Monday, July 31, 2017

भारत की मुसीबत दो पड़ोसी

यह बात भारत कैसे पचा सकता है कि पाकिस्तान से आतंकवाद और चीन से सीमा विवाद को लेकर वह हमेषा आशंकित रहे। देश में हजारों-लाखों में समस्याएं व्याप्त हैं गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शिक्षा  एवं चिकित्सा समेत लोक कल्याण के अनेकों काज सरकार को करने होते हैं। इन सबके अलावा चीन और पाकिस्तान जैसे कुदृश्टि रखने वाले पड़ोसी देषों से भी निपटना सरकार की जिम्मेदारी है। गौरतलब है कि पाकिस्तान और चीन द्वारा भारत में अस्थिरता पैदा करने की चेश्ट करना और उसके उत्थान एवं विकास को लेकर रोड़े अटकाना उनका मुख्य एजेण्डा है। इसमें कोई षक नहीं कि भारत अपनी उदारता और बंद नीतियों के चलते कभी इनके विरूद्ध खुलकर कूटनीतिक चाल नहीं चली जिसका खामियाजा है कि भारत पड़ोसियों से उपहार में मिली समस्या से जूझता रहा। औपनिवेषिक काल में यह बात अक्सर पढ़ने को मिलती रही है कि उत्तरदायी षासन के आभाव में भारतीय अंग्रेजों द्वारा षोशण के षिकार होते थे। इसी तर्ज पर बात आगे बढ़ाये तो चीन और पाकिस्तान का भारत के प्रति अनुत्तरदायी तरीका और निहायत निजी महत्वाकांक्षा के चलते मुसीबत के सबब बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग की आपसी मुलाकात पांच बार हो चुकी है। नवाज़ षरीफ जो अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नहीं हैं उनसे भी मुलाकात का सिलसिला दहाई की ओर झुका हुआ है। भारत के सामने हाथ मिलाने की रस्म अदायगी चीन और पाकिस्तान करते रहे और पीठ पीछे वार करने में पीछे भी नहीं रहे। पाकिस्तान सीमा पर सीज़ फायर का उल्लंघन प्रति वर्श की दर से सैकड़ों की मात्रा करता है, आतंकियों के सहारे कष्मीर में अस्थिरता पैदा करता है जिसे लेकर आज भी भारत दो-चार हो रहा है जबकि चीन डोकलाम का ताजा विवाद करके अनाप-षनाप पर उतारू है। गौरतलब है कि सितम्बर, 2016 में हुए उरी घटना के 10 दिन के भीतर पीओके में भारतीय सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक किया गया था। बावजूद इसके सैनिकों के षहीद होने के सिलसिले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिस तर्ज पर पाकिस्तान आतंकियों के सहारे अपने मंसूबे पूरे करता है उससे भी साफ है कि भारत को अस्थिर करना उसकी पुरानी बदनीयति में षुमार है और इसमें खाद-पानी देने का काम चीन भी करता है। मसलन संयुक्त राश्ट्र संघ के सुरक्षा परिशद् में जब पाक आतंकियों को अंतर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित करने की बात होती है तो चीन वीटो करके ऐसा करने से रोक देता है। लखवी से लेकर अजहर मसूद तक इसके उदाहरण हैं। 
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ अब प्रधानमंत्री नहीं हैं क्योंकि पनामा पेपर्स लीक मामले में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट द्वारा वे अयोग्य करार दिये जाने तत्पष्चात् पद से इस्तीफा दे चुके हैं। जाहिर है पाकिस्तान में इस पद की रिक्तता आई जिसकी भरपाई हेतु फिलहाल अन्तरिम प्रधानमंत्री के रूप में षाहिद खाकन अब्बासी को नामित कर दिया गया है। बाद में इस पद पर नवाज़ षरीफ के भाई षाहबाज़ षरीफ काबिज होंगे। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान के सत्ताधारक राजनीति के प्रतीक नहीं बल्कि ये शड़यंत्र, भ्रश्टाचार और आतंकियों को पालने-पोसने वाले भी होते हैं। पाकिस्तान लोकतंत्र का दम भरता है पर यहां का लोकतंत्र सेना द्वारा अक्सर कुचला जाता रहा है। बात यहीं तक नहीं है आईएसआई और आतंकी संगठन भी सरकार की नीतियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दखल रखते हैं। उपरोक्त बातें पाकिस्तान की सीमा तक ही हों तो हमें कोई तकलीफ नहीं है पर यही जब भारत पर बुरी नजर डालते हैं तो समस्या मुखर हो जाती है। पाकिस्तान का एक इतिहास भ्रश्टाचार का भी है। यहां के प्रधानमंत्री बिना भ्रश्टाचार से नहाये षुद्ध नहीं होते हैं। नवाज़ षरीफ ने जब कहा कि क्या पाकिस्तान में सब लोग षरीफ हैं तो मलाल बाहर आ गया। आय से अधिक सम्पत्ति रखने वाले षरीफ हमेषा भारत से अच्छे सम्बंध की दुहाई देते रहे। विष्व के मंचों पर आतंकियों से निपटने और भारत के खिलाफ इसके प्रयोग को रोकने को लेकर छाती पीटते रहे पर किया इसके उलट। जाहिर है षरीफ की षराफत उनके नाम के हिसाब से कभी उनके साथ नहीं रही। अब सत्ता बदल गयी है तो सवाल स्वाभाविक हो जाता है कि क्या भारत पर कुदृश्टि रखने वाला पाकिस्तान इससे बाज़ आयेगा। इसकी सम्भावना भारत ने करे तो ही ठीक रहेगा। षरीफ सत्ता से बाहर हैं पर अभी अब्बासी और बाद में दूसरे षरीफ के माध्यम से खुद की कुरीतियों को आगे नहीं बढ़ायेंगे इसकी क्या गारंटी है।
आषंका तो यह भी जाहिर की जा रही है कि पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन का फायदा सीधे यहां की सेना उठा सकती है और इसका सीधा नुकसान भारत को उठाना पड़ सकता है। पाकिस्तान मंे फिलहाल इन दिनों लोकतंत्र की तस्वीर जो धुंधली हुई है इसके अंधेरे में आतंकवाद का इस्तेमाल और आक्रामक हो सकता है। यह बात इसलिए क्योंकि कभी भी पाकिस्तान की सेना भारत के साथ बेहतर सम्बंध की कोषिष नहीं की है। ऐसे में जब सत्ता अस्थिरता के दौर में हो तो सेना हावी हो सकती है। पाकिस्तान के इतिहास में लोकतंत्र और सेना का दबदबा समान रूप से साथ चलें हैं और हद तब हुई है जब सेना ने दुस्साहस करते हुए न केवल सत्ता उखाड़ी है बल्कि सत्ताधारकों को मौत की सजा भी दी है। नवाज़ षरीफ को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब वर्श 1999 में परवेज़ मुषर्रफ ने उन्हें सत्ता से बेदखल किया था तथा जान के लाले पड़े थे फिलहाल राजनीतिक सौदेबाजी के चलते उनकी जान तो बच गयी थी परन्तु उन्हें बरसों तक निर्वासित जीवन जीना पड़ा था। गौरतलब है कि पाक की सेना वहां की सरकार भी निगलती है। इसकी परिभाशा और व्याख्या से षरीफ बाखूबी वाकिफ हैं। यदि उनके उत्तराधिकारियों ने सेना को मजबूत होने का अवसर दिया तो यह पाकिस्तान की ही गले की हड्डी बन जायेंगे। पाकिस्तानी सेना आतंकवादियों के साथ मिलकर भारत को कश्ट देने में कभी पीछे नहीं रही और इनके आगे पाकिस्तानी सत्ताधारक भी मानो भीगी बिल्ली बने रहते हैं।
भारत में सीमा विवाद उत्पन्न करने वाला दूसरा और सबसे विवादित पड़ोसी इन दिनों चीन भी खूब चुनौती दे रहा है और यह बता रहा है कि उसकी सेना हर जंग के लिए तैयार है। बीते रविवार को चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग जब चीन की पीपुल्स लिबरेषन आर्मी के 90वें स्थापना दिवस पर परेड़ का निरीक्षण कर रहे थे तब चीनी सेना को हर जंग के लिए तैयार और सभी हमलावर दुष्मनों को हराने में सक्षम की बात कह रहे थे। खुली जीप में सैनिक की वर्दी में मिलिट्री परेड का मुआयना करते जिनपिंग ने 23 लाख चीनी सेनाओं में जो बातें कूट-कूटकर भरी उससे स्पश्ट है कि चीन भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में लेना चाहता हैं। हालांकि जिनपिंग के पूरे 10 मिनट के भाशण में मौजूदा विवाद डोकलाम को लेकर कोई चर्चा नहीं थी। तिब्बत, ताइवान और डोकलाम के रास्ते भूटान पर कुदृश्टि रखने वाले चीन की जबरदस्ती जारी है। सोचने वाली बात यह है कि चीनी विदेष एवं रक्षा मंत्रालय तथा चीन के मीडिया का यह आरोप कि भारत डोकलाम में अतिक्रमण कर रहा है। जबकि जिनपिंग इस विवाद को अपने भाशण से अलग रख रहे हैं। इसका आषय यह हो सकता है कि चीन की सैन्य अभ्यास और धमकाने के अंदाज में आई बयानबाजियों से भारत का रूख और तीव्र होने से चीन अपनी रणनीति बदल रहा हो। यह चीन की नई चाल भी हो सकती है फिलहाल भारत को चैकन्ना रहना होगा। पाक से सटी सीमा और चीन से अटी हजारों किलोमीटर की सीमा इन दोनों देषों के छल का कभी भी षिकार हो सकती है। ऐसे में रणनीतिक तौर पर भारत को ढीला नहीं पड़ना चाहिए। दो टूक यह भी है कि भारत को खुली नीति और कोठरी में बंद कूटनीति को फलक पर लाकर खिलाफ खड़े पड़ोसियों को मजबूती के साथ आईना दिखाना ही होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, July 24, 2017

