के फरवरी में एफएटीएफ की काली सूची में पाकिस्तान का नाम डाला गया था और तीन साल तक वह इसमें बना रहा पर अब उसकी एक बार फिर यहां जगह बनती हुई दिख रही है। एक लिहाज़ से देखा जाय तो पाकिस्तान दुनिया की आंखों में खूब धूल झोखा है साथ ही आतंक का पूरा उपयोग भारत के खिलाफ किया है जिसकी कीमत आज भी देष चुका रहा है। जमात-उद-दावा समेत कई आतंकियों और उनके संगठनों को लेकर जिस तरह प्रतिबंध वाली हड़बड़ी उसने दिखाई है उसे देखते हुए अब वह दुनिया को बेवकूफ षायद ही बना पाये। खास यह भी है कि आतंकियों पर पाक द्वारा खेला गया दांव पुख्ता नहीं है क्योंकि प्रतिबंध एक अध्यादेष के माध्यम से है जो कुछ समय बाद भंग हो जायेगा क्योंकि इसकी अपनी समय सीमा होती है। जाहिर है प्रतिबंधित आतंकी और संगठन पुनः बहाल हो जायेंगे। यदि पाकिस्तान उसे कानून में बदल दे तब यह स्थायी हो सकता है पर वह ऐसा क्यों करेगा और क्या कर पायेगा। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में नाममात्र का लोकतंत्र है वहां की सरकार का एक हाथ सेना और आईएसआई के कब्जे में तो दूसरा आतंकियों ने दबोच रखा है। कहा जाय तो बनावटी लोकतंत्र और कमजोर निर्णय वाली सरकार इस्लामाबाद में गुजर-बसर करती है। 
भारत की यह कोषिष रही है कि किसी भी सूरत में कष्मीर समेत पीओके में आतंकियों की पैठ न होने पाये पर इस मामले में सफलता नहीं मिल पायी है। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के अन्तर्गत गिनाये गये कारणों में एक कारण आतंकियों के पास जमा धन पर भी प्रहार बताया गया था। देखा जाय तो कष्मीर घाटी आतंकियों के बोझ से बरसों से दबी हुई थी। जिसे आप्रेषन आॅल आॅउट के तहत हाल ही में 250 से अधिक आतंकियों को ढ़ेर कर इस बोझ से घाटी को हल्का तो किया गया पर षायद पूरी तरह मुक्त नहीं। असल में घाटी को आतंकी से ही नहीं अलगाववादियों से भी डर है। यहां हुर्रियत के लोग भी पाकिस्तान परस्ती का नमूना पेष करते रहते हैं। बरसों से कष्मीर जल रहा है और अलगाववादी उसमें घी डालने का काम कर रहे हैं। बुरहान वानी जैसे दहषतगर्दों को षहीद बताने वाले और पाकिस्तान में काला दिवस मनाने वाली वहां की सरकार यह भूल गयी कि जांबाज और मक्कार में अंतर होता है। वैसे एक षिकायत यह भी है कि मौजूदा महबूबा मुफ्ती सरकार भी इस मामले में फिसड्डी है। उनका हालिया बयान कि पाकिस्तान से बातचीत ही रास्ता है गलत तो नहीं पर सही भी नहीं है। एक तरफ सीमा पर लगातार सीज़ फायर का उल्लंघन और धोखे से सेना के ब्रिगेड और कैम्प पर पाकिस्तान हमला कर रहा है तो दूसरी तरफ बातचीत की बात कहीं जा रही है। महबूबा मुफ्ती को षायद यह नहीं पता कि पाकिस्तान स्वयं बातचीत चाहता ही नहीं है। उसे तो बस सीमा पर गोले दागने का षौक है। हालांकि महबूबा मुफ्ती के इस कदम में उनके साथ सरकार में षामिल भाजपा भी कुछ हद तक दोशी प्रतीत होती है। सरकार में बने रहने की महत्वाकांक्षा के चलते केन्द्र की मोदी सरकार कष्मीर में कठोर कदम उठाने से हिचकती रही। हालांकि आॅप्रेषन आॅल आॅउट एक अच्छा कदम है। फिलहाल बदली स्थिति को देखते हुए भारत सरकार की इसलिए तारीफ की जा सकती है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को झुकाने में हद तक कामयाब तो हुई है। 


सुशील कुमार सिंह
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Monday, February 12, 2018

समस्याओं के समुद्र मे मालदीव

बेहतरीन पर्यटन एवं अपने आलिशान रिजार्ट्स के लिए दुनिया में प्रसिद्धि वाला मालदीव इन दिनों राजनीतिक संकट से जूझ रहा है। मालदीव के राश्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने बीते 5 फरवरी को 15 दिनों के लिए अपने देष में आपात लगा दिया। इस कदम से पूरे मालदीव में गहराते राजनीतिक संकट के बीच एक बड़ा बवंडर खड़ा हो गया है। गौरतलब है कि वहां के सुप्रीम कोर्ट द्वारा राश्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के आधिकारवादी षासन के खिलाफ दिये गये निर्णय से यामीन की सरकार इन दिनों हाषिये पर है। फैसले के मद्देनजर विपक्षी नेताओं की रिहाई करने से यदि यामीन सरकार इंकार करती है तो इनके खिलाफ महाभियोग भी लगाया जा सकता है। इन्हीं आषंकाओं को देखते हुए सेना को भी सतर्क कर दिया गया। इमरजेंसी घोशित करने के बाद सोमवार को राजधानी माले में पूर्व राश्ट्रपति मामूम गय्यूम को मालदीव की सेना ने हिरासत में ले लिया। इतना ही नहीं सेना ने सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायधीषों को भी गिरफ्तार कर लिया है। हिन्द महासागर के बीच 4 लाख की जनसंख्या वाला मालदीव में जिस कदर संकट गहराया है उसे देखते हुए वहां के विपक्षी नेताओं ने भारत से मदद मांगी है। मालदीव के निर्वासित पूर्व राश्ट्रपति मोहम्मद नाषिद ने सागर के बीच हिचकोले ले रहे मालदीव को उबारने के लिए भारत से कूटनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप की मांग की है। इन सबके बीच फिलहाल यह समझना भी जरूरी है कि आखिर मालदीव में पनपी समस्या की मुख्य वजह क्या है? दरअसल वहां की सर्वोच्च न्यायालय ने बीते 1 फरवरी को जेल में बंद नौ विपक्षी नेताओं को रिहा करने का आदेष दिया जिसे यामीन सरकार ने मानने से इंकार कर दिया। इस मामले में अदालत की टिप्पणी थी कि उनके खिलाफ मामला राजनीति से प्रेरित और गलत है बावजूद इसके सरकार ने फैसला नहीं माना। फलस्वरूप विरोध प्रदर्षन षुरू हो गया और हालात बेकाबू हो गये। 
