Friday, March 30, 2018

तो फिर आंदोलन पहले जैसा कैसे!

जब बीते 23 मार्च को समाजसेवी अन्ना हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान में अपने चित-परिचित अंदाज में लोकपाल, लोकायुक्त और किसानों की समस्या समेत चुनाव सुधार मुद्दे पर आमरण अनषन षुरू किया तो लगा कि अब बकाया चुकता होगा पर जिस तर्ज पर अन्ना आंदोलन का अवसान हुआ उससे यह समझना कठिन हो गया कि सवाल समाप्त हुए या कई और पनप गये। बीते 29 मार्च को 7 दिन से उपवास पर बैठे अन्ना ने अनषन खत्म कर दिया और इसकी रस्म अदायगी महाराश्ट्र के मुख्यमंत्री फडणवीस ने जूस पिला कर किया। अन्ना हजारे ने कहा कि सरकार ने केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की जल्द नियुक्ति पर लिखित आष्वासन दिया है। इसके लिए सरकार को 6 महीने का वक्त दिया है। जाहिर है इस पर सरकार नहीं खरी उतरी तो वे रामलीला मैदान में फिर आयेंगे। किसानों को डेढ़ गुना ज्यादा समर्थन देने को भी सरकार तैयार है। इसमें फसल पैदा करने में किसानों की मेहनत और कर्ज पर लगने वाला ब्याज भी षामिल है। चुनाव सुधार पर क्या हुआ पता नहीं पर जितना हुआ वह आंदोलन समाप्त करने के लिए काफी था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि किसी भी आंदोलन की षुरूआत भी होती है और समाप्ति भी। ऐसा नहीं है कि रामलीला मैदान में अन्ना हजारे का यह पहला आंदोलन था। इसके पहले यूपीए सरकार के समय में वे भारी-भरकम आंदोलन कर चुके हैं। आंदोलन करने से रोकने को लेकर अन्ना को उन दिनों तिहाड़ जेल भी भेज दिया गया था और जिस तर्ज पर देष ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रश्टाचार और लोकपाल के मसले पर आंदोलन देखा है उसके एवज में यह बहुत ही ठण्डा आंदोलन कहा जायेगा। आंदोलन को मीडिया कवरेज नहीं मिला, इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तो मानो इससे दूरी ही बना कर रखा था। समाचारपत्रों के बीच के पेजों में बाक्स में कुछ खबरे पढ़ने को मिली और जनता तो मानो अन्ना को पहचानती ही नहीं थी।
आंदोलन दौर और परिस्थितियों के परिणाम होते हैं। साल 2011 में और उसके बाद जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन षुरू हुआ तब का समय कुछ और था। उस दौरान यूपीए सरकार के संस्करण दो में भ्रश्टाचार अच्छी खासी जगह घेर चुका था साथ ही सरकार से जनता ऊब भी रही थी। ऐसे में अन्ना की हुंकार ने देष को एकजुट करने के काम आया। इतना ही नहीं आंदोलन को नियोजित करने वाले लोगों की कई पंक्ति भी थी। अरविंद केजरीवाल से लेकर किरण बेदी, प्रषान्त भूशण, संतोश हेगडेवार समेत कई लोगों का तन, मन, धन इसमें लगा था। इतना ही नहीं बाबा रामदेव आदि समेत कई जाने-अनजाने चेहरे आंदोलन को रसूकदार बनाने में लगे थे। आंदोलन को जिस प्रारूप में आगे किया गया था वह देष के प्रत्येक जनमानस के दिल को भी छू रहा था। देष की आजादी के बाद षायद ऐसे आंदोलन कम ही हुए हैं। अन्ना आंदोलन का एपीसोड प्रथम उनमें महात्मा गांधी के अक्स को झलका दिया था। उस समय जब सरकार ने लोकपाल के मसले पर लिखित आष्वासन दिया और बिल पारित करने की बात हुई तब इस आंदोलन को अवसान मिला था। गौरतलब है कि अन्ना टीम और सरकार की टीम के बीच आंदोलन के पहले कई चरण की बैठकें भी हुई थी। भारतीय राजनीति में अन्ना की साख को देखते हुए एक बार फिर स्पश्ट होने लगी कि एक समाजसेवी व्यक्ति में अगर पारदर्षिता और ईमानदारी का पूरा प्रभाव हो तो करोड़ों लोगों से चुनी हुई सरकारें भी असहाय महसूस करती हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यूपीए सरकार ने अन्ना के आंदोलन और उनकी मांग को कहीं अधिक महत्व दिया था। दो टूक यह भी है कि केजरीवाल जैसे नेता भी इसी आंदोलनों की बड़ी उपज हैं। 
अन्ना के आंदोलन पर कोई सवाल नहीं है न ही षुरूआत को लेकर न ही समाप्ति पर। मगर सवाल यह मन में उठ रहा है कि अन्ना को इस आंदोलन की आवष्यकता ही क्यों पड़ी। यूपीए सरकार साल 2013 में लोकपाल अधिनियम पारित कर चुकी है यह बात और है कि मोदी सरकार के लगभग चार साल बीत जाने के बावजूद देष में लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई है और न ही सभी राज्यों में लोकायुक्त बनाये गये हैं। गौरतलब है कि प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-70) की रिपोर्ट में लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति पहली बार हुई। सरकारें आती-जाती रहीं लोकपाल पर चर्चा भी होती रही और विधेयक भी आते रहे पर अधिनियम बनाना मुष्किल बना रहा। अन्ततः इस मामले में 2013 में सफलता मिली पर अधकचरी क्योंकि लोकपाल तो आज भी नहीं है। हालांकि 1970 में लोकायुक्त के मामले में उड़ीसा विधानसभा द्वारा विधेयक बनाया गया जो देष का पहला अधिनियम है। जबकि लोकायुक्त की नियुक्ति महाराश्ट्र करने वाला पहला राज्य है। आज भी लगभग 5 दषक होने के बावजूद दर्जनों प्रान्तों में लोकायुक्त नहीं है। हाल ही में देष की षीर्श अदालत ने भी कहा कि जिन राज्यों में लोकायुक्त नहीं हैं वे बताये कि ऐसा क्यों है? निहित परिप्रेक्ष्य में सवाल यह भी है कि लोकपाल और लोकायुक्त के खेल में सराकारें असंवेदनषील क्यों हैं। जब वे यह कहती हैं कि वे ईमानदार हैं, पारदर्षी हैं और जीरो टाॅलरेंस की हैं तो फिर इनकी नियुक्ति से गुरेज क्यों? जहां तक सवाल अन्ना आंदोलन की दूसरी मांग डेढ़ गुना ज्यादा समर्थन मूल्य वाली बात की है वह भी बीते 1 फरवरी के बजट में सरकार ने देने की बात कही थी तो यहां भी सरकार को अन्ना की बात मानने में क्या दिक्कत आती है और चुनाव सुधार के मामले में मोदी सरकार तो एक साथ चुनाव की बात कर ही रही है। अन्ना हजारे की मांग और सरकार के प्रयास एक ही जैसे प्रतीत होते हैं केवल लोकपाल को छोड़कर तो फिर आंदोलन की रस्मअदायगी क्यों की गयी। क्या अन्ना हजारे यह नहीं समझ पाये कि जिस मांग को वह सरकार के सामने रखने जा रहे हैं उसे लेकर सरकार पहले ही कदम बढ़ा चुकी है। उन्हें लिखित आष्वासन मिला है और ऐसा आष्वासन सरकार की जेब में होते हैं। वायदे करना और न निभाना साथ ही जुमलाबाजी करना सरकारों की फितरत रही है। सब कुछ जानते हुए भी इतनी आसानी से सरकार को अन्ना ने क्यों छोड़ दिया जबकि वे पहले भी कह चुके हैं कि मोदी सरकार के दावे गलत हैं और गुमराह करने वाले हैं।
मोदी सरकार पर यह भी आरोप रहा है कि मीडिया को मैनेज करने में सरकार अच्छे-खासे तरीके से सफल है। रामलीला मैदान में भीड़ भी नहीं थी और टीवी और अखबारों से अन्ना आंदोलन के समाचार भी लगभग गायब थे। हो सकता है कि 6 दिन के अनषन के बाद अन्ना को यह लगा हो कि इस बार का आंदोलन ताकत में मीलों पीछे है तो कहीं ऐसा न हो कि सरकार इससे बेअसर रहे। हालांकि अन्ना की कोषिषों को एक सीमा के बाद कमतर नहीं आंक सकते पर उनका होमवर्क दुरूस्त था ऐसा मान पाना भी कठिन है। संरचनात्मक तौर पर यह आंदोलन बिल्कुल कमजोर था जो मांग इसमें रखी गयी वह जनता को आकर्शित करने में नाकाफी रही यहां तक कि किसान आंदोलन का समूह भी अन्ना के इर्द-गिर्द नहीं दिखाई दिया और वे भी गुटों में बंटे रहे। रोचक यह भी है कि अन्ना आंदोलन के ठीक पहले महाराश्ट्र में पूरे प्रदेष के किसान मुम्बई में इकट्ठा हो गये और वहां के मुख्यमंत्री फडणवीस ने तुरंत ही उनकी मांग स्वीकार कर ली। आंदोलन कोई बड़ा रूख लेता सब किसानों की घर वापसी करा दी गयी। किसान साथ नहीं थे, जनता का आकर्शण घट चुका था, मांगे भी घिसी-पिटी थी, सरकार भी पहले जैसी नहीं थी और अन्ना के इर्द-गिर्द भी पहले जैसा कुछ नहीं था तो फिर आंदोलन पहले जैसा कैसे हो सकता है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

