Thursday, February 24, 2022

आखिर सरकारी नौकरियां गई कहां!

हर साल देष में एक करोड़ 80 लाख भारतीय 18 वर्श के हो जाते हैं जाहिर है एक बड़ी संख्या कार्यबल के रूप में तैयार होती है। भारत में लगभग 10 करोड़ लोग ऐसे भी हैं जो कृशि में घटती उत्पादकता और कम मुनाफे के चलते बाहर निकल जाते हैं। देष की जनसंख्या जिस आंकड़े के साथ दिनों-दिन बढ़ रही है उसे देखते हुए देष में बेरोज़गारी का अम्बार लगना कोई अप्रत्याषित घटना नहीं है। इतना ही नहीं कौषल विकास के मामले में जिस पैमाने पर व्यवस्थायें हैं वे न तो परिपूर्ण हैं और न ही सक्षम बनाने में कामयाब हैं। गौरतलब है कि भारत में महज 25 हजार ही कौषल विकास केन्द्र हैं और वो भी कोरेाना के दौर में किस अवस्था में है इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है जबकि चीन में 5 लाख और दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देषों में ऐसे केन्द्र एक लाख से अधिक है। समय के साथ डिग्री धारियों की संख्या में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। प्रत्येक वर्श लगभग 4 करोड़ स्नातक और 60 लाख से अधिक डिग्री धारक रोज़गार की लाइन में होते हैं। मगर एक ओर जहां कौषल में भारी कमी तो वहीं दूसरी ओर रिक्तियों की कमी की संख्या में या तो ठहराव होना या कमी का होना स्थिति को एक नई समस्या की ओर धकेल देता है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन का एक अध्ययन यह कह चुका है कि आने वाले सालो में भारत में कौषल की कमी होगी और साल 2030 तक लगभग 3 करोड़ नौकरियां ऐसी होंगी जो समुचित कौषल के आभाव में काम नहीं आयेंगी। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि कोरोना काल में बेरोज़गारी ने सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिये।

इस बात से भ्भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती मगर रोज़गार के अवसर को ही खतरा पैदा हो जाये तो पानी सर के ऊपर बहने से रोका भी नहीं जा सकता। रोज़गार को श्रेणीबद्ध किया जाये तो पता चलता है कि संगठित क्षेत्र में रोज़गार बहुत कम है। देष में असंगठित क्षेत्र 93 फीसद हैं और बचा हुआ हिस्सा संगठित क्षेत्र में आता है। इसमें भी कुछ फीसद घरेलू सेक्टर में काम कर रहे हैं। पड़ताल बताती है कि 1 मार्च 2016 तक केन्द्र सरकार में 4 लाख से अधिक पद खाली थे जिसमें सबसे ज्यादा रिक्तता ग्रुप-सी में थी। हाल ही में देखने को मिला था कि बेरोज़गारी से पीड़ित रेलवे और एनटीपीसी से जुड़े अभ्यर्थी एक व्यापक आंदोलन की राह पकड़ ली थी। हालांकि अब आंदोलन तो नहीं है पर जो बेरोज़गारी के चलते युवाओं की छाती में सवाल सुलग रहे हैं उसका जवाब अभी भी पूरी तरह तो मिला नहीं है। जाहिर है रोज़गार के बगैर यह सब बेमानी है। षिक्षा, पुलिस, न्यायपालिका, डाक विभाग, स्वास्थ्य सेवा आदि समेत कई क्षेत्रों में पदों की रिक्तता बाकायदा देखी जा सकती है। सिविल सेवा परीक्षा में भी बढ़ते आवेदकों की संख्या के अनुपात में रिक्तियों की सख्या कम ही कही जायेगी। कर्मचारी चयन आयोग जैसी संस्थायें भर्ती के मामले में विगत् कई वर्शों से ढुलमुल रवैया अपनाये हुए है। दुविधा तब बढ़ जाती है जब सालों-साल पढ़े-लिखे युवाओं को आवेदन करने का अवसर तक नहीं मिलता। सरकारी नौकरी को लेकर मध्यम वर्ग में कहीं अधिक आकर्शण बना रहता है। इसके पीछे अच्छा और हर महीने मिलने वाला वेतन है। वर्तमान में तो पेंषन प्रणाली को पुर्नजीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। राजस्थान सरकार ने तो इसकी घोशणा भी कर दी है। उत्तर प्रदेष के चुनावी समर ने समाजवादी पार्टी ने तो सरकार आने की स्थिति में पेंषन बहाली की बात कही है। उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस ने आह्वान किया है कि सरकार बनी तो वह भी ऐसा ही करेंगे। जाहिर है सरकारी नौकरी के प्रति पेंषन के चलते जो थोड़ा-मोड़ा आकर्शण घटा था वह भी फिर एक बार अपनी जगह ले लेगा। 

कोरोना महामारी के बाद बेरोज़गारी का प्रभाव अलग-अलग सेक्टर में भिन्न-भिन्न रूपों में देखने को मिला। साल 2020-21 में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी की मार असंगठित क्षेत्र के हाॅकर और रेड़ी-पटरी पर सामान बेचने वालों पर पड़ी। केवल कृशि ऐसा क्षेत्र था जहां रोज़गार की स्थिति सही करार दी जा सकती है। बेरोज़गारी दर जिस कदर बढ़त बनाये हुए है वह काफी निराष करने वाला है। पड़ताल बताती है कि दिसम्बर 2021 में यह दर रिकाॅर्ड 7.91 पर पहुंची। हालांकि मई 2021 में दूसरी लहर के दौरान सबसे ज्यादा बेरोज़गारी दर 11.84 फीसद देखी जा सकती है। 2019 में बेरोज़गारों का आंकड़ा 18.6 करोड़ था तब से लेकर 2022 तक इसमें 11 फीसद की बढ़ोत्तरी के साथ दो करोड़ से अधिक के इजाफे की सम्भावना व्याप्त है। देष में बेरोज़गारी बीते तीन दषक की तुलना में सर्वोच्चता लिए हुए है। भारत में करीब 47 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की नौकरी करते हैं। इनमें से लगभग 3 फीसद ही सरकारी नौकरियों में है जबकि इसका सपना आंखों में बोने वाले करोड़ों की तादाद में है। इस आंकड़े से बात समझना और आसान हो जायेगा कि साल 2019 में रेलवे में 90 हजार पद की भर्ती होनी थी जिसमें ढ़ाई करोड़ से ज्यादा लोगों ने आवेदन किया था। आंकड़ा इस बात की बानगी है कि देष में बेरोज़गारी की कतार कितनी बड़ी है और सरकारी नौकरी के प्रति चाहत बेषुमार है। सवाल यह है कि जब हर साल लोग सेवानिवृत्त होते हैं तो रिक्त पदों की भर्ती समय से क्यों नहीं की जाती और यदि इस दिषा में पहल होती भी है तो सालो-साल इस प्रक्रिया में ही खर्च कर दिये जाते हैं। एक उदाहरण और देते हैं उत्तराखण्ड को बने 22 साल हो गये जिसमें महज 6 बार पीसीएस की भर्ती हुई है और सातवीं भर्ती प्रक्रिया में है। साल 2016 के बाद यहां ऐसे पदों के लिए आवेदन 2021 में निकाला गया। उक्त से यह स्पश्ट है कि भर्ती को लेकर सरकारें न केवल ढुलमुल रवैया रख रही हैं बल्कि उदासीनता का भी परिचय दे रही हैं। 

