Tuesday, December 27, 2022

सावधान फिर यात्रा पर निकल चुका है कोरोना

इन दिनों चीन कोरोना की चपेट में बुरी तरह फंस चुका है और कई देषों में कोरोना संक्रमण एक बार फिर पैर पसारने लगा है। जाहिर है यह चिंता का विशय है और इस बात का चिंतन भी इसमें समाहित है कि इस बार इससे कैसे निपटा जायेगा। भारत एवं राज्य सरकार स्वयं को अलर्ट पर रख लिया है और नये वैरिएंट को समय रहते रोकने के प्रयास में भी जुट गयी है। गौरतलब है कि भारत के कुछ हिस्सों में ओमिक्रान के बीएफ.7 और बीएफ.12 का संक्रमण प्रवेष कर चुका है। यह इस बात का दस्तक है कि चीन में उठा कोरोना का कोहराम भारत की दहलीज में कदम रख चुका है। ध्यान होगा कि 30 जनवरी 2020 को केरल में पहली बार कोरोना ने इसी तरह दस्तक दी थी जो बाद में लहर दर लहर देष संकट में जाता रहा और महामारी जैसी स्थिति पैदा कर दी थी। मिल रही जानकारी को यदि सच माने तो चीन में करोड़ों की तादाद में कोरोना संक्रमण के षिकार रोजाना हो रहे हैं। मरने वालों की तादाद इस कदर बढ़ गयी है कि अंत्येश्टि के लिए लाइन लगी है और वहां स्वास्थ व्यवस्था बिलकुल चरमरा गयी है। मरने वालों की संख्या भी पांच हजार प्रतिदिन के औसत से बतायी जा रही है। चीन कह रहा है कोई नहीं मरा कोविड पर चीन फिर सूचनाएं छिपा रहा है और अनुमान है कि हाल बेहाल रहा तो 13 लाख से अधिक मौतें होगी। वैसे देखा जाये तो चीन में घटित कोई भी घटना से षेश दुनिया काफी हद तक अनभिज्ञ ही रहती है उसकी बड़ी वजह चीन द्वारा जानकारी का छुपाना रहा है। फिलहाल चीन की हालत खराब तो है। साथ ही पड़ोसी देषों में भी हालात कब किस पैमाने पर बिगड़ जाये इसका अंदाजा लगाना भी कोई बड़ी बात नहीं है। पड़ताल बताती है कि पिछले आठ हफ्तों में जापान में कोरोना संक्रमितों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है। यहां भी मामला 70 हजार से एक लाख के ऊपर है। जापान में अब तक लगभग 3 करोड़ से अधिक संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं और 50 हजार से ज्यादा मौत बतायी जा रही है और लाखों का इलाज चल रहा है। दक्षिण कोरिया, फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी, ताइवान, हांगकांग आदि समेत दुनिया के कई देष कमोबेष कोरोना के इस नई वापसी से चपेट में हैं।
चीन में जैसे ही कोरोना का कोहराम मचा वैसे ही भारत में बूस्टर डोज की याद सभी को आने लगी। इसके अलावा कोविड टीका लगाने के रजिस्ट्रेषन में भी वृद्धि देखी जा सकती है। भारत के प्रधानमंत्री इसे लेकर बैठक कर चुके है और राज्यों के मुख्यमंत्री मीटिंग में जुट गये हैं। जो मास्क लगभग बरस भर से नदारद थे अब वह फिर चेहरे पर दिखने लगे हैं। हालिया समाप्त षीत सत्र के दौरान संसद दीर्घा में भी कुछ ऐसा ही आलम था और चिंता यह सता रही है कि कहीं कोरोना की नई लहर भारत में कोहराम न मचाये। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आम लोगों का जीवन अभी पटरी पर आ भी नहीं पाया है कि धड़कनें फिर बढ़ गयी हैं। कोरोना का यह नया वेरिएंट भारतीयों पर कितना असर डालेगा इस पर विषेशज्ञों की राय भी अलग-अलग है। मगर भारत में जो कोरोना का टीकाकरण हुआ है वह काफी विष्वसनीय और इम्यूनिटी की दृश्टि से अधिक प्रभावषाली मानी जाती है। ऐसे में अधिकतर का यही विचार है कि संक्रमण से चपेट में तो आ सकते हैं मगर समस्या उतनी बड़ी रहेगी नहीं। हालांकि चीन में कोरोना के तेजी से बढ़ते नये मामलों में इसलिए चिंता बढ़ा दी है क्योंकि वहां टीकाकरण के बावजूद भी कोरोना हो रहा है। देखा जाये तो चीन के कोरोना टीका को लेकर विष्वसनीयता बहुत कमजोर थी ऐसे में वह सबसे पहले टीका खोजने का दावा करके चीनी नागरिकों को प्रभावित तो किया मगर बेअसर टीका इस वैरिएंट से लड़ने में नाकाम सिद्ध हो रहा है। विषेशज्ञ मानते हैं कि इसका लक्षण भी बहुत अलग नहीं है बुखार, गले में खरांस और सिर दर्द इसमें षामिल है। कमजोर रोध प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों के लिए कोरोना पहले भी घातक था और अब भी घातक ही कहा जायेगा। नीतियां कितनी भी सषक्त क्यों न हों बचाव के कितने भी बड़े उपाय क्यों न खोजे जायें मगर यह पहले भी देखा गया है कि कोरोना ने बहुत बड़ी आबादी को चपेट में लिया है ऐसे में होषियारी और इससे जुड़े नियमों का पालन एक अच्छा उपाय है। मगर टीकाकरण अब भी सबसे अच्छा हथियार है। ब्रिटेन ने हाल ही में मॉडर्ना के टीके वायबलेंट बूस्टर्स को मंजूरी दी है। यह कोरोना के सभी वैरिएंट के लिए कारगर माना जाता है।
कोरोना जैसे-जैसे पैर पसारेगा वैसे-वैसे अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलेगा। चीन की हालत इन दिनों कुछ ऐसी ही है। विष्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में चीन की विकास दर में बड़ी कटौती का संकेत है। विकास दर के अनुमान को घटाकर 2.7 फीसद कर दिया गया है। जबकि जून 2022 में यह अनुमान था कि विकास दर 4.3 फीसद पर रहेगा। इतना ही नही ंसाल 2023 में जो विकास दर 8.1 फीसद माना जा रहा है उसे भी घटाकर 4.3 किया है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोरोना की मार आम और खास सभी पर पड़ती है और देष की विकास दर पर इसका सबसे बड़ा प्रहार होता है। भारत में जब कोरोना ने पैर पसारा था तब जो जीएसटी वर्तमान में डेढ़ लाख करोड़ रूपए एक माह में वसूली जाती है वही अप्रैल 2020 में महज 26 हजार करोड़ पर ही सिमट गयी थी और भारत की विकास दर 23 फीसद ऋणात्मक तक चली गयी थी। जो कृशि विकास दर हमेषा हाषिये पर रहता है वह कुछ समय के लिए अव्वल हो गया था। जिस देष में स्वास्थ खतरे में हो वहां अर्थव्यवस्था का बीमार होना स्वाभाविक है। नेविगेटिंग अनसर्टिनिटी चाइना इकोनॉमी 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि कोरोना महामारी के दौरान चीन की पब्लिक हेल्थ पॉलिसी बहुत कठोर रही है। यदि इस रिपोर्ट को महत्व दिया जाये तो चीन में बेरोज़गारी दर अक्टूबर 2022 में 18 फीसद पर पहुंच गयी थी। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश ने भी चीन के विकास दर को घटाने का संकेत दिया था। देखा जाये तो कोरोना के चलते चीन विकास दर की गिरावट और बेरोजगारी में चढ़ाव के साथ स्वास्थ्य, चिकित्सा और आम जन को कोरोना से मुक्ति के लिए जूझ रहा है।
कोरोना महामारी की पुरानी लहर तो यही बताती है कि संक्रमण का बढ़ना कई तरह की समस्याओं को परवान चढ़ाने जैसा है। लॉकडाउन और पाबंदियां अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देती हैं। ईज़ ऑफ लिविंग को खतरे में डाल देती हैं और जानलेवा भी सिद्ध होती है। ऐसे में सतर्क और सावधान होने का वक्त फिर आ गया है। कोरोना कोहराम मचाये इससे पहले उपाय खोजने होंगे, बचाव के रास्ते अपनाने होंगे और कोरोना प्रवेष के स्थानों की घेराबंदी करनी होगी। हालांकि चीन में जो हो रहा है उसका भारत में सीधे असर कितना पड़ेगा इसकी सम्भावना पर भी अलग-अलग मत है और नये वैरिएंट का भारतीय नागरिकों पर क्या प्रभाव होगा इसका भी अभी कोई अंदाजा ठीक से नहीं है। विषेशज्ञ तो यह भी मानते हैं कि भारत के बहुत सारे लोगों को बीते दो वर्शों में जो कोरोना हुआ है उससे भी उनकी इम्यूनिटी बढ़ी है और टीकाकरण और बूस्टर डोज़ ने इसे और बेहतर किया ऐसे में कोरोना वायरस को लेकर डरने की आवष्यकता नहीं है। सबके बावजूद इस बात से अनभिज्ञ रहने की कतई आवष्यकता नहीं है कि कोरोना एक बार फिर अपनी यात्रा पर है।