पुराने की नसीहत और नए का आगाज़

आज 25 जुलाई है। भारतीय गणतंत्र और लोकतंत्र का एक ऐसा दिन जहां राष्ट्रपति  के तौर पर एक की विदाई तो दूसरे का आगमन हो रहा है। गौरतलब है कि बीते पांच वर्ष से इस पद पर प्रणब मुखर्जी रहे और अब रामनाथ कोविंद स्थान लेंगे। गणतंत्र की यही खूबी रही है कि देष के राश्ट्राध्यक्ष को चुनने का अवसर प्रति पांच वर्श में एक बार आता है और लोकतंत्र की भी यह खासियत रही है कि किसी भी प्रकार के पदासीन व्यक्तित्व में जनता ने अपनी अपेक्षाओं को दिल खोलकर उनमें झांका है। साफ है कि प्रणब मुखर्जी से जो उम्मीदें देष को रही उसे बनाये रखने में उन्होंने अपने हिस्से की भूमिका निभाई है। चुनौतियां कई हो सकती हैं, निपटारे के उपाय भी कई हो सकते हैं पर संयम और संतुलन को हमेषा बना पाना षायद सम्भव नहीं पर अपवाद साबित होने की होड़ में निवर्तमान राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संयम बनाये रखने में भी अव्वल रहे। जब विरासत सौंपी जाती है तो मुनाफा भी तुलनात्मक बढ़ा हुआ चाहा जाता है। सम्भव है कि उत्तराधिकारी रामनाथ कोविंद से इस पद की गरिमा और इसकी महिमा को बढ़े हुए दर पर ले जाने की उम्मीद प्रणब मुखर्जी को भी होगी। तभी तो जाते-जाते उन्होंने अपने आखिरी भाशण के दौरान सरकार को कई नसीहतें दे दी जिसका अनुपालन कराना रामनाथ कोविंद के लिए भी कम चुनौती नहीं है। रामनाथ कोविंद भाजपा के वरिश्ठ नेता रहे हैं। राश्ट्रपति बनने से पहले बिहार में राज्यपाल के पद पर थे पर अब इन सबसे कहीं अधिक ऊपर राश्ट्र के राश्ट्राध्यक्ष हैं। जाहिर है अब उनका दृश्टिकोण विस्तारवादी व समावेषी मापदण्डों से युक्त है और सभी के लिए समानदर्षी होगा।
बेहद जरूरी क्या होता है यह किसी राजनेता से पूछा जाय तो सभी के पास लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुपात में भिन्न-भिन्न उत्तर होंगे। लोकतंत्र में सभी जनता के लिए कुछ करने के इरादे जताते हैं पर सभी पूरक सिद्ध हुए हैं ऐसा कहा जाना सम्भव नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास को उठाकर देखें तो राज्यों में राजभवन और सरकार के बीच तनातनी दर्जनों बार देखने को मिलेगा पर कुछ अपवाद को छोड़ दिया जाय तो राश्ट्रपति और मंत्रिपरिशद् के बीच इसकी गुंजाइष नहीं रही है इसमें प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल भी षामिल है जबकि 2012 की जुलाई में यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी बीते तीन वर्शों से एनडीए के प्रधानमंत्री मोदी के षासनकाल में राश्ट्रपति के तौर पर बड़ा कार्यकाल निभाया है। प्रबंधषास्त्र में यह भी कहा गया है कि सिद्धान्त और व्यवहार को वही समान रूप से जी सकते हैं जिनमें लम्बे समय से संयमित रहने का अभ्यास हो। प्रधानमंत्री मोदी राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तारीफ करते नहीं थकते और प्रणब मुखर्जी मोदी की कई बार चिंता करते देखे गये हैं। 70 साल की आजादी और 67 साल के संविधान का पूरा लेखा-जोखा किया जाय तो देष की मौजूदा परिस्थिति में पाई-पाई का हिसाब समझा जा सकता है। नेतृत्व की परिभाशा में भी यह है कि व्यक्तित्व और उसका पद देष का भविश्य तय करता है। प्रणब मुखर्जी एक राश्ट्रपति के तौर पर जितने संयम के लिए जाने जाते हैं कमोबेष षायद उतने ही संयमित पहले के राश्ट्रपति भी रहे हैं। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद से लेकर डाॅ0 कलाम तक साधारण और संतुलित जीवन के व्यक्ति माने जाते हैं। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद प्रथम राश्ट्रपति थे और जब रायसीना से इनकी विदाई हुई तो ये पटना में एक छोटे से सीलन वाले मकान में सालों रहे। गौरतलब है कि डाॅ0 कलाम की पृश्ठभूमि और व्यक्तित्व जिस पारिस्थिति का था उस कसौटी पर वे भी किसी साधारण नागरिक से कभी भी स्वयं को ऊपर नहीं रखा। इसी प्रकार के व्यक्तित्व में के0 आर0 नारायणन की भी बात की जा सकती है। इसके अलावा भी कई राश्ट्रपति ऐसे हैं जो महामहिम होते हुए साधारणपन का परिचय दिया है। स्पश्ट है कि ऐसी अवधारणाओं के चलते इनकी महानता को लेकर हो रहे विमर्ष से पीढ़ियां प्रभावित हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी। वर्शों से मैं भी लेखन कार्य की भूमिका में हूं अब मुझे भी यह समझ में आ चुका है कि समाज व देष में निभाई गयी भूमिका का विमर्ष देर-सवेर होता जरूर है और यह आने वाली पीढ़ियों के लिए किसी साहित्य से कम नहीं होता। ऐसे में सभी को सधा हुआ कदम उठाना निहायत जरूरी इसलिए क्योंकि इतिहास बरसों तक दोहराया जाता है। प्रणब मुखर्जी की रायसीना से विदाई और रामनाथ कोविंद का आगमन जैसी अदला-बदली अब तक देष में 14 बार हो चुकी है। जाहिर है हर किसी को अपने हिस्से की जवाबदेही और संविधान के प्रति ली गई षपथ की साख के लिए अपवाद सिद्ध होना ही पड़ता है। 
लोकतंत्र के इतिहास में एक कमी यह रही है कि चुने हुए माननीय जनता के दुःख-दर्द को कार्यकाल के बीच में भूल जाते हैं। सेन्ट्रल हाॅल में अपनी विदाई समारोह के अवसर पर राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जो कुछ राजनीतिक दलों के लिए कहा उस पर विचार इसलिए भी हो क्योंकि कहीं-न-कहीं असंवेदनषीलता और संसद के अंदर षालीनता का आभाव पैदा हुआ है। उनका यह कहना कि केवल बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही अध्यादेष लाया जाना चाहिए बिल्कुल उचित है। इतना ही नहीं वित्तीय मामले में तो उन्होंने इसे बिल्कुल मना कर दिया। उनकी यह चिंता भी बहुत वाजिब है कि संसद में बिना चर्चे के ही विधेयक पारित कर दिये जाते हैं जो जनता का विष्वास तोड़ता है। हंगामे के कारण संसद बाधित होती है। जाहिर है इससे सरकार का नुकसान होता है पर प्रणब मुखर्जी की बेबाक राय यह थी कि सरकार से ज्यादा इससे विपक्ष का नुकसान होता है। स्पश्ट है कि प्रणब मुखर्जी बीते तीन सालों से दर्जनों सत्र के बीच संसद का जो हाल देखा उससे बाज आने की नसीहत भी इसमें षामिल थी। संविधान लागू होने से अब तक कई ऐसे अवसर आये हैं जब सरकारों ने अध्यादेष के जरिये बिना संसद का सामना किये कानून गढ़ने का काम किया। गौरतलब है कि 2014 का षीत सत्र 23 दिसम्बर को समाप्त हुआ था। ठीक दो दिन में ही भूमि अधिग्रहण अध्यादेष मोदी सरकार द्वारा लाया गया था जो आज तक कानूनी रूप नहीं ले पाया है क्योंकि इस पर विपक्ष का हमेषा विरोध रहा और राज्यसभा में संख्याबल की कमी के कारण मौजूदा सरकार ऐसा नहीं कर पाई है। गौरतलब है कि अध्यादेष लागू होने के बाद उसे अगले सत्र में यदि पारित नहीं किया गया तो वह समाप्त माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 123 में अन्तर्गत इसकी पूरी व्याख्या दी गयी है। 
फिलहाल अच्छी यादों के साथ रायसीना हिल से प्रणब मुखर्जी जो स्वयं को संसदीय लोकतंत्र की देन मानते हैं फिलहाल विदा हो चुके हैं। रामनाथ कोविंद को अब आगे की संवैधानिक परंपरा का निर्वहन करना है।  सरकार की छवि और विपक्ष की खींचातानी के बीच रामनाथ कोविंद को पांच साल काम करना है। ये ऐसी षख्सियत हैं जिन्हें हिसाब से चलना और चलाना षायद इनके लिए कठिन नहीं है। मोदी के चहेते हैं, एनडीए समेत विरोधियों ने भी उन्हें मत दिया है। जाहिर है राश्ट्रपति भवन और मंत्रिपरिशद् के बीच सब कुछ संयमित रहेगा। दूसरे दलित राश्ट्रपति हैं, पेषे से वकील भी रहे हैं। बीते ढ़ाई दषकों से भारतीय राजनीति को करीब से देख रहे हैं। कुल मिलाकर उनकी प्रोफाइल इस पद के अनुरूप तो है ही साथ ही चुनौतियों, समस्याओं आदि से निपटने में भी सक्षम है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि अन्यों की भांति कुछ अलग छाप उन्हें भी छोड़ना है। कहा जाय तो ढ़ेरों उम्मीद के बीच रामनाथ कोविंद का रायसीना में प्रवेष और उम्मीदों की भरपाई पर खरे उतरने की भावना लिए प्रणब मुखर्जी की विदाई की तारीख एक ही है परन्तु एक ने साबित किया और दूसरे को साबित करना बाकी है।


सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, July 19, 2017

राज्यसभा के लोकतंत्र पर सवाल कितना वाजिब!