सर्वाधिक नौकरियां देने वाले रेल विभाग में कर्मचारियों की संख्या मानो स्थिर हो गयी हैं। रेल विभाग में कर्मचारियों की संख्या 2019 में जितनी थी वह मार्च 2021 में भी उतने के ही अनुमान देखने को मिला। वक्त लम्बा बीत गया मगर नौकरी की संख्या बढ़ते हुए नहीं दिख रही है। जाहिर है युवाओं की संख्या बढ़ रही है मगर रिक्तियां सीमित हो रही हैं। डाक विभाग ने सर्वाधिक नौकरियां देने वालों में से एक है। यहां भी आंकड़े बढ़ते हुए दिषा में नहीं दिखाई देते। मार्च 2020 और मार्च 2021 के बीच लगभग स्थिति एक जैसी प्रतीत हुई। हमारी सरकारें चुनाव से पहले रोज़गार को लेकर बड़ा आष्वासन देती हैं। इस बार के बजट में आगामी 5 साल में 60 लाख नौकरी की बात भी कही गयी। फिलहाल यह सवाल कहीं नहीं गया है कि आखिर सरकारी नौकरियां गयी कहां। 

  दिनांक : 24/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, February 17, 2022

भारत एट दि रेट 75 और नौकरशाही

भारतीय संविधान सभा में अखिल भारतीय सेवाओं के बारे में चर्चा के दौरान सरदार पटेल ने कहा था कि प्रषासनिक प्रणाली का कोई विकल्प नहीं है। इसके अलावा भी उन्होंने प्रषासनिक सेवा को लेकर कई बातें कही थी। गौरतलब है कि वर्तमान में भारतीय प्रषासनिक सेवा (आईएएस), पुलिस सेवा (आईपीएस) व वन सेवा (आईएफएस) समेत तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं। अखिल भारतीय का तात्पर्य ऐसी सेवा जिसमें कैडर और अवधि प्रणाली पायी जाती है व भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है। लोक सेवा जैसी व्यवस्था में नीति नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तक के सारे पक्ष निहित होते हैं। यह अधिकार से परिपूर्ण ऐसी सेवा है जिसमें नये भारत ही नहीं बल्कि पूरे भारत की कायाकल्प करने की ताकत होती है। हालांकि बिना राजनीतिक इच्छाषक्ति के इसकी जोर-आज़माइष फलित नहीं हो सकती। ब्रिटिष काल में प्रषासनिक सेवा (नौकरषाही) की प्रवृत्ति भारतीय दृश्टि से लोक कल्याण से मानो परे रही है। मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रषासन में इस बात को उद्घाटित किया था कि नौकरषाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त एक संगठन है। इतिहास के पन्नो को पलटा जाये तो स्पश्ट है कि मौजूदा अखिल भारतीय सेवा अर्थात् आईएएस और आईपीएस सरदार पटेल की ही देन है जिसका उद्भव 1946 में हुआ था जबकि आईएफएस 1966 में विकसित हुई। समय, काल और परिस्थिति के अनुपात में नौकरषाही से भरी ऐसी सेवाएं मौजूदा समय में सिविल सर्वेंट के रूप में कायाकल्प कर चुकी हैं। ब्रिटिष काल की यह इस्पाती सेवा अब प्लास्टिक फ्रेम को ग्रहण कर चुकी है। जनता के प्रति लोचषील हो गयी है और सरकार की नीतियों के प्रति जवाबदेह पर इसकी हकीकत इससे परे भी है। सरकार पुराने भारत की भ्रांति से बाहर आकर न्यू इण्डिया की क्रान्ति लाना चाहती है जो बिना लोक सेवकों के मानस पटल को बदले पूरी तरह सम्भव नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी लोक सेवकों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने को लेकर बीते कुछ वर्शों से प्रयास करते दिखते हैं। कुछ हद तक कह सकते हैं कि भ्रश्ट अधिकारियों के खिलाफ सरकार ने बड़े और कड़े कदम उठाये हैं मगर सामाजिक बदलाव को पूरा पाने के लिए प्रषासन में काफी कुछ परिवर्तन करना होगा। इस दिषा में हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि जनवरी 2022 में सरकार ने आईएएस कैडर नियम 1954 में संषोधन का एक प्रस्ताव दिया है जिसमें यह संदर्भ स्पश्ट है कि राज्य सरकार और सम्बंधित लोक सेवक की सहमति के बिना केन्द्र सरकार को एक आईएएस अधिकारी की सेवा को केन्द्र में संचालित करने की मंजूरी मिल जायेगी जबकि मौजूदा नियम में ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है। 

लोक सेवा सरकार के काम-काज के संचालन के लिए आवष्यक है। सरकार ने अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए सोच-समझ कर लोक सेवा में सुधार किया ताकि नीतियों को प्रभावी और कुषलतापूर्वक क्रियान्वित किया जा सके। हाल के समय में प्रौद्योगिकी उन्नयन से लेकर अधिक विकेन्द्रीकरण के साथ सामाजिक सक्रियता के चलते वैष्विक स्तर एक बड़े बदलाव की ओर झुका है ऐसे में भारत की प्रषासनिक व्यवस्था में दक्षता और समावेषी दृश्टिकोण का अनुपालन अपरिहार्य हो जाता है। मिषन कर्मयोगी इस दिषा में एक बेहतरीन कदम तो है मगर यह जमीन पर अभी उतरी नहीं है। गौरतलब है कि सरकार ने लोगों तक बेहतर सेवाएं पहुंचाने के उद्देष्य से एक नये व्यापक लोक सेवक सुधार कार्यक्रम की घोशणा की है। देखा जाये तो मोदी अपने पहले कार्यकाल के दौरान भी लोक सेवाओं में सुधार करते दिखते हैं। दरअसल देष में नौकरषाही हठ्धर्मिता को बढ़ावा देने का काम करती रही है साथ ही लालफीताषाही की जकड़न से विकास को भी कमोबेष बंधक बनाये हुए थी। जिस नौकरषाही को नीतियों के क्रियान्वयन और जनता की खुषहाली का जिम्मा था तो वही षोशणकारी और अर्कमण्य हो जाये तो न तो अच्छी सरकार रहेगी और न ही जनता की भलाई होगी। इसी मर्म को समझते हुए लालफीताषाही पर प्रहार करने के साथ लाल बत्ती को भी पीछे छोड़ना जरूरी समझा गया और देष में 1 मई 2017 से लालबत्ती गायब है। नीति आयोग के पास 2018 के ऐतिहासिक रिपोर्ट में लोक सेवा में सुधार को लेकर निहित अध्याय में नये भारत एट दि रेट 75 हेतु रणनीति रिपोर्ट में जनसेवाओं को और अधिक प्रभावी और कुषलतापूर्वक पहुंचाने के लिए लोक सेवकों की भर्ती, प्रषिक्षण सहित कार्य निश्पादन के मूल्यांकन में सुधार करने जैसे तंत्र को स्थापित करने पर जोर दिया गया ताकि न्यू इण्डिया 2022 के लिए परिकल्पित और संदर्भित विकास को हासिल किया जाना आसान हो। यहां बताते चलें कि 2 सितम्बर 2020 से मिषन कर्मयोगी कार्यक्रम के अंतर्गत सृजनात्मक, रचनात्मक, कल्पनाषील, नव प्रवर्तनषील, प्रगतिषील और सक्रिय तथा पेषेवर सार्मथ्यवान लोक सेवक को विकसित करने के लिए एक घोशणा दिखाई देती है। जाहिर है न्यू इण्डिया के लिए यह एक और नया आगाज था पर वक्त के साथ परिवर्तन कितना हुआ यह प्रष्न कहीं गया नहीं है। लोक सेवा की प्रभावषीलता और सक्रियता की अलग-अलग परिभाशा है। मौजूदा दौर प्रतिस्पर्धा का है जिसमें प्रभुत्व और वर्चस्व को कम करते हुए लोक सेवा को कहीं अधिक खुला और पारदर्षी बनाने की आवष्यकता है और इस दिषा में उठाया गया कदम कहीं अधिक सुषासनिक होगा जिसके लिए कमोबेष प्रयास होते रहे हैं। 

