Wednesday, April 26, 2017

लोकतंत्र की राह और दिल्ली

जब मुम्बई स्थानीय निकाय के चुनाव के नतीजे फरवरी में आये और 227 के मुकाबले 82 पर बीजेपी काबिज हुई जो वहां के स्थानीय दल षिवसेना से महज़ 2 स्थान से ही पीछे थी तब यह विमर्ष जोर पकड़ा था कि नोटबंदी का कोई नकारात्मक असर लोगों में नहीं गया है और यह बात तब और पुख्ता हो गयी जब मार्च में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। बामुष्किल अभी इससे जुड़े चर्चा एवं परिचर्चा समाप्ति की ओर थे कि दिल्ली स्थानीय निकायों के नतीजों से यह सिद्ध हो गया कि लोकतंत्र के हर सोपान पर भाजपा की तूती बोलती है और उसके हर नीतिगत निर्णय जनता को खूब भा रहे हैं। हालांकि इसे मोदी सरकार की नीतियों का परिणाम माना जा रहा है और हर भाजपाई मोदी चालीसा पढ़ने में तनिक मात्र भी गुरेज नहीं कर रहा है, करे भी क्यों जब उसके षीर्श नेतृत्व के चेहरे में मतदाताओं का इतना बड़ा रूझान छुपा हो तो ऐसा होना लाज़मी है। जाहिर है प्रत्येक चुनाव के बाद इस मामले में कसीदे और गढ़े जाते हैं और गाढ़े भी हो जाते हैं। इसमें कोई षक नहीं कि भाजपा बीते तीन वर्शों में पूरे देष में बड़े बदलाव से गुजरी है और यह सिलसिला बादस्तूर अभी जारी है जबकि दूसरे दलों में भी बड़ा बदलाव हो रहा है पर इनके हिस्से केवल हार आ रही है। बीते 11 मार्च को 5 विधानसभा चुनाव के नतीजे घोशित हुए थे। पंजाब को छोड़ उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत गोवा एवं मणिपुर में भाजपा ही सत्ता पर काबिज हुई। इतना ही नहीं यूपी और उत्तराखण्ड में तो जनमत इतना बड़ा था कि बाकी दलों के लिए चुनावी महोत्सव किसी तबाही से कम नहीं थे। जो हश्र इन दिनों भाजपा से ताल ठोकने वाले दलों का हो रहा है इससे यह रेखांकित होता है कि इनकी राह न केवल कठिन है बल्कि किसी अंधेरे गली की ओर है। स्पश्ट कर दें कि दो साल पहले केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में ऐतिहासिक और अभूतपूर्व जीत हासिल करके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा किया था साथ ही कांग्रेस और भाजपा को दिल्ली की सियासत से दरकिनार कर दिया था कांग्रेस 70 के मुकाबले षून्य पर रही जबकि भाजपा तीन सीटों पर सिमट गयी थी। तब यह विमर्ष भी जोर लिए था कि मोदी नीति से दिल्ली की जनता बेफिक्र है और वे अपने कृत्यों से आकर्शित नहीं कर पाये जबकि राजनीति की नज़ाकत को देखते हुए भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर किरण बेदी को भी मैदान में उतार दिया था। हालांकि फरवरी 2015 में घोशित दिल्ली विधानसभा के नतीजे तक मोदी के कार्यकाल को जमा 8 महीने ही हुए थे। उस दौरान सभी हैरत में थे कि जो भाजपा 2014 के मई में घोशित लोकसभा के परिणाम में प्रचण्ड जीत हासिल करती हो साथ ही दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर कब्जा करती हो वही विधानसभा में इतनी बुरी हार का सामना कैसे कर सकती है। 
राजनीतिक षोध यह इषारा करता है कि मोदी विरोध दिल्ली के अंदर साल 2013 में ही आम लोगों में व्याप्त था तभी तो दिल्ली में दो नतीजे आये थे। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में जनता केजरीवाल को और देष में मोदी को चाहती थी। उसी का परिणाम था कि 26 मई, 2014 को मोदी देष के प्रधानमंत्री बने और जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव फरवरी 2015 में हुआ तो केजरीवाल ऐतिहासिक बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि जिस केजरीवाल को लोगों ने दिल्ली की भलाई के लिए एकतरफा मत दिया था क्या केजरीवाल उस पर स्थिर बने रहे। जाहिर है जब सारी सीटें केजरीवाल को जनता ने दिया है तो वही जनता उनसे अपेक्षा भी भारी-भरकम रखेगी परन्तु दिल्ली की सफलता से अभीभूत केजरीवाल स्वयं को भारत की सियासत में क्षितिज का नेता समझने लगे और अपनी तुलना सीधे उसी प्रधानमंत्री से करने लगे जिसे देष की जनता ने 30 साल बाद पूर्ण बहुमत के साथ देष की बागडोर सौंपी थी। इतना ही नहीं हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव में आप ने पंजाब और गोवा में सत्ता हथियाने के मनसूबे से अपनी जोरदार दखल भी दी पर नतीजे सब को पता हैं। सौ फीसदी सत्ता पर काबिज होने की बात करने वाले केजरीवाल के लिए लोकतंत्र निहायत घाटे का सौदा सिद्ध हुआ और यह भी संदेष गया कि आप उसी प्रकार की राजनीति में संलिप्त है जैसे अन्य हैं। उपरोक्त को देखते हुए क्या यह माना जाय कि देष या प्रदेष का मतदाता इस बात को समझने की कोषिष कर रहा है कि जिम्मेदारी की सीमाओं में जो नहीं रहेगा उसे ऐसी ही पटखनी मिलती रहेगी। रोचक तो यह भी है कि दिल्ली में दो साल से अधिक समय से केजरीवाल की सरकार चल रही है जहां कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया जब केन्द्र सरकार और वहां के उपराज्यपाल से उनकी अनबन न रही हो। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस तर्ज पर केजरीवाल सियासत में दाखिल हुए थे क्या उस पर वे स्वयं कायम थे। दिल्ली स्थानीय निकाय के नतीजे इस बात को पुख्ता करते हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार और उसकी नीतियों से लोग बेहद खफा हैं। 
गौरतलब है कि 14वीं लोकसभा के चुनाव के समय 2004 से ही पूरे देष में ईवीएम का उपयोग होने लगा था। देखा जाय तो बीते विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद ईवीएम को लेकर भी खूब राजनीति हुई है। मायावती समेत अनेक विपक्षी ने इस मामले को लेकर भाजपा पर खूब निषाना साधा जबकि केजरीवाल के लिए ईवीएम एक ऐसा मुद्दा था जिसकी जद् में चुनाव आयोग और बीजेपी दोनों थे। एमसीडी के नतीजे यह भी इषारा कर रहे हैं कि इन गतिविधियों से भी केजरीवाल की पार्टी की न केवल छवि खराब हुई बल्कि जनता में यह संदेष भी चला गया कि वे बेतुकी बात कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इसी ईवीएम से इन्हें भी 70 के मुकाबले 67 सीट मिली थी और हाल ही में पंजाब विधानसभा में हुए चुनाव और प्रयोग में लाई गयी ईवीएम से ही कांग्रेस सत्ता पर काबिज़ हुई है, तो फिर ये हो-हल्ला क्यों? हालांकि यह मुखर संदर्भ इस बात की दरकार रखता है कि यदि ईवीएम किसी गड़बड़ी से युक्त है तो जांच-पड़ताल होनी चाहिए साथ ही लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसका पूरा माजरा सामने आना चाहिए। गौरतलब है कि वर्श 2009 में 15वीं लोकसभा के नतीजों के बाद भाजपा भी ईवीएम पर सवाल उठा चुकी है। फिलहाल एमसीडी चुनाव में केजरीवाल बुरी तरह परास्त हुए हैं और 2012 में 77 सीट जीतने वाली कांग्रेस आधे पर ही सिमट गयी है जबकि विधानसभा में तीन सीटों पर सिमटी बीजेपी पिछले नतीजे 138 के मुकाबले और बड़ी जीत करते हुए लोकतंत्र की बुलन्दी पर है। फिलहाल यह भी समझ लेना सही होगा कि लोकतंत्र पर किसी एक का कब्जा नहीं है। यदि मतदाता को खटका तो किसी को भी झटका दे सकता है। साफ है कि इस चुनाव से एक बार फिर स्पश्ट हो गया कि लोकतंत्र की राह और दिल्ली के मतदाता को समझना आसान तो नहीं है। सवाल तो यह भी है कि क्या केजरीवाल नासमझी कर रहे हैं। दिल्ली एमसीडी के नतीजे में आप दूसरे नम्बर जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर है इन सबके बीच भाजपा की जीत को ईवीएम की जीत के आरोप यहां भी लग रहे हैं। हार के बाद सभी केजरीवाल की लानत-मलानत कर रहे हैं। अन्ना हज़ारे भी केजरीवाल को राह से भटका मान रहे हैं। सबके बावजूद क्या यह मान लिया जाय कि लोकतंत्र के सभी सोपान में क्या मतदाता भाजपा को ही देखना चाहती है। हो न हो यूपी में योगी की कार्यप्रणाली भी दिल्ली के मतदाताओं को प्रभावित किया हो फिलहाल लोकतंत्र की राह में भाजपा एक और पड़ाव पार कर चुकी है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Monday, April 24, 2017

