Tuesday, March 26, 2019

72 हज़ार से 272 पर मास्टर स्ट्रोक

आर्थिक विश्लेषक और लेखक षंकर अय्यर ने अपनी पुस्तक आधार - अ बायोमैट्रिक हिस्ट्री आॅफ इण्डियास 12-डिजिट रिवाॅल्यूषन में लिखा है कि राहुल गांधी ने जब ‘बोल्सा फैमिलिया’ जैसी कल्याणकारी योजनाओं के बारे में सुना तो वे उनसे काफी प्रभावित थे। स्पश्ट है कि कांग्रेस अध्यक्ष के मन में न्यूनतम आय गारंटी योजना कहां से आयी। दरअसल बोल्सा फैमिलिया ब्राजील की एक स्कीम है जो 2003 में गरीब परिवारों को भत्ता देने के लिए षुरू किया गया था। इससे ब्राजील की गरीबी कम होने की बात कही गयी है। इस योजना के कारण ब्राजील के राश्ट्रपति रहे लूला डिसिल्वा को खूब लोकप्रियता भी मिली थी। इतना ही नहीं पुस्तक में यह भी जिक्र है कि दक्षिण अमेरिका के कई देषों जैसे मैक्सिको और कोलम्बिया में चल रहे कैष ट्रांसफर योजना को भी देख कर राहुल गांधी को लगा था कि ऐसी योजनाएं भारत में लागू हो सकती हैं। फिलहाल सत्ता को साधने की फिराक में राहुल गांधी ने बीते 25 मार्च को न्यूनतम आय गारंटी योजना अर्थात् न्याय को लेकर एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला जिससे सभी हैरत में पड़ गये। फिलहाल न्यूनतम आय गारंटी योजना के अन्तर्गत सालाना 72 हजार रूपये, 5 करोड़ परिवार (25 करोड़ लोग) को देने की घोशणा करके राहुल गांधी ने देष में एक नया आर्थिक विमर्ष खड़ा कर दिया। इस योजना का लाभ 12 हजार रूपए प्रतिमाह से कम कमाने वाले को ही मिलेगा। तथ्य यह भी है कि यदि किसी की आय 10 हजार रूपए है तो उसे 2 हजार रूपए प्रतिमाह मिलेगा और यदि आय 6 हजार रूपए प्रतिमाह है तो उसे 6 हजार और दिये जायेंगे जो अधिकतम देय राषि होगी। खास यह भी है कि यदि किसी की आय का कोई जरिया नहीं है तो उसे सालाना 72 हजार रूपए मिलेंगे। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इस योजना के प्रहार पर वार करते हुए इसे गरीबों के साथ छलावा बताया है। हालांकि इन दिनों चुनावी मुद्दे जोर पकड़े हुए हैं इस लिहाज़ से लोक-लुभावन राजनीति भी सम्भव है। सवाल है कि क्या योजना विषेश के माध्यम से मतदाताओं का मन राहुल गांधी अपने पक्ष में कर पायेंगे। 
गरीबी को लेकर इस योजना से उम्मीद जगती तो है पर घोशणा कागजी न रह जाये। दुनिया में यह सबसे अनोखी योजना कहलायेगी। पड़ताल बताती है कि विदेषों में इसे लेकर कईयों ने प्रयोग किया है। जर्मनी जैसे देष में लम्बे विचार के बाद इसे खारिज कर दिया गया। फिनलैण्ड में बेरोज़गारों को प्रतिमाह देय निर्धारित राषि की घोशणा की गयी लेकिन वह एक साल में ही बंद हो गयी। स्विट्जरलैण्ड और हंगरी में कुछ इसी प्रकार की योजना बनायी गयी जिस पर वहां राजनीतिक दलों ने मुद्दा बनाया हालांकि जनता ने ही उसे खारिज कर दिया। अमेरिका में परमानेंट फण्ड डिविडंट के अंतर्गत प्रत्येक व्यस्क को 2 हजार डाॅलर सालाना फिलहाल दिया जाता है। न्यूनतम आय योजना की घोशणा भले ही राहुल गांधी ने किया हो पर मोदी सरकार ने इसे पहली बार यूनिवर्सल बेसिक इनकम नाम से 2016-2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में परिकल्पना की थी। जिसे लेकर कई पहलुओं पर विचार हुआ पर लागू नहीं कर पाया गया। हकीकत यह है कि इस तरह की योजनाएं सृजित तो कर ली जाती हैं पर तमाम पहलुओं पर जब आर्थिक सोच विकसित होती है तो चुनावी जुमले सिद्ध हो जाते हैं। भारत में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा जब समाज में गरीबी का पूर्णतः आभाव रहा हो। रही बात गरीबी उन्मूलन की तो इतिहास के पन्नों को उलटें तो यह चुनौती बरसों से आंख-मिचोली खेलती रही है। पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974-79) गरीबी उन्मूलन की दिषा में देष में उठाया गया बड़ा दीर्घकालिक कार्यक्रम था तब दौर कांग्रेसी सरकार का ही था। 1989 की लकड़ावाला कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो स्पश्ट था कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और षहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी जुटाने वाला गरीब नहीं होगा। तब उस समय भारत की गरीबी 36 फीसदी से अधिक हुआ करती थी। एक दषक बाद यह आंकड़ा 26 फीसद हो गया। तत्पष्चात् राजनीतिक नोंकझोंक के बीच आंकड़ा 21 प्रतिषत कर दिया गया। विष्व बैंक 2015 की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि 2030 तक दुनिया से ही गरीबी का सफाया हो सकता है। रिपोर्ट में यह भी इंगित था कि भारत में गरीबी कम हो रही है। 
राहुल गांधी की योजना से सम्भव है कि अगली सरकार यदि उनकी बनती है तो भारत में गरीबी नहीं रहेगी। नीति आयोग के वाईस चेयरमैन का कहना है कि इस चुनावी घोशणा पर यदि अमल होता है तो काम नहीं करने के लिए लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। गौरतलब है कि फरवरी 2006 में डाॅ0 मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गांव की गरीबी दूर करने के लिए मनरेगा योजना लाया गया था। इसके पहले 1991 के उदारीकरण के बाद से 8वीं पंचवर्शीय (1992-97) समावेषी विकास को प्रमुखता दी गयी। भारत में गरीबी बहुत व्यापक है। गरीबी को लेकर राजनीति और विवाद दोनों हमेषा यहां रहे हैं। आरोप तो यह भी रहा है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किये गये आंकड़े भ्रामक रहे हैं। माना जाता है कि आयोग का मकसद गरीबों की संख्या को घटाना है जाहिर है ऐसा करने से कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फायदा देना पड़ता है। हालांकि अब यह आयोग ही अस्तित्व में नहीं है। विष्व बैंक ने पहले ही आगाह किया था कि मोदी सरकार के लिए गरीबी बड़ी चुनौती रहेगी। सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने गरीबी के बोझ को कम करने की कई योजनाएं चलायी। प्रधानमंत्री जनधन योजना, बीमा योजना, कृशि योजनाएं, स्वास्थ योजना व कई ग्रामीण योजनाएं सहित दर्जनों कार्यक्रम देने का प्रयास किया पर सफलता दर क्या है यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। कांग्रेस यदि सत्ता में आती है तो देष के 5 करोड़ गरीब परिवारों की आमदनी 72 हजार करोड़ रूपए सालाना हो जायेगी। स्पश्ट है कि प्रतिमाह 6 हजार रूपए की कमाई इन परिवारों की निष्चित रूप से होने लगेगी पर इससे आर्थिक बोझ कहां, कितना, कैसे पड़ेगा और वह कैसे संभलेगा इस पर कोई विस्तृत ब्यौरा राहुल गांधी ने नहीं दिया है। इस हिसाब से यदि उक्त राषि को अंकगणितीय दृश्टि से देखें तो यह कुल 3 लाख 60 हजार करोड़ रूपए होता है।  बीते 1 फरवरी को जो बजट पेष किया गया था वह करीब 28 लाख करोड़ रूपए का था जिसकी तुलना में यह भारी-भरकम राषि कही जा सकती है। मौजूदा समय में राजकोशीय घाटा 7 लाख करोड़ रूपए से अधिक का है। जाहिर है कि सभी योजनाओं के साथ न्यूनतम आय गारंटी योजना को धरातल पर उतारा जायेगा तो यह राजकोशीय घाटा साढ़े दस लाख करोड़ रूपए से अधिक का हो जायेगा। माना यदि राजकोशीय घाटा यथावत रहता है तो सवाल है कि इतने बड़ी रकम का प्रबंध कैसे होगा। या फिर पहले से चल रही योजनाओं की व्यापक स्तर पर कटौती होगी।
फिलहाल लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले कांग्रेस ने बड़ा चुनावी वायदा कर दिया है पर विषेशज्ञ मानते हैं कि यह योजना अमल में आती है तो अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार देगी। यह देष के राजकोशीय संतुलन को ध्वस्त कर देगा और महंगायी बेकाबू हो जायेगी। आरबीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार राजकोशीय घाटे में एक फीसद की वृद्धि से मुद्रास्फीति में आधा फीसद की बढ़ोत्तरी होती है। स्थिति जोखिम से भरी हुई है पर राहुल गांधी केवल चुनाव जीतने के लिए ऐसा क्यों करेंगे। राजस्थान, मध्यप्रदेष और छत्तीसगढ़ में किसानों के कर्ज माफी के वायदे के चलते कांग्रेस ने सत्ता हथिया ली थी। अब न्यूनतम आय योजना को सामने रख कर कांग्रेस बड़ी चाल चल चुकी है। भले ही राहुल गांधी परिपक्व न हों पर कांग्रेस को सत्ता चलाने का 5 दषक से अधिक का अनुभव है। वायदे पर कितने खरे उतरेंगे पता नहीं पर इस मास्टर स्ट्रोक ने विरोधियों को बेचैन जरूर कर दिया है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, March 19, 2019

