Wednesday, October 27, 2021

कौशल विकास और सुशासन

विकास प्रषासन का मुख्य विशय विकासात्मक गतिविधियां होती हैं जबकि कौषल विकास हुनर का वह आयाम है जो विकास के प्रषासन को ही परिभाशित करता है। जब विकास का प्रषासन जमीन पर उतरता है तो सुषासन की पटकथा लिखी जाती है। संदर्भ निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि कौषल विकास के लिये एड़ी-चोटी का जोर पहले से अब के बीच जितना भी लगाया जा रहा है वह नाकाफी है, जबकि कोरोना प्रभाव के चलते इसकी मुष्किलें तुलनात्मक बढ़ी ही हैं। कोविड-19 महामारी ने कौषल विकास के क्षेत्र में अन्तर्राश्ट्रीय सहयोग की आवष्यकता को मानो बढ़ा दिया हो। भारत जिस पैमाने पर युवाओं का देष है यदि उसी आंकड़े पर कौषल विकास से युक्त देष को खड़ा करना है तो पेषेवर प्रषिक्षण और कौषल विकास कार्यक्रम बाजार की मांग की अनुपात में विकसित करना ही होगा। सुषासन की धारा में कौषल विकास की विचारधारा उतनी ही प्रासंगिक है जितना कि ईज़ आॅफ लिविंग के लिये सरकार का बेहतरीन सुविधा प्रदायक होना। लोक प्रवर्धित अवधारणा को मजबूत करने के लिये कौषल विकास को तुलनात्मक अधिक वृहद् बनाने के साथ पहुंच भी आसान करनी होगी। बाजार देना होगा साथ ही संरचनात्मक विकास के रास्ते चैड़े करने होंगे ताकि कौषल से युक्त को विकास की राह मिले और देष को उनके हिस्से का बचा हुआ सुषासन। कौषल विकास का अभिप्राय युवाओं को हुनरमंद बनाना ही नहीं बल्कि उन्हें बाजार के अनुरूप तैयार करना भी है। आंकड़े बताते हैं कि इस दिषा में बरसों से जारी कार्यक्रम के बावजूद महज 5 फीसद ही कौषल विकास कर्मी भारत में हैं जबकि दुनिया के अन्य देषों की तुलना में यह बहुत मामूली है। चीन में 46 फीसद, अमेरिका में 52, जर्मन में 75, दक्षिण कोरिया में 96 और मैक्सिको जैसे देषों में भी 38 प्रतिषत का आंकड़ा देखा जा सकता है। देष की विषाल युवा आबादी को कौषल प्रषिक्षण देकर रोजगार उपलब्ध कराने के लिये साल 2015 में स्किल इण्डिया मिषन की षुरूआत की गयी। जमीनी स्तर पर कुषल मानव षक्ति के निर्माण पर कौषल विकास योजना एक बड़ी आधारषिला थी जिसके तहत हर साल कम से कम 24 लाख युवाओं को कुषलता का प्रषिक्षण देने का लक्ष्य रखा गया पर महज 25 हजार कौषल विकास केन्द्र से क्या यह लक्ष्य पाया जा सकता है जिस पर व्यापक पैमाने पर बीते डेढ़ वर्शों में कोविड-19 की मार भी पड़ चुकी है। वैसे देखा जाये तो 6 साल पहले कौषल विकास केन्द्रों की संख्या केवल 15 हजार थी जो पहले भी कम थी और जनसंख्या के लिहाज से और कौषल विकास की रफ्तार को देखते हुए अभी भी कम ही है।

सुषासन की परिपाटी भले ही 20वीं सदी के अंतिम दषक में परिलक्षित हुई हो पर इसकी उपस्थिति सदियों पुरानी है। बार-बार अच्छा षासन ही सुषासन है जो सभी आयामों में न केवल अपनी उपस्थिति चाहती है बल्कि लोक कल्याण के साथ पारदर्षिता और संवेदनषीलता को संजोने का भी यह प्रयास करती है। षासन हो या प्रषासन यदि उसमें इन तत्वों के अतिरिक्त खुलेपन का अभाव तो सुषासन दूर की कौड़ी होती है। कौषल विकास को लेकर के चिंतायें दषकों पुरानी हैं। मगर हालिया परिप्रेक्ष्य देखें तो प्रधानमंत्री कौषल विकास योजना को 2015 में लाॅन्च किया गया था जिसका उद्देष्य ऐसे लोगों को प्रषिक्षण देना था जो कम षिक्षित हैं या स्कूल छोड़कर घर में विश्राम कर रहे हैं। जाहिर है इस योजना के अंतर्गत ऐसे लोगों के कौषल का विकास करके उनकी योग्यता के अनुपात में काम पर लगाना था। हालांकि इसके लिये ऋण की सुविधा भी दी जाती है। ऐसा इसलिए ताकि अधिक से अधिक इसका लाभ उठा सके। इसके लिये बाकायदा तीन, छः व एक साल के लिये रजिस्ट्रेषन किया जाता है और पाठ्यक्रम की समाप्ति के साथ प्रमाणपत्र दिये जाते हैं जिसकी मान्यता पूरे देष में होती है। फरवरी 2021 में प्रारम्भ पंजीकृत की प्रक्रिया के अंतर्गत 8 लाख नौजवानों को प्रषिक्षित किये जाने का लक्ष्य रखा गया है। सुषासन और कौषल विकास एक सहगामी व्यवस्था है। एक के बेहतर होने से दूसरे का बेहतरीन होना सुनिष्चित है। गौरतलब है कि सुषासन विष्व बैंक द्वारा दी गयी एक ऐसी आर्थिक परिभाशा है जो राज्य से बाजार की ओर चलने की एक संस्कृति लिये हुए है। आर्थिक न्याय सुषासन की खूबसूरत अवधारणा है जिसे 24 जुलाई 1991 में आयी उदारीकरण के बाद पोशित होते देखा जा सकता है। सारगर्भित पक्ष यह भी है कि कौषल विकास को लेकर सरकारें लम्बे समय से काम करती आ रही हैं पर इसका असल पक्ष उतना चमकदार नहीं दिखता है।

असल में कौषल विकास के मामले में भारत में बड़े नीतिगत फैसले या तो हुए ही नहीं यदि हुए भी तो संरचनात्मक और कार्यात्मक विकास के स्तर पर पहुंच पूरी नहीं हुई। यदि ऐसा होता तो 136 करोड़ के देष में और 65 फीसद युवाओं के बीच केवल 25 हजार कौषल विकास केन्द्र न होते। आंकड़े यह दर्षाते हैं कि चीन में पांच लाख, जर्मनी और आॅस्ट्रेलिया में एक-एक लाख से अधिक कौषल विकास संस्थाएं हैं। दक्षिण कोरिया जैसे कम जनसंख्या वाले छोटे देष में भी इतने ही केन्द्र देखे जा सकते हैं। चीन में तीन हजार से अधिक कौषलों के बारे में प्रषिक्षण दिया जाता है। भारत में इसकी मात्रा भी सीमित दिखती है। स्किल इण्डिया मिषन के अंतर्गत बेरोजगार युवाओं को कंस्ट्रक्षन, इलेक्ट्राॅनिक्स एवं हार्डवेयर, फूड प्रोसेसिंग और फिटिंग, हैंडीक्राॅफ्ट, जेम्स एवं ज्वेलरी ओर लेदर टेक्नोलाॅजी जैसे करीब 40 तकनीकी क्षेत्र के ट्रेनिंग प्रदान की जाती है। चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2.5 फीसद व्यावसायिक षिक्षा पर खर्च करता है जबकि भारत चीन की तुलना में तो काफी कम और अपनी जीडीपी का मामूली धन ही खर्च करता है। यही कारण है कि कौषल विकास के मामले में मात्रा भी सीमित रह जाती है और गुणवत्ता भी एक सवाल बनकर रह जाता है। जिस सुषासन की परिपाटी कौषल विकास के रास्ते अनवरत् करने का प्रयास होता है उसमें लड़ाई अधूरी रह जाती है। स्किल, स्केल और स्पीड पर काम करने की बात सरकार करती है साथ ही युवाओं को कौषल युक्त बनाने की जद्दोजहद में भी दिखाई देती हैं मगर व्यावहारिक पक्ष यह है कि स्पीड कछुए की चाल हो जाती है और स्थिति इंच भर आगे-पीछे की बन कर रह जाती है। खास यह भी है कि भारत को दस फीसद से अधिक विकास दर चाहिये ताकि 2024 तक पांच ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बन सके। यहां भी दो टूक यह है कि इस गगनचुम्भी विकास दर और इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था को आसमान देने के लिये कौषल विकास को व्यापक और व्यावसायिक बनाना होगा।

स्किल इण्डिया कार्यक्रम सुषासन को एक अनुकूल जगह दे सकता है बषर्ते कि यह अपने उद्देष्य में खरा उतरे। इस कार्यक्रम का उद्देष्य वर्श 2022 तक कम से कम 30 करोड़ लोगों को कौषल प्रदान करना है। मुहाने पर खड़ा 2022 और कौषल विकास की स्थिति को देखते हुए यह संतुलन डांवाडोल दिखाई देता है। वर्श 2014 में जब कौषल विकास उद्यमिता मंत्रालय का निर्माण किया गया तब यह उम्मीद से लदा हुआ था और अब यह बोझ से दबा हुआ है। कौषल विकास कई चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें अपर्याप्त प्रषिक्षण क्षमता, उद्यमी कौषल की कमी, उद्योगों की सीमित भूमिका तो बुनियादी कारण हैं ही साथ ही इसके प्रति कम आकर्शण और नियोक्ताओं का रवैया भी ठीक नहीं है। इतना ही नहीं कौषल केन्द्रों पर कुषलता या हुनर के स्थान पर काफी हद तक प्रमाणपत्र बांटने पर ही जोर है। बाजार स्पर्धा से भरा है जहां सिक्का तब खनकता है जब काबिलियत फलक पर होती है। ऐसे में प्रमाणपत्र के भरोसे रोज़गार की अपेक्षा करना न तो सही है और न ही सम्भव है। इसी भारत में आंकड़े यह भी बता चुके हैं कि हर चार में तीन बीटेक की डिग्री धारक और हर दस में से नौ डिग्री धारक काम के लायक नहीं है तो जरा सोचिये कि जिन्हें केवल कौषल विकास के नाम पर प्रमाण पत्र को ही योग्यता थमा दिया गया हो उनके रोजगार का क्या हाल होगा। सवाल है कि सरकार को क्या करना चाहिए। षिक्षा एवं प्रषिक्षण खर्च में वृद्धि करना चाहिए। हालांकि पिछले बजट में इस दिषा में वृद्धि दिखाई देती है। दो टूक यह भी है कि चीन और भारत की जनसंख्या आस-पास ही है जबकि कौषल विकास पर खर्च में जमीन-आसमान का अंतर है इसे पाटना होगा। प्रषिक्षण संस्थानों का भी मूल्यांकन समय-समय पर होना चाहिए साथ ही कौषल सर्वेक्षण भी होता रहे। हालांकि भारत को चीन, जापान, जर्मनी, ब्राजील, सिंगापुर समेत कई देषों के व्यावसायिक तथा तकनीकी षिक्षा माॅडल से प्रेरणा लेनी चाहिए मगर सच यह भी है कि इन देषों के समक्ष भी भारत की तरह ही कमोबेष समस्याएं हैं। 