पर्चा लीक होना साख पर सवाल

एसएससी परीक्षा के पेपर लीक होने को लेकर हो रहे हाहाकार के बीच सीबीएसई की 10वीं और 12वीं के बोर्ड की परीक्षा का पेपर लीक होना वाकई विद्यार्थियों के कैरियर को तो खतरे में डालता ही है साथ ही सरकार की साख को भी चुनौती देने वाला विशय है। मामला इतना संवेदनषील है कि कोई चैन से सो नहीं सकता। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाष जावेड़कर की नींद उड़ना लाज़मी है पर इस पर काबू पाने के लिए क्या रणनीति है इसे लेकर कुछ भी सुझायी नहीं दे रहा है। ईमानदारी का ढ़ोल पीटने वाली मौजूदा सरकार और उसके चैकीदार इस झंझवात से कैसे बाहर आयेंगे कह पाना कठिन है। सीबीएसई पेपर लीक मामले में दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने बीते 29 मार्च को 25 लोगों को हिरासत में लिया जिसमें 13 स्कूली छात्र, 5 काॅलेज छात्र और 5 ट्यूषन पढ़ाने वाले षिक्षक समेत दो अन्य षामिल हैं। जाहिर है इनसे पूछताछ जारी है। खास यह भी है कि झारखण्ड के चतरा से भी 4 छात्रों को गिरफ्तार किया गया है। केन्द्रीय मंत्री जावेड़कर यह भरोसा जता रहे हैं कि दोशियों को बख्षा नहीं जायेगा और सरकार इस मामले में तह तक जायेगी। सवाल है कि पेपर लीक से जो उथल-पुथल मचती है साथ ही इसके चलते परीक्षार्थियों का जो भरोसा डगमगाता है आखिर उसकी भरपायी कैसे होगी। पेपर लीक जैसे कलंक के खिलाफ सरकारी मषीनरी हरकत में है पर सवाल यह रहेगा कि क्या ऐसे कृत्यों पर हमेषा के लिए लगाम लगेगा। अर्थ तो कई हैं पर सवाल यह है कि जिस प्रकार एक-एक अंकों के लिए परीक्षार्थी दिन-रात खपाता है क्या उसी तरह परीक्षा कराने वाली मषीनरी संवेदनषील है। यदि होतीं तो नतीजे कम-से-कम ये न होते।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि सीबीएसई हो या सरकार छात्रों का अहित नहीं करेंगी पर इसकी नौबत न आये इस पर भी कदम उठाने होंगे। 10वीं की गणित और 12वीं के अर्थषास्त्र की परीक्षा दोबारा होगी जिसे लेकर छात्र भी सवाल कर रहे हैं कि जब उन्होंने इस दायित्व को निभा लिया है तो किसी की गलतियों के कारण ये जिम्मेदारी उन्हें दोबारा क्यों? इस उम्र के परीक्षार्थी कुछ अबोध तो होते हैं पर परीक्षा के प्रति इनके समर्पण के बोध को कमतर नहीं आंका जा सकता। सवाल वाजिब है परन्तु उन्हें इसकी संवेदनषीलता भी समझनी होगी। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण तो यह भी इषारा करते हैं कि जितनी पुरानी परीक्षा प्रणाली है उतनी पुरानी परीक्षा कराने वाली मषीनरी है परन्तु नाकामयाबी से रिष्ता नहीं टूटा है। देखा जाय तो बोर्ड परीक्षाओं में छात्रों की संख्या समय के साथ निरंतर बढ़ती रही है और उसके एवज में परीक्षा कराने वाली संस्थाएं षायद ही चुनौतीपूर्ण बनती रही हों साथ ही षिक्षा में माफिया राज भी बढ़ा है। हजारों, लाखों का खेल यहां भी चल रहा है परीक्षा पास कराने के ठेके भी लिये जा रहे हैं। इतना ही नहीं इस तरीके के कृत्य मौजूदा समय में अच्छा खासा कारोबार बन गया है। षिक्षा के इस क्षेत्र में उतर चुके चंद अपराधी पूरी व्यवस्था पर कलंक बनते जा रहे हैं और सरकार के लिए चुनौती भी। बीते कई वर्शों से बोर्ड परीक्षा में नकल की परम्परा रही है। इसको बोर्ड से लेकर सरकारें भी अच्छी तरह जानती हैं। बिहार व उत्तर प्रदेष समेत कई और भारी-भरकम प्रांत नकलविहीन परीक्षा कराने में कभी भी सफल नहीं रहे और अब केन्द्रीय संस्था सीबीएसई का पेपर लीक होना सरकार पर बट्टा लगाने जैसा है। हालांकि यह बात सरकार नहीं मानेगी पर सच्चाई यह है कि यदि अच्छाई का श्रेय आप लेते हैं तो बुराई को भी स्वीकार करना होगा।
सीबीएसई पेपर लीक मामले में केन्द्र सरकार ने एसआईटी और आंतरिक समिति गठित करते हुए जांच षुरू कर दी है। जाहिर है समय के साथ दूध-का-दूध, पानी-का-पानी होगा। पेपर लीक को लेकर बच्चे, षिक्षक और माता-पिता क्षुब्ध हैं और स्वयं में असहाय महसूस कर रहे हैं। दुःखद यह भी है कि षिक्षा तंत्र की विष्वसनीयता भी खतरे में है। रिष्वत और भ्रश्टाचार से युक्त होती जा रही षिक्षा व्यवस्था को यदि समय रहते पारदर्षी नहीं किया गया तो खतरे और बढ़ेंगे। जाहिर है पर्चा लीक करना और नकल कराना बच्चों को नाकाम बनाना है। खास यह भी है कि 10वीं और 12वीं की बोर्ड की एक बार की परीक्षा योग्यता के पूरे मूल्यांकन को दर्षाती है और इसी दौरान यदि कोई ऊँच-नीच हो जाती है जैसे कि पेपर का लीक होना तो इसका असर पूरे जीवन पर पड़ता है। इस संदर्भ के मद्देनजर यह विचार पनपता है कि एक परीक्षा से सब कुछ तय करने के बजाय ऐसी कोई व्यवस्था लायी जाय जो वर्श भर के मूल्यांकन को परिभाशित करती हो जो कई किस्तो में हो। केवल सीबीएसई के दो प्रष्न-पत्र के लीक होने के मात्र से इस बोर्ड को ही कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। भारत के 29 राज्यों में अपने प्रादेषिक बोर्ड भी हैं जो षिक्षा माफियाओं से मुक्त नहीं हैं या तो वे नकल कराते हैं या काॅपियां लिखवाते हैं जरूरी हुआ तो पेपर भी लीक करते हैं। जाहिर है पूरी षिक्षा व्यवस्था ही खतरे में है। आज की मुष्किल घड़ी में बोर्ड और सरकार के मत्थे इस समस्या को मढ़ने के बजाय हम सामाजिक और पढ़े-लिखे लोगों को भी इस दिषा में कदम उठाना होगा ताकि हमारे बच्चे योग्यता के इस पथ पर ऐसे अनहोनी का षिकार न हों। 
सीबीएसई की इस बोर्ड परीक्षा में देष भर से 28 लाख से ज्यादा छात्र-छात्राओं ने भागीदारी की है। जाहिर है इतनी बड़ी छात्रों की संख्या के बीच यदि पेपर लीक जैसी असावधानी होती है तो फिर से परीक्षा कराना न केवल नये सिरे से कार्यों को बढ़ा देती है बल्कि खर्च भी सीमा से पार चला जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने पेपर लीक मामले में प्रकाष जावेड़कर से बात कर नाराज़गी जतायी थी। बीते चार सालों में बोर्ड परीक्षा से पहले प्रधानमंत्री मोदी मन की बात के अंतर्गत कई बार विद्यार्थियों को प्रोत्साहित कर चुके हैं परन्तु जब ऐसी घटनाएं हों और उत्साह से भरा छात्र अपना परीक्षा समाप्त कर रहा हो और पेपर लीक की वजह से उसे दोबारा इसमें फिर आना हो तो थोड़ा हतोत्साहित तो होता होगा। प्रकाष जावेड़कर नई व्यवस्था लाने की बात कर रहे हैं लेकिन नई व्यवस्था भी तभी सफल मानी जायेगी जब वह प्रयोग के बाद सफल हो। फिलहाल पेपर लीक मामले के चलते समाज और सरकार दोनों हिले हुए हैं। अपराधियों के धड़पकड़ भी हो रही है और मषीनरी भी दुरूस्त करने की कोषिष चल रही है। जीरो टाॅलरेन्स वाली मोदी सरकार का यह षब्द कथनी में अधिक करनी में कम ही प्रतीत हो रहा है। दो टूक यह भी है कि बच्चों और उनके माता-पिता पर बोर्ड परीक्षा का दबाव कहीं अधिक रहता है। अधिक अंक जुटाने की भी होड़ रहती है। एक बार इस प्रकार की षिक्षा व्यवस्था पर भी निगाह डालने की जरूरत है कि क्या किसी का मूल्यांकन केवल अंकों से ही होगा। दुविधा कई है और सटीक कुछ भी नहीं। आंकलन-प्राक्कलन के सिद्धान्त भी बदले हैं, नौकरी प्राप्ति के आधार भी बदल रहे हैं परन्तु अंकों की होड़ में कोई परिवर्तन षायद ही हुआ हो। जब सब कुछ इतना संवेदनषील है तो पेपर लीक होना किसी कलंक से कम नहीं है। हो न हो यह सरकार की साख पर भी यह बट्टा लगाता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, March 28, 2018

मैन ऑफ एक्शन व्लादिमीर पुतिन का क्षितिज

इस वर्श के मार्च महीने में दुनिया में दो बड़ी बातें होते हुए देखी जा सकती हैं। एक चीन के मौजूदा राश्ट्रपति षी जिनपिंग का ताउम्र राश्ट्रपति बने रहने का रास्ता साफ होना तो दूसरा व्लादिमीर पुतिन का चैथी बार रूस का राश्ट्रपति चुना जाना। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच सम्बंध समतल नहीं हैं जबकि रूस के साथ रिष्ते सरपट दौड़ते हैं। फिलहाल जिस डिग्री पर घुमाव के साथ इस बार पुतिन रूस के राश्ट्रपति चुने गये उससे तो आम रूसियों को यही लगता है कि पुतिन ने दुनिया में रूस की नाक फिर ऊँची कर दी है। उनकी इस बार की जीत देष की आर्थिक मजबूती की दिषा और दषा का चित्रण करता है। षायद यही कारण है कि उनके लोग उन्हें मैन आॅफ एक्षन कहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पहले राश्ट्रपति फिर प्रधानमंत्री और फिर राश्ट्रपति उसमें भी जीत को दोहराना वाकई पुतिन की षख्सियत का ही कमाल है। कहा जाय तो दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाले रूस में पुतिन का दबदबा है। कहा तो यह भी जाता है कि चुनाव में जो लोग उनके खिलाफ खड़े होते हैं वे केवल दिखावे के लिए होते हैं या फिर उनके ऊपर संकट की तलवार लटक रही होती है। इस बार के परिणाम के बाद भी ऐसी चर्चा आम थी। जो भी हो व्लादिमीर पुतिन एक बार फिर रूस के राश्ट्रपति बन गये हैं। हालांकि चुनाव में तमाम अनियमित्ताओं और गलत तौर-तरीकों के आरोप भी इन पर लगे हैं। फिलहाल इन सबसे बेपरवाह पुतिन रूस के एक ऐसे लौह नेता बन चुके हैं जिनके इर्द-गिर्द षायद कोई नहीं है। 
चीन, जापान और जर्मनी समेत दुनिया के कई देषों के नेताओं ने पुतिन को इस जीत पर बधाई दी है। जापान के प्रधानमंत्री षिंजो अबे और पुतिन ने उत्तर कोरिया के परमाणु निषस्त्रीकरण हासिल करने में मदद करने हेतु साथ काम करने की सहमति भी जताई है। फिर से रूस के राश्ट्रपति बने पुतिन किन वजहों से देष की सत्ता पर बीते 18 सालों से काबिज हैं यह भी रोचक है। देखा जाय तो 65 वर्श की आयु वाले पुतिन रूस की ताकत दिखलाने से कभी परहेज नहीं किया और न ही दुनिया से अपनी छाप छुपायी। गौरतलब है कि वर्शों तक अमेरिका और नाटो रूस को नजरअंदाज करते रहे और एक समय ऐसा भी आया जब अमेरिका में 2016 के राश्ट्रपति चुनाव में रूस पर दखल देने का आरोप लगा। हालांकि यह आरोप पुतिन के पुराने साथी पर लगा था। पुतिन की एक खासियत यह भी है कि वे जूड़ो में ब्लैक बेल्ट हैं और उसकी आक्रामकता उनके तेवर में भी झलकती है। अक्टूबर 2015 में पुतिन ने कहा था कि 50 साल पहले लेनिनग्राद की सड़कों ने मुझे एक नियम सिखाया था कि अगर लड़ाई होनी तय है तो पहला पंच मारो। पड़ताल बताती है कि साल 1997 में पुतिन रूस के पहले राश्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की सरकार में षामिल हुए जबकि वर्श 2000 में वे स्वयं रूस के राश्ट्रपति बने साथ ही 2004 में वे दोबारा भी राश्ट्रपति चुने गये। गौरतलब है कि रूस के संविधान में तीसरी बार राश्ट्रपति का चुनाव लड़ने का प्रावधान नहीं था ऐसे में वे वहां के प्रधानमंत्री बने। रूसी संविधान में संषोधन और कई बार राश्ट्रपति बनने का रास्ता भी साफ किया गया। यही वजह थी कि साल 2012 में तीसरी बार राश्ट्रपति और अब चैथी बार इसी पद पर काबिज हुए हैं।
खास यह भी है कि लम्बे षासन के बावजूद लोग पुतिन को पसंद कर रहे हैं जबकि षेश दुनिया में इन दिनों रूस संदेह की दृश्टि से देखा जा रहा है। गौरतलब है कि इन दिनों रूस के राजनयिकों को दुनिया के कई देष अपने देष से बाहर निकाल रहे हैं। यह सिलसिला इंग्लैण्ड ने बीते 17 मार्च को षुरू किया था। अमेरिका ने भी 60 राजनयिकों को देष छोड़ने का आदेष दे दिया है। फ्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड, चेक गणराज्य समेत डेनमार्क, स्पेन और इटली आदि ने भी रूसी राजनयिकों को बाहर का रास्ता दिखाया। जाहिर है दुनिया के तमाम देषों का विष्वास रूस पर से फिलहाल डगमगाया है। रूस के सुपरमैन पुतिन और मैन आॅफ एक्षन प्रधानमंत्री मोदी के बीच सम्बंध हर हाल में अच्छे ही कहे जायेंगे। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा ने मैन आॅफ एक्षन की संज्ञा दी थी। भारत और रूस के सम्बंध को देखें तो इसमें परम्परागत और नैसर्गिकता का भाव निहित रहा है। गौरतलब है जब दुनिया दो गुटों में बंटी थी जिसमें एक संयुक्त राज्य अमेरिका का तो दूसरा सोवियत संघ का था तब भारत ने इन दोनों से अलग गुटनिरपेक्ष की राह अपनायी थी जिस पर आज भी कायम है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण और बदली दुनिया के मिजाज को देखते हुए पथ तुलनात्मक चिकना हुआ है पर बदला नहीं है। भारत का दुनिया के तमाम देषों के साथ सम्बंधों को लेकर उतार-चढ़ाव रहे हैं परन्तु मास्को के साथ दिल्ली का नाता कभी उलझन वाला नहीं रहा। हांलाकि वर्श भर पहले जब रूस ने पाकिस्तान के साथ मिलकर युद्धाभ्यास करने का इरादा जताया तब यह बात भारत को बहुत खली थी। तब यह चर्चा आम थी कि नैसर्गिक मित्र रूस ऐसे कैसे कर सकता है। वैसे इस बात में भी दम है कि प्रधानमंत्री मोदी के षासनकाल में अमेरिका और भारत के बीच सम्बंध कहीं अधिक प्रगाढ़ हुए हैं। बराक ओबामा के समय तो यह परवान चढ़ा था जिसे लेकर चीन समेत कुछ हद तक रूस को भी अखरना लाज़मी था और यह तब और दिक्कत वाला हो गया जब बराक ओबामा ने 2015 के गणतंत्र दिवस के दौरे में एक संयुक्त प्रेस वार्ता में यूक्रेन मामले को लेकर रूस के प्रति तेवर कड़े दिखा दिये थे। फिलहाल मोदी ने कूटनीतिक संतुलन को बरकरार रखते हुए पुरानी दोस्ती को प्रगाढ़ रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ध्यान्तव्य हो कि प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू रूस की समाजवादी विचारधारा  से बहुत प्रभावित थे। भारतीय संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद षब्द का उल्लेख देखा जा सकता है। समाजवाद की ही प्रेरणा से भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित है जिसमें पूंजीवाद के साथ समाजवाद और लोक के साथ निजी का समावेषन है। इतना ही नहीं भारत-रूस के द्विपक्षीय सम्बंध न केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि आर्थिक तथा वैज्ञानिक दृश्टि से कहीं अधिक उपजाऊ रहे हैं और यह क्रम बना हुआ है। नवनिर्वाचित रूसी राश्ट्रपति पुतिन के सामने चुनौतियां कमोबेष उसी षक्ल सूरत में अभी भी विद्यमान हैं। देखा जाय तो अमेरिका के साथ ठण्डा पड़ चुका संघर्श जब-तब उबाल मारता रहता है। उत्तर कोरिया के मामले में न केवल पुतिन को चीन को साधना है बल्कि जापान और दक्षिण कोरिया के भी विष्वास पर उन्हें खरा उतरना है। इसके अलावा ब्रिटेन में कथित रूप से रासायनिक हमले को लेकर बढ़ रहा विवाद भी उनके लिये बड़ी चुनौती है। सीरिया गृहयुद्ध और वहां की सरकार को समर्थन देने पर विवादों के घेरे में हैं साथ ही रूस की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं बतायी जा रही। सम्भव है कि पुतिन को घर भी संभालना है और बाहर भी संयम दिखाना है। फिलहाल जिस मिजाज के पुतिन हैं उससे साफ है कि उन्हें इसकी चिंता कम ही होगी परन्तु साख से समझौता वे भी नहीं करेंगे।  