हर किसी ने बोया किसानों की आँखों मे सपना

जब 2016 में बजट पेष करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली ने यह कहा था कि मैं किसानों के प्रति आभारी हूं कि वे हमारे देष की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है, तब यह आषा जगी थी कि सरकार किसानों के मामले में दो कदम आगे रहेगी पर रेडियो में मन की बात से लेकर किसानों के मन जीतने तक की सारी कवायद के बावजूद किसानों के हालात बेपटरी है। हालांकि चुनावी दांव चलते हुए 2019 के बजट में प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों को प्रतिमाह 500 रूपये देने का वायदा किया। जो साल भर में कुल 6 हजार रूपए तीन बार में दिये जायेंगे जिसकी पहली किस्त 2 हजार रूपए की फिलहाल जारी की जा चुकी है। इस बार बजट कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूश गोयल ने पेष किया था। 2016 में ही अरूण जेटली ने यह भी कहा था कि किसानों को आय सुरक्षा देनी होगी षायद साल भर में 6 हजार रूपया किसानों को देना उसी का नतीजा है। पर इसमें कोई षक नहीं कि यह रकम बहुत मामूली है मगर षुरूआत सराहनीय है। इसके अलावा भी इस बार के बजट में किसानों को बहुत कुछ राहत देने की बात रही है जो खेती-किसानी और कृशिउन्मुख कही जा सकती है। बावजूद इसके लगातार आत्महत्या की आती खबरे इस यकीन को भी नुकसान पहुंचाने का काम किया। कृशि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को देखें तो आर्थिक विकास दर को लेकर इनमें व्यापक अंतर है और सबसे खराब विकास दर वाली कृशि में देष की आधी आबादी फंसी है। कृशि विकास के मामले में पिछले 70 सालों से पूरा प्रयास जारी है परन्तु किसानों की किस्मत मानो टस से मस होने का नाम नहीं ले रही। प्रत्येक सेक्टर के विकास के अपने माॅडल होते हैं। जाहिर है कृशि को जब तक वाजिब माॅडल नहीं मिलेगा तब तक यह कराहती रहेगी बेषक इस पर करोड़ों क्यों न लुटा दिये जाय। सुषासन की भी यही राय है कि ऐसा न्याय जो समय से हो, सार्थक हो और समुचित के साथ बार-बार हो। कृशि और किसानों के मामले में ये तमाम न्याय अधूरे ही सिद्ध हुए हैं। यदि सरकार को एक सामाजिक कार्यकत्र्ता के प्रारूप में भी ढ़ाल के देखें तो यहां भी मान्य परिभाशा यही कहती है कि कृशि और किसान की ऐसी मदद की जाय कि वे अपनी सहायता स्वयं करने लायक बन सके। 
15 अगस्त, 2017 को लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिए जिस रास्ते का उल्लेख किया वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल है। देखा जाय तो तकरीबन इसी प्रकार के आष्वासन किसानों को पिछले सात दषकों से मिलता रहा है पर जमीनी हकीकत इससे अलग होने के चलते विकास का वह चित्र इनके हिस्से नहीं आया जिसकी ताक में ये आज भी हैं। आजादी से लेकर अब तक कृशि के मामले में पहली पंचवर्शीय योजना (1952-57) को छोड़ दिया जाय तो इतनी बड़ी आबादी वाले क्षेत्र को बजट से ही कल्याण आबंटित किया जाता रहा। देष में बनने वाली कृशि नीतियां भी इनकी बदकिस्मती को नहीं बदल पायी। गौरतलब है कि जहां आजादी के वक्त 80 प्रतिषत से अधिक लोग कृशि क्षेत्र में लगे थे जो मौजूदा समय में 57 फीसदी हैं और इनमें भी आधे से अधिक वे लोग हैं जो मजबूरन दूसरा विकल्प न होने के चलते किसानी कर रहे हैं। गरीबी मिटाने के नाम पर उपाय कई आये पर किसान, गांव और कृशि में बदलाव कमजोर बना रहा नतीजन अन्नदाताओं ने लाखों की तादाद में आत्महत्या कर ली। वर्श 2004-05 से अब तक देष में महज दो करोड़ के आसपास रोजगार का सृजन हुआ जबकि इस दौरान 16 करोड़ से अधिक रोजगार के अवसर पैदा होने चाहिए थे। कृशि के क्षेत्र में तो इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। सबका साथ, सबका विकास नारा अच्छा है पर सुषासन से यह भी अछूता है। किसानों के मामले में यह ष्लोगन चिढ़ाने वाला ही सिद्ध हुआ है।
अर्थषास्त्रियों का मानना है कि कृशि क्षेत्र में लगे करोड़ों लोगों की आय में यदि इजाफा हो जाय तो किसान और कृशि दोनों की दषा बदल सकती है। मौजूदा सरकार वर्श 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रही है पर यह नहीं पता कि पहले कितनी थी। हैरान करने वाली बात यह है कि 70 वर्शों के बाद भी किसान की औसत आय 20 हजार रूपये आंकी गयी जो 1700 रूपये प्रति माह से भी कम बैठती है। इतने कम पैसे में परिवार का भरण-पोशण करना कैसे सम्भव है। इसके अलावा कर्ज की अदायगी भी करनी है, बच्चों को भी पढ़ाना है और विवाह-षादी के खर्च भी उठाने हैं। इन्हीं तमाम विवषताओं के चलते आत्महत्या को भी बल मिला है। अब सवाल है कि दोश किसका है किसान का या फिर षासन का। राजनीतिक तबका किसानों से वोट ऐंठने में लगी रही जबकि विकास देने के मामले में सभी फिसड्डी सिद्ध हुए हैं। कौन सी तकनीक अपनाई जाय कि किसानों का भला हो। खाद, पानी, बिजली और बीज ये खेती के चार आधार हैं। अभी किसानों का श्रम इससे अछूता है। यदि इसे जोड़ दिया जाय तो मुट्ठी भर अनाज की कीमत कई गुना हो जायगी। इन दिनों स्वदेषी खेती पर जोर है। जैविक खेती को अपनाकर अच्छे मुनाफे की बात हो रही है जिसे देखते हुए देष का एक मात्र जैविक राज्य सिक्किम एक माॅडल के रूप में उभरा है। गौरतलब है कि रासायनिक खेती से छुटकारा भी चाहिए और मुनाफा भी जो सरकार के बिना बेहतर सुषासन के सम्भव ही नहीं है।
अभी तक किसानों के कल्याण के जो वायदे, योजनायें और राहते दी जाती रही वे काफी कुछ वोट बैंक के नजरिये से ही रहा है। देष के नीति आयोग ने खुलकर पहली बार कहा कि कृशि में निवेष करने से देष की गरीबी दूर करने में मदद मिल सकती है और गांव से षहरों की ओर पलायन पर भी लगाम लग सकती है। सवाल दो हैं पहला यह कि क्या वाकई में सरकार कृशि और किसान को सषक्त बनाने की ईमानदार इच्छा रखती है दूसरा क्या किसान कभी दो कदम आगे की जिन्दगी का लुत्फ ले पायेगे। सरकार की कोषिषें बेषक ईमानदारी से भरी हों पर हकीकत जो दिखता है उसे लेकर मन पूरी तरह इसके लिए तैयार नहीं है। जहां तक सवाल किसानों के सुलझी जिन्दगी का है जब तक कृशि उद्यम का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायेगी तब तक तो षायद मामला कोरा ही रहेगा। दुनिया भर में कृशि क्षेत्र में निवेष को गुणात्मक बनाने का प्रयास जारी है और यह भी मान्यता मुखर हुई है कि इसके बगैर गरीबी मिटाना सम्भव नहीं है। दो टूक यह भी है कि भारत में प्रत्येक सरकारों ने कृशि और किसानों की उन्नति को लेकर बेषक समय-समय पर कदम उठाये हैं परन्तु मूल समस्याओं और विसंगतियों पर षायद ही करारी चोट की हो। 70 के दषक में हरित क्रान्ति किसानों की किस्मत पलटने की एक कोषिष थी पर यह भी सीमित ही रही। 21वीं सदी के इस दूसरे दषक में मौजूदा अर्थव्यवस्था सभी के लिए फायदेमंद है परन्तु किसानी की हालत देखकर लगता है कि 1991 का उदारीकरण और 1992 का समावेषी विकास वाली आठवीं पंचवर्शीय योजना का पूरा लाभ इन्हें नहीं मिला है। मेक इन इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया तथा क्लीन इण्डिया समेत न्यू इण्डिया का परिमाप भारत में परोसा जा चुका है। षहरों को भी स्मार्ट बनाने की कवायद चल रही है पर सवाल वही है कि गांव में रची-बसी कृशि और किसान की किस्मत कब नई करवट लेगी और कब ये भी स्मार्ट हो सकेंगे या फिर इनकी आंखों में हमेषा सपने ही बोये जाते रहेंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Monday, March 18, 2019