कौषल विकास के लिये पथ सुषासन से भरा बनाने के लिये समाज के सभी वर्गों का ताना-बाना इसमें षामिल होना चाहिये। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट पहले भी कह चुकी है कि अगर अमेरिका की भांति भारत के श्रम बाजार में कुल महिलाओं की भागीदारी 70 फीसद तक पहुंचाई जाये तो आर्थिक विकास दर को 4 फीसद से अधिक बढ़ाया जा सकता है। कौषल विकास को ऊंचाई देने के लिये आधी दुनिया से भरी नारी को भी इस धारा में बड़े पैमाने पर षामिल करना होगा। ताकि उन्हें हुनरमंद बनाकर न केवल देष में विकास की गंगा बहायी जा सके बल्कि आत्मनिर्भर भारत के सपने को भी साकार किया जा सके। इतना ही नहीं लोकल फाॅर वोकल को भी एक नया आसमान मिले और उन्हें समाज में स्थान। सब के बावजूद फिलहाल मौजूदा समय में भारत में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या तो बनकर उभरी है। इस समस्या के लिये बड़ी वजह कौषल विकास की कमजोर स्थिति को भी माना जा सकता है। इस कमी से निपटने के लिये भारत विभिन्न देषों एवं पूर्वी एषियाई देषों से प्रेरणा ले सकता है साथ ही इस बात पर भी जोर दे सकता है कि स्थानीय समस्याओं पर से कैसे निपटा जाये। देष की युवा आबादी बड़ी है सबको एक साथ कौषल युक्त बनाना चुनौती तो है पर रास्ता चिकना करके स्किल, स्केल और स्पीड तीनों को मुकाम दिया जा सकता है। 

दिनांक :6 अक्टूबर,  2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपrर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

भारत पर क्यों है दुनिया की नजरें

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी 22 से 25 सितम्बर के बीच अमेरिका की यात्रा पर हैं। जहां द्विपक्षीय मुलाकात के अलावा बदले वैष्विक परिदृष्य को देखते हुए बातचीत के स्तर को बड़ा बनाने का प्रयास रहेगा। विकसित देषों की बातें तो वैष्विक मंचों पर जोरदार तरीके से सामने आती रही हैं मगर विकासषील देषों की प्रखर आवाज मौजूदा समय में भारत बन चुका है। सुरक्षा परिशद के सदस्य भी भारत की बातों को न केवल गम्भीरता से लेते हैं बल्कि उसके अनुपालन का प्रयास भी कमोबेष षामिल है। जलवायु परिवर्तन, विकास लक्ष्य, सबको सस्ती वैक्सीन की उपलब्धता, गरीबी उन्मूलन समेत महिला सषक्तिकरण व आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दों पर भारत की राय काफी प्रषंसनीय रही है। इतना ही नहीं षान्ति मिषन और संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद में सुधार का प्रबल समर्थक भारत दुनिया में एक खास जगह रखता है। अमेरिका के इसी दौरे में क्वाड देषों के नेताओं की 24 सितम्बर को पहली मुलाकात भी सुनिष्चित है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति जो बाइडेन, प्रधानमंत्री मोदी, आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्काॅट माॅरिसन और जापान के योषिहिदे सुगा की मेजबानी करेंगे। जाहिर है यह भेंट चीन के लिये चिंता का सबब है। इतनी बड़ी वैष्विक एकजुटता रणनीतिक तौर पर चीन को बहुत कुछ सोचने के लिये मजबूर भी करेगी। खास यह भी है कि क्वाड सहयोगियों के साथ भारत टू-प्लस-टू की वार्ता पहले ही कर चुका है और सभी से उसके सकारात्मक सम्बंध हैं। गौरतलब है कि 12 मार्च 2021 को क्वाड देषों की वर्चुअल बैठक हो चुकी है जिसमें जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 जैसे मुद्दों के अलावा, आतंकवाद और साइबर सुरक्षा समेत सामरिक सम्बंध का इनपुट इसमें षामिल था।

अफगानिस्तान की ताजा स्थिति के मद्देनजर बदली वैष्विक परिस्थितियों में प्रधानमंत्री का यह दौरा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। जो बाइडेन के साथ भारत-अमेरिका व्यापक वैष्विक रणनीतिक साझेदारी की समीक्षा और पारस्परिक हित के क्षेत्रीय और वैष्विक मुद्दों पर विचारों के आदान-प्रदान होने की बात यात्रा से पहले ही प्रधानमंत्री कह चुके हैं। अमेरिकी उपराश्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात के अलावा अमेरिका के टाॅप 5 कम्पनियों के सीईओ के साथ बैठक और क्वाड देषों के मुखिया के साथ सामूहिक और द्विपक्षीय भेंट इस यात्रा के विवरण को कहीं अधिक प्रासंगिक स्वरूप दे रहा है। इतना ही नहीं यात्रा के अन्तिम दिन मोदी वांषिंगटन से न्यूयाॅर्क की ओर प्रस्थान करेंगे जहां संयुक्त राश्ट्र महासभा को सम्बोधित करना है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भी इस कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे जो तालिबानी सरकार को दुनिया में मान्यता दिलाने का मानो बीड़ा उठाया हो। वैसे अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने संयुक्त राश्ट्र महासभा के 76वें सत्र में भाग लेने के लिये संयुक्त राश्ट्र महासचिव को भी पत्र भी लिखा है। फिलहाल इस साल महासभा की डिबेट के केन्द्र में कोविड-19 महामारी अवष्य रहेगी बावजूद इसके आर्थिक मंदी, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, अफगानिस्तान के ताजा हालात समेत कई मुद्दे यहां छाये रह सकते हैं। दो टूक यह भी है कि विदेष मंत्री एस जयषंकर ने यूएन महासभा में तुर्की द्वारा कष्मीर मुद्दा उठाने पर करारा जवाब दिया। जाहिर है कष्मीर के बहाने जो देष भारत को लेकर अनाप-षनाप बयानबाजी करेंगे उनसे निपटने में भारत की रणनीति कहीं अधिक सक्षम और प्रबल रहेगी यह उसी की एक बानगी थी।

वैसे अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि बाइडेन के साथ प्रधानमंत्री मोदी की पहली व्यक्तिगत द्विपक्षीय वार्ता की विफलता काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करेगी कि अफगानिस्तान के बदले हालात पर उनका रवैया क्या है। क्या बाइडेन अफगानिस्तान के मुद्दे से वैसे ही अभी भी जुड़े हैं जैसे तालिबान के आने से पहले थे। हालांकि यहां स्पश्ट कर दें कि भारत अब दुनिया के मंच पर खुलकर बात करता है ऐसे में क्वाड समेत तमाम देषों से द्विपक्षीय मामले में भारत की बातचीत राश्ट्रहित के अलावा वैष्विक हित को ही बल देगी। गौरतलब है कि अमेरिका जैसे देष भी भारत को कई अपेक्षाओं का केन्द्र समझते हैं। दक्षिण एषिया में षान्ति बहाली का एक मात्र जरिया भारत ही है। आसियान देषों में भारत का सम्मान, ब्रिक्स में उसकी उपादेयता और यूरोपीय देषों के साथ द्विपक्षीय बाजार और व्यापार समेत कई मुद्दों पर संदर्भ निहित बातें भारत की ताकत को न केवल बड़ा करती हैं बल्कि अपेक्षाओं से युक्त भी बनाती हैं। चीन के साथ अमेरिका की तनातनी और भारत की दुष्मनी एक ऐसे मोड़ पर है जहां से भारत अमेरिका के लिये न केवल बड़ी उम्मीद है बल्कि एषियाई देषों में एक बड़ा बाजार और साझीदार है। भले ही मोदी और बाइडन के बीच व्यक्तिगत कैमिस्ट्री नहीं है मगर रणनीतिक हित दोनों समझते हैं। चीन द्वारा क्वाड समूह को षुरूआती दौर में ही दक्षिण एषिया के नाटो के रूप में सम्बोधित किया जाना उसकी चिंता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसका आरोप है कि उसे घेरने के लिये यह एक चतुश्पक्षीय सैन्य गठबंधन है जो क्षेत्र की स्थिरता के लिये एक चुनौती उत्पन्न कर सकता है। गौरतलब है कि चीन क्वाड के षीर्श नेतृत्व की बैठक और व्यापक सहयोग को लेकर पहले भी चिंता जाहिर कर चुका है। इसमें कोई षक नहीं कि क्वाड चीन के विरूद्ध एक गोलबंदी है ऐसे में हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ेगी और जिस मनसूबे के साथ क्वाड के देष आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं उससे चीन को संतुलित करने में यह काम आयेगा और दक्षिण-चीन सागर में उसके एकाधिकार को चोट भी पहुंचायी जा सकती है।

कोविड-19 के षुरूआती दिनों में दवाई देकर भारत अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देषों की भलाई किया और अब इस साल की षुरूआत से अब तक 95 अन्य देषों और संयुक्त राश्ट्र षान्ति रक्षकों को टीके की खुराक उपलब्ध करायी। फिलहाल दुनिया भर में व्याप्त विभिन्न प्रकार की समस्याओं के बीच प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा पर नैसर्गिक मित्र रूस समेत मध्य और पष्चिम एषियाई देषों के साथ दुनिया के तमाम देषों की भारत पर नजर रहेगी जिसमें चीन और पाकिस्तान तो इसे टकटकी लगाकर देख रहे होंगे। गौरतलब है कि सितम्बर 2019 के बाद यह यात्रा पहली और कोरोना काल में बांग्लादेष के बाद एषिया से बाहर किसी देष की भी पहली ही यात्रा है जबकि प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की सितम्बर 2014 में प्रथम यात्रा थी। 