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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मंज़िल की खोज मे चीन मे किम जोंग

उत्तर कोरिया के षासक किम जोंग उन का गुपचुप तरीके से चीन पहुंचना दुनिया को एक रोचक मोड़ पर खड़ा कर दिया है। विषेश ट्रेन से बीजिंग गये किम जोंग की यह ऐतिहासिक यात्रा इसलिए अटकलों में है क्योंकि 2011 में सत्ता में आने के बाद यह उसकी पहली विदेष यात्रा है। हालांकि आधिकारिक तौर पर इसकी पुश्टि नहीं हुई है पर मीडिया रिपोर्टों से यह साफ है कि ऐसा हुआ है। गौरतलब है कि चीन पारम्परिक रूप से उत्तर कोरिया का घनिश्ठ मित्र रहा है ऐसे में किम जोंग का बीजिंग जाना कोई हैरत भरी बात नहीं। हां पहली बार है इसलिए ऐसा हो सकता है। जिस उत्तर कोरिया के बरसों की हिमाकत पर चीन तनिक मात्र भी कसमसाया न हो और साथ ही अमेरिका के लिये चुनौती बन गया हो उसी चीन ने जब उसे अपना मिसाइल और परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम को रोकने की बात कही तो हैरत हुई थी। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया साल 2006 से अब तक 6 परमाणु परीक्षण कर चुका है। इतना ही नहीं बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण भी वह करता रहा है हालांकि इस मामले में उसे विफलता भी मिली है। उसके परमाणु कार्यक्रम पड़ोसी दक्षिण कोरिया समेत जापान के लिये मुसीबत का सबब बने हुए हैं। इतना ही नहीं दुनिया का सबसे ताकतवर देष अमेरिका को खुले आम चुनौती देना साथ ही परमाणु युद्ध की धमकी देना किम जोंग की सनकपन में देखा जा सकता है। एक वक्त ऐसा भी था कि जब अमेरिका और उत्तर कोरिया दोनों की उंगलियां परमाणु बम के बटन पर थीं और आसार बड़े युद्ध के भी बनते दिख रहे थे जो फिलहाल अर्धविराम लिये हुए है और दुनिया के लिहाज़ से भी यह ठीक ही है।
चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी ने यह पुश्टि की है कि षी जिनपिंग और किम जोंग की मुलाकात हुई है और उसने परमाणु प्रसार रोकने का संकल्प लिया है साथ ही चीनी राश्ट्रपति ने आपसी सम्बंधों को मजबूत करने का वायदा भी किया है। इस दौरे को अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच होने वाली वार्ता की तैयारी के रूप में भी देखा जा रहा है। वैसे बीते कुछ महीनों से किम जोंग की हरकतों में सकारात्मकता के चलते और बातचीत की पहल की वजह से तनाव से कुछ हद तक मुक्ति भी मिली है। अब यह भी सूचना है कि दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून अप्रैल में किम जोंग से मुलाकात कर सकते हैं यह दोनों देषों के लिये राहत की बात है। यहां बताते चलें कि उत्तर कोरिया ने बीते 3 मार्च को अमेरिका से बिना किसी पूर्व षर्त के बात करने का आग्रह किया था जिसे लेकर अमेरिका भी सहमत दिखाई दे रहा है। किम जोंग ने अचानक से चीन की यात्रा की है या नियोजित इसका पता नहीं चल पाया है परन्तु एक विषेश ट्रेन से 11 सौ किलोमीटर की 14 घण्टे की लम्बी यात्रा क्या बिना किसी नियोजन के हो सकती है विष्वास करना मुमकिन नहीं है। खबर तो यह भी है कि अमेरिका के राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ प्रस्तावित षिखर सम्मेलन के पहले किम जोंग अपने इकलौते मित्र चीन से बात करना जरूरी समझा होगा। खास यह भी है कि हरी-पीली पट्टी वाली जिस ट्रेन से किम जोंग बीजिंग गया है साल 2011 में उसके पिता किम जोंग इल भी उसी ट्रेन से चीन गये थे। कहा जाता है कि वे हवाई यात्रा से डरते थे इसलिए ट्रेन का इस्तेमाल किया। 
बेषक अमेरिका दुनिया का मजबूत देष है पर बदले वैष्विक वातावरण में इसकी नीतियां भी कहीं अधिक व्यावसायिक और व्यावहारिक हुई हैं। इतना ही नहीं कई देषों की चुनौतियों से भी बीते कुछ वर्शों में अमेरिका घिरा है। कई देष जो द्वितीय पंक्ति के थे अपनी आर्थिक और व्यावहारिक समृद्धि के चलते काफी मजबूती हासिल कर चुके हैं साथ ही अमेरिका के एकाधिकार को भी चुनौती दी है जिसमें चीन जैसे देष काफी ऊपर है। इसी प्रकार कई यूरोपीय और एषियाई देष भी इसमें षामिल हैं। उत्तर कोरिया अपने परमाणु कार्यक्रमों के चलते दुनिया के लिए चिंता का विशय बन गया और प्रतिबंधों के बावजूद हरकतों से बाज़ नहीं आया। तब यह सवाल बड़ा हो गया कि आखिर इसका निदान क्या है जबकि संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाती रही। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद उत्तर कोरिया तुलनात्मक अधिक हमलावर होता चला गया। जुबानी हमले के साथ परमाणु परीक्षण से लेकर मिसाइल परीक्षण तक में वह तेजी लाया। हालांकि पूरी तरह तो नहीं पर यह आषंका जतायी जा सकती है कि ट्रंप के तेवरों को देखते हुए किम जोंग कहीं अधिक सतर्क होने की फिराक में परमाणु परीक्षणों की गति बढ़ाई हो। जैसा कि तानाषाह किम जोंग पहले कहा था कि यदि इराक और लीबिया जैसे देष परमाणु सम्पन्न होते तो उनका हाल यह न होता। साफ है कि हथियारों के बूते अपनी सुरक्षा की गारंटी वह पाना चाहता है। इसमें कोई षक नहीं कि मौजूदा समय में वह परमाणु हथियार वाले देषों की सूची में है और बेहद सषक्त भी है। तमाम चेतावनी के बावजूद अपने रवैये पर कायम रहा और ट्रंप उत्तर कोरिया को पूरी तरह तबाह करने की धमकी देते रहे। अमेरिका जानता है कि उत्तर कोरिया का चीन नैसर्गिक मित्र है। जब तक उसकी तरफ से दबाव नहीं बढ़ेगा किम जोंग के सनकपन को रोकना मुमकिन नहीं है। यही कारण था कि उत्तर कोरिया के साथ आंषिक तौर पर चेतावनी चीन को भी मिलती रही है और अब जब किम जोंग और ट्रंप के बीच बातचीत के रास्ते लगभग खुल चुके हैं ऐसे मे षी जिनपिंग से उसकी मुलाकात बड़े मायने रखता है। 
चीन उत्तर कोरिया का करीबी सहयोगी रहा है। हालांकि उत्तर कोरिया के खिलाफ संयुक्त राश्ट्र प्रतिबंधों के चलते तेल और कोयले जैसे जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति रोकने से दोनों के बीच सम्बंध तनावपूर्ण हैं पर इतने भी नहीं कि रणनीतिक और कूटनीतिक बातचीत को साझा न किया जाय। क्या ट्रंप की कोई रणनीति उत्तर कोरिया के खिलाफ काम कर रही है और ट्रंप को क्यों लगता है कि समस्या का निदान चीन के सहयोग से आसानी से किया जा सकता है। अगर उत्तर कोरिया में कोई सत्ता परिवर्तन होता है तो इसका असर चीन पर भी पड़ेगा। चीन नहीं चाहता कि उसके देष में सत्ता के खिलाफ जनता आवाज़ उठाये और वह किम जोंग का समर्थन करता है। पड़ताल बताती है कि चीन और उत्तर कोरिया में 1961 में पारम्परिक सहयोग सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे जिसमें यह था कि यदि दोनों देषों में से किसी पर हमला होता है तो वे एक-दूसरे की षीघ्र मदद करेंगे। इस मदद में सैन्य सहयोग भी षामिल है। जाहिर है ट्रंप की यह सोच कहीं से गैरवाजिब नहीं है कि उत्तर कोरिया के मामले में चीन की बड़ी भूमिका होगी। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया में चीनी कम्पनियां आम्र्स प्रोग्राम की आपूर्ति करती हैं चीन चाहे तो लगाम कस सकता है। चीन चाहे तो उसका तेल निर्यात रोक सकता है और विदेषी मुद्रा समझौते को भी रद्द कर सकता है। इसके अलावा उसके कई और आर्थिक पहलुओं पर दबाव बना सकता है। उपरोक्त संदर्भों को देखते हुए अमेरिकी राश्ट्रपति को यदि लगता है कि किम जोंग को चीन पटरी पर ला सकता है तो इस बात में दम तो है पर सच्चाई यह है कि चीन ऐसा क्यों करेगा। फिलहाल वैष्विक षान्ति और उत्तर कोरिया और चीन की दोस्ती के मद्देनजर यह लगता है कि किम जोंग और ट्रंप उबाल ले रही कूटनीति को षान्त करने में सफल होंगे परन्तु इस मामले में अधिक जिम्मेदारी उत्तर कोरिया की और उससे भी कहीं अधिक चीन की प्रतीत होती है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Wednesday, March 21, 2018