न्यू इंडिया और पुराना भारत

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक संरचनात्मक परिवर्तन आये दिन होते रहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इन परिवर्तनों के आधार पर ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अर्थव्यवस्था विकास की किस स्थिति में है। भारत का आर्थिक ढ़ांचा और उससे जुड़ा व्यवहार सात दषकों से नये-नये प्रयोगों से गुजरा है। स्वतंत्रता के बाद 15 मार्च, 1950 को योजना आयोग का परिलक्षित होना तत्पश्चात प्रथम पंचवर्शीय योजना की प्रारम्भिकी इसी अनुप्रयोग का एक हिस्सा था जो भारत में बड़ी-बड़ी योजनाओं के निर्माण का सूत्रधार सिद्ध हुआ जिसे मोदी सरकार ने समाप्त करते हुए नीति आयोग का गठन किया। फिलहाल लगभग साढ़े छः दषक की लम्बी अवधि में 12 पंचवर्शीय योजना देष को मिली और इस दरमियान प्लान हाॅलिडे का भी अवसर आया। फिलहाल इस योजनाओं के चलते आर्थिक विकास तथा आर्थिक समृद्धि में भी अच्छा खासा परिवर्तन आया। सम्भव है कि समय के साथ नीति और परिप्रेक्ष्य बदलाव लेते हैं जाहिर है नीति आयोग का अवतरित होना और योजना आयोग का समापन समय का चक्र ही कहा जायेगा। इसी क्रम की अगली कड़ी में नये विजन से जुड़े ‘न्यू इण्डिया‘ को भी देखा जा सकता है। जिस तर्ज पर चीजें बदलती हैं, संवरती हैं और जनमानस को सम्भावनाओं से भरती हैं क्या उसी प्रकार के विजन से ‘न्यू इण्डिया‘ युक्त है इसे भी समझना जरूरी है। पड़ताल तो इस बात की भी करनी सही होगी कि इसके अंदर के निहित कार्यक्रम भाव और संदर्भ को लेकर कितने भिन्न हैं। क्या पहले की योजनाओं और कार्यक्रमों से ‘न्यू इण्डिया‘ का विजन सामाजिक अर्थव्यवस्था की दृश्टि में इतर है? सभी के पास आवास, षौचालय, एलपीजी कनेक्षन, बिजली और डिजिटल कनेक्टीविटी की बात इसमें कही गयी है। दो पहिया वाहन से लेकर चार पहिया तक और एयरकंडीषन का सुख भी मिले इसकी भी पहुंच इसमें दर्षाया गया है। ऐसे भारत की बात कही गयी है जिसमें सभी साक्षर होंगे और सभी के लिए स्वास्थ सुविधायें सुलभ होंगी। इसके अलावा भी कई ऐसी बातें भी निहित हैं जिसका ताना-बाना देष के आधारभूत ढांचे में अक्सर बुना जाता है। रेल और रोड़ का बड़ा नेटवर्क ‘न्यू इण्डिया‘ का भारी-भरकम विजन है साथ ही गांव और षहरों की सफाई भी इसका अहम हिस्सा है। 
उपरोक्त संदर्भ काफी हद तक नये तो कुछ पुराने की तरह ही परिलक्षित होते हैं परन्तु सरकार का यह कदम ‘न्यू इण्डिया‘ का बड़ा विजन है जिसमें अगले 15 साल में सालाना आमदनी में दो लाख रूपये की वृद्धि करने की बात कही गयी है। जाहिर है नेहरूयुगीन योजना को समाप्त कर इस चुनौती से सरकार भी दो-चार हुई होगी कि बेहतर उपाय क्या हो सकता है। विकास को लेकर जो 15 वर्शीय विजन है और जिसका लक्ष्य वर्श 2031-32 है वह काफी रोचक प्रतीत होता है। इतने लम्बी अवधि में अर्थव्यवस्था की दिषा-दषा क्या होगी पूरा आंकलन आज ही से करना षायद ही सम्भव हो। देष का सकल घरेलू उत्पाद और विकास दर किस करवट होगा इसका अंदाजा भी अभी से पूरी तरह सम्भव नहीं है। माना तो यह भी जा रहा है कि करीब 2 लाख रूपए देष की प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी। गौरतलब है कि 31 मार्च 2017 को 12वीं और अन्तिम पंचवर्शीय योजना की विदाई हो चुकी है। अब कोई नई पंचवर्शीय योजना भारत में देखने को नहीं मिलेगी परन्तु देष योजना विहीन भी तो नहीं रहेगा। जाहिर है ऐसे में एक नया माॅडल इसकी जगह लेगा मसलन 15 वर्शीय विजन दस्तावेज 2017-18 से 2031-32 तक, सात वर्शीय रणनीति 2017-18 से 2023-24 तक और त्रिवर्शीय कार्योजना 2017-18 से 2019-20। फिलहाल नये ढांचे और नये प्रारूप में अभी देष की अर्थव्यवस्था को आदत नहीं है पर विकास और समृद्धि को लेकर नये प्रयोग से देष को गुरेज भी नहीं है। गौरतलब है सामाजिक अर्थव्यवस्था जितनी सषक्त होगी जीवन उतना ही सुलभ होगा। जिस चाह के साथ सरकार न्यू विजन के तहत ‘न्यू इण्डिया‘ का आगाज कर रही है उसमें इस बात का इतना ख्याल है कि सामाजिक सोपान में आने वाले सभी लाभ युक्त होंगे ये देखने वाली बात होगी। 
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी बीते 3 वर्शों में देष में कई प्रयोग कर चुके हैं जिसमें नोटबंदी सबसे बड़ा उदाहरण है। काले धन को समाप्त करने की दिषा में यह एक जोखिम से भरे कदम के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि इस मामले में पूरी तरह सफलता मिली है कहना अभी भी सम्भव नहीं है। जाहिर है विकास दर में गिरावट और बेरोजगारी समेत कई समस्याओं से देष आज भी कमोबेष जूझ रहा है इसमें नोटबंदी का साइड इफेक्ट भी षामिल है। फिलहाल जिस तेवर के साथ प्रधानमंत्री मोदी देष के तंत्र में अपना रसूख रखते हैं उसे देखते हुए नये-नये प्रयोगों की गुंजाइष आगे भी रहेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 23 अप्रैल को नीति आयोग की बैठक में उन्होंने नसीहत दी कि बदल गया है जमाना, बदल जायें आप। देष के नौकरषाहों को भी आगाह किया कि हिम्मत और ईमानदारी से काम करें। मोदी वित्त वर्श में भी बड़ा संषोधन चाहते हैं। मौजूदा समय में इसकी अवधि अप्रैल से मार्च है जिसे जनवरी से दिसम्बर करने का इरादा उन्होंने दर्षाया है। नीति आयोग की बैठक में 15 साल का रोड मैप भी पेष किया गया। देष के आर्थिक विकास को रफ्तार देने के लिए 3 सौ विषेश कार्य बिन्दु भी रखे गये और मुख्यमंत्रियों को सलाह दिया गया कि सुषासन और विकास को अपना हथियार बनायें। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि बीते सात दषकों में देष की जीडीपी में जितनी वृद्धि हुई उससे कई गुना आने वाले 15 वर्शों में वृद्धि हो जायेगी साथ ही यह भी उम्मीद जताई गयी कि मौजूदा विकास दर 8 प्रतिषत की वृद्धि दर से आगे बढ़ेगा। चाहे ‘न्यू इण्डिया‘ हो या पुराना भारत अर्थव्यवस्था तथा उसके विकास को लेकर सरकारों ने समय-समय पर जोर आजमाइष की है। 12 पंचवर्शीय योजना के निहित मापदण्डों को देखें तो योजनाओं का देष में अम्बार तो लगा है पर बेहाल अर्थव्यवस्था के चलते सफलता दर तय मानकों से हमेषा नीचे ही रही। तीसरी पंचवर्शीय योजना तो सभी में निहायत विफलता के लिए जानी जाती है। इसी दौरान चीन का आक्रमण और पाकिस्तान से युद्ध भी हुआ था। 
योजना आयोग और राश्ट्रीय विकास परिशद् भारत में विकास और सामाजिक विन्यास को बनाये रखने में बरसों से साथ-साथ सफर करती रही हैं जिसमें राश्ट्रीय विकास परिशद् तो आज भी रफ्तार लिये हुए है। पांचवी पंचवर्शीय योजना में यह भी संकल्प था कि देष गरीबी से मुक्त होगा। बावजूद इसके आज हर चैथा नागरिक इस बीमारी से ग्रस्त है। आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से युक्त रही पर इसी दौर में किसानों में आत्महत्या का चलन षुरू हो गया जिनकी संख्या 3 लाख से ऊपर पहुंच गयी। नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं समेत बारहवीं पंचवर्शीय योजना उद्देष्यों की प्राप्ति हेतु कम-ज्यादा सफलता के लिए जूझती रही। वैष्वीकरण की मौजूदा दुनिया में प्रतिस्पर्धा के चलते अर्थव्यवस्था को उठान देना, मानव जीवन को ऊँचाई देना, षिक्षा, रोजगार, चिकित्सा के अलावा आधारभूत ढांचे को स्थायी तौर पर मजबूती प्रदान करने की बीते 25 वर्शों से बाकायदा कोषिष जारी है। भारत 24 जुलाई 1991 से उदारीकरण की राह पर है यहीं से आधुनिकीकरण और निजीकरण के मार्ग को भी अपनाने से गुरेज नहीं किया। समय बदला, परिस्थितियां बदली आर्थिक क्षेत्रों में मोल-तोल और विकास के ढर्रे भी बदले। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने नाॅन परफोर्मेंस इकाईयों का विनिवेष किया जिसमें बाल्कों पहली इकाई है। परिप्रेक्ष्य यह है कि बीते सात दषकों में पुराना भारत भी अनुप्रयोगों से अछूता नहीं था और ‘न्यू इण्डिया‘ में जो नयापन है वह बदले समय की दरकार ही है। जिस दक्षता के साथ मोदी सरकार ने इस विजन को संकल्पबद्ध करने की कोषिष की है यदि इससे देष में गरीबी से मुक्ति, किसानों, मजदूरों एवं वंचित वर्गों में बड़ा बदलाव आता है तो हम सभी अवष्य ही नये भारत के दर्षन करेंगे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशान  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Wednesday, April 19, 2017