 दिनांक : 23 सितम्बर,  2021




डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं पेट्रोल-डीजल

गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) काउंसिल की हालिया और 45वीं बैठक बीते 17 सितम्बर को हुई थी। उम्मीद थी कि आसमान छूते पेट्रोल-डीजल को इस बैठक में वाजिब जमीन मिलेगी पर कीमतों में राहत की सारी उम्मीदें फिलहाल खत्म हो गयीं। जीएसटी के दायरे में पेट्रोल-डीजल को लाना एक बड़े भागीरथ प्रयास की आवष्यकता महसूस करा रहा है। तकरीबन सभी राज्यों की सहमति से फिलहाल लम्बे समय के लिये इसे ठण्डे बस्ते में कमोबेष डाल दिया गया। जबकि आंकड़े अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटने के संकेते दे रहे हैं। जाहिर है सस्ता तेल इसी अर्थव्यवस्था को और स्पीड दे सकता है पर सरकार है कि मानती नहीं है। हर मोर्चे पर सरकार की पीठ थपथपायी जाये ऐसा षायद ही किसी देष में सम्भव हो। लोकतांत्रिक देषों में सरकार से सवाल करना एक सहज प्रक्रिया होती है। इसी परिदृष्य के दायरे में यह प्रष्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में लाने के लिये सरकारें राजी नहीं हो रही हैं जबकि जीएसटी 1 जुलाई 2017 से लागू है। देष में पेट्रोल के रेट कुछ षहरों में तो 100 रूपए प्रति लीटर से ऊपर है तो कहीं-कहीं डीजल भी इस कीर्मिमान को छू लिया है। वैसे तो अब जीएसटी के दायरे में इन्हें लाने का विचार फिलहाल टल गया है मगर यदि भविश्य में ऐसा होता है तो डीजल 20 रू. और पेट्रोल 30 रू. प्रति लीटर सस्ता हो सकता है।

गौरतलब है कि पेट्रोल-डीजल पर सरकारें लगभग 150 फीसद के आस-पास टैक्स वसूल रही हैं जबकि 4 स्लैब में विभक्त जीएसटी का सबसे उच्चत्तम दर महज 28 फीसद है। अब तक जीएसटी काउंसिल की 45 बैठक हो चुकी है। वैसे अप्रैल 2018 के पहले सप्ताह में पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने का प्रयास मंत्रालय ने कही थी मगर इस पर भी हजार अडंगे बताये जा रहे थे। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो पहले से रहा है मगर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं दिखाया। गौरतलब है कि सरकार यदि बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक रूपए प्रति लीटर की डीजल-पेट्रोल की कटौती से सरकार के खजाने में 13 हजार करोड़ रूपए की कमी सम्भव है। जाहिर है सरकार यह जोखिम क्यों लेगी और वो भी अर्थव्यवस्था के खराब दौर के बीच। जीएसटी से इन दिनों सरकार की कमाई में इजाफा हुआ है। दिसम्बर 2020 से अगस्त 2021 के बीच केवल जून महीने को छोड़ दिया जाये तो प्रतिमाह जीएसटी से कमाई 1 लाख करोड़ रूपए ही रही है जिसमें अप्रैल में तो यह आंकड़ा 1 लाख 41 हजार करोड़ से अधिक था जो पिछले 4 सालों में सर्वाधिक है। 

पेट्रोल-डीजल की महंगाई से जनता महीनों से व्यापक कठिनाई झेल रही है। इस सवाल का जवाब भी खोजना आसान है कि केन्द्र के साथ राज्य सरकारें भी जीएसटी में न लाने के साथ क्यों हैं। दोनों को अपने खजाने की चिंता है। भले ही जनता क्यों न पिसे। यदि बिहार के पूर्व वित्त मंत्री सुषील कुमार मोदी के इस वक्तव्य को समझें जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि पेट्रोल व डीजल जीएसटी के दायरे में आते हैं तो इससे केन्द्र और राज्य सरकारों को 4 लाख 10 हजार करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ेगा। जब चारों तरफ से सरकार की कमाई में अवरोध है तो डीजल और पेट्रोल एक सुगम रास्ता बन गया है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि पेट्रोल और डीजल सस्ता करना या फिर उस पर ड्यूटी और टैक्स कम करना सम्भव नहीं है और दलील देते हुए कहा था कि तेल कम्पनियों को पिछली सरकार ने सब्सिडी देने हेतु जो आय बाॅण्ड जारी किये थे उन पर ब्याज भरने में ही बहुतायत में रकम खर्च हो जाती है। हालांकि यह पड़ताल का विशय है कि हकीकत और फसाने में क्या अंतर है। दो टूक यह है कि जनता को तो सस्ता तेल चाहिए। जीएसटी मुनाफे की कर व्यवस्था है, पेट्रोल और डीजल के मामले में तो कहा ही जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो सरकार इसे बहुत पहले ही जीएसटी में ला चुकी होती। फिलहाल तेल के भस्मासुर वाले दाम से लोगों को राहत देने के लिये सरकार या तो उत्पाद षुल्क घटाये या फिर जीएसटी के दायरे में लाये।

दिनांक : 20 सितम्बर, 



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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Tuesday, October 5, 2021

विश्व परिदृश्य पर हिन्दी का प्रभुत्व

भले ही हिन्दी अपने देष में संघर्श कर रही हो पर दुनिया तो इसे दोनों हाथों से स्वीकार कर रही है। अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन बरसों पुराना है मगर भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जन सैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 

हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी और यह क्रम जारी भी है। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ से अधिक षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 

सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते सात वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है मगर बिना किसी खास प्रयास के संयुक्त राश्ट्र में हिन्दी मानो स्वयं एक भाशा बन गयी हो। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 

विष्व तेजी से प्रगति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 

(दिनांक : 13 सितम्बर, 2021)


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

स्टार्टअप इंडिया और सुशासन)

स्टार्टअप इण्डिया अभियान एक राश्ट्रीय भागीदारी और राश्ट्रीय चेतना का प्रतीक है। भारतीय स्टार्टअप की सफलता की कहानी केवल बिजनेस की सफलता नहीं बल्कि पूरे भारत में हो रहे बदलाव का प्रतीक है। उक्त कथन केन्द्रीय मंत्री पीयूश गोयल का है जिसमें उन्होंने स्टार्टअप इण्डिया के मौजूदा हालात पर अपना एक नजरिया दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्टार्टअप-स्टैण्डअप इण्डिया रूपी अभियान का लक्ष्य कहीं अधिक व्यापक है मगर कोविड-19 के दुश्चक्र के चलते नकारात्मकता की ओर भी अग्रसर हुआ। गौरतलब है कि उद्यमषीलता को बढ़ावा देने के उद्देष्य से 5 वर्श पहले 16 जनवरी 2016 को स्टार्टअप इण्डिया स्कीम लाई गयी। हालांकि इसकी घोशणा 15 अगस्त 2015 को लालकिले की प्राचीर से 69वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने की थी और दिसम्बर 2015 में रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात‘ में भी ऐसा ही वादा किया गया था नतीजन यह जनवरी 2016 में दिल्ली के विज्ञान भवन से षुभारम्भ को प्राप्त किया। हालांकि आर्थिक उदारीकरण 1991 से ही देष में आर्थिक बदलाव की बड़ी गौरव-गाथा देखी जा सकती है और स्टार्टअप जैसी योजनाएं दषकों पहले से ही भारत के अर्थ नीति के हिस्से रहे हैं और यही दौर सुषासन की विस्तारवादी सोच को भी धरातल और आकाष देने का बड़ा प्रयास था। सुषासन एक लोक प्रवर्धित विचारधारा है जहां सामाजिक-आर्थिक न्याय को तवज्जो मिलता है। विष्व बैंक की एक आर्थिक परिभाशा से 20वीं सदी के अंतिम दषक में उदित सुषासन की नई परिकल्पना 1992 से ही भारत में देखी जा सकती है जबकि इंग्लैण्ड दुनिया का पहला देष है जिसने आधुनिक सुषासन को पहले राह दिया। उद्यम की प्रगतिषीलता और युवाओं में नवाचार और उद्यम के परिप्रेक्ष्य का विकसित होना सुषासन का निहित एक भाव ही है जो स्टार्टअप इण्डिया को भी स्टैण्डअप इण्डिया की ओर ले जाता है। देष में रोज़गार और नौकरियों के अवसर को बढ़ावा दिये जाने का स्टार्टअप इण्डिया एक बढ़ा प्रयास के रूप में देखा गया। नवाचार से भरी सोच के साथ युवाओं का इसमें आकर्शण होना और सुषासन से भरी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्टार्टअप इण्डिया ने उम्मीदों का एक मार्ग भी प्रषस्त किया है।

गौरतलब है कि सुषासन और स्टार्टअप इण्डिया का गहरा नाता है साथ ही न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इसमें विद्यमान है। इतना ही नहीं आत्मनिर्भर भारत के पथ को भी यह चिकना बनाने का काम कर सकता है। हुरून इण्डिया फ्यूचर यूनिकाॅर्न लिस्ट 2021 की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय स्टार्टअप कम्पनियों ने जून तिमाही में साढ़े छः अरब डाॅलर का निवेष जुटाया जिसमें स्टार्टअप इकाईयों में निवेष के 160 सौदे हुए जो जनवरी-मार्च की अवधि की तुलना में 2 प्रतिषत अधिक है मगर तिमाही-दर-तिमाही आधार पर यह 71 प्रतिषत की वृद्धि है। गौरतलब है कि कई स्टार्टअप इकाईयां प्रतिश्ठित यूनिकाॅर्न क्लब में षामिल हो गयी हैं। यूनिकाॅर्न का अर्थ है एक अरब डाॅलर से अधिक के मूल्यांकन से है। रिपोर्ट से यह स्पश्ट होता है कि 2021 की दूसरी तिमाही में स्टार्टअप की वृद्धि कहीं अधिक षानदार रही है। हालांकि पिछले साल की रिपोर्ट यह बताती है कि देष में घरेलू यूनिकाॅर्न स्टार्टअप की संख्या 21 थी जबकि चीन में इसकी संख्या 227 थी। मगर चीन में जहां देष से बाहर केवल 16 कारोबार ही थे वहीं इस मामले में भारत की संख्या 40 थी और दुनिया भर में भारतीयों द्वारा स्थापित यूनिकाॅर्न का कुल बाजार मूल्य लगभग 100 अरब डाॅलर देखा गया। आंकड़े यह बताते हैं कि स्टार्टअप के मामले में भारत दुनिया में चैथे स्थान पर है जो अमेरिका, चीन और ब्रिटेन के बाद आता है। नई नौकरियों की उम्मीदों से लदे स्टार्टअप्स भारत जैसे विकासषील देषों के लिये एक बेहतर उपक्रम है। केन्द्रीय मंत्री गोयल कोविड-19 की चुनौतियों के बावजूद भारत में आर्थिक रिवाइवल के स्पश्ट संकेत दिखने की बात कह चुके हैं। निर्यात बढ़ रहा है और एफडीआई प्रवाह सबसे अधिक है। भारतीय उद्योग वास्तव में विकास के रास्ते पर है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इतिहास में पहली बार किसी एक तिमाही में अब तक का सबसे ज्यादा निर्यात हुआ है। गौरतलब है कि वित्त वर्श 2021-22 की पहली तिमाही में 95 अरब डाॅलर का निर्यात हुआ है जो 2019-20 की पहली तिमाही से 18 फीसद ज्यादा है और वित्त वर्श 2020-21 की तुलना में यह 45 प्रतिषत से अधिक है। जाहिर है निर्यात यह संकेत देते हैं कि अंदर हालात पहले जैसे नहीं हैं मगर एक सच यह भी है कि जो हालात पहले बिगड़ चुके हैं अभी भी वे पटरी पर पूरी तरह लौटे नहीं है यह स्टार्टअप्स की स्थिति को देख कर भी समझा जा सकता है। फिलहाल स्टार्टअप पर कोरोना की दूसरी लहर का भी कहर था और हालिया स्थिति यह बताती है कि भारतीय स्टार्टअप ने अपने जुझारू क्षमता का काफी हद तक परिचय भी दिया है। 