इस सवाल के साथ कि क्या वाकई में देश  के उच्च सदन में लोकतंत्र दरकिनार हुआ है। लाज़मी है धुंआ उठा है तो सवाल उठेंगे पर सियासतदानों को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र के रक्षक व संरक्षक तो वही हैं तो फिर यह सवाल बेमानी क्यों नहीं। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने जिस तर्ज पर राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया उससे राज्यसभा के लोकतंत्र पर ही सवाल खड़ा हो गया। हालांकि राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधि होते हैं जो सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते पर परिसंघीय व्यवस्था में इस सदन की षक्ति कई मामलों में जनप्रतिनिधियों की लोकसभा से भी अधिक है। समावेषी लोकतंत्र की दुनिया में जन प्रतिनिधियों को धरातल पर जनता की कितनी चिंता है इस पर प्रष्न अलग से उठाया जा सकता है पर सदन में जब राजनेता जनता की आवाज़ बनता है तो उसके तेवर सियासी दांव पेंच से कितने परे हैं इसका पूरा अंदाजा लगा पाना कठिन होता है। गौरतलब है कि मायावती ने इस्तीफा देकर यह साफ कर दिया कि सियासी चाल में बड़ी हार और करारी षिकस्त के बावजूद उन्हें कमतर न आंका जाय। जिस प्रकार उन्होंने यह सारा कृत्य कुछ ही मिनटों में किया उससे यह साफ होता है कि वह पहले से गुस्सा दिखाने की तैयारी करके आईं थीं। मायावती को अक्सर मंचों पर भाशण पढ़कर बोलने के रूप में जाना जाता है परन्तु बीते 18 जुलाई को राज्यसभा में जिस तरह पांच मिनट वो बोलीं वह उनके सियासी इतिहास का अद्भुत समय ही कहा जायेगा। बसपा की खिसकती जमीन को बचाने का क्या यह अंतिम दांवपेंच था या फिर वाकई में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनकी बोलती बंद करने की कोषिष की गयी थी। गौरतलब है कि मायावती बीते कुछ महीनों से कई मुद्दों को लेकर तिलमिलाई हुई है। बीते मार्च में जब उत्तर प्रदेष विधानसभा में उनकी हैसियत सिमट कर 403 के मुकाबले 19 सीटों तक रह गयी और सत्ताधारी समाजवादी भी 47 सीटों के साथ सियासत में चकनाचूर हो गयी साथ ही 325 के साथ भाजपा सत्ता में आई तो उन्हें यह अंदाजा हो गया कि दलित और मुस्लिम वोट के आधार पर की जाने वाली सियासत का अंत अब हो चुका है। 
अपनी सियासत में अम्बेडकर को अपनी रियासत मानने वाली मायावती उत्तर प्रदेष की राजनीति से इस तरह बेदखल हो जायेंगी इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं रहा होगा जबकि इसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका खाता तक नहीं खुला था। राश्ट्रपति चुनाव के एक दिन बाद मायावती का राज्यसभा से इस्तीफा एक और वजह के साथ जुड़ता है। असल में जब रामनाथ कोविंद को राश्ट्रपति उम्मीदवार भाजपा ने घोशित किया तब मायावती उन्हें नकार नहीं पाई थीं और दलित उम्मीदवार के चलते विरोधी होने के बावजूद पेषोपेष में फंस गई परन्तु जब कांग्रेस ने मीरा कुमार को मैदान में उतारा तब तस्वीर साफ हो गयी कि रामनाथ कोविंद उनकी पसंद नहीं है। अब मुकाबला दलित बनाम दलित का था। ऐसे में भाजपा विरोधी मायावती को अब भाजपा का दलित कार्ड फूटी आंख नहीं भा रहा था कुछ इसकी भी खीज हो सकती है। इस सवाल को भी नाजायज़ करार नहीं दिया जा सकता कि मायावती का इस्तीफा एक सियासी दांव है। सभी जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सभी विरोधी दलों के लिए एक मुसीबत है।  जिस तर्ज पर भाजपा चुनावी अभियानों में सफल होती है और विपक्षी जिस तरह हाषिये पर फेंके जाते हैं उससे भी झल्लाना स्वाभाविक है। गौरतलब है कि जिस राज्यसभा की सदस्यता से मायावती ने इस्तीफे का दांव खेला वहां मात्र 70 सदस्य सत्ता पक्ष के हैं बाकी सब विरोधी दल के हैं। इतना ही नहीं जिस राज्यसभा उपाध्यक्ष पर यह आरोप है कि उन्हें सहारनपुर के दलित समस्याओं को उठाने का अवसर नहीं दिया गया उनका चुनाव भी कांग्रेस की सत्ता के दौरान हुआ था। कहा जाय तो राज्यसभा उपाध्यक्ष भाजपा निर्मित नहीं है बल्कि विपक्षियों की ही देन है। साफ है कि राज्यसभा के उपसभापति राज्यसभा का राजधर्म निभाने का काम कर रहे थे न कि मायावती को लोकतंत्र विहीन बना रहे थे।
यह पहली बार नहीं है जब विपक्ष ने किसी मसले पर चर्चे के बहाने हंगामा किया हो। मायावती के साथ कांग्रेस और वामदल ने भी राज्यसभा का वाॅकआॅउट किया था। जाहिर है कि भाजपा पर मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव बनाने के लिए यह हथकण्डे अपनाये गये जबकि मुख्तार नकवी ने मायावती के कदम को उपसभापति का अपमान बताया। सवाल अब यह भी है कि बसपा प्रमुख ने जो त्यागपत्र दिया है क्या वह तकनीक रूप से स्वीकार करने की अवस्था में है। नियम के मुताबिक इसके स्वीकार करने की सम्भावना कम जताई जा रही है। दरअसल नियम कहता है कि इस्तीफे के साथ न कोई कारण बताया जाता है और न उस पर कोई सफाई दी जाती है। ऐसे में मायावती ने जो विधिवत इस्तीफा राज्यसभा के सभापति व उपराश्ट्रपति हामिद अंसारी को सौंपा है क्या वह इसी प्रारूप पर है वह बिल्कुल ऐसा नहीं है दरअसल मायावती ने इस्तीफे में कहा है कि मैं षोशितों, मजदूरों, किसानों और खासकर दलितों के उत्पीड़न की बात सदन में रखना चाहती थी। सहारनपुर के षब्बीरपुर गांव में जो दलित उत्पीड़न हुआ है मैं उसकी बात उठाना चाहती थी लेकिन सत्ता पक्ष ने इसका विरोध किया और मुझे बोलने का मौका नहीं दिया गया। ऐसा लग सकता है कि बसपा सुप्रीमो ने इस्तीफे वाला कदम हड़बड़ी में उठाया है परन्तु वह जानती हैं कि उनके इस कदम से या इस भावुकता से तात्कालिक सहानुभूति तो मिल सकती है पर बड़ा दांव चलने के लिए सोची-समझी राजनीतिक रणनीति होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह उद्वेग मात्र में उठाया गया कदम हो। मायावती का इस्तीफा अप्रत्याषित है मगर तात्कालिक सियासी फायदे से वे अभी अछूती ही रहेंगी। मायावती जानती हैं कि उनके 19 विधायक एक भी राज्यसभा सदस्य चुनने के योग्य नहीं है। गौरतलब है कि अप्रैल 2018 में मायावती का कार्यकाल समाप्त हो रहा था और उनका दोबारा राज्यसभा में पहुंचने की गुंजाइष न के बराबर थी क्योंकि उत्तर प्रदेष से राज्यसभा में आने के लिए कम-से-कम 40 विधायकों की आवष्यकता पड़ती है। हालांकि भाजपा से खार खाये और सीबीआई जांच झेल रहे लालू प्रसाद ने मायावती को बिहार से राज्यसभा भेजने का न्यौता दे दिया है। 
बीते 3 वर्शों से चाहे लोकसभा हो या राज्यसभा हंगामा खूब काटा जा रहा है और इस हंगामे के बीच सरकार और विपक्ष दोनों में खूब गुत्थम-गुत्थी हो रही है। जनता विकास की बाट जोह रही है और जन प्रतिनिधि सियासी दांवपेंच में मषगुल हैं। भाजपा का मतलब इन दिनों सबसे बड़ा फायदा हो गया है। 20 जुलाई को राश्ट्रपति का परिणाम घोशित होगा जाहिर है आंकड़े रामनाथ कोविंद की जीत सुनिष्चित करते हैं। उपराश्ट्रपति के उम्मीदवार वेंकैया नायडू का भी चुना जाना तय है यहां भी भाजपा का ही बोलबाला है। तीन वर्शों से पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार राज्यसभा में विपक्ष के सामने घुटने पर रही है। स्थिति आज भी वही है पर संख्याबल के मामले में अब उनके अच्छे दिन आने वाले हैं। मोदी जानते हैं कि जब तक राज्यों में विरोधियों को षिकस्त नहीं देंगे तब तक राज्यसभा में वो बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंचेंगे और इसे लेकर वे प्रचण्ड सफलता प्राप्त भी कर चुके हैं। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, मिजोरम समेत कई राज्यों को कांग्रेस से छीनते हुए कांग्रेस को उसी स्थिति में पहुंचा दिया है जैसे वे पहले स्वयं थे। हालांकि उत्तर प्रदेष की सत्ता समाजवादियों से भाजपा ने ली है। सबके बावजूद मायावती के इस्तीफे को लेकर दो टूक यह भी है कि इससे कोई संवैधानिक या राजनीतिक संकट खड़ा तो नहीं होता पर मायावती की नीयत पर लोग सवाल जरूर खड़ा करेंगे। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, July 17, 2017