चुनावी समर मे लोकपाल की नियुक्ति

जिस लोकपाल के लिए 1968 से कानून बनाने का प्रयास जारी था जब वह कई बार संसद के पटल पर कई संषोधनों से गुजरता हुआ साल 2013 में अधिनियम का रूप लिया और वर्श 2014 में प्रभावी हो गया तब भी नियुक्ति पांच साल तक नहीं हो पायी। मोदी सरकार ने चुनाव के मुहाने पर लोकपाल नियुक्ति का रास्ता लगभग साफ कर दिया है। जल्द ही देष को लोकपाल मिलने वाला है। इसके लिए चयन समिति सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीष पिनाकी चन्द घोश पर सहमत होते दिख रही है। गौरतलब है कि लोकपाल की चयन समिति ने लोकपाल अध्यक्ष और 8 सदस्यों के नाम का चयन भी सम्भवतः कर लिया हैं। हालांकि नाम की औपचारिक घोशणा होना अभी बाकी है। फिलहाल जस्टिस घोश वर्तमान में राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं। देखा जाय तो भारत में लोकपाल की आवष्यकता तब से है जब से लोक कल्याणकारी सत्ता है। दुनिया में सबसे पहले 1809 में यह स्वीडन में आया। स्वीडन के बाद धीरे-धीरे आॅस्ट्रिया, डेनमार्क तथा अन्य स्केण्डीनेवियन देषों और फिर अफ्रीका, एषिया, आॅस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं यूरोप के कई देषों में भी ‘ओम्बुड्समैन’ के कार्यालय स्थापित हुए। फिनलैण्ड में वर्श 1919 में, डेनमार्क में 1954 मे, नाॅर्वे में व ब्रिटेन में 1967 में भ्रश्टाचार सामप्त करने के उद्देष्य से ओम्बुड्समैन की स्थापना की गई। अब तक 135 से अधिक देषों में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति की जा चुकी है। सब कुछ ठीक - ठाक रहा तो इस साल भारत भी इस श्रेणी में षुमार हो जायेगा।
बीते 5 वर्शों से लोकपाल की नियुक्ति का पेंच अटका रहा। इसकी नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार तल्ख हुई। जुलाई 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसकी नियुक्ति को लेकर सरकार को तल्ख लहजे में कहा था कि 10 दिन के भीतर देष में लोकपाल की नियुक्ति की समय सीमा तय कर उसे सूचित करें। तब सरकार की ओर से पेष महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने अदालत को बताया कि लोकपाल चयन समिति की षीघ्र ही बैठक होगी। असल में लोकपाल अधिनियम 2013 की धारा 4(1) के अनुसार लोकपाल अध्यक्ष और सदस्य की नियुक्ति राश्ट्रपति जिस समिति की संस्तुति पर करेंगे उसमें प्रधानमंत्री, अध्यक्ष जबकि स्पीकर, लोकसभा में विपक्षी दल के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीष या नामित उच्चत्तम न्यायालय का कोई न्यायाधीष व योग्य विधि षास्त्री का होना आवष्यक है। 2014 के सोलहवीं लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्षी नेता न होने के कारण मामला खटाई में रहा और इसी का बहाना बनाकर सरकार हीला-हवाली करती रही। जाहिर है चुनाव की हालिया स्थिति को देखते हुए सरकार एक अहम फैसला लेने की ओर है। कह सकते हैं कि मोदी सरकार ने ऐन वक्त पर विपक्ष से मुद्दा छीन लिया है। हालांकि विपक्ष इसकी भी काट खोजते हुए अब लोकपाल नियुक्ति देर से करने के मुद्दे को गरम कर सकती है। फिलहाल अभी भी मान्यता प्राप्त विपक्ष नहीं है। बावजूद इसके लोकपाल की नियुक्ति सम्भव होते दिख रही है इसके पीछे बड़ी वजह क्या है। चयन समिति के कुल 5 सदस्यों में स्पीकर सुमित्रा महाजन, प्रधान न्यायाधीष रंजन गोगोई, नेता विपक्ष और कानूनविद मुकुल रोहतगी षामिल हैं। सरकार ने लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को इस समिति में विषेश रूप से आमंत्रित किया था। हालांकि बीते 15 मार्च की बैठक में उनकी भागीदारी सम्भव नहीं हुई। स्थिति को देखते हुए सोच में यह बात आती है कि जब सब कुछ ऐसा ही था तो यह पांच साल पहले भी हो सकता था। गौरतलब है कि मान्यता प्राप्त विपक्ष की योग्यता हेतु 55 सदस्यों (10 प्रतिषत)की आवष्यकता होती है। कांग्रेस विरोधी दलों में सबसे बड़ी पर 44 सीटों तक ही सिमटी थी। ऐसे में यह पेंच सरकार के लिए एक बहाना बना रहा। 
प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966 - 1970) की सिफारिषों पर नागरिकों की समस्याओं पर समाधान हेतु दो विषेश प्राधिकारियों लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति की बात प्रकाष में आयी जो स्केण्डीनेवियन देषों के इन्स्टीट्यूट आॅफ ओम्बुड्समैन और न्यूजीलैण्ड के पार्लियामेन्ट्रीय कमीषन आॅफ इन्वेस्टीगेषन की तर्ज पर की गयी। आयोग ने न्यूजीलैण्ड की तर्ज पर न्यायालयों इस दायरे से बाहर रखा। हालांकि स्वीडन में न्यायालय भी लोकपाल और लोकायुक्त के दायरे में आते हैं। तत्कालीन सरकार ने इसकी गम्भीरता को देखते हुए 1968 में पहली बार इसे अधिनियमित करते हुए संसद की चैखट पर रखा, सरकारें बदलती रहीं और संषोधनों के साथ लोकपाल विधेयक भी लुढ़कता रहा आखिरकार 2013 में यह अधिनियमित हो गया। गौरतलब है कि यह विधेयक दस अलग-अलग समय और सरकारों में उलझा रहा। हालांकि इसे अधिनियमित रूप देने के लिए देष में व्यापक पैमाने पर आंदोलन हुए जिसमें गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे की भूमिका देखी जा सकती है। भ्रश्टाचार के मामले में जांच के लिए एक स्वतंत्र संस्था लोकपाल के गठन का इंतजार फिलहाल खत्म हो गया है। लम्बे समय से पारदर्षिता और जवाबदेहिता को लेकर संस्था की मांग होती रही। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के साथ सरकारी कृत्यों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। सामाजिक सेवाओं और अर्थव्यवस्थाओं के उद्देष्यों की पूर्ति के लिए सरकार को ही एक मात्र सक्षम अभिकरण माना जाता रहा है। लोकपाल के पास सेना को छोड़कर प्रधानमंत्री से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी, किसी भी जनसेवक मसलन किसी भी स्तर का सरकारी अधिकारी, मंत्री व पंचायत सदस्य आदि के खिलाफ भ्रश्टाचार की षिकायत की सुनवाई का अधिकार होगा व इन सभी की सम्पत्ति को कुर्क भी कर सकता है। विषेश परिस्थितियों में लोकपाल को किसी व्यक्ति के खिलाफ अदालती ट्रायल चलाने और दो लाख रूपए तक का जुर्माना लगाने का भी अधिकार है।
पहली बार महाराश्ट्र ने 1973 में लोकायुक्त की नियुक्ति कर इस संस्था की षुरूआत की जबकि इससे जुड़े विधेयक (1970) को पास कराने का श्रेय उड़ीसा को जाता है। देष में अभी तक लोकपाल नहीं है और कई प्रदेष लोकायुक्त से वंचित हैं। लोकपाल की कार्यवाही रोगनाषक ही नहीं बल्कि निवारक भी है। भारत में भ्रश्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के षिकायतों के निवारण के लिए एक वैधानिक संस्था प्राप्त करने में 5 दषक से अधिक का समय खर्च हो गया पर देर से ही सही देष को लोकपाल मिलने वाला है। दरअसल यूपीए-2 सरकार के दौरान जब भ्रश्टाचार के कई रूप हो गये तब देष में नाराज़गी भी बढ़ गयी थी। हालांकि लोकपाल 2013 का अधिनियम यूपीए-2 सरकार ने ही पारित किया था पर एनडीए की सरकार ने पूरे 5 साल के कार्यकाल खर्च करने के बाद अब इस दिषा में कदम उठाया है। साफ है कि मौजूदा सरकार भी भ्रश्टाचार की चिकित्सा देने के मामले में कमतर ही रही। अब चुनाव मुहाने पर है तो सरकार लोकपाल नियुक्ति का मन बना चुकी है। लोकपाल की नियुक्ति में देरी पर एक गैर सरकारी संस्था काॅमन काॅज ने नाराज़गी भी व्यक्त की थी। माना जाता है कि इसी संस्था की पहल ने लोकपाल को रास्ता दिया। अब इसे मंजिल देना बाकी है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि दुनिया के जिन देषों में ऐसी संस्थाएं व्याप्त हैं वहां भ्रश्टाचार कम है। विकसित हो या विकासषील देष कमोबेष भ्रश्टाचार से सभी पीड़ित हैं। नाम भिन्न-भिन्न हैं पर लोकपाल रूपी चिकित्सक दुनिया के सैंकड़ों देषों में उपलब्ध है। लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी षामिल हैं। इससे न केवल लोकपाल की प्रासंगिकता को बल मिलता है बल्कि यह भी परिलक्षित होता है कि कोई भी हो त्रुटि हुई तो रडार पर होगा। वैधानिक और संस्थागत ढांचे के अंतर्गत देष में दो दर्जन से अधिक भ्रश्टाचार की एजेंसियां मौजूद हैं। बावजूद इसके भारत भ्रश्टाचार से मुक्त नहीं है। कह सकते हैं कि अब लोकपाल जैसे भारी-भरकम संस्था और बड़े दायरे में विस्तार वाला लोकपाल अपने दायरे की तमाम समस्याओं से देष को मुक्ति देगा। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Thursday, March 14, 2019