कोविड-19 के संक्रमण से देष ग्रसित हुआ और बहुत से स्टार्टअप भी वेंटिलेटर पर चले गये थे। जुलाई-2020 में फिक्की और इण्डियन एंजेल नेटवर्क ने मिलकर 250 स्टार्टअप्स का सेंपल सर्वे किया था और रिपोर्ट निराषा से कहीं अधिक भरी थी। यह समय कोविड की पहली लहर का था। सर्वे से पता चला कि पूरे देष में 12 फीसद स्टार्टअप्स बंद हो चुके थे और 70 फीसद का लाॅकडाउन के चलते कारोबार प्रभावित हुआ था। उस दौर में केवल 22 फीसद के पास अपनी कम्पनियों के लिये 3 से 6 माह का निष्चित लागत खर्च निकालने हेतु नकद भण्डारण उपलब्ध था। इतना ही नहीं 30 फीसद कंपनियों ने यह भी माना कि लाॅकडाउन अधिक लम्बा चला तो कर्मचारियों की छंटनी भी करनी पड़ेगी और उसी सर्वे से यह भी खुलासा हुआ था कि स्टार्टअप्स का 43 फीसद हिस्सा लाॅकडाउन के तीन महीने के भीतर 20 से 40 प्रतिषत अपने कर्मचारियों की वेतन कटौती कर चुके थे। निवेष की जो मौजूदा हालत 2021 की हालिया रिपोर्ट में दिखती है जुलाई 2020 में यह ठीक इसके उलट थी। निवेष के मामले में तब स्टार्टअप की स्थिति बहुत प्रभावित हुई और ऐसा होना अतार्किक नहीं था। जब देष की अर्थव्यवस्था ही बेपटरी हो चली थी तो स्टार्टअप्स बेअसर कैसे रह सकते थे। वैसे स्टार्टअप्स की व्यापारिक चुनौतियां कोरोना से पहले भी रही हैं। मसलन बाजार संरचना, वित्तीय समस्याएं, विनियामक मुद्दे, कराधान साथ ही साईबर सुरक्षा और सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियां आदि। हालांकि सरकार ने उद्यमषीलता को बढ़ावा देने के हेतु इकोसिस्टम को विकसित करने के लिये स्टार्टअप इण्डिया, स्टैण्डअप इण्डिया व स्टार्टअप एक्सचेंज जैसे कई सक्रिय कदम उठाये। गौरतलब है कि सरकार ने बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी (एनबीएफसी) के सहयोग से अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री मुद्रा योजना षुरू की थी जो गैर काॅरपोरेट, गैर कृशि, एमएसएमई को उनके प्रारम्भिक या विकास चरण में स्टार्टअप इण्डिया ऋण प्रदान करती है पर बड़ा सवाल यह है कि भारत में अधिकतर स्टार्टअप क्यों फेल हो जाते हैं? वर्तमान की बात करें तो अप्रैल 2021 में एक हफ्ते में भारत में 6 स्टार्टअप को यूनिकाॅर्न का तमगा हासिल हुआ। स्टार्टअप्स के मामले में यह भी एक संदर्भ रहा है कि भारत में स्टार्टअप्स फण्डिंग स्कोर करने पर अधिक ध्यान लगाते हैं जबकि ग्राहक की ओर से उनका ध्यान कमजोर हो जाता है। हालांकि फण्डिंग जुटाने की स्पर्धा में ऐसा करना सही है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कम्पनी को बल हमेषा ग्राहकों से मिलता है। स्टार्टअप्स के फेल होने के कई कारणों में एक बड़ा कारण ग्राहक का फिसलना भी है। पिछले साल आईबीएम इंस्टीट्यूट आॅफ बिजनेस वैल्यू और आॅक्सफोर्ड इकोनोमिक्स के अध्ययन से पता चला कि भारत में करीब 90 फीसद स्टार्टअप 5 सालों के भीतर फेल होकर बंद हो जाते हैं। खास यह भी है कि पिछले एक दषक से अधिक समय के बीच भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम में अप्रत्याषित बूम भी देखने को मिला है। 

सरकार का हर नियोजन व क्रियान्वयन तथा उससे मिले परिणाम सुषासन की कसौटी होते हैं। स्टार्टअप को भी ऐसी ही कसौटी पर कसना सुषासन को विस्तार देने के समान है। सरल और सहज नियम प्रक्रिया और ईज़ डूइंग कल्चर को बढ़ावा देकर स्टार्टअप्स को बढ़ोत्तरी दी जा सकती है और व्यापक पैमाने पर देष के युवाओं को इस ओर आकर्शित किया जा सकता है। सुषासन एक ऐसी ताकत है जो सबको षांति और खुषी देती है। लेकिन कोरोना का प्रभाव तो ऐसा कि स्टार्टअप फण्डिंग में गिरावट देखने को मिली। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2020 भी 50 फीसद की गिरावट पहले ही दर्ज की जा चुकी थी। इससे पता चलता है कि निवेषकों का विचार स्टार्टअप्स को लेकर स्थायी नहीं बन पाता है या फिर इसकी संख्या तो बढ़ती है मगर गुणवत्ता का अभाव रहता है। राश्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्टार्टअप्स की स्थिति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि यहां 2015 में 1657 स्टार्टअप्स स्थापित किये गये थे। 2018 आते-आते इनकी संख्या महज 420 रह गयी और 2019 की स्थिति तो और खराब रही जहां 142 स्टार्टअप्स को ही फण्डिंग प्राप्त हुई। गौरतलब है कि बंगलुरू जो स्टार्टअप्स राजधानी के रूप में जाना जाता है वहां कोविड के चलते कारोबार चैपट हो गया। इतना ही नहीं भारत के स्टार्टअप हब के रूप में बंगलुरू अपना स्थान भी खो दिया। अब यह तमगा एनसीआर गुड़गांव, दिल्ली, नोएडा को मिल गया। हालांकि बंगलुरू, मुम्बई और एनसीआर ने आधुनिक भारत के चेहरे को पूरी तरह बदल दिया है और इन षहरों को प्रसिद्ध ग्लोबल स्टार्टअप हब के तौर पर जाना जाता है। वहीं पुणे, हैदराबाद, अहमदाबाद और कोलकाता जैसे षहरों को उभरते स्टार्टअप हब के तौर पर गिना जा सकता है। फिलहाल स्टार्टअप क्षेत्र में अब एक नई ऊर्जा आ गयी है और कोरोना जितना दूर होगा सुषासन उतना समीप होगा साथ ही कारोबार का मार्ग भी उतना ही सरपट दौड़ेगा। साल 2021 की पहली छमाही में भारत को 15 और यूनिकाॅर्न मिले जो यह दर्षाता है कि हालात बदले हैं। जनवरी 2021 में प्रधानमंत्री द्वारा एक हजार करोड़ के स्टार्टअप इण्डिया सीड फण्ड की घोशणा भी कमजबूती का काम कर सकती है। जाहिर है स्टार्टअप इण्डिया, नवाचार और रोज़गार दोनों का बड़ा आधार है। ऐसे में आत्मनिर्भर भारत और सुषासन से भरे भारत की संभावना भी इसमें निहित देखी जा सकती है।

(दिनांक : 9 सितम्बर, 2021)



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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तालिबान और शेष दुनिया

अमेरिका यह बात कई बार दोहरा चुका है कि अफगानिस्तान की षान्ति में पाकिस्तान को सबसे अधिक लाभ होगा। साथ ही यह भी कहता रहा है कि अफगानिस्तान की षान्ति प्रक्रिया में पाकिस्तान की अहम भूमिका रहेगी मगर षायद वह समझ नहीं पाया कि पाकिस्तान दो दषक से तालिबान की वापसी का इंतजार कर रहा था। जाहिर है उसकी मुराद पूरी हो गयी है और इस मामले में चीन का साथ भी जग जाहिर है। पाकिस्तान की तालिबान के साथ गलबहियां करके केवल अपना फायदा ही नहीं चाहता बल्कि भारत के नुकसान को भी अपना फायदा ही समझता है। गौरतलब है कि तालिबान में अंतरिम सरकार की घोशणा के बाद दुनिया के किसी भी देष ने इसका खुलकर स्वागत नहीं किया है। अमेरिका ने नई तालिबानी सरकार के कार्यों को आंकने की बात कही जबकि जर्मनी ने तालिबान सरकार के गठन के बाद चिन्ता व्यक्त की। जापान ने भी कहा है कि इनकी गतिविधियों की निगरानी करेगा। रही बात चीन की तो वह तालिबान से एक समावेषी सरकार की अपील की है और पाकिस्तान तो दुनिया को ही नजरिया बदलने की नसीहत दे रहा है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देष न केवल लोकतंत्र के समर्थक हैं बल्कि षान्ति और सद्भावना की मिसाल हैं। ऐसे में अलोकतांत्रिक तरीके से कदमताल करने वाली तालिबानी सरकार भारत न केवल परखेगा, आंकेगा बल्कि उससे होने वाले नुकसान पर भी नजर गड़ा कर रखेगा। 