इराक मे आतंकियों की भेंट चढ़े भारतीय

इराक में काम करने गये 39 भारतीयों के मारे जाने की खबर इस बात को तस्तीक करती है कि आतंक का चेहरा कितना घिनौना होता है। आईएस के आतंकवादियों ने जिस क्षेत्र में यह वारदात की है वहां भारत सरकार तो दूर उस समय इराक सरकार तक की भी पहुंच नहीं थी। जाहिर है ऐसा क्षेत्र था जहां न भारत की कूटनीति और न ही भारत की सैन्य ताकत काम आ सकती थी। यहां तक कि वह इलाका भारत के खूफिया पकड़ से भी बाहर था। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सरकार इस मामले में संजीदा नहीं थी पर बात तो बिगड़ चुकी है। सभी जानते हैं कि इराक में बरसों से आईएसआईएस की तूती बोलती रही है और मोसुल में तो इनकी दादागिरी कहीं ज्यादा रही है। गौरतलब है कि आईएस के कब्जे वाले मोसुल से ही उसी दौरान भारत ने केरल की नर्सों को मुक्त कराया और उन्हें अपने देष लाने में सफल भी रहे। इससे स्पश्ट है कि सरकार की सक्रियता लगातार रही है परन्तु 39 लोगों के मामले में विफलता तो मिली है। महज 35 हजार रूपए की नौकरी के लिए जान जोखिम में डाल कर भारतीय ऐसे इलाकों में चले गये जो मौत की घाटी थी। वाकई यह सरकार सहित देष के लिए झकझोरने वाला विशय है। 
दुनिया भर में आईएस की दहषत कहीं अधिक रही है। हालांकि यह कमजोर भी हुआ है पर खत्म हुआ है ऐसा कहना सही नहीं है। देखा जाय तो विगत् कुछ वर्शों से आतंकवाद पर चर्चा खुलकर हो रही है। जिस तर्ज पर आतंकवादियों ने पिछले कई वर्शों से अपनी ताकत को परवान चढ़ाया है उसे देखते हुए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसका सुरक्षा कवच वे नहीं भेद सकते। गौरतलब है अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक और फ्रांस से लेकर आॅस्ट्रेलिया तक आतंक की चपेट में आ चुके हैं। ध्यानतव्य हो कि साल 2015 में पेरिस के षार्ली आब्दो के दफ्तर पर हुए आतंकी हमले और पुनः उसी पेरिस में आतंकी हमला होना पूरे यूरोप को भय से भर दिया था। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि आतंकी संगठनों की संख्या बेहिसाब बढ़ी है। अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात के आधार पर देखें तो सौ में 83 संगठन इस्लामिक हैं। खास यह भी है कि आतंक का जिस गति से विस्तार हुआ है उससे पार पाने के लिए वैष्विक रणनीति कारगर नहीं रही है। प्रधानमंत्री मोदी अपने कार्यकाल से ही वैष्विक मंचों पर आतंक की पीड़ा से जूझ रहे भारत की स्थिति दुनिया के सामने रखते रहे। गौरतलब है कि आतंक की पीड़ा कमोबेष देषों ने झेली होगी पर भारत ने वृहत्तम मात्रा में इसे झेला है और यह क्रम अभी रूका नहीं है। 
पड़ताल बताती है कि आईएस से इराक मुक्त हुआ है पर दुनिया आतंक की चपेट में है। जून 2014 में मोसुल षहर आईएस के कब्जे में आया था और 39 भारतीय यहीं चपेट में आये थे। 10 जुलाई 2017 को औपचारिक रूप से मोसुल को आजाद कराने के एलान किया गया जबकि पिछले वर्श की 10 दिसम्बर को इराक को आईएस मुक्त होने की बात सामने आयी। इराकी प्रधानमंत्री ने इसी तिथि को राश्ट्रीय अवकाष घोशित करते हुए आईएस से इराक के मुक्त होने का जष्न मनाया। तब ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने आगाह किया था कि आईएस का खतरा अभी टला नहीं है। जिस तर्ज पर आईएस का ताण्डव हुआ है उसे देखते हुए यह बात हज़म करना मुष्किल है कि आईएस का आतंक खत्म हुआ है। सीरिया से लगी सीमा पर इसकी मौजूदगी अभी भी मानी जाती है साथ ही आईएस प्रमुख बगदादी की मौत पर भी संदेह है। तुर्की और ईरान की मीडिया भी ऐसा ही मानती है। हालात अभी भी आतंक के साये में है और भारत से बाहर काम कर रहे भारतीयों की तादाद भी कम नहीं है। साल 2017 की विदेष मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि सऊदी अरब में 32 लाख से अधिक संयुक्त अरब अमीरात में 28 लाख ओमान तथा कतर में लगभग 8 लाख और 7 लाख भारतीय हैं। दुनिया भर में आईएस की दहषत कम हो सकती है पर अभी समाप्त नहीं। कहा तो यह भी जाता है कि 90 देषों के लड़ाके आईएस की ओर से इराक और सीरिया पहुंचे। मौजूदा स्थिति में 98 फीसदी इलाके इससे मुक्त कराये जा चुके हैं। सीरिया में रूस और इराक में अमेरिका की मदद से ऐसा सम्भव हुआ है। 
हालांकि आईएस का मानचित्र तेजी से छोटा हो रहा है। कई प्रकार की परेषानियों समेत आर्थिक संकट के चलते अब इस संगठन से जुड़ने वालों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है और जो इसमें पहले से हैं वे भी आम जीवन में लौटना चाहते हैं। मुख्य यह भी है कि इसमें षामिल महिलाएं तेजी से इससे पीछा छुड़ा रही हैं। दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन आईएस निहायत महत्वाकांक्षी किस्म का है। आर्थिक तौर पर देखें तो इसका बजट 2 अरब डाॅलर का है जो अपहरण से प्राप्त फिरौती तथा बैंक लूटने जैसे तमाम हथकण्डों से युक्त है। इसकी महत्वाकांक्षा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जाॅर्डन, इज़राइल, फिलीस्तीन, लेबनान, कुवैत तथा साइप्रस समेत दक्षिणी तुर्की के कुछ भाग में राजनीतिक नियंत्रण प्राप्त करने का लक्ष्य घोशित किया था। महत्वाकांक्षा तो इतनी बड़ी थी मानो दुनिया भर पर कब्जा जमाना चाहता हो। मोसुल इराक का दूसरा सबसे बड़ा षहर है जो बगदाद से 500 किलोमीटर दूर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आईएस के जद्द में भारतीय आये हैं और जान भी गंवा चुके हैं। डीएनए से षव की पहचान की गयी जाहिर है नरम-गरम राजनीति भी होगी पर इस सच्चाई से सभी को वाकिफ होना जरूरी है कि खाड़ी देषों में भले ही रोजगार की भरपूर सम्भावनायें हो पर जोखिम भी दुनिया में सबसे ज्यादा वहीं है। दो टूक यह भी है कि जीवन यापन का देष में इतना दबाव है और विकल्प इतने सीमित हैं कि जोखिम की राह चुननी ही होती है। हांलाकि सरकार अपनी ओर से चेतावनी जारी करती है। रोजगार और नौकरी के लिये किन क्षेत्रों में जाना चाहिए, कहां नहीं जाना चाहिए परन्तु स्थिति को देखते हुए तो यही लगता है कि इतना पर्याप्त नहीं है। बाहर भेजने वाले दलालों और एजेंटों की नकेल भी कसनी होगी जो इन्हें मोटी तनख्वाह का लालच देकर जोखिम में डाल देते हैं। फिलहाल आईएस के कुकृत्य के चलते 39 भारतीयों को खोने का दर्द सभी को है। आगे ऐसा न हो इसे पुख्ता किया जाना कहीं अधिक जरूरी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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क्यों ला रहें हैं अविश्वास प्रस्ताव !

बजट सत्र के दूसरे चरण के षुरूआत से आन्ध्र प्रदेष को विषेश राज्य का दर्जा, कावेरी और पीएनबी समेत कई मुद्दों पर विभिन्न दलों के हंगामों के चलते सदन की कार्यवाही लगभग एक पखवाड़े से अस्त-व्यस्त चल रही है। दूसरे षब्दों में कहें तो कार्यवाही समुचित नहीं चल पा रही है और कामकाज ठप्प है। बीते दिन इराक में 39 भारतीयों के मारे जाने की पुश्टि की सूचना दिये जाने के बाद दोनों सदनों में खूब षोर-षराबा हुआ। जाहिर है विरोधी यहां भी सरकार को घेरने की कोषिष में देखे जा सकते हैं। लोकसभा का हाल तो यह है कि कार्यवाही षुरू होते ही हंगामा होने लगता है और कार्यवाही 12 बजे तक रोकने फिर दिन भर के लिए स्थगित करने की रस्मअदायगी देखी जा सकती है। हंगामा इस कदर बरपा है कि एक समस्या हल नहीं होती कि दूसरी मुखर हो जाती है। सरकार के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव के नोटिस को कई दिनों की कोषिषों के बावजूद स्वीकार किया जाना सम्भव नहीं हो पा रहा जबकि राज्यसभा का भी आलम यह है कि हिचकोले लेकर या तो समय काटा जा रहा है या हंगामे का भेंट चढ़ रहा है। बीते 20 मार्च को विदेष मंत्री सुशमा स्वराज के बयान के 30 मिनट के बाद ही दिन भर के लिये सदन का स्थगित होना कई सवालों को भी जन्म दे रहा है। आखिर सत्ताधारक हों या विपक्षी सभी जनता से मत प्राप्त कर सदन तक पहुंचते हैं इस विष्वास और अपेक्षा के साथ कि वे जनता के लिये काम करेंगे और देष को ऊँचा उठायेंगे परन्तु इस क्रियाकलाप से क्या यह हो रहा है यह समझने वाली बात है।
लोकतंत्र में यह रहा है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत से जनहित को सुनिष्चित करने वाले कानून और कार्यक्रम की उपादेयता सुनिष्चित होती है पर संसद अगर षोर-षराबे की ही षिकार होती रहेगी तो ऐसा सोचना बेमानी होगा। इन दिनों मोदी सरकार के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव लाने की कोषिष की जा रही है इस हेतु नोटिस देने वाले तेलुगू देषम पार्टी जो अभी हाल ही में सरकार से नाता तोड़ा है साथ ही वीएसआर कांग्रेस, कांग्रेस सहित कई दलों ने जमकर हंगामा किया और स्पीकर से प्रस्ताव के समर्थन में सदस्यों की संख्या गिनने की मांग की। स्पीकर ने कहा कि चूंकि सदन में व्यवस्था नहीं है ऐसे में अविष्वास प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जा सकता। वजह जो भी हो फिलहाल विरोधियों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। दरअसल अविष्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध लाना एक संवैधानिक विधा है जिसकी चर्चा अनुच्छेद 75(3) के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वैसे देखा जाय तो अविष्वास प्रस्ताव के समर्थन को लेकर कई पार्टियों का रूख साफ नहीं है। सरकार की ओर से भी कहा जा रहा है कि हम अविष्वास प्रस्ताव का सामना करने के लिए तैयार हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि राश्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बहुमत में है इतना ही नहीं केवल भारतीय जनता पार्टी के 273 सदस्य इस आंकड़े को पूरा कर देते हैं। 543 लोकसभा सदस्यों के मुकाबले 272 से बहुमत हो जाता है। हालांकि संविधान में यह भी प्रावधान है कि सदन में उपस्थित सदस्यों में से मत देने वाले सदस्यों के आधे से अधिक से बहुमत सम्भव है। मोदी सरकार को अविष्वास प्रस्ताव को लेकर किसी प्रकार का डर नहीं होना चाहिये परन्तु विपक्ष यदि संविधानसम्वत् इसका पक्षधर है तो उसे अवसर भी दिया जाना चाहिए। हांलाकि इसका निर्णय स्पीकर को करना है। 
अविष्वास का प्रस्ताव एक संसदीय प्रस्ताव है जिसे पारम्परिक रूप से विपक्ष द्वारा संसद में एक सरकार को हराने या कमजोर करने की उम्मीद से रखा जाता है। आमतौर पर जब संसद अविष्वास प्रस्ताव में वोट करती है या सरकार विष्वास मत में विफल रहती है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है या संसद को भंग करने और आम चुनाव की बात षामिल रहती है। फिलहाल इसके आसार दूर-दूर तक नहीं है लेकिन जो विरोधी मोदी के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव पर आमादा हैं उन्हें यह भी समझना होगा कि सदन की कार्यवाही भी चलने दें। इससे देष की जनता का नुकसान हो रहा है जिससे वह स्वयं वोट लेकर आये हैं। अविष्वास तथा निंदा जैसे प्रस्ताव विपक्षियों के औजार हैं पर इसे कब प्रयोग करना है इसे भी समझना बेहद जरूरी है। लोकतंत्र के संसदीय इतिहास में सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ यह प्रस्ताव अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था लेकिन इसके पक्ष में केवल 52 वोट पड़े थे जबकि प्रस्ताव के विरोध में 347 वोट थे। गौरतलब है कि मोदी सरकार के विरूद्ध पिछले चार सालों में पहली बार अविष्वास प्रस्ताव लाये जाने की बात हो रही है जबकि इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ सर्वाधिक 15 बार तथा लाल बहादुर षास्त्री और नरसिंह राव सरकार को तीन-तीन बार ऐसे प्रस्तावों का सामना करना पड़ा है। नेहरू षासनकाल से अब तक 25 बार अवष्विास प्रस्ताव सदन में लाये जा चुके हैं जिसमें 24 बार ये असफल रहे हैं। 1978 में ऐसे ही एक प्रस्ताव से सरकार गिरी थी। वैसे मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ दो अविष्वास प्रस्ताव रखे गये थे पहले में तो उन्हें कोई परेषानी नहीं हुई परन्तु दूसरे प्रस्ताव के समय उनकी सरकार के घटक दलों में आपसी मतभेद थे। हालांकि उन्हें अपनी हार का अंदाजा था और मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया था। देखा जाय तो विपक्ष में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी भी एक बार इन्दिरा गांधी के खिलाफ और दूसरी बार नरसिंह राव के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव रख चुके हैं। 
फिलहाल मौजूदा परिस्थितियां कहीं से अविष्वास प्रस्ताव को लेकर नहीं दिखायी देती परन्तु टीडीपी ने जिस तरह मोदी का साथ छोड़ा है और अन्य घटक दल में जिस प्रकार असमंजस व्याप्त हो रहा है षायद उसी को लेकर यह मामला और तूल पकड़े हुए है जबकि इसकी षुरूआत वीएसआर ने की थी। लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव लाने के लिये नोटिस तभी स्वीकार किया जाता है जब उसके समर्थन में 50 सदस्य हों। टीडीपी और वीएसआर के पास फिलहाल यह आंकड़ा नहीं है परन्तु अन्यों के सहयोग से षायद इसे पूरा कर लिया जायेगा। मुद्दा यह है कि अविष्वास प्रस्ताव लाने वाले के पास जब चंद आंकड़े जुटाना भी मुष्किल है तो बड़ी कूबत वाली सरकार की कुर्सी कैसे हिला पायेंगे। खीज के चलते कांग्रेस समेत वामपंथ या अन्य सरकार के विरोध में मत दे सकते हैं पर इनकी स्थिति भी बहुत दयनीय है। कुछ क्षेत्रीय दल मुद्दे विषेश को लेकर सरकार के विरूद्ध हो सकते हैं पर अविष्वास प्रस्ताव लाने वालों के साथ होंगे ऐसा लगता नहीं है। वैसे भाजपा तथा उनके सहयोगियों में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है पूरी तरह कहना कठिन है पर सरकार बचाने में उनका मत सरकार के साथ न हो यह भी होता नहीं दिखाई देता। फिलहाल अविष्वास प्रस्ताव एक विरोधी संकल्पना है जिसका उपयोग किया जाना कोई हैरत वाली बात नहीं। संदर्भित बात यह है कि सदन का कीमती वक्त रोज हंगामे की भेंट चढ़ रहा है। भारी-भरकम पूर्ण बहुमत वाली सरकार का बीते चार सालों में कोई भी ऐसा सत्र नहीं रहा जिसमें विरोधियों ने नाक में दम न किया हो। सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक भी यहां काम नहीं आ रही है। एक-दूसरे की लानत-मलानत और छींटाकषी में वक्त बीत रहा है जबकि 2019 मुहाने पर है जहां 17वीं लोकसभा का एक बार फिर गठन होना है। देष के राजनेता जो राजनीति करें वही जनता को देखना होता है चाहे अच्छा करें या न अच्छा करे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, March 19, 2018