मानसून सत्र और हमारे माननीय

जब भी सत्र की शुरुआत  होती है तब इस बात की सुगबुगाहट भी जोर पकड़ती है कि क्या देष के नागरिकों की उम्मीदों पर हमारे माननीय खरे उतरेंगे। यह बात इसलिए क्योंकि बीते कई सत्रों का हाल खराब रहा है जहां महीनों खर्च करने के बावजूद कुछ घण्टों और कुछ अधिनियमों तक ही मामला रह जाता है और जनता बड़े फैसले की बाट जोहती रहती है। हालांकि इसी साल दो भागों में चलने वाले बजट सत्र का कामकाज तुलनात्मक बेहतर रहा है जिसमें लोकसभा की उत्पादकता 108 फीसदी और राज्यसभा की 86 फीसदी थी जबकि इसके पहले षीत सत्र में 92 घण्टे बर्बाद हुए थे जबकि 21 दिनों तक चलने वाले सत्र में लोकसभा में महज़ 19 घण्टे और राज्यसभा में 22 घण्टे काम हुआ था। इसी प्रकार के उदाहरण कुछ अन्य सत्रों के भी सूचीबद्ध किये जा सकते हैं। उपरोक्त से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सत्र के दौरान होने वाले हो-हंगामे से सत्ता कितनी बौनी रह जाती है और विपक्ष हंगामा काटने में कितना अव्वल रहता है। इतना ही नहीं इन सबके बीच जनता कितनी ठगी जाती है। वर्श 2015 के षीत सत्र के दौरान एक अखबार के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने यह साफ किया था कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार कार्य नहीं कर सकता। जाहिर है कि सत्र में काम न होने की वजह से मोदी परेषान थे। गौरतलब है कि उन दिनों असहिश्णुता का मुद्दा गरम होने के कारण षीत सत्र कई बाधाओं से गुजरा था और नतीजे ढाक के तीन पात रहे। ऐसा देखा गया है कि जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो कुछ अंधेरे भी परिलक्षित होते हैं जिसका सीधा असर जन जीवन पर पड़ता है पर यह अंधेरा स्थायी रूप से जीवन में बना रहे तो विकास का मोल गिरावट की ओर चला जाता है। दो टूक यह भी है कि प्रगति थमनी नहीं चाहिए पर नतीजे इससे उलट इसलिए हैं क्योंकि हमारे माननीय काफी हद तक इससे बेफिक्र हैं और इनकी बेफिक्री का पूरा लेखा-जोखा मोदी षासनकाल के अब तक के सत्रों की पड़ताल में देखी जा सकती है।
मई, 2014 से मोदी सरकार का षासन चल रहा है बजट, मानसून और षीत सत्र समेत बीते तीन वर्शों में लगभग दर्जन भर सत्र हो चुके हैं जिसमें इस बार का मानसून सत्र सरकार के लिहाज़ से चैथा है पर सफलता की दर उच्च होगी यह कहना बहुत कठिन है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्र में  हो-हंगामा नहीं होगा। सोमवार से षुरू हुए मानसून सत्र के दौरान क्या-क्या चुनौतियां होंगी इस पर भी सरकार की पैनी नज़र होगी। पहले दिन की खास बात में देखें तो राश्ट्रपति पद के चुनाव के साथ ही संसद के मानसून सत्र की षुरूआत हुई। लोकसभा के वर्तमान सदस्य विनोद खन्ना समेत कुछ दिवंगत सदस्यों को श्रृद्धांजली देने के बाद लोकसभा की कार्यवाही दिन भर के लिए स्थगित कर दी गयी। 17 जुलाई से 11 अगस्त के बीच तीन सप्ताह से अधिक चलने वाला मानसून सत्र कई उम्मीदों से पटा है। कई विधेयकों को न केवल अधिनियमित किये जाने की चुनौती है बल्कि लोकसभा में 21 और राज्यसभा में 42 विधेयक पहले से ही जो लम्बित पड़े हैं इन्हें भी रास्ता देना है। सब कुछ अनुकूल रहा तभी नतीजे उम्मीद से अधिक आयेंगे अन्यथा मानसून की मूसलाधार बारिष में यह सत्र भी धुल जायेगा। प्रत्येक सत्र में यह रहा है कि विपक्ष सत्ता को घेरने के लिए पहले से ही कसरत किये रहता है। जाहिर है सत्ता को हाषिये पर धकेलने के लिए विपक्ष के तरकष में इस बार भी कई तीर हैं। मसलन कष्मीर में अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था में हुई चूक, चीन से मौजूदा समय में जारी सीमा विवाद, गौरक्षकों द्वारा लगातार जारी गुण्डागर्दी। इसके अलावा भी कई मुद्दे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कह दिया है कि गौरक्षा पर गुंडई बर्दाष्त नहीं है। संसद के मानसून सत्र की पूर्व संध्या पर सरकार द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक के दौरान मोदी ने कहा गौरक्षा को राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग देकर राजनीतिक लाभ उठाने की होड़ मची है। इससे देष को कोई फायदा नहीं होगा।
सर्वदलीय बैठक के माध्यम से प्रधानमंत्री ने गौरक्षा के मामले में अपना पक्ष स्पश्ट करके विरोधियों के वार को थोड़ा कुंद करने की कोषिष की है। गौरतलब है कि बीते कुछ वर्शों से गौरक्षा के नाम पर कईयों को मानो कानून हाथ में लेने का अधिकार मिल गया हो और जिस प्रकार सोषल मीडिया में ताण्डव देखने को मिला वो रोंगटे खड़े करने वाले थे। तथाकथित गौरक्षकों ने अपनी इन करतूतों से भले ही अपनी पीठ थपथपा रहे हों पर देखा जाय तो इन्होंने कानून व्यवस्था के साथ खिलवाड़ ही किया है। सुनिष्चित मापदण्डों में देखें तो विगत् वर्शों से किसानों की समस्या एक ऐसी अटल सत्य बन गयी है जो किसी भी सरकार से हल नहीं हो रही। सरकार को घेरने में यह मुद्दा भी विरोधियों के लिए अभी भी जिन्दा है। दो टूक यह भी है कि पष्चिम बंगाल की कानून व्यवस्था पटरी से उतर गयी है। बड़ी-बड़ी बात करने वाली ममता बनर्जी समस्या को काबू पाने में बौनी सिद्ध हुई है। इतना ही नहीं राजभवन से उनका तकरार भी जग जाहिर हुआ है। जिस तर्ज पर पष्चिम बंगाल हिंसा में लिप्त हुआ उसके लिए विरोधी तृणमूल कांग्रेस को भी कुछ जवाब तैयार कर लेने चाहिए। सभी के लिए केन्द्र सरकार को ही सवालों के घेरे में नहीं खड़ा कर सकते। विरोधी भी गिरेबान में झांके कि मामले नाक के ऊपर क्यों जा रहे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेष के मामले में भी यह पूछा जाना चाहिए कि विधानसभा में विस्फोटक सामग्री कैसे पहुंची और इतनी बड़ी चूक क्यों हुई पर मुख्य विरोधी कांग्रेस पर भी यह सवाल खड़ा होता है कि क्या विपक्ष का मतलब हर हाल में सरकार के विरूद्ध खड़ा होना ही है। बड़ी सच्चाई यह है कि कांग्रेस कभी भी मोदी सरकार की एक भी नीति का समर्थन नहीं किया है। 
एक जुलाई से पूरे देष में जीएसटी लागू हुआ। जम्मू एवं कष्मीर अभी इससे अछूता है। मानसून सत्र के दौरान 16 नये विधेयक पेष किये जाने की सम्भावना है जिसमें जम्मू-कष्मीर वस्तु एवं सेवा कर विधेयक तथा नागरिकता संषोधन विधेयक षामिल है। नागरिकता संषोधन विधेयक के चलते सरकार अवैध रूप से भारत में प्रवेष करने वाले विदेषी नागरिकों के एक खास वर्ग को नागरिकता देना चाहती है। चूंकि कुछ विधेयक पहले से लम्बित है सम्भव है कि उनमें से भी कईयों को कानूनी रूप दिये जाने की बात आयेगी। फिलहाल मानसून सत्र के दौरान समावेषी राजनीति कितनी होगी इस पर दृश्टि रहेगी। सहभागी राजनीति की पड़ताल की जाय तो दायित्व आभाव में कई माननीय आ सकते हैं। कमोबेष कईयों की बड़ी विफलतायें भी रही हैं। जिस दषा में सत्र का आना होता है और जिस पैमाने पर सर्वदलीय बैठक में साथ लेने और देने की बात होती है क्या वाकई में वह जमीन पर उतरता है। पुराने अनुभव तो कहानी कुछ और ही बयां करते हैं। सियासतदानों को अपनी रोटी तो सेकनी ही होती है। चाहे सत्ता हो या विपक्ष राजनीतिक घाटा कोई नहीं सह सकता पर जीवन मूल्य की कसौटी पर आम नागरिक आये दिन पिसता रहता है। फिलहाल साल भर में होने वाले तीन सत्रों का सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है। इस बार के मानसून सत्र से उम्मीद है कि अच्छी बारिष होगी, देष को अच्छे कानून मिलेंगे और नागरिकों को मुख्यतः किसानों व गरीब तबकों को राहत मिलेगी। चुनौती यह भी रहेगी कि जब 11 अगस्त को यह सत्र समाप्त हो तो इसका लेखा परीक्षण बजट सत्र से भी बेहतर निकले ताकी देष की पंचायत में बैठे माननीय पर विष्वास बढ़ सके।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

रेस रायसीना की पर परिणाम तय!

विदित है कि वर्तमान राष्ट्रपति  प्रणव मुखर्जी का कार्यकाल आगामी 24 जुलाई को समाप्त हो रहा है। समय और संवैधानिक मापदण्डों को देखते हुए इस तिथि से पहले नये राष्ट्रपति का चुनाव किया जाना लाज़मी है। इसी संदर्भ को देखते हुए बीते 17 जुलाई को राश्ट्रपति चुनाव के लिए वोट डाले गये जिसकी गिनती 20 जुलाई को दिल्ली में होगी और तब यह बिल्कुल साफ हो जायेगा कि देष का 15वां राश्ट्रपति कौन होगा। हालांकि संख्याबल के मामले में एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का पलड़ा भारी है। ऐसे में चुनाव के नतीजे क्या होंगे इसका अंदाजा लगाना आसान है। विरोधी दलों की ओर से रायसीना की रेस में पूर्व स्पीकर मीरा कुमार हैं। वोटों के प्रतिषत को देखते हुए यहां यह कहना सहज है कि 50 फीसदी से अधिक के आंकड़े से यह काफी पीछे हैं। साफ है कि मीरा कुमार मुकाबले में हैं पर राश्ट्रपति के मुकाम पर पहुंचेगी ऐसा होता दिखाई नहीं देता। राश्ट्रपति चुनाव के परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को परिश्कृत भाव से परखा जाय तो कुल 32 मतदान केन्द्रों पर 776 सांसद और 4120 विधायक मतदान देने में षामिल हैं। इस चुनाव की कुछ खास बाते यह भी हैं कि मध्य प्रदेष के बीजेपी विधायक नरोत्तम मिश्रा को अयोग्य ठहराये जाने के चलते कुल वोटरों की संख्या में एक की कमी हुई है। जबकि त्रिपुरा में 6 तृणमूल कांग्रेस के विधायकों का एनडीए के उम्मीदवार को वोट देना उम्मीद से अधिक प्रतिषत का बढ़ना आंका जा सकता है जबकि टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी मीरा कुमार के समर्थन में हैं। कमोबेष यही स्थिति उत्तर प्रदेष की समाजवादी पार्टी का भी है। अखिलेष से विलग षिवपाल यादव ने भी रामनाथ कोविंद के पक्ष में मतदान किया और उनका मानना है कि 12 से 15 वोट समाजवादी विधायकों का एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में दिये गये हैं जबकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेष यादव यूपीए के साथ हैं। इसी तर्ज पर बिहार में भी सियासत उथल-पुथल में रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की पार्टी जेडीयू ने जहां एनडीए का साथ दिया है तो वहीं महागठबंधन में षामिल लालू प्रसाद की राजद मीरा कुमार के साथ है। हालांकि नीतीष कुमार बिहार के राज्यपाल से राश्ट्रपति की रेस में आये रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार घोशित होने के साथ समर्थन की बात कह दी थी। देखा जाय तो राश्ट्रपति चुनाव के इस चुनावी महोत्सव में कई राजनीतिक दल व गठबंधन एकजुट नहीं रह पाये हैं। पूरी तरह तो नहीं पर आम आदमी पार्टी भी इस डर से बेफिक्र नहीं थी कि क्राॅस वोटिंग में उसके विधायक भी रामनाथ कोविंद का साथ दे सकते हैं। गौरतलब है कि राश्ट्रपति चुनाव में कोई भी दल व्हिप जारी नहीं कर सकता है। ऐसे में क्राॅस वोटिंग की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
 राश्ट्रपति चुनाव में कुल पड़ने वाले वोटों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर देखें तो कुल मतों की संख्या 11 लाख के आस-पास होती है जिसका 63 फीसदी एनडीए के उम्मीदवार के पक्ष में साफ-साफ दिखाई देता है। यदि क्राॅस वोटिंग का अनुपात एनडीए के पक्ष में बढ़ता है तो यह प्रतिषत तुलनात्मक ऊपर जायेगा। भारत का राश्ट्रपति देष का सबसे सर्वोच्च पद धारक और तीनों भारतीय सेनाओं का प्रमुख होता है। देष के इस प्रथम नागरिक को हिन्दी में राश्ट्रपति और संस्कृत में राज्य का भगवान कहते हैं जिसके चुनने वालों में संसद और राज्य विधानमण्डल में चुने हुए प्रतिनिधि षामिल होते हैं। साफ है कि मनोनीत सदस्य इलेक्टोरल काॅलेज में षामिल नहीं होते। भारत की स्वतंत्रता से अब तक 14 राश्ट्रपति के चुनाव हुए जिसमें 13 व्यक्ति इस पद पर पहुंचे हैं साथ ही छोटे अंतराल के लिए ही सही तीन कार्यकारी राश्ट्रपति भी सूची में देखे जा सकते हैं। फिलहाल इस बार के चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार मीरा कुमार से राजग के प्रत्याषी का सीधा मुकाबला है पर नतीजे धुंधले नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने पहले ही अग्रिम बधाई रामनाथ कोविंद को दे चुके हैं। गौरतलब है कि राश्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान का समय सुबह 10 बजे से 5 बजे के बीच था। रोचक तथ्य यह है कि प्रधानमंत्री मोदी अपना मत देने के लिए समय से पहले मतदान केन्द्र पहुंच गये और उन्हें कुछ मिनट तक इंतजार करना पड़ा। हालांकि हल्के-फुल्के अंदाज में उन्होंने यह कह दिया कि स्कूल भी समय से पहले पहुंचता था। इसी संदर्भ को यदि थोड़ा परखने की कोषिष करें तो हमारे ही देष के परिपक्व लोकतंत्र के इस दौर में कई सांसद और विधायक ऐसे भी होंगे जो वोट देने के मामले में षायद ही इतने उतावले हों।
भारत में लोकतंत्र के कई प्रारूप हैं राश्ट्रपति का चुनाव इसी प्रारूप का एक आयाम है। इसमें जनता के चुने प्रतिनिधि भागीदारी करते हैं। कहा जाय तो प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता अपने राश्ट्रपति को चुनती है। देष के 15वें राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद होंगे या मीरा कुमार इसका फैसला 20 जुलाई को हो जायेगा। चूंकि पार्टियां इसमें व्हिप नहीं जारी कर सकती ऐसे में नतीजों को लेकर कुछ भी कहा जाना उचित नहीं होगा परन्तु जीत रामनाथ कोविंद की तय है। भाजपा, टीडीपी, षिवसेना तथा अन्य घटक समेत गैर एनडीए दलों का साथ मसलन अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, टीआरएस व जदयू समेत कई के पक्ष में होने के कारण लगभग 11 लाख मत मूल्य की तुलना में साढ़े छः लाख से अधिक मत रामनाथ कोविंद को मिलेगा। इसी तर्ज पर यदि मीरा कुमार की स्थिति को आंका जाय तो कांग्रेस, तृणमूल, माकपा, बसपा, राजद तथा द्रमुक समेत आप व अन्य दलों का वोट बामुष्किल साढ़े तीन लाख के आसपास पहुंचता है। जाहिर है कि आंकड़े में मीरा कुमार मीलों पीछे हैं। ऐसे में चुनाव के नतीजे साफ हैं पर आधिकारिक तौर पर जब तक घोशणा न हो कुछ भी कहना सही नहीं है। यहां बताते चलें कि एक सांसद के मत का मूल्य 708 मत के बराबर है जबकि सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष में एक विधायक 208 मत के बराबर मूल्य रखता है। 
राश्ट्रपति चुनाव हेतु मतदान के बीच यह भी सुगबुगाहट जोर पकड़ा कि षहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू उपराश्ट्रपति होंगे। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस भाव से संवैधानिक पदों पर भारत में समतामूलक संदर्भ विकसित करने की कोषिष में लगे हैं उसमें भी दूर की सियासत छिपी है। राश्ट्रपति के तौर पर रामनाथ कोविंद को लाकर उन्होंने राश्ट्रपति से अछूते सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष को यह अवसर दिया साथ ही दलित चेहरा सामने लाकर सियासत को भी साधने की चाल चली। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष में रिकाॅर्ड तोड़ सीट के साथ भाजपा सरकार चल रही है और दलित वोट भी यहां बहुतायत में हैं। बड़ा तर्क यह भी है कि मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत दोहराने की फिराक में है। ऐसे में कदम फूंक-फूंक कर रखना सियासत की मांग भी है और समय की चाल भी इसी को देखते हुए वेंकैया नायडू का नाम उपराश्ट्रपति के लिए आगे लाना भी हो सकता है। दरअसल वेंकैया नायडू दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेष के नैल्लोर जिले से संबंधित हैं। यह बात भी बलपूर्वक कही जा सकेगी कि उत्तर से राश्ट्रपति तो दक्षिण से उपराश्ट्रपति को बनाकर एनडीए ने संतुलित राजनीति की है। इसके पीछे की बड़ी बात यह है कि एनडीए दक्षिण में अपनी सियासत को मजबूती से बढ़ाना चाहती है जिसका फायदा न केवल लोकसभा चुनाव में बल्कि वहां के राज्यों में भी सत्तासीन होकर लेना चाहती है। गौरतलब है कि कांग्रेस मुक्त मोदी के नारे की दिषा में यह भी एक कदम हो सकता है। फिलहाल संवैधानिक पदों को लेकर बीते कुछ महीनों से हो रही कसरत पर विराम लगने का दिन समीप है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, July 12, 2017