तालिबान की इस नई सरकार में 14 सदस्य संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् की काली सूची में हैं जाहिर है इससे अंतर्राश्ट्रीय समुदाय की चिंता बढ़ना लाज़मी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तालिबान की सरकार कहीं से और किसी प्रकार से समावेषी नहीं है। इसमें युवा और महिलाओं समेत कई वर्ग विषेश के नेतृत्व का अभाव है। इसमें षामिल कट्टरपंथी चेहरा भारत के लिये भी किसी चुनौती से कम नहीं है। देखा जाये तो हक्कानी की मौजूदगी भारत के लिये बिल्कुल उचित नहीं है। पाकिस्तान की इमरान सरकार के दोनों पैर आईएसआई और वहां की सेना के बीच उलझे रहते हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र भी आमतौर पर हाषिये पर ही रहता है। तालिबान और आईएसआई के गठजोड़ से भारत बेफिक्र नहीं हो सकता और जिस तरह चीन तालिबान को 228 करोड़ रूपए देने का एलान किया है वह भी उसके किसी खास इरादे का प्रदर्षन ही है। आईएसआई तालिबान षासन पर भारत के खिलाफ मुख्यतः कष्मीर में अपना एजेण्डा बढ़ाने का दबाव बना सकता है। हालांकि तालिबान ऐसा करने से पहले सौ बार सोचेगा जरूर क्योंकि उसे पता है कि दुनिया में भारत की क्या एहमियत है और चीन और पाकिस्तान के मामले में क्या स्थिति है। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर तालिबान ने पुराने कट्टरपंथ को अपनाया तो कष्मीर के लिये चुनौती बन सकता है। इतना ही नहीं पाक अधिकृत कष्मीर में चीन इसी तालिबान के सहारे अपनी महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड़ के विस्तारवादी सोच को भी बड़ा रूप दे सकता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि लष्कर-ए-तैयबा और जैष-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन अफगान और पाकिस्तान की सीमा पर अपना खूठा गाड़े हुए है। 

तालिबानियों का दुनिया भर के आतंकी संगठनों से गहरा सम्बंध रहा है और इसका लाभ पाकिस्तान भी लेता रहा है। आईएसआईएस,  हक्कानी नेटवर्क, लष्कर-ए-तैयबा समेत तमाम आतंकी संजाल को तालिबान प्रषिक्षण सहित तमाम सुविधाएं मुहय्या कराता है। पाकिस्तान 40 सालों से अफगानी मुद्दे पर अपनी रोटी सेंकता रहा है। 

(दिनांक : 9 सितम्बर, 2021)


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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मोबाइल गवर्नेंस की ताकत

सरकार की क्षमता को बेहतर बनाने हेतु सूचना और संचार तकनीक के उपयोग को ई-गवर्नेंस के नाम से परिभाषित करते हैं। इसी ई-गवर्नेंस का एक उप डोमेन मोबाइल गवर्नेंस (एम-गवर्नेंस) जो समावेशी और सतत विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया हो गया है। जिसके चलते सुशासन का मार्ग भी और चैड़ा हो रहा है। समावेशी विकास के लिए किसी कुंजी से कम नहीं मोबाइल गवर्नेंस देश में 136 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में 120 करोड़ मोबाइल का उपयोग किया जा रहा है। हालांकि इस बात में पूरी स्पष्टता नहीं है कि कितनों के पास मोबाइल दो या उससे अधिक है लेकिन यह भारी-भरकम आंकड़ा दर्शाता है कि भारत मोबाइल केंद्रित हुआ है। सरकार की योजनाओं की पहुंच का यह एक अच्छा तकनीक व रास्ता भी बना है। गौरतलब है कि ई-गवर्नमेंट के अंतर्गत ही ई-प्रशासन और ई-सेवाएं आती है। इसके अलावा सरकारी सेवाओं के ऑनलाइन प्रावधान ने भी सेवा क्षमता का विकास किया है। जाहिर है यह पारदर्शिता के साथ खुलेपन का पयार्य है। बावजूद इसके भ्रष्टाचार के प्रवेश द्वार पूरी तरह बंद है ऐसा कहना इसलिए कठिन है क्योंकि समावेशी विकास के इस दौर में सभी का सर्वोदय अभी भी संभव नहीं हुआ है जिसके लिए दशकों से प्रयास जारी है। गौरतलब है कि ई-लोकतंत्र समाज के सभी तबकों द्वारा राज्य के अभिशासन में भाग ले सकने की क्षमता के माध्यम से लोकतंत्र के विकास की दिशा में भी सूचना और संचार तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ई-लोकतंत्र पारदर्शिता, दायित्वशीलता और प्रतिभागिता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करता है। मोबाइल शासन के चलते कार्य तेजी से और आसानी से होने लगे है। समावेशी विकास रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा चिकित्सा, बिजली,पानी, रोजगार समेत कई बुनियादी तत्वों से युक्त है जिसकी पहुंच सभी तक हो, ऐसा सुशासन से भरी किसी भी सरकार की यह पहली ड्यूटी है। गौरतलब है कि भारत में साल 2025 तक 90 से अधिक लोग सीधे इंटरनेट से जुड़े जाएंगे जबकि मौजूदा स्थिति में यह आंकड़ा 65 से 70 करोड़ के आसपास है जाहिर है इंटरनेट कनेक्टिविटी मोबाइल गवर्नेंस को और ताकत भरेगा। जिसके चलते सतत और समावेशी विकास के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त करना तुलनात्मक आसान होगा।

प्रत्येक राष्ट्र अपनी जनता और सरकार के साझा मूल्यों द्वारा निर्देशित होता है। राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, गुटनिरपेक्षता, एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था भारत के मूल्यों में निहित है। सभी को ईज आफ लिविंग और गरिमामय जीवन का अधिकार है मगर यह बिना सरकार  के भागीरथ प्रयास के संभव नहीं है। भले ही तकनीक इतनी ही मजबूत क्यों ना हो जाए यदि संसाधन पूरे ना हों उद्देश्य पूरे नहीं हो सकते। समावेशी विकास का एक लक्ष्य 2022 तक दो करोड़ घर देने और किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य है। हालांकि यह लक्ष्य समय पर मिलेगा अभी टेढ़ी खीर लगती है क्योंकि पिछले ढेड साल से देश कोरोना से जूझ रहा है। मार्च 2019 तक सरकार का यह लक्ष्य था कि समावेशी विकास को सुनिश्चित करने हेतु 55 हजार से अधिक गांव में मोबाइल कनेक्टिविटी उपलब्ध कराना और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना जनधन खाते, डेबिट कार्ड, आधार कार्ड, भीम एप्प आदि को जन-जन तक पहुंचाना भी सरकार का ही लक्ष्य था। ताकि लोगों को डिजिटल लेनदेन से जोड़ा जा सके और सारी योजनाओं का सीधा लाभ मिल सके। मोबाइल गवर्नेंस को बाकायदा यहां प्रभावशाली होते देखा जा सकता है। गौरतलब है कि समय समावेशी इंटरनेट सूचकांक 2020 में भारत 46 वें स्थान पर है जिसमें समय के साथ बड़े सुधार की आवश्यकता है ताकि इन गवर्नेंस को और मजबूत किया जा सके। गौरतलब है कि सुशासन के उद्देश्य की पूर्ति में मोबाइल शासन यहां  मात्र एक तकनीक है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुशासन क्या है इसे भी समझना सही रहेगा। दरअसल सुशासन के समक्ष खड़ी केंद्रीय चुनौती का संबंध सामाजिक विकास से है। सुशासन का अपरिहार्य उद्देश्य सामाजिक अवसरों का विस्तार और गरीबी उन्मूलन होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो सुशासन का अभिप्राय न्याय, सशक्तिकरण और रोजगार एवं क्षमता पूर्वक सेवा प्रदान सुनिश्चित करने से है। सुशासन अभी विविध प्रकार की चुनौतियों से जकड़ा है मसलन गरीबी, निरक्षरता, पहचान आधारित संघर्ष, क्षेत्रीयता, नक्सलवाद, आतंकवाद इत्यादि कुछ प्रबल चुनौतियां हैं। जो सुशासन को पूरी तरह सक्षम बनने में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। इन चुनौतियों के साथ-साथ राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्टाचार भी इसके पथ को खुरदरा बनाए हुए हैं।


भारत सरकार का लक्ष्य मोबाइल फोन की व्यापक पहुंच का उपयोग करना और सार्वजनिक सेवाओं विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में आसान और 24 घंटे पहुंच को सक्षम बनाने व मोबाइल ढांचा के साथ मोबाइल एप्लीकेशन क्षमता का उपयोग बढ़ाकर एम-गवर्नेंस को बड़ा करना।

गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने साल 2012 में मोबाइल गवर्नेंस के लिए रूपरेखा विकसित और अधिसूचित की थी। फिलहाल भारत सरकार के शासन ढांचे का उद्देश्य मोबाइल फोन की विशाल पहुंच का उपयोग करना। जाहिर है मोबाइल गवर्नेंस के कई लाभ हैं, पैसे की बचत, नागरिकों को बेहतर बेहतर सेवाएं, पारदर्शिता, कार्य में शीघ्रता, आसान पहुंच और बातचीत सहित किसी प्रकार का भुगतान व सरकार की योजनाओं की पूरी जानकारी तीव्रता से पहुंच जाती है।  गौरतलब है कि 15 अगस्त 2015 को लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने सुशासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई- गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है। जाहिर है एम-गवर्नमेंट ई-गवर्नेंस का उप-डोमेन है जो समावेशी विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया तो है। जिसके चलते सुशासन आगे बढ़ा और आगे भी व्यापक बनाया ही नहीं जा सकता बल्कि बल्कि समावेशी विकास की चुनौती को देखते हुए नव लोक प्रबंधन की प्रणाली भी विकसित करना भी आसान होगा। लोक चयन उपागम का भी यह एक मजबूत रास्ता है। डिजिटल गवर्नेंस जितना तेजी से आगे बढ़ेगा भ्रष्टाचार को कमजोरी मिलेगी। हालांकि पारदर्शिता और प्रासंगिकता जहां पर है यह जरूरी नहीं कि वहां अनियमितता पूरी तरह खत्म है। मोबाइल गवर्नेंस एक ऐसी विधा है जिसे जेब का शासन भी कह सकते हैं जो शासन के लिए ही नहीं बल्कि जनमानस के लिए भी सरल सुगम और सहज पथ है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चीन और तालिबन का गठजोड़