काँग्रेस का यह जो संदेश है

कांग्रेस ने 2019 में मोदीमय भाजपा से मुकाबले के लिए षीघ्र यूपीए-3 खड़ा करने के संकेत दिये हैं। गौरतलब है कि जब-जब कांग्रेस भारत की राजनीति से दरकिनार हुई है तब-तब इस ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया है। 2004 में 14वीं लोकसभा चुनाव में राजग के साइन इण्डिया के नारे की हवा तब निकल गयी थी जब कांग्रेस 145 सदस्यों समेत वामदलों व अन्यों को मिलाकर डाॅ0 मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 के माध्यम से सत्ता को कब्जाया था। 5 साल की गठबंधन की सत्ता चला चुके तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हार की स्पश्ट वजह चुनाव के दौरान फिलहाल षायद ही किसी को दिखी हो। स्पश्ट है कि देष की जनता सत्ता से बेदखल करने के लिए वोट देने में कहीं अधिक चैकन्नी रही है और यह बात कांग्रेस से बेहतर षायद ही कोई जानता हो। भले ही विरोधी एकता के अभी आसार दूर-दूर तक न दिख रहे हों पर कांग्रेस समान विचारधारा वाले दलों की व्यावहारिकता को देखते हुए इस दिषा में पहल कर चुकी है और स्वयं की ताकत और रणनीति बेहतर करने के लिए भी कदम भी बढ़ा चुकी है। सरकारें हमेषा यह समझती हैं कि कमजोर विरोधी उनके लिए कैसे नासूर बन सकते हैं ध्यान रहे सत्ताधारी जब चुनाव में जाते हैं तो जनता को अपने पांच साल के कार्यों से सन्तुश्ट करना होता है जबकि विरोधी उनकी खामियों को उभारने पर पूरा दम लगाते हैं। 2014 में यही भाजपा ने कांग्रेस के साथ किया था। जाहिर है 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसा ही पलटवार कांग्रेस समेत सभी विरोधी कर सकते हैं। ऐसे में मोदी सरकार को अपना रिपोर्ट कार्ड अव्वल दर्जे का बनाना ही होगा क्योंकि तब बात मात्र बातों से नहीं बनेगी, वायदों और इरादों को जताने से भी नहीं बनेगी, बनेगी तो केवल हकीकत दिखाने से।
कांग्रेस का परचम कभी पूरे देष में लहराता था अब महज 4 राज्यों में सिमट कर रह गयी है। वर्श 2014 से चुनाव-दर-चुनाव तमाम दमखम के साथ कांग्रेस ने उम्मीद जगाने का काम किया पर विजेता भाजपा बनती रही। 70 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में लगभग 6 दषक सत्ता की चाकरी करने वाली कांग्रेस इस तरह धराषाही होगी किसी की कल्पना में नहीं रहा होगा। सिलसिलेवार तरीके से भाजपा कांग्रेस षासित राज्यों को अपने कब्जे में करते हुए उसके लिए इन दिनों मुसीबत की सबब बन गयी है। भाजपा से पार पाने को लेकर कांग्रेस की ओर से रणनीति भी गढ़ी जा रही है साथ ही कार्यकत्र्ताओं में जोष भी भरा जा रहा है। बीते 13 मार्च को जहां यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा विरोधियों को डिनर डिप्लोमेसी के माध्यम से एकजुट होने का प्लेटफाॅर्म तैयार करने की कोषिष की तो वहीं दिल्ली में कांग्रेस के 84वें महाधिवेषन के माध्यम से तमाम नेताओं और कार्यकत्र्ताओं को सत्ता के विरूद्ध डटकर मुकाबला करने की सीख भी दी गयी और जोष भी भरा गया। गौरतलब है कि कांग्रेस महाधिवेषन में ज्यादातर कार्यकत्र्ता 45 वर्श से कम के हैं और अनेकों वरिश्ठ नेताओं के साथ उनकी जुगलबंदी दल के लिए नये व्यवहार और नये आगाज़ का संकेत समेटे हुए है। राहुल गांधी बदलाव का संदेष देने में कितना सफल रहे हैं इसका पता तो आगामी चुनाव में चलेगा पर इस अधिवेषन के माध्यम से यह संकेत जरूर दे दिया गया है कि कांग्रेस देष की पुरानी पार्टी है भले, ही ताकत घटी हो पर हौंसला अभी बाकी है।
बीते चार सालों में मोदी सरकार पर तमाम आरोप विरोधियों द्वारा लगाये गये हैं और कांग्रेस के इस महाधिवेषन में भी ऐसे ही आरोपों को देखा जा सकता है। कालाधन की वापसी को लेकर विफलता, किसानों की समस्या भी हल कर पाने में पूरी तरह विफल, बेरोजगारी को लेकर किये गये वायदे पर खरे न उतरना, नोटबंदी और जीएसटी के माध्यम से अर्थव्यवस्था को गर्त में ले जाना साथ ही सत्ता की चाषनी में इस कदर डूबना कि गुरूर और घमण्ड से भर जाना इत्यादि सहित विभिन्न आरोप देखे जा सकते हैं। कांग्रेस का आरोप है कि केन्द्र की भाजपा सरकार ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। सरकार की गलतियों, कुप्रबन्धन और खराब जोखिमों की वजहों से अर्थव्यवस्था डूबी है। बैंकिंग प्रणाली को भी कुछ इसी षक्ल, सूरत में देखा जा रहा है। यह बात सही है कि भाजपा सरकार ने कई आर्थिक जोखिम लिये हैं और सैकड़ों परिवर्तन भी समय के साथ किये हैं। रोज़गार में कटौती से लेकर सैकड़ों कानूनों को खत्म करने का काम भी सरकार द्वारा हुआ है। नोटबंदी के बाद विकास दर भी पटरी से उतरी थी हालांकि अब इसे बेहतर बताया जा रहा है। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी अपने भाशणों में बार-बार जनता को विष्वास में लेने की कोषिष करते हैं उससे भी यह प्रतीत होता है कि धरातल पर काम वैसा नहीं हो पा रहा है। आरोप तो यह भी है कि मोदी ने विदेष नीति को भी व्यक्ति केन्द्रित बना दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का साफ आरोप है कि आतंकवाद से निपटने में यह बुरी तरह विफल रहे हैं। पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेष, चीन व नेपाल के साथ समस्यायें हो सकती हैं देखा जाय तो कमोबेष समस्याएं चल भी रही हैं। रोचक यह भी है कि तमाम जीत के बीच मौजूदा मोदी सरकार का ग्राफ भी लोकप्रियता के मामले में इसलिए कम कहा जा सकता है क्योंकि अब तक के दस लोकसभा के उपचुनाव में महज़ एक पर जीत और नौ पर हार मिली है। उत्तर प्रदेष के गोरखपुर और फूलपुर में लोकसभा सीट का गंवाना इसे और पुख्ता बनाता है। 
महाधिवेषन की सबसे खास बात कार्यकत्र्ताओं में जोष की वापसी करना देखा जा सकता है। पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कांग्रेस के रोड मैप के अलावा सत्ता में आयी तो क्या करेंगे को भी उद्घाटित किया। हालांकि कांग्रेस के लिए सत्ता अभी दूर की कौड़ी है पर दरकती नींव को यदि मजबूती देने में कांग्रेस यहां से आगे बढ़ती है तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता होगी। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो कई सूबों की विधानसभाओं में षून्य पर पहुंच गयी कांग्रेस कभी सियासत की बुलंदी पर थी। जिस तरह चुनाव में कांग्रेस का घर टूटा है और पूरे भारत से सिमटी है उससे तो यही लगता है कि नवनिर्माण की उसे कहीं अधिक जरूरत है। महाधिवेषन उसी दिषा में उठाया गया कदम हो सकता है जिस रूप में कांग्रेस डैमेज हुई है उससे यह भी साफ है कि अकेले के बूते पर न तो वह चुनाव मैनेज कर पायेगी और न ही दमखम से भरी भाजपा को चुनौती दे पायेगी। षायद यही वजह है कि सियासी प्रयोगषाला में कांग्रेस अन्य दलों को भी साथ लेने तथा खुद की भी जमीन मजबूत करने की कोषिष कर रही है। साल 1952 से 2014 के बीच 16 बार लोकसभा के चुनाव हुए और सबसे खराब दषा 2014 में कांग्रेस की ही रही है। 1977 को छोड़ दिया जाय तो 1952 से लेकर 1984 के आठ आम चुनाव में कांग्रेस कभी 300 से कम सीट पर जीत दर्ज ही नहीं की। हालांकि 1967 में 283 सीट जीती थी जबकि 1984 में तो यह आंकड़ा 400 के पार था। बाकी के आठ लोकसभा चुनाव में केवल 1991 के 10वीं और 2009 के 15वीं लोकसभा में ही 200 के आंकड़े को पार कर पायी थी। यही दौर महागठबंधन का भी रहा है। राजनीतिक चक्र इस कदर कांग्रेस के खिलाफ गया कि 1984 में 400 से अधिक सीट जीतने वाली कांग्रेस 2014 में 44 पर सिमट गयी। फिलहाल बदले तेवर और राहुल गांधी की अध्यक्षता में नयी-नवेली कांग्रेस किस किनारे लगेगी यह 2019 के चुनाव में ही पुख्ता हो पायेगा। अभी तक के नतीजे तो कांग्रेस की नींव हिलाने वाले ही रहे हैं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

उपचुनाव के नतीजे किसे जगा गए !