अमेरिका ने भी कहा है कि मालदीव के राश्ट्रपति द्वारा आपात की घोशणा करने से उसे निराषा और चिंता हुई है तथा उसने उनसे कानून का पालन करने और षीर्श अदालत के फैसले को लागू करने की अपील की है। फिलहाल अभी किसी प्रकार के सुधार के आसार मालदीव में नहीं दिखाई दे रहे हैं परन्तु समस्याओं के समुद्र में फंसे मालदीव के हल को लेकर जुगत निकालने की कोषिष जारी है। श्रीलंका की राजधानी कोलंबो से मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी का संचालन कर रहे पूर्व राश्ट्रपति मोहम्मद नषीद ने कहा है कि भारत सरकार न्यायाधीषों और पूर्व राश्ट्रपति मामून अब्दुल गय्यूम और राजनेताओं को मुक्त कराने के लिए अपनी सेना के साथ एक दूत भेजे। मालदीव संकट पर भारत की नजर चैकन्नी है सेना तैयार और दक्षिण में मूवमेंट के संकेत भी हैं। फिलहाल संकट को देखते हुए भारत स्टैण्डर्ड आॅपरेटिंग प्रोसिजर का पालन कर सकता है। वैसे देखा जाय तो यामीन का चीन के प्रति झुकाव जबकि नषीद का रूख भारत के प्रति सकारात्मक रहा है। दो टूक यह भी है कि भारत और मालदीव के बीच द्विपक्षीय सम्बंध घनिश्ठ और मैत्रीपूर्ण रहे हैं। आठ देषों के सार्क संगठन में षामिल मालदीव इसकी प्रत्येक बैठकों में हमेषा षिरकत करता रहा है। भारत के साथ द्विपक्षीय बातचीत, समझौते, सन्धियां भी होती रही हैं। जरूरत पड़ने पर भारत से मदद भी मिलती रही है। कुछ समय पहले जब मालदीव में पेयजल का संकट उत्पन्न हुआ था तब भारत ने समुद्री जहाजों से यहां पानी भेजा था। मालदीव के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कदम 7 अगस्त 2008 को तब उठा जब नये संविधान को यहां  अनुसर्मथन किया गया जिसके चलते मालदीव में बहुदलीय राश्ट्रपति का निर्वाचन कराने का मार्ग खुला। मालदीव लोकतांत्रिक पार्टी के राश्ट्रपति के लिए तब के उम्मीदवार मुहम्मद नषीद ही थे और उन्होंने चुनाव जीता भी था जिसके षपथग्रहण समारोह में भारत ने भी प्रतिनिधित्व किया था।
विचारषील संदर्भ यह भी है कि साल 2013 के बाद से भारत-चीन रिष्तों में उतार-चढ़ाव आया। गौरतलब है कि मालदीव सरकार ने माले हवाई अड्डे का ठेका भारतीय कम्पनी से रद्द करके चीनी कम्पनी को दे दिया था। इतना ही नहीं सरकार समर्थित अखबार ने चीन को दोस्त और भारत को षत्रु बताया। साल 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने तब देखा गया कि मीडिया के माध्यम से उनकी भी आलोचना की गयी। हालांकि सरकार ने कहा यह उसका नजरिया नहीं है। यहां इस बात को भी गहरायी से समझना होगा कि मालदीव भारत के लिए कितना जरूरी है। देखा जाय तो भारत की मूल चिंता चीन की चालबाजी से है। चीन मालदीव में सैन्य बेस बनाना चाहता है जो हर हाल में और हर लिहाज़ से भारत के लिए सही नहीं है। पूर्व राश्ट्रपति नषीद भी चीन के हस्तक्षेप को खतरा बता चुके हैं। गौरतलब है कि मालदीव को लेकर कुटिल चाल वाले चीन ने साल 2011 के बाद से यहां निवेष में तेजी लाया। स्थिति यह है कि मौजूदा समय में मालदीव के अन्तर्राश्ट्रीय कर्ज में तीन चैथाई हिस्सा चीन का है। पाकिस्तान के बाद यदि मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों की फहरिस्त देखी जाय तो मालदीव दक्षिण एषिया का दूसरा देष है जहां चीन का खेल बाखूबी फैला हुआ है। चीन के कई बड़े प्रोजेक्ट भी मालदीव में चल रहे है। जाहिर है चीन का दबदबा हिन्द महासागर में मालदीव के माध्यम से बना हुआ है। ऐसे में भारत की भूमिका इसलिए एक्टिव मोड में होनी चाहिए ताकि मालदीव को चीन के माइलेज से कुछ हद तक रोका जा सके। 
फिलहाल राश्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन पर संयुक्त राश्ट्र, यूरोपीय संघ, काॅमन वेल्थ के नेषंन्स अमेरिका तथा ब्रिटेन समेत भारत का भी यह दबाव है कि वह षीर्श अदालत के फैसले का पालन करे और पूर्व राश्ट्रपति नषीद को मालदीव आने दे। जिस तरह स्थिति को यामीन ने बदला है उससे तो यही लगता है कि रार इतनी जल्दी समाप्त नहीं होगी और न ही वे हथियार डालेंगे। वैसे देखा जाय तो बीते तीन-चार दषकों में यहां कि परिस्थितियां भी बदली हैं। राजनीति में अहम पड़ाव भी आये साथ ही मालदीव समय-समय पर समस्याओं के जाल में फंसता और निकलता रहा है। 1978 में राश्ट्रपति बनने के बाद गय्यूम ने 30 साल तक सत्ता संभाली। 2004 में सरकार विरोधी हिंसा हुई तत्पष्चात् आपात घोशित हुआ और सैकड़ों गिरफ्तार किये गये। 2005 में बहुदलीय राजनीति को मंजूरी देने के लिए मालदीव की संसद ने वोट दिये और साल 2008 में मोहम्मद नषीद अब्दुल गय्यूम लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये पहले राश्ट्रपति बने और जब 2012 में एक बार फिर राजनीतिक संकट गहराया तब नषीद को पद छोड़ना पड़ा। एक साल बाद गय्यूम के चचेरे भाई अब्दुल्ला यामीन राश्ट्रपति बने पर साल 2015 में मालदीव को एक बार फिर आपात के हवाले कर दिया गया। 