चीन अफगानिस्तान के लोगों का अपने भाग्य और भविश्य का फैसला करने का सम्मान करता है। चीनी विदेष मंत्रालय की ओर से जारी यह वक्तव्य इस बात को पुख्ता करता है कि दोनों के बीच कितना याराना है। इतना ही नहीं यह भी बात हो चुकी है कि चीन अफगानिस्तान में तालिबानियों के साथ दोस्ताना सहयोग विकसित करना चाहता है। गौरतलब है कि जुलाई में तालिबान का एक प्रतिनिधिमण्डल चीन गया था और इसी प्रतिनिधिमण्डल से चीनी विदेष मंत्री वांग यी ने उत्तरी चीन के तिआनजिन में मुलाकात की थी जबकि इस मुलाकात से पहले पाकिस्तान का विदेष मंत्री भी चीन के दौरे पर गया था। ये दोनों मुलाकाते इस बात का प्रमाण है कि चीन दुनिया के लिए कितना घातक देष है जो न केवल आतंकियों का मनोबल बढ़ाता है बल्कि इन पर धन-बल का निवेष कर औरों के लिए एक हथियार खड़ा करता है। पाकिस्तान तालिबान का समर्थन करने वाला एक ऐसा देष है जिसके यहां आतंक की फैक्ट्रियां दषकों से चलती आ रही हैं और चीन ऐसी फैक्ट्रियों को खाद-पानी देने का काम भी करता रहा है। वैसे दुनिया में चीन पाकिस्तान के आतंकियों को लेकर क्या राय रखता है इसका खुलासा संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में कई बार हो चुका है और इसका झटका कई बार भारत झेल भी चुका है। अब तो तालिबान के साथ उसका गठजोड़ रही सही कोर-कसर को भी पूरी कर देता है। गौरतलब है कि मुलाकात के दौरान तालिबान ने यह भी भरोसा दिलाया था कि वो अफगानिस्तान की जमीन से चीन को कोई नुकसान नहीं होने देगा और चीन तालिबान युद्ध खत्म करने, षान्तिपूर्ण समझौते तक पहुंचने और अफगानिस्तान के पुर्ननिर्माण में एक अहम भूमिका निभाने की बात कह चुका है। यह इस बात के दस्तावेज हैं कि चीन अफगानिस्तान में तालिबानियों की सत्ता की इच्छा पाले हुए था और जिसका साथ देने में पाकिस्तान भी दो कदम आगे था। विध्वंस से भरी ताकतें ऐसे ही बड़ी नहीं होती बल्कि उसके पीछे चीन जैसी ताकतें खड़ी होती हैं। 

29 फरवरी 2020 को जब कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच षान्ति समझौते पर मोहर लगी थी और यह सुनिष्चित हो गया था कि अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा तब इस करार के दौरान भारत सहित दुनिया के 30 देषों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। हालांकि उस दौरान भी समझौते को लेकर संदेह गहरा हुआ था कि कहीं नाटो की वापसी के साथ तालिबानी एक बार फिर अपना रौद्र रूप न दिखाये। मगर दूसरी तरफ यह भी भरोसा था कि यदि ऐसी नौबत आती है तो जिन 3 लाख अफगानी सैनिकों को अमेरिका ने प्रषिक्षित किया वे 75 हजार तालिबानियों को उखाड़ फेकेंगे मगर सब कुछ उल्टा हो गया। ऐसा क्यों हुआ इसकी कई वजह हैं मगर चीन की प्रेरणा और उकसावे से युक्त तालिबान ने अफगानिस्तान को एक बार फिर बन्दूक की नोक पर काबिज कर लिया। 1996 के बाद यह दूसरी घटना है जब यहां तालिबान की हुकूमत होगी और दुनिया के तमाम देष अफगानिस्तान की इस दुर्दषा पर अफसोस में होंगे मगर चीन तो इसे अपनी लाटरी मान रहा है। चीन के दो मुंहेपन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर जहां उसकी ओर से यह बयान महीनों पहले आ चुका है कि अफगानिस्तान पर अफगान लोगों का अधिकार है उसके भविश्य पर भी अफगान लोगों का अधिकार होना चाहिए और दूसरी तरफ वही चीन अमेरिका और नाटो सेनाओं का जल्दबाजी में वापसी मान रहा है साथ ही फैसले की आलोचना भी कर रहा है और यहां तक कहा कि यह अमेरिकी नीति की असफलता दर्षाता है। 

जाहिर है अफगानिस्तान में तालिबानियों की उपस्थिति दुनिया की विदेष नीति को एक नये सिरे से बदलने का काम करेगी। भारत का दुष्मन चीन और अमेरिका से भी दुष्मनी रखने वाला चीन दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा चाहता है। इन दिनों यहां भी अमेरिका और चीन के बीच तनातनी देखी जा सकती है। 19वीं सदी के मध्य में जब मध्य एषिया पर नियंत्रण के लिए ब्रिटेन और रूस की दुष्मनी जिसे द ग्रेट गेम कहा जाता है तब भी अफगानिस्तान इसका गवाह रहा है। आज के दौर में भी जिस तरह तालिबानियों के बूते चीन षेश दुनिया के साथ गेम खेल रहा है यह भी किसी द ग्रेट गेम से कम नहीं है। एक तरफ अमेरिका के दो दषक के प्रयास के साथ ढ़ाई हजार सैनिकों का खोना और 61 लाख करोड़ रूपए का सिफर नतीजा हो जाना साथ ही भारत समेत सभी को बेचैन करना तो वहीं दूसरी तरफ चीन इसे अपनी बड़ी सफलता समझ रहा है। गौरतलब है कि भारत अफगानिस्तान के साथ मौजूदा समय में एक अरब डाॅलर का व्यापार करता है और तीन बिलियन डाॅलर बीते एक दषक में निवेष कर चुका है। जिनेवा में भारतीय विदेष मंत्री एस जयषंकर ने कहा था कि अफगानिस्तान में भारत 4 सौ प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। जाहिर है अफगानिस्तान में भारत एक व्यापक उद्देष्य के साथ खूबसूरत रास्ता बना रहा था जो पष्चिम एषिया तक जाता है मगर चीन की उकसावे वाली नीति ने सारे सपने मानो तोड़ दिये हों।

चीन की विस्तारवादी नीति और षेश दुनिया को परेषानी में डालने वाला दृश्टिकोण या फिर उसके आर्थिक हितों से जुड़ी दिलचस्पी भले ही तालिबानियों की सत्ता में आने से परवान चढ़े मगर वह इस चिंता से बेफिक्र नहीं हो सकता कि इस्लामिक गुट देर-सवेर और मजबूती लेंगे जिससे उसका घर भी जल सकता है। गौरतलब है कि षिनजियांग में उसके लिये कुछ मुसीबतें हो सकती हैं। पड़ताल बताती है कि अफगानिस्तान जमाने से विदेषी ताकतों के लिए मैदान का जंग रहा है और जोर-आजमाइष चलती रही है। अब इस बार इसमें चीन षुमार है। जाहिर है अफगानिस्तान की नई सरकार चीन को प्राथमिकता देगी और चीन आने वाले कुछ ही दिनों में पुर्ननिर्माण कार्य में निवेष करता भी दिखेगा फिर धीरे-धीरे अपनी ताकत के बूते अफगानिस्तान को भी आर्थिक गुलाम बनायेगा जैसा कि पाकिस्तान में देखा जा सकता है। दक्षिण एषिया में चीन की दखल, आसियान देषों पर चीन का दबदबा और पष्चिम एषिया में भारत की पहुंच को कमजोर करने वाला चीन एक ऐसा छुपा हुआ जहर है जिसे दुनिया जानती तो है मगर फन कुचला जाना मुष्किल हो रहा है। चीन और तालिबान के गठजोड़ से यह जहर बढ़ेगा नहीं ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता। अन्ततः यह कह सकते हैं कि यह एक गम्भीर वक्त है भारत को अपनी कूटनीतिक दषा और दिषा को नये होमवर्क के साथ आगे बढ़ाने की फिर आवष्यकता पड़ गयी है। 

(21 अगस्त, 2021)


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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जीएसटी और सुशासन

यदि सुशासन को नाम बड़े और दर्षन छोटे की हकीकत से आगे बढ़ना है तो जरूरी है कि यह नागरिकों की समस्याओं को सुलझाए। भारतीय राजनीति के सामने सुषासन की दिषा में अभी विविध प्रकार की चुनौतियों की भरमार है। आर्थिक चुनौतियां मौजूदा समय में सबसे अधिक विकराल रूप लिए हुए है और कई को पटरी पर लाने की कवायद जारी है मगर इन सबके बीच सुखद पक्ष यह है कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में उगाही दर बढ़त बनाये हुए है। जिससे यह तो पता चलता है कि आर्थिक गतिविधियां तुलनात्मक बेहतर हो रही हैं मगर रिज़र्व बैंक के हालिया समीक्षा रिपोर्ट को ध्यान में रखें तो महंगाई के भार से अभी एक साल पीछा नहीं छूटेगा मगर विकास प्राथमिकता में रहेगा। वित्त बगैर ऊर्जा नहीं और ऊर्जा बगैर कुछ नहीं यह ष्लोगन दषकों पहले कहीं पढ़ने को मिला था जो आज के दौर में कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। सुषासन तभी सम्भव कहा जायेगा जब जनहित की समस्याएं निर्मूल हों। समावेषी विकास की राह हो और षान्ति और खुषहाली का बड़ा वातावरण हो और यह तब हो सकता है जब सुषासन हो और सुषासन तभी होगा जब समुचित वित्त होगा। इसी धारा में एक व्यवस्था अप्रत्यक्ष कर जीएसटी है जो आर्थिक इंजन के तौर पर देष में 1 जुलाई, 2017 को परोसी गयी जिसकी चार साल की यात्रा हो चुकी है। सुषासन की दृश्टि से जीएसटी को देखा जाये तो यह बल इकट्ठा करने का एक आर्थिक परिवर्तन था मगर सफलता कितनी मिली यह पड़ताल से जरूर पता चलेगा। हालांकि 24 जुलाई 1991 को जब उदारीकरण एक बड़ा आर्थिक नीति और परिवर्तन का स्वरूप लेकर प्रकट हुआ था तब उम्मीदें भी बहुत थी और कहना गलत न होगा कि 3 दषक पुरानी इस व्यवस्था ने निराष नहीं किया बल्कि इसी दौर के बीच में सुषासन को 1992 में सांस लेने का अवसर मिला जिसकी धड़कन की आवाज कमोबेष आज सुनी और समझी जा सकती है।  