ग्लोबलाइजेशन का साइड इफ़ेक्ट

जब नब्बे के दषक में वैष्वीकरण को लेकर दुनिया अपने-अपने ढंग के ताने-बाने बुन रही थी तब षायद ही किसी की सोच रही हो कि एक गांव में तब्दील हो रहा संसार इसके साइड इफेक्ट से अछूता नहीं रहेगा। यह महज एक मामूली घटना नहीं जब निजी स्वार्थों के चलते या स्थानीय जनता के दबाव में दुनिया की बड़ी से बड़ी सरकारें नरम हो रही हो और ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य हुई हो जो षेश के लिए किसी कठिनाई से कम न हो। बामुष्किल अभी हफ्ताभर बीता था कि दिल्ली के अक्षरधाम मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ गुफ्तगू करने वाले आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल ने आॅस्ट्रेलिया पहुंच कर एक कड़ा और बड़ा निर्णय लिया। बीते दिनों भारत से 6 समझौते पर सहमति देने वाले टर्नबुल अमेरिकी तर्ज पर ही वीजा को लेकर एक ऐसा निर्णय लिया जिससे भारत भी हैरत में होगा। बीते 18 अप्रैल को आॅस्ट्रेलिया ने अपना 457-वीजा प्रोग्राम रद्द कर दिया जिसका उपयोग प्रमुख रूप से भारतीय ही करते थे। गौरतलब है कि इसके पहले अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी एच-1बी वीजा पर सख्त निर्णय लेते हुए अमेरिका में रोजगार युक्त भारतीयों समेत अन्यों के वापसी का फरमान सुना चुके हैं। फिलहाल आॅस्ट्रेलिया के इस कदम से 95 हजार विदेषी कामगार प्रभावित होंगे जिनमें से अधिकांष भारतीय हैं। इसके अलावा ब्रिटेन और चीनी नागरिक भी इसमें षुमार देखे जा सकते हैं। बता दें कि 457-वीजा कार्यक्रम के तहत आॅस्ट्रेलियाई कम्पनी को देष में ई-कामगारों की कमी वाले सेक्टरों में चार साल तक विदेष के कर्मचारियों को नियुक्त करने की इजाजत थी। जिसे प्रधानमंत्री टर्नबुल ने रद्द करते हुए सख्त बंदिषों से जुड़ा वीजा कार्यक्रम लाने का एलान किया है। इसके पीछे बड़ी वजह क्या है यह किसी से छुपी नहीं है। दरअसल जो अमेरिका में ट्रंप चाहते हैं वही आॅस्ट्रेलिया में कमोबेष अब टर्नबुल भी चाहते हैं। जाहिर है स्किल्ड जाॅब में वे ‘आॅस्ट्रेलियन फस्र्ट‘ की नीति अपनाने की ओर हैं।
फिलहाल आॅस्ट्रेलिया के इस कदम से भारतीय पेषेवरों को चार साल के लिए नौकरी पाना जो आसान काज था अब षायद कठिन हो जायेगा। सटीक तर्क यह भी है कि जब दुनिया का कोई देष नये परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो इसका सीधा असर वहां के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेष पर तो पड़ता ही है साथ ही इससे पनपा साइड इफेक्ट अन्य अक्षांष और देषान्तर वाले देषों पर भी होता है। संसार में कई ऐसे उदाहरण हैं जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बीते तीन दषकों से जिस तर्ज पर ग्लोबलाइज़ेषन का दौर बढ़ा और जिस रूप में संसार विविध तकनीकों और विषेशताओं से युक्त हुआ, आदान-प्रदान की नीति तथा आपसी मेलजोल को बढ़ाया साथ ही आवागमन को जिस प्रकार सुलभ किया। इतना ही नहीं व्यावसायिक गतिविधियां जिस पैमाने पर बढ़त बनाई और रोजगार समेत कई अन्य पर सीमाएं बाधा मुक्त हुईं उसका असहज परिप्रेक्ष्य अब परिलक्षित होने लगा है। पिछले वर्श जब ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा कहा तो उसके पीछे भी एक अच्छी खासी वजह थी और उसके साइड इफैक्ट से वह भी परेषान था। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ में रहने के चलते ब्रिटेन में प्रति दिन 5 सौ प्रवासी दाखिल होते थे जबकि पूर्वी यूरोप के करीब 20 लाख तो ब्रिटेन में ही रह रहे थे। इस प्रकार की बढ़ती तादाद से यहां बेरोजगारी का संकट उत्पन्न हुआ। यूरोपीय संघ में बने रहने के लिए ब्रिटेन द्वारा एक लाख करोड़ रूपया सालाना खर्च किया जाना और ब्रिटेन के नागरिकों द्वारा यूरोपीय संघ के नौकरषाहों को नापसन्द किया जाना जैसी तमाम समस्याएं विद्यमान थी। चूंकि यूरोपीय संघ में होने के चलते उक्त गतिविधियों पर लगाम लगाना सम्भव नहीं था। ऐसे में उपरोक्त के चलते पिछले साल 23 जून को हुए जनमत संग्रह के फलस्वरूप ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया। इस घटना से तत्कालीन प्रधानमंत्री कैमरन को कुछ महीने बाद इस्तीफा देना पड़ा और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरिज़ा को बनाया गया। बीते 18 अप्रैल को उन्होंने यह कह कर सभी को चैंका दिया कि आगामी 8 जून को मध्यावधि चुनाव सम्पन्न कराया जायेगा साथ ही यह भी साफ किया गया कि इसके चलते ब्रेक्ज़िट पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 
बदलती दुनिया का एक ढंग अब अमेरिका में भी देखा जा सकता है। इसी वर्श 20 जनवरी को सबसे ताकतवर देष अमेरिका की कमान डोनाल्ड ट्रंप ने संभाली और ताबड़तोड़ कई फैसले लिये जिसमें सात मुस्लिम देषों पर अमेरिका में एंट्री पर प्रतिबंध और एच-1बी वीजा समेत कई निर्णय देखे जा सकते हैं। एच-1बी वीजा के चलते सीधा असर भारतीयों पर भी पड़ा है। दरअसल यह वीजा ऐसे विदेषी पेषेवरों के लिए जारी किया जाता है जो खास कार्य में कुषल होते हैं इसके लिए उच्च षिक्षा की जरूरत होती है। इसमें वैज्ञानिक, इंजीनियर, कम्प्यूटर प्रोग्रामर आदि आते हैं। हर साल ये करीब 65 हजार के आसपास जारी होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्श एच-1बी वीजा के लिए 2 लाख 36 हजार लोगों ने आवेदन किया था। जो इस वर्श घटकर 2 लाख के आसपास पहुंच गया है। डोनाल्ड ट्रंप ने वीजा मामले में सख्त कदम इसलिए उठाया क्योंकि वे ‘अमेरिकन फस्र्ट‘ की थ्योरी पर काम करना चाहते हैं। गौरतलब है कि कुछ माह पहले भारत के दो इंजीनियरों पर इस बात के लिए गोली चलाई गयी कि वे अमेरिका में नौकरी करते थे और उन्हें देष छोड़कर जाने के लिए कहा गया जिनमें से एक की मौत भी हो गयी थी। दो टूक यह भी है कि जिस ग्लोबलाइज़ेषन के चलते दुनिया एक होने का दम भरती थी आज मजबूत से मजबूत देष अपने निजी हितों को ध्यान में रखते हुए इसके साइड इफेक्ट से बिलबिलाया हुआ दिख रहा है। 
यह सर्वविदित है कि यूरोप से लेकर अमेरिका और एषिया से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका और प्रषान्त महासागर का आॅस्ट्रेलिया भी अपने-अपने नीतियों में कुछ ऐसा सख्तपन भर रहे हैं कि भारत जैसे देष कहीं न कहीं प्रभावित होते दिख रहे हैं। गौरतलब है कि 24 जुलाई 1991 से भारत आर्थिक उदारीकरण के माध्यम से दुनिया में बढ़ रहे वैष्वीकरण से ताल से ताल मिलाने लगा था। 25 बरस की इस यात्रा में भारत ने उन्नति और तरक्की के पथ भी बनाये और उस पर चला भी। कईयों के लिए मददगार तो कईयों से मदद की दरकार भी रखी। किसी भी अक्षांष व देषान्तर के देष से भारत फिलहाल अब अछूता नहीं है। मानव विकास सूचकांक से लेकर आर्थिक, तकनीकी और वाणिज्य विकास में भी भारत षनैः षनैः ऊँचाई की ओर बढ़ा है। देष के अन्दर जीवन मूल्य भी तुलनात्मक, गुणात्मक हुए हैं। षिक्षा और रोज़गार के लिए यहां के युवाओं ने दूसरे देषों में भी खूब आवा-जाही की। अमेरिका और यूरोप के देषों में तो ऐसा बहुतायत में हुआ। इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी समेत यूरोप के कई देषों में लाखों की मात्रा में भारतीय आज भी देखे जा सकते हैं। वहीं अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को से लेकर न्यूयाॅर्क और वांषिंगटन तक इनकी पहुंच और कौषल बाकायदा देखी जा सकती है। आंकड़े भी इस बात समर्थन करते हैं कि गूगल, फेसबुक व अन्य तकनीकी विधाओं में भारतीय ही छाये हुए हैं परन्तु जिस प्रकार वीजा और विदेषों में रोजगार व बसावट को लेकर संकीर्णता विकसित हो रही है उससे साफ है कि वैष्वीकरण की अवधारणा कुछ हद तक जगह से खिसक रही है। अब दुनिया के देष इस होड़ की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं कि सबसे पहले रोजगार तथा अन्यों पर उनके देष का ही कब्जा हो। कहीं यह तीन दषक से चले आ रहे ग्लोबलाइजेषन का साइड इफेक्ट तो नहीं है। यदि ऐसा है तो समय रहते भारत को भी अपनी नीतियों में बड़ा फेरबदल कर लेना चाहिए ताकि आने वाली समस्याओं से उसके लिए दो-चार होना आसान रहे। 