2016 में नषीद ने पद छोड़ दिया और अब साल 2018 में हिन्द महासागर का यह द्वीप फिर झंझवातों में फंस गया है जिसे उबारने के लिए भारत से गुहार लगायी जा रही है। एक परिस्थिति यह भी है कि राजनीतिक अस्थिरता और बिगड़ी परिस्थितियों का लाभ उठाना चीन की फितरत है। नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में चीन यही कर चुका है और मालदीव में कर रहा है। दक्षिण एषिया के इन देषों में चीन सामरिक महत्व की जमीन को हमेषा हथियाने की कोषिष में रहा है परन्तु भारत इस पर कभी अधिक सक्रियता नहीं दिखाई। जब अगस्त 2017 में चीनी नौसेना के तीन जहाजों ने माले पोर्ट पर लंगर ड़ाला तब हमारी नींद टूटी। गौरतलब है कि 2014 में चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग माले जा चुके हैं और यामीन भी बीजिंग जा चुके हैं जिसके चलते मेरीटाइम सिल्क मार्ग को भी राह दी जा चुकी है। फिलहाल चारों तरफ से समुद्र में घिरे मालदीव की समस्या भले ही आंतरिक हो पर कूटनीतिक फलक पर चीन की चाल को समझते हुए भारत को भी कहीं अधिक चैकन्ना रहना होगा।



सुशील कुमार सिंह
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कितनी खरी रोजगार पर सरकार

सच तो यह है कि देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या एकाएक उत्पन्न नहीं हुई है बल्कि यह दषकों का नतीजा है। इतना ही नहीं लगातार बेरोजगारी खत्म करने के मंसूबे से भरी सरकारें इस मामले में न केवल फिसड्डी सिद्ध होती रहीं बल्कि इसके चलते खूब लानत-मलानत भी झेलती रही। मौजूदा मोदी सरकार कुछ इसी दौर से गुजर रही है। उन्होंने 2013 में आगरा में एक चुनावी रैली के दौरान यह वादा किया था कि सरकार गठन की स्थिति में प्रतिवर्श एक करोड़ रोजगार उपलब्ध करायेंगे परन्तु मामला कुछ लाख तक ही सरकार सिमट कर रह गया। साल 2017 में मोदी सरकार ने मैन्यूफैक्चरिंग, कन्स्ट्रक्षन तथा ट्रेड समेत 8 प्रमुख सेक्टरों में सिर्फ 2 लाख 31 हजार नौकरियां दी हैं जबकि 2015 में यही आंकड़ा एक लाख 55 हजार पर ही आकर सिमट गया था। हालांकि 2014 में 4 लाख 21 हजार लोगों को नौकरी मिली थी। इससे अलग एक आंकड़ा यह भी है कि जब यूपीए दूसरी बार सत्ता में आयी तब डाॅ0 मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2009 में ही दस लाख से अधिक नौकरियां दी गयी थी। दो सरकारों का तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह इंगित करता है कि अब तक मोदी सरकार कांग्रेस के एक साल के आंकड़े को भी नहीं छू पायी है। गौरतलब है कि 2014 के घोशणापत्र में रोजगार बीजेपी का मुख्य एजेण्डा था। जिस प्रकार रोजगार को लेकर सरकार कमजोर दिखायी दे रही है उससे तो यही लगता है कि रोज़गार बढ़ाना तो दूर लाखों खाली पदों को ही भर दें तो भी गनीमत है। आंकड़े इस ओर इषारा करते हैं कि देष में 14 लाख डाॅक्टरों की कमी है, 40 केन्द्रीय विष्वविद्यालय में 6 हजार से अधिक पद खाली हैं। देष के सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी में भी हजारों में पद रिक्त हैं और इंजीनियरिंग काॅलेज 27 फीसदी षिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं जबकि 12 लाख स्कूली षिक्षकों की भी भर्ती जरूरी है। अब सवाल है कि सरकार महत्वपूर्ण रिक्तियों को बिना भरे रोजगार देने को लेकर चिंता मुक्त कैसे हो सकती है। इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए विपक्ष से लेकर बेरोजगार युवा तक सरकार पर लगातार हमले कर रहे हैं। 
मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं बेषक नागरिकों पर केन्द्रित हों पर नये डिजाइन और संस्कृति वाली मोदी सरकार जिसका लगभग चार साल का कार्यकाल हो रहा है वायदे पूरे करने में विफल रही है। सुषासन की परिकल्पना से पोशित सरकार जिस पहल के साथ देष में मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया आदि को लेकर पूरी ताकत झोंकी वहां भी रोजगार की स्थिति संतोशजनक नहीं है। संयुक्त राश्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस मामले में मायूसी से भरे इषारे कर रही है। इसकी मानें तो साल 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 2016 की तुलना में थोड़ी बढ़ी है जबकि 2018 में भी यह क्रम जारी रहेगा। फैक्ट और फिगर यह दर्षा रहे हैं कि रोजगार की रफ्तार धीमी है और असंतोश से भी भरे हैं। वैसे मोदी सरकार इस दिषा में काम नहीं कर रही है कहना ठीक नहीं होगा। रोजगार के अवसर बढ़े इसके लिए सरकार ने कौषल विकास मंत्रालय बनाया। थर्ड और फोर्थ ग्रेड की सरकारी नौकरियों में धांधली न हो इसके लिए साक्षात्कार भी समाप्त किया और इसकी घोशणा स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने की। बाॅम्बे स्टाॅक एक्सचेंज और सीएमआईआई के अनुसार मनरेगा के तहत रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या 83 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 67 लाख हो गयी। इस आंकड़े से यह परिभाशित होता है कि ग्रामीण इलाकों में रोजगार मुहैया कराने को लेकर सरकार का जोर सफल हुआ है परन्तु पढ़े-लिखे युवाओं की स्थिति बेकाबू हुई है। भारत एक समावेषी विकास वाला देष है यहां बुनियादी समस्याएं कदम-कदम पर चुनौती बनी हुई है। ऐसे में युवा बेरोजगारी को देर तक सह नहीं सकता ऐसे में करोड़ों की तादाद में पढे-लिखों का सब्र जवाब भी दे रहा है।