लोक सेवा में सुधार का मूलभूत उद्देष्य जन केन्द्रित लोक सेवा का निर्माण करना है। चुनौतियों से भरे देष और उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद् जवाबदेही के चलते सरकार के लिए विकास और सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में लोकसेवा का परिदृष्य भी नया करना होगा ताकि न्यू इण्डिया में नये कवच के साथ नई लोक सेवा नई चुनौतियों को हल दे। आर्थिक वृद्धि और जन कल्याण के लिए हितकारी सेवाओं का विकास और डिलीवरी करने में सार्मथ्यवान सिविल सेवा नये भारत की बड़ी आवष्यकता है। कोरोना महामारी के बीच चुनौतियों का अम्बार विकास की दृश्टि से तो लगा ही है। अच्छी नीति तत्पष्चात् उसका क्रियान्वयन ऐसे दौर में कहीं अधिक बढ़त लिए हुए है। राश्ट्रीय लोक सेवा क्षमता निर्माण कार्यक्रम इस तरह से बनाया गया है कि यह भारतीय संस्कृति और संवदेनाओं की परिधि में रहने के साथ-साथ दुनिया भर की सर्वश्रेश्ठ कार्य पद्धतियों एवं संस्थानों से अध्ययन संसाधन प्राप्त कर सकें। सरकार न्यू इण्डिया का सपना दिखा कर नागरिकों में नया जोष भरने का काम तो कर रही है और 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था की चाहत भी सरकार रखती है मगर यह तभी सम्भव है जब लोक सेवा एक बेहतरीन और बड़ी सर्जरी की जायेगी जहां भ्रश्टाचार पर पूरी तरह लगाम हो और जनता का बकाया विकास उन तक पहुंचाया जाये। यह एक बड़े ढांचागत सुधार से ही सम्भव है। अन्ततः इस कथन से लोक सेवा के मूल्य को और समझा जा सकता है एक प्रषासनिक चिन्तक डाॅनहम ने कहा है कि “यदि हमारी सभ्यता नश्ट होती है तो ऐसा प्रषासन के कारण होगा।” जाहिर है न्यू इण्डिया की जिस महत्वाकांक्षा ने नई उड़ान लिया है वह उसे धरातल पर नई लोकसेवा से ही उतारा जा सकता है। 

 दिनांक : 17/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

डिजिटल इण्डिया, ई-लर्निंग और सुशासन

षिक्षा का उद्देष्य उसे अधिक षिश्य केन्द्रित आनंदकारी, प्रयोगात्मक व खोजोन्मुख बनाना होना चाहिए। षायद इसी की खोज हर षिक्षा नीति और हर तरीके के पाठ्यक्रम में कमोबेष होता रहा है। देष में षिक्षा और षिक्षण पद्धति को लेकर एक विचित्र विरोधाभास और दुविधा की स्थिति भी रही है। एक आदर्ष और गुणकारी षिक्षा व्यवस्था में कौन से तत्व षामिल होने चाहिए इसे लेकर आजादी के 75 सालों में कोई एक निष्चित धारणा षायद ही बन पायी हो। नतीजन इस अनिष्चितता का भरपूर दण्ड हर नई पीढ़ी कमोबेष भुगतती है और अब कोविड-19 के इस दौर में बीते दो साल से आॅनलाइन षिक्षा तो मौजूदा पीढ़ी को एक नया सबक सिखा रही है जहां षिक्षा एक नये संघर्श के साथ मानसिक संतुलन भी बरकरार रखने की कवायद लिये रही। मौजूदा वैष्विक महामारी के दौर में संचार, नेतृत्व और नीति-निर्माताओं, प्रषासन व समाज के बीच तालमेल के जरूरी तत्व के रूप में डिजिटल व्यवस्था की केन्द्रीय भूमिका हो गयी है। डिजिटल का यह दायरा कोविड-19 से सम्बंधित योजनाओं के ज्यादा पारदर्षी, सुरक्षित और अंतर प्रचालनीय ढंग से प्रसार हेतु महत्वपूर्ण औजार बनते देखा जा सकता है मगर संदर्भ कुछ इसके उलट भी रहे हैं। देखने को मिला है कि षिक्षा मंत्रालय को अभिभावकों की ओर से थोक में षिकायतें भी मिली जिसमें बच्चों को विद्यालयों की ओर से घण्टों आॅनलाइन पढ़ाया जाना, होमवर्क के अनुपात को भी बरकरार रखना और दिन भर कम्प्यूटर, लैपटाॅप और मोबाइल से बच्चों का चिपके रहना। जाहिर है अनावष्यक व्यस्तता के चलते व्यवहार में बदलाव होना स्वाभाविक था। इससे सीखने की न केवल क्षमता घटी बल्कि चिड़चिड़ापन भी जगह बनाई। हालांकि महामारी के समय षिक्षा को संभालने में ई-लर्निंग एक महत्वपूर्ण विकल्प था। कोरोनाकाल में लगभग पूरी षिक्षा व्यवस्था बेपटरी होने से डिजिटल के माध्यम से बचाये रखना काफी हद तक सम्भव रहा। गौरतलब है कि डिजिटल प्रौद्योगिकियों के उभार ने टीचिंग-लर्निंग विधियों, विष्वविद्यालयी प्रषासन प्रणालियों, उच्च षिक्षा सम्बंधी लक्ष्यों और भविश्य में स्थापित होने वाले विष्वविद्यालयों के संदर्भ में एक नया दृश्टिकोण अपनाने का अवसर भी दिया है। भारत सरकार ने वित्त वर्श 2022-23 के बजट में किसी अवसर को ध्यान में रखते हुए डिजिटल विष्वविद्यालय खोलने का एलान किया है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय है क्योंकि एक डिजिटल विष्वविद्यालय विविध भाशाओं में उच्च गुणवत्तापूर्ण षिक्षा और घर बैठे पढ़ाई का विकल्प उपलब्ध करायेगा। देखा जाये तो षिक्षा बजट की हालिया स्थिति में बहुत अंतर नहीं है मगर 2020-21 और 2021-22 की तुलना में बजट में थोड़ी बढ़ोत्तरी दिखती है। 