सुशील कुमार सिंह

Monday, April 17, 2017

निडर उत्तर कोरिया का असफल दुस्साहस

जब बीते 16 अप्रैल को उत्तर कोरिया ने बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया लेकिन महज़ पांच सैकेण्ड में ही फट कर वह मलबे में तब्दील हो गया तो इस घटना से दुनिया को भी सुकून आया होगा। मध्यम दूरी की मिसाइल का परीक्षण के मामले में फिलहाल किम जोंग दूसरी बार असफल रहा। जाहिर है परीक्षण नाकाम रहने से कोरिया प्रायद्वीप में बढ़ा तनाव कम हुआ होगा साथ ही दक्षिण कोरिया और जापान समेत अमेरिका ने भी चैन की सांस ली होगी। अमेरिकी पेसीफिक कमान का दावा है कि मिसाइल तुरन्त फट गया था पर यह कैसा था अभी इसका मूल्यांकन नहीं हो पाया है। निःसंदेह उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण से लेकर मिसाइल तक के कार्यक्रम में दुनिया की एक भी नहीं सुनी है और तानाषाह किम जोंग अपनी ही चाल से आज भी चल रहा है। उत्तर कोरिया पिछले एक दषक से विवादों को जन्म देने वाला देष बन गया है। 6 जनवरी, 2016 को जब उसने चैथे परमाणु परीक्षण से अपनी दादागिरी एक बार फिर दिखाई तब दुनिया को यह फिर अहसास हुआ कि अभी चिंता से मुक्त होने का वक्त नहीं आया है। पिछले वर्श प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण करके एक बार सभी के माथे पर बल ला दिया था। उसकी इस मनमानी को देखते हुए संयुक्त राश्ट्र महासचिव और अमेरिका सहित कई देषों ने घोर निन्दा की थी। घटना को देखते हुए सवाल उठा कि आखिर इसका निदान क्या है? उन दिनों न्यूयाॅर्क में एक आपात बैठक भी बुलाई गयी थी, सुरक्षा परिशद ने कहा था कि उत्तर कोरिया के खिलाफ नये प्रतिबन्धों का प्रस्ताव षीघ्र ही पारित किया जायेगा जबकि उसके पहले भी उस पर प्रतिबंध के प्रस्ताव लाये जा चुके हैं बावजूद इसके उस पर कोई असर नहीं हो रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों उत्तर कोरिया वैष्विक चेतावनी को नजरअंदाज करता है। 2006 के परमाणु परीक्षण के बाद से प्रतिबंध वाले तीन प्रस्ताव आ चुके हैं बावजूद इसके इसके दुस्साहस में कोई कमी नहीं आई। 
देखा जाय तो वर्श 2006 से 2016 के बीच चार बार परमाणु परीक्षण और राॅकेट प्रक्षेपण करके उत्तर कोरिया सुर्खियों में है और अब तो वह मध्यम दूरी की मिसाइल का परीक्षण करके वर्श 2017 में भी अपनी हेकड़ी दिखा दी है। अलबत्ता परीक्षण असफल ही क्यों न हो गया हो। इतना ही नहीं ऐसा भी कहा जा रहा है कि वह पांचवें एटमी परीक्षण की तैयारी में भी है। दुनिया में षायद ही कोई ऐसा देष होगा जो दुनिया की चिंता न करता हो पर उत्तर कोरिया इन सबसे जुदा है। लगातार प्रतिबंधों के बावजूद मिसाइल और परमाणु क्षमता को बढ़ाने से वह कदम पीछे नहीं खींच रहा है। माना तो यह भी जाता है कि उत्तर कोरिया के पास छोटे परमाणु हथियार और कम एवं मध्यम दूरी की मिसाइल है परन्तु जिस प्रकार इसकी हरकतों से विष्व बिरादरी तनाव में है उसे देखते हुए फिलहाल इसे क्लीन चिट नहीं दी जा सकती। सबके बावजूद यक्ष प्रष्न यह भी है कि उत्तर कोरिया की इन हरकतों से निजात कैसे पाया जा सकता है। क्या चीन के रहते हुए ऐसा सम्भव है क्या सुरक्षा परिशद् इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा सकती है। गौरतलब है संयुक्त राश्ट्र में वीटो समूह में चीन भी है जिसकी अड़ंगेबाजी के चलते प्रतिबंध मुमकिन नहीं है। हालांकि यहां साफ कर दें कि चीन और रूस ने उत्तर कोरिया द्वारा पहले किये गये मिसाइल परीक्षण की निंदा कर चुके हैं। सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि कोरियाई प्रायद्वीप में दक्षिण कोरिया हमेषा खतरे से घिरा रहता है जाहिर है बदलते हुए वैष्विक परिदृष्य में खतरे घटने चाहिए थे परन्तु हालात इस कदर बिगड़ रहे हैं कि सुरक्षा और आत्मविष्वास के लिए वे देष भी परमाणु सामग्री जुटाने की होड़ में आ सकते हैं जो इससे बेफिक्र थे। जाहिर है यदि परमाणु हथियारों या घातक मिसाइल को लेकर उत्तर कोरिया की मनमानी नहीं रूकती है तो यह बाकियों के लिए न केवल चुनौती होगा बल्कि हथियारों की प्रतियोगिता में भी षामिल करा देगा। ऐसे में संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् का प्रतिबंध एक बड़ा प्रतिबंध हो सकता है बषर्ते चीन का नरम रवैया उत्तर कोरिया को लेकर समाप्त हो। गौरतलब है कि बीते वर्श भारत, अमेरिका और जापान ने दक्षिणी चीन सागर में मिलकर युद्धाभ्यास किया था। जाहिर है इस कारण भी चीन असहज महसूस किया था। उसका भी उसे रंज होगा।
क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृश्टि से विष्व के कई छोटे देषों में षुमार उत्तर कोरिया वैष्विक नीतियों को दरकिनार करते हुए अपने निजी एजेण्डे को तवज्जो दे रहा है एक तरफ विष्व आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ अद्ना सा देष उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों और मिसाइलों से लैस होकर उसी विष्व को एक नई चुनौती देने का काम कर रहा है जो हर हाल में मानवता के लिए खतरा है। भले ही उसका मिसाइल कार्यक्रम विफल हो गया हो पर बाजीगर की भूमिका में तानाषाह किम जोंग आज भी अपने को मानता है। पड़ताल से यह पता चलता है कि दुनिया परमाणु सामग्री की होड़ में बरसों से रही है पर समय के साथ इसमें कमी लाने की कोषिष की जा रही है बावजूद इसके समाप्त करना मुष्किल हो रहा है। वर्श 1952 में अमेरिका पहली बार हाइड्रोजन बम बनाया था जबकि 1955 में रूस ने इसका परीक्षण करके दूसरा राश्ट्र बनने का गौरव प्राप्त कर लिया। इसी क्रम में ब्रिटेन ने भी 1957 में हाइड्रोजन बम का परीक्षण करके ऐसा करने वाला तीसरा देष बन गया। ठीक एक दषक बाद चीन तत्पष्चात् फ्रांस इस वर्ग में षामिल हो गये। पाकिस्तान से मिलती चुनौती और चीन के वार को देखते हुए भारत का भी परमाणु षक्ति सम्पन्न होना मजबूरी बन गयी। हालांकि पाकिस्तान भी इस मामले में षुमार है। 
तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि उत्तर कोरिया जैसे देष को व्यापक पैमाने पर हथियारों की आवष्यकता ही क्यों है। वास्तव में यह उसकी जरूरत है या फिर किसी बड़े संकट का संकेत। संयुक्त राश्ट्र संघ हथियारों को समाप्त करने की कवायद में 70 के दषक से लगा है। सीटीबीटी और एनपीटी सहित कई कार्यक्रम इसके रोकथाम के लिए आगे भी लाये गये पर इसकी व्यावहारिकता भी पूरी तरह प्रासंगिक होते दिखाई नहीं देती। देखा जाय तो गति थमने के बजाय बढ़त की ओर है। यहां तक कि आतंकियों के पास भी घातक हथियार उपलब्ध हैं। दुनिया की दो समस्याओं में एक समस्या आतंक और उससे जुड़ा घातक हथियार किसी भी सभ्य देष को चिंतित कर सकता है। प्रषान्त महासागर में बसा उत्तर कोरिया का दक्षिण कोरिया से छत्तीस का आंकड़ा है। ज्यों-ज्यों उत्तर कोरिया घातक सामग्रियों के मामले में सषक्त होता जा रहा है कोरियाई प्रायद्वीप में चुनौती और चिंता बढ़ती जा रही हैं। साथ ही जापान भी उत्तर कोरिया की ताकत से काफी हद तक परेषान है। दक्षिण कोरिया पहले भी कह चुका है कि ऐसे दुस्सासह के लिए सबक सिखायेंगे परन्तु निडर तानाषाह किम जोंग को ऐसी बातों की कोई परवाह नहीं है। सच्चाई तो यह भी है कि उत्तर कोरिया की इन कवायदों से किसी का भला होने वाला नहीं है पर सनकी तानाषाह की तृश्णा जरूर षान्त हो री होगी। अमेरिका समेत विष्व की मानवता की वकालत करने वालेक तमाम देष उत्तर कोरिया की मौजूदा आदत से भौचक्के होंगे और होना भी चाहिए पर सवाल यह उठता है कि परमाणु संसाधनों को खत्म करते-करते हम कहां आ गये। कहीं न कहीं कूटनीति की विफलता और कुछ देषों के संरक्षण के चलते ऐसी स्थितियां पैदा हुई हैं पर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि एक तरफ हम दूसरे ग्रहों पर खाक छान रहे हों वहीं पृथ्वी पर विध्वंसक सामान बना रहे हैं। जाहिर है इस पर लगाम लगनी ही चाहिए। 

सुशील कुमार सिंह


घाटी का लोकतंत्र घाटे में क्यों !