टेलीविजन के एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि पकौड़े बेचने वाले भी बेरोजगार नहीं है इस वक्तव्य को लेकर भी समस्याएं कुछ बढ़ी हैं। 65 फीसदी युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल के स्तर पर रोजगार की उपलब्धता न करा पाना ऊपर से पकौड़े जैसे संदर्भ का पनप जाना उचित तो नहीं है। हालांकि प्रधानमंत्री इसे उदाहरण के तौर पर कहा था परन्तु सरकार ने जिस प्रकार मुद्रा बैंकिंग से लोन लेने वालों को रोज़गार से जोड़ा वह भी बात पूरी तरह से गले से उतरती नहीं है क्योंकि रोजगार के लिए लोन लेना यह पूरी पड़ताल नहीं है कि सफलता भी सभी को उसी दर पर मिली होगी। वैसे देखें तो साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम बल वाला देष होगा। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रेाजगार के मोर्चे पर भी खरा उतरना होगा। भारत सरकार के अनुमान के अनुसार साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। ऐसे में पेषेवर और कुषल का होना उतना ही आवष्यक है। सर्वे कहते हैं कि षिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की स्थिति काफी खराब दषा में चली गयी है। 18 से 29 वर्श के षिक्षित युवा में बेरोजगारी दर 10.2 फीसद जबकि अषिक्षितों में 2.2 फीसदी थी। ग्रेजुएट में बेरोजगारी का दर 18.4 प्रतिषत पर पहुंच गयी है। अब यह लाज़मी है कि भविश्य में अधिक से अधिक षिक्षित युवा श्रम संसाधन में तब्दील हों तभी बात बनेगी। यदि खपत सही नहीं हुई तो असंतोश बढ़ना लाज़मी है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी बेरोजगारी के आंकड़े को बढ़ते क्रम में आंक रही है सम्भव है कि अभी राहत नहीं मिलेगी। देष में उच्च षिक्षा लेने वालों पर नजर डालें तो पता चलता है कि लगभग तीन करोड़ छात्र स्नातक में प्रवेष लेते हैं 40 लाख के आसपास परास्नातक में नामांकन कराते हैं जाहिर है एक बड़ी खेप हर साल यहां भी तैयार होती है जो रोज़गार को लेकर उम्मीद पालती है। देष में पीएचडी करने वालों की स्थिति भी रोजगार को लेकर बहुत अच्छी नहीं है।  
1 फरवरी के बजट में 70 लाख रोजगार आगामी वर्श के लिए निर्धारित किये गये हैं जो बेरोजगारी की दर को देखते हुए नाकाफी कहे जा सकते हैं। रोजगार कहां से बढ़े और कैसे बढ़े इसकी भी चिंता स्वाभाविक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। ऐसे में स्वरोजगार एक विकल्प है। यहां बात पकौड़े की नहीं है चाहे युवा पढ़ा-लिखा हो या गैर पढ़ा-लिखा स्किल के अनुपात में रोजगार लेने का अवसर ले सकता है। रोबोटिक टेक्नोलाॅजी से नौकरी छिनने का डर फिलहाल बरकरार है इसमें संयम बरतने की आवष्यकता है। आॅटोमेषन के चलते इंसानों की जगह मषीनें लेती जा रही हैं इससे भी नौकरी आफत में है। छंटनी के कारण भी लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर है। जाहिर है जो संगठन के अंदर है उन्हें बनाये रखा जाय और जो बेरोजगार बाहर घूम रहे हैं उनके लिए रोजगार सेक्टर में नये उप-सेक्टर सृजित किये जायें। विष्व बैंक भी कहता है कि भारत में आईट इंडस्ट्री में 69 फीसदी नौकरियों पर आॅटेमेषन का खतरा मंडरा रहा है। सरकार को चाहिए कि ई-गवर्नेंस की फिराक में मानव संसाधनों की खपत को कमजोर न करें और बरसों से खाली पदों को तत्काल प्रभाव से भरे। दूसरे देषों में भी भारतीय युवाओं को स्किल के अनुपात में सरकारी सुविधा के अन्तर्गत रोजगार उपलब्ध कराने का रास्ता बनायें। स्वरोजगार के लिए ने केवल प्रेरित करे बल्कि सब्सिडी पर ऋण उपलब्ध कराये। हालांकि मुद्रा बैंकिंग से कुछ हद तक किया गया है पर रास्ता बहुत लम्बा है। यह बात भी समझना सही होगा कि काम के ऊंच-नीच में फंस कर युवा उम्र न खराब करें बल्कि कार्य विषेश को भी ऊंचा करे और स्वयं को भी ऊंचाई पर ले जायें। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Monday, February 5, 2018

क्यों छोड़ रहे हैं करोड़पति इंडिया!

यह बात किसी के गले षायद ही उतरे कि एक ओर दुनिया का कोई भी देष कारोबारी सुगमता के साथ सुषासन के माध्यम से देष में समृद्धि दर बढ़ाने में लगा हो वहीं आर्थिक रूप से समृद्ध और षक्तिषाली लोग देष छोड़ने की होड़ में हो। एक चैकाने वाली रिपोर्ट यह है कि बीते साल 2017 में सात हजार करोड़पतियों ने इण्डिया छोड़ दिया। यह आंकड़ा पिछले साल की तुलना में 16 फीसदी की बढ़त के साथ देखा जा सकता है। न्यू वल्र्ड वेल्थ की रिपोर्ट के अनुसार जहां 2015 में 4 हजार भारतीय करोड़पतियों ने अपना स्थायी निवास बदल लिया वहीं 2016 में यह आंकड़ा 6 हजार पहुंच गया जबकि 2017 में एक हजार की वृद्धि के साथ यह बादस्तूर बना रहा। रिपोर्ट को देखते हुए सवाल यह उठ खड़ा होता है कि आखिर देष में आर्थिक ताकत जुटाने वाले करोड़पति अपने ही देष से मोह क्यों भंग कर लेते हैं। एक ओर प्रधानमंत्री मोदी मेक इन इण्डिया से लेकर भारत की कई आर्थिक नीतियों को वैष्विक मंचों के माध्यम से बढ़ावा देने की फिराक में लगे रहते हैं और इस कोषिष में भी कि विदेषी निवेष बढ़े और देष के भीतर विनिर्माण को लेकर विदेषी कम्पनियां आकर्शित हों तो वहीं दूसरी ओर धन के बाहुबली नागरिकता बदलने में लगे हुए हैं। पिछले 17 सालों में भारत से 75 हजार से अधिक करोड़पति कर सुरक्षा और बच्चों की षिक्षा जैसे कार्यों के चलते विदेष