दिनांक : 26/12/2022


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

शोध में छुपी है देश के विकास की राह

यूजीसी की वेबसाइट को खंगालें तो मौजूदा समय में देष में सभी प्रारूपों अर्थात् केन्द्रीय, राज्य और  डीम्ड समेत निजी विष्वविद्यालयों को मिलाकर कुल संख्या हजार से अधिक हैं जिनके ऊपर न केवल ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और डॉक्टरेट की डिग्री देने की जिम्मेदारी है बल्कि भारत विकास एवं निर्माण के लिए भी अच्छे षोधार्थी निर्मित करने का दायित्व है। उच्च षिक्षा और षोध को लेकर मानस पटल पर दो प्रष्न उभरते हैं पहला यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार परिवर्तन ले रहे हैं। दूसरा क्या बढ़ी हुई चुनौतियां, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में इन षिक्षण संस्थाओं ने निर्मित षोध का लाभ आम जनमानस को मिल रहा है। षोध और अध्ययन-अध्यापन के बीच न केवल गहरा नाता है बल्कि षोध ज्ञान सृजन और ज्ञान को परिश्कृत करने के काम भी आता है। भारत जैसे विकासषील देष में गुणवत्तायुक्त षोध की कहीं अधिक आवष्यकता है। षायद इसी कमी के चलते वैष्विक स्तर पर षोधात्मक पहचान अभी भी रिक्तता लिए हुए है। उच्च षिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2018 के अनुसार विष्वविद्यालयों के अतिरिक्त उच्च षिक्षा के लिए भारत में 40 हजार से ज्यादा कॉलेज और 10 हजार से अधिक स्वायत्तषासित षिक्षण संस्थान भी हैं। पड़ताल बताती है कि लगभग सभी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्तषासी संस्थान षोध कराते हैं जबकि 40 हजार से अधिक कॉलेजों में महज 3.6 फीसद में ही पीएचडी कोर्स संचालित होता है। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 को क्रमिक तौर पर लागू किया जा रहा है जिसमें दूरदर्षी बदलाव निहित हैं और भविश्य में दिखेंगे भी। हालांकि इसका पूरा परिदृष्य उभरने में एक दषक से अधिक वक्त लग जायेगा।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि षोध से ज्ञान का नया क्षितिज मिलता है। ईज़ ऑफ लिविंग से लेकर ईज़ ऑफ बिजनेस और जीवनचर्या में षोध सरलता को विकसित करता है। बानगी के तौर पर देखें तो मौजूदा दौर कोविड-19 से जूझ रहा है चीन की हालत खराब है और भारत में भी चिंता मुखर हो चली है। ऐसे में कोरोना से लड़ने के लिए सावधानी तो एक विकल्प है ही मगर इस समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए षोध ही एक रास्ता है जिससे उपचार की राह खुलेगी। 16 जनवरी 2021 को जब टीकाकरण अभियान षुरू हुआ तो टीका में प्रयोग की गयी दवा षोध का ही तो नतीजा था। मजबूत षोध बेहतर उपचार का उपाय है यह जीवन के हर पड़ाव पर लागू है। जाहिर है इसकी संवेदना को समझते हुए विष्वविद्यालय या उच्च षिक्षण संस्थान समेत तमाम षोध संस्थाएं इसे बेहतर आसमान दें न कि डिग्री और खानापूर्ति की आड़ में एक खोखले अध्ययन तक ही सीमित रहें। एक हकीकत यह है कि षोध कार्य रचनात्मक का विलोम होता जा रहा है इसका परिणाम षोध की गुणवत्ता पर पड़ता है। देष में निजी विष्वविद्यालयों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है मगर उसी मात्रा में गुणवत्ता भी चौड़ी हुई है षोध के हालात ऐसे दिखते नहीं हैं। दरअसल पीएचडी जीविका से जुड़ी एक ऐसी व्यवस्था बन गयी है जहां सहायक प्राध्यापक की राह खुल जाती है। मगर जो थीसिस तीन वर्श की मेहनत के बाद बनी उसका लाभ केवल पुस्तकालय तक ही सीमित रह जाता है। सर्वेक्षण बताता है कि देष के अच्छे विष्वविद्यालयों में मसलन केन्द्रीय विष्वविद्यालय और आईआईटी में भी षोध को लेकर कुछ कठिनाइयां व्याप्त हैं। यहां के 2573 षोधार्थियों पर हाल ही में किये गये एक अध्ययन में विष्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने पाया कि अनिवार्य प्रकाषन ने विष्वविद्यालय को अनुसंधान की गुणवत्ता बनाये रखने में मदद नहीं की है क्योंकि लगभग 75 प्रतिषत प्रस्तुतियां गुणवत्ता वाली स्कोपस अनुक्रमित पत्रिकाओं में नहीं हैं। तथ्य यह भी है कि अनुसंधान और विकास में सकल व्यय वित्तीय वर्श 2007-08 की तुलना में 2017-18 तक लगभग तीन गुने की वृद्धि लिये हुए है फिर भी अन्य देषों की तुलना में भारत का षोध विन्यास और विकास कमतर ही रहा है।
हालिया स्थिति को देखें तो भारत षोध और नवाचार पर अपनी जीडीपी का 0.7 ही व्यय करता है जबकि बदलते विकास दर के अनुपात में ऐसा भी माना जा रहा है कि साल 2022 तक यह दो फीसद तक हो जाना चाहिए। फिलहाल चीन 2.1 फीसद और अमेरिका 2.8 फीसद षोध पर खर्च करते हैं। इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया, इज़राइल जैसे देष इस मामले में 4 फीसद से अधिक खर्च के साथ कहीं आगे हैं। उक्त से यह प्रतीत होता है कि षोध और बजट का भी गहरा सम्बंध है। यही कारण है कि जो इसकी वास्तु स्थिति को बेहतरी से समझ रहा है वह उत्थान और उन्नति के लिए इसे तवज्जो दे रहा है। दुनिया में चीन ऐसा देष है जहां 26 फीसद के साथ सर्वाधिक षोध पत्र प्रकाषित करने के लिए जाना जाता है। जबकि अमेरिका में दुनिया के कुल षोध पत्रों का 25 फीसद प्रकाषित होते हैं और षेश में सारा संसार समाया है। केन्द्र सरकार ने षोध और नवाचार पर बल देते हुए साल 2021-22 के बजट में आगामी 5 वर्शों के लिए नेषनल रिसर्च फाउंडेषन हेतु 50 हजार करोड़ आबंटित किये गये। साथ ही कुल षिक्षा बजट में उच्च षिक्षा के लिए 38 हजार करोड़ रूपए अधिक की बात थी जो षोध और उच्च षिक्षा के लिहाज से सकारात्मक और मजबूत पहल है। हालांकि भारत सरकार षोध और उच्च षिक्षा के क्षेत्र में बेहतर पहल करते दिखता है बावजूद इसके अभी इसमें कई अड़चनें तो हैं। दो टूक यह हे कि पीएचडी की थीसिस मजबूती से विकसित की जाये तो यह देष के नीति निर्माण में भी काम आ सकती है मगर यह अभी भी दूर की कौड़ी है। कुछ उच्च षिक्षण संस्थाओं में षोध कराने वाले और षोध करने वाले दोनों ज्ञान की खामियों से जूझते देखे जा सकते हैं। एक प्राइवेट विष्वविद्यालय में पीएचडी की फीस अमूमन तीन लाख के आसपास होती है। इस भारी-भरकम फीस में अच्छे गाइड के साथ अच्छी थीसिस को भविश्य और देष हित में निर्मित की जा सकती है मगर दुख यह है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसकी बड़ी वजह डिग्री और धन का नाता भी कहा जा सकता है। द टाइम्स विष्व यूनिवर्सिटी रैंकिंग की हर साल की रिपोर्ट भी यह बताती है कि यहां रैंकिंग के मामले में भारत की बड़ी-बड़ी संस्थाएं बौनी हैं जबकि निजी विष्वविद्यालय तो इसमें कहीं ठहरते ही नहीं। षोध का स्वतः कमजोर होना तब लाजमी है जब इसे सिर्फ महज डिग्री की भरपाई मानी जाती रहेगी। षिक्षाविद प्रो0 यषपाल ने कहा था कि जिन षिक्षण संस्थाओं में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वह न तो षिक्षा का भला कर पाती है न ही समाज का।