जब भी सुषासन को कड़ीबद्ध करने का प्रयास किया जाता है तो इस बात को सुनिष्चित करना भी षामिल रहता है कि लोक व्यवस्था की भरपाई में कोई कमी न रहे और संवेदनषीलता और सहनषीलता के साथ लोक कल्याण को उस पैमाने पर सुनिष्चित किया जाये जहां से लोक विकास को पूरा अवसर मिलता हो। ई-लर्निंग के माध्यम से क्या सभी को अवसर मिला यह सवाल आज भी कहीं गया नहीं है। इसके अलावा षिक्षा, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी समेत तमाम बुनियादी विकास व सतत् विकास की धाराओं को भी मनचाहा मुकाम मिले, यह भी सुषासन का ही फलक है। महामारी के चलते सब कुछ सही रहे इसकी कोषिष तो की जा सकती है पर नतीजा मनमाफिक भी मिले हैं इस पर संदेह है। डिजिटल इण्डिया का प्रसार भारत में क्या उस पैमाने पर हुआ है जहां से सुषासन का गुणा-भाग समाप्त होता है। वैसे डिजिटल इण्डिया साल 2015 में प्रकट तो हुआ मगर इसकी बुनियाद दषकों पुरानी है। दरअसल इसकी नींच तब पड़ी जब भारत सरकार ने 1970 में इलेक्ट्राॅनिक विभाग और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र का गठन किया। 1991 के उदारीकरण से देष एक नई धारा को ग्रहण कर रहा था जिसमें इलेक्ट्राॅनिक विन्यास भी इसका एक हिस्सा था। ई-क्रान्ति भले ही देर में आयी मगर ई का प्रसार दषकों पुराना है। साल 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकटीकरण ने दक्षता, पारदर्षिता और जवाबदेही को सुनिष्चित कर दिया। ई-षिक्षा इसी की एक कड़ी है जो कोरोना काल में आसमान छूने के लिए बेताब रही मगर छलांग पूरी न पड़ी। गौरतलब है कि डिजिटलीकरण ई-लर्निंग का भी एक बहुत बड़ा औजार है। ई-गवर्नेंस मौजूदा समय में एक नई करवट ले रहा है और विकास की जमीन अब डिजिटलीकरण से युक्त है मगर 136 करोड़ जनसंख्या वाले भारत में इंटरनेट कनेक्टिविटी उस औसत में अभी भी नहीं है कि ई-लर्निंग के माध्यम से षिक्षा को पूरा मुकाम दिया जाये।

नेषनल सेम्पल सर्वे से पता चलता है कि साल 2017-18 करीब 42 फीसद षहरी और 15 प्रतिषत ग्रामीण परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा थी और मौजूदा समय में षहरी आबादी में 67 फीसद और ग्रामीण में महज 31 फीसद तक इंटरनेट की पहुंच है। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन आॅफ इण्डिया के मुताबिक 2020 तक देष में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या करीब 63 करोड़ थी। हालांकि 2025 तक यह 90 करोड़ के आंकड़े को छुएगा। इतना ही नहीं भारत इंटरनेट की सुस्त रफ्तार की समस्या से भी परेषान है इस मामले में भारत 134 देषों की सूची में 129वें स्थान पर है जो पड़ोसी पाकिस्तान, श्रीलंका से भी पीछे है। कोरोना काल में इस मामले में भी सुधार तेजी से होता दिखाई देता है। मगर देष की ढ़ाई लाख पंचायतें और साढ़े छः लाख गांवों में षत् प्रतिषत इंटरनेट कनेक्टिविटी कब पूरी होगी इसका कोई अंदाजा नहीं है। हालांकि सरकारी नीतियों और बयानबाजियों में इसका कोई अच्छा उत्तर मिल जायेगा। उक्त से स्पश्ट है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या ई-लर्निंग से वंचित थी। पड़ताल यह बताती है कि देष में सभी किस्म के मसलन सेन्ट्रल, डीम्ड, स्टेट व प्राइवेट समेत हजार से अधिक विष्वविद्यालय हैं। इसके अलावा 40 हजार से अधिक महाविद्यालय भी हैं जहां से लगभग 4 करोड़ स्नातक की डिग्री हर साल पाते हैं। हालिया स्थिति को देखते हुए इंटरनेट षिक्षा यानी ई-लर्निंग के लाभ और कारोबार को भी समझा जा सकता है। मगर यह सभी तक तभी पहुंच बना पायेगा जब इंटरनेट और बिजली से भारत का कोना-कोना युक्त होगा। अमेरिका में डेढ़ दषक पहले साल 2006 में ई-षिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ और 2014 आते-आते यहां उच्च षिक्षा ई-षिक्षा के रूप में बड़े पैमाने पर विकसित हुई। भारत में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और यही औसत गरीबी रेखा के नीचे का भी है। जाहिर है ई-षिक्षा भले ही मौजूदा दौर की सबसे बड़ी आवष्यकता हो मगर अभी भी सभी में पहुंचाने की चुनौती है। डिजिटल षिक्षा की सबसे खास बात यह है कि इसमें घर ही विद्यालय और विष्वविद्यालय होता है। परम्परागत षिक्षा व्यवस्था की तुलना में डिजिटल व्यवस्था बहुत ही सस्ती है। कागज का इस्तेमाल कम होता है मगर लगातार मोबाइल या कम्प्यूटर की स्क्रीन को झांकते रहना सेहत की दृश्टि से दुश्प्रभाव वाला भी है। 

गौरतलब है कि इसी डिजिटलीकरण के चलते ज्ञान के आदान-प्रदान सहयोगात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देना, नागरिकों को पारदर्षी दिषा-निर्देष मुहैया कराने का मार्ग भी सहज हुआ है। मौजूदा बजट में बच्चों की पढ़ाई में टीवी चैनलों की संख्या दो सौ करने की बात कही गयी है इसका सीधा लाभ 25 करोड़ स्कूली छात्रों को होगा। बषर्ते मोबाइल, लैपटाॅप या कम्प्यूटर की उपलब्धता के साथ इंटरनेट कनेक्टिविटी और उससे जुड़ने की सक्षमता भी छात्रों के अभिभावकों में सम्भव हो। बढ़ती बेरोज़गारी और घटती कमाई में कई प्रकार की चोट से आम जीवन को प्रभावित किया है। जहां स्वास्थ्य को लेकर चिंता प्राथमिकता में है वहीं ई-लर्निंग एक बड़ी जमात के लिए चिंतन का सबब रही है। डिजिटलीकरण को कितने भी बड़े पैमाने पर व्यापक रूप दे दिया गया है मगर यह अंतिम व्यक्ति तक तभी सम्भव है जब यह कहीं अधिक सुलभ और सस्ता होगा। देखा जाये तो डिजिटल इण्डिया, ई-लर्निंग के लिए करीब चार सौ करोड़ रूपए खर्च किये जायेंगे। षिक्षा के मापदण्डों पर कई तकनीक आजमाये जा रहे हैं और जिस तरह बीते दो वर्शों में षिक्षा एक बड़े संघर्श से जूझ रही है उससे यह स्पश्ट हो चला है कि डिजिटल छलांग मौजूदा समय की आवष्यकता है। सुषासन की पराकाश्ठा भी यही कहती है कि जो जनता को चाहिए उसे उपलब्ध कराने में षासन को न देर करनी चाहिए और न ही कोई मजबूरी जतानी चाहिए। आॅनलाइन षिक्षा की सबसे खास बात यह हुई है कि यह समय की बाध्यता से कहीं अधिक ऊपर है। लेक्चर को सुविधा के अनुरूप किसी और समय में भी देखा जा सकता है मगर संवाद के अवसर इसमें सीमित हैं और काफी हद तक अनुषासन में रहने की जिम्मेदारी पढ़ने वालों पर है। 