पलायन कर गये। हालांकि पलायन करने के मामले में चीन अव्वल दर्जे पर है। न्यू वल्र्ड वेल्थ की ग्लोबल रिपोर्ट भी यह मानती है कि 21वीं सदी की षुरूआत से दूसरे देष की नागरिकता के लिए आवेदन एवं स्थान परिवर्तन में जबरदस्त तेजी आयी है। हालांकि यह समस्या भारत की ही नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि चीन के इतने ही समय में लाख से अधिक करोड़पति पलायन कर चुके हैं। पलायन की इस विधा से दुनिया का लगभग हर महाद्वीप प्रभावित है फ्रांस, इटली, रूस, इण्डोनेषिया से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक में इसे देखा जा सकता है। करोड़पतियों के अपने देष से पलायन करने के प्रमुख कारणों को देखें तो कुछ के लिए देष के भीतर व्याप्त संकट तो कुछ के लिए सुरक्षा कारण जिम्मेदार रहे हैं। कईयों ने तो बच्चों को उच्च षिक्षा उपलब्ध कराने को लेकर देष से विदाई ली है। भारत में पलायन के पीछे टैक्स भी एक प्रमुख कारण बताया जा रहा है। 
रिपोर्ट को देखते हुए कई सवाल उभरने लाज़मी है। पहला यह कि जब किसी देष का करोड़पति दूसरे देष की नागरिकता लेता है तो क्या वह वहां कि अर्थव्यवस्था को बैठे-बिठाये बढ़त नहीं दे देता है और इसकी कीमत उसका मूल देष चुकाता है। दूसरा प्रष्न यह कि क्या देष विषेश में वाकई में हालात ऐसे हैं कि पलायन उनके लिए अनिवार्य विकल्प बन जाता है और अपना ही देष रास नहीं आता। भारत के परिप्रेक्ष्य में अगर बात किया जाय तो यह एक विकासषील अर्थव्यवस्था वाला देष है। सात दषकों की बड़ी कोषिष के बाद दुनिया के फलक पर ताकत के साथ उभरा है। इन्हीं सात दषकों में देष में 101 अरबपति के साथ हजारों-लाखों में करोड़पति भी पैदा हुए हैं जबकि इसका दूसरा अध्याय यह है कि यहीं पर हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अषिक्षित भी। जनवरी 2018 की आॅक्सफेम की आयी रिपोर्ट भी यह बताती है कि यहां सम्पदा का संकेन्द्रीकरण में व्यापक असंतुलन आया है। गौरतलब है कि 73 फीसदी सम्पदा मात्र एक प्रतिषत लोगों के पास है जबकि बाकी बची सम्पदा 99 फीसदी के हिस्से में है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि उत्थान और विकास की राह खोजते-खोजते भारत व्यापक आर्थिक असंतुलन वाला देष भी होता चला गया। 2016 में इसी रिपोर्ट के तहत यही आंकड़े इस ओर झुके थे कि 58 फीसदी सम्पदा केवल एक फीसदी के पास थी। करोड़पतियों का देष छोड़ने के कारण बेषक वाजिब हो सकते हैं परन्तु इनकी बढ़ती पलायन की दर देष के आर्थिक इरादों को न केवल कमजोर बल्कि दूसरों को उकसाने का काम कर सकती है। 
भारत बदल चुका है, भारत आयें और निवेष करें इस बात को उद्घाटित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी को विदेषी मंचों पर कई बार देखा गया है। सरकार की यह भी कोषिष रही है कि देष के विकास को लेकर न केवल निवेष को बढ़ाया जाय बल्कि मेक इन इण्डिया के माध्यम से विदेषियों का ध्यान व्यापक तरीके से आकर्शित किया जाय। भारत सरकार ने रक्षा, खाद्य प्रसंस्करण समेत लगभग 25 क्षेत्रों में विनिर्माण को बढ़ावा देने के उद्देष्य से 2014 में मेक इन इण्डिया अभियान की षुरूआत की और दुनिया के कोने-कोने में इसे पहुंचाने की कोषिष की। बावजूद इसके इस बात को पूरी गारण्टी के साथ नहीं कहा जा सकता कि क्षेत्र विषश्ेा में मनचाही सफलता मिली है। सभी जानते हैं कि मेक इन इण्डिया की सफलता स्किल इण्डिया और स्टैण्डअप इण्डिया जैसे अभियानों की सफलता से जुड़ी है। ऐसे में मेक इन इण्डिया को प्रभावी बनाने के लिए कई जरूरी संदर्भों को अंगीकृत करना होगा। जब तक भारत अपनी कौषल क्षमता का विकास नहीं करता तब तक कई बातें कमतर रहेंगी और षायद निवेषक भी संदेह में रहेंगे। इतना ही नहीं कई ढांचागत कमजोरियों के कारण भी करोड़पतियों को यह लगता होगा कि विदेषों में अवसर बेहतर हैं। भारत के करोड़पति अधिकतर अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा, आॅस्टेलिया और न्यूजीलैण्ड जा रहे हैं। चीन के करोड़पतियों का भी कमोबेष ठिकाना यही है। इन देषों में बढ़े आकर्शण से यह भी परिलक्षित होता है कि यहां सुगमता और अवसर के साथ-साथ कई और चीजें कहीं अधिक बेहतरी के साथ हैं। षायद ऐसा ही संदर्भ देष के भीतर हो तो पलायन रोका जा सकता है। 
भारत उन पांच षीर्श देषों में षामिल है जहां से बड़ी संख्या में अति धनाढ्य या करोड़पति लोग विदेषों में जाकर बस रहे हैं। वैष्विक स्तर पर रिपोर्ट यह दर्षाती है कि आॅस्ट्रेलिया और अमेरिका में आकर्शण समान रूप से बना हुआ है। मौजूदा समय में आॅस्ट्रेलिया की जनसंख्या ढ़ाई करोड़ से थोड़ा ही ज्यादा है जबकि अमेरिका में तीस करोड़ लोग रहते हैं। आॅस्ट्रेलिया का मध्य इलाका जो रेगिस्तान है को छोड़ दिया जाय तो उसका चैतरफा ढांचागत विकास करोड़पतियों के आकर्शण का प्रमुख कारण हो सकता है। इतना ही नहीं षिक्षा, चिकित्सा समेत कई बुनियादी सुविधायें यहां उपलब्ध हैं। अमेरिका में आकर्शण का प्रमुख कारण व्यवसाय में तेजी से बढ़त और हाईवोल्टेज षिक्षा व्यवस्था का होना है। हालांकि नस्लभेद जैसी समस्या से अमेरिका भी उबरा नहीं है और आॅस्ट्रेलिया में भी गैर आॅस्ट्रेलियाई को लेकर असंतोश उभरते रहे हैं। दोनों देषों ने बीते समय में वीजा संषोधन के माध्यम