सुरक्षा परिषद पर चीन का पंजा


चीन की लोक कथाओं से लेकर हाॅलीवुड की फिल्मों तक उसे ड्रैगन के रूप में पेष किया गया है। भारत की एक पुरानी मान्यता यह भी है कि चीन एक प्रकार का बिल्ली का पंजा है जो भारत के विकास को रोकने के लिए उपयोग करता है। हालिया स्थिति यह है कि चीन संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में एक बार फिर अपनी पहचान के मुताबिक काम कर दिया है। सुरक्षा परिशद् के एक डिप्लोमैट ने दषकों से चली आ रही चीन की आदत को देखते हुए चेतावनी दिया है कि यदि चीन इस प्रस्ताव को रोकने की नीति जारी रखता है तो अन्य जिम्मेदार सदस्य सुरक्षा परिशद् में अन्य एक्षन लेने को मजबूर हो सकते हैं। गौरतलब है कि पुलवामा हमले का जिम्मेदार जैष-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवादी घोशित होने से चीन ने एक बार फिर बचा लिया। यह गिनती के लिहाज़ से चैथी बार है। गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र घोशणा पत्र के रचनाकारों की मान्यता है कि अन्तर्राश्ट्रीय षान्ति और सुरक्षा के रख रखाव में पांच स्थायी सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। चीन की आदतों को देखते हुए यह कहीं से नहीं लगता कि वह अन्तर्राश्ट्रीय षान्ति की चिंता भी करता है। वीटो का उपयोग अपनी निजी महत्वाकांक्षा के फलस्वरूप बार-बार करने वाला चीन सुरक्षा परिशद् की प्रासंगिकता को ही खतरे में डाल रहा है। यह बात भी समझ के परे है कि अमेरिका, फ्रांस और इंग्लैण्ड द्वारा लाये गये प्रस्ताव पर चीन ने वीटो करके दुनिया को एक नई कूटनीति की ओर क्यों धकेल दिया है। चीन पाकिस्तान का साथ देकर और भारत से दुष्मनी बढ़ा कर किस संरचना का निर्माण करना चाहता है जबकि भारत पड़ोसी पहले के सिद्धांत पर आज भी डटा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी चार बार चीन जा चुके हैं और 14 बार चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग से मुलाकात कर चुके हैं पर उपजाऊ नतीजे जहां जरूरी हैं वहां से आ नहीं रहे हैं। खास यह भी है कि मसूद अजहर को लेकर पाकिस्तान इस बार उदासीन बना रहा। पुलवामा घटना के बाद चीन की बयानबाजी भी नपी-तुली लगी। उम्मीद लगायी जा रही थी कि इस बार मसूद अजहर वैष्विक आतंकवादी घोशित हो जायेगा पर नतीजे सिफर रहे। 
संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में 15 सदस्य हैं जिसमें 5 स्थायी हैं। अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड, फ्रांस और चीन स्थायी सदस्यों में आते हैं इन्हें वीटो षक्ति प्राप्त है जिसका अर्थ है नकारात्मक मत व्यक्त करना। कोई भी सदस्य किसी प्रस्ताव पर अपनी वीटो षक्ति का इस्तेमाल कर उसे पारित होने से रोक सकता है। ऐसे में प्रस्ताव खारिज हो जाता है। गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् की 1267 अलकायदा प्रतिबंध समिति के अन्तर्गत मसूद अजहर को प्रतिबन्धित करने का प्रस्ताव 27 फरवरी को रखा गया। गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र के चार्टर में वीटो षक्ति का इस्तेमाल नहीं किया गया। व्यवस्था है कि प्रस्ताव पास कराने के लिए 15 में 9 सदस्यों के वोट मिलना जरूरी है जिसमें 5 स्थायी सदस्यों के वोट भी होने चाहिए। वीटो का उपयोग पहले भी होता रहा है पर अंतर्राश्ट्रीय आतंकवादी घोशित करने के मामले में चीन का दुस्साहस सभी में लिए दुविधा पैदा कर रहा है। इसके पहले मुम्बई हमले के मास्टर माइंड लखवी पर भी चीन 2015 में वीटो का प्रयोग कर चुका है। इतना ही नहीं 1972 से चीन दर्जन भर के आस-पास वीटो पावर का प्रयोग कर चुका है जिसमें से 6 बार आतंकियों को बचाने में प्रयोग किया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने अभी तक केवल 2 बार वीटो का प्रयोग किया है। हालांकि सोवियत संघ रहते हुए ऐसा उसने 118 बार किया जो सर्वाधिक है। कई बार भारत में विरोधी प्रस्ताव पर सोवियत संघ ने वीटो किया है। 
सवाल उठता है कि चीन भारत के खिलाफ और पाकिस्तान के आतंकियों का पक्षधर क्यों है? वजह खंगाले तो नजर यहां टिकती है। एषिया में भारत के मुकाबले वन बेल्ट, वन रोड प्रोजेक्ट में चीन को पाकिस्तान की जरूरत है। मुस्लिम देषों और गुटनिरपेक्ष देषों के संगठन में चीन का साथ पाकिस्तान देता रहा है। चीन को भारत और अमेरिका की दोस्ती कतई बर्दाष्त नहीं है। इसलिए मसूद अजहर जैसे मुद्दे में भारत का विरोध करके अपनी चिढ़ को ठण्डा करता है। तिब्बती धर्म गुरू दलाई लामा के भारत में षरण को लेकर भी चीन तमतमाया रहता है। इसे मामले में भी वह अन्दर ही अन्दर चिढ़ा हुआ है। इतना ही नहीं आर्थिक स्पर्धा भी इसका एक प्रमुख कारण है। सीमा विवाद से लेकर दक्षिण एषिया में चीन की घुसपैठ पर भारत सतर्क रहता है। चीन चाहता है कि दक्षिण एषिया समेत हिन्द महासागर तक उसकी धौंस हो। इस मामले में वह सफल इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि भारत उसको राह का रोड़ा लगता है। इन दिनों भारत की वैष्विक नीति भी कहीं अधिक परवान लिए हुए है और दुनिया की तेजी से आगे निकलती अर्थव्यवस्था है। इससे भी चीन के पेट में मरोड़ उठते हैं। यदि भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव सहित हिन्द महासागर में चीन के एकाधिकार को स्वीकार कर ले तब उसे मसूद अजहर दुनिया का सबसे बड़ा आतंवादी दिखेगा। गौरतलब है कि भारत लम्बे समय से सुरक्षा परिशद् का ध्यान अजहर मसूद पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर करता रहा है और चीन उसे बचाता रहा।
पुलवामा हमले के बाद संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् ने इस हमले की निंदा की थी। अमेरिका की चेतावनी के बाद भी चीन नहीं माना। संयुक्त राश्ट्र की प्रतिबंध समिति किसी संगठन या व्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के लिए आम सहमति से फैसला लेती है। चीन ने एक बार फिर अपना पुराना रंग दिखा दिया। सूचीबद्ध तरीके से देखें 2009, 2016, 2017 और अब 2019 में चीन अडंगा बना। यदि किसी पर प्रतिबंध लगता है तो संयुक्त राश्ट्र संघ के किसी भी सदस्य देष यात्रा पर रोक लग जाती है, उसकी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली जाती है। कोई देष उसकी मदद नहीं कर पाते, हथियार मुहैया नहीं करा पाता। यदि मसूद अजहर पर ऐसा प्रतिबंध लग पाता तो पाकिस्तान को भी मजबूरन उसकी गतिविधियों पर रोक लगानी पड़ती पर अब यह तो नासूर बन गया है। संसद, पठानकोट एयरबेस, उरी सैन्य षिविर, पुलवामा समेत जम्मू कष्मीर में कई जगह पर हमले का साजिषकत्र्ता है। गौरतलब है कि 1999 में कंधार विमान हाइजैक के बदले इसे छोड़ा गया था। फिलहाल सुरक्षा परिशद् की रडार पर आया मसूद अजहर बच गया है। सवाल यह भी उठता है कि सुरक्षा परिशद् में इस बात की गुंजाइष क्यों नहीं कि वीटो के लिए 2 स्थायी सदस्यों का मत होना चाहिए। दुविधा यह भी है कि नेहरू काल में जिस सुरक्षा परिशद् ने भारत को यह सदस्यता थाल में परोस कर मिल रही थी अब वही टेड़ी खीर हो गयी थी। चीन को स्थायी सदस्य बनाने में भारत की भूमिका है पर सदस्य होने का बेजा इस्तेमाल भारत के लिए ही कर रहा है। चीन बार-बार भारत को हाषिये पर धकेल रहा है और दुनिया यह समझ नहीं रही है कि अगर पाकिस्तान आतंक परस्त देष है तो चीन सीधे उनको सुरक्षा देकर इसी परस्ती का हिस्सा है। चीन कब सुधरेगा पता नहीं पर भारत प्रतिबंध के भरोसे नहीं रूक सकता। सम्भव है कि चाहे बालाकोट हो या बहावलपुर मसूद अजहर का खात्मा ही ठीक रहेगा। सुरक्षा परिशद् में भारत स्थायी सदस्य कैसे बनें कोई अनुकूल रास्ता नहीं दिख रहा है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत दुनिया के सैकड़ों देष भारत के पक्ष में है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Monday, March 11, 2019

