Monday, January 23, 2017

बगावती तूफान के बीच सत्ता की जोड़-तोड़

यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि सत्ता की चाहत में दशकों से सियासत में वह सब कुछ भी हुआ है जो शायद परिकल्पनाओं में निहित न था साथ ही इससे भी कोई अनभिज्ञ नहीं होगा कि सत्ता की चाशनी  भी इस बीच कई मौकों पर कसैले स्वाद से भरी रही। पड़ताल करें तो इसकी बड़ी वजह सियासत का उतार-चढ़ाव ही रहा है। फिलहाल इन दिनों उत्तर-प्रदेष, उत्तराखण्ड तथा पंजाब समेत पांच राज्य चुनावी समर में देखे जा सकते हैं और ये सभी चुनावी प्रदेष आदर्ष आचार संहिता के दौर से गुजर रहे हैं। इसके अलावा मेल-जोल और तोड़-फोड़ की राजनीति से भी जूझ रहे हैं। ऐसे मौके पर यह चर्चा भी उचित रहेगी कि छोटे दलों का ऐसे दिनों में क्या हाल रहता है और ये कब किसकी मुसीबत बन जाते हैं। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड की तस्वीर यह बताती है कि यूपी में छोटे दल बढ़ रहे हैं और उत्तराखण्ड में ये सिमट रहे हैं। बीते तीन दषकों के इतिहास को देखें तो उत्तर-प्रदेष में छोटे दलों की उपज के पीछे जातीय समीकरण ही रहा है। यही कारण है कि दौर के अनुपात में जातीय विन्यास के चलते इन्होंने सत्ताओं में हस्तक्षेप भी खूब किया और बड़े-से-बड़े दल को सौदेबाजी के चलते झुकने के लिए मजबूर भी किया है। गठबंधन की सरकारें इसका मजबूत सबूत हैं। उत्तराखण्ड का सियासी चित्र उत्तर-प्रदेष से काफी भिन्न है। अब तक हुए तीन चुनाव के चित्र देखें तो यहां के छोटे दल अपनी जमानत भी बचा पाने में सफल नहीं हो पाये हैं। यहां चर्चे में रहने वाली उत्तराखण्ड क्रान्ति दल सिलसिलेवार तरीके से सिमटती चली गयी। इसके पीछे सत्ता की लोलुपता और अन्दर का बगावती स्वरूप भी जिम्मेदार है। हालांकि अब यही बगावत इन दिनों यहां के राश्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस में भी खूब देखा जा सकता है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष में भी अखिलेष का नया अवतार बगावत का ही परिणाम है। 
उत्तर प्रदेष में जो समाजवादी पार्टी प्रचण्ड बहुमत का रूख अख्तियार करती है वही उत्तराखण्ड में जमानत भी नहीं बचा पाती है। उत्तराखण्ड के तीनों विधानसभा चुनाव में सपा अभी तक खाता नहीं खोल पाई है। साथ ही वोट प्रतिषत में भी लगातार गिरावट बना हुआ है। साफ है कि उत्तर प्रदेष की वर्चस्व वाली समाजवादी पार्टी का उत्तराखण्ड में जनाधार न के बराबर है। गौरतलब है कि यूपी में समाजवादी और कांग्रेस पार्टी का महागठबंधन हुआ है जबकि उत्तराखण्ड में वे एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। हालांकि इस पहाड़ी प्रान्त में भाजपा और कांग्रेस सीधे टक्कर में हैं लेकिन यहां निर्दलीय तथा बिगड़ी राजनीति के चलते बगावती चेहरों को कमतर नहीं आंका जा सकता। दो टूक यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी का सियासी खेल कुछ हद तक मैदानी और तराई इलाकों में देखा जा सकता है परन्तु इस बार इसका भी जादू उतना प्रभावषाली नहीं दिखाई देता। उत्तर प्रदेष में भी बसपा अखिलेष की सपा के आगे फीकी प्रतीत हो रही है। ऐसे