देष में कई सारे अप्रत्यक्ष करों को समाहित कर आज से ठीक 4 साल पहले 1 जुलाई 2017 को एक नया आर्थिक कानून वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू हुआ था। इस एकल कर व्यवस्था से राज्यों को होने वाले राजस्व कर की भरपाई हेतु पांच साल तक मुआवजा देने का प्रावधान भी इसमें षामिल था जिसके लिए एक कोश बनाया गया जिसका संग्रह 15 फीसद तक के सेस से होता है। नियमसंगतता की दृश्टि से जीएसटी के उक्त संदर्भ सुषासन के समग्रता को परिभाशित करते हैं मगर वक्त के साथ व्याप्त कठिनाईयों ने इस पर सवाल भी खड़ा किये। गौरतलब है कि जीएसटी लागू होने से पहले ही केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आपस में इस बात पर सहमति का प्रयास किया गया था कि इसके माध्यम से प्राप्त राजस्व में केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व का बंटवारा किस तरह किया जायेगा। ध्यानतव्य हो कि पहले इस तरह के राजस्व का वितरण वित्त आयोग की सिफारिषों के आधार पर किया जाता था। जीएसटी का एक महत्वपूर्ण संदर्भ यह रहा है कि इस प्रणाली के लागू होने से कई राज्य इस आषंका में षामिल रहे हैं कि इनकी आमदनी इससे कम हो सकती है और यह आषंका सही भी है। हालांकि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र ने राज्यों को यह भरोसा दिलाया था कि साल 2022 तक उनके नुकसान की भरपाई की जायेगी। मगर पड़ताल यह बताती है कि बकाया निपटाने के मामले में केन्द्र सरकार पूरी तरह खरी नहीं उतर पा रही है और यह सुषासन की दृश्टि से उतना समुचित नहीं है। समझने वाली बात यह भी है कि पिछले साल दो लाख 35 हजार करोड़ रूपए की राजस्व कमी पर केन्द्र सरकार ने राज्यों को सुझाव दिया था कि वे इस कमी को पूरा करने के लिए उधार लें जिससे राज्यों में सहमति का अभाव देखा जा सकता है। इसी दौरान सरकार ने दो विकल्प सुझाये थे पहला यह कि राज्य सरकारें राजस्व की भरपाई हेतु कुल राजस्व का आधा उधार उठायेंगी और उसके मूल और ब्याज दोनों की अदायगी भविश्य में विलासिता वाली वस्तुओं और अवगुण वाली वस्तुओं पर लगाये जाने वाली क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी। दूसरा विकल्प यह था कि राज्य सरकारें पूरे नुकसान की राषि को उधार लेंगी लेकिन उस परिस्थिति में मूल की अदायगी को क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी मगर ब्याज के बड़े हिस्से की अदायगी उन्हें स्वयं करनी होगी। पहले विकल्प को बीजेपी षासित और उनके गठबंधन वाली सरकारों ने तो स्वीकार किया लेकिन षेश 10 राज्यों ने इसे खारिज किया। केन्द्र-राज्य सम्बंध की दृश्टि से यदि सुषासन को तराजू के दोनों पलड़ों पर रखा जाये तो यहां संघीय ढांचे पर बराबर उतरता दिखाई नहीं देता।

पड़ताल यह बताती है कि वित्तीय सम्बंध के मामले में संघ और राज्य के बीच समय-समय पर कठिनाईयां आती रही हैं। सहकारी संघवाद के अनुकूल ढंाचा की जब भी बात होती है तो यह भरोसा बढ़ाने का प्रयास होता है कि समरसता का विकास हो। आरबीआई के पूर्व गर्वनर डी0 सुब्बाराव ने कहा था कि जिस प्रकार देष का आर्थिक केन्द्र राज्यों की ओर स्थानांतरित हो रहा है उसे देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारत का आर्थिक विकास सहकारी संघवाद पर टिका देखा जा सकता है। गौरतलब है कि संघवाद अंग्रेजी षब्द फेडरेलिज़्म का हिन्दी अनुवाद है और इस षब्द की उत्पत्ति लैटिन भाशा से हुई है जिसका अर्थ समझौता या अनुबंध है। जीएसटी संघ और राज्य के बीच एक ऐसा अनुबंध है जिसे आर्थिक रूप से सहकारी संघवाद कहा जा सकता है मगर जब अनुबंध पूरे न पड़े तो विवाद का होना लाज़मी है और सुषासन को यहीं पर ठेस पहुंचना भी तय है। वित्तीय लेन-देन के मामले में अभी भी समस्या समाधान पूरी तरह नहीं हुआ। जुलाई 2017 में पहली बार जब जीएसटी आया तब इस माह का राजस्व संग्रह 95 हजार करोड़ के आसपास था। धीरे-धीरे गिरावट के साथ यह 80 हजार करोड़ पर भी पहुंचा था और यह उतार-चढ़ाव चलता रहा। जीएसटी को पूरे 4 साल हो गये मगर इन 48 महीनों में बहुत कम अवसर रहे जब यह 1 लाख करोड़ रूपए के आंकड़े को पार किया। कोविड-19 महामारी के चलते अप्रैल 2020 में इसका संग्रह 32 हजार करोड़ तक आकर सिमट गया जबकि दूसरी लहर के बीच अप्रैल 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 41 हजार करोड़ का है जो पूरे 4 साल में सर्वाधिक है। हालांकि बीते 8 महीने से जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक का बना हुआ है। मगर जून 2021 में यह 93 हजार पर सिमट गया जबकि जुलाई में यह एक बार फिर एक लाख करोड़ रूपए से कहीं अधिक उछाल के साथ यह बता दिया कि यह घटाव से परे है। एक दौर ऐसा भी था कि दिसम्बर 2019 तक पूरे 30 महीने के दरमियान सिर्फ 9 बार ही अवसर ऐसा था जब जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक हुआ था। जब जीएसटी षुरू हुआ था तब करदाता 66 लाख से थोड़े अधिक थे और आज यह संख्या सवा करोड़ से अधिक हो गया है। जाहिर है अप्रत्यक्ष कर के साथ कई तकनीकी समस्या हो सकती है पर जीएसटी संग्रह का लगातार बढ़ना और करदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि इसके सुषासनिक पक्ष को मजबूती की ओर ही इंगित करता है।

जीएसटी के इस चार साल के कालखण्ड में जीएसटी काउंसिल की 44 बैठकें और हजार से अधिक संषोधन हो चुके हैं। कुछ पुराने संदर्भ को पीछे छोड़ा जाता है तो कुछ नये को आगे जोड़ने की परम्परा अभी भी जारी है। गौरतलब है कि संविधान स्वयं में एक सुषासन की कुंजी है जहां सभी के अधिकार और स्वायत्ता को पहचान मिलती है और यहीं से सभी का कद-काठी भी बड़ा होता है। संघ और राज्य के वित्तीय मामलों में संवैधानिक प्रावधान को भी संविधान में देखा जा सकता है। समझना यहां ठीक रहेगा। अनुच्छेद 275 संसद को इस बात का अधिकार प्रदान करता है कि वह ऐसे राज्यों को उपयुक्त अनुदान देने का अनुबंध कर सकती है जिन्हें संसद की दृश्टि में सहायता की आवष्यकता है। अनुच्छेद 286, 287, 288 और 289 में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को एक दूसरे द्वारा कुछ वस्तुओं पर कर लगाने से मना किया गया है। अनुच्छेद 292 व 293 क्रमषः संघ और राज्य सरकारों से ऋण लेने का प्रावधान भी करते हैं। गौरतलब है कि संघ और राज्य के बीच षक्तियों का बंटवारा है संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ, राज्य और समवर्ती सूची के अंतर्गत इसे बाकायदा देखा जा सकता है। जीएसटी वन नेषन, वन टैक्स की थ्योरी पर आधारित है जो एकल अप्रत्यक्ष कर संग्रह व्यवस्था है। जिसमें संघ और राज्य आधी-आधी हिस्सेदारी रखते हैं। 80वें संविधान संषोधन अधिनियम 2000 और 88वें संविधान संषोधन अधिनियम 2003 द्वारा केन्द्र-राज्य के बीच कर राजस्व बंटवारे की योजना पर व्यापक परिवर्तन दषकों पहले किया गया था जिसमें अनुच्छेद 268डी जोड़ा गया जो सेवा कर से सम्बंधित था। बाद में 101वें संविधान संषोधन द्वारा नये अनुच्छेद 246ए, 269ए और 279ए को षामिल किया गया तथा अनुच्छेद 268 को समाप्त कर दिया गया। गौरतलब है राज्य व्यापार के मामले में कर की वसूली अनुच्छेद 269ए के तहत केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है जबकि बाद में इसे राज्यों को बांट दिया जाता है। जीएसटी केन्द्र और राज्य के बीच झगड़े की एक बड़ी वजह उसका एकाधिकार होना भी है। क्षतिपूर्ति न होने के मामले में तो राज्य केन्द्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कह चुके हैं। काफी हद तक इसे जीएसटी को महंगाई का कारण भी राज्य मानते हैं। सवाल यह भी है कि वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी जब अभी वायदे राज्यों से किये गये वायदे पर पूरी तरह खरा नहीं उतर रहा है तो 2022 के बाद क्या होगा जब क्षतिपूर्ति देने की जिम्मेदारी से केन्द्र मुक्त हो जायेगा। दो टूक यह भी है कि सुषासन, षान्ति का पर्याय है तो जीएसटी वित्त का। यदि वित्त का संदर्भ उचित होगा तो षान्ति समुचित होगी साथ ही संघ और राज्य संतुलित भी रहेंगे तथा सुषासन का कद तुलनात्मक बढ़ा रहेगा। 



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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मानसून सत्र का पूरा सच

जब भी सत्र की शुरुआत होती है तब इस बात की सुगबुगाहट जोर पकड़ती है कि क्या देष के नागरिकों की उम्मीदों पर माननीय खरे उतरेंगे। पिछले साल के मानसून सत्र पर कोरोना की काली छाया थी। बावजूद इसके आंकड़े यह बताते हैं कि 167 फीसद कार्य उत्पादकता के साथ लोकसभा ने इतिहास रच दिया था और माना गया कि लोकसभा के किसी भी सत्र में यह उपजाऊ सत्र रहा है। मगर हालिया मानसून सत्र जो 19 जुलाई से प्रारम्भ होकर 11 अगस्त को समाप्ति लिया है उसके हालात काफी अलग और निराष करने वाले रहे हैं। कुल 96 घण्टे काम-काज के लिये तय थे जिसमें 74 घण्टे से अधिक समय तक हंगामा ही रहा। हालांकि अनुमान के मुताबिक 20 विधेयकों को मंजूरी मिली। इस सत्र में 66 तारांकित प्रष्नों के मौखिक उत्तर दिये गये। गौरतलब है कि तारांकित वे प्रष्न होते हैं जिनका उत्तर तत्काल और मौखिक दिया जाता है। 60 प्रतिवेदन स्थायी समितियों द्वारा प्रस्तुत किये गये और 22 मंत्रियों ने वक्तव्य दिये। राज्यसभा की पड़ताल बताती है कि यहां काम-काज के लिए 98 घण्टे निर्धारित थे मगर यहां भी हंगामा लोकसभा से अधिक बरपा है जिसके चलते 76 घण्टे विरोध में चले गये। हालांकि इस बीच यहां 19 बिल पारित हुए जिसमें अंतिम बिल राज्यों को ओबीसी सूची बनाने से जुड़ा विधेयक था। प्रतिषत की दृश्टि से देखें तो लोकसभा में 22 और राज्यसभा में 28 फीसद काम हुआ है। पूरे सत्र के दौरान कोई ऐसा दिन नहीं था जब हंगामा न हुआ हो और स्पीकर से लेकर सभापति को व्यवस्था बनाये रखने को अतिरिक्त ऊर्जा न लगानी पड़ी हो। सरकार और विपक्ष दो ऐसे संदर्भ हैं जो साथ न रहकर भी हमेषा साथ रहते हैं। मगर बेहद मजबूत सरकार और पिछले सात दषक में सबसे कमजोर विपक्ष के सामने जिस तरह मोदी सरकार बेबस होती है उसे पचाना कठिन हो जाता है। 