डिजिटल एजुकेषन फाॅर आॅल के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सबसे बुनियादी षर्त यह है कि डिजिटल एजुकेषन से जुड़ी आधारभूत संरचना का विकास तो किया ही जाये साथ ही डिजिटल साक्षरता की दिषा में कदम तेजी से उठाने की भी जरूरत है। ई-षिक्षा, इलेक्ट्राॅनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा षैक्षणिक उपकरणों और संचार माध्यमों का उपयोग करते हुए षिक्षा प्रदान करने के प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। बावजूद इसके अभी भारत में ई-षिक्षा अपनी षैष्वावस्था में है। ई-षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने विभिन्न ई-लर्निंग कार्यक्रमों का समर्थन किया है। वैसे देखा जाये तो ई-षिक्षा को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। एक है सिंक्रोनस षैक्षिक व्यवस्था जिसका तात्पर्य है एक ही समय में विद्यार्थी और षिक्षा अलग-अलग स्थानों से एक-दूसरे से षैक्षणिक संवाद करते हैं। इसमें आॅडियो और वीडियो कांफ्रेंसिंग, लाइव चैट और वर्चुअल क्लासरूम षामिल हैं जबकि दूसरी श्रेणी असिंक्रोनस षैक्षणिक व्यवस्था में विद्यार्थी और षिक्षक के बीच संवाद करने का कोई विकल्प नहीं है। इसमें वेब आधारित अध्ययन जिसमें विद्यार्थी किसी आॅनलाइन कोर्स, ब्लाॅग, वेबसाइट, वीडियो, ट्युटोरिअल्स, ई-बुक इत्यादि की मदद से षिक्षा प्राप्त करते हैं। ई-लर्निंग का माध्यम कुछ भी हो लेकिन इसे फलक पर तभी पूरी तरह से लाया जा सकता है जब इस पर आने वाले खर्च को उठाना सहज हो। इंटरनेट कनेक्टिविटी ही नहीं बल्कि समुचित सिग्नल की व्यवस्था हो। दो टूक यह भी है कि ई-लर्निंग भले ही तमाम फायदों से युक्त हो मगर सेहत की दृश्टि से इसकी सीमा रहेगी। इतना ही नहीं कक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत किये जाने वाले अध्ययन में जिस प्रकार का व्यक्तित्व विकास सम्भव होता है उसकी भी घोर कमी यहां रहेगी। भाशण, नृत्य, खेलकूद, लेखन  कला, आमने-सामने का संवाद आदि की समस्या से भी यह परे नहीं है। 

दिनांक : 14/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

अपरिहार्य है डिजिटल शिक्षा में छलांग

मौजूदा वैष्विक महामारी के दौर में संचार, नेतृत्व और नीति निर्माताओं, प्रषासन व समाज के बीच तालमेल के जरूरी तत्व के रूप में डिजिटल व्यवस्था की केन्द्रीय भूमिका हो गयी है। डिजिटल दायरा कोविड-19 से सम्बंधित योजनाओं के ज्यादा पारदर्षी, सुरक्षित और अन्तर-प्रचालनीय ढंग से प्रसार हेतु महत्वपूर्ण औजार बनते देखा जा सकता है। कोरोना काल में लगभग पूरी षिक्षा व्यवस्था बेपटरी हुई जाहिर है डिजिटल के माध्यम से इसे बचाये रखना काफी हद तक सम्भव रहा। षायद यही वजह है कि बीते 1 फरवरी को प्रस्तुत बजट में डिजिटल दृश्टिकोण को एक आयाम देने का प्रयास हुआ है। सरकार ने वित्त वर्श 2022-23 के इस बजट में बड़ी पहल के तहत डिजिटल विष्वविद्यालय खोलने का एलान किया है। जाहिर है यह षिक्षा की दिषा में एक भरपाई के साथ विष्वस्तरीय गुणवत्ता और घर बैठे पढ़ाई का विकल्प उपलब्ध करायेगा साथ ही देष में प्रतिश्ठित विदेषी विष्वविद्यालयों की राह भी आसान होगी। वित्त मंत्री का कथन कि कोरोना काल में पढ़ाई का काफी नुकसान हुआ है इसलिए ई-कन्टेन्ट और ई-लर्निंग को प्रोत्साहन दिया जायेगा। देखा जाये तो षिक्षा बजट की हालिया स्थिति में बहुत अंतर तो नहीं है मगर 2020-21 व 2021-22 की तुलना में बजट अधिक तो है। स्कूली षिक्षा और उच्च षिक्षा में भी थोड़े बढ़त के साथ बजट को देखा जा सकता है। कोरोना महामारी के दौरान षिक्षा क्षेत्र जिस तरह आॅनलाइन माध्यम पर निर्भर हुआ है उसी के चलते डिजिटल विष्वविद्यालय बनाये जाने का एलान हुआ है।

गौरतलब है कि इसी डिजिटलीकरण के चलते ज्ञान के आदान-प्रदान सहयोगात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देने, नागरिकों को पारदर्षी दिषा-निर्देष मुहैया कराने का मार्ग भी सहज हुआ है। मौजूदा बजट में बच्चों की पढ़ाई के लिए टीवी चैनलों की संख्या दो सौ करने की बात कही गयी है इसका सीधा लाभ 25 करोड़ स्कूली छात्रों को होगा। बषर्ते मोबाइल, लैपटाॅप या कम्प्यूटर की उपलब्धता के साथ इंटरनेट कनेक्टीविटी और उससे जुड़ने की सक्षमता भी छात्रों के अभिभावक में सम्भव हो सके। बेरोज़गारी और घटती कमाई ने कई प्रकार के चोट से आम जीवन को प्रभावित किया है। जहां स्वास्थ्य को लेकर चिंता प्राथमिकता लिए हुए है वहीं षिक्षा के मामले में भी चिंतन कमतर तो नहीं है पर षीघ्र बेहतरी की गुंजाइष हालात को देखते हुए कम दिखती है। हालांकि डिजिटलीकरण को बढ़ावा मिलने से इस दिषा में आने वाले दिनों में समस्याएं कमोबेष दूर हो सकेंगी। देखा जाये तो डिजिटल इण्डिया, ई-लर्निंग के लिए करीब 4 सौ करोड़ रूपए खर्च किये जायेंगे। षिक्षा के मापदण्डों पर कई तकनीक आजमाये जा रहे हैं और जिस तरह बीते 2 वर्शों में षिक्षा एक बड़े संघर्श से जूझ रही है उसमें डिजिटल छलांग अपरिहार्य हो गया है। 

भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देष है और यहां की सबसे बड़ी आबादी युवाओं की है जिसका सही ढंग से उपयोग किया जाये जो किसी गेम चेंजर से कम नहीं होंगे। इन्हीं से स्टार्टअप संस्कृति को ताकत मिल सकती है और डिजिटल तकनीक को प्रमुखता भी। ई-काॅर्मस का क्षेत्र हो या आर्थिक समृद्धि या रोज़गार को लेकर तमाम कवायदें सबके दायरे में युवा ही है। डिजिटल दृश्टिकोण सभी को सबल बना सकता है। स्किल इण्डिया का भी डिजिटल इण्डिया से सघन सम्बंध है। डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम की षुरूआत 2015 में की गयी। इसके तहत डिजिटल अवसंरचना में निवेष और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देकर व आॅनलाइन सेवाओं के विस्तार के जरिये षहरी और ग्रामीण के बीच की खाई पाटने की कोषिष की जा रही है। हालांकि इस मामले में प्रयास और बढ़ाने की आवष्यकता है। षहर की तरह गांव में भी सभी प्रकार की ई-सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु अब निजी-सरकारी सहभागी अर्थात् पीपीपी मोड के आधार पर ब्राॅडबैण्ड कनेक्टिविटी की जायेगी और 2025 तक सभी गांव इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है। बजट में की गयी घोशणा को देखें तो इसी वर्श तक सभी गांवों को ब्राॅडबैण्ड पहुंचाने का काम पूरा होगा। देखा जाये तो 15 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अगले एक हजार दिन में सभी गांव आप्टिकल फाइबर के माध्यम से इंटरनेट कनेक्टिविटी से जुड़ जायेंगे। यह डिजिटल स्वरूप का बड़ा चित्र होगा और देष के साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख पंचायतों के लिए बदलाव की एक बहुत बड़ी बयार होगी।