में मुकाबला सीधे तौर पर सपा और भाजपा के बीच ही दिखता है। इस संदेह में सभी हो सकते हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में समाजवादी या भाजपा में कौन बहुमत में आयेगा। दो टूक यह भी है कि त्रिषंकु विधानसभा होने की षंका से भी उत्तर प्रदेष परे नहीं है। हालांकि दावे और इरादे इससे अलग हैं पर इस सच्चाई को दर किनार नहीं किया जा सकता कि समाजवादी पार्टी ने अखिलेष के नेतृत्व में जिस प्रकार जनता में बढ़त बनाई है और कांग्रेस से गठबंधन किया है उससे भाजपा के माथे पर बल आया होगा और मायावती की बसपा को भी बेचैनी हो रही होगी। सबके बावजूद यह भी देखने वाली बात होगी कि यूपी के वे छोटे दल जिन्होंने पिछले चुनाव में कई सीटों पर खेल बिगाड़ा था उनकी स्थिति इस बार क्या रहती है।
जातीय समीकरण के चलते उत्तर प्रदेष के कई सियासतदान अपनी सियासी रोटी सेकने और वजूद बनाये रखने में कुछ हद तक कामयाब भी रहे हैं। इसमें कौमी एकता दल समेत अपना दल और अन्य को षामिल देखा जा सकता है। सवाल यह भी है कि क्या निषाद पार्टी, पीस पार्टी, जनवादी पार्टी और महान दल जैसे कई जातीय बिसात पर बनी पार्टियां इस बार की चुनावी गणित को प्रभावित कर सकती हैं। विगत् दो चुनावों से देखा जाय तो उत्तर प्रदेष में पूर्ण बहुमत की सरकार बनती रही है। क्या इस बार भी ऐसा होगा यह तो जनता तय करेगी पर रही सियासत की बात तो दौर को देखते हुए राजनीतिक दल जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। हालांकि ऐसे छोटे दलों का बहुत असर नहीं होता है परन्तु वोट कटवा के रूप में इनका परिलक्षण कईयों के लिए नासूर बन जाता है। भाजपा, सपा तथा बसपा समेत सभी इनकी जद् में आ सकते हैं। इससे अलग उत्तराखण्ड का परिदृष्य थोड़ा अलग है यहां बगावत सिर चढ़ कर बोल रहा है। इस पहाड़ी प्रदेष में कुल 76 लाख वोटर हैं और 70 सीटों पर 15 फरवरी को मतदान होना है। भाजपा ने जिस तर्ज पर बीते 18 मार्च की घटना से लेकर अब तक कांग्रेसी नेताओं, मंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्री को सीने से लगाया है और अपने ही दल के अन्दर कांग्रेस का गठन किया है उससे यहां की सियासत काफी अस्थिर हुई है। रही सही कसर तब पूरी हो गयी जब बरसों से उम्मीद लगाये भाजपाई कार्यकत्र्ताओं और विधायकों का टिकट काटकर कांग्रेसी मेहमानों को चुनाव में उतार दिया गया। ताजा हालात यह है कि दो दर्जन से अधिक सीटों पर बगावती चेहरे भाजपा का गणित बिगाड़ने के लिए तैयार हैं। बीते 22 जनवरी को 63 सीटों पर कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। यहां पर भी असंतोश की बाढ़ आई और राहुल गांधी समेत हरीष रावत और प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष के चित्र फाड़े और कुचले गये। गौरतलब है कि कई भाजपा के बागियों को कांग्रेस ने टिकट दिया है परन्तु यहां कांग्रेस की एक अच्छी बात यह है कि उसने अपने सभी वर्तमान विधायकों को निराष नहीं किया है जबकि भाजपा में ऐसा नहीं हुआ है। हालांकि एक वरिश्ठ कांग्रेसी विधायक को टिकट नहीं मिला लेकिन ऐसा उनके चुनाव न लड़ने के इरादे के चलते किया गया है।