सात दशक की चुनावी खर्च यात्रा वृतांत


लोकसभा चुनाव 2019 का बिगुल बीते 10 मार्च को बज गया है और सभी दल सत्ता की दौड़ में षामिल हो गये हैं पर षायद ही किसी को ध्यान हो कि लोकतंत्र के इस महोत्सव में बहुत बड़े आर्थिक हिस्से की भी आहूति हो जाती है। अनुमान है कि इस बार 71 हजार करोड़ रूपए से अधिक का खर्च 16वीं लोकसभा के गठन में आयेगा जो 2014 की तुलना में ठीक दोगुना है। अमेरिका स्थित है एक चुनाव विषेशज्ञ पर दृश्टि डालें तो उनका मानना है कि भारत के इतिहास में और दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देष के सबसे खर्चीले चुनाव में से 2019 का चुनाव होगा। सेंटर फाॅर मीडिया स्टडी का अध्ययन करें तो पता चलता है कि 1996 में लोकसभा के चुनाव में 25 सौ करोड़ रूपए खर्च हुए थे। साल 2009 में यह रकम चार गुना बढ़कर 10 हजार करोड़ हो गयी। हालांकि इसमें वोटरों को गैर कानूनी तरीके से दिया गया कैष भी षामिल है। दो दषक के भीतर अब यह सात गुने से अधिक का खर्च बन गया है जो 2016 के अमेरिकी राश्ट्रपति की चुनाव का ठीक डेढ़ गुना है। यह हर चुनाव में देखा गया है कि राजनीतिक दल चुनाव द्वारा नियम संगत ठहराये गये खर्च से कई गुना धन व्यय करते हैं। तमाम निगरानी के बावजूद ईमानदारी हमेषा इस मामले में खतरे में रहती है। यह चुनाव आयोग भी षायद जानता है और देष के सभी सियासतदान तो इसमें षामिल ही होते हैं। अनाप-षनाप धन के व्यय से जहां देष की आर्थिक हालत पतली होती है वहीं ईमानदार और कर्मठ के लिए चुनाव लड़ना मुष्किल हो जाता है। फलस्वरूप लोकतंत्र में ऐसे लोगों का समावेष रिक्त रह जाता है। यह महज़ आंकड़ा नहीं बल्कि भारत की वह असल तस्वीर है जिससे षायद ही कोई अनभिज्ञ हो कि जिस भारत में लोकतंत्र इतना महंगा हो जाये उसी भारत में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। किसानों का देष है पर प्रतिवर्श 12 हजार की दर से आत्महत्या हो रही है। पिछले चार दषक की तुलना में बेरोजगारी सबसे बड़े आंकड़े के साथ बढ़त बनाये हुए है और बेरोजगार युवा कैरियर और लाइफ मैनेजमेंट के मामले में कहीं अधिक फिसड्डी सिद्ध हो रहे हैं। इन्हीं समस्याओं को दूर करने के लिए ही राजनीतिक दल चुनावी समर में तरह-तरह के वायदे करते हैं और बाद में इन्हीं समस्याओं के साथ लोगों को छोड़ भी देते हैं और स्वयं आगे बढ़ जाते हैं। इन्हीं पीछे छूटे लोगों से फिर से नये चुनावी वायदों और नई उम्मीदों का सिलसिला दषकों से चल रहा है। 
लोकसभा के चुनावी खर्च पर एक दृश्टि डाली जाये तो पिछले सात दषकों में 16 बार हो चुके चुनाव में खर्च दर तेजी से बढ़त लिये हुए है। इतना ही नहीं चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की संख्या में भी तुलनात्मक बढ़ोत्तरी व्यापक पैमाने पर हुई है। पहली लोकसभा चुनाव में करीब 10 करोड़ रूपए खर्च हुए थे। सरकारी आंकड़ा बताता है कि 1952 से 1971 के बीच 5 लोकसभा चुनाव में चुनावी खर्च 10 करोड़ 45 लाख रूपये से षुरू होकर महज 11 करोड़ 60 लाख तक ही होते थे। लेकिन उसके बाद खर्च में बेतहाषा वृद्धि होने लगी। 1977 के चुनाव में यह खर्च 23 करोड़ था वहीं 3 साल बाद 1980 में 7वीं लोकसभा के गठन में 54 करोड़ रूपए खर्च हुए। 1984 में 81 करोड़ चुनावी खर्च आया, 1989 के चुनाव में यह खर्च डेढ़ अरब रूपए हो गया। 1991 में चुनाव साढ़े तीन अरब का और 1996 का चुनाव 6 अरब के साथ दोगुना हो गया। 1999 में खर्च 9 अरब रूपए के आस-पास हुआ जबकि 2004 में कुल चुनावी खर्च 13 अरब रूपए थे। मौजूदा समय में यह चुनावी खर्च देष के एक माह की जीएसटी के आस-पास प्रतीत होता है। चुनाव में होने वाले खर्च में ज्यादातर हिस्सा काले धन का होता है जो हवाला, काॅरपोरेट संस्थानों के जरिये सियासी दलों को मिलता है। राजनीतिक दल इस रकम का प्रयोग स्वयं के खर्च में और मतदाताओं को प्रलोभन मसलन नकद राषि देने, षराब पिलाने आदि में करते हैं। इसके अलावा चुनाव प्रचार की सामग्रियां आदि पर भी व्यापक पैमाने पर खर्च किया जाता है। बेतहाषा खर्च पर क्या रोक संभव है। षायद इस सवाल का जवाब नहीं मिल पायेगा। चुनाव में काले धन की बारिष आम बात है यदि कुछ हो सकता है तो पारदर्षिता ही इसमें लगाम लगा सकती है और इसका जिम्मा भी इन्हीं राजनीतिक दलों का है जो चुनाव जीतकर व्यवस्थापिका की हैसियत से कानून निर्माता होते हैं। गौरतलब है कि आय कर अधिनियम की धारा 13 के अधीन राजनीतिक दलों को जो चंदा मिलता है उसे आयकर से छूट मिली हुई है। इतना ही नहीं यह पता लगाना भी मुष्किल है कि दलों को धन कहां से कितना प्राप्त होता है क्योंकि यह सूचना के अधिकार में भी षामिल नहीं है। 
कोई भी उम्मीदवार धन-बल के बूते लोकसभा चुनाव नहीं जीत पायेगा ऐसी उम्मीद हर बार जगती है पर ऐसा होता नहीं है। गौरतलब है कि भारत का निर्वाचन आयोग उम्मीदवारों के चुनावी खर्च पर कड़ा पहरा लगाता है पर सफल कितना है कह पाना कठिन है। गौरतलब है कि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार 70 लाख से अधिक खर्च नहीं कर सकता लेकिन पार्टियों के खर्च की कोई सीमा नहीं है। केन्द्रीय नेताओं की हवाई यात्राओं और विज्ञापन का खर्च पार्टी उठाती है। पार्टियां सबसे ज्यादा खर्च विज्ञापन और हवाई यात्रा पर ही करती हैं। आंकड़े बताते हैं कि हैलीकाॅप्टर का किराया 2 लाख रूपए प्रति घण्टा तक है। जबकि हवाई जहाज का किराया इतने ही समय के लिए साढ़े तीन लाख रूपए का है। इस औसत से एक जहाज का किराया ही 16 लाख प्रतिदिन हो जाता है। लोकसभा चुनाव में 125 से 130 हवाई जहाज और हैलीकाॅप्टर के उड़ान की सम्भावना व्यक्त की गयी है और यह सिलसिला डेढ़ से दो महीने तक लगातार चलता रहता है। मतदाताओं को रिझाने के लिए प्रचार माध्यमों टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट आदि के जरिये भी बड़ी तादाद में रूपया खर्च किया जाता है। झण्डे, बैनर से लेकर रैली के लिए कुर्सी, टेन्ट आदि खर्च के अलावा कार्यकत्र्ताओं के खाने-पीने पर लाखों-करोड़ों व्यय किया जाता रहा है। जिसमें व्यापक पैमाने पर धन का कोई हिसाब-किताब नहीं मिलता और चुनाव आयोग के पास खर्च कुछ और हिसाब कुछ पहुंचाया जाता है। दूसरे षब्दों में कहें तो हवाला और काला धन की खपत भी चुनावी महोत्सव में होते हैं। सेंटर मीडिया स्टडी की रिपोर्ट यह भी बताती है कि राजनीतिक दल कम उम्मीदवार अधिक धन खर्च कर रहे हैं। बढ़ता खर्च यह इषारा कर रहा है कि देष में लोकतंत्र को सुसज्जित करने की फिराक में विकासषील भारत को ही नजरअंदाज किया जा रहा है। 1951 के चुनाव में लोकतंत्र को गढ़ने में प्रति वोटर 60 पैसे खर्च आया। 2009 में यही 12 रूपए प्रति मतदाता हो गया। 2014 में बढ़कर 17 रूपए हो गया। जाहिर है 2019 में प्रति मतदाता चुनाव खर्च बढ़ा हुआ मिलेगा। 
जब उम्मीदवार चुनाव जीतकर मननीय हो जाता है तब भी उस पर देष का अच्छा खासा रूपया व्यय होता है। वेतन भत्ता, कार्यालय खर्च, सचिवालयी सहायता के रूप में राषि, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता आदि के अलावा सांसदों को साल भर में 34 हवाई यात्राओं और असीमित रेल और सड़क यात्रा के लिए सरकारी खजाने से ही धन दिया जाता है। संसद चलाने में भी प्रति मिनट करीब 3 लाख रूपए का खर्च आता है। चुनाव से लेकर संसद बनने और उसके बाद संसदीय कार्यवाही समेत सभी संदर्भों को जोड़ा जाय तो देष का बहुत बड़ा हिस्सा लोकतंत्र को चुनने से लेकर सुसज्जित करने में खर्च हो जाता है। ऐसे में यह जरूरी है कि देष के नागरिकों के मत और उनकी गाढ़ी कमाई से चल रही व्यवस्था में उनका विकास ईमानदारी से देना चाहिए।