लोकतंत्र महज एक मतों का आंकड़ा नहीं बल्कि प्रवाहषील भारतीयों की वैचारिक धारा भी है। दो दषक पहले जब गठबंधन के बगैर सत्ता मिलती ही नहीं थी तब इस बात की चर्चा आम थी कि हमारा लोकतंत्र किधर जा रहा है? ध्यान पड़ता है कि उन दिनों सिविल सेवा परीक्षा के निबंध प्रष्न पत्र में भी इस विशय को बड़ी षिद्दत से पूछा जाता था। उक्त का संदर्भ यहां तब लाज़मी हो गया जब घाटी में लोकतंत्र अनुमान से कहीं अधिक नीचे चला गया। हालांकि यह एक लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव से जुड़ा मामला है पर यह इतना सीधा भी नहीं है। जम्मू-कष्मीर के श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लोकसभा उपचुनाव के हालिया नतीजे को देखते हुए इस एहसास से भर जाना गैर-वाजिब नहीं है कि लोकतंत्र का आषा दीप इन दिनों घाटी में मानो बुझ गया हो। सख्त लहज़े में कहा जाय साथ ही परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के निहित भाव को देखा जाय तो लोकतंत्र का बंटाधार करने वालों में हमारे देष के राजनेता ही अव्वल नज़र आयेंगे। जम्मू कष्मीर में बरसों बरस सत्ता चलाने वाले फारूख अब्दुल्ला महज़ 48 हजार से कुछ अधिक वोट पाकर श्रीनगर सीट जीतकर लोकसभा में एंट्री पा ली है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र की इस गिरावट से जो प्रष्न उठ रहे हैं वह कई लोगों के माथे पर बल जरूर डालेंगे और मन यह मथता रहेगा कि आखिर घाटी इस कदर वोट विहीन क्यों हुई? सवाल तो यह भी उठेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतंत्र की ही सबसे बड़ी हार घाटी में कैसे हो गई? सभी जानते हैं कि चुनाव कितने भी लड़े जिसके पक्ष में मतदान अधिक विजय उसी की होगी। यह लोकतंत्र का मज़ाक ही है कि जहां हम आमतौर पर 65 से 70 फीसदी तक मतदान होते देख रहे हों और कहीं-कहीं यह आंकड़ा 80 से अधिक हो उसी देष में देष की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने के लिए महज़ कुल वोट का 4 फीसदी मत प्राप्त करने वाला संसद जाय हैरत भरी बात है। फिर भी यदि हम गर्व से कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र सषक्त है तो यह हमारी जनता के प्रति उपजी सद्भावना ही कही जायेगी पर साढ़े बारह लाख से अधिक मतदाताओं में महज़ नब्बे हजार मतदान देने वाले बूथ तक पहुंचे तो इसे विडम्बना ही कहा जायेगा। फिलहाल फारूख अब्दुल्ला घाटी से संसद की दूरी तय कर चुके हैं पर किस कीमत पर यह सवाल कचोटता रहेगा। 
इस सच्चाई से फारूख अब्दुल्ला भी अनभिज्ञ नहीं है कि घाटी में लोकतंत्र हादसे का षिकार हुआ है। जीत के बाद उन्होंने मांग की कि जम्मू-कष्मीर में राज्यपाल षासन लगाया जाय। इसके पीछे का आरोप यह है कि राज्य सरकार षान्तिपूर्ण चुनाव कराने में विफल रही है। हालांकि बारीक पड़ताल की जाय तो पता चलेगा कि फारूख अब्दुल्ला यहां भी जमकर राजनीति कर रहे हैं और इन दिनों षायद ही उन्हें घाटी में फैली अषान्ति को लेकर बड़ी चिन्ता है क्योंकि षान्ति स्थापित करने की जिम्मेदारी तो पीडीएफ-भाजपा गठबंधन की सरकार चला रही महबूबा मुफ्ती को होनी चाहिए जिससे फिलहाल उनका छत्तीस का आंकड़ा है। ध्यान्तव्य है कि ये वही फारूख अब्दुल्ला हैं जो घाटी में बीते कई महीनों से पत्थरबाजी में संलिप्त कष्मीरी युवाओं को वतनपरस्त बता चुके हैं। यहां यह स्पश्ट कर दें कि पत्थरबाज कष्मीरी बेरोज़गार युवा हैं या अलगाववादी कह पाना मुष्किल है पर यह कहना सहज है कि पत्थरबाज वतनपरस्त तो नहीं हो सकते। हाल ही में चुनाव कराने वाले सीआरपीएफ के जवानों पर इन्हीं अलगाववादियों ने न केवल लात-घूसे बरसाये बल्कि उन्हें जलील करने की हर मुनासिब कोषिष की जिसका वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था। हालांकि जवानों द्वारा इन्हें सबक सिखाये जाने वाला वीडियो भी वायरल हो चुका है। फिलहाल इस सच का सभी समर्थन करेंगे कि घाटी में अषान्ति का माहौल बीते कुछ वर्शों से तो व्याप्त है। गौरतलब है कि पहली बार जम्मू-कष्मीर के विधानसभा में कुल 87 सीटों के मुकाबले 25 स्थानों पर भाजपा काबिज हुई जो महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चला रही है परन्तु इस आरोप से पूरी तरह मुक्त नहीं है कि भाजपा ने सत्ता की चाहत में बेमेल समझौते किये हैं और अलगाववादियों के साथ गठजोड़ किया है। दो टूक सच्चाई यह भी है कि जब मुख्यमंत्री की कुर्सी महबूबा मुफ्ती से पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद ने संभाली थी तब कई अलगाववादियों को उन्होंने कुर्सी संभालते ही जेल से रिहा कराया था। तब भी यह चर्चा जोरों पर थी कि केन्द्र में मोदी सरकार होने के बावजूद सईद की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाये थे। कमोबेष आज भी अलगाववादियों पर नियंत्रण कर पाना टेड़ी खीर बना हुआ है।
भारतीय संविधान में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि लोकसभा या विधानसभा में सदस्य बनने के लिए कम से कम कितना वोट पाना चाहिए। षायद संविधानविद्ों ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दषक में जब देष आजादी के सात दषक पूरे कर लेगा तब भी लोकतंत्र को हाषिये पर फेंके जाने वाली घटना होगी। जिस तर्ज पर देष में लोकतंत्र परवान चढ़ा है उसके मुकाबले फारूख अब्दुल्ला की जीत और घाटी का रसातल में पहुंचा लोकतंत्र षायद ही किसी को पचे। ठण्डी वादी में राजनीति इतनी गरम होगी इसका भी एहसास किसी को नहीं रहा होगा। गौरतलब है कि महज़ कुछ वोट पाने वाले फारूख अब्दुल्ला 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव हार गये थे। तब पीडीएफ नेता तारिक हमीद कर्रा ने जीत हासिल की थी परन्तु पिछले साल हिजबुल मुजाहिद्दीन के सदस्य बुरहान वानी के मार जाने के बाद पीडीएफ-बीजेपी गठबंधन की नीतियों से नाराज होकर तारिक कर्रा ने इस्तीफा दे दिया था। जिसके चलते खाली सीट को भरना था ऐसे में जाहिर है छः महीने के अंदर चुनाव कराना जरूरी था। फिलहाल बाजी फारूख अब्दुल्ला के हाथ लगी और घाटी का लोकतंत्र हार गया। इसका जिम्मेदार कौन है षायद ही खुले मन से कोई स्वीकारे।
सभी जानते हैं कि कष्मीर बरसों से सुलग रहा है। भारी हिंसा और अषान्ति का माहौल यहां की वादियों में व्याप्त है। आलम यह है कि उपचुनाव के दौरान भी पोलिंग स्टेषन और मतदान कर्मचारियों पर भीड़ द्वारा हमला किया गया। सुरक्षाकर्मियों द्वारा गोली भी चलाई गयी, दर्जनों मारे भी गये पर क्या मिला, देखा जाय तो एक बीमार लोकतंत्र। गौरतलब है कि जम्मू कष्मीर उन 9 राज्यों में से एक है जहां बीते 9 अप्रैल को विधानसभा और लोकसभा का उपचुनाव हुआ था। सवाल यह भी है कि जिस प्रकार घाटी में हिंसा पैर पसार लेती है जिस प्रकार भारत विरोधी नारे और आतंक की आड़ में पाकिस्तानपरस्त लोगों की बाढ़ आ जाती है  क्या उसे देखते हुए इस बात पर एकजुटता नहीं हो सकती कि कष्मीर के हितों के लिए सभी को अपनी-अपनी कोषिष करनी चाहिए। जिस तरह अलगाववादी बैंक लूटने, एटीएम लूटने तत्पष्चात् पत्थरबाजी का कारोबार बादस्तूर चलाये हुए हैं इससे यह भी संकेत मिलता है कि कुछ हद तक राजनीतिक नरमी भी इनके मनोबल को ऊंचा किये हुए है। हुर्रियत जैसे अलगाववादी दलों के लोगों ने कष्मीरी युवाओं का दिमाग खराब कर रखा है परन्तु फारूख अब्दुल्ला जैसों कका अनाप-षनाप बयान भी उनका मनोबल बढ़ाने के काम आ रहा है। पीडीएफ की दौड़ रही सरकार भी अलगाववादियों के लिए भी कुछ हद तक आका का काम कर रही है। षायद मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने तीन बरस के भीतर जम्मू-कष्मीर की सर्वाधिक यात्रा की है पर हालात काबू में नहीं हैं और अब तो लोकतंत्र की सांस भी यहां उखड़ गयी है। ऐसे में श्रीनगर में हुआ उपचुनाव से क्या सबक भविश्य में लिया जायेगा इस पर भी देष के राजनेताओं को होमवर्क करना चाहिए।

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, April 12, 2017

प्रगाढ होते भारत-ऑस्ट्रेलिया सम्बन्ध

जब वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी पहली बार आॅस्ट्रेलिया यात्रा पर थे तब तत्कालीन आॅस्ट्रेलियाई  प्रधानमंत्री टोनी एबाॅट के साथ यूरेनियम समेत पांच समझौतों पर सहमति बनी थी। ढ़ाई वर्ष  के बाद एक बार फिर भारत और आॅस्ट्रेलिया को एक बड़े समझौते की ओर जाते हुए देखा जा सकता है। इस बार बारी एबाॅट के उत्तराधिकारी मैल्कम टर्नबुल की दिल्ली आने की थी जो बीते 9 अप्रैल से चार दिवसीय यात्रा पर थे। मोदी और टर्नबुल के बीच द्विपक्षीय वार्ता के दौरान छः समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जाहिर है इन करारों से रिष्तों को न केवल और मजबूती मिली बल्कि यलोकेक नीति यानि यूरेनियम को लेकर समझदारी भी और प्रगाढ़ हुई। गौरतलब है कि आॅस्ट्रेलिया दुनिया का 40 फीसदी यूरेनियम रखता है जाहिर है परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भारत की इस पर भारी निर्भरता को देखते हुए रिष्ते अहम् कहे जा सकते हैं। देखा जाय तो असैन्य परमाणु करार समझौता और यूरेनियम की मांग परमाणु ऊर्जा के लिए एक आवष्यक ईंधन है जिसे लेकर सुलह और सन्धि हेतु सक्रियता भारत द्वारा 2012 से ही किया जा रहा था। आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने भी यह स्पश्ट किया है कि उनका देष भारत को यूरेनियम की आपूर्ति के लिए तैयार है और इस तरह की स्पश्टता लगभग तीन साल बाद देखने को मिली है। इसके अलावा संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में मोदी ने उन मुद्दों पर विमर्ष को आगे बढ़ाया जिसे लेकर दुनिया निहायत चिंतित है। सभी जानते हैं कि दुनिया दो समस्याओं आतंकवाद और पर्यावरण से जूझ रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद, साइबर सुरक्षा जैसी चुनौतियों के लिए वैष्विक रणनीति और समाधान की जरूरत पर बल दिया। भारत और आॅस्ट्रेलिया के द्विपक्षीय समझौतों में आतंक के साथ मिलकर लड़ने और पर्यावरण पर सहयोग जैसी बात भी षामिल है। इसके अलावा अतंरिक्ष विज्ञान, विमानन सुरक्षा, औशधि विकास में साथ-साथ काम करने और खेल को लेकर भी करार हुआ। हालांकि चीन आसियान के साथ मिलकर इलाके को मुक्त व्यापार बनाने के मुद्दे पर अभी भी पेंच फंसा हुआ ही है। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को तरक्की और विकास के असाधारण रास्ते पर ले जा रहे हैं। ऐसी मान्यता उनके आॅस्ट्रेलियाई समकक्ष की है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब मोदी को तारीफ मिली हो। इसके पहले विकसित एवं विकासषील देषों के कई राश्ट्राध्यक्ष व कार्यकारी मोदी के क्रियाकलापों से प्रभावित होने की बात कह चुके हैं। मौजूदा अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी चुनाव के दिनों में मोदी की नीतियों को राश्ट्रपति बनने पर सौ दिन के अंदर लागू करने की बात कह चुके हैं। जाहिर है मोदी का अंदाज सभी को कमोबेष रास आया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वैष्विक फलक पर मोदी की छवि अन्यों की तुलना में काफी प्रखर है। एबाॅट के समय जब 2014 के जी-20 सम्मेलन में मोदी ने आतंक और कालेधन के मुद्दे पर सभी को एकमत करने की कोषिष की थी और ऐसा हुआ भी था जिसमें तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग समेत रूस के राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी थे। मोदी के सुझाये रास्ते पर बड़े मंचों पर एक सुर होना यह भारत के लिए बड़ी उपलब्धि ही थी। हालांकि यूक्रेन की समस्या को लेकर रूस और अमेरिका के बीच तनातनी उन दिनों भी देखी जा सकती है जैसा कि इन दिनों सीरिया को लेकर दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। रोचक यह भी है कि व्लादिमीर पुतिन ने बिना किसी सूचना के जी-20 सम्मेलन के दौरान यह कहकर मास्को चले गये कि उन्हें नींद आ रही थी। भारत जिस तर्ज पर वैष्विक फलक पर विष्व के षेश देषों के साथ अपनी कूटनीति को साधने की बीते तीन वर्शों में कोषिष की है और जिस अनुपात में सफलता मिली है उससे भी यह स्पश्ट होता है कि पथ चिकना तो हुआ है पर बदले हुए दौर में कुछ हद तक यह पथरीला भी है। चीन के मामले में यह बात काफी हद तक लागू होती है जबकि पाकिस्तान को लेकर यह सौ फीसदी सच है। गौरतलब है कि इन दिनों जाधव मामले के चलते पाकिस्तान को लेकर भारत एक नये मोड़ पर खड़ा है। 
जब बात आॅस्ट्रेलिया से होती है तो यलोकेक नीति पर्याय के रूप में उभरती है। भारत बरसों से ऊर्जा संकट झेल रहा है ऐसे में परमाणु ऊर्जा को विकसित करने का प्रयास जारी है। सवा अरब का देष भारत बिजली के मामले में अभी भी कहीं अधिक पीछे है। भारत के परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगभग पांच हजार मेगावाॅट क्षमता के हैं जिसमें से तीन हजार मेगावाॅट का उत्पादन स्वदेषी यूरेनियम से होता है जबकि बाकी के लिए ईंधन आयात करना पड़ता है। झारखण्ड और आन्ध्र प्रदेष में यूरेनियम की खाने हैं पर इनकी मात्रा इतनी कम है कि असैन्य परमाणु कार्यक्रम को पूरा नहीं किया जा सकता। भारत ने 2030 तक परमाणु ऊर्जा से 60 हजार मेगावाॅट बिजली उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया है। जाहिर है यूरेनियम आयात के बगैर यह सम्भव ही नहीं है और आॅस्ट्रेलिया की ओर देखो नीति का अनुसरण करना ही होगा। गौरतलब है कि दुनिया का 6 फीसदी यूरेनियम मंगोलिया के पास है परन्तु इससे यूरेनियम समझौता मुष्किल इसलिए है क्योंकि चीन की भंवे तन जाती हैं। चीन की नजरे तो उस समय भी तिरछी हुईं थी जब 2014 में भारत और आॅस्ट्रेलिया के बीच यूरेनियम समझौता सफल हुआ था। ध्यान्तव्य है कि 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया हमारी विरोधी थी जिसमें अमेरिका समेत कई देष और आॅस्ट्रेलिया भी षामिल था। इतना ही नहीं उस दौर में आॅस्ट्रेलिया ने रक्षा सम्बंधों के साथ-साथ नौसैन्य अभ्यास कार्यक्रमों को भी भारत के साथ नहीं करने का निर्णय लिया था। वैष्विक परिदृष्य समय के साथ बदला, भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध बदले और दोनों देषों के बीच 2005 में असैन्य परमाणु समझौते सम्पन्न हुए। बावजूद इसके आॅस्ट्रेलिया टस से मस नहीं हुआ। आखिर में 2012 में मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान कुछ सफलता के आसार बनते दिखाई दिये तत्पष्चात् मोदी के समय द्विपक्षीय सम्बंध सरपट दौड़ लगाने लगे। मोदी और टर्नबुल एक सच्चे मित्र की तरह एक-दूसरे की चिंता करते इन दिनों देखे गये। गौरतलब है आॅस्ट्रेलिया एक साल में 7 हजार टन यूरेनियम निर्यात करता है जिसमें चीन, जापान, ताइवान और अमेरिका को भारी मात्रा में बेचता है। जाहिर है अब इस सूची में भारत भी षामिल हो गया है।
दरअसल भारत को यूरेनियम न मिलने के पीछे एक वजह सीटीबीटी और एनपीटी पर हस्ताक्षर न करना भी रहा है जबकि भारत असैन्य कृत्यों के लिए इसके प्रयोग की बात कहता रहा। एक सच्चाई यह भी है कि अपनी सुरक्षा हितों को देखते हुए भारत कभी भी दुनिया के आगे नहीं झुका बल्कि अलग-थलग पड़ने के बावजूद भी मनोवैज्ञानिक तरीके से मजबूत बना रहा। इसके चलते भी भारत की प्रखर हो रही विचारधारा से षेश दुनिया कहीं न कहीं जुड़ती दिखाई देती है। मौजूदा समय में निवेष का अच्छा वातावरण मसलन मेक इन इण्डिया, डिजीटल इण्डिया, क्लीन इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डटप इण्डिया के मनोभाव से देष युक्त है। हालांकि इसमें अभी आषातीत सफलता मिलना बाकी है। दो टूक यह भी है कि वैष्विक फलक पर जब भी भारत ने विस्तार लिया है तो चीन कहीं न कहीं परेषान हुआ है। अमेरिका से अच्छे रिष्ते, रूस से अच्छे सम्बंध और आॅस्ट्रेलिया से प्रगाढ़ दोस्ती चीन जैसे देषों को कभी रास नहीं आती। आॅस्ट्रेलिया में 2015 में मेक इन इण्डिया षो का आयोजन होना और भारत में बिजनेस वीक का आयोजन आॅस्ट्रेलिया द्वारा किया जाना साथ ही सांस्कृतिक पक्ष, क्रिकेट, हाॅकी और योग के माध्यम से भी दोनों की घनिश्ठता अब परवान चढ़ रही है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भी आॅस्ट्रेलिया काफी अग्रणी है और कई मामलों में भारत भी अव्वल है। जाहिर है दोनों देषों के बीच बढ़ रही द्विपक्षीय समझ भविश्य के लिए बेहतर मोड़ लायेगा।