सभी राजनीतिक दल वोट प्रतिषत बढ़ाने के लिए चेहरों पर भी दांव खेलते हैं। सपा में अब निर्विवाद रूप से अखिलेष यादव का चेहरा है जबकि भाजपा उत्तर प्रदेष में चेहराविहीन है, उत्तराखण्ड में भी यही स्थिति है लेकिनयहां हरीष रावत कांग्रेस का चेहरा हैं। फिलहाल उत्तर प्रदेष हो या उत्तराखण्ड भाजपा मोदी के चेहरे को आगे रख कर अपना सियासी दांव चल रही है और ऐसा पहले भी अनेक राज्यों के चुनाव में वह कर चुकी है। इस बात में काफी सच्चाई है कि जहां-जहां मोदी के चेहरे के भरोसे वोट मांगे गये हैं वहां-वहां स्थानीय वायदे और इरादों के साथ उनके प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल की भी छाप रही है। जाहिर है कि उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में भी ढ़ाई बरस से अधिक हो चुकी उनकी कार्यप्रणाली कहीं अधिक प्रभावी रहेगी। नोटबंदी का निर्णय तो इस बार के चुनाव में किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होगा। फिलहाल बिखरते और सिमटते सियासत के बीच सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा इसका पूरा लेखा-जोखा आने वाले दिनों में हो जायेगा पर लोकतंत्र में बढ़ी जन जागरूकता इस बात की ओर संकेत करती है कि मतदाता जातिगत राजनीति और सत्ता के लालच में तोड़-फोड़ को कम ही पसंद करते हैं। ऐसे में इस बार का चुनाव बगावत के बीच एक ऐसा बिगुल है जिससे नतीजे तक असमंजस तो रहेगा ही साथ ही उत्तराखण्ड में तो भाजपा और कांग्रेस को इससे कहीं अधिक सावधान रहने की भी जरूरत पड़ेगी। 


सुशील कुमार सिंह


Wednesday, January 4, 2017

काले धन से कैशलेस तक

वित्तमंत्री अरूण जेटली भारत को कैशलेस  अर्थव्यवस्था बनाने की बात लगातार दोहरा रहे हैं और मानते हैं कि इससे काले धन पर नियंत्रण होगा। उन्हीं का दिया हुआ आंकड़ा है कि भारत में कुल वित्तीय लेन-देन का 5 प्रतिशत  से भी कम इलैक्ट्राॅनिक माध्यम से होता है। गौरतलब है कि नोटबंदी को अब सीधे तौर पर कैशलेस से जोड़ने की कवायद करते सरकार दिख रही है जबकि नोटबंदी के समय इसे काले धन पर चोट बताई जा रही थी। ऐसा क्यों हो रहा है इसके पीछे क्या वजह है इसका जवाब सरकार से बेहतर षायद ही किसी के पास हो। बावजूद इसके यह बात ठीक है कि हमारी अर्थव्यवस्था भी कैषलेस क्यों न हो। रोचक यह भी है कि बीते 50 दिनों में 70 से अधिक निर्णय लेने वाली आरबीआई ने करीब एक महीने से कोई भी ताजा आंकड़ा नगदी की जमा को लेकर फिलहाल अभी पेष नहीं किया है। दिसम्बर की षुरूआत में रिज़र्व बैंक ने कहा था कि लगभग 12 लाख करोड़ रूपए खातों में जमा हो चुके हैं। गौरतलब है कि कुल प्रचलित मुद्रा का 86 फीसदी मुद्रा पांच सौ और हजार के नोट के रूप में थे जो कुल मुद्रा यानी 17 लाख करोड़ की तुलना में साढ़े चैदह लाख करोड़ था। रिज़र्व बैंक ने 30 दिसम्बर के बाद इस बात को उद्घाटित नहीं किया कि खातों में अब कितनी नकदी जमा हुई और यह भी नहीं बताया कि काला धन की क्या स्थिति है। इस मामले में सरकार से भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि पचास दिन के बाद की क्या स्थिति है पर बीते 31 