दशकों के आतंक का लेखा परीक्षण कब!

पड़ताल बताती है कि अमरनाथ की यात्रा पर काफी हद तक आतंक का साया रहता है। बीते 10 जुलाई को जब इस यात्रा पर आतंकी हमला हुआ तो यह बात पूरी तरह पुख्ता हो गयी। गौरतलब है कि कश्मीर  में अमरनाथ यात्रियों पर घात लगाकर किया गया हमला पहली बार नहीं है। डेढ़ दषक में यह सबसे बड़ी घटना है। इसमें कोई षक नहीं कि हमला सुरक्षातंत्र के चूक का नतीजा है। हैरत इस बात की है कि हजारों-लाखों में सुरक्षाकर्मियों एवं अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती के बावजूद आतंकी अपने मनसूबों में कैसे कामयाब हो जाते हैं। यह बात भी कचोटती है कि जिस मनोविज्ञान के साथ अमरनाथ यात्री तीर्थाटन करते हैं उसमें जब आतंकियों की घुसपैठ होती है तो उससे यह भी इंगित होता है कि भारत को आतंकियों के रास्ते पाकिस्तान से बड़ी चुनौती मिल रही है। दुनिया में कोई ऐसा देष नहीं जो पड़ोस की इतनी बर्बरता सहता हो। ताजा घटनाक्रम में जम्मू-कष्मीर के अनंतनाग में यात्रियों की बस पर हुए आतंकी हमले के मास्टरमाइंड लष्कर-ए-तैयबा का आतंकी इस्माइल है जिसका पालन-पोशण पाकिस्तान में होता है। आतंकियों ने घटना को अंजाम कैसे दिया, किस पैमाने पर गोली बरसाई, कैसे बच निकले और किस कीमत पर यात्रियों को जान गवानी पड़ी ऐसी तमाम बातों का उभरना तब-तब रहा है जब-जब ऐसी घटनाएं घटी हैं। सब्र तब जवाब दे जाता है और सरकार की लानत-मलानत करने का विचार तब पनप जाता है जब चंद षब्दों के सहारे घटना को सरकारें इतिश्री की ओर ले जाने की कोषिष करती हैं। इन सबके बीच एक सवाल यह भी उठ खड़ा होता है कि आखिर पुख्ता सुरक्षा का इंतजाम करने वाली सरकारें आतंकियों के किस तरकष से अनभिज्ञ रह जाती हैं। सभी जानते हैं कि कष्मीर बरसों से जल रहा है। हालात अच्छे नहीं है और अलगाववादियों के मनसूबे जिस पराकाश्ठा तक पहुंच गये है मानो वहां अमन-चैन की उम्मीद करना अब बेमानी है। गौरतलब है कि बुरहान वानी कष्मीर की फिज़ा में वह तैरता हुआ दहषतगर्द का नाम है जिसकी गर्मी से आज भी कष्मीर की बर्फ पिघल रही है। एक साल का वक्त बीत चुका है पर बुरहान का नाम अभी भी वादियों में गूंजता है।
देष की सरकार न तो कष्मीर में सुरक्षा देने में कामयाब होते दिख रही है और न ही सुलगते कष्मीर को वाजिब हल दे पाई है। हैरत इस बात की है कि जिस जम्मू-कष्मीर में बरसों से अंदर-बाहर की बर्बरता चल रही है, वहीं भाजपा के समर्थन से सरकार चल रही है जबकि नतीजे ढाक के तीन पात हैं। यह बात भी तार्किक है कि जब-जब सिद्धान्त से समझौता करोगे। जमीन पर हकीकत कुछ होगी और दिमाग में कुछ और उपजेगा। उक्त कथन भाजपा और पीडीएफ के बेमेल गठबंधन पर सटीक बैठती है। बीते तीन साल के कार्यकाल में और ढ़ाई साल के जम्मू-कष्मीर के षासनकाल में भाजपा यह समझ ही नहीं पाई कि अलगाववाद और आतंकवाद पर उसकी यांत्रिक चेतना क्या हो और निपटने की तकनीक क्या अपनाई जाय? भारत में कब-कब आतंकी हमला हुआ इसकी फहरिस्त बनाई जाय तो किसी भी सभ्य व्यक्ति का सब्र डोल सकता है। जिस कीमत पर सीमा की रखवाली सैनिकों द्वारा की जाती है उसकी पीड़ा से षायद ही हमारे देष के राजनेता भिज्ञ हों। सख्त सुरक्षा बंदोबस्त के बावजूद आतंकियों ने अमरनाथ यात्रियों को जिस तरह निषाना बनाया उसे देखते हुए अब आतंकवाद को कुचलने के लिए कठोर कार्रवाई करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिखाई देता पर देखने वाली बात तो यह होगी कि सरकार इसे लेकर कितनी संवेदनषील है। गौरतलब है कि आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान की खूफिया एजेंसी आईएसआई, वहां की सरकार और उसके सैनिकों का समर्थन रहता है। सब कुछ जानने के बावजूद कार्रवाई के मामले में हम मीलों पीछे छूट जाते हैं। मुम्बई आतंकी हमले से लेकर पठानकोट तक यही हुआ है। रही बात कष्मीर और अमरनाथ यात्रा की तो यहां की सूची भी कम लम्बी नहीं है। हालांकि सितम्बर 2016 में उड़ी की घटना के बाद पाक अधिकृत कष्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक की गयी थी, 40 से अधिक आतंकियों को ढ़ेर किया गया था और उनके लांचिंग पैड को नश्ट किया गया था फिर भी आतंकी हमलों का सिलसिला रूका नहीं। सरकार के पास हमलों के लेखा का मोटा कच्चा चिट्ठा है पर इसका लेखा परीक्षण कब होगा इस सवाल का उठना लाज़मी है। जाहिर है लेखा परीक्षण से ही यह साफ होगा कि आतंकियों की मार सहने में भारत अव्वल रहा है। 
इस तथ्य को गैरवाजिब नहीं कहा जायेगा कि आतंकी संगठनों की दिन दूनी, रात चैगुनी की तर्ज पर विकास हुआ है। संयुक्त अरब अमीरात ने भी 83 आतंकी संगठनों की सूची जारी की थी और ऐसी ही सूची अमेरिका भी जारी कर चुका है। देखा जाय तो भारत की जुबान पर भी दर्जनों ऐसे आतंकी संगठनों का नाम दर्ज है जिसके चलते वह दषकों से लहुलुहान होता रहा है। जद्दोजहद का विशय यह है कि इतनी बड़ी संख्या में पनप रहे आतंकियों को खाद-पानी कौन दे रहा है। जाहिर है दर्जनों संगठनों की सिंचाई तो पाकिस्तान ही कर रहा है और खून-खराबा के लिए भारत की जमीन पर इन्हें उतारता रहा है। आतंकवाद पर आन्तरिक और बाह्य विमर्ष भी समय के साथ हुए है। आतंकवाद से लड़ने वाला हमारा कानून अभी भी इतना सख्त नहीं है जितना कि अमेरिका और इंग्लैण्ड का है। सभी जानते हैं कि अमेरिका में वर्श 2001 में एक आतंकी हमला हुआ था जिसे 9/11 की संज्ञा दी जाती है। इस हमले के मास्टरमाइंड अलकायदा का ओसामा बिन लादेन था जिसके खात्मे के लिए अमेरिका ने न केवल अफगानिस्तान की पूरी जमीन खोद डाली बल्कि उसे ढूंढने का सिलसिला तब तक जारी रखा जब तक उसका खात्मा नहीं कर दिया। गौरतलब है कि पाकिस्तान के एटबाबाद में छावनी इलाके के पास ओसामा बिन लादेन को 2011 में अमेरिका ने निस्तानाबूत किया था और इसे समाप्त करने में अमेरिका का इतना धन व्यय हुआ था जितना कि भारत का एक वर्श का बजट होता है।
बीते 7 से 8 जुलाई के बीच जर्मनी हैम्बर्ग में जी-20 की बैठक हुई जिसमें आतंक का मुद्दा भी छाया रहा इसके समाप्ति के महज़ दो दिन ही बीते थे कि भारत इसकी जद में आ गया। अमरनाथ यात्रा पर हुए आतंकी हमले से यह भी साफ हो गया कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम में मनमानी नहीं चलेगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि हमले की षिकार बस यात्रा के लिए पंजीकृत नहीं थी पर सवाल यह भी है कि तमाम चैक पोस्टों को पार कर बस दर्षन स्थल तक कैसे पहुंच गयी। फिलहाल बहस इस बात की होनी चाहिए कि बरसों से आतंक सहने वाला भारत महज़ लेखा प्रपत्र ही तैयार करेगा या इसकी आॅडिटिंग भी करेगा। जाहिर है आतंकी घटनाओं की फहरिस्त से ही काम नहीं चलेगा। पाकिस्तान की हिमाकत पर इस प्रकार की सादगी वाली परत चढ़ा देने से भी काम नहीं चलेगा। आतकी घटनाओं का लेखा भी हो और इसका परीक्षण भी होना चाहिए। पाकिस्तान और आतंकवाद का रिष्ता पाकिस्तान जितना ही पुराना है। कष्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ के मामले 1948 से बादस्तूर अब तक जारी है। आतंक के दर्द के चलते ही 75 हजार से अधिक कष्मीरी पण्डित परिवारों को घाटी से विस्थापित होना पड़ा और 70 हजार लोग ढ़ाई दषकों में आतंकियों की भेंट चढ़ गये। आंकड़े यह बताते हैं कि 21 हजार से अधिक आतंकी इतने ही समय में सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे गये हैं जबकि 5 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी भी षहीद हुए। दो टूक तो यह भी है कि आतंक की अपनी एक प्रवृत्ति होती है जिसमें बंदूक हर प्रष्न पर होती है तो उत्तर भी उसी प्रष्न के अनुपात में होना चाहिए इससे कम कुछ नहीं।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, July 10, 2017