 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, March 6, 2019

तब देश की पूरी राजनीति एकजुट थी

प्लेटो का कथन है कि मनुश्य का पैमाना यह है कि वह षक्ति का उपयोग कैसे करता है। इस कथन के आलोक में इन दिनों की राजनीति को भी षीषे में उतारी जा सकती है। भारत में इन दिनों हर राजनेता अपने हिस्से की षक्ति उपयोग कर रहा है पर कौन, किस पैमाने पर है अभी बात स्पश्ट नहीं हो पायी है। जब से पुलवामा में आतंकी हमले की एवज में 27 फरवरी की रात बालाकोट में एयर स्ट्राइक हुई है तब से भारत में राजनीति गरमा गई है। दो-तीन दिन की षान्ति के बाद सियासत इस बात के लिए जोर पकड़ी कि एयर स्ट्राइक से आतंकी मारे भी गये हैं या नहीं या फिर कितने मरे हैं। मीडिया में भी आंकड़ा 300 से लेकर 500 तक भी रहा है जिसे लेकर कुछ भ्रांतियां भी भारत में फैल गयी हैं। चुनाव का वर्श है, आरोप-प्रत्यारोप का बयार बढ़ना स्वाभाविक है पर ध्यान यह भी देना था कि जान जोखिम में डालने वाले सेना का मनोबल न गिरे। अब इस पर कौन, कितना ध्यान दिया पड़ताल से साफ पता चल जायेगा। पाकिस्तान में आतंकी संगठन जैष के अड्डों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी चल रही राजनीति के बीच वायु सेना प्रमुख एयर मार्षल का भी बयान आया जो आषंकाओं को दूर करता है। वैसे बयान की आवष्यकता नहीं थी पर स्थिति को देखते हुए जो हुआ, ठीक हुआ। सरकार के मंत्री हों या विपक्ष सभी एयर स्ट्राइक को लेकर अनाप-षनाप वक्तव्य दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाने वालों को पाक का पोस्टर ब्वाॅय कहा है। षायद यह इषारा कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह की ओर था जिन्होंने पुलवामा को दुर्घटना करार दिया है। कांग्रेस के षीर्श लीडर समेत विरोधी दल के अन्य नेता मसलन ममता बनर्जी समेत कई एयर स्ट्राइक से मरने वालों के सबूत मांग रहे हैं। सरकार इसके पक्ष में तमाम बातें कर रही है। रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, वित्त मंत्री, कानून मंत्री व विदेष राज्य मंत्री समेत प्रधानमंत्री सभी इस कार्य में लगे हुए हैं। सवाल है कि सबूत क्यों मांगा जा रहा है, क्यों सरकार पर विपक्षियों को विष्वास नहीं है। आरोप नहीं, पर संदर्भ निहित बात यह भी है कि बीते पांच वर्शों में मोदी सरकार कई कार्यों के चलते विपक्षियों का विष्वास भी षायद भंग करती रही है। षायद उसी का नतीजा एयर स्ट्राइक के बाद आतंकियों की मौत की सही संख्या मांगी जा रही है जिसका परोक्ष प्रभाव सेना पर भी पड़ रहा है। 
जब सवाल देष का हो तब राश्ट्रीय एकता और अखण्डता की बात स्वतः सुनिष्चित हो जाती है। ऐसे में देष की राजनीति को भी एकता का मिसाल बन जाना चाहिए पर टुकड़ों में बंट चुकी राजनीति षायद अब इन परिभाशाओं से अंजान है। पाकिस्तान इन दिनों पूरे दबाव में है पर बंटी हुई राजनीति उसे भी कुछ राहत दे रही होगी। प्रधानमंत्री मोदी के कई कार्यों की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी की जाती है। हालांकि चेस्टर बर्नार्ड के नेतृत्व की परिभाशा कहती है कि नेतृत्व में नेता, परिस्थिति और अनुयायी का समावेषन होता है जो समय, काल और परिस्थिति के अनुपात में सब कुछ तय होता है। ऐसे में तुलना ठीक नहीं है और कुछ हद तक आलोचना भी ठीक नहीं है पर कुछ बातें फिर भी जरूरी हैं। वर्श 1971 में जब भारत और पाकिस्तान युद्ध में थे तब देष की पूरी राजनीति एक जुट थी। हालांकि विपक्ष सतह पर था पर जितना था सत्ता पक्ष के साथ खड़ा था मगर आज ऐसा नहीं है। सवाल है सब एकजुट कब होंगे? दुनिया को कब संदेष मिलेगा कि भारत के भीतर दलों की तादाद भले ही सैकड़ों में हो पर जब देष पर संकट हो तो सभी एक पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सत्ता के साथ मौजूदा समय में विपक्ष की नाराज़गी भी है और असहमति भी। यही कारण है कि 1971 जैसा न तो मोदी को साथ मिल रहा है न ही समर्थन बल्कि उल्टे संदेह गहरा रहा है। जब बात 1971 की छिड़ गयी है तो हालिया स्थिति पर भी नजर डाला जाना जरूरी है। आज से ठीक 48 साल पहले भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था और इसी का परिणाम बांग्लादेष का जन्म था। हालांकि युद्ध की वजह पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेष) में पष्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) की दमनकारी नीतियां थी। बंग्ला की जगह उर्दू थोपने का प्रयास, वहां के नेताओं का दमन और पाकिस्तानी सेना द्वारा किया गया अत्याचार साथ ही बड़ी संख्या में वहां के षरणार्थियों का भारत में आना। चूंकि भारत सतर्क था पर षांत था। ऐसे में पाकिस्तान की आक्रामकता बढ़ना लाज़मी था। नतीजन भारत के वायु स्टेषन पर उसने हमला किया। यहीं से भारत बांग्लादेष की मुक्ति के लिए पाकिस्तान को सबक सिखाने मैदान में उतर गया जिसका नतीजा बांग्लादेष है।
ऐसे ही सबक मोदी षासनकाल में पीओके एवं पाकिस्तान के भीतर घुसकर पाकिस्तान को दिया गया जिसे लेकर राजनीति गरमाई है और एकजुटता फलक से गायब है। सवाल है कि पहले एकजुट थे अब क्यों नहीं। यह बदली परिस्थिति ओर नेतृत्व का ही कमाल है। इन्दिरा गांधी के षासनकाल में बांग्लादेष की मुक्ति के लिए 13 दिन युद्ध चला था और 93 हजार पाकिस्तानी युद्धबन्दी बनाये गये थे। 15 हजार वर्ग किलोमीटिर से ज्यादा भारत ने जमीन जीती थी। जहां तक मोदी षासनकाल में पाकिस्तान को लेकर संदर्भ है युद्ध तो नहीं पर 28 सितम्बर 2016 को सर्जिकल स्ट्राइक और 27 फरवरी 2019 को एयर स्ट्राइक द्वारा आतंकियों को मारने और विंग कमाण्डर अभिनन्दन को 60 घण्टे के भीतर पाकिस्तान से रिहा कराने का अनोखा कार्य हुआ है। इन्दिरा गांधी ने 1971 की विजय के बाद कहा था कि हम एकता की भावना का अभिनंदन करते हैं। जिसने विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सभी मतभेदों को मिटा दिया। इस संकट की घड़ी में यदि काई भी गुट अलग होता है तो हम सफलता प्राप्त नहीं कर सकते थे। पठानकोट, उरी और पुलवामा आदि जो मोदी षासनकाल की घटना है को लेकर विपक्ष सत्ता के साथ षुरूआती कुछ दिनों तक एक साथ रहा है पर वह समय के साथ सरकार पर कुछ हद तक अविष्वास जताने लगा। वैसे सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे दिनों में विरोधियों के प्रति सद्भाव व सम्मान का दृश्टिकोण विकसित करना चाहिए न कि सियासी टिप्पणी। विपक्ष का इस प्रकार संदेह करना यह दर्षाता है कि सरकार उसे विष्वास में लेने में कुछ हद तक नाकाम रही है। ऐसे में केवल विरोधियों को हाषिये पर खड़ा नहीं किया जा सकता। मोदी पर यह आरोप है कि सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर एयर स्ट्राइक को वे चुनावी लाभ में बदल रहे हैं। अविष्वास का मूल कारण यही है और सवाल उठाने की बड़ी वजह में भी षायद यह है। रोचक यह भी है कि 1971 में विधानसभा चुनाव को टालने का मुद्दा जब सामने आया तब जनसंघ के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी साथ ही स्वतंत्र पार्टी के नेता पीके राव ने पूरी कूबत से इन्दिरा गांधी का समर्थन किया और यह सुनिष्चित किया था कि विस्तार एक साल के लिए होना चाहिए। उक्त घटना यह दर्षाता है कि समस्या बड़ी हो तो सत्ता और विपक्ष की समरसता उच्च हो जानी चाहिए। हालांकि इसी दौरान सीपीआई(एम) के कुछ नेता चुनाव चाहते थे। फिलहाल सियासत दौर के अनुपात में बदल जाती है, नेता और राजनेता भी बदल जाते हैं और सभी का पैमाना भी पहले जैसा नहीं होता। साफ है कसौटी पर सब खरे उतरना चाहते हैं चाहे उसके लिए देष की एकजुटता ही खतरे में क्यों न पड़े। पर यह सवाल जीवित रहेगा कि जब देष की बात हो तो एकता के नीचे समझौता नहीं और सेना की बात हो तो तनिक मात्र भी संदेह नहीं। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, March 4, 2019