दिसम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने दार्षनिक और मनोवैज्ञानिक अंदाज में बात करते हुए देष के नाम सम्बोधन में वर्ग विषेश के लिए कुछ अच्छी घोशणाएं की लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि उनकी अगली रणनीति क्या है। बेषक सरकार ने नोटबंदी करके क्रान्तिकारी और बेहतर कदम उठाया हो परन्तु उद्देष्य कितने पूरे हुए अभी इसकी पूरी पड़ताल सामने नहीं आई है। इतना ही नहीं अब सरकार काले धन के बजाय जिस प्रकार कैषलेस की बात कर रही है उसे देखते हुए लगता है कि मानो नोटबंदी कैषलेस के लिए हुई हो जबकि सच्चाई इससे अलग है।
बीते 3 जनवरी को देहरादून के एक स्कूल में कैषलेस को लेकर एक सेमिनार का आयोजन हुआ। इस सेमिनार के मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता देष के मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाष जावड़ेकर थे। इस सेमिनार में भागीदारी हेतु मैं भी आमंत्रित था। हैरत यह था कि करीब 45 मिनट के सम्बोधन में प्रकाष जावड़ेकर का पूरा वक्तव्य नेट बैंकिंग और कैषलेस के सिद्धान्त के इर्द-गिर्द रहा। उन्होंने काले धन को तनिक मात्र भी छूने की कोषिष नहीं की। बीते कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि प्रधानमंत्री समेत वित्तमंत्री व अन्य मंत्री भी काले धन की बात करने से कतरा रहे हैं। अब जनता का ध्यान कैषलेस की ओर मोड़ने की कोषिष में है। ऐसी ही कुछ कोषिष प्रकाष जावड़ेकर भी सेमिनार में करते हुए दिखाई दिये। देष बदल रहा है और इस बदलाव को सभी महसूस करें। उन्होंने सम्बोधन से पहले यह भी कहा कि कैषलेस पर अब प्रकाष सर की कक्षा होगी। फिलहाल बीते दिसम्बर के आखिर में वित्त मंत्री अरूण जेटली द्वारा दिये गये उन आंकड़ों को देखें जिनमें अप्रैल से नवम्बर तक प्रत्यक्ष कर में 14.4 फीसदी की बढ़त बताई जबकि अप्रत्यक्ष कर में यही बढ़त 26.5 की है। इसके अलावा कई अन्य मुद्दों पर भी बढ़त के आंकड़े उन्होंने दिये। गौरतलब है कि नोटबंदी 8 नवम्बर की आधी रात को हुई थी और तब से लेकर अब तक क्या लाभ-हानि रहा इसका कोई अलग से आंकड़ा नहीं दिया गया है। हां यह जरूर हुआ है कि जीडीपी गिरी है, विकास दर गिरा है, बेरोज़गारी भी कुछ हद तक बढ़ी है, विदेषी निवेष 10 अरब डाॅलर कम बताया जा रहा है। इस वित्त वर्श की पिछली तिमाही भी जनता की तरह ही काफी परेषानी में रही है और अन्तिम तिमाही भी ऐसी ही कुछ परेषानी से जूझती दिख रही है। सर्वे भी इस बात का समर्थन करते हैं कि आने वाले कुछ महीनों तक देष में नोटबंदी का नकारात्मक असर बना रहेगा अलबत्ता इसका आगे लाभ भले ही क्यों न हो। 
नोटबंदी को नाकेबंदी और नसबंदी तक कहा गया और बीते सात दषकों की तुलना में सर्वाधिक जोखिम भरा निर्णय भी माना गया। अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से यह कितना परिपक्व निर्णय था इस पर राय अलग-अलग है। विरोधी एक सुर में मोदी सरकार के इस निर्णय को कटघरे में खड़ा करते रहे जबकि सरकार भले ही निर्णय-दर-निर्णय बदलती रही पर फैसले से पीछे नहीं हटी। एक-एक दिन में कई-कई निर्णय भी लिये गये। 