दिनांक : 26/12/2022


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

 सुजीवन की खोज में सुशासन की यात्रा

साल 2015 की 25 दिसम्बर को पहली बार सुषासन दिवस मनाने की प्रथा षुरू हुई जिसकी वजह में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन को एक बड़ा आकार देने का प्रयास था। तब से सुषासन कहीं अधिक प्रयोग और उपयोग में निरंतरता के साथ गति भी लिया मगर सुषासन की परिपाटी से षायद ही कोई युग रिक्त हो। 20वीं सदी के अन्तिम दषक में भारत ने जब 24 जुलाई 1991 को उदारीकरण अपनाया तो सुषासन की राह चौड़ी होनी षुरू हो गयी थी फिर भी यह कहना अतार्किक न होगा कि भारत लोकतंत्र की दहलीज पर कदम रखते ही सुषासनमय होने की राह पकड़ लिया था। उतार-चढ़ाव बहुत आये सुषासन की समझ भी कमोबेष बनती-बिगड़ती रही। फिलहाल अब तो यह षान्ति और खुषहाली का प्रतीक है। इतना ही नहीं सुजीवन की चाह भी इसी से होकर गुजरती है। हालांकि विष्व बैंक द्वारा सुषासन की दी गयी परिभाशा 1992 में देखने को मिलती है और इसी वर्श इंग्लैण्ड सुषासन की गणना में पहले देष की संज्ञा में आया। नेताजी सुभाश चन्द्र बोस ने कहा था, “कोई एक व्यक्ति विचार के लिए मर सकता है परन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह विचार जिन्दगियों में अवतार ले लेगा।” उक्त कथन के आलोक मे मौजूदा भारत को देखें तो औपनिवेषिक सत्ता के उस दौर में भारतीयों में पनपी स्वतंत्रता की भावना और स्वयं की सुषासन से भरी आकांक्षा तथा एक मजबूत लोकतंत्र व गणतंत्र की चाह ने अनगिनत विचारों को जन्म दिया था। आजादी की लड़ाई और उसमें खपायी गयी तमाम जिन्दगियों और विचारों को देष संजोता चला आया है। गौरतलब है कि भारत की स्वाधीनता के 75 वर्श पूरे होने के उपलक्ष्य में आजादी का अमृत महोत्सव एक षानदार उत्सव का रूप लिया। वैसे देखा जाये तो भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों स्वतंत्रता संघर्श के दौरान अनेकोनेक महान क्षण आये जिसमें 1857 के विद्रोह को एक ऐसी ऐतिहासिक परिघटना के रूप में निहारा जा सकता है जहां से पहली भारतीय स्वाधीनता संग्राम का प्रकटीकरण होता है। क्रमिक तौर पर देखें तो स्वदेषी, असहयोग और सत्याग्रह आंदोलन, बाल गंगाधर तिलक का पूर्ण स्वराज का आह्वान, गांधी का दाण्डी मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन समेत नेताजी सुभाश चन्द्र बोस का आजाद हिन्द फौज एक ऐसी विरासत है जिसे आने वाली पीढ़ियों को पूरी तरह अवगत होना ही चाहिए। इन तमाम के चलते सुषासन को भी कहीं न कहीं स्थान मिल रहा था। आजादी के इन 75 वर्शों में देष विभिन्न क्षेत्रों में कई उपलब्धियों के साथ कई कड़े संघर्शों से भी जूझा है और यह सिलसिला अभी भी बना हुआ है।
आजादी मिलने के बाद संविधान और कानून के षासन को पटरी पर लाना और सुषासन युक्त अवधारणा को समस्त भारत में अधिरोपित करना एक महान चुनौती के साथ उपलब्धि रही है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सामाजिक-आर्थिक न्याय, संवेदनषीलता और खुले स्वरूप समेत लोक विकास की कुंजी का रूप है। देष में कानूनी ढांचा, लोक कल्याण के लिए जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही लोकतंत्र और गणतंत्र के लिए भी जरूरी है। सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोल कर विकास दें ताकि आजादी के सपने और स्वराज की अवधारणा को पूरा स्थान मिल सके और स्वतंत्रता के लिए चुकाई गयी कीमत को पूरा न्याय। जाहिर है उक्त संदर्भ को संजोए हुए 7 दषक हो गये हैं। संविधान के नीति निदेषक सिद्धांतों से जहां लोक कल्याण को ऊंचाई दी गयी वहीं मूल अधिकार से यह बात पुख्ता हुई कि राजनीतिक अधिकार और सुषासन से देष परिपूर्ण है। एक बेहतरीन संविधान का निर्माण और सभी की उसमें हिस्सेदारी साथ ही समाजवादी व पंथनिरपेक्ष की अवधारणा के साथ समतामूलक दृश्टिकोण के चलते यह स्पश्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम में निवेष की गयी क्षमता और दर्षन का पूरा उपयोग हो रहा है। 26 जनवरी 1950 को जब देष में संविधान लागू हुआ और गणतंत्र को स्थापित किया गया तब एक बार फिर 26 जनवरी 1930 की वह घटना अनायास मुखर हुई जब लाहौर में रावी नदी के तट पर पूर्ण आजादी का संकल्प लेते हुए तिरंगे को आसमान दिया गया था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत का संविधान सुषासन की यात्रा को सुनिष्चित कर दिया था। पंचवर्शीय योजना और सामुदायिक विकास कार्यक्रम तत्पष्चात् पंचायती राज व्यवस्था से प्रारम्भ देष में सुषासन से युक्त विकास यात्रा में अनेकों ऐसे विचार षामिल थे जो औपनिवेशिक काल से ही बाट जोह रहे थे।
1960 के दषक में बेहद साधारण षुरूआत के बाद भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम में छलांग लगाना, भारतीय सषस्त्र सेनाओं को ताकत प्रदान करना और स्वदेषी उद्यमिता को परवान चढ़ाना, यह जताता है कि सुषासन को लेकर चिंता अनेक क्षेत्रों में विस्तार ले चुकी थी। गांधी जी की सर्वोदय की अवधारणा भले ही 1922 का एक संकल्प रहा हो मगर आजाद भारत में इसका पूरा ताना-बाना आज भी देखा जा सकता है। कृशि और खाद्य क्षेत्र में चुनौतियां आजादी के साथ ही मिली थी मगर देष के अन्नदाताओं ने अपनी क्षमताओं से भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। इतना ही नहीं कृशि और खाद्य क्षेत्र में विषाल जनसंख्या के लिए भारत ने खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर ली है और वैष्विक कृशि षक्ति केन्द्र का खिताब भी हासिल किया है हालांकि अन्नदाता अभी भी बुनियादी विकास से जूझ रहे हैं। भारत को 1947 में जब आजादी मिली तो सामाजिक-आर्थिक ही नहीं राजनीतिक स्थितियां भी अस्थिर थी, खजाना खाली था और विदेषी मुद्रा नाममात्र की थी। इतना ही नहीं पष्चिमी देषों की ताकतों के आगे संतुलन बनाने की चुनौती भी बरकरार रही है और अपने आस-पास के देषों के साथ बेहतर सम्बंध के प्रति सक्रिय रहना जरूरी था। खास यह है कि आज भारत विदेषी मुद्रा भण्डार के मामले में अग्रणी देषों में षुमार है और कई क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में है। वैष्विक पटल पर यूरोपीय और अमेरिकी देषों समेत भारत दुनिया में एक नई पहचान रखता है। दो टूक यह कि आजादी के सपने को पंख लगे हैं मगर उड़ान कहीं कम तो कहीं ज्यादा है।
भारत युवाओं का देष है रोज़गार यहां चुनौती में हैं। वैसे तो षिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, बिजली, पानी व सड़क जैसे तमाम बुनियादी विकास कमोबेष चुनौती में बने ही रहते हैं जिसके चलते समावेषी और सतत् विकास भी बेपटरी हो जाते हैं साथ ही सुषासन की आकांक्षा अधूरी रह जाती है। सुषासन की परिपाटी एक दिन का परिणाम नहीं है भारत के इतिहास को बारीकी से झांके तो चिंतन और दर्षन जो विकास से जुड़े थे वो सुषासन को पुख्ता कर रहे थे। षोध और नवाचार के मामले में देखा जाये तो भारत तुलनात्मक कहीं अधिक बेहतर है। सुषासन चुनौतियों को कमजोर करता है और सुजीवन की राह को सुनिष्चित करता है। मगर गरीबी और भुखमरी के साथ अषिक्षा का देष में अभी भी मुखर रहना सुषासन को चोट पहुंचाने जैसा है। महंगाई और बेरोजगारी की मौजूदा दर सुषासन के लिए सही नहीं है। नागरिक अधिकारपत्र, सूचना का अधिकार, षिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा तथा नई षिक्षा नीति समेत कई संदर्भों ने सुषासन को बीते दो दषकों में बड़ी ताकत से भर दिया। लोकतांत्रिक सत्ता में जनता का भरोसा डगमगाने से पहले संभल जाये ऐसा सुषासन के कारण ही होता है। दो टूक कहें तो सुषासन भले ही जुबान पर दषकों पहले आया हो मगर जिन्दगी में यह सभ्यता के साथ ही प्रवेष कर लिया था।

दिनांक : 22/12/2022


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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सीमा विवाद खड़ा करना चीन की फितरत