सुशील कुमार सिंह


Monday, April 10, 2017

संबंधों के बेहतरीन मोड़ पर भारत-बांग्लादेश

दक्षिण एशिया  में भारत एक ऐसा देश है जो पड़ोसी देशो से हर सम्भव बेहतर सम्बंध बनाये रखना चाहता है। बेशक कईयों के साथ कुछ विवाद हैं बावजूद इसके प्रगाढ़ता को लेकर भारत ने कभी कदम पीछे नहीं खींचा। इतना ही नहीं हर सम्भव मदद पहुंचाने की कोशिश  करता है मसलन अप्रैल, 2015 में नेपाल में आये भूकम्प में भारत द्वारा दी गयी राहत। यहां तक कि आतंक से सराबोर पाकिस्तान से भी अच्छे सम्बंध को लेकर एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा। ये बात और है कि पाकिस्तान की नीति और नीयत में खोट होने के चलते भारत की भावनाओं को समझने में वह असफल रहा है। फिलहाल लगभग तीन साल में प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी देषों के साथ सम्बंध को और सुचारू बनाये रखने में काफी हद तक कामयाबी पायी है। गौरतलब है अब तक 56 देषों की यात्रा कर चुके प्रधानमंत्री मोदी की वैदेषिक यात्रा पड़ोसी भूटान से ही षुरू हुई थी। इनके कार्यकाल में न केवल मुद्दों को हल करने में कुछ बढ़त मिली है बल्कि पड़ोसियों की सहायता करने की दर में भी बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। ताजा संदर्भ यह है कि बीते 7 अप्रैल को बांग्लादेष की प्रधानमंत्री षेख हसीना चार दिवसीय यात्रा पर भारत आईं और 8 अप्रैल को दोनों देषों के बीच 22 समझौते हुए। हालांकि तीस्ता नदी विवाद पर सहमति नहीं बन पायी है। साफ है कि कुछ विवाद इतने गहरे हैं कि समाधान आसान नहीं है। इस मामले में पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आपत्ति भी देखी जा सकती है। बांग्लादेष के मामले में फिलहाल रिष्तों को परवान चढ़ाने की कोषिष तो की गई है। कोलकाता से बांग्लादेष के बीच रेल सेवा का आरम्भ सम्बंधों की अवधारणा को एक नया मुकाम ही है। साथ ही सैन्य आपूर्ति के लिए भारत द्वारा बांग्लादेष को पचास करोड़ डाॅलर का कर्ज देना भी इसी दिषा में उठाया गया कदम है। अलग-अलग क्षेत्रों में हुए कुल 22 समझौते से दोनों देष अपने रसूख को एक नये मोड़ की ओर ले जाते दिखाई देते हैं परन्तु यह बात अभी पूरी तरह पुख्ता नहीं है कि ये भविश्य में कितने उत्पादक और फलदायी सिद्ध होंगे। इसके अलावा भारत बांग्लादेष को साढ़े चार अरब डाॅलर के कर्ज देने का भी वायदा किया है। इस बात पर भी सहमति बनी है कि दोनों देष मिलकर आतंकवाद से मुकाबला करेंगे। 
भारत और बांग्लादेष की आपसी सीमा की लम्बाई चार हजार किलोमीटर से अधिक है जो भारत के पांच राज्यों पष्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम से होकर गुजरती है। ऐतिहासिक एवं सामाजिक विरासत में आपसी हिस्सेदारी भी है। आपसी सम्बंध बहुकोणीय भी है। गौरतलब है स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तो यह भारत का ही हिस्सा था जाहिर है सांस्कृतिक विरासत अलग कैसे हो सकती है। पूर्वी पाकिस्तान के नाम से पाकिस्तान का हिस्सा बांग्लादेष 26 मार्च 1971 को भारतीय सैनिक के बूते एक स्वतंत्र देष बना तब से दोनों देषों के बीच अनेक सहमति और विरोध के मामले सामने आते रहे। प्रथम राश्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री षेख मुजीबुर रहमान ने सबसे पहले भारत की यात्रा की थी जो षेख हसीना के पिता हैं और अब चार दषक बाद एक बार फिर उनकी पुत्री भारत से रिष्ते प्रगाढ़ करने की कोषिष में है। फिलहाल तभी से यह निष्चित हुआ कि दोनों के सम्बंधों का आधार प्रजातंत्र, समाजवाद तथा अन्य सकारात्मक पहलुओं के साथ सुदृढ़ होगा हालांकि ऐसा हुआ भी। एक बात यह भी है कि भारत कभी भी बांग्लादेष के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। इसके पीछे एक बड़ा कारण वर्श 1972 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने बांग्लादेष की यात्रा की थी तब उन्होंने ऐसा विष्वास दिलाया था। तभी से दोनों देषों के बीच व्यापार समझौता भी काफी महत्व का हो गया। गौरतलब है कि आर्थिक समृद्धि, निर्यातक केन्द्र तथा कई अन्य मामलों में बांग्लादेष के साथ द्विपक्षीय व्यवस्था आज भी कायम है परन्तु कई विवादों से दोनों देष परे नहीं है। सर्वाधिक चर्चित मामला तीन बीघा गलियारा को समाधान किया जा चुका है परन्तु बांग्लादेष के नागरिकों का भारत में घुसपैठ अभी भी थमा नहीं है। इतना ही नहीं हजारों, लाखों में ऐसे लोगों की भी संख्या है जो बाकायदा अवैधानिक तरीके से भारत के नागरिक भी बन गये हैं। हालांकि इन मुद्दों को लेकर गाहे-बगाहे चर्चा-परिचर्चा जोर लेती है परन्तु स्थायी समाधान तो आज भी नहीं हो पाया है। 
मित्रता, सहयोग और षान्ति यह भारत और बांग्लादेष की 1972 की द्विपक्षीय सन्धि है। धर्मनिरपेक्षता और राश्ट्रवाद का सम्मान करने वाला भारत अच्छे पड़ोसी के भी सम्मान को समझता है। यही कारण है कि बांग्लादेष के साथ कुछ मामलों को छोड़कर मसलन तीस्ता नदी विवाद, न्यू मूर द्वीप आदि अन्यों पर आपसी समझ बेहतर है। मार्च, 2010 में दोनों देषों के बीच नई दिल्ली में संयुक्त नदी आयोग की एक बैठक आयोजित की गयी थी जिसमें दोनों पक्षों ने तीस्ता नदी एवं अन्य साझा नदियों के जल बंटवारे, पेयजल आपूर्ति एवं अन्य नदियों पर लिफ्ट सिंचाई योजनाओं की बात हुई थी। गंगा जल सन्धि 1996 के कार्यान्वयन का भी संदर्भ इस दौर में मुखर हुआ था। तीस्ता नदी के मामले में मामला जस का तस प्रतीत होता है। तीस्ता समझौते को 2011 से ही पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रोक रखा है। जब 7 अप्रैल को षेख हसीना दिल्ली में थी और ममता बनर्जी भी दिल्ली में ही थीं पर तीस्ता मामले में उनके पहले के रूख पर वह अड़ी रहीं। नतीजा यह हुआ कि मोदी केवल यह आष्वासन दे पाये कि मामले को षीघ्र समाधान कर लिया जायेगा। गौरतलब है तीस्ता नदी पष्चिम बंगाल के उत्तरी जिले से गुजरती है। ममता बनर्जी का कहना है कि बांग्लादेष की मांग के अनुपात में उसे पानी दिया गया तो उत्तरी बंगाल में गैर बरसाती सीज़न में पानी का संकट खड़ा हो जायेगा। यहां बताते चलें कि दिसम्बर से मार्च के बीच बांग्लादेष पानी की कमी से जूझता है क्योंकि इस दौरान तीस्ता का जल स्तर एक हज़ार क्यूसेक से लेकर पांच हजार क्यूसेक तक नीचे चला जाता है। भारत-बांग्लादेष के व्यापक सम्बंधों को देखें तो कहीं अधिक बेहतर होता यदि तीस्ता मामला इसी समय हल प्राप्त कर लिया होता परन्तु ऐसा रहा है कि संघीय ढांचे में केन्द्र की भी अपनी सीमाएं होती हैं और जितना सम्भव हो सका एक प्रधानमंत्री होने के नाते मोदी ने की है। हालांकि ममता बनर्जी को भी अपने प्रदेष की चिंता है जो सही भी है पर सच्चाई यह है कि तीस्ता मामले में बात अधूरी रह गयी है। 
एक नजरिये से देखा जाये कि जिस तर्ज पर प्रधानमंत्री ने बांग्लादेषी समकक्ष षेख हसीना के साथ बड़े-बड़े समझौते किये हैं और जिस तरह उनके प्रति सद्भावना जतायी है साथ ही प्रोटोकाॅल तोड़कर जिस प्रकार उनकी अगवानी की है उससे यह संकेत मिलता है कि आर्थिक और व्यापारिक तौर पर देष कैसा भी हो भारत सम्बंधों के मामले में कोई कोताही नहीं बरतना चाहता। खास यह भी है कि नई दिल्ली की एक सड़क का नाम भी षेख हसीना के पिता मुजीबुर रहमान के नाम से की गयी है। इस दृश्टि से भी देखें तो भारत के लिए बांग्लादेष काफी अहम् दिखाई देता है मगर एक सच्चाई यह भी है कि ऐसी सकारात्मक कूटनीति तभी रहती है जब षेख हसीना की पार्टी अवामी लीग सत्ता में रहती है। जाहिर है खालिदा जिया के प्रति भारत का हमदर्दी से भरा रवैया कमोबेष सिरदर्द ही सिद्ध हुआ है। फिलहाल मौजूदा परिस्थिति में मोदी और हसीना के बीच हुए द्विपक्षीय समझौते को दोनों देषों के लिए एक बेहतरीन मोड़ करार दिया जा सकता है। इस उम्मीद के साथ कि चार दषक से अधिक के द्विपक्षीय सम्बंधों को आगे भी ऐसे ही मोड़ मिलते रहेंगे। 