14 और 22 दिसम्बर को क्रमषः दिनभर में 7 और 6 बार निर्णय लिये गये जो रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों के इतिहास में ऐसा पहले षायद ही हुआ हो। जिस कैषलेस अर्थव्यवस्था को लेकर इन दिनों एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा उसके अनेक लाभ तो हैं पर इसमें चुनौतियां भी अनेकों हैं। भारत जैसे देष को कैषलेस अर्थव्यवस्था में बदलना इतना आसान काज नहीं है। इंटरनेट सेवाएं खराब रहती हैं, जागरूकता और जानकारी का भी आभाव है। डिजिटल साक्षरता की भरपूर कमी है, षिकायत कहां करें इसकी एजेंसियां भी पूरी तरह निर्मित नहीं हैं और साइबर को लेकर प्रषिक्षण की कोई खास व्यवस्था भी नहीं हैं। कहा जाय तो साइबर सुरक्षा अपर्याप्त है। इतना ही नहीं बाजारों में अधिकांष छोटे किस्म के कारोबारी हैं और यहां तक इसे पहुंचाना बड़ी चुनौती है। कई ग्राहकों के पास स्मार्ट फोन नहीं हैं। इंटरनेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग और डिजिटल वैलेट्स के उपयोग करने में करोड़ों सक्षम नहीं है। गौरतलब है कि कुल 74 फीसदी देष की साक्षरता है साथ ही भारत घनी आबादी वाला देष है जहां 60 फीसदी से अधिक किसान और 98 फीसदी गैर संगठित मजदूर हैं। इसके अतिरिक्त अनेकों अनजान समस्यायें हैं जो सरकार भी अभी पूरी तरह नहीं समझ पाई होगी। बावजूद इसके कैषलेस थ्योरी कहीं अधिक अच्छी कही जा सकती है क्योंकि इससे काला बाजारी, काला कारोबार और काली कमाई की जमावट के बजाय सफेद धन और सफेद कारोबार के साथ पारदर्षी अर्थव्यवस्था परिलक्षित होगी।
सरकार ने काले धन को समाप्त करने के लिए पांच सौ, हजार के नोट को प्रतिबंधित किया। वो धन जिस पर कर नहीं चुकाया गया, छुपा कर रखा गया उसे हम सरसरी तौर पर काला धन कहते हैं पर उनका क्या जो कैष के रूप में नहीं है। जो रियल स्टेट या सोने-चांदी में निवेषित है। फिलहाल काला धन सरकार की आर्थिक नीतियों और रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीतियों को विफल कर देता है। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी वाला कदम उठाया पर जो काला बाजारी इसके बाद हुई वो भी हैरत में डालने वाली थी। तमाम नाकेबंदी के बावजूद 50 दिन के अंदर तमाम प्रकार की गड़बड़ियां हुईं। इनकम टैक्स विभाग के छापों से लाखों-करोड़ों में नये-पुराने नोट बरामद हुए और कुछ बैंक और बैंकर्स भी सरकार की इस मुहिम को मुंह चिढ़ाने से बाज नहीं आये जिसके चलते कई बैंकर्स आज जेल की हवा खा रहे हैं। जिस अनुमान के तहत नोटबंदी का निर्णय आया था उसकी सफलता पर आज भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है और जनता को हुई परेषानी को देखते हुए सरकार भी कुछ लीपापोती कर रही है। कैषलेस अर्थव्यवस्था पर बार-बार जोर देना कुछ इसी प्रकार के संकेत दिखाई देते हैं। सबके बावजूद यक्ष प्रष्न यह है कि नोटबंदी से जिस काली कमाई वालों पर चोट करनी थी उस पर हुई या नहीं। रही बात कैषलेस अर्थव्यवस्था की तो यह किसी भी देष में न तो पूरी तरह लागू है और न पूरी तरह षायद हो सकती है पर कोषिष तो की जा सकती है।


सुशील कुमार सिंह


Monday, January 2, 2017

इससे बेहतर समाजवाद कहाँ मिलेगा !