से एषियाई देषों पर प्रहार करने की कोषिष पहले कर चुके हैं। भारत के करोड़पति संयुक्त अरब अमीरात तथा ब्रिटेन को भी प्राथमिकता देते हैं जबकि चीन के करोड़पति हांगकांग और सिंगापुर की ओर भी रूख करता है। हालांकि पलायन दुनिया के प्रत्येक कोने से हो रहा है तो क्या इस आधार पर यह समझ लिया जाय कि यह कोई बड़ी बात नहीं। बड़ी बात इसलिए क्योंकि हमारे करोड़पति तेजी से पलायन कर रहे हैं जबकि दूसरे देषों के करोड़पति हमसे आकर्शित नहीं हो रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इसे लेकर देर तक असंवेदनषील रहना उचित नहीं है बल्कि इस बात का चिंतन होना चाहिए कि आखिर देष से पलायन कर चुके करोड़पति अपने ही देष भारत में पूंजी का निवेष क्यों नहीं करते, मेक इन इण्डिया से लेकर स्टार्टअप इण्डिया समेत विनिर्माण के क्षेत्र में आगे क्यों नहीं आते? क्या इससे विदेषी निवेष को लेकर समस्याएं कम नहीं होती। विदेषी कम्पनियों को आकर्शित करने और उन्हें देष में कारोबार के लिए उकसाने हेतु जहां एड़ी-चोटी को जोर लगाया जा रहा है वहीं देष के करोड़पतियों को लुभाने में हम काफी हद तक नाकाम भी हो रहे हैं। 



सुशील कुमार सिंह
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Thursday, February 1, 2018

सुशासन से अछूते कृषि और किसान

एक फरवरी को देश का बजट देश होगा। सम्भव है कि सुशासन  की पाठशाला से युक्त मोदी सरकार कृषि  और किसान की समृद्धि को लेकर बड़ा दिल दिखाएगी। आज से लगभग दो साल पहले जब 2016 में बजट पेष करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली ने यह कहा था कि मैं किसानों के प्रति आभारी हूं कि वे हमारे देष की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है तब यह आषा जगी थी कि सरकार किसानों के मामले में दो कदम आगे रहेगी पर रेडियो में मन की बात से लेकर किसानों के मन जीतने तक की सारी कवायद के बावजूद हालात बेपटरी बनी हुए हैं। वित्त मंत्री ने यह भी कहा था कि किसानों को आय सुरक्षा देनी होगी। गौरतलब है कि कृशि और कृशि कल्याण के लिए उन दिनों लगभग 36 हजार करोड़ रूपए आबंटित किये गये थे और तब यह बात काफी प्रभावषाली रही कि सरकार का झुकाव खेती-किसानी और कृशिउन्मुख हुई है पर लगातार आत्महत्या की आती खबरे इस यकीन को भी नुकसान पहुंचाने का काम किया। कृशि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को देखें तो आर्थिक विकास दर को लेकर इनमें व्यापक अंतर है और सबसे खराब विकास दर वाली कृशि में देष की आधी आबादी फंसी है। कृशि विकास के मामले में पिछले 70 सालों से पूरा प्रयास जारी है परन्तु किसानों की किस्मत मानो टस से मस होने का नाम नहीं ले रही। प्रत्येक सेक्टर के विकास के अपने माॅडल होते हैं। जाहिर है कृशि को जब तक वाजिब माॅडल नहीं मिलेगा तब तक यह कराहती रहेगी बेषक इस पर करोड़ों क्यों न लुटा दिये जाय। सुषासन की भी यही राय है कि ऐसा न्याय जो समय से हो, सार्थक हो और समुचित के साथ बार-बार हो। कृशि और किसानों के मामले में ये तमाम न्याय अधूरे ही सिद्ध हुए हैं। यदि सरकार को एक सामाजिक कार्यकत्र्ता के प्रारूप में भी ढ़ाल के देखें तो यहां भी मान्य परिभाशा यही कहती है कि कृशि और किसान की ऐसी मदद की जाय कि वे अपनी सहायता स्वयं करने लायक बन सके।
पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिए जिस रास्ते का उल्लेख किया वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल है। देखा जाय तो तकरीबन इसी प्रकार के आष्वासन किसानों को पिछले सात दषकों से मिलता रहा है पर जमीनी हकीकत इससे अलग होने के चलते विकास का वह चित्र इनके हिस्से नहीं आया जिसकी ताक में ये आज भी हैं। आजादी से लेकर अब तक कृशि के मामले में पहली पंचवर्शीय योजना (1952-57) को छोड़ दिया जाय तो इतनी बड़ी आबादी वाले क्षेत्र को बजट से ही कल्याण आबंटित किया जाता रहा। देष में बनने वाली कृशि नीतियां भी इनकी बदकिस्मती को नहीं बदल पायी। गौरतलब है कि जहां आजादी के वक्त 80 प्रतिषत से अधिक लोग कृशि क्षेत्र में लगे थे जो मौजूदा समय में 57 फीसदी हैं और इनमें भी आधे से अधिक वे लोग हैं जो मजबूरन दूसरा विकल्प न होने के चलते किसानी कर रहे हैं। गरीबी मिटाने के नाम पर उपाय कई आये पर किसान, गांव और कृशि में बदलाव कमजोर बना रहा नतीजन अन्नदाताओं ने लाखों की तादाद में आत्महत्या कर ली। वर्श 2004-05 से अब तक देष में महज डेढ़ करोड़ रोजगार का सृजन हुआ जबकि इस दौरान 16 करोड़ रोजगार के अवसर पैदा होने चाहिए थे। कृशि के क्षेत्र में तो इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। सबका साथ, सबका विकास नारा अच्छा है पर सुषासन से यह भी अछूता है। किसानों के मामले में यह ष्लोगन चिढ़ाने वाला ही सिद्ध हुआ है।