बीते 12 दिसम्बर को अरूणाचल के तवांग में भारत-चीन सैनिकों के बीच एक बार फिर झड़प हुई। दोनों देषों के सैनिकों के बीच आमने-सामने का यह संघर्श कई संदर्भों को उजागर करता है। एक ओर जहां चीन की विस्तारवादी नीति इसके लिए जिम्मेदार है वहीं आंतरिक संकट से जूझ रहे चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग मानो ऐसी घटना को उकसाने के लिए मजबूर हों। गौरतलब है कि चीन इन दिनों आंतरिक संकट से बाकायदा जूझ रहा है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले चीन आर्थिक विरोध से लेकर जिनपिंग विरोध तक का मामला सड़क पर आ चुका है। ऐसे में जिनपिंग की यह मजबूरी है कि आम चीनियों का ध्यान उनके विरोध में हटाते हुए सीमा की ओर धकेलना। विदित हो कि अरूणाचल में चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करने की कोषिष की और भारतीय सैनिकों ने उन्हें करारा जवाब दिया। कहा जा रहा है कि संघर्श में दोनों पक्ष के तीस सैनिक घायल हुए हैं। हालांकि वीडियो जिस तरह से दिखाई देता है उससे यह साफ है कि बहुत कम भारतीय सैनिकों ने ज्यादा तादाद वाले चीनी सैनिकों को खदेड़ने में न केवल कामयाब रहे बल्कि पीपुल्स लिबरेषन आर्मी के सैनिकों को यह भी बता दिया कि उन्हें हल्के में न लें। गौरतलब है कि जब पूरी दुनिया कोरोना की चपेट में थी तब साल 2020 के अप्रैल-मई में चीन अपने इन्हीं विस्तारवादी नीतियों के चलते पूर्वी लद्दाख में बखेड़ा खड़ा कर दिया जिसकी आग अभी पूरी तरह ठण्डी नहीं कही जा सकती कि तवांग में एक बार फिर आमने-सामने की झड़प हो गई। जून 2020 में भी ऐसी ही झड़प हुई थी जिसमें देष के कई सैनिक षहीद तो कई घायल हुए थे। हालांकि चीन के सैनिकों में मरने वालों की तादाद बहुत ज्यादा थी मगर आंकड़ा साफ-साफ बताया नहीं गया। दो टूक यह भी है कि चीन के वादे हों या इरादे दोनों पर कभी भी भरोसा फिलहाल नहीं किया जा सकता। दरअसल चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अमन-चैन की बहाली का इरादा रखता ही नहीं है। 1954 के पंचषील समझौते को 1962 में तार-तार करने वाला चीन कई बार भारत के लिये मुसीबत का सबब बनता रहा है। जब-जब भारत दोस्ती का कदम बढ़ाता है चीन विस्तारवादी नीति के चलते दुष्मनी की राह खोल देता है। हालिया घटना और पूर्वी लद्दाख से पहले जून 2017 में डोकलाम विवाद 75 दिनों तक चला जिसे लेकर जापान, अमेरिका, इजराइल व फ्रांस समेत तमाम देष भारत के पक्ष में खड़े थे और अन्ततः चीन को पीछे हटना पड़ा था। तवांग घटना के बाद भी अमेरिका खुल कर भारत के पक्ष में है और संयुक्त राश्ट्र संघ ने यह अपील की है कि क्षेत्र विषेश में तनाव को किसी स्थिति में बढ़ने न दिया जाये।
इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। 1962 के युद्ध के बाद 1967 मे नाफला में चीन और भारत के कई सैनिक मारे गये थे। संख्या के बारे में दोनों देष के अपने-अपने दावे हैं। 1975 में भारतीय सेना के गष्ती दल पर अरूणाचल प्रदेष में चीनी सेना ने हमला किया था। भारत और चीन सम्बंधों के इतिहास में साल 2022 के तवांग घटना का जिक्र भी अब 1962, 1967, 1975 और 2020 की तरह ही होता दिखता है। ऐसा नहीं है कि दोनों देषों के बीच सीमा का तनाव कोई नई बात है व्यापार और निवेष चलता रहता है, राजनीतिक रिष्ते भी खूब निभाये जाते रहे हैं मगर सीमा विवाद हमेषा नासूर बना रहता है। हालांकि बीते ढ़ाई वर्शों से भारत और चीन के द्विपक्षीय रिष्तों पर विराम लगा हुआ है और पूर्वी लद्दाख की घटना के बाद तो भारत ने बड़ा एक्षन लेते हुए कई आर्थिक तौर पर चीन को नुकसान पहुंचाने वाले लिए भी थे। कूटनीति में अक्सर यह देखा गया है कि मुलाकातों के साथ संघर्शों का भी दौर जारी रहता है। भारत और चीन के मामले में यह बात सटीक है पर यह बात और है कि चीन अपने हठ्योग और विस्तारवादी नीति के चलते दुष्मनी की आग को ठण्डी नहीं होने देता जबकि भावनाओं का देष भारत षान्ति और अहिंसा का पथगामी बना रहता है। बावजूद इसके पूर्वी लद्दाख के मामले में भारत ने चीन को यह जता दिया था कि वह न तो रणनीति में कमजोर है और न ही चीन के मनसूबे को किसी भी तरह कारगर होने देगा। ऐसा करने के लिये जो जरूरी कदम होंगे वो भारत उठायेगा। ऐसा ही 2017 में डोकलाम विवाद में भारत के कदम को देखा जा सकता है।
एलएसी की मौजूदा स्थिति की पड़ताल बताती है कि जून 2020 भारत और चीन की सेनाओं के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई। चीन अरूणाचल की सीमा पर गांव बसा रहा है और पड़ोसी पाकिस्तान को भारत के खिलाफ हथियार बनाने में पीछे नहीं रहता है। गलवान घाटी में जो घटा था उसका कोई सबक चीन ने नहीं लिया है। सितम्बर 2020 में पेंगोंग झील के इलाके में एलएसी पर चीनी सैनिकों ने गोलाबारी की जो घटना अंजाम दी थी उसका भी भारत ने मुंह तोड़ जवाब दिया था इस मामले में भी चीन की हरकत बताती है कि सबक नहीं लिया। षीषे में उतारने वाली बात तो यह भी है कि चीन एक ऐसा पड़ोसी देष है जो सिर्फ अपने तरीके से ही परेषान नहीं करता बल्कि अन्य पड़ोसियों के सहारे भी भारत के लिए नासूर बनता है। मसलन पाकिस्तान और नेपाल इतना ही नहीं श्रीलंका और मालदीव यहां तक कि बांग्लादेष से भी ऐसी ही अपेक्षा रखता है। इन दिनों तो अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता है जो चीन और पाकिस्तान की मुकम्मल सफलता का प्रतीक है। तालिबान के सहारे भी चीन भारत के लिये रोड़ा बनते हुए देखा जा सकता है मगर भारत की रणनीतिक दृश्टिकोण जिस प्रकार अफगानिस्तान के लिए रही है उसे देखते हुए चीन ऐसा करने में सफल होगा कठिन तो है मगर तालिबानी सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
पड़ताल तो यह भी बताती है कि चीन का पहले से लद्दाख के पूर्वी इलाके अक्साई चीन पर नियंत्रण है और चीन यह कहता आया है कि लद्दाख को लेकर मौजूदा हालात के लिये भारत सरकार की आक्रामक नीति जिम्मेदार है। यह चीन का वह चरित्र है जिसमें किसी देष और उसके विचार होने जैसी कोई लक्षण नहीं दिखते। दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था चीन पड़ोसियों के लिये हमेषा अषुभ ही बोया है। चीन की दर्जन भर पड़ोसियों से दुष्मनी है और मौजूदा समय में तो ताइवान तो चीन से आर-पार करने को तैयार है। चीन के आरोपों पर भारत हमेषा साफगोही और ईमानदारी से बात कहता रहा है। पूर्वी लद्दाख में घटना के बाद सैन्य वार्ता का बेनतीजा होना यह चीन की नाकामियों का ही परिणाम था। तवांग में झड़प पर चीन की सेना ने भारत के सैनिकों पर ही मिथ्या आरोप मढ़ दिया है। चीन की यह पुरानी आदत है जो कथनी और करनी में बहुत भेद रहता है। चीन की दक्षिण चीन सागर पर बपौती से लेकर हिंद महासागर तक पहुंच रखने वाली इच्छा उसकी अति महत्वाकांक्षा का नतीजा ही है। ऐसी ही चीनी करतूत को संतुलित करने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत ने क्वाड जैसी व्यूह रचना तैयार की है मगर भारत का दुष्मन नम्बर वन चीन पूर्वी लद्दाख से लेकर अरूणाचल तक किस रूप में एलएसी में समस्या पैदा कर दे बताना कठिन है। फिलहाल भारतीय सैनिक तवांग में चीनी सैनिकों को उनकी हद बताने में कामयाब रहे। 