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, April 5, 2017

क़र्ज़ माफ़ तो ठीक पर हालत कैसे सुधरे

बरसों पहले स्कूल की दीवार पर यह लिखा हुआ पढ़ा था कि “ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है।“ उक्त कथन गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर का है जिसके आलोक में यह समझना बिलकुल आसान है कि सौ साल पहले के साहित्यकारों में अन्नदाताओं को लेकर क्या उपमा थी और कैसी चिंता थी। समय बदला, परिस्थितियां करवट ली, देष स्वतंत्र हुआ, सबकी अपनी-अपनी हिस्सेदारी हुई। संसाधनों पर हर तबके का कब्जा हुआ साथ ही सबकी तकदीर भी कमोबेष बदली पर ना जाने क्यों किसानों से उनकी किस्मत आज भी रूठी हुई है। कभी बेमौसम बारिष तो कभी सूखे के चलते किसान उबर ही नहीं पाया। इस उम्मीद में कि अगली फसल उसके दुःख-दर्द को खत्म कर देगी इस फिराक में लाखों का कर्ज़दार भी होता रहा पर उसकी नियती तो बदलने का मानो नाम ही न ले रही हो। जाहिर है कि जब सब कुछ इस तरह घटित हो तो सत्ता की ओर टकटकी लगाना इनकी बेबसी हो जाती है और सत्ताधारकों ने बीते सात दषकों से किसानों को वोट बैंक के रूप में भी खूब प्रयोग किया। अन्तर यह है कि कुछ सत्ताधारियों ने इन्हें राहत पहुंचाने का काम किया तो कुछ ने ठगने का भी। सरकारों ने किसानों की हालत ठीक करने की फिराक में कृशि नीति, फसल नीति, फसल बीमा, अच्छे बीज और उर्वरक, सिंचाई और फसलों की बिकवाली तथा सही दाम देने की बात समय-समय पर की बावजूद इसके स्थितियां बेकाबू ही रही। लगभग 3 साल से केन्द्र में भारी-भरकम बहुमत के साथ मोदी सरकार चल रही है साथ ही कई राज्यों में मोदी प्रभाव इस कदर उभरा है कि कांग्रेस लगातार षिकस्त और भाजपा निरंतर जीत हासिल कर रही है। इसी तर्ज पर बीते मार्च पांच विधानसभा चुनाव में चार पर भाजपा काबिज हुई जिसमें उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में तो जनतंत्र का इतिहास ही बदल गया। जिन वायदों और इरादों से इन प्रदेषों में भाजपा ने एकतरफा जीत हासिल की उसमें मुख्यतः उत्तर प्रदेष एवं उत्तराखण्ड में किसानों की कर्ज़ माफी भी थी। 
उत्तर प्रदेष में योगी सरकार की बीते 4 अप्रैल को पहली कैबिनेट बैठक थी। उम्मीद लगाई जा रही थी कि किसानों के हक में कुछ तो निर्णय होंगे उम्मीद के मुताबिक दो करोड़ पन्द्रह लाख लघु एवं सीमांत किसानों की ऋण माफी को अमल में ला लिया गया। जिसके तहत 36 हजार करोड़ से अधिक का कर्ज़ माफ हुआ इसके चलते सरकार की छवि को मजबूती और किसानों को व्यापक पैमाने पर राहत मिलती दिखाई देती है। यहां बताते चलें कि केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने यह कहा था कि किसानों के कर्ज़ माफी के मामले में केन्द्र से सहायता सम्भव नहीं है। जाहिर है योगी सरकार ने बिना केन्द्रीय मदद के उत्तर प्रदेष के किसानों को राहत पहुंचाने का काम किया है। गौरतलब है कि लघु एवं सीमांत किसानों के एक लाख तक के फसली ऋण माफ हुए हैं साथ ही सात लाख किसानों का छप्पन सौ तीस करोड़ का एनपीए पूरा माफ किया गया है। इस कदम को कांग्रेस ने अधूरा वादा बताया क्योंकि इसमें सभी किसान षामिल नहीं है जबकि षिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराश्ट्र में किसानों के कर्ज़ माफी की मांग की। हालांकि यह भी संदेष प्रसारित हो रहा है कि सभी किसानों का कर्ज़ माफ करने का वायदा करने वाली भाजपा थोड़े में ही मामले को निपटा रही है। गौरतलब है कि भाजपा ने लोक कल्याण संकल्प पत्र में यह वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह सभी लघु व सीमांत किसानों के फसली ऋण माफ करेगी। चुनावी अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मोदी बीते 13 फरवरी को यह बात लखीमपुर खीरी में कही थी जिस पर योगी सरकार खरे उतरते दिखाई दे रही है। इन सबके बीच सवाल यह भी उठता है कि क्या मुट्ठी भर कर्ज़ माफ कर देने मात्र से किसानों को पूरी राहत मिलेगी। इस बात से षायद सभी सहमत होंगे कि किसानों की दषकों से जो हालत बेपटरी हुई है उसमें राहत को लेकर पूरे पैकेज की जरूरत है साथ ही सीमांत एवं लघु से ऊपर किसानों की हालत भी कम खराब नहीं है। आखिर उनके लिए सरकार के पास देने को क्या है।
छोटे एवं निर्धन किसानों, बटाईदारों, भूमिहीन तथा खेतीहर मजदूरों की ओर भी विषेश ध्यान देने की जरूरत कर्ज माफी मात्र से समाप्त नहीं होती है। षिक्षा, स्वास्थ, आवास एवं सुरक्षा समेत कई बुनियादी समस्याओं से इनका जूझना हमेषा से रहा है। कर्ज़ माफी मात्र देनदारी का समाप्त होना है जबकि किसानों के जीवन सुधार हेतु कई बड़े कदम उठाने अभी बाकी हैं। बदलते समय की मांग है कि कृशि, उद्योग एवं सेवा में सबसे कम जीडीपी वाली कृशि को नये रूपरंग में विकसित किया जाय। गांवों के देष में किसान को पिसने से बचाने के लिए साथ ही आने वाली समस्याओं से बचने हेतु वित्तीय संसाधनों पर भी नये सिरे से काम करना निहायत जरूरी है। हमारे पास विकास का कौन सा माॅडल है जिससे कि हमारे देष का किसान बेचारगी से ऊपर उठे। सात दषकों में जितनी भी कृशि नीतियां बनी उन सभी का हाल तुलनात्मक अच्छा हो सकता है पर किसानों के हालात सुधारने में ये नीतियां कामयाब हुई ऐसा तो हुआ ही नहीं। यह बात किसी से छुपा नहीं है कि उत्तर प्रदेष के बुंदेलखण्ड में सूखे और पेयजल की समस्या के चलते सबसे ज्यादा दुर्दषा किसानों का ही हुआ। यहां बरसों से आत्महत्या बादस्तूर जारी रही साथ ही पलायन का क्रम भी अभी थमा नहीं है। वर्श 2003 से 2007 तक बुंदेलखण्ड अकाल और किसान की आत्महत्या की कहानी बताता है उसके बाद गरीबी और भुखमरी ने तो इनकी बची हुई दुनिया भी तबाह कर दी। जाहिर है कि उत्तर प्रदेष के बुंदेलखण्ड को योगी सरकार से बड़ी अपेक्षा होगी पूरी कितनी होगी पड़ताल बाद में होगी। देष के कमोबेष आधे राज्य पर किसानों का कहर आये दिन टूटता रहता है। 24 जुलाई, 1991 से देष उदारीकरण को अपनाया था। 1992 से 1997 के बीच 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की अवधारणा से ओतप्रोत थी। हैरत यह है कि इसी दौर में विदर्भ के किसान कपास की खेती बर्बाद होने से मौत को गले भी लगा रहे थे। आंकड़ों पर गौर किया जाय तो कुछ ही दषकों में महाराश्ट्र, उत्तर प्रदेष, पंजाब एवं राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों से तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जाहिर है गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की आत्मा भी इससे जरूर दुःखी हुई होगी।
फिलहाल जिस तर्ज पर किसानों के जीवन का मोल घटा है भारत जैसे कृशि प्रधान देष के लिए यह कतई उचित नहीं है। उत्तर प्रदेष की योगी सरकार ने किसानों का कर्ज़ माफ करके कोई नया काम नहीं किया है बल्कि अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की कोषिष की है। देखा जाय तो इसके पहले अखिलेष सरकार भी 2012 में किसानों का कर्ज़ माफ किया था जबकि 2008 में यूपीए की सरकार ने भी राश्ट्रीय स्तर पर 60 हजार करोड़ का कर्ज़ माफ किया था। ये बात और है कि इसमें राहत पाने वालों में ज्यादातर किसान महाराश्ट्र के थे। इस बात को भी समझना सही होगा कि किसानों के हालत सुधारने में यदि केवल राज्यों की जिम्मेदारी होगी तो ये पूरा कर पाना मुष्किल होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रत्येक राज्य की अपनी आर्थिकी एवं वित्तीय हैसियत है यदि इसमें केन्द्र की एकजुटता हो तो समस्या को व्यापक पैमाने पर हल किया जा सकता है। सबके बावजूद लाख टके का सवाल यह रहेगा कि किसानों को उस स्तर तक क्यों नहीं पहुंचा दिया जाता जहां से कर्ज़ माफी की आवष्यकता ही न पड़े।