गौरतलब है कि पिछले साल 2020 में 14 सितम्बर से 24 सितम्बर के बीच 10 दिवसीय मानसून सत्र में 25 विधेयक पारित किये गये थे साथ ही कई और नये रिकाॅर्ड बने। 21 सितम्बर को तो लोकसभा की उत्पादक क्षमता 234 फीसद आंकी गयी जो अब तक के किसी भी सत्र के एक दिन की कार्यवाही में सर्वाधिक है। इसके पहले 8वीं लोकसभा के तीसरे सत्र में लोकसभा की कार्य उत्पादकता 163 फीसद रही है। हालांकि कोरोना के उस दौर में सत्र को 1 अक्टूबर तक चलना था मगर इसे बीच में ही खत्म कर दिया गया। हंगामा से उक्त सत्र भी खाली नहीं था मगर इस बार जिस तरह समस्यायें बढ़ी हैं उससे लगता है कि सरकार की ओर से कई अच्छे कदम की कमी रही है। लोकतंत्र में हमेंषा सरकार की वाह-वाही को उचित करार नहीं दिया जा सकता और बार-बार विपक्ष को हाषिये पर रखना भी न्यायोचित नहीं होता। सरकार जनहित को सुनिष्चित करती है तो विपक्ष कमी की ओर ध्यान दिलाता है। मगर जब सरकारें विपक्ष को नजरअंदाज करती हैं या अड़ियल रवैया अपनाती हैं या फिर विपक्ष बेवजह राजनीति की फिराक में हो-हंगामा खड़ा करता है तो हर परिस्थिति में नुकसान में जनता ही होती है। संसद सत्र देष की उम्मीद होता है और उम्मीदों को टूटने न देने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा सरकार की होती है। सरकार यह कहकर नहीं बच सकती कि विपक्ष ने कुछ करने नहीं दिया। लोकतंत्र कोई एक पक्षीय व्यवस्था नहीं है बल्कि यह बहुपक्षीय के साथ बहुधारा लिये होती है और इसी के बीच जनता का हित भी होता है जाहिर है सवाल जितने होंगे सरकार की जवाबदेही उतनी ही बढ़ेगी और इससे न केवल संसद के प्रति जनता का भरोसा बढ़ेगा बल्कि सत्र में बहुत कुछ होता दिखेगा भी। हालांकि इस सत्र में हंगामा बरपा जरूर है मगर काम-काज के लिहाज़ से जो बिल पारित हुए हैं उसे देखते हुए स्थिति संतोशजनक ही कही जायेगी। 

कामकाज के लिहाज से देखा जाय तो पहली लोकसभा (1952 से 1957) में 677 बैठकें हुई थी। 5वीं लोकसभा (1971 से 1977) में 613 जबकि 10वीं लोकसभा (1991 से 1996 ) में यह औसत 423 का था। मोदी षासनकाल से पहले 15वीं लोकसभा (2009 से 2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। 16वीं लोकसभा की पड़ताल ये बताती है कि यहां बैठकों की कुल अवधि 1615 घण्टे रही लेकिन अतीत की कई लोकसभा के मुकाबले यह घण्टे काफी कम नजर आते हैं। एक दल के बहुमत वाली अन्य सरकारों के कार्यकाल के दौरान सदन में औसत 2689 घण्टे काम में बिताये हैं लेकिन यहां बताना लाज़मी है कि काम इन घण्टों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि 16वीं लोकसभा में किस तरह काम किया, किस तरह के कानून बनाये, संसदीय लोकतंत्र में कैसी भूमिका थी, क्या सक्रियता रही और लोकतंत्र के प्रति सरकार का क्या नजरिया रहा इन सवालों पर यदि ठीक से रोषनी डाली जाये तो काम के साथ निराषा भी नजर आती है। लोकसभा के उपलब्ध आंकड़े यह बताते हैं कि मोदी षासन के पहले कार्यकाल के दौरान लोकसभा में कुल 135 विधेयक मंजूर कराये गये। जिसमें कईयों को राज्यसभा में मंजूरी नहीं मिली। हालांकि जीएसटी, तीन तलाक और सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण समेत कई फलक वाले कानून इसी कार्यकाल की देन है। अब 17वीं लोकसभा का दौर जारी है। रिपोर्ट 2024 में मिलेगा। समाप्त मानसून सत्र के अन्तिम दिन राज्यसभा में ओबीसी आरक्षण से जुड़ा 127वां संविधान संषोधन विधेयक 2021 सभी दलों की सर्वसम्मति से पारित हो गया। यह बिल एक बड़े समुदाय को प्रतिबिम्बित करता है जो षायद आने वाले दिनों में 50 फीसद के आरक्षण की सीमा को भी फेरबदल कर सकता है साथ ही भारतीय राजनीति में वोट की दृश्टि से भारयुक्त हो सकता है हालांकि अभी राश्ट्रपति की अनुमति मिलना बाकी है। फिलहाल सत्र में कामकाज के घटते घण्टे और बरपते हंगामों संसद सत्र को बचाने की जिम्मेदारी भी सरकार और विपक्ष दोनों की है। ऐसे में इस वर्श का षीत सत्र कई बकाया को मुकाम देगा साथ ही जनता के हित में कहीं अधिक कारगर होने की उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं है।

(12 अगस्त, 2021)


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सुरक्षा परिषद में भारत का कद

वर्तमान में भारत 8वीं बार संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्य है मगर स्थायी सदस्यता का मामला दषकों से खटाई में है। अमेरिका और रूस समेत दुनिया के तमाम देष स्थायी सदस्यता को लेकर भारत के पक्षधर हैं सिवाय चीन के। दो टूक यह है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में भारत भले ही स्थायी सदस्य के तौर पर जगह न बना पाया हो मगर उसका कद लगातार बढ़ा हुआ देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी बीते 9 अगस्त को समुद्री सुरक्षा विशय पर इसी सुरक्षा परिशद् की ओर से आयोजित खुली परिचर्चा की अध्यक्षता की। बीते सात दषकों में यह पहला अवसर है जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसा किया है। गौरतलब है कि दक्षिण चीन सागर में कई देषों के साथ चीन की तनातनी है। दुनिया के तमाम देष इस सागर से व्यापार करते हैं। आसियान और एषिया पेसिफिक के कई देष यहां तक कि अमेरिका और यूरोप समेत विभिन्न देष दक्षिण चीन सागर पर चीन के आधिपत्य को लेकर आपत्ति करते रहे हैं। भारत भी इसका मुखर विरोधी रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने सम्बोधन में समुद्र को अन्तर्राश्ट्रीय व्यापार की जीवन रेखा बताया और विवादों का निपटारा षान्तिपूर्ण तरीके से अन्तर्राश्ट्रीय कानूनों के अनुरूप करने की बात दोहराई। इसमें कोई दुविधा नहीं कि समुद्र एक साझा धरोहर है और कोई देष आधिपत्य जमाये तो यह षेश दुनिया के लिए ठीक नहीं है।

दुनिया का कोई देष जब कद में बड़ा होता है तो उसकी आवाज भी असर डालती है। भारत 1950-51 में पहली बार सुरक्षा परिशद् का अस्थायी सदस्य बना और सिलसिलेवार तरीके से 2021-22 में 8वीं बार यहां स्थापित देखा जा सकता है। हालांकि सुरक्षा परिशद् में परिवर्तन की मांग भी बरसों पुरानी है। परिवर्तन के साथ भारत के कद में बढ़ोत्तरी होना भी लाज़मी है। कई ऐसी वजह हैं जिसकी वजह से भारत स्थायी सदस्यता नहीं प्राप्त कर पा रहा है। इसके पीछे एक बड़ी वजह चीन भी है। साथ ही सुरक्षा परिशद् में 5 स्थायी सदस्यों की ही जगह है। खास यह भी है कि इन पांच में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज़ से वह बामुष्किल 5 फीसद स्थान घेरता है, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य इसमें स्थायी नहीं है जबकि संयुक्त राश्ट्र का 50 फीसद कार्य इन्हीं से सम्बंधित है। ढांचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व भी दिखता है जबकि पड़ोसी चीन स्थायी सदस्य के तौर पर भारत के खिलाफ अक्सर वीटो का उपयोग करता है जबकि नैसर्गिक मित्र रूस भारत के पक्ष में यहां खड़ा मिलता है। 

भारत का कद संयुक्त राश्ट्र में तब बढ़ेगा जब स्थायी रूप से सदस्यता मिलेगी और भारत इसका हकदार भी है। जनसंख्या की दृश्टि से दूसरा बड़ा देष, प्रगतिषील अर्थव्यवस्था और जीडीपी की दृश्टि से भी प्रमुखता वाले देषों में षामिल रहा है। हालांकि कोरोना काल में हालत ठीक नहीं है और अर्थव्यवस्था तो बेपटरी हो चली है। भारत को विष्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावषाली माना जाता है और अब तो जी-7 के विस्तार पर न केवल चर्चा हो रही है बल्कि भारत को भी षामिल करने की बात उठ रही है। अफ्रीकी समूह में 54 देष हैं जो सुरक्षा परिशद् में सुधारों की वकालत करते रहे हैं। यहां से भी मांग है कि कम से कम दो राश्ट्रों को वीटो की षक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाये। यदि भारत स्थायी सदस्य होता है तो चीन के चलते जो व्याप्त असंतुलन है उसको पाटने में भी मदद मिलेगी। वैसे संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य बनना भी बढ़े हुए कद का ही प्रमाण होता है क्योंकि इसके लिए भी दुनिया के देषों को अपने पक्ष में रहना जरूरी होता है। गौरतलब है कि अस्थायी सदस्यों का चयन मतदान के जरिये होता है। संयुक्त राश्ट्र के दो-तिहाई वोट हासिल करने वाले देष ही अस्थायी सदस्य चुने जाते हैं। जब पहली बार भारत अस्थायी सदस्य बना था तब कुल 58 वोट की तुलना में उसे 56 वोट मिले थे जबकि हाल की स्थिति में कुल 192 वोट के मुकाबले उसे 184 वोट मिले। पड़ताल बताती है कि भारत सिलसिलेवार तरीके से दो-तिहाई बहुमत नहीं बल्कि तीन-चैथाई बहुमत के साथ अस्थायी सदस्य चुना जाता रहा है मगर स्थायी सदस्यता के आभाव में यहां कद-काठी का और बेहतर होना बाकी है। 

(दिनांक : 12 अगस्त, 2021)


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com