दिनांक : 15/12/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

Monday, December 12, 2022

सौर ऊर्जा महज आवश्यकता नहीं, अपरिहार्यता है

वर्तमान के तकनीकी युग में मनुश्य ने ऐसी विधाओं की खोज की है जिसके चलते सूरज की किरणों को आसानी से विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करना सम्भव है। भौगोलिक स्थिति के आधार पर देखा जाये तो भारत ऐसे देषों में षुमार है जो उश्णकटिबंधीय है और जहां पूरे साल में तीन सौ दिन धूप की भरमार रहती है जो पांच हजार ट्रिलियन किलो वाट घण्टा के बराबर है। जाहिर है इससे सौर ऊर्जा के मामले में भारत मजबूत देष बन सकता है। हालांकि अभी इस दिषा में उतने पुख्ता कदम नहीं उठाये गये हैं जितना कि स्वाभाविक तौर पर होना चाहिए। लेकिन पारम्परिक माध्यमों से विद्युत उत्पन्न करना लगातार महंगा होता जा रहा है ऐसे में सौर ऊर्जा एक बेहतरीन विकल्प बन कर उभर रहा है। सौर ऊर्जा उत्पादन में सर्वाधिक क्रमषः 40 प्रतिषत रूफटॉप सौर ऊर्जा और सोलर पार्क का षामिल है। गौरतलब है कि साल 2035 तक देष में सौर ऊर्जा की मांग सात गुना बढ़ने की सम्भावना है। यदि इस मामले में आंकड़े इसी रूप में आगे बढ़े तो इससे न केवल देष के विकास दर में वृद्धि होगी बल्कि भारत के सुपर पावर बनने के सपने को भी पंख लगेंगे। भारत की आबादी कुछ ही समय में चीन को भी पछाड़ सकती है। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े आबादी वाले देष को बिजली की जो मांग होगी उसमें सौर ऊर्जा कहीं अधिक प्रभावषाली रहेगा। दो टूक यह भी है कि षुद्ध पर्यावरण और हवा की गुणवत्ता भी सौर ऊर्जा के लिए कहीं अधिक बेहतर रहता है। कोविड-19 के दौर में जब देष लॉकडाउन में था तब हवा की गुणवत्ता और पर्यावरणीय सुधार षुद्धता की ओर बढ़ चली थी और गर्मी के महीने में (मार्च से मई) पृथ्वी को 8.3 प्रतिषत अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त हुई थी। विदित हो कि भारत की ऊर्जा मांग का एक बड़ा हिस्सा तापीय ऊर्जा के द्वारा सम्भव होता है जिसकी निर्भरता जीवाष्म ईंधन पर है। वैसे विष्व भर में केवल ऊर्जा उत्पादन में ही प्रति वर्श लगभग 20 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड व अन्य दूशित तत्व निर्गत होते हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी जिम्मेदार हैं। जाहिर है सौर ऊर्जा कार्बन उत्सर्जन की दिषा में कटौती को लेकर भी खड़ी चुनौती को चुनौती दे रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सौर ऊर्जा, ऊर्जा का एक ऐसा स्वच्छ रूप है जो पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का बेहतरीन विकल्प है।
विकासषील अर्थव्यवस्था वाला भारत ऊर्जा के कई विकल्पों पर जोर आजमाइष करता रहा है। औद्योगिकीकरण, षहरीकरण समेत कृशि व रोज़मर्रा की बिजली से जुड़ी आवष्यकताओं से भी भारत को नई-नई चुनौतियां मिलती रही। उच्च जनसंख्या घनत्व के चलते जहां एक ओर सौर्य संयंत्र को स्थापित करने हेतु भूमि की उपलब्धता कम है वहीं परम्परागत ऊर्जा से पूरी पूर्ति होना भी सम्भव नहीं है। सौर ऊर्जा केवल एक सुखद पहलू ही नहीं है बल्कि इससे उत्पन्न कचरे भी भविश्य की चुनौती हो सकते हैं। वर्तमान में भारत ई-कचरा, प्लास्टिक कचरा समेत कई कचरों के निपटान को लेकर मुष्किलों में फंसा है। अनुमान है कि साल 2050 तक भारत में सौर कचरा 1.8 मिलियन के आसपास होने की सम्भावना है। इन सबके अलावा भारत को अपने घरेलू लक्ष्यों को प्राथमिकता देने और विष्व व्यापार संगठन की प्रतिबद्धताओं के बीच भी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। फिलहाल सूर्य की रोषनी ही सौर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है और दुनिया के अधिकतम देष इस ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे है। सौर ऊर्जा के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न योजनाएं भी चलन में देखी जा सकती हैं। बहुत ही कम दामों पर सौर ऊर्जा पैनल उपलब्ध कराये जा रहे हैं। सौर ऊर्जा लगाने पर योजना के अंतर्गत सब्सिडी का भी प्रावधान कमोबेष रहा है। इस बात को भी समझना सही रहेगा कि भारत में हर पांचवां व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और हालिया भुखमरी वाले आंकड़े भी 107वें स्थान के साथ निहायत निराषा से भरे थे। झुग्गी-झोपड़ी से लेकर कच्चे मकानों की तादाद भी यहां बहुतायत में है। 2011 की जनगणना के अनुसार देष में साढ़े छः करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं और करोड़ों बेघर भी हैं। ऐसे में सोलर पैनल को स्थापित करना भी अपने किस्म की एक चुनौती है। भारत सरकार ने बरसों पहले साल 2022 तक दो करोड़ पक्के मकान देने का वायदा किया था। यदि इन मकानों को वाकई में जमीन पर उतार दिया जाये तो यह सोलर पैनल लगाने के काम भी आयेंगे।
देखा जाये तो सरकार ने साल 2022 के अंत तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का जो लक्ष्य निर्धारित किया है उसका कुल जोड़ 175 गीगावाट है जिसमें पवन ऊर्जा साठ गीगावाट, बायोमास दस गीगावाट, जल विद्युत परियोजना महज पांच गीगावाट षामिल है जबकि इसमें सौ गीगावाट सौर ऊर्जा को देखा जा सकता है। हालांकि जिस औसत से बिजली की आवष्यकता बढ़ रही है उसमें समय के साथ कई गुने के बढ़ोत्तरी करते रहना होगा। मगर यह तभी सम्भव है जब सोलर पैनल सस्ते और टिकाऊ हों साथ ही अधिक से अधिक लोगों की छतों तक यह पहुंच सकें साथ ही सोलर पार्क भी बढ़त लिए रहें। चीन की कम्पनियों के साथ भारत की वस्तुओं की हमेषा स्पर्धा रही है। भारतीय घरेलू निर्माता तकनीकी और आर्थिक रूप से उतने मजबूत नहीं हैं ऐसे में दूसरे देषों के बाजार पर निर्भरता भी घटानी होगी। सौर ऊर्जा क्षेत्र में रोजगार के नये अवसर की भी तमाम सम्भावनाएं विद्यमान हैं। आंकड़े बताते हैं कि एक गीगावाट सोलर मैन्यूफैक्चरिंग सुविधा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में लगभग चार हजार लोगों को रोजगार युक्त बना सकती है। इसके अलावा इसके संचालन व रखरखाव में भी रोजगार के अतिरिक्त अवसर ढूंढे जा सकते हैं। साल 2035 तक वैष्विक सौर क्षमता में भारत की कुल हिस्सेदारी 8 फीसद होने की जहां सम्भावना है वहीं तीन सौ तिरसठ गीगावाट की क्षमता के साथ वैष्विक नेता के रूप में उभरने की नई संभावना भी है। अंतर्राश्ट्रीय पहल के अंतर्गत देखें तो अंतर्राश्ट्रीय सौर गठबंधन जिसका षुभारम्भ भारत व फ्रांस द्वारा 30 नवम्बर 2015 को पेरिस में किया गया था जिसकी पहल भारत ने की थी। यह वही दौर था जहां पेरिस जलवायु सम्मेलन को अंजाम दिया जा रहा था। इस संगठन में 122 देष हैं जिनकी स्थिति कर्क और मकर रेखा के मध्य हैं। गौरतलब है कि सूर्य साल भर इन्हीं दो रेखाओं के बीच सीधे चमकता है। जिससे धूप और प्रकाष की मात्रा सर्वाधिक देखी जा सकती है। हालांकि विशुवत रेखा पर यही धूप और ताप अनुपात में सर्वाधिक रहता है।
सौर ऊर्जा कभी न खत्म होने वाला एक सिलसिला है। भारत में राजस्थान के थार मरूस्थल में देष का अब तक सर्वोत्तम सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट प्रारम्भ किया गया है। सौर ऊर्जा मिषन के लक्ष्य पर दृश्टि डालें तो 2022 तक बीस हजार मेगावाट क्षमता वाले सौर ग्रिड की स्थापना के अलावा दो हजार मेगावाट वाली गैर ग्रिड के सुचारू संचालन का नीतिगत योजना दिखती है। इसी मिषन में 2022 तक ही दो करोड़ सौर लाइट को भी षामिल किया गया है। ई-चार्जिंग स्टेषन की स्थापना षुरू कर दी गयी है इसके चलते सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहनों के लिए यह एक बेहतरीन कदम है। गौरतलब है कि भारत में ऑटोमोबाइल क्षेत्र भी सौर ऊर्जा को तेजी से अपनाना षुरू कर दिया है और ऐसे वाहन बनाये जा रहे जिसे पेट्रोल, डीजल के बजाय सौर ऊर्जा से चलाया जा सके। किसी भी योजना को अंजाम देने के लिए कौषल विकास एक अनिवार्य पक्ष है। किसी भी देष का कुषल मानव संसाधन विकासात्मक और सुधारात्मक योजना के लिए प्राणवायु की भांति होता है। भारत में जहां इसकी घोर कमी है वहीं लागत को लेकर भी चुनौती कमोबेष रही है। गौरतलब है कि सौर ऊर्जा की औसत लागत प्रति किलोवाट एक लाख रूपए से अधिक है जो सभी के बूते में तो नहीं है। भारत में ढ़ाई लाख पंचायतें और साढ़े छः लाख गांव हैं जहां खम्भा और तार कमोबेष पहुंचे तो हैं मगर उसमें बिजली भी दौड़ती है इसकी सम्भावना कम ही है। यदि ऐसा है तो कितनी आती है और कितनी जाती है इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। ग्रामीण उद्यमिता और वहां के मझोले, छोटे व लघु उद्योग बिजली की कमी से जूझते हैं जिसके चलते कई कुषलताएं धरी की धरी रह जाती हैं और षहर की ओर पलायन करने की मजबूरी भी जगह बना लेती है। विष्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि यदि भारत की महिलाएं कामगार हो जायें तो भारत की जीडीपी चार फीसद बढ़ सकती है जाहिर है गांव में डेयरी उद्योग से लेकर कई ऐसे हस्तकारी व दस्तकारी समेत पापड़, चटनी, आचार से जुड़े कारोबार हैं जिसमें सौर ऊर्जा निहायत बेष कीमती काम कर सकता है और गांव आत्मनिर्भर बन सकता है। आत्मनिर्भर भारत की योजना को भी सौर ऊर्जा एक नया मुकाम दे सकता है। वैसे देखा जाये तो भारत ने सोलर ऊर्जा के क्षेत्र में कुछ हद तक कमाल भी किया है। साल 2022 की पहली छमाही में सौर ऊर्जा उत्पादन के चलते 1.94 करोड़ टन कोयले की बचत हुई है और साथ ही 4.2 अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च से मुक्ति मिली है। एनर्जी थिंक टैंक एम्बर सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एण्ड क्लीन एयर ऑफ इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमी एण्ड फाइनेंषियल एनालाइसिस की रिपोर्ट्स से उक्त बात खुलासा हुआ है। यहां स्पश्ट कर दें कि सोलर ऊर्जा क्षमता से लैस टॉप 10 अर्थव्यवस्थाओं में 5 एषियाई महाद्वीप के देष हैं जिसमें भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और वियतनाम को देखा जा सकता है। फिलहाल सौर ऊर्जा भविश्य की केवल आवष्यकता नहीं बल्कि अनिवार्यता की दिषा में एक बेहतरीन ऊर्जा स्रोत होगी मगर यह पूरी तरह सक्षम और सषक्त तभी हो पायेगी जब यह सभी तक पहुंच बना लेगी।
 