उत्तर प्रदेष में बीते 11 मार्च को लोकसभा की दो सीटों पर सम्पन्न उपचुनाव तत्पष्चात् 14 मार्च को घोशित नतीजे इस बात को तस्तीक करते हैं कि राजनीतिषास्त्र के अंदर भी एक बड़ा इतिहास छुपा होता है। पिछले वर्श की 12 मार्च को जब उत्तर प्रदेष विधानसभा के चुनावी नतीजे सामने आये थे तब भाजपा ने न केवल सत्तासीन सपा बल्कि बसपा समेत कई क्षेत्रीय दलों को चकनाचूर करके 403 के मुकाबले 325 सीट पर काबिज हुई थी और अब प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केषव प्रसाद मौर्य की लोकसभा सीट पर सम्पन्न हुए उपचुनाव में सपा का काबिज होना सियासी चक्र को नया रूख देने जैसा है। सवाल तो कई पूछेंगे और उठेंगे भी कि बीते एक वर्शों से प्रदेष में सत्ता का रथ चला रहे ये दोनों सारथी कैसे विफल हो गये। यह सोच भी मुनासिब है कि समीकरण इस बार भिन्न था और चुनाव भी विधानसभा का नहीं था पर इस सच्चाई से कोई इंकार नहीं करेगा कि गढ़ तो ढहा है। साल 1998 से लगातार गोरखपुर लोकसभा सीट पर काबिज यूपी के मुख्यमंत्री योगी से कहां चूक हुई कि उनके उत्तराधिकारी सीट भाजपा के पक्ष में नहीं ला पाये और फूलपुर में भी कमल मुरझा गया। गौरतलब है उपमुख्यमंत्री केषव मौर्य साल 2014 में इस सीट को कुल पड़े मत के 52 फीसदी के साथ जीत दर्ज की थी। देखा जाए तो सियासत और समीकरण का बड़ा गहरा नाता होता है। भाजपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह को कई चाणक्य की संज्ञा दे चुके हैं पर राजनीति की सूझ-बूझ एक जैसी बनी रहे हर बार जरूरी नहीं फिलहाल चूक तो यही बात पुख्ता करती है।
देष की राजनीतिक राजधानी उत्तर प्रदेष की दो हाई प्रोफाइल लोकसभा सीटों पर उलट नतीजे इसलिए भाजपा के लिए चिंताजनक हैं क्योंकि वह चुनावी विजयरथ पर सवार है। यही नहीं 2019 के अप्रैल-मई में लोकसभा का चुनाव पूरे देष में होगा उसकी भी आहट इसमें कुछ हद तक गूंजती है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष दिल्ली की गद्दी तय करता है। कुल 543 लोकसभा सीटों की तुलना में 80 स्थान यूपी से है। 2014 में गठित 16वीं लोकसभा में भाजपा अपना दल समेत 73 सीटों पर काबिज हुई थी जबकि सपा 5, कांग्रेस 2 और बसपा का खाता नहीं खुला था। यह बदली हुई राजनीति का तेवर ही कहेंगे कि बीते ढ़ाई दषकों से एक-दूसरे की तरफ पीठ किये बैठे सपा और बसपा आज एक ही डण्डे में अपने-अपने झण्डे लगा रहे हैं और उसका सुखद नतीजा भी देख रहे हैं। उत्तर प्रदेष में जाति और धर्म की राजनीति खत्म हुई है यह कयास बेमानी है और भाजपा इससे परे है ऐसा सोचना भी सही नहीं है। फूलपुर सीट पर भाजपा और सपा का उम्मीदवार कुर्मी जाति से थे। अन्तर यह था कि सपा से चुनाव लड़ने वाले नागेन्द्र सिंह पटेल फूलपुर लोकसभा के बाषिन्दे हैं जबकि भाजपा ने बनारस के कौषलेन्द्र पटेल को उम्मीदवार बनाया था। साफ है कि कुर्मी के मुकाबले कुर्मी जाति की राजनीति यहां हुई है। दर्जनों मुकदमें के आरोप झेल रहे दबंग और जेल में बंद अतीक अहमद का भी मैदान में होना यह इषारा करता है कि मुस्लिम मतदाताओं को भी उथल-पुथल करना था। उत्तर प्रदेष में कांग्रेस, सपा और बसपा समय-समय पर मुस्लिम मतदाताओं पर अपना एकाधिकार जमाती रही हैं सीधे तौर पर यही धर्म की राजनीति है। अतीक अहमद को इस बार मिले 25 हजार से कुछ ज्यादा मत यह दर्षाते हैं कि मुस्लिम मतदाता इस झांसे में नहीं आया। 
गोरखपुर के नतीजे तो पूरे भाजपा को जगाने के काम आ सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यहां पिछले दो दषकों से चुने जा रहे उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मनमाफिक उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया गया और अमित षाह के प्रभाव में उपेन्द्र दत्त षुक्ल की उम्मीदवारी तय हुई जबकि प्रवीण निशाद सपा के उम्मीदवार हुए। यहां चुनावी बिसात अगड़े और पिछड़े की भी रही है और सपा भारी पड़ी। यह चिंतन-मंथन का विशय तो है कि 1998 से 2014 तक लगातार 5 लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ बिना किसी लाग-लपेट के चुनाव जीतते रहे और दो ही बार ऐसी स्थिति बनी कि जब सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों का वोट प्रतिषत मिलाकर भाजपा से अधिक रहा। देखा जाय तो कुल डाले गये मतों का 50 फीसदी से अधिक मत पर अधिकार योगी आदित्यनाथ का तीन बार रहा। 2014 में उन्हें 52 फीसदी मत मिला था और 2018 में यह कैसे खिसक गया समीक्षा का विशय तो है और वह भी तब जब वह स्वयं उसी प्रदेष के मुख्यमंत्री पद पर काबिज हों। लखनऊ के बाद गोरखपुर उनका दूसरा बड़ा स्थान है जो कभी पहला हुआ करता था। यह बात भी समझना ठीक रहेगा कि उपचुनाव में प्रधानमंत्री मोदी प्रचार करने नहीं गये न ही कोई रैली की यह बात कहना कितना लाज़मी है कि क्या देष के मतदाताओं को मोदी प्रचार की जरूरत पड़ती है। अब भाजपा को इस मामले में भी जागरूक रहने की जरूरत है कि जब मोदी का चेहरा वोट हथियाने के काम आ रहा है तो उनके बगैर उपचुनाव भी जीतना सम्भव नहीं है। या यह समझा जाय कि केन्द्र के बीते चार साल की नीतियां और पिछले एक साल से उत्तर प्रदेष में काबिज भाजपा के प्रति लोगों का आकर्शण कम हुआ है। ध्यानतव्य है कि गोरखपुर में 47.5 फीसदी और फूलपुर में मात्र 40 प्रतिषत मतदान हुआ था यह आंकड़े मतदाताओं का गिरा हुआ रूझान ही दर्षाते हैं।
वैसे उपचुनाव का मसला उत्तर प्रदेष तक ही सीमित नहीं है। बिहार में भी भाजपा उम्मीद से बहुत पीछे रही है। वहां राजद का प्रदर्षन इस बात को दर्षाता है कि नीतीष कुमार की सरकार के प्रति मतदाताओं के तेवर तो बदले हैं। गौरतलब है कि तत्कालीन उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव पर भ्रश्टाचार के आरोप के चलते नीतीष कुमार के बीच खींचातानी थी। स्थिति को देखते हुए राजनीतिक सूरत वहां की बदल गयी और जो नीतीष भाजपा के विरूद्ध 2015 में सत्तासीन हुए थे वही भाजपा से मिलकर और राजद को छोड़कर नई राजनीतिक राह बना दी। हो न हो जनता को ऐसे घालमेल न पचे। यह बात इसलिए भी क्योंकि राजनीति की नैतिकता भले ही बवंडर में छुप जाय पर वोट से पहले एक बार उभरती जरूर है। फिलहाल उपचुनाव बड़ा चुनाव तो नहीं है पर जनता का फैसला है तो बड़ा ही कहा जायेगा। छोटा इसलिए भी नहीं क्योंकि उत्तर प्रदेष में सपा की दो सीटें बढ़ गयीं और 2014 में जीती भाजपा की दो सीटें घट गयीं। बड़ा इसलिए भी क्योंकि विपक्ष ही महागठबंधन की आड़ भाजपा को चुनौती देने की फिराक में है साथ ही उत्तर प्रदेष में बुझ रहे सपा और बसपा को एक साथ होने का न केवल अवसर मिला बल्कि संजीवनी भी मिली है। प्रतीत तो यही होता है कि विरोधियों के जागने और सत्ताधारियों के न सोने का वक्त यही है। भाजपा को यह समझना होगा कि सत्ता अस्थिर होती है। साल 1977 और 1989 इस बात का प्रमाण है कि आसमान पर सवार कांग्रेस को छोटे-छोटे गुट मिलकर पटखनी दिये थे। उपचुनाव के नतीजे सबको चैकन्ना करते हैं और यह भी इषारा कर रहे हैं कि राजनीति की दिषा भले ही बदल जाये पर राह नहीं बदलती। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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राजनीति की राह नहीं दिशा बदली है

राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है न राजनेता और न ही सत्ता। षायद यही वजह है कि समय और परिस्थितियों के चलते सियासतदान एक मंचीय होने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। बीते 13 मार्च को जब सोनिया गांधी ने सियासी भोज दिया तब यह बात साफ हो गयी कि बीते चार वर्शों से विजय रथ पर सवार भाजपा को रोकने की कवायद हो चुकी है। दो टूक यह भी है कि पहले सभी ने अपने-अपने हिस्से का दम भाजपा के विरूद्ध लगाया और बारी-बारी से परास्त हुए और यह क्रम अभी टूटा नहीं है। मौजूदा समय में भाजपा गठबंधन समेत 21 राज्यों में काबिज है। इसे एक प्रकार से राजनीतिक धुरी का उल्टा घूमना कह सकते हैं। कह सकते हैं कि जहां कभी कांग्रेस होती थी आज वहां चप्पे-चप्पे पर भाजपा है। इससे बुरी दुर्गति क्या होगी कांग्रेस भी अच्छी तरह जानती है और देष के अन्य राजनीतिक दल भी। वे यह भी जानते हैं कि देष की सियासत में अब तस्वीर पलट गयी है अकेले सीधी करना मुष्किल है। उतार-चढ़ाव, मन-मुटाव, खींचा-तानी इन सभी से अब ऊपर उठना ही होगा। उत्तर प्रदेष में हुए लोकसभा के उपचुनाव में बसपा और सपा जो ढ़ाई दषक से एक-दूसरे की तरफ पीठ करके बैठे थे एक साथ होकर इसकी बानगी पहले ही दे चुके हैं। 14 मार्च के नतीजे इस बानगी पर मुहर भी लगा रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बिखरी सियासत को संजो कर ही विरोधी मौजूदा सत्ता से होड़ ले पायेंगे। इसी स्थिति को देखते हुए डिनर डिप्लोमैसी इनकी मजबूरी बनी। महागठबंधन बनाने की इस कवायद में और विपक्षी एकता की होड़ को देखते हुए अनायास 1989 के पहले के संयुक्त मोर्चा की याद आ गयी। 
गौरतलब है कि 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस 400 से अधिक लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी। खास यह भी है कि इतनी बड़ी जीत के कितने बड़े मायने होते हैं उस दौर की राजनीति में कांग्रेस के नाते इसका मतलब सबको पता था परन्तु जब 2014 में भाजपा और उसके सहयोगियों ने 335 का गगनचुम्भी आंकड़े का कीर्तिमान बनाया तो पूरे भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया। जिस तर्ज पर सत्तासीन कांग्रेस को आठवीं लोकसभा में संयुक्त मोर्चा के माध्यम से धूल चटाने की कोषिष की गयी वह दौर भारतीय राजनीति में महागठबंधन का ऐसा था जिसका अक्स आज की राजनीति में भी उपलब्ध है। रोचक यह भी है कि संयुक्त मोर्चा के तत्वावधान में बनी कांग्रेस विरोधी विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समर्थन में भारतीय जनता पार्टी भी षामिल थी और समर्थन की वापसी तब हुई जब भाजपा के वयोवृद्ध नेता लाल कृश्ण आडवाणी के आयोध्या जा रहे रथ को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर में रोक दिया था। देखा जाय तो तीन दषक पहले कांग्रेस जैसे ताकतवर को परास्त करने के लिए देष के सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल एक हो गये थे। अब वही इतिहास 2019 के 17वीं लोकसभा में काफी हद तक दिखता है जिसमें फिर एक बार राजनीतिक त्रासदी झेल रहे दल महागठबंधन की कवायद कर रहे हैं। फर्क इतना है कि तब महागठबंधन कांग्रेस विरोधी था जिसमें भाजपा भी षुमार थी और अब यह भाजपा विरोधी है जिसमें कांग्रेस षुमार है। इस आलोक में तो यही समझ आता है कि राजनीति की दिषा भले ही बदली हो पर राह तो पुरानी ही है।
विपक्षी एकता के मकसद से सोनिया गांधी की ओर से बुलायी गयी बैठक यह इषारा कर चुकी है कि भाजपा से निपटने के लिए मोर्चा होना चाहिए। डिनर में कई षामिल नहीं थे पर जो षामिल थे उतने से बहुत कुछ समझ में आता है। षरद पवार से लेकर षरद यादव समेत उत्तर और दक्षिण के दर्जनों पार्टियों के नेताओं का इसमें षुमार होना कुछ तो आगाज़ करता है। अक्सर राजनीति में यह रहा है कि समान विचारधारा के लोग साथ आ सकते हैं परन्तु सामान्य परिस्थितियों में तो यही राजनीतिज्ञ असमान विचारधारा के बने रहते हैं। सवाल है कि सोनिया गांधी के निमंत्रण पर जो आये थे क्या वे राहुल गांधी के नेतृत्व में समा पायेंगे। इस सियासी भोज से यह भी पता चलता है कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के किसी भी गठबंधन के केन्द्र बिन्दु पर कांग्रेस ही होगी। वैसे देखा जाय तो सोनिया गांधी की डिनर पाॅलिसी नई बात नहीं है पूर्व में भी वे ऐसा आयोजन करके गठबंधन की मजबूती देती रही है। खास यह भी है कि इसके बहाने यह भी पता चला कि कौन, कितना इसे लेकर उत्सुक है और षायद इसके माध्यम से यह बताने की कोषिष भी कि भाजपा को रोकने की रणनीति उनके पास भी है। जीतन राम मांझी और बाबू लाल मराण्डी जैसे नेताओं को बुलाकर तो यही समझाने की कोषिष की गयी है। 
गौरतलब है कि हाल ही में चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगू देषम पार्टी के दो मंत्रियों ने आन्ध्र प्रदेष के विषेश राज्य की मांग को लेकर मोदी मंत्रिपरिशद् से इस्तीफा दे दिया। हालांकि पार्टी अभी एनडीए से बाहर नहीं हुई है परन्तु सियासी गर्माहट के बीच यदि इसमें और उबाल आता है तो विपक्षी एकता में जुटी सोनिया गांधी की नजर इन पर जरूर रहेगी। इतना ही नहीं टीआरएस भी इससे अछूते षायद ही रहें। देखा जाय तो इससे पहले तेलंगाना राश्ट्र समिति के नेता चन्द्रषेखर राव जो अब मुख्यमंत्री भी हैं विपक्षी एकता की पहल कर चुके हैं। सवाल कई हैं और राजनीति की धुरी तो एक ही है। सुईं एक तरफ 360 डिग्री पर घूम चुकी है, दूसरी तरफ घुमानी है। ऐसे में सियासी डिनर कितना लाभ देगा ये समतामूलक सोच पर निर्भर करेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ऐसे गठबंधनों की प्रासंगिकता का लोप हो गया है। जब देष में सबसे पहले गठबंधन की सरकार 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में आयी तब षायद किसी ने सोचा हो कि कांग्रेस को भी इस तरह चुनौती दी जा सकती है और जब 1989 में राश्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी तब भी यह बात पुख्ता हुई कि बड़ी-से-बड़ी सत्ता को छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल मिलकर चकनाचूर कर सकते हैं। वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम बेहतर हो, जनता का भरोसा सरकार से उठ रहा हो और विरोधी पर बन रहा हो। सरकार की नीतियां जनता के लिए बोझ बनें और देष में सिर्फ राजनीति हो और विकास न हो तब-तब ऐसे महागठबंधन और ताकतकवर बनकर उभरे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजीव गांधी की भारी-भरकम सरकार को बोफोर्स काण्ड के चलते जनता ने 1989 में जमीन पर पटक दिया था और 2014 में 2जी समेत कई घोटालों के चलते कांग्रेस को 44 पर समेट दिया था। कोई भी सरकार कहे कि विकास का कारोबार करेंगे और यदि सियासत तक सीमित रहे तो इसे जनता के साथ छल ही कहा जायेगा। कुछ ने ऐसे भी कर के अपनी दिषा और दषा बदली है। सत्तासीनों की गलतियों के चलते विरोधियों को मौके मिले हैं। मोदी सरकार 2019 के चुनाव में कौन सा रंग अख्तियार करेगी पूरा अंदाजा नहीं है पर गठबंधन की राजनीति का इतिहास देखते हुए कह सकते हैं कि इतिहास इन्होंने भी रचा है। परिस्थितियां सियासी होती हैं तो सोच और नतीजे भी उसी तरफ झुके होंगे। कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं है और कोई भी राजनेता इतना उजला नहीं है कि देष की जनता उस पर उंगली न उठाये और जब यही उंगली ईवीएम का बटन दबाती है तो किसी का इतिहास स्याह तो किसी का सफेद होता है। यही बीते तीन-चार दषकों से होता रहा है और षायद आगे भी होता रहेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, March 7, 2018

महिलाएं भारत की तरक्की की चाबी

वर्तमान में आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते तरक्की के अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गये हैं। महिलाओं के हाथ में भारत की तरक्की की चाबी की बात विष्व बैंक ने कही है। विष्व बैंक ने यह भी कहा है कि अगर भारत दो अंकों वाली आर्थिक वृद्धि चाहता है तो उसे नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी पर हालिया रिपोर्ट यह भी कहता है कि भारत में केवल 27 प्रतिषत औरतें या तो काम कर रही हैं या सक्रिय रूप से नौकरी तलाष रही हैं। देखा जाय तो भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है बावजूद इसके नौकरियों में महिलाओं की कम हिस्सेदारी चिंतनीय है। रिपोर्ट तो यह भी परिलक्षित करती है कि पिछले एक दषक के दौरान इस मामले में स्थिति और खराब हुई है। दो टूक यह भी है कि दुनिया भर में कामकाज की जगहों पर बेहतर लैंगिक संतुलन बनाने पर उतना जोर नहीं था जितना बीते कुछ वर्शों से देखने को मिल रहा है। भारत के श्रम बाजार में महिलाओं की हिस्सेदारी अभी भी बहुत कम है रिपोर्ट यह दर्षाती है कि डिग्री हासिल करने वाली 65 फीसदी से अधिक महिलाएं काम नहीं कर रही हैं जबकि बांग्लादेष में यह आंकड़ा 41 प्रतिषत है तथा इंडोनेषिया तथा ब्राजील में 25 प्रतिषत है। साल 2007 के बाद भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या घटने के संकेत मिले हैं मुख्यतः ग्रामीण इलाकों में। आंकड़ों की समीक्षा यह इषारा करती है कि 34 प्रतिषत काॅलेज ग्रेजुएट महिलाएं ही कामकाजी हैं। जाहिर है आर्थिक विकास को दहाई रखने के इरादे तब तक अधूरे रहेंगे जब तक तरक्की में महिलाओं की भागीदारी को लेकर संजीदगी नहीं बढ़ेगी। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पछाड़ दिया है और इस सच से किसी को गुरेज नहीं होगा कि परम्परागत षिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है अब विकट स्थिति यह है कि नारी से भरी आधी दुनिया मुख्यतः भारत को षैक्षणिक मुख्य धारा में पूरी कूबत के साथ कैसे जोड़ा जाय। बदलती स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा चोट स्त्री षिक्षा पर हुआ है। जाहिर है यदि तकनीकी और रोजगारपरक षिक्षा से महिलायें दूर रहेंगी तो न केवल उनमें बेरोजगारी व्याप्त होगी बल्कि एक बड़ा मानव श्रम का लाभ लेने से भी भारत वंचित हो जायेगा। उत्तर प्रदेष के राज्यपाल राम नाईक ने भी महिला सषक्तिकरण को जीडीपी के लिए महत्वपूर्ण बताया था। आंकड़ा तो यह भी बताता है कि यदि देष की 70 फीसदी महिला श्रम का इस्तेमाल कर दिया जाय तो जीडीपी में साढे चार प्रतिषत की वृद्धि हो सकती है। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी एवं व्हाइट हाऊस में सलाहकार इवांका ट्रंप ने हाल ही में भारत की उपलब्धियों की तारीफ करते हुए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत बतायी। कहा तो यह भी गया कि ऐसे कदम से भारत की अर्थव्यवस्था तीन साल में 150 अरब डाॅलर से ज्यादा बढ़ सकती है और महिला-पुरूश उद्यमियों की भागीदारी बराबर होने पर जीडीपी 2 प्रतिषत से ज्यादा बढ़ सकती है। अगर सब कुछ सामान्य रहे तो आगामी 2025 तक भारत की अनुमानित जीडीपी दोगुनी हो सकती है। वैसे देखा जाय तो सभी क्षेत्रों में भारत की जीडीपी में महिलाओं की भागीदारी सबसे कम है। भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान मात्र 17 फीसदी है जबकि चीन 41 फीसदी, दक्षिण अमेरिका में 33 फीसदी इतना ही नहीं वैष्विक औसत करीब 37 फीसदी की तुलना में यह आधे से भी कम है। उक्त से यह स्पश्ट है कि भारत में महिला श्रम का भरपूर उपयोग नहीं हो पा रहा षायद यही वजह भी है कि तमाम कोषिषों के बावजूद मनचाहा आर्थिक विकास नहीं मिल रहा।
यह तथ्य निविर्वाद रूप से सत्य है कि समाज में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है। महिलाओं की साक्षरता, षिक्षा, उद्यमिता से लेकर कौषल विकास एवं नियोजन आदि में भूमिका चैगुनी की जा सकती है। झकझोरने वाला सवाल यह है कि क्या कभी किसी ने इस बात पर गौर किया कि दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था भारत के हालात में चमत्कारिक परिवर्तन क्यों नहीं हो रहे हैं। इसका उत्तर मात्र एक है महिलाओं की प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी की कमी का होना। वैसे देखा जाय तो महिला सषक्तिकरण को लेकर दषकों से कार्यक्रम जारी है और परिवर्तन भी आया है बावजूद इसके कई कमियां व्याप्त हैं पर एक फर्क बीते कुछ वर्शों से दिख रहा है कि लड़कियों ने षिक्षा और रोजगार के मामले में स्वयं को स्थापित करने की होड़ में तो दिख रही है। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में टाॅपर ही नहीं इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेष परीक्षाओं में अव्वल आ रही हैं। थोड़ी देर के लिये यह मान भी लिया जाय कि परिवर्तन सार्थक है पर इसकी समझ सब जगह पर व्याप्त नहीं है। आज भी तमाम स्थानों पर नारी के रात में निकलने पर पाबंदी है। पराये मर्दों से कम व्यवहार रखने और मर्यादा तथा छवि की चिंता हर क्षण उनमें बनी रहती है। भारतीय संस्कृति और संस्कार को ढोने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। परिवार के लिए त्याग में भी उन्हीं को आगे रखा जाता है। इतना ही नहीं पति को परमेष्वर मानने की व्यवस्था से भी वे बाहर नहीं निकल पायी है। भले ही उच्च षिक्षा प्राप्त कर लें, सरकारी, गैरसरकारी नौकरी कर लें पर गृहणी की भूमिका से वे मुक्त नहीं है साथ ही घरेलू हिंसा से भी ये जकड़ी हुई हैं। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि हर दूसरी महिला इस हिंसा का कभी न कभी षिकार हुई है। साक्षरता से लेकर सक्षमता तक, षोध से लेकर बोध तक और खेल के मैदान से लेकर एवरेस्ट की ऊँचाई ही नहीं अंतरिक्ष की दौड़ लगाने वाली महिलायें बेषुमार देखी जा सकती हैं। विष्व बैंक का यह कथन कि भारत की तरक्की की चाबी महिलाओं के हाथ में है कहीं से गैर मुनासिब बात प्रतीत नहीं होती। 
महिला सषक्तिकरण के मामले में कई खट्टे-मीठे अनुभव भी हैं देष के भीतर 48 फीसदी से अधिक महिलायें हैं जबकि मौजूदा 16वीं लोकसभा में 543 सदस्यों में मात्र 61 महिलायें ही हैं। यह तस्वीर भी कहीं न कहीं देष की तरक्की को कमजोर करने वाली दिखती है। गौरतलब है कि 15वीं लोकसभा में 58 और 14वीं लोकसभा में मात्र 45 महिलायें ही लोकसभा में पहुंच पायी थीं जबकि 33 फीसदी आरक्षण को लेकर राजनीतिक इच्छाषक्ति दिखायी गयी पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। देष में प्रधानमंत्री, राश्ट्रपति तथा स्पीकर समेत भारी-भरकम संवैधानिक पदों पर महिलाएं नियुक्त हो चुकी हैं। मौजूदा समय में भी सुमित्रा महाजन स्पीकर हैं। गौरतलब है कि दुनिया के कई देषों में महिलाओं को आरक्षण की व्यवस्था संविधान में दी गयी है पर हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है। अर्जेन्टीना में 30 फीसदी, अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देषों में क्रमषः 27 और 30 फीसदी आरक्षण मिला है। पड़ोसी बांग्लादेष भी इस मामले में पीछे नहीं है। पष्चिमी देष डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन समेत कई यूरोपीय देष इसमें षामिल देखे जा सकते हैं। संदर्भ निहित व्याख्या यह भी है कि कौन सा काम महिलाएं नहीं कर सकती। आज हर तरह की नौकरी और कामकाज के साथ महिलाएं पुरानी धारणा को तोड़ नई पीढ़ी के लिए मिसाल बन रही हैं। जाहिर है वैष्विक परिदृष्य में यदि भारत को अपनी ताकत सामाजिक और आर्थिक तौर पर और बुलन्द करनी है तो सकल घरेलू उत्पाद से लेकर श्रम बाजार तक में इनकी भूमिका को महत्व देना होगा। 21वीं सदी के दूसरे दषक में बड़े बदलाव और विकास को सतत् करना साथ ही समावेषी धारणा से युक्त होना है तो तरक्की की चाबी महिलाओं की हर क्षेत्र में हिस्सेदारी बढ़ानी ही होगी। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, March 5, 2018