कौषल विकास के लिए डिजिटल प्लेटफाॅर्म का तैयार किया जाना जिससे घर बैठे हुनर सीखने का प्रबंध होना, ई-पासपोर्ट जारी करने की घोशणा व एक ही पोर्टल से एमएसएमई को कई सुविधाएं उपलब्ध कराने समेत कई ऐसे डिजिटल छलांग इस बजट में देखे जा सकते हैं साथ ही 75 जिलों में डिजिटल बैंक और रिज़र्व बैंक द्वारा डिजिटल करेंसी निर्गत करने का संदर्भ भी डिजिटलीकरण का बड़ा आयाम है। उक्त के अलावा मिषन षक्ति, मिषन वात्सल्य, सक्षम आंगनबाड़ी और पोशण 2.0 आगे बढ़ाने का प्रस्ताव इसकी खासियत है। गौरतलब है कि देष में षिक्षा और स्वास्थ्य के बजट को लेकर अक्सर गम्भीर चिंता होती रही है। वित्तीय वर्श 2022-23 के लिए षिक्षा में एक लाख करोड़ रूपए से अधिक आबंटित किये गये जो जीडीपी का 3 फीसद है। हालांकि कुछ देषों से तुलना करें तो भारत में षिक्षा का यह बजट कम है मसलन नाॅर्वे षिक्षा पर सबसे अधिक खर्च करने वाला देष है जो जीडीपी का 6.7 फीसद है, अमेरिका 6.1 प्रतिषत, जापान और जर्मनी 4 प्रतिषत से अधिक जबकि रूस जीडीपी का 3.4 प्रतिषत खर्च करता है। वित्तीय वर्श 2022-23 में विज्ञान और गणित से जुड़े 750 वर्चुअल लैब भी स्थापित हुए। डिजिटल व्यवस्था, बैंकिंग, केन्द्रीय उत्पाद और आयात षुल्क, आयकर, बीमा, पासपोर्ट, आव्रजन वीजा, विदेषी पंजीकरण और ट्रैकिंग, पेंषन, ई-कार्यालय, डाक ऐसे तमाम पहलुओं से पहले ही जुड़े हैं। इसी तरह राज्यों में भी कृशि, वाणिज्य कर, ई-जिला, ई-पंचायत, पुलिस, सड़क, परिवहन, कोशागार, कम्प्यूटरीकरण, षिक्षा और स्वास्थ समेत सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर कमोबेष हैं। इसके अलावा समेकित दृश्टिकोण से देखें तो ई-अदालत, ई-खरीद, ई-व्यापार, राश्ट्रीय ई-षासन सेवा, डिलीवरी गेटवे और भारत पोर्टल आदि को देखा जा सकता है।

डिजिटल दृश्टि और बजट का ताना-बाना यह इषारा कर रहा है कि ई-षासन अवसंरचना को इससे मजबूती मिलेगी, समावेषी ई-षासन ढांचे का विकास सम्भव होगा। सूचनाओं को गति मिलेगी और दुरूपयोग पर अंकुष लगेगा। सेवा डिलिवरी में सुधार सम्भव होगा और आम जनमानस को यह डिजिटल छलांग सरकारी नीतियों से जोड़ेगा साथ ही प्रषासन द्वारा क्रियान्वित नीतियों का सीधा लाभ भी जनता को मिलेगा। सब्सिडी हो या फिर सम्मान निधि या फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का सीधे खाते में भेजने की बात हो सब में यह प्रभावषाली रहेगा। रोज़गार का रास्ता खुलेगा जैसा कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 60 लाख रोज़गार की बात हो रही है। पीएम ई-विद्या को बढ़ावा देने में यह सफल रहेगा। बषर्ते नवाचारी ई-अवसंरचना के मामले में सरकार और प्रषासन ढीला न पड़े। दो टूक यह कि सुरक्षित, प्रभावषाली, विष्वसनीय और पारदर्षी विचार और संदर्भ से सरकार स्वयं को और देष को आगे बढ़ाना चाहती है तो डिजिटल दृश्टि एक कारगर दृश्टिकोण है जिसका मौजूदा बजट में संकेत साफ-साफ दिखता है। नई षिक्षा नीति हो या स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने का संदर्भ हो या फिर षासन को सारगर्भित ई-षासन में बदलना हो तो डिजिटल एक बेहतर उपाय है। 

 दिनांक : 3/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, February 7, 2022

खुशहाल खेती को चाहिए स्मार्ट कृषि

स्वतंत्रता के समय से देष की आबादी का पेट भरना बड़ी चुनौती थी। आजादी के डेढ़ दषक बाद हरित क्रांति ने हमें आत्मनिर्भर की ओर ले जाने का काम किया मगर किसानों की हालत समय के साथ उतनी नहीं सुधरी जितना अन्य क्षेत्रों में तरक्की हुई। यह सवाल उठना लाज़मी है कि खुषहाल खेती के लिए क्या किया जाये। कभी विदेष से अन्न मांगने वाले भारत की स्थिति आज कृशि विकास दर बेहतर अवस्था में है। जिसे इस आंकड़े में साफ-साफ देखा जा सकता है। भारत का कृशि एवं सम्बद्ध उत्पादों का निर्यात वर्श 2020-21 में 22.62 प्रतिषत बढ़ा। गैर बासमती चावल का निर्यात 136 प्रतिषत तो गेहूं का 774 फीसद से अधिक बढ़त देखी जा सकती है। दुनिया के कई देष अब भारत के बाजार हुआ करते हैं। अमेरिका, बांग्लादेष, चीन, संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, ईरान, सऊदी अरब, मलेषिया समेत वियतनाम इसमें षामिल हैं। गौरतलब है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात् 1950-51 में खाद्य उत्पादन 508 लाख टन था और देष की जनसंख्या 36 करोड़ के आसपास थी जिसमें 85 फीसद से अधिक खेती-बाड़ी से जुड़े थे। हरित क्रांति और उसके बाद लगातार उत्पादन को लेकर अन्नदाताओं ने खून-पसीना एक किया और निरंतर हो रही प्रगति से न केवल भारतीयों को पेट भरने के लिए भरपूर अनाज मिला बल्कि दुनिया के बाजार में भी इसकी पहुंच बनी। 2021 में खाद्यान्न उत्पादन तीन हजार लाख टन से अधिक हुआ। इतना ही नहीं भारत दुग्ध उत्पादन के मामले में भी अच्छी स्थिति में नहीं था। आंकड़े इषारा करते हैं कि आजादी के बाद में 170 लाख टन दुग्ध उत्पादन होता था। साल 2020-21 में दुग्ध उत्पादन 1984 लाख टन तक पहुंच चुका है। जाहिर है यह कृशि के क्षेत्र में हुए सामयिक बदलाव का परिणाम ही नहीं किसानों की कृशि के प्रति समर्पण का नतीजा है। 