जी-20 सम्मेलन समाप्त पर सवाल सुलगते रहे

जब भी भारत का विष्व के साथ आर्थिक सम्बंधों की विवेचना होती है तो जी-20 जैसे सम्मेलनों की प्रासंगिकता और उभर जाती है। दो टूक यह है कि जी-20 ने अन्तर्राश्ट्रीय वित्तीय संरचना को सषक्त और आर्थिक विकास को धारणीय बनाने में मदद पहुंचायी है। मंदी के दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी कमोबेष ऊर्जा देने का काफी हद तक इस संगठन ने काम किया है। यह एक ऐसा अन्तर्राश्ट्रीय मंच है जहां दुनिया के मजबूत देष इकट्ठा होते हैं साथ ही न केवल हित साधने का निर्वहन करते हैं बल्कि संसार के सुलगते सवालों के परख भी करते हैं पर क्या ऐसे सवालों को वाजिब जवाब मिल पाया है। जर्मनी के हैम्बर्ग में बीते दिन सम्पन्न हुए जी-20 सम्मेलन में षामिल 19 देषों के नेताओं ने एक बार फिर जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के प्रति अपनी निश्ठा जाहिर करके इसकी गरिमा को उच्चस्थता दे दी है। गौरतलब है कि अमेरिका इस समझौते से अपने को बीते माह अलग-थलग कर लिया था। राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से बाहर करने के फैसले को अन्य देषों की प्रतिबद्धता कम किये बिना मंजूरी दे दी गयी जो अपने आप में बड़ी बात है क्योंकि यह डर था कि अमेरिका के हटने से अन्य देषों पर इसका असर पड़ सकता है। फिलहाल बीते 8 जुलाई को जी-20 के 12वें षिखर सम्मेलन की समाप्ति तक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर अमेरिका टस से मस नहीं हुआ पर बिना किसी टकराव के और पेरिस करार में अमेरिका के लिए खुला दरवाजा रखना भी इस सम्मेलन की बड़ी कामयाबी है। बावजूद इसके एक सवाल यह भी फलक पर उतरा गया कि पृथ्वी बचाने की जिम्मेदारी से भागने वाले अमेरिका के पास आखिर क्या संकल्प और किस प्रकार का विकल्प है। इस सवाल का जवाब षायद अमेरिका के पास भी नहीं है। बड़ा सच यह है कि बीते 20 जनवरी से डोनाल्ड ट्रंप सार्वजनिक एजेण्डे के बजाय अपने निजी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं। इस बात का पुख्ता सबूत यह है कि पेरिस समझौते से हटते समय उन्होंने कहा था कि मैं अमेरिका का नेतृत्व करता हूं पेरिस का नहीं। सवाल तो यह भी है कि दुनिया के ताकतवर देष के कदम ही यदि पृथ्वी बचाने के मामले में पीछे रहेंगे तो दूसरों से उम्मीद करना कितना मुनासिब होगा। समझने वाली बात यह भी है कि जब इस समझौते से अमेरिका हट रहा था तो भारत व चीन समेत कुछ देषों को इसमें दी जाने वाली अतिरिक्त सुविधा पर एतराज जताया था। 
दुनिया ने यह भी देखा कि हैम्बर्ग में जी-20 सम्मेलन से पहले षहर हिंसक रूप ले लिया था और यह सम्मेलन के साथ जारी रहा। राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कह चुके हैं कि वे अमेरिका के कोयला उद्योग को वे पुर्नजीवित करेंगे। ऐसे में वे पेरिस समझौते को अमेरिका हितों की अनदेखी मान रहे हैं। जर्मनी ने ट्रंप की निंदा करते हुए कहा कि दुर्भाग्यवष अमेरिका पेरिस समझौते के खिलाफ खड़ा है परन्तु हम सभी सन्तुश्ट हैं। गौरतलब है कि पूर्व अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा नवम्बर, 2016 में ही कह चुके हैं कि पेरिस समझौते से हटना अमेरिका के हित में नहीं होगा पर ट्रंप ने उनके इस सुझाव की भी अनदेखी की है। जी-20 षिखर सम्मेलन में दुनिया के 19 विकसित और विकासषील देष एवं यूरोपीय संघ भी षामिल होता है जहां संसार के कायाकल्प करने का संकल्प लिया जाता है परन्तु जिस प्रकार दुनिया उथल-पुथल से गुजर रही है और कूटनीतिक फलक पर अपने हिस्से का फायदा सभी खोज रहे हैं उससे तो यही लगता है कि यह सम्मेलन कारोबारियों का एक अड्डा मात्र बनकर रह गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर जो वायदे-इरादे जताये जाते हैं उसे जमीन पर उतार पाने में ये बड़े देष नाकाम ही रहे हैं। आतंकवाद पर काबू न पा पाना इसकी पुख्ता नजीर है। गौरतलब है प्रधानमंत्री मोदी पहली बार ब्रिसबेन आॅस्ट्रेलिया में हुए नवम्बर, 2014 के सम्मेलन में षामिल हुए थे। जहां उन्होंने आतंकवाद और काले धन पर दुनिया का ध्यान आकर्शित किया था। इस मामले में काफी हद तक सफलता भी मिली थी। तब से अब तक चार जी-20 की बैठक हो चुकी है पर आतंकवाद को लेकर सवाल अभी भी सुलग रहा है। काले धन के मामले में राय षुमारी भी पुख्ता नहीं हो पाई है और एक नई समस्या पेरिस जलवायु समझौते की अलग से पैदा हुई है। स्पश्ट है कि देष कितना भी मजबूत हो नफे और नुकासन के तराजू पर हमेषा वह अपना ही फायदा देखता है। 
दो दिवसीय सम्पन्न जी-20 षिखर सम्मेलन में भारतीय पक्ष को परखा जाय तो आतंकवाद को रोकने और वैष्विक व्यापार पर निवेष को बढ़ावा देने में भारत के संकल्प को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। षिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी का परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण चीन जैसे देषों को छोड़ दिया जाय तो सभी के लिए आकर्शित करने वाला रहा है। गौरतलब है कि इन दिनों भारत और चीन के बीच सिक्किम के डोकलाम में तनातनी का माहौल बना हुआ है। चीन के सरकारी कार्यालय ने यह भी सूचना थी कि राश्ट्रपति जिनपिंग जर्मनी में हो रहे जी-20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात नहीं करेंगे। हालांकि ऐसा नहीं हुआ दोनों नेताओं के बीच द्विपक्षीय बातचीत इस सम्मेलन में हुई है पर डोकलाम में जो सवाल चीन ने सुलगाया है क्या जी-20 में हुई मुलाकात बौछार का काम करेगी। चीन की आदत को देखते हुए उम्मीद करना बेमानी है। देखा जाय तो जी-20 का सम्मेलन देषों के बीच सद्भावना भर पाने में उतना कारगर नहीं रहा है। हालांकि चीन के साथ छत्तीस का आंकड़ा प्रधानमंत्री मोदी की इज़राइल यात्रा का परिणाम भी हो सकता है। जाहिर है चीन या पाकिस्तान को भारत की वैष्विक कूटनीति तनिक मात्र भी नहीं भाती साथ ही चीन भारत को उभरती अर्थव्यवस्था के तौर पर भी नहीं पचा पाता है। मुष्किल तब और बढ़ जाती है जब अमेरिका जैसे देषों से गाढ़ी दोस्ती कर बैठता है। फिलहाल देखा जाय तो दुनिया में दो समस्याएं आपे के बाहर हो रही हैं जिसके लिए प्रकृति नहीं कहीं-न-कहीं मानव ही जिम्मेदार है। एक जलवायु परिवर्तन तो दूसरा आतंकवाद। सवाल है कि जी-20 के सम्मेलन में क्या इस पर चिंता पुख्ता हुई है। पेरिस संधि से अमेरिका का हटना ऐसे मुद्दों से बेफिक्री का पुख्ता सबूत है। प्रधानमंत्री मोदी इस प्रकार की समस्याओं का जिक्र पहले की विदेष यात्राओं एवं अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर कर चुके हैं। दुनिया के तमाम देष इससे निपटने के इरादे भी जता चुके हैं पर क्या इस पर काबू पाया जा चुका है। जाहिर है यह आज भी दूर की कौड़ी बना हुआ है।
सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में जी-20 को भी याद किया जा सकता है। रूस के साथ रचनात्मक कार्य करने का ट्रंप का इरादा एक अच्छा संदेष है। भ्रश्टाचार से लड़ने के लिए भारत समेत जी-20 के अन्य देषों के लिए एक मजबूत प्रस्ताव भ्रश्टाचार रोधी कार्य योजना 2017-18 को स्वीकार किया जाना इस सम्मेलन की खासियत रही है। भारत की तरफ से सतत् व समावेषी विकास के लिए उठाये गये कदमों जैसे कारोबार सुगमता, स्आर्टअप फण्डिंग और श्रम सुधारों के लिए जी-20 सम्मेलन में सराहना की गयी। इसके अतिरिक्त कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को भी महत्ता की नजरों से देखा गया। जिस तर्ज पर भारत अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर बीते तीन वर्शोंे से कूटनीतिक बढ़त ले रहा है उससे साफ है कि दुनिया के देषों द्वारा भारत को दरकिनार किया जाना फिलहाल अब सम्भव नहीं है। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का मोदी से स्वयं मिलने की पहल भी यह स्पश्ट करती है कि ऐसे मंचों पर भारत साख के मामले में समानता की पंक्ति में खड़ा है। ये बात और है कि सीरिया और यूक्रेन जैेसे मुद्दों को जी-20 में जगह मिलता रहा और यूक्रेन तो अमेरिका और रूस के बीच दूरी बढ़ाने का काम किया। रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के समक्ष इसकी जवाबदेही रही है पर इस बार वे भी काफी सहज महसूस किये होंगे। अमेरिका और चीन के बीच भी हाथ मिले हैं जबकि दक्षिणी चीन सागर में भारत, जापान और अमेरिका के नौसैनिकों का मिलकर किया गया अभ्यास चीन के लिए किरकिरी का काम किया था। फिलहाल 12वां जी-20 नरम-गरम मामलों के साथ समाप्त हो गया पर 2018 में अर्जेन्टीना में 13वें सम्मेलन के रूप में फिर परिलक्षित होगा। जाहिर है इसमें भी बदले हुए देषों की बदली हुई तस्वीर परिलक्षित होगी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, July 6, 2017