आचार्य नरेन्द्र देव की एक पुस्तक ‘राष्ट्रीयता और समाजवाद‘ के तीसरे अध्याय के शीर्षक ‘समाजवाद की ओर‘ में यह लिखा है कि हम समाजवादियों को लेनिन की यह बात बराबर याद रखनी चाहिए कि सामाजिक स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई बहुत जरूरी है। समाजवादी अगर राजनीतिक लड़ाई में पूरा-पूरा भाग नहीं लेते हैं तो सामाजिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने की नौबत ही नहीं आयेगी। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर प्रदेष में समाजवादी पार्टी जिस मुकाम पर इन दिनों पहुंची है उसके पीछे 20 करोड़ से अधिक प्रेदेषवासियों की सामाजिकता को उभारने की कोषिष है। कई समाचारपत्रों के प्रथम पृश्ठ पर यह छपा है कि समाजवादी पार्टी में तख्तापलट हुआ है। यह बात कितनी सही है यह पड़ताल का विशय है पर इतना जरूर हो गया है कि लोग अपने को समाजवादी कहने से इन दिनों थोड़ा घबरायेंगे। महात्मा गांधी भी अपने को समाजवादी कहने से गुरेज नहीं करते थे पर क्या समाजवादी की पहचान मात्र बातों से हो सकती है या उनके क्रियाकलापों में इसका परिदृष्य दिखाई देना चाहिए। महात्मा गांधी अनुप्रयोगवादी थे जाहिर है अच्छे और खोटे समाजवाद की उन्हें परख थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संगठन की कमजोरी या उसके गठिया रोग से समाजवाद की नवचेतना धूमिल पड़ती है। ऐसा होता है तो सामाजिक लड़ाई का कमजोर होना स्वाभाविक है जो समाजवाद के दावे पर टिकी होती है। जाहिर है उत्तर प्रदेष में जो हुआ है उस समाजवाद में पिता-पुत्र केन्द्र में है। एक ने समाजवाद को बनाया है तो दूसरे ने उसी में स्कूली षिक्षा लेकर हेडमास्टरी की है पर यह सवाल जवाब की तलाष में रहेगा कि मुलायम सिंह का समाजवाद किस श्रेणी में आता है। फिलहाल उत्तर-प्रदेष के सियासी चक्रव्यूह को राजनीतिक महत्वाकांक्षा कहें या विचलन से भरे समाज को राह देने की कोषिष। इस प्रष्न के एवज में उत्तर की तलाष रहेगी। जो भी हो एक बात तो तय है कि उत्तर प्रदेष की समाजवादी पार्टी महत्वाकांक्षा की षिकार हुई है साथ ही पुराने और नये विचारों के बीच भी फंसी है। 
समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। यह मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। हम आदर्ष और संस्कृति से भरे सच्चे और अच्छे समाजवाद को रफ्तार देने की कोषिष कर रहे हैं न कि अपने ढंग से समाजवाद को तोड़-मरोड़कर पेष कर रहे हैं। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री अखिलेष यादव को अक्सर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हम समाजवादी जनता की समस्याओं को सही तरीके से समझते हैं और उन्हें हल करना जानते हैं।  उनका मन्तव्य गलत नहीं है और न ही उनका समाजवाद गफलत में है इसके अलावा न ही उनके पिता मुलायम सिंह यादव का समाजवाद संदेह से भरा रहा है। इन बातों को सिरे से स्वीकार भी कर लिया जाय तो भी यह सवाल उठता है कि आखिर फिर गड़बड़ी कहां हुई है। चाचा-भतीजे के गहरे विवाद में समाजवादी पार्टी का असली मालिक कौन होगा यह भी सवाल आज अहम बना हुआ है। मुलायम-षिवपाल बनाम अखिलेष-राम गोपाल ये समाजवाद के दो सिरे हो गये हैं। खुद को असली समाजवादी पार्टी साबित करना अब इनकी जिद में है। साइकिल एक है और चलाने वाले अब दो हैं पर कौन चलायेगा षायद यह चुनाव आयोग द्वारा ही तय हो पायेगा। मुलायम और अखिलेष के बीच तमाम रंजिष और उतार-चढ़ाव के बावजूद सुलह भी खूब हुई। हालिया स्थिति यह है कि राम गोपाल और मुख्यमंत्री अखिलेष का निश्कासन करने और निश्कासन रद्द करने में मात्र 20 घण्टे का अन्तर था पर कुछ घण्टे बाद ही ऐसा क्या हुआ कि मुलायम को हटाकर अखिलेष सपा के सुप्रीमो बन गये। फिलहाल मुलायम सिंह सुप्रीमो नहीं हैं और षिवपाल प्रदेष अध्यक्ष नहीं है। इस बीच समाजवादी भी इस गफलत में होंगे कि आखिर वे कौन से समाजवादी हैं। गौरतलब है कि समाजवाद में यदि राजनीतिक लड़ाई सामाजिक स्वतंत्रता के लिए की जाती है तो जाहिर है यह लड़ाई जनता के काम जरूर आयेगी पर यह निजी महत्वाकांक्षा के चलते हो रही है तो जनता ही पिसेगी। 