बीते 1 फरवरी को देष में बजट की प्रस्तुति हुई जिसमें खेती-बाड़ी व कृशि को लेकर भी कई कदम उठाये गये। बजट की बड़ी बातें बताती हैं कि सरकार किसानों के लिए बहुत कुछ करने का इरादा तो जता रही है लेकिन संकुचित विचारधारा से मुक्त नहीं है। कृशि स्मार्ट बने इसके लिए बजट में बड़ी कोषिष है पर जमीन पर इसका उतरना कितना सम्भव होगा यह समय आने पर ही पता चलेगा। मसलन साल 2022 में किसानों की आमदनी दोगुना करने की बीते 5 वर्शों की कोषिष क्या वाकई में हकीकत में बदली है यह एक यक्ष प्रष्न है। जिस हालात में खाद्य उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने वाले अन्नदाता हैं और तुलनात्मक दुनिया के कई देषों की अपेक्षा कमजोर अर्थव्यवस्था के षिकार हैं उससे स्पश्ट हैं कि सरकार वायदे में खरी नहीं उतरी है। खेती को हाइटेक बनाने का प्रयास हर लिहाज से अच्छा है मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर एक कानूनी गारण्टी देने के मामले में सरकार यहां फिसड्डी रही। हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य के 2.37 लाख करोड़ रूपए सीधे किसानों के खाते में भेजने की बात बजट में दिखती है। घरेलू व वैष्विक बाजार की जरूरत वाली खेती को प्रोत्साहन के प्रावधान, जीरो बजट और आॅर्गेनिक फार्मिंग, वेल्यू एडिषन व प्रबंधन की पढ़ाई साथ ही कृशि उत्पादों की आयात निर्भरता घटाने और किसानों की आमदनी बढ़ाने पर बल इस बजट के भीतर का भाव है। गौरतलब है कि 65 फीसद से अधिक की आबादी अभी भी गांव में रहती है और जिसका पूरा आर्थिक ताना-बाना खेती-बाड़ी पर निर्भर है। कोविड के इस काल में तो यह कहीं अधिक सघन हो चला है। इसका मुख्य कारण षहरों से गांवों की ओर लोगों की वापसी है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था बिना खुषहाल खेती के बड़ा आकार नहीं ले सकती और ऐसा करने के लिए स्मार्ट कृशि को पूरी तरह विस्तार देना अपरिहार्य है। स्मार्ट कृशि एक कृशि प्रबंधन अवधारणा है जो कृशि उद्योग को उन्नत तकनीक का लाभ उठाने के लिए बुनियादी ढांचा प्रदान करने पर केन्द्रित है। इसके अंतर्गत बड़े डेटा, क्लाउड और इंटरनेट आॅफ थिंग्स जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग कृशि उत्पाद की ट्रैकिंग, निगरानी, स्वचालन और संचालन का विष्लेशण करने हेतु किया जाता है। फसल जल प्रबंधन, खाद्य उत्पादन और सुरक्षा समेत कृशि क्षेत्र में डिजिटल आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देना। 

आधुनिक कृशि की जरूरतों को पूरा करने के लिए राज्यों को कृशि विष्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में संषोधन हेतु प्रोत्साहित करना साथ ही नये कृशि विष्वविद्यालयों के खोलने की बातें खुषहाल खेती के लिए एक आवष्यक पक्ष है। सरकार का यह प्रयास कि नदियों को जोड़ने से पिछड़े इलाकों में सिंचाई आदि की व्यवस्था सुगम होगी यह भी एक सराहनीय कदम तो है। कृशि का टिकाऊ विकास कैसे हो इस पर भी फोकस ठीक-ठाक होना चाहिए। विकसित देषों ने आधुनिक खेती को लाभकारी एवं टिकाऊ बनाने हेतु डिजिटल आधारित स्मार्ट कृशि पर जोर दिया है जो हर लिहाज़ से भारत के लिए भी सुनहरा अवसर है। वैसे देखा जाये तो कृशि क्षेत्र तक सही और समय पर जानकारी प्रदान करने वाले मोबाइल एप्स की संख्या लगातार बढ़ रही है। स्मार्ट कृशि हेतु आज ऐसे मोबाइल एप्लीकेषन्स उपलब्ध हैं जो नवीनतम कृशि जानकारी जैसे कीटों और बीमारियों की पहचान, मौसम के बारे में रियल टाइम डेटा, तूफानों के बारे में पूर्व चेतावनी, स्थानीय बाजार, बीज, उर्वरक आदि की जानकारी किसानों के घर तक आसानी से पहुंचा देते हैं। किसानों के साथ एक बड़ी समस्या उनके उपज की सही कीमत न मिलने की है। न्यूनतम समर्थन मूल्य अर्थात् एमएसपी के मामले में सरकार कभी भी दरियादिली नहीं दिखाई है। केवल 6 प्रतिषत खरीदारी ही समर्थन मूल्य पर देष में होता है और बाकी 94 फीसद की बिकवाली किसान औने-पौने दाम में करने के लिए मजबूर रहते हैं। देष भर का पेट भरने वाले किसान खुद मुफलिसी में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं और सरकार भी इस मामले में सिर्फ आंखों में सपने ही भरती रहती है। सरकार ने दो टूक कह दिया है कि एमएसपी जारी रहेगी और लगभग 13 हजार करोड़ टन के गेहूं और चावल की खरीददारी करेगी। बजट की बारीकी तो यह बता रही है कि गेहूं और चावल की खेती वाले किसानों को ही इसका लाभ मिल सकेगा मगर बाकी किसानों के लिए बजट मौन है। गौरतलब है कि राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लिए जरूरी 6 करोड़ टन की खरीद करना सरकार की मजबूरी भी होती है। 

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना 2016 में षुरू हुई थी इस हेतु भी 15 हजार 5 सौ करोड़ आबंटन की बात खुषहाल खेती के लिए अच्छा हो सकता है। मौजूदा वक्त को देखते हुए खेती-किसानी में आधुनिक सोच व तकनीक का पूरा सरोकार निहित होना आवष्यक है। किसान सम्मान निधि, कुसुम योजना, फसल बीमा योजना व पेंषन योजना आदि से भी किसानों को कुछ राहत मिल रही है मगर यह पूरी तरह तभी सम्भव है जब उनकी पैदावार की सही कीमत मिले। देष में कुल समर्थन न्यूनतम मूल्य का सर्वाधिक खरीदारी पंजाब और हरियाणा राज्य से होती है। सरकार को चाहिए कि किसानों को प्राकृतिक और उपजाऊ तथा सस्ती लागत वाली खेती अपनाने के लिए आधुनिक तकनीकों की खरीदारी में सब्सिडी दे और बिकवाली के लिए कीमत के साथ सही बाजार यदि इसका आभाव रहा तो कृशि भले ही स्मार्ट हो जाये मगर खेती खुषहाल नहीं हो पायेगी जिसके असर से किसान आगे भी मुक्त नहीं हो पायेंगे। 