सुशील कुमार सिंह

Monday, April 3, 2017

चुनौतियों से भरा है सामाजिक प्रशासन

अक्सर यह देखा जा सकता है कि विकसित देशों  में प्रशासन एक सीमा तक नियमबद्ध है और वे विधायी आधार पर भी लिपिबद्ध हुए हैं। हालांकि सुधार की गुंजाइश से विकसित देश भी परे नहीं है परन्तु विकासशील देश विशेषतः  भारत में तो सामाजिक प्रषासन विधायी आधार पर पूर्णतः लिपिबद्ध ही नहीं हो पाये हैं। अनेक विभाग और निदेषालय बिना किसी विधायी आधार के समाज कल्याण कार्यक्रमों को सम्पन्न करने में लगे हुए हैं। दरअसल लोक कल्याण के इस युग में सरकारों की इसे लेकर अपनी मनोदषा रही है। फलस्वरूप इसका एक नुकसान या फायदा यह माना जाता है कि सरकारों के बदलने के साथ कल्याण कार्यक्रमों में भी बड़ा फेरबदल हो जाता है अर्थात् नई सत्ता की नई विचारधारा में पुराने सत्ताधारियों के लोक कल्याण कार्यक्रमों में या तो आकर्शण का लोप होता है या सुधार, या फिर नये कार्यक्रम स्थान ले लेते हैं। बीते मार्च में पांच राज्यों में नये विधानमण्डल का गठन होना जिसमें पंजाब को छोड़कर उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, मणिपुर समेत गोवा में भाजपा का काबिज होना इस गुंजाइष से परे नहीं है कि पहले के लोक कल्याणकारी कार्यक्रम यथावत रहेंगे। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी के नित नये निर्णयों से व्यापक सुधार की कवायद जारी है। अब तक एक पखवाड़े का वक्त तय कर चुकी योगी सरकार ताबड़तोड़ कई सामाजिक फैसले ले चुकी है जिसमें अवैध बूचड़खानों को बंद करना, गोमती रीवर फ्रंट पर नये सिरे से विचार करना साथ ही अध्यापकों की भर्ती पर रोक लगाना इसके अलावा अखिलेष सरकार के कई कार्यक्रमों को स्थगित करते हुए राषन कार्ड से उनकी फोटो हटाने और समाजवादी षब्द से तौबा करना आदि रहा है। उत्तराखण्ड पर भी उत्तर प्रदेष की ही परछाई देखी जा सकती है। यहां भी अवैध बूचड़खाने से लेकर भ्रश्टाचार के मामले में त्रिवेन्द्र सरकार बड़ी कसरत करते हुए दिखाई दे रही है जबकि इसके पहले राश्ट्रीय राजमार्ग घोटाले को सीबीआई को सौंपना और पांच अधिकारियों को निलंबित कर भ्रश्टाचार पर ज़ीरो टाॅलरेंस की मंषा वे प्रकट कर चुके हैं। 
जब भी सुषासन की राह पर सरकारों को चलना पड़ा तब कुछ इसी प्रकार की सामाजिक प्रषासन से जुड़े सूझबूझ का परिचय भी देना पड़ा। असल में सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है सरकारें चाहे मजबूत हों या कमजोर हर हाल में जनता को सषक्त करना उनका दायित्व है। सामाजिक-आर्थिक दृश्टि को लेकर जिस प्रकार की दृढता समाज में दिखनी चाहिए उसका पूरा प्रभाव आज भी देखने को नहीं मिलता है। दषकों से तमाम कोषिषों के बावजूद वोट देने वाला हाषिये पर क्यों है इसका जवाब षायद ही किसी के पास हो पर इसे लेकर सैकड़ों बहाने जरूर बनाये जा सकते हैं, दर्जनों झूठ बोले जा सकते हैं और लीपापोती से भरे आंकड़े प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इन सबके बीच क्या इसकी समय सीमा सम्भव है कि समाज के कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा कब मिलेगी, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार कब रूकेंगे, कानून व्यवस्था जो बेपटरी है वह कब पटरी पर आयेगी इतना ही नहीं देष-प्रदेष में युवा बेरोजगारी का आलम यह है कि वे अपराध के रास्ते को चैड़ा करने में लगे हैं। इस पर सषक्त नीति कब आयेगी। ऐसे सवाल सैकड़ों में हो सकते हैं वक्त के साथ पीड़ा बढ़ी तो ये हजारों में भी हो सकते हैं पर निदान के लिए विधि विन्यास कितना है और कितना सषक्त है यह तय करेगा कि सरकारें लोक कल्याण का दायरा कितना रखती हैं। एक विचारक ने बरसों पूर्व कहा था कि सरकार निर्मित करने का ईंधन तो जनता है पर पांच साल तक सरपट दौड़ने वाली सरकारें यदि इंजन को ही पूरी ट्रेन समझेंगे तो बोगियों में सवार जनता सामाजिक प्रषासन से अछूती रहेगी। सात दषक से आजाद देष में बुनियादी आवष्यकताओं के आभाव में सामाजिक प्रषासन की प्रकृति अभी भी पिलपिली ही है। प्रषासन की अपेक्षा सामाजिक प्रषासन अभी षैष्वावस्था में ही कहा जायेगा। हालांकि विकसित देषों में यह सैकड़ों साल से व्याप्त है। यही कारण है कि अमेरिका में बुनियादी विकास और अन्य उभरी सामाजिक समस्याएं व्यापक पैमाने पर समाधान को प्राप्त कर चुकी हैं।
 देखा जाय तो सामाजिक प्रषासन, प्रषासन की तरह ही है और इसी का अगला चरण सुषासन है बस फर्क यह है कि यह सामाजिक कार्यक्रमों के सिद्धान्तों पर टिकता है। इसमें सामाजिक विकास के साथ सामाजिक सुरक्षा भी निहित है। भारत एक संघीय राज्य है, प्रकृति में पुलिस राज्य तो नहीं पर जन कल्याण के आभाव में यहां पूरा लोक कल्याण नहीं हो पाया है। संविधान में भी राज्यों के कत्र्तव्य गिनाये गये हैं। नीति-निर्देषक तत्व इसका उदाहरण है। केन्द्र में मोदी सरकार को लगभग तीन बरस हो रहे हैं जबकि उदारीकरण के तीन दषक पूरे होने में कुछ ही वर्श बचे हैं। सुषासन की राह पर चलते हुए मोदी सरकार डिजिटल इण्डिया, मेक इन इण्डिया तथा स्टार्टअप एवं स्टैण्डअप इण्डिया को अपनाकर एक सुगम पथ बनाने की कोषिष में है जिसका हालिया संदर्भ अभी बहुत प्रखर नहीं हुआ है और आंकड़े इस ओर इषारा करते हैं कि ये तमाम कोषिषें अभी वाइब्रेंट इण्डिया की अवधारणा तक नहीं पहुंच पाई हैं। स्वच्छ भारत अभियान से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ साथ ही षौचालय जैसे सामाजिक कार्यक्रम देष में बरसों पहले आ जाने चाहिए थे। इसकी देरी का खामियाजा भी बरसों से चुकाया जा रहा है। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में जिस कूबत के साथ एक तरफा जीत वाली सरकारों का निर्माण हुआ है उसे देखते हुए यह उम्मीद बढ़ना लाज़मी है कि सरकारों को लोक कल्याण के मामले में मीलों आगे रहना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा के मामले में तो मोदी और योगी समेत अन्यों को भी जी-जान लगा देना चाहिए। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की 2009 की रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की गई थी मसलन अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्गों के षैक्षिक विकास, आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्रदान करना, विकलांग व्यक्तियों और नषीली दवाओं आदि के लोगों के पुनर्वास साथ ही वरिश्ठ नागरिकों समेत समाज के ऐसे ही तमाम लोगों के कल्याण के लिए वचनबद्ध होना था। उक्त के निहित परिप्रेक्ष्य में कार्यक्रमों की संख्या बढ़ी पर पड़ताल बताती है कि दवा के साथ दर्द बढ़ा है जबकि उम्मीद घटने की थी। 
विकास का एक बहुत अच्छा पहलू लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा को माना जाता है। भारत 125 करोड़ की जनसंख्या रखता है जिसमें 25 करोड़ उत्तर प्रदेष के हिस्से है। योगी सरकार को इन्हें ध्यान में रखकर अपने सामाजिक कार्यक्रम लागू करने हैं जिसमें महिलाओं एवं बच्चों का सषक्तीकरण, अल्पसंख्यक, विकलांग के कल्याण हेतु कदम उठाना, पिछड़े वर्गों को लेकर भी बचा हुआ काम करना, अनुसूचित जाति में वे सभी उभार लाना जिससे अभी वे अछूते हैं इतना ही नहीं चुनौती तो यह भी है कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष सरकार होने का विष्वास भी पैदा करना है। उत्तर प्रदेष में यह आम है कि योगी प्रखर हिन्दूवादी हैं जाहिर है इससे ऊपर उठकर छवि विकसित करना भी उनके लिए एक चुनौती है। इस बात को भी समझना ठीक होगा कि इस बार के विधानसभा चुनाव में चाहे उत्तर प्रदेष हो या उत्तराखण्ड धर्म और जाति से काफी हद तक मुक्त रहा है यदि प्रभाव था तो विकास का। जिन वायदों और इरादों के साथ विकास की अवधारणा पल्लवित और पोशित की गयी है उससे भी यह साफ है कि सामाजिक प्रषासन के मार्ग पर चलना ही होगा। सुषासन की रट लगाने वाले सत्ताधारियों को यह समझना होगा कि भारत जैसे विकासषील देष में मात्र सरकारों के अधिक नम्बर होने से यह सम्भव नहीं है बल्कि जनता का नम्बर वन होना इसकी मेरिट है। ऐसे में वे लोक कल्याण से जुड़े सामाजिक कार्यक्रमों को ऐसी दिषा दें जिससे सामाजिक प्रषासन के साथ सुषासन की राह चैड़ी हो सके। 

सुशील कुमार सिंह