 दिनांक : 09/12/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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ई-गवर्नेंस को ताकत देगा ई-रूपया

नवम्बर 2016 में विमुद्रीकरण के बाद से ही सरकार द्वारा डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी क्रम में डिजिटल इण्डिया जैसे मिषन भी तेजी से आगे बढ़े। अब यह सिलसिला डिजिटल रूपए तक अनवरत् हो चला है। गौरतलब है कि बीते 1 दिसम्बर को देष के 4 षहरों मुम्बई, दिल्ली, बंगलुरू और भुवनेष्वर में खुदरा डिजिटल रूपए के इस्तेमाल का पायलट प्रोजेक्ट षुरू किया गया। हालांकि अभी सीमित ग्राहकों और कुछ दुकानदारों तक ही यह सुविधा उपलब्ध है मगर भविश्य में इसका प्रयोग देष भर में संभावित देखा जा सकेगा। यहां डिजिटल रूपए को ई-रूपए की संज्ञा दी जा सकती है। जाहिर है ई-रूपए के चलते लोगों की कैष पर निर्भरता कम होगी। इस तरह के लेनदेन में कोई हार्ड करेंसी की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि वॉलेट टू वॉलेट इसका ट्रांजेक्षन सम्भव होता है। ई-रूपया जिस वॉलेट में रखा जायेगा उसे आरबीआई मुहैया करायेगा और बैंक केवल बिचौलियों का काम करेंगे। भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई, आईडीएफसी-फर्स्ट और यस बैंक से खुदरा डिजिटल रूपए लिये जा सकते हैं। विस्तार की अगली कड़ी में यह अहमदाबाद, गुवाहाटी, लखनऊ, पटना और षिमला समेत विभिन्न स्थानों पर ई-रूपए का चलन कुछ ही दिनों में सम्भव होगा। साथ ही इससे जुड़े बैंकों की संख्या में भी इजाफा होगा। ई-रूपए के लेनदेन में बैंकों को इसकी जानकारी नहीं होगी यह सीधे एक वॉलेट से दूसरे में जायेगा और जो भारतीय रिज़र्व बैंक का होगा। इसमें यह बात भी स्पश्ट है कि नकदी के मुकाबले इस पर कोई ब्याज नहीं मिलेगा और इसे बैंक जमा जैसे अन्य नकदी के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। आरबीआई ने कहा है कि ई-रूपया परम्परागत नकद मुद्रा की ही तरह धारक को भरोसा, सुरक्षा और अन्तिम समाधान की खूबियों से भी युक्त होगा।
मौजूदा समय में डिजिटलीकरण को किसी भी सफल अर्थव्यवस्था के क्षेत्र की साझी कड़ी समझी जा सकती है। डिजिटलीकरण की चुनौतियां जैसे-जैसे घटेगी अर्थव्यवस्था वैसे-वैसे सघन होगी। भारत डिजिटल सेवा क्षेत्र में बढ़ रहे प्रत्यक्ष विदेषी निवेष के लिए एक आदर्ष गंतव्य भी है। विगत् कुछ वर्शों में निजी तथा सरकारी सेवाओं को डिजिटल रूप प्रदान किया गया। भारत में ई-गवर्नेंस के चलते सुविधाओं को बढ़ना और चुनौतियों का कमजोर होना देखा जा सकता है। किसानों के खाते में सम्मान निधि का हस्तांतरण डिजिटल गवर्नेंस का एक पारदर्षी उदाहरण है। ई-लर्निंग, ई-बैंकिंग, ई-सुविधा, ई-अस्पताल, ई-याचिका, ई-अदालत समेत कई परिप्रेक्ष्य ई-गवर्नेंस को संयुक्त रूप से ताकत दे रहे हैं। अब इसी कड़ी में ई-रूपए के प्रकटीकरण के चलते ई-भुगतान पारदर्षी तरीके से सुविधा और अर्थव्यवस्था दोनों नजरिये से मजबूती को सांकेतिक करता है। गौरतलब है कि मांग के मुताबिक डिजिटल रूपया आरबीआई की ओर जारी हुआ। देष के प्रमुख षहरों के बैंकों की ओर से लगभग पौने दो करोड़ डिजिटल मुद्रा की मांग की गयी थी। ई-रूपया डिजिटल टोकन आधारित व्यवस्था है जिसे केन्द्रीय बैंक जारी करता है। इसका मूल्य बैंक में लेनदेन वाले नोट के समान ही है और इसे कैष की तरह दो हजार, पांच सौ, दो सौ और सौ रूपया और पचास रूपया और बाकी मूल्यवर्ग में जारी किया जायेगा।
गौरतलब है कि ई-रूपए के चलते मनी लॉण्डरिंग जैसे मामलों पर भी षिकंजा कसना आसान होगा। मनी लॉण्डरिंग को लेकर के देष में आये दिन सरकारी एजेंसी नये-नये कसरत करनी पड़ती है और यह देष में एक प्रकार के भ्रश्टाचार को बढ़ावा देने और सुषासन के मामले में चुनौती भी बना हुआ है। इतना ही नहीं क्रिप्टो करेंसी जैसी चिंता से भी सरकारी संस्थाएं मुक्त रहेंगी। देखा जाये तो क्रिप्टो करेंसी भारत में अक्सर चर्चा का विशय रही है। जिसे लेकर यहां राय बंटी देखी जा सकती है और सरकारी संस्थाएं इसे लेकर कई चिंताओं से युक्त रही हैं। कनफेडरेषन ऑफ ऑल इण्डिया ट्रेडर्स की ओर से भी यह स्पश्ट है कि डिजिटल मुद्रा षुरू करने का आरबीआई का निर्णय स्वागत योग्य है। ऐसे में ई-रूपए को अपनाने और स्वीकार करने के लिए पूरे देष में व्यापारिक समुदाय के बीच एक राश्ट्र व्यापी आंदोलन षुरू किया जायेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि ई-रूपए का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ेगा नकदी के प्रबंधन में भी कमी आयेगी और इससे लेन-देन को भी कैष में कम किया जा सकेगा। जाहिर है लोगों को जेब में कैष लेकर चलने की जरूरत नहीं रहेगी। विदेषों में पैसा भेजने की लागत में भी कमी आयेगी। पेमेंट करने में तो सुविधा रहेगी ही साथ ही ई-रूपया बिना इंटरनेट कनेक्टिविटी के भी काम करेगा। कुल मिलाकर ई-रूपए के चलन से डिजिटल अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी जिसकी फिराक में सरकार बरसों से प्रयासरत् रही है।
हालांकि हर कार्य के दो पहलू होते हैं और हर सिक्के के भी दो पहलू होते हैं। ई-रूपए से भले ही लाभ सर्वाधिक रूप से फलक पर देखा जा रहा हो। मगर कुछ हद तक इसमें नुकसान से सम्बंधित पहलू भी निहित हैं। इसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस तरह के लेनदेन से पूरी तरह निजता सम्भव रहेगी कहना मुष्किल है क्योंकि यह सरकार की निगरानी में संचालित होगा। ई-रूपया पर कोई ब्याज नहीं मिलेगा। रिजर्व बैंक ने इसे लेकर जो स्पश्ट किया है उसमें यह साफ है कि यदि डिजिटल रूपए पर ब्याज दिया गया तो मार्केट में अस्थिरता सम्भव हो सकती है। चूंकि आम तौर पर बचत खाते में जमा राषि पर निर्धारित ब्याज दर सुनिष्चित होता है ऐसे में यदि ई-रूपए पर ब्याज दर होता है तो बचत खाते से पैसे निकालकर डिजिटल करेंसी में बदलने का सिलसिला चल पड़ेगा। गौरतलब है कि ई-रूपए का यह पायलट प्रोजेक्ट एक महीना चलेगा उसके बाद ही इसके विस्तार से जुड़ी चुनौतियां और कमियों का ठीक से अंदाजा मिलेगा। विदित हो कि ई-रूपया पारम्परिक मुद्रा का एक डिजिटल संस्करण है। ई-षासन का षाब्दिक अर्थ ऑनलाइन सेवा से है। लोकतांत्रिक देषों में सरकारें लोक सषक्तिकरण की प्राप्ति हेतु एड़ी-चोटी का जोर लगाती रही हैं। षासन लोक कल्याणकारी, संवेदनषील और कहीं अधिक पारदर्षिता के साथ खुला दृश्टिकोण विकसित करने की फिराक में ई-षासन से ओत-प्रोत होने के प्रयास में संलग्न रही है। भारत ने 1970 में इलैक्ट्रॉनिक विभाग और 1977 में नेषनल इंफोर्मेटिक सेंटर के साथ इस दिषा में कदम बढ़ाया जा चुका था। 1990 के दषक में कम्प्यूटरीकरण में इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था को मजबूती की ओर धकेला और 1991 में उदारीकरण के बाद भारत सुषासन की राह पर चल पड़ा। दुनिया में विष्व बैंक द्वारा दी गयी सुषासन की संकल्पना को इंग्लैण्ड अंगीकृत करने वाला पहला देष है। षनैः षनैः लोक सेवा और जन सषक्तिकरण का स्वभाव बदलता गया और सुषासन की लकीर लम्बी और मोटी होती चली गयी। साल 2005 में सूचना के अधिकार और 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना ने इसे और पुख्ता कर दिया। मोदी सरकार के षासनकाल में डिजिटलीकरण को एक नया आसमान देने का प्रयास हुआ नतीजन ई-षासन एक नई ऊँचाई पर पहुंचा और अब इसी कड़ी में ई-रूपए के चलन में एक और षक्ति से युक्त कर दिया है।