इस बात को भी षिद्दत से समझना ठीक रहेगा कि जब बीते 30 दिसम्बर को अखिलेष सपा से बर्खास्त हुए थे तो इनके समर्थन में देर रात तक प्रदर्षन हुए। निषाने पर मुलायम, षिवपाल दोनों थे यहां तक कि अखिलेष प्रेम के चलते कुछ समर्थकों ने आत्मदाह की कोषिष भी की। परिवार की लड़ाई में संयम खोते समर्थक को अभी भी फिलहाल सिरा नहीं मिला है। हालांकि अखिलेष का पलड़ा काफी भारी है और समर्थकों के झुकाव को देखते हुए साफ है कि अखिलेष ही समाजवाद को उत्तर प्रदेष में गतिमान करेंगे। कुछ भी हो इस झगड़े में इस बात की भी नापतौल हुई है कि समय के साथ कद कैसे गिरता और उठता है। इन झगड़ों के बीच इस प्रसंग को भी उद्घाटित किया जाना जरूरी है कि यह सब किस लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। देखें तो समाजवाद का ध्येय वर्गविहीन समाज की स्थापना है पर उत्तर प्रदेष में पनपा समाजवाद घराने तक सीमित रहा और सत्ता की चाषनी में डूबा रहा। इसके असल पक्ष वर्गविहीन को लेकर काम हुआ है इस पर पूरे षिद्दत से कह पाना थोड़ा असमंजस है। यहां पर कुछ लोग यह प्रष्न कर सकते हैं कि इतने दावे से बात क्यों कही जा रही है। आज जब हम कहते हैं कि स्वतंत्रता और समता जैसे आदर्षों को हम सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं तो कईयों के आलोचना के षिकार होते हैं। कई सियासी दल को यह अखरता है कि उन्हें वर्गविहीन क्यों नहीं कहा जाता। सवाल है कि जब जाति, धर्म और वर्ग की आड़ में राजनीतिक दल जनता को बांटकर वोट बंटोरना चाहेंगे तो स्वतंत्रता और समता का आदर्ष विकसित करने की बात किस मुंह से कहेंगे। भारत में राश्ट्रीयता और समाजवाद का जन्म कोई क्षणिक घटना नहीं थी इसके पीछे बरसों का इतिहास रहा है जिसे समझने के लिए राजनीतिक तौर पर ही नहीं सामाजिक तौर पर भी परिपक्व होना होगा।
उत्तर प्रदेष मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेष यादव आगामी विधानसभा चुनाव जीतकर पिता को तोहफा देना चाहते हैं और इस बात को भी दोहरा रहे हैं कि राजनीतिक बिलगाव है न कि पिता से अलगाव। समाजवादी पार्टी को कहां से सावधान रहने की जरूरत है और इस तोड़फोड़ के बीच कौन फायदा ले सकता है इस पर भी गौर करें तो उसकी सियासी सेहत ठीक रहेगी। सपा के ताजा घटनाक्रम के बाद अब चुनाव आयोग की तरफ निगाहें घूम गयी हैं। विधान और संविधान की बारीक पड़ताल कहती है कि अभी मुलायम ही सपा के सुप्रीमो हैं। देखा जाय तो अखिलेष यादव जिस धमक के साथ नवचेतना और नये होने का रंग विकसित किया है उससे उनके प्रति सहानुभूति की लहर भी पनपी है। राम गोपाल और अखिलेष के नये वर्श के पहले दिन के विषेश अधिवेषन पर सपा ने प्रस्ताव पास कर कहा है कि कुछ लोग भाजपा को लाभ पहुंचाने की साजिष कर रहे हैं। दो टूक यह भी समझ लेना चाहिए कि समाजवादी पार्टी के टूटने से मृत पार्टियों को जरूर लाभ मिलेगा मसलन कांग्रेस मगर सहानुभूति यदि अखिलेष के साथ हुई तो भाजपा और बसपा जो सत्ता के दावेदार हैं नुकसान में जा सकते हैं। कई इस अन्तर्कलह को एक पूर्व नियोजित घटना बता रहे हैं पर यह बात पचती नहीं है। होषियारी सभी दिखा रहे हैं पर यह भूल गये हैं कि लड़ाई कुनबे की है और समाजवादियों के इस गृहयुद्ध में कोई जीत कर भी जीता नहीं कहलायेगा और कोई हार कर भी परास्त नहीं माना जायेगा। षायद ही इससे बेहतर समाजवाद कहीं मिलता हो। 

सुशील कुमार सिंह