आर्थिक बर्बादी का मिसाल है पाकिस्तान


इमरान खान को पाकिस्तान की सत्ता उस दौर में मिली जब वह अनेकों समस्याओं से घिरा था। गौरतलब है खजाना खाली था, बेषुमार कर्ज था और अप्रत्याषित व्यापार घाटा लगातार बना हुआ था। पाक की अर्थव्यवस्था में इन दिनों भी चालू खाते और बजटीय घाटे बेकाबू हैं, विदेषी कर्ज लगातार बढ़ रहा है तथा मुद्रा का अवमूल्यन भी हो रहा है साथ ही निवेषक तेजी से घट रहे हैं। गौरतलब है कि जुलाई-अगस्त 2018 में पाकिस्तान में सम्पन्न चुनाव के बाद इमरान खान के रूप में 18 अगस्त को एक नई सरकार मिली तो पाकिस्तान बेहद गरीबी की स्थिति में था। चीन जैसी विदेषी संस्थाओं पर बहुत अधिक निर्भरता ने पाकिस्तान को आर्थिक रूप से कमजोर बना दिया और यह क्रम अभी भी जारी है। नतीजन पाकिस्तान के पास अपने आयात बिलों का भुगतान करने हेतु कोई विदेषी जमा पूंजी षायद ही षेश बची हो। हैरत यह हैं कि 1971 में उसी पाकिस्तान से टूट कर बने बांग्लादेष की विदेषी मुद्रा भण्डार 32 अरब डाॅलर की तुलना में उसके पास एक चैथाई है जबकि भारत इस मामले में 400 अरब डाॅलर के पार है। इतना ही नहीं पाकिस्तान रूपए की विदेषी मुद्रा बाजार में कोई कीमत नहीं रह गयी है। ध्यानतव्य हो कि यहां अक्टूबर से रूपया बहुत तेजी से गिरा है और डाॅलर के मुकाबले यह 150 भी पार किया। बुनियादी ढांचा, नये रोज़गार और विकास जैसे संदर्भों से जुड़े बिज़नेस जब किसी देष में प्रवेष करते हैं तब वहां आर्थिक स्थिति बेहतर होती है जबकि पाकिस्तान में ये सब नहीं हो रहा है। पाकिस्तान की आर्थिक तंगहाली के लिए कौन जिम्मेदार है यह सवाल भी गैर वाजिब नहीं है। 2013 में अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) के साढ़े छः बिलियन डाॅलर के सबसे हालिया बेल आउट पैकेज के मात्र 5 साल बाद यानी 2018 में पाकिस्तान एक बार पुनः 12 बिलियन डाॅलर के बेल आॅउट पैकेज के लिए आईएमएफ से सम्पर्क किया। यह उसकी बदहाल स्थिति की पूरी कहानी दर्षाता है। वर्तमान आर्थिक स्थिति के मद्देनजर पाकिस्तान ऐसे स्थान पर आ खड़ा हुआ है जहां से वापसी मुमकिन दिखाई नहीं देती। देष में आतंक का कारोबार तेजी से फलता-फूलता रहा और पाकिस्तान आंख मूंद कर बैठा रहा। अमेरिका ने करोड़ों की रियायत रोक ली फिर भी आतंकियों पर लगाम नहीं लगाया। इसके उलट अमेरिका के बार-बार धौंस के बावजूद वह आतंकी संगठनों को मजबूती देता रहा साथ ही भारत पर बार-बार आतंकियों का प्रयोग करता रहा। बीते 14 फरवरी पुलवामा घटना के बाद तो पाकिस्तान न केवल वैष्विक फलक पर अलग-थलग है बल्कि आर्थिक टूटन की मात्रा भी बढ़ा लिया है। हालांकि इसी बीच 20 फरवरी को सऊदी अरब ने 20 अरब डाॅलर के निवेष की घोशणा की पर इससे सऊदी अरब को क्या मिलेगा और सऊदी के पैसे से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कितना परिवर्तन आयेगा यह कहना कठिन है क्योंकि उसकी मौजूदा आर्थिक स्थिति से ऐसा लगता है कि उसकी राह बीते 70 सालों से आर्थिक सुधार न होकर भारत विरोध की रही है।
पाकिस्तान में एक अनुकूल, पारदर्षी और कुषल टैक्स प्रणाली की अनुपस्थिति के चलते टैक्स कलेक्षन जीडीपी का लगभग 10 फीसदी ही है। स्थिति यह है कि अमीर टैक्स से बच निकल रहे हैं और चरम पर पहुंचे भ्रश्टाचार ने भी आर्थिक संकट खड़ा किया है। आईएमएफ ने पाकिस्तान से चाईना-पाकिस्तान इकोनोमिक डोर में चीनी खर्च का हिसाब मांगा पर चीन इसे सार्वजनिक करने के पक्षधर नहीं है। ब्लूम बर्ग की रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान पर विदेषी कर्ज लगभग 92 अरब डाॅलर हो गया है। पांच साल पहले यह इससे आधे पर थी। पाकिस्तान पर कर्ज और उसकी जीडीपी का अनुपात 70 फीसदी पर पहुंच गया है। चीन का दो-तिहाई कर्ज 7 फीसदी के उच्च ब्याज दर पर है जिससे पाकिस्तान की आर्थिक कमर लगातार टूट रही है। इस कर्ज को पाकिस्तान को 2030 से लौटाना भी है जो मौजूदा स्थिति में कहीं से मुमकिन नहीं है। पाकिस्तान 22 करोड़ लोगों का देष है परन्तु अनुपात में आय कर देने वालों की संख्या कहीं अधिक सीमित है। साल 2007 में आय कर भरने वालों की