अर्थषास्त्रियों का मानना है कि कृशि क्षेत्र में लगे करोड़ों लोगों की आय में यदि इजाफा हो जाय तो किसान और कृशि दोनों की दषा बदल सकती है। मौजूदा सरकार वर्श 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रही है पर यह नहीं पता कि पहले कितनी थी। हैरान करने वाली बात यह है कि 70 वर्शों के बाद भी किसान की औसत आय 20 हजार रूपये आंकी गयी जो 1700 रूपये प्रति माह से भी कम बैठती है। इतने कम पैसे में परिवार का भरण-पोशण करना कैसे सम्भव है। इसके अलावा कर्ज की अदायगी भी करनी है, बच्चों को भी पढ़ाना है और विवाह-षादी के खर्च भी उठाने हैं। इन्हीं तमाम विवषताओं के चलते आत्महत्या को भी बल मिला है। अब सवाल है कि दोश किसका है किसान का या फिर षासन का। राजनीतिक तबका किसानों से वोट ऐंठने में लगी रही जबकि विकास देने के मामले में सभी फिसड्डी सिद्ध हुए हैं। कौन सी तकनीक अपनाई जाय कि किसानों का भला हो। खाद, पानी, बिजली और बीज ये खेती के चार आधार हैं। अभी किसानों का श्रम इससे अछूता है। यदि इसे जोड़ दिया जाय तो मुट्ठी भर अनाज की कीमत कई गुना हो जायगी। इन दिनों स्वदेषी खेती पर जोर है। जैविक खेती को अपनाकर अच्छे मुनाफे की बात हो रही है जिसे देखते हुए देष का एक मात्र जैविक राज्य सिक्किम एक माॅडल के रूप में उभरा है। गौरतलब है कि रासायनिक खेती से छुटकारा भी चाहिए और मुनाफा भी जो सरकार के बिना बेहतर सुषासन के सम्भव ही नहीं है।
अभी तक किसानों के कल्याण के जो वायदे, योजनायें और राहते दी जाती रही वे काफी कुछ वोट बैंक के नजरिये से ही रहा है। देष के नीति आयोग ने खुलकर पहली बार कहा कि कृशि में निवेष करने से देष की गरीबी दूर करने में मदद मिल सकती है और गांव से षहरों की ओर पलायन पर भी लगाम लग सकती है। सवाल दो हैं पहला यह कि क्या वाकई में सरकार कृशि और किसान को सषक्त बनाने की ईमानदार इच्छा रखती है दूसरा क्या किसान कभी दो कदम आगे की जिन्दगी का लुत्फ ले पायेगे। सरकार की कोषिषें बेषक ईमानदारी से भरी हों पर हकीकत जो दिखता है उसे लेकर मन पूरी तरह इसके लिए तैयार नहीं है। जहां तक सवाल किसानों के सुलझी जिन्दगी का है जब तक कृशि उद्यम का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायेगी तब तक तो षायद मामला कोरा ही रहेगा। दुनिया भर में कृशि क्षेत्र में निवेष को गुणात्मक बनाने का प्रयास जारी है और यह भी मान्यता मुखर हुई है कि इसके बगैर गरीबी मिटाना सम्भव नहीं है। दो टूक यह भी है कि भारत में प्रत्येक सरकारों ने कृशि और किसानों की उन्नति को लेकर बेषक समय-समय पर कदम उठाये हैं परन्तु मूल समस्याओं और विसंगतियों पर षायद ही करारी चोट की हो। 70 के दषक में हरित क्रान्ति किसानों की किस्मत पलटने की एक कोषिष थी पर यह भी सीमित ही रही। 21वीं सदी के इस दूसरे दषक में मौजूदा अर्थव्यवस्था सभी के लिए फायदेमंद है परन्तु किसानी की हालत देखकर लगता है कि 1991 का उदारीकरण और 1992 का समावेषी विकास वाली आठवीं पंचवर्शीय योजना का पूरा लाभ इन्हें नहीं मिला है। मेक इन इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया तथा क्लीन इण्डिया समेत न्यू इण्डिया का परिमाप भारत में परोसा जा चुका है। षहरों को भी स्मार्ट बनाने की कवायद चल रही है पर सवाल वही है कि गांव में रची-बसी कृशि और किसान की किस्मत कब नई करवट लेगी और कब ये भी स्मार्ट हो सकेंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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बजट मे दिखी ग्रामीण भारत की झलक

वित्त मंत्री अरूण जेटली के पिटारे से निकले देश की आय-व्यय के विवरण में सबका विकास कितना निहित है यह मुद्दा हो सकता है पर बजट में गांव, कृषि, किसान और सामाजिक सुरक्षा को लेकर कोई हिचक दिखाई गयी फिलहाल इस आरोप से यह बजट मुक्त होता दिखाई देता है। कृशि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द रहने वाला यह बजट वर्ग-विषेश को बड़ी राहत देता है परन्तु मध्यम दर्जे को इस बात के लिए पूरी तरह निराष कर देता है कि उसे आयकर के मामले में कतरा भर भी छूट नहीं मिली। इस बजट से 2016 में पेष बजट की याद भी ताजा हो जाती है जब ग्रामीण भारत को तवज्जो देने की कोषिष की गयी थी। सिलसिलेवार तरीके से इसकी आर्थिकी की नाप-जोख करें तो पता चलता है कि इसमें विकास को पैर के बल ही खड़ा करने की कोषिष की गयी है परन्तु 180 डिग्री पर नहीं कहा सकता। यह इसे मोदी सरकार के कार्यकाल का अन्तिम पूर्ण बजट है और पहले से यह उम्मीद जतायी जा रही थी कि बजट में लोचषाीलता रहेगी और इसकी गुंजाइष दिख भी रही है। राजकोशीय घाटा जस का तस बना हुआ है अर्थात् 3.5 फीसद से मामूली घटाव के साथ 3.3 फीसद लाने की बात कही गयी है जबकि पहले इसे दो फीसदी के नीचे करने की बात होती रही है। देखा जाय तो आलोचना के कई पक्ष बजट में हैं बावजूद इसके देखना यह है कि देष में सर्वाधिक पीड़ित कौन है और राहत किसे ज्यादा चाहिए। जाहिर है इस श्रेणी में बेहाल ग्रामीण भारत, कृशि और किसान समेत मजदूर व मजबूर षामिल हैं। जिसे ध्यान में रखते हुए अरूण जेटली इन्हीं की ओर सरपट दौड़ते दिखे। हालांकि नोटबंदी और जीएसटी के बाद साल 2017 आर्थिक उथल-पुथल के लिए जाना जाता है। जीएसटी के बाद यह पहला बजट है ऐसे में वित्त मंत्री के आर्थिक विज्ञान पर देष भर की नजरें टिकी थीं। सभी अपने हिस्से की सहूलियत इसमें जरूर देख रहे होंगे। इसका एक राजनीतिक पक्ष यह भी है कि सरकार को वर्श 2018 में यह भी साबित करना है कि वह उद्योगपतियों की हिमायती है, किसानों की दोस्त भी है और सेवा क्षेत्र में लगे करोड़ों जनमानस के साथ भी है पर वह इस पर कितनी खरी है यह विमर्ष का विशय है।