दिनांक : 02/12/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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आर्थिक आरक्षण मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं

जो सामान्य श्रेणी के हैं मगर आर्थिक रूप से कमजोर हैं उनके लिए 10 फीसद आरक्षण देने का प्रावधान साल 2019 में किया गया था। जाहिर है इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग षामिल नहीं है। गौरतलब है इनके लिए पहले से ही आरक्षण का प्रावधान देखा जा सकता है। दोनों में अंतर यह है कि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए सामजिक व षैक्षणिक पिछड़े के कारण यह सुविधा मिली हुई है। गौरतलब है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 व 16 में सामाजिक, षैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रावधान 1993 से क्रियान्वित किया गया है। बषर्ते यह सिद्ध किया जा सके कि वे अन्य वर्गों के मुताबिक उक्त मामले में पिछड़े हैं अर्थात् क्रीमी लेयर में नहीं हैं। अब एक नई व्यवस्था के अन्तर्गत 14 जनवरी 2019 से लागू आर्थिक आरक्षण का प्रावधान को भी षीर्श अदालत ने सही ठहरा दिया है। ध्यानतव्य हो कि संविधान के 103वें संषोधन के तहत सवर्णों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसद आरक्षण के मामले को षीर्श अदालत में चुनौती दी गयी थी जिसमें यह सवाल संलग्न था कि यह प्रावधान संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है। यह मामला इतना गम्भीर समझा गया कि इसमें 40 याचिकायें दायर की गयी थी जिसमें सभी का तर्क कमोबेष मूल ढांचे से ही सम्बंधित था। न्याय की दहलीज पर दूध का दूध और पानी का पानी करना षीर्श अदालत का स्वभाव रहा है। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगाकर फिलहाल मामले को न्याय में तब्दील कर दिया है। हालांकि 1992 के इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में षीर्श अदालत ने आरक्षण को लेकर लक्ष्मण रेखा खींची थी। पहला यह कि जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसद तय की, दूसरा आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में उल्लेखित समता के मूल अधिकार का उल्लंघन है जिसमें यह भी स्पश्ट था कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है न कि व्यक्ति के लिए। गौरतलब है कि 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने जब आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण के प्रस्ताव को लेकर आगे बढ़ना चाह राह थी तब षीर्श अदालत की 9 सदस्यीय पीठ ने इसे खारिज किया था।
फिलहाल आरक्षण के इस मुद्दे पर सितम्बर 2022 में पांच सदस्यीय संविधानपीठ का गठन हुआ और इस पर सुनवाई षुरू की गयी। गरीब सवर्णों के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने कायम रखते हुए बीते 7 नवम्बर को फैसला सुना दिया और स्पश्ट कर दिया कि आरक्षण की यह व्यवस्था कायम रहेगी। हालांकि प्रधान न्यायाधीष समेत दो जजो ने इस पर असहमति जताई और पांच जजों की पीठ में तीन ने इसके पक्ष में अपनी राय दी। अन्ततः इस पर मुहर लग गयी। इसी के साथ राजनीतिक हलकों में सियासत भी नया रूप लेने लगी। गौरतलब है कि राश्ट्रीय जनता दल, डीएमके जैसे दल ने संसद में इस विधेयक का विरोध किया था जबकि आम आदमी पार्टी, सीपीआई व एआईडीएमके ने वोटिंग के दौरान वॉकऑउट किया। देखा जाये तो षीर्श अदालत के इस फैसले के बाद मोदी सरकार की नीतिगत जीत हुई है और वर्ग विषेश में जो अनिष्चितता व्याप्त थी वह भी विराम ले लिया है। विरोध वाला सुर यह है कि आरक्षण के प्रावधान का अर्थ सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करना न कि आर्थिक विशमता का समाधान करना है। अपने पूर्व के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि संविधान में आरक्षण सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने के इरादे से रखा गया है। लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के रूप में नहीं किया जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के अन्तर्गत वे सवर्ण षामिल हैं जिनकी परिवार की आय सालाना आठ लाख रूपए से कम, कृशि योग्य भूमि पांच एकड़ से अधिक न हो, हजार फुट से कम साइज़ का घर हो इसके अलावा अधिसूचित नगर पालिका व गैर अधिकसूचित पालिका में क्रमषः 100 गज और 200 गज से कम का प्लॉट निर्धारित है।
भारत में आरक्षण एक सामाजिक सच है और इस मान्यता पर भी आधारित हो चला है कि इस प्रावधान से ही प्रगति का रास्ता खुलेगा। दरअसल एक सच्चाई यह भी है कि वोट की राजनीति ने भी आरक्षण को एक संवेदनषील मुद्दा बना दिया है। सवर्ण जातियों को भाजपा अपना मजबूत वोट बैंक मानती है हालांकि मौजूदा सरकार जिस पैमाने पर संख्या बल के मामले में है वह सभी के प्राप्त वोटों का ही जोड़ है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण के पीछे सरकारों की नीतियां भी कमोबेष दोशी रही हैं। दुविधा यह है कि जिन सरकारों को विकास का दरिया बहाकर आरक्षण प्राप्त वर्गों को बिना आरक्षण के ही मजबूत आधार दे देना चाहिए, यह सोच तो दूर की कौड़ी सिद्ध हो रही है बल्कि जो सवर्ण आर्थिक रूप से स्वयं को सबल बनाने में पहले से ही सक्षम रहे उसे भी अब आरक्षण देना पड़ रहा है। वैसे इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि आर्थिक मापदण्डों के आधार पर आरक्षण प्रदान करना समाज में एकीकृत करने की दिषा में एक कदम भी है जिसमें धारा से छिन्न-भिन्न हो रहे लोगों को फिर से मुख्य प्रवाह में लाना इसमें षामिल देखा जा सकता है। दो टूक यह भी है कि मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि आरक्षण षब्द कई तर्क को विकसित करते हैं मगर सच यह है कि समतामूलक दृश्टिकोण के बगैर भी भारत मजबूत नहीं होगा और इसके लिए आरक्षण आवष्यक भी हो जाता है।
आर्थिक रूप से दिया जाने वाला आरक्षण होना चाहिए या नहीं यह न्यायाधीषों के बीच सहमति व असहमति से समझा जा सकता है। सहमत न्यायाधीषों की ओर से जो कथन दिखते हैं उसमें यह सामाजिक आर्थिक असमानता खत्म करने के लिए है मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि यह अनंतकाल तक रहना चाहिए। इसे आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुंचाने के रूप में देखा जाये ऐसे में इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। जबकि सहमति के पक्ष में तीसरा कथन यह है कि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे और समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है जबकि असहमति के अन्तर्गत यह कथन भी काफी प्रभावषाली है कि 103वां संविधान संषोधन संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन है। संविधानिक रूप से निशिद्ध भेदभाव को बढ़ावा देता है और समानता पर आघात है। यह कथन न्यायमूर्ति एस रविन्द्र भट का है जिस पर प्रधान न्यायाधीष ने भी अपनी सहमति जताई। फिलहाल न्यायाधीषों के कथन की समीक्षा के आलोक में कुछ भी बहुत मजबूती से ढ़ूंढ़ पाना षायद सभी के लिए कठिन होगा मगर इस सच्चाई से कोई अनभिज्ञ नहीं है कि देष की षीर्श अदालत ने सवर्णों के प्रावधान किए गये 10 फीसद आरक्षण को सही ठहराया। आरक्षण की नई व्यवस्था यह भी दर्षाती है कि 75 साल की आजादी से भरे भारत में विकासात्मक नीतियां उस आधार को तय करने में अभी भी कमतर हैं जहां से सभी के लिए समुचित राह मिल सके। ऐसे में आरक्षण एक ऐसा नियोजन बन जाता है जो ‘साथी हाथ बढ़ाना‘ को चरितार्थ करता है।