राजनीतिक क्षितिज से ओझल वामपंथ

जब शक्ति को वैधानिकता मिलती है तो यह सत्ता में बदल जाती है। यही एक बड़ी वजह रही है कि राजनीतिक दल षक्ति प्रदर्षन के मामले में न पीछे हटते हैं और न ही किसी अन्य के डटे रहने को बर्दाष्त करते हैं। दरअसल राजनीति के अपने स्कूल होते हैं जिसका अभिप्राय विचारधारा से है और इन्हीं के चलते राजनीतिक संगठनों का अस्तित्व कायम रहता है। भारत में कांग्रेस, भाजपा सहित आधा दर्जन राश्ट्रीय दल हैं जबकि अनेकों राज्य स्तरीय और सैकड़ों की मात्रा में गैर मान्यता प्राप्त दल उपलब्ध हैं जो किसी-न-किसी विचारधारा के पक्षधर होने की बात करते हैं। भारतीय राजनीति में वैचारिक संक्रमण भी खूब आते रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखा जाय तो कई दल स्वतंत्रता से पूर्व के हैं तो कई बाद के। इन्हीं में वामपंथ भी षामिल हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन के उन दिनों में कमोबेष कांग्रेस के समकालीन थी। इतिहास में इस बात का भी लक्षण उपलब्ध है कि वामपंथ और कांग्रेस उस काल में भी एक-दूसरे के विरोध में थे। यह समय का फेर ही है कि वामपंथ मत और विचार की अस्वीकार्यता के चलते आज भारत की राजनीति में कहीं ओझल सा हो गया है। पष्चिम बंगाल से समाप्त हो चुके वामपंथ अब त्रिपुरा भी खो चुके हैं। पूरे भारतीय मानचित्र में केवल केरल में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। रोचक यह भी है कि वामपंथ को सियासी क्षितिज से ओझल करने में पहले कांग्रेस और अब भाजपा को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं मौजूदा भाजपा के प्रवाहषील राजनीति में तो कांग्रेस भी तिनका-तिनका हो गयी है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 29 राज्यों में मात्र 4 में ही कांग्रेस सिमट कर रह गयी जबकि भाजपा 21 राज्यों के साथ मानो परचम लहरा रही हो। 
25 बरस पुराने त्रिपुरा में वामपंथ सरकार को भाजपा ने जिस तर्ज पर ध्वस्त किया उससे भी साफ है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं है बल्कि पूर्वोत्तर की भी है। हालांकि असम पहले ही भाजपा जीत चुकी है। नागालैण्ड में बड़ी जीत और मेघालय में मात्र दो सीट जीतने के बावजूद गठबंधन की सरकार का निरूपण करने में मिली सफलता सियासी जोड़-तोड़ में भी इसे अव्वल बनाये हुए है जबकि यहां 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। गौरतलब है इसके पहले मणिपुर और गोवा के चुनावी नतीजों में सबसे अधिक स्थान पाने वाली कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही है। कांग्रेस का राजनीतिक तौर पर लगातार जमींदोज होना पार्टी विषेश के लिए चिंता का सबब होना लाज़मी है साथ ही वामपंथ का देष की राजनीति में मिटने की ओर होना वाकई में नये तरीके के विमर्ष को जन्म देने के बराबर है। वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोच, विचार और जन उन्मुख अवधारणा क्या है इसे खोजना वाकई में मषक्कत वाला काज है। इनकी अपनी एक वैष्विक स्थिति रही है परन्तु आम जनमानस में इनकी स्वीकार्यता लगभग खत्म हो चुकी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में वामपंथ एक विरोध की विचारधारा मानी जाती थी और इसकी लोकप्रियता में इन दिनों कहीं अधिक गिरावट देखी जा सकती है। एक दषक पहले वर्श 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों वामदल में सीपीआई (एम) और सीपीआई की लोकसभा में सीटों की संख्या क्रमषः 43 और 10 थी जबकि कांग्रेस 145 और भाजपा 138 स्थान पर थी। ऐसे में वामपंथ ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया। इतिहास में यह पहली घटना है कि कांग्रेस को कोसने वाले वामदल ने कांग्रेस को ही समर्थन दे दिया। भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में वामपंथियों ने गांधी को खलनायक और जिन्ना को नायक की उपाधि दी थी। यह कथन वामपंथ के कांग्रेसी तल्खी का भी बेहतर नमूना है। 1962 के चीनी आक्रमण को लेकर भी वामदल एकमत नहीं था। ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोधी और कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रेरित दल हैं जिसकी जड़ सरहद पार है। ऐसे में कांग्रेस को इनके द्वारा दिया जाने वाला समर्थन एक बेमेल समझौता था। 
सवाल यह है कि क्या वामदल भारतीय मानसिकता को समझने-बूझने में विफल हुआ है? पिछले तीन चुनावों से इनकी स्थिति को परखा जाय तो 14वीं लोकसभा में जहां 53 सीटों के साथ इनकी हैसियत सरकार के समर्थन के लायक थी वहीं 15वीं लोकसभा में केवल 20 पर सिमट गयी जबकि वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में तो मात्र 10 का ही आंकड़ा रहा। यह संख्या सीपीआई (एम) और सीपीआई को जोड़कर बतायी जा रही है। साल 2016 के पष्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से दषकों सत्ता पर रहने वाला वामपंथ यहां से भी बुरी तरह उखड़ गयी। ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के 211 सीट के मुकाबले सीपीआई मात्र 1 और सीपीआई (एम) 26 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी। यहां त्रिपुरा से भी खराब स्थिति देखी जा सकती है। त्रिपुरा में माणिक सरकार 60 सीटों के मुकाबले 18 पर सिमट गयी जबकि भाजपा दो-तिहाई बहुमत के साथ इतिहास ही दर्ज कर दिया और कांग्रेस न तो त्रिपुरा में और न ही नागालैण्ड में खाता खोल पायी। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को देखते हुए क्या यह माना जा सकता है कि वामपंथ देष से पूरी तरह खत्म होने की ओर है। जिन क्षेत्रों में इनकी स्वीकार्यता थी वहां इनकी बड़ी हार कुछ ऐसे ही इषारे कर रही है। पहली वामपंथी सरकार 60 के दषक में केरल में आयी थी और इस समय केरल तक ही सिमट कर रही गयी है।
वामपंथी विचारधारा का इस अवस्था में पहुंचने के पीछे एक कारण इनके पारंपरिक तौर-तरीके से जनता का ऊबना भी है, दूसरा यह कि भाजपा नये क्लेवर और फ्लेवर की राजनीति करती दिख रही है। कहा जाय तो किसी जमाने में जिस राजनीति के लिए कांग्रेस जानी जाती थी आज उसका स्थान भाजपा ने ले लिया है। जनमानस को भी नई और सही राह चाहिए क्योंकि अब आस्थावादी दौर जा चुका है। एक ही विचारधारा की चाबुक से जागरूक जनमत को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता। षायद यही कारण है कि वामपंथ का ही नहीं कांग्रेस का तिलिस्म भी भरभरा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या जनमानस का वामपंथ पर से भरोसा उठ गया है? क्या नई विचारधारा इनकी रूढ़िवादी सोच पर भारी पड़ रही है? वास्तव में देखा जाय तो विचारधारा की भूख किसे नहीं है इसके बावजूद वामपंथी अपने अस्तित्व के लिए इसमें संघर्श करते हुए भी तो नहीं दिख रहे हैं। मीडिया के चुनावी बहस हो, चुनाव हो, सरकार की आलोचना या उस पर दबाव ही क्यों न हो वामपंथ के पोलित ब्यूरो का संदेष और संचार दोनों नदारद हैं। ऐसे में इनमें मनोवैज्ञानिक टूटन भी देखी जा सकती है। एक कमी वामपंथियों में यह भी रही है कि इन्होंने देष के अन्दर देषीय ताकत बढ़ाने के बजाय वर्ग भेद में अधिक समय व्यतीत किया। 1962 के चीन आक्रमण के चलते वैचारिक संघर्श पनपे। परिणामस्वरूप दो वर्श बाद इनके दो गुट बन गये जो बाकायदा आज भी कायम है। रोचक बात यह भी है कि इसके बावजूद भी इनके विचारों का भारत पर कोई खास प्रभाव नहीं रहा बल्कि सोवियत प्रभावित नेहरूवाद इन पर हमेषा भारी पड़ा। एक असलियत यह भी है कि वामदल क्लास की विसंगतियों से पैदा हुआ एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन है जबकि भारतीय राजनीति में आज भी यह पष्चिमी अवधारणा मुखर नहीं हो पायी है। असल में भारत की राजनीति तो कास्ट वाली अवधारणा पर भी काफी हद तक टिकती है जो वामपंथी वैचारिक सरोकारों को कहीं भी टिकने नहीं देता। हालांकि जिस तर्ज पर पूर्वोत्तर में मुख्यतः त्रिपुरा में भाजपा का प्रदर्षन रहा है उससे तो लगता है कि यहां विकास फैक्टर महत्वपूर्ण रहा है और वामपंथी इस मामले में भी विफल करार दिये जाते रहे हैं। ऐसे में राजनीति से वाम का ओझल होना बाखूबी समझा जा सकता है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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