कृशि और किसानों में बदलाव भरने की बात करते हुए साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी का लक्ष्य बजट में एक बार फिर दोहराया गया जिसके लिये कई योजना और परियोजना भी गिनाई गयी। कम लागत में अधिक फसल उगाने पर जोर, उपज की कीमत डेढ़ गुना देने पर फोकस करना और दो हजार करोड़ की लागत से कृशि बाजार तैयार करना। इतना ही नहीं 42 मेगा फूड पार्क बनाये जाने का एलान भी इसी दिषा में एक कोषिष है। खाद्य प्रसंस्करण के मामले में खर्च दोगुना और टमाटर, प्याज, आलू के रखरखाव के लिए पांच सौ करोड़ की लागत का आॅप्रेषन फ्लड की तर्ज पर आॅप्रेषन ग्रीन भी बड़े काम का हो सकता है। सभी जानते हैं कि ये साल भर प्रयोग की जाने वाली सब्जियां हैं यदि इन्हें सड़ने से रोकने और बनाये रखने में सफलता मिलती है तो किसानों को फायदा मिल सकता है। आर्गेनिक ख्ेाती को बढ़ावा देने की बात भी इसमें निहित है। गांव में 22 हजार हाटों को कृशि बाजार में तब्दील करने से किसानों को अपना अन्न बेचना आसान हो जायेगा। उज्जवला योजना के तहत तीन करोड़ गैस और सौभाग्य योजना के तहत 4 करोड़ गरीब घरों को मुफ्त बिजली कनेक्षन की बात वाकई गरीबों को बड़ी राहत देने वाला है। साल 2022 तक हर गरीब के पास अपना घर होगा जिसके लिए दो करोड़ घर बनाने होंगे। 
आगामी वित्त वर्श में 51 लाख घर बनाने का इरादा बजट में जताया गया है। कृशि उत्पादों के निर्यात को सौ अरब डाॅलर के स्तर तक पहुंचाने का लक्ष्य भी काबिल-ए-तारीफ है पर सरकार को यह समझना जरूरी होगा कि जब वित्त मंत्री यह कहते हैं कि अन्न उत्पादन 275 मिलियन टन और फल तथा सब्जी उत्पादन 300 मिलियन टन हुआ है जो पिछले वर्श की तुलना में अधिक है तो सवाल है कि फिर किसानों की हालत में सुधार क्यों नहीं है? लगभग चार साल के मोदी षाासन काल में भी किसानों ने आत्महत्या की है और बेमौसम बारिष और मानसून के कमजोर होने के चलते किसान हाषिये पर भी गये हैं बावजूद इसके श्रम और पूंजी झोंकने के साथ-साथ तन-मन लगाकर अन्न का उत्पादन भी बढ़ाया है परन्तु गुरबत से वे नहीं उबरे। इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि श्रम और पूंजी झोंकने वाले किसान के लिए बनने वाली नीतियां सटीक नहीं है। बजट में खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना करने की बात कही गयी है। देखने वाली बात यह है कि खरीदारी के समय क्या किसान को उचित मूल्य मिलेगा यह षिकायत रही है कि समर्थन मूल्य से नीचे दरों पर अढ़ातियों को किसान अनाज बेचने के लिए मजबूर इसलिए हुए क्योंकि सरकार के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं थी। पिछले वर्श दलहन की खेती करने वाले किसानों ने 30 फीसदी अधिक उत्पादन किया है परन्तु समर्थन मूल्य से कम में इसलिए बेचना पड़ा क्योंकि सरकारी गोदाम विदेष से खरीदे गये दालों से भर दिये गये। दो टूक यह भी है कि यदि आधी आबादी को खपत करने वाली खेती-किसानी की ओर बजट झुकता भी है तो कोई हैरत भरी बात नहीं है। फिलहाल ग्रामीण भारत को बजट में फलक पर रखने की कोषिष तो की गयी है षायद इसकी एक बड़ी वजह मोदी सरकार का यह जताना भी रहा हो कि वे किसानों के साथ हैं साथ ही न्यू इण्डिया की यह पगडण्डी भी हो सकती है परन्तु गांव और किसान की किस्मत तब बदलेगी जब जो कहा जा रहा है वैसा ही किया जाय।
बजट देष का आर्थिक आइना भी है जिसमें सभी नागरिक अपनी सूरत-ए-हाल को निहार सकते हैं। युवाओं ने इसमें रोजगार खोजने की कोषष जरूर की होगी और क्यों न करें जब राजनीतिक दल इसी प्रकार के बड़े-बड़े वायदे इरादे जता कर उनका वोट लेते हैं तो बदले में यह देना ही होगा। हालांकि विमर्ष को सीमित रखते हुए इतना कह सकते हैं कि इस बजट में 70 लाख रोजगार की बात परिलक्षित हुई है। युवा 75 करोड़ से ज्यादा है जाहिर है यह ऊँट के मुंह में जीरा है। बड़ोदरा में रेलवे विष्वविद्यालय बनेगा, षिक्षा और षिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार करेंगे, 24 मेडिकल काॅलेज भी खोले जायेंगे। प्रधानमंत्री फेलो स्किल केन्द्र भी भारत में दिखेंगे। साथ ही नेषनल हेल्थ पाॅलिसी सेन्टर भी अवतार लेंगे। बीमारी, गरीबी तथा बीमा के मामले में भी बजट में बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं गयी हैं। नोटबंदी और जीएसटी के बाद विकास हुआ है अरूण जेटली ने पूरे मन से यह बात स्वीकार की है। आयकर के मामले में वृद्धि 12.6 फीसदी हुई बावजूद इसके आयकर स्लैब में परिवर्तन करना जरूरी नही समझा गया। अप्रत्यक्ष कर भी पहले से बहुत बेहतर बताया गया है। रोचक यह भी है कि काॅरपोरेट टैक्स 30 फीसदी से 25 फीसदी किया गया है। स्वास्थ, षिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की चिंता बजट में मानो कृशि और ग्रामीण के बाद दूसरे स्थान पर हो। कुल मिलाकर दिल्ली के प्रदूशण से लेकर गांव के अन्तिम व्यक्ति तक की चर्चा बजट में हुई है। देष की जनता को आगे के एक साल तक इस बजट के आर्थिक नीति से सबकुछ हासिल करना है और सरकार को आगामी विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक इस बजट से भारत की तस्वीर बदली है इसके लिए भी रोडमैप तैयार रखना है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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