दुनिया ने देखी हिंदी और हिब्रू की मुलाकात

इतिहास पढ़ने का एक लाभ यह है कि हमें अतीत की घटनाओं को समझने-बूझने का न केवल अवसर मिलता है बल्कि उन परम्पराओं, संस्कृतियों और सभ्यताओं की भी जानकारी मिलती है जो सदियों पहले इसी धरातल पर किसी न किसी रूप में उपस्थित थी। दो टूक यह भी है कि सदियों से इतिहास के बनने-बिगड़ने की परंपरा भी इसी धरती पर रही और सभी के लिए अवसर भी कमोबेष यहां घटते-बढ़ते देखे गये। ऐसे ही एक ऐतिहासिक घटना तब घटी जब प्रधानमंत्री मोदी ने इज़राइल दौरा किया। दोनों देषों के बीच रिष्तों की जो तुरपाई हुई उसे दुनिया ने खुली आंखों से देखा। मोदी की इज़राइल यात्रा बीते 4 से 6 जुलाई के बीच सम्पन्न हुई। खास यह है कि जिस षिद्दत के साथ मोदी का इज़राइल में स्वागत हुआ और जिस प्रकार तीन दिन तक मोदी ने देषाटन और तीर्थाटन किया वह भी गौर करने वाली है। मित्रता की प्यास से अभिभूत इज़राइल भारत का बीते सात दषकों से इंतजार कर रहा था। बेषक चार दषकों तक दोनों के बीच कोई राजनयिक सम्बंध नहीं था पर बीते ढ़ाई दषकों से कूटनीतिक सम्बंध कायम रहे और अब मुलाकात पक्की दोस्ती में तब्दील हो गयी। हिन्दी और हिब्रू के बीच की यह मुलाकात इतिहास के पन्नों में जरूर दर्ज की होगी। गौरतलब है इज़राइल यहूदी धर्म की मान्यता से पोशित है और हिब्रू भाशा का पोशक है। हालांकि दोनों देषों के बीच मुलाकात पहले हुए हैं पर कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री इज़राइल नहीं गया था। कहा जाता है कि जब मन अपना भी हो और फायदा भी दिखता हो तो रिष्ता बनाने में पीछे क्यों रहें और वह भी तब जब मौजूदा समय में चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से हमारा सम्बंध छत्तीस के आंकड़ें को भी पार कर चुका हो। दोनों पड़ोसी की तानाषाही और जुर्रत को देखते हुए इज़राइल में भारत के मोदी का प्रवेष बिल्कुल सही लगता है। जाहिर है सुरक्षा के लिए हथियार और मनोबल बढ़ाने के लिए धरातल पर एक और मित्र तैयार करना हर हाल में राश्ट्र के लिए षुभ ही है। 
मोदी बीते तीन वर्शों में 65 से अधिक देषों की यात्रा कर चुके हैं। चीन और पाकिस्तान को छोड़ दिया जाय तो किसी से हमारी कूटनीति असंतुलित नहीं प्रतीत होती। गौरतलब है इतिहास रचने और जोखिम लेने में मोदी काफी आगे रहे हैं। इसी तर्ज पर इज़राइल की यात्रा भी देखी जा सकती है। इस यात्रा के बाद सम्भव है कि वैष्विक कूटनीति भी बदलेगी और देष की रक्षात्मक तकनीक भी सुधरेगी। बीते 5 जुलाई को मोदी ने अपने समकक्ष बेंजमिन नेतन्याहू से सात द्विपक्षीय समझौते किये जिसमें 40 मिलियन डाॅलर के भारत-इज़राइल इण्डस्ट्रीयल एण्ड टैक्नोलाॅजिकल इनवेंषन फण्ड भी षामिल है। स्पश्ट है कि दोनों देष इस फण्ड के माध्यम से उक्त क्षेत्र में व्यापक सुधार को प्राप्त कर सकेंगे। इज़राइल दौरे की खासियत यह रही कि जो समझौते हुए वे भारत के लिए मौजूदा समय में कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। मसलन जल संरक्षण, जल प्रबंधन, गंगा नदी की सफाई, कृशि के क्षेत्र में विकास समेत छोटे सेटेलाइट को बिजली के लिए प्रयुक्त करने आदि। गौरतलब है कि इज़राइल 13 ऐसे मुस्लिम देषों से घिरा है जो उसके कट्टर दुष्मन हैं और बरसों से इनसे लोहा लेते-लेते तकनीकी रूप से न केवल दक्ष होता गया बल्कि सभी सात युद्धों में वह सफल भी रहा। मोदी इज़राइल के जिस सुइट में ठहरे थे वह दुनिया का सबसे सुरक्षित ठिकाना माना जाता है। इस पर बमों की बरसात, रासायनिक हमला या किसी भी प्रकार मानवजनित या प्राकृतिक आपदा हो पर उस पर कोई असर नहीं होता। जाहिर है यह इज़राइल की सुरक्षित और पुख्ता ताकत ही है। इज़राइल की तकनीक इतनी दक्ष है कि आतंकी भी इसकी तरफ देखना पसंद नहीं करते। 
देखा जाय तो प्रत्येक दौरे की अपनी सूझबूझ होती है इज़राइल दौरा भी इससे अलग नहीं है। भारत ने जिस प्रकार इज़राइल से प्रगाढ़ता दिखाई है जाहिर है उसका असर अमेरिका जैसे मजबूत देष को सकारात्मक महसूस हुआ होगा जबकि पाकिस्तान तथा चीन को यह कहीं अधिक चुभा होगा। गौरतलब है कि इन दिनों सिक्किम के डोकलाम को लेकर चीन भारत को आंख दिखा रहा है, 1962 की याद दिला रहा है। हर वह हथकण्डे अपनाने की फिराक में है जिससे भारत को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर किया जा सके। 6 जुलाई को चीन की ओर से यह भी कह दिया गया कि 7-8 जुलाई को जर्मनी में होने वाले जी-20 के सम्मेलन में जिनपिंग और मोदी की मुलाकात नहीं होगी। इतना ही नहीं चीन 51 सौ मीटर ऊंचे पहाड़ी पर टैंक युद्धाभ्यास करके भारत को दबाव में लेने की कोषिष भी कर रहा है। चीन की इस कलाबाजी से फिलहाल भारत वाकिफ है। ऐसे में भारत का इज़राइल में प्रवेष किया जाना कूटनीतिक और रक्षात्मक दृश्टि से बिल्कुल उचित है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन, पाकिस्तान व फिलीस्तीन समेत कुछ खाड़ी देष इस बात से चिंतित हो रहे होंगे कि भारत, अमेरिका और इज़राइल तीनों मिलकर दुनिया में एक मजबूत ध्रुव बन सकते हैं। गौरतलब है कि अमेरिका दुनिया का षक्तिषाली देष, इज़राइल सर्वाधिक तकनीकी हथियारों से युक्त देष जबकि भारत न केवल उभरती बड़ी अर्थव्यवस्था बल्कि बड़े बाजार का मालिक भी है। चीन अच्छी तरह जानता है कि उसका भी बाजार भारत के बगैर पूरा नहीं होता परन्तु विवाद और बाजार दोनों पर चीन एकतरफा नीति अपनाना चाहता है। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी का इज़राइल वाला मास्टर स्ट्रोक इज़राइल को तो मनोवैज्ञानिक बढ़त दे ही रहा है परस्पर ऊर्जा भारत को भी मिल रही है। विष्व के बीस देष 12वें जी-20 सम्मेलन में इकट्ठे हो रहे हैं। इस बार विष्व में जहां अषान्ति, राजनीतिक उथल-पुथल और व्यापारिक मतभेद चल रहे हैं वहीं कूटनीतिक समीकरण भी बदले हैं। जाहिर है जी-20 पर कई समस्याओं का साया रहेगा। जिनपिंग और मोदी के दूर-दूर रहने से यह और गाढ़ा होगा। चीन की मनमानी भारत बर्दाष्त नहीं करेगा और चीन अपनी ताकत पर घमण्ड करना नहीं छोड़ेगा। निदान क्या है आगे की नीति और कूटनीति के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल यही कहा जा सकता है कि विष्व में बह रही धारा प्रवाह कूटनीति में कभी न कभी ऐसी धारा फूटेगी जो सभी को षान्त और साझीदार बना देगी। जिस तर्ज पर भारत और इज़राइल ने ऐतिहासिक साझेदारी की है यदि उसका क्रियान्वयन उचित मार्ग से चला तो भारत, पाकिस्तान और चीन को संतुलित करने में काफी हद तक सफल होगा। क्षेत्रफल में भारत के मिजोरम प्रान्त के लगभग बराबर और जनसंख्या में मात्र 83 लाख वाला इज़राइल ने जिस कदर दुष्मनों से लोहा लिया और जिस रूप में अपना सुरक्षा कवच तैयार किया है वह भी भारत को बहुत कुछ सिखाता है। ध्यान्तव्य हो कि भारत ने इज़राइल को 1950 में मान्यता दी थी परन्तु राजनयिक सम्बंध नहीं कायम किये। इसका प्रमुख कारण भारत द्वारा फिलीस्तीनियों को दिया जाने वाला समर्थन है। इसके पीछे भारत की कुछ प्रतिबद्धताएं भी थीं। भारत यद्यपि तटस्थ देष है फिर भी उसका झुकाव सोवियत रूस की ओर था जबकि इज़राइल अमेरिका की ओर झुका था बावजूद इसके सम्बंध बने रहे साथ ही आतंक से जूझने वाले भारत को इज़राइल का साथ मिलता रहा अब तो सम्बंध परवान चढ़ने से आतंकियों का षरणगाह पाकिस्तान भी छटपटा रहा होगा। पाकिस्तानी मीडिया की भी मोदी और बेंजमिन की मुलाकात पसीने छुड़ा रही है। इसके अलावा दुनिया के अन्य टीवी चैनलों और अखबारों में भारत और इज़राइल की मुलाकात को अलग-अलग दृश्टिकोणों से न केवल देखा जा रहा है बल्कि आगे की राह क्या होगी इस पर भी चर्चा जोरों पर है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, July 3, 2017