संख्या यहां मात्र 21 लाख थी जो 2017 आते-आते घटकर 12 लाख 60 हजार पर सिमट गयी है। पाकिस्तान के ही सरकारी आंकड़े कहते हैं कि वित्त वर्श 2018 में चीन से पाकिस्तान का व्यापार घाटा 10 अरब डाॅलर का था जो बीते पांच सालों में पांच गुना बढ़ा है। आर्थिक संकट से जूझ रहे पाक को चीन लगातार कर्ज देता रहा और मात्रा भी अरबों डाॅलर में रही। पाकिस्तान के खजाने में विदेषी मुद्रा भण्डार लगातार कम हो रहा है और कर्ज बढ़ रहा है। फाइनेन्षियल टाइम्स की रिपोर्ट को देखें तो पाकिस्तान 1998 से अब तक 13 बार आईएमएफ की षरण में जा चुका है। दो टूक यह भी है कि चीन के कर्ज से निरंतर पाक आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है। स्टाॅकहोम इंटरनेषनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट देखें तो साल 2017 में पाकिस्तान ने 52 करोड़ डाॅलर के हथियार चीन से आयात किये जबकि अमेरिका से महज 2 करोड़ डाॅलर का ही हथियार सौदा हुआ है। यह आंकड़े न केवल चीन से आर्थिक और व्यापारिक सम्बंध को बताते हैं बल्कि पाकिस्तान की दिषा और दषा को भी जताते हैं कि उसके पैसे विकास के बजाय भारत से होड़ लेने में खर्च हो रहे हैं। हालांकि पुलवामा के बाद पाकिस्तान को चीन की ओर से थोड़ी निराषा मिली है।
पुलवामा घटना के बाद भारत ने 1996 से जारी मोस्ट फेवर्ड नेषन का न केवल पाकिस्तान से दर्जा वापस लिया बल्कि वहां से आयात होने वाली वस्तुओं पर सीमा षुल्क 200 फीसदी कर दिया। जाहिर है इससे भी उसकी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है। गौरतलब है कि तीन हजार करोड़ से ज्यादा का निर्यात इससे प्रभावित हुआ है जिसमें ताजे फल, सीमेंट, पेट्रोलियम प्रोडक्टस और खनिज सहित चमड़ा आदि षामिल है। भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय व्यापार साल 2017-18 में करीब ढ़ाई अरब डाॅलर का था जो 2016-17 की तुलना में थोड़ा अधिक है जिसमें 1.92 अरब डाॅलर का निर्यात भारत ने किया और करीब 49 अरब डाॅलर का सामान पाकिस्तान से आयात किया गया था। जब पाकिस्तान मित्र ही नहीं तो सिंधु जल समझौता भी खत्म किया जा सकता है और इस राह पर भारत चल पड़ा है। जाहिर है आने वाले दिनों में सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों का पानी जो भारत का है पाकिस्तान जाता है उस पर रोक लगेगी तो वहां की आधे से अधिक कृशि खतरे में पड़ जायेगी इससे भी उसकी अर्थव्यवस्था चोटिल होगी। पाकिस्तान का व्यापार घाटा भी लगातार बढ़ रहा है। इसका सीधा मतलब है कि आयात बढ़ रहा है और निर्यात घट रहा है। 33 अरब डाॅलर के व्यापार घाटे से वो ऊपर जा चुका है। दुनिया में उसके सामानों की मांग घट रही है। भारत फ्रांस को पछाड़कर छठवीं अर्थव्यवस्था का तमगा ले लिया और ब्रिटेन को पछाड़ दे तो दुनिया का पांचवीं अर्थव्यवस्था हो जायेगा जबकि पाकिस्तान आतंकियों को षरण देने में अभी भी अव्वल बना हुआ है और उन्हीं के सहारे पुलवामा की घटना को अंजाम देकर एक नई मुसीबत भी इन दिनों मोल ले ली है। पाकिस्तान के दुस्साहस ने उसे कई और झंझटों में डाल दिया है। एफ-16 का भारत के विरूद्ध किया गया दुरूपयोग और उससे जुड़े नियमों के उल्लंघन के चलते अमेरिका ने उसे तलब किया है साथ ही 500 करोड़ के इस फाइटर विमान का नुकसान भी उसे हुआ है। गौरतलब है कि अमेरिका से खरीदा गया इस विमान में यह षर्त थी कि यह आतंकियों के विरूद्ध इस्तेमाल होगा जबकि यह भारत के विरूद्ध हमले के रूप में पाकिस्तान ने उपयोग किया था जिसे विंग कमाण्डर अभिनंदन ने मिग-21 से मार गिराया था जो स्वयं में एक अद्भुत घटना थी। फिलहाल पाकिस्तान की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, खाली होता विदेषी मुद्रा भण्डार और बढ़ता विदेषी कर्ज समेत भीतर की गरीबी, बीमारी और बेरोज़गारी कई सवाल खड़े करती है और इन सभी सवालों का जवाब केवल पाकिस्तान को ही ढूंढना क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार भी वही है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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