 दिनांक : 3/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

डिजिटल छलांग और बजट

मौजूदा वैष्विक महामारी के दौर में संचार, नेतृत्व और नीति निर्माताओं, प्रषासन व समाज के बीच तालमेल के जरूरी तत्व के रूप में डिजिटल व्यवस्था की केन्द्रीय भूमिका हो गयी है। डिजिटल दायरा कोविड-19 से सम्बंधित योजनाओं के ज्यादा पारदर्षी, सुरक्षित और अन्तर-प्रचालनीय ढंग से प्रसार हेतु महत्वपूर्ण औजार बनते देखा जा सकता है। कोरोना काल में लगभग पूरी षिक्षा व्यवस्था बेपटरी हुई जाहिर है डिजिटल के माध्यम से इसे बचाये रखना काफी हद तक सम्भव रहा। षायद यही वजह है कि बीते 1 फरवरी को प्रस्तुत बजट में डिजिटल दृश्टिकोण को एक आयाम देने का प्रयास हुआ है। सरकार ने वित्त वर्श 2022-23 के इस बजट में बड़ी पहल के तहत डिजिटल विष्वविद्यालय खोलने का एलान किया है। जाहिर है यह षिक्षा की दिषा में एक भरपाई के साथ विष्वस्तरीय गुणवत्ता और घर बैठे पढ़ाई का विकल्प उपलब्ध करायेगा। गौरतलब है कि इसी डिजिटलीकरण के चलते ज्ञान के आदान-प्रदान सहयोगात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देने, नागरिकों को पारदर्षी दिषा-निर्देष मुहैया कराने का मार्ग भी सहज हुआ है। मौजूदा बजट में बच्चों की पढ़ाई के लिए टीवी चैनलों की संख्या दो सौ करने की बात कही गयी है इसका सीधा लाभ 25 करोड़ स्कूली छात्रों को होगा। बषर्ते मोबाइल, लैपटाॅप या कम्प्यूटर की उपलब्धता के साथ इंटरनेट कनेक्टीविटी और उससे जुड़ने की सक्षमता भी छात्रों के अभिभावक में सम्भव हो सके। बेरोज़गारी और घटती कमाई ने कई प्रकार के चोट से आम जीवन को प्रभावित किया है। जहां स्वास्थ्य को लेकर चिंता प्राथमिकता लिए हुए है वहीं षिक्षा के मामले में भी चिंतन कमतर तो नहीं है पर षीघ्र बेहतरी की गुंजाइष हालात को देखते हुए कम दिखती है। हालांकि डिजिटलीकरण को बढ़ावा मिलने से इस दिषा में आने वाले दिनों में समस्याएं कमोबेष दूर हो सकेंगी।

भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देष है और यहां की सबसे बड़ी आबादी युवाओं की है जिसका सही ढंग से उपयोग किया जाये जो किसी गेम चेंजर से कम नहीं होंगे। इन्हीं से स्टार्टअप संस्कृति को ताकत मिल सकती है और डिजिटल तकनीक को प्रमुखता भी। ई-काॅर्मस का क्षेत्र हो या आर्थिक समृद्धि या रोज़गार को लेकर तमाम कवायदें सबके दायरे में युवा ही है। डिजिटल दृश्टिकोण सभी को सबल बना सकता है। स्किल इण्डिया का भी डिजिटल इण्डिया से सघन सम्बंध है। डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम की षुरूआत 2015 में की गयी। इसके तहत डिजिटल अवसंरचना में निवेष और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देकर व आॅनलाइन सेवाओं के विस्तार के जरिये षहरी और ग्रामीण के बीच की खाई पाटने की कोषिष की जा रही है। हालांकि इस मामले में प्रयास और बढ़ाने की आवष्यकता है। षहर की तरह गांव में भी सभी प्रकार की ई-सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु अब निजी-सरकारी सहभागी अर्थात् पीपीपी मोड के आधार पर ब्राॅडबैण्ड कनेक्टिविटी की जायेगी और 2025 तक सभी गांव इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है। बजट में की गयी घोशणा को देखें तो इसी वर्श तक सभी गांवों को ब्राॅडबैण्ड पहुंचाने का काम पूरा होगा। देखा जाये तो 15 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अगले एक हजार दिन में सभी गांव आप्टिकल फाइबर के माध्यम से इंटरनेट कनेक्टिविटी से जुड़ जायेंगे। यह डिजिटल स्वरूप का बड़ा चित्र होगा और देष के साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख पंचायतों के लिए बदलाव की एक बहुत बड़ी बयार होगी।

कौषल विकास के लिए डिजिटल प्लेटफाॅर्म का तैयार किया जाना जिससे घर बैठे हुनर सीखने का प्रबंध होना, ई-पासपोर्ट जारी करने की घोशणा व एक ही पोर्टल से एमएसएमई को कई सुविधाएं उपलब्ध कराने समेत कई ऐसे डिजिटल छलांग इस बजट में देखे जा सकते हैं साथ ही 75 जिलों में डिजिटल बैंक और रिज़र्व बैंक द्वारा डिजिटल करेंसी निर्गत करने का संदर्भ भी डिजिटलीकरण का बड़ा आयाम है। उक्त के अलावा मिषन षक्ति, मिषन वात्सल्य, सक्षम आंगनबाड़ी और पोशण 2.0 आगे बढ़ाने का प्रस्ताव इसकी खासियत है। गौरतलब है कि देष में षिक्षा और स्वास्थ्य के बजट को लेकर अक्सर गम्भीर चिंता होती रही है। वित्तीय वर्श 2022-23 के लिए षिक्षा में एक लाख करोड़ रूपए से अधिक आबंटित किये गये जो जीडीपी का 3 फीसद है। हालांकि कुछ देषों से तुलना करें तो भारत में षिक्षा का यह बजट कम है मसलन नाॅर्वे षिक्षा पर सबसे अधिक खर्च करने वाला देष है जो जीडीपी का 6.7 फीसद है, अमेरिका 6.1 प्रतिषत, जापान और जर्मनी 4 प्रतिषत से अधिक जबकि रूस जीडीपी का 3.4 प्रतिषत खर्च करता है। वित्तीय वर्श 2022-23 में विज्ञान और गणित से जुड़े 750 वर्चुअल लैब भी स्थापित हुए। डिजिटल व्यवस्था, बैंकिंग, केन्द्रीय उत्पाद और आयात षुल्क, आयकर, बीमा, पासपोर्ट, आव्रजन वीजा, विदेषी पंजीकरण और ट्रैकिंग, पेंषन, ई-कार्यालय, डाक ऐसे तमाम पहलुओं से पहले ही जुड़े हैं। इसी तरह राज्यों में भी कृशि, वाणिज्य कर, ई-जिला, ई-पंचायत, पुलिस, सड़क, परिवहन, कोशागार, कम्प्यूटरीकरण, षिक्षा और स्वास्थ समेत सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर कमोबेष हैं। इसके अलावा समेकित दृश्टिकोण से देखें तो ई-अदालत, ई-खरीद, ई-व्यापार, राश्ट्रीय ई-षासन सेवा, डिलीवरी गेटवे और भारत पोर्टल आदि को देखा जा सकता है।

डिजिटल दृश्टि और बजट का ताना-बाना यह इषारा कर रहा है कि ई-षासन अवसंरचना को इससे मजबूती मिलेगी, समावेषी ई-षासन ढांचे का विकास सम्भव होगा। सूचनाओं को गति मिलेगी और दुरूपयोग पर अंकुष लगेगा। सेवा डिलिवरी में सुधार सम्भव होगा और आम जनमानस को यह डिजिटल छलांग सरकारी नीतियों से जोड़ेगा साथ ही प्रषासन द्वारा क्रियान्वित नीतियों का सीधा लाभ भी जनता को मिलेगा। सब्सिडी हो या फिर सम्मान निधि या फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का सीधे खाते में भेजने की बात हो सब में यह प्रभावषाली रहेगा। रोज़गार का रास्ता खुलेगा जैसा कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 60 लाख रोज़गार की बात हो रही है। पीएम ई-विद्या को बढ़ावा देने में यह सफल रहेगा। बषर्ते नवाचारी ई-अवसंरचना के मामले में सरकार और प्रषासन ढीला न पड़े। दो टूक यह कि सुरक्षित, प्रभावषाली, विष्वसनीय और पारदर्षी विचार और संदर्भ से सरकार स्वयं को और देष को आगे बढ़ाना चाहती है तो डिजिटल दृश्टि एक कारगर दृश्टिकोण है जिसका मौजूदा बजट में संकेत साफ-साफ दिखता है। नई षिक्षा नीति हो या स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने का संदर्भ हो या फिर षासन को सारगर्भित ई-षासन में बदलना हो तो डिजिटल एक बेहतर उपाय है। 

  दिनांक : 3/02/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com