विवादों का रचयिता है चीन

चीन को यह कौन समझाये कि 1962 और 2017 में बहुत अंतर है। इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। कूटनीति में अक्सर यह कम ही देखा गया है कि दो देशों के प्रतिनिधियों के बीच मुलाकातें भी लगातार हो रही हों और तनानती का माहौल भी कायम हो। भारत और चीन के मामले में यह दोनों बातें सटीक हैं। हालांकि कूटनीति में यह बात भी षीषे में उतारने वाली रही है कि मुलाकातों से ही सम्बंध परवान चढ़ते हैं पर क्या यह भारत और चीन के मामले में सही करार दिया जा सकता है। गौरतलब है कि बीते तीन वर्श में प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग के बीच दर्जन भर मुलाकात हो चुकी है पर विवादों का न तो कोई निपटारा हुआ है न ही भारत को कोई खास कूटनीतिक बढ़त ही मिली है यदि कुछ बढ़ा है तो चीन की दकियानूसी सोच और भारत की जमीन पर उसकी कुदृश्टि। मोदी और जिनपिंग के बीच मुलाकात उसी तरह रहे हैं जैसे दो देषों के प्रतिनिधियों के बीच होता है पर मुनाफा दो तरफा हुआ है यह सही नहीं है। भारत के बाजार पर चीन का तुलनात्मक कई गुना कब्जा होना और लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेष तक सीमा विवाद खड़ा करना इस बात का सबूत है कि बाजार और विवाद दोनों के मामले में चीन ही भारी पड़ा है। सभी जानते हैं कि साल 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके वर्श 1954 के पंचषील समझौते की धज्जियां उड़ाई थीं। इतना ही नहीं पाकिस्तान का लगातार साथ देकर भारत की कूटनीति को बौना करना इसकी फितरत रही है। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् ने पाक आतंकियों के मामले में वीटो करके वह कई बार अपनी संकीर्ण सोच को प्रदर्षित कर चुका है।
सीमा विवाद के मामले में चीन का रवैया कभी भी उदार नहीं था। अरूणाचल प्रदेष के मामले में उसकी सोच न केवल गलत है बल्कि भारत को हैरान करने वाली है। देखा जाय तो चीन ऐसे मौकों की फिराक में रहता है जहां से भारत को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर किया जा सके। इन दिनों भारत और चीन के बीच तनाव की एक नई वजह पैदा हो गयी। नया मामला यह है कि अब भारत चीन की उन करतूतों को लेकर पेषोपेष में है जिसके केन्द्र में सिक्किम की चुम्बी घाटी आती है। ध्यान्तव्य हो कि यहां पर भारत, भूटान समेत चीन की सीमाएं मिलती हैं। गौरतलब है कि डोकलाम पठार चुम्बी घाटी का ही हिस्सा है साथ ही यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर चीन का षहर याडोंग है जो हर मौसम में चालू रहने वाली सड़क से जुड़ा है और नाथुला दर्रा की दूरी भी यही कोई 15 किलोमीटर है। प्रसंग यह है कि जून के षुरूआती दिनों में चीनी कामगारों ने याडोंग से इस इलाके में सड़क को आगे बढ़ाने की कोषिष की और ऐसा करने से भारतीय जवानों ने उन्हें रोका जाहिर है कि भारतीय जवानों द्वारा ऐसा करना वाजिब था। भूटान भी डोकला इलाके में चीन की मौजूदगी का विरोध कर चुका है। स्पश्ट है कि चीन की इस करतूत से कई तरीके की समस्याओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। असल में चुम्बी घाटी पर प्रभुत्व जमाना चीन की नियत में षुमार हो गया है। इससे भौगोलिक स्थिति को व्यापक करने साथ ही भारत, भूटान की गतिविधियों पर निगरानी रखना उसके मनसूबे में षामिल है जबकि दो टूक सच्चाई यह है कि चीन का जगह विषेश से कोई लेना-देना नहीं है पर ड्रैगन अपनी पुरानी आदतों से बाज कब आया है। वैसे इस मामले की पड़ताल बताती है कि पहली बार जून, 2012 में स्थापित भारत के दो बंकरों को यहां से हटाने के लिए कहा गया था। कई साल से इस क्षेत्र में गष्त कर रही भारतीय सेना ने 2012 में ही फैसला लिया कि भूटान-चीन सीमा पर सुरक्षा मुहैया कराने के लिए बंकरों को रखा जायेगा जिसे चीनी बुल्डोजरों ने जून में तबाह कर दिया।
स्थिति और बदलती परिस्थिति को भांपते हुए भारत ने सिक्किम के इस इलाके में अपने कदम को मजबूत बनाने के लिए सैनिकों की मात्रा को बढ़ा दिया है। जाहिर है भारत और चीनी सैनिकों के बीच इन दिनों गतिरोध परवान चढ़ा हुआ है। माना जा रहा है कि 1962 के बाद से यह सबसे लम्बा गतिरोध है। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य इस ओर इषारा करते हैं कि चीन की नीतियां हमेषा भारत के लिए मुष्किले खड़ी करने वाली रही हैं। हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भारत ने तो पचा लिया पर चीन को आज भी नागवार गुजरता है। पंचषील समझौते को ध्वस्त किया जाना इसका सबूत है। हाल ही में चीन की ग्लोबल योजना वन बेल्ट, वन रोड़ जिससे भारत दूरी बनाये रखा वह भी कहीं न कहीं भारत के लिए नुकसान से भरी परियोजना ही कही जायेगी। चीन द्वारा खड़े किये गये फंसादों की फहरिस्त काफी लम्बी है जिसमें ट्राई जंक्षन में चीन द्वारा सड़क बनाना और विवादित नक्षा जारी करना समेत नाथुला के रास्ते कैलाष मानसरोवर की यात्रा को रोकना षुमार है। इसके अतिरिक्त अरूणाचल प्रदेष को लगातार विवादित इलाका बताना और यह धमकी देना कि 1962 जैसा हाल होगा हालांकि भारत ने इसका कड़ा जवाब दिया है। महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट वन बेल्ट, वन रोड़ को पाक अधिकृत कष्मीर से ले जाना और अब चुम्बी घाटी को लेकर विवाद उत्पन्न करना। उपरोक्त संदर्भ यह दर्षाते हैं कि दुनिया को सपने दिखाने वाले चीन के लिए मानो भारत किसी किरकिरी से कम न हो। पड़ोसियों पर प्रभुत्व स्थापित करना चीन की कूटनीति और फितरत रही है। नेपाल और भूटान में अपनी दखल को लेकर चीन रास्ते खोजता रहता है ताकि भारत की कूटनीति को इस मार्ग से भी कमजोर किया जा सके। हालांकि भूटान और नेपाल यह कहते रहे हैं कि उनकी जमीन का उपयोग भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए किसी को अनुमति नहीं देगी पर समय, सियासत और कूटनीति स्थाई नहीं होते ऐसे में भारत को अधिक चैकन्ना रहना जरूरी है।  
फिलहाल जिस तर्ज पर चीन की तानाषाही और दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाली कोषिषें अनवरत् रहती हैं उसे देखते हुए साफ है कि किसी भी कोण व दृश्टिकोण से चीन पर विष्वास नहीं किया जा सकता। इसकी तानाषाही का एक ताजा सबूत यह भी है कि बीते 2 जुलाई को हांगकांग में मुख्य कार्यकारी का षपथ ग्रहण समारोह था। गौरतलब है कि हांगकांग चीन षासित एक क्षेत्र है जहां लोकतंत्र का आभाव है और यहां पर कार्यकारियों की नियुक्ति बीजिंग के इषारे पर होती है। हांगकांग जनघनत्व में भारी परन्तु जीवन की गुणवत्ता के मामले में कहीं अधिक प्रभावषाली क्षेत्र है। यहां के आधारभूत संरचना भी तुलनात्मक सषक्त और बेहतरीन है। बावजूद इसके लोकतंत्र की खामी से गुजरना इसकी दुखती रग है। यहां के लोगों को आत्मनिर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है। बीते दिसम्बर हांगकांग में हुए एषिया पेसिफिक समारोह में मेरी भी उपस्थिति थी। दो दिवसीय प्रवास में हांगकांग को मुझे भी करीब से समझने का अवसर मिला। व्यापार, व्यवसाय, सड़क सुरक्षा एवं जीवन से जुड़े दृश्टिकोण भी काफी सधे नजर आये पर षी जिनपिंग की धौंस से यह क्षेत्र बेखौफ नहीं है। राश्ट्रपति के तौर पर हांगकांग के अपने पहले दौरे में जिनपिंग ने वहां की जनता को आजादी या आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करने पर नतीजा भुगतने की जो धमकी दी वह कम्यूनिस्ट तानाषाही की असलियत ही बताती है। फिलहाल सिक्किम की चुम्बी घाटी से भारत-चीन के दरमियान ताजी तनातनी के बीच मोदी और जिनपिंग की आगामी 7 जुलाई को जी-20 के षिखर सम्मेलन में एक बार फिर जर्मनी में मुलाकात हो सकती है पर देखने वाली बात यह होगी कि मुलाकात की संख्या में एक और वृद्धि मात्र होगी या फिर विवादों को भी ठण्डक पहुंचेगी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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