दिनांक : 22/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

लैंगिक न्याय और चुनौतियां

20वीं सदी में प्रषासन को दो और दृश्टिकोणों से स्वयं को विस्तारित करना पड़ा। जिसमें एक नारीवादी दृश्टिकोण तो दूसरा पारिस्थितिकी दृश्टिकोण षामिल था। इसी दौर में अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देषों में नारीवाद की विचारधारा को कहीं अधिक बल मिला। महात्मा गांधी ने भी महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा में लाने का काम किया। इतना ही नहीं पुरूशों को उनकी षोशक रीतियों के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के अन्तर्गत समता के अधिकार का निरूपण करके लैंगिक न्याय को विधिक और संवैधानिक रूप से कसौटी पर कसने का काम भी किया गया। लैंगिक आधार पर भेदभाव को न केवल इसके माध्यम से समाप्त किया गया बल्कि नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत विषेश रियायत और सुविधाओं के साथ नारी षक्ति को सबलता की ओर धकेला भी गया। सुप्रसिद्ध विचारक जे.एस. मिल ने भी “दि सब्जेक्षन ऑफ वूमन में लिखा है कि महिला और पुरूशों की जो मानसिक और स्वभावगत विषेशता और संदर्भ है उनमें साझीदारी होनी चाहिए। दोनों के व्यक्तित्व को आदर्ष बनाने के लिए पुरूशों को स्त्रियोचित्त और स्त्रियों के पुरूशोचित्त गुण को एक दूसरे में समाहित कर लेना चाहिए। उक्त के आलोक में यह विष्लेशित करना सहज है कि लैंगिक न्याय की पराकाश्ठा कई असमानताओं की जकड़न की मुक्ति के बाद ही सम्भव हो सकती है। हिन्दी की चर्चित लेखिका महादेवी वर्मा ने 1930 के दषक में लैंगिक न्याय का मुद्दा भी उठाया और बाद में यह कड़ीबद्ध तरीके से प्रकाषित भी हुआ। गौरतलब है कि लैंगिक न्याय लैंगिक असमानता से उपजी एक आवष्यकता है। 21वीं सदी का तीसरा दषक जारी है और भारतीय होने पर सभी को गर्व भी है। मगर बेटे की पैदाइष पर जष्न और बेटी के पैदा होने पर मायूसी कमोबेष आज भी एक झकझोरने वाला सवाल कहीं न कहीं देखने को तो मिलता है। संदर्भ निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि लिंग सामाजिक-सांस्कृतिक षब्द है जो समाज में पुरूश और महिलाओं के कार्य और व्यवहारों को परिभाशित करता है। लेकिन इसी में भेदभाव व्याप्त हो जाये और एक-दूसरे के लिए चुनौती और असमानता साथ ही लैंगिक रूप से कमजोर मानने की प्रथा का विकास हो जाये तो न्याय की मांग स्वाभाविक है।
भारत दुनिया में सबसे युवा देषों में एक है और अनुमान यह भी है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी भारत समेत महज नौ देषों में होगी। किसी भी देष में बच्चे चाहे बेटा हो या बेटी भविश्य की पूंजी होते हैं और इन्हें गरिमा और सम्मान के साथ परवरिष और समतामूलक दृश्टिकोण के अंतर्गत अग्रिम पंक्ति में खड़े करने की जिम्मेदारी व्यक्ति और समाज की ही है मगर जब विशमताएं और लैंगिक भेदभाव किसी भी वजह से जगह बनाती हैं तो यह समाज के साथ-साथ देष के लिए भी बेहतर भविश्य का संकेत तो नहीं है। वैष्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2022 के आंकड़े यह दर्षाते हैं कि भारत 146 देषों में 135वें स्थान पर है जबकि साल 2020 के इसी सूचकांक में 153 देषों में भारत 112वें स्थान पर था। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हैं। सवाल यह है कि किस असमानता के पीछे बड़ा कारण क्या है। आर्थिक भागीदारी एवं अवसर की कमी के अलावा षिक्षा प्राप्ति में व्याप्त अड़चनें, स्वास्थ एवं उत्तरजीविता तथा सषक्तिकरण को इसके लिए जिम्मेदार समझा जा सकता है। 2022 के इस आंकड़े में आइसलैण्ड जहां इस मामले में षीर्श पर है वहीं निम्न प्रदर्षन के मामले में अफगानिस्तान को देखा जा सकता है। हैरत यह भी है कि पड़ोसी देष नेपाल, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव और भूटान की स्थिति भारत से बेहतर है जबकि दक्षिण एषिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तन का प्रदर्षन भारत से खराब है। यह बात भी समझा जाये तो कोई अतार्किक न होगा कि कोविड के चलते व्याप्त मंदी ने महिलाओं को भी बाकायदा प्रभावित किया और लैंगिक अंतराल सूचकांक में तुलनात्मक गिरावट आयी। गौरतलब है कि लैंगिक असमानता को जितना कमजोर किया जायेगा लैंगिक न्याय व समानता को उतना ही बल मिलेगा। संविधान से लेकर विधान तक और सामाजिक सुरक्षा की कसौटी समेत तमाम मोर्चों पर लैंगिक असमानता को कमतर करने का प्रयास दषकों से जारी है मगर सफलता मन माफिक मिली है इस पर विचार भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। लैंगिक आधार पर भेदभाव को व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों दृश्टि से समाप्त करने की कवायद जारी है। हालांकि कई ऐसे कानून मौजूद हैं जो लैंगिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं इसमें समुदाय विषेश के पर्सनल लॉ भी हैं। जहां ऐसे प्रावधान निहित हैं जो महिलाओं के अधिकारों को न केवल कमजोर करते हैं बल्कि भेदभाव से भी युक्त हैं। समान नागरिक संहिता को संविधान के नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में देखा जा सकता है। चूंकि भारत लैंगिक समता के लिए प्रयास करने वाला देष है ऐसे में समान सिविल संहिता एक आवष्यक कदम के रूप में समझा जा सकता है। इसके होने से समुदाय के बीच कानूनों में एकरूपता और पुरूशों तथा महिलाओं के अधिकारों में बीच समानता का होना स्वाभाविक हो जायेगा। इतना ही नहीं विषेश विवाह अधिनियम 1954 किसी भी नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी धर्म का हो, सिविल मैरिज का प्रावधान करता है। जाहिर है इस प्रकार किसी भी भारतीय को किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून की सीमाओं के बाहर विवाह करने की अनुमति देता है। साल 1985 के षाह बानो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसके पक्ष में निर्णय दिया था जिसमें पत्नी, बच्चे और माता-पिता के रखरखाव के सम्बंध में सभी नागरिकों पर लागू होता है। इतना ही नहीं देष की षीर्श अदालत ने लम्बे समय से लम्बित समान नागरिक संहिता अधिनियमित करने की बात भी कही। 1995 के सरला मुदगल मामला हो या 2019 का पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परोरा मामला हो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कहा। गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता लैंगिक न्याय की दिषा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है इससे न केवल व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं में बंधे असमानता को रोका जा सकेगा बल्कि नारी की प्रगतिषील अवधारणा और उत्थान को भी मार्ग दिया जा सकेगा। इस बात पर गौर किया जाये कि साल 2030 तक विष्व के सभी देष अपने वैष्विक एजेण्डे के अंतर्गत न केवल गरीबी उन्मूलन व भुखमरी की समाप्ति से युक्त हैं बल्कि स्त्री-पुरूश के बीच समानता के साथ लैंगिक न्याय समेत कई लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में है। ऐसे में बहुआयामी लक्ष्य के साथ लैंगिक न्याय को भी प्राप्त करना किसी भी देष की कसौटी है और भारत इससे परे नहीं है। लिंग आधारित समस्याओं का बने रहना न केवल देष में बहस का मुद्दा खड़ा करता है बल्कि विकसित होने के पैमाने को भी अधकचरा बनाये रखता है। विष्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि यदि भारत की पढ़ी-लिखी महिलाएं कामगार हो जायें तो देष की जीडीपी सवा चार फीसद रातों रात बढ़ सकती है। यहां ध्यान दिला दें कि यदि यही विकास दर किसी तरह प्राप्त कर लिया जाये तो जीडीपी दहाई में होगी और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने को भी पंख लग जायेंगे।
बेषक भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है। मगर इसकी यह जड़ अब उतनी मजबूत नहीं कही जा सकती। भारत में महिलाओं के लिए बहुत से सुरक्षात्मक उपाय बनाये गये हैं। महिलाओं के साथ अत्याचार आज भी खतरनाक स्तर पर है इससे इंकार नहीं किया जा सकता मगर यही महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं इससे भी सभी वाकिफ हैं। सिविल सेवा परीक्षा में तो कई अवसर ऐसे आये हैं जब महिलाएं न केवल प्रथम स्थान पर रही हैं बल्कि एक बार तो लगातार 4 स्थानों तक और एक बार तो लगातार 3 स्थानों तक महिलाएं ही छायी रहीं। उक्त परिप्रेक्ष्य एक बानगी है कि लिंग असमानता या लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां तो हैं मगर वक्त के साथ लैंगिक समानता भी प्रगति किया है। दहेज प्रथा का प्रचलन आज भी है जिसे सामाजिक बुराई या अभिषाप तो सभी कहते हैं मगर इस जकड़न से गिने-चुने ही बाहर हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून बने हैं फिर भी यदा-कदा इसका उल्लंघन होना प्रकाष में आता रहता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 52 फीसदी महिलाओं पर घरेलू हिंसा कम-ज्यादा होता है। यह भी लैंगिक न्याय की दृश्टि से चुनौती बना हुआ है जबकि घरेलू हिंसा कानून 2005 से ही लागू है। महिलाओं को आज की संस्कृति के अनुसार अपनी रूढ़िवादी सोच को भी बदलना होगा। पुरूशों को महिलाओं के समानांतर खड़ा करना या महिलाएं पुरूशों से प्रतियोगिता करें यह समाज और देष दोनों दृश्टि से सही नहीं है बल्कि सहयोगी और सहभागी दृश्टि से उत्थान और विकास को प्रमुखता दे यह सभी के हित में है। यह बात जितनी सहजता से कही जा रही है यह व्यावहारिक रूप से उतना है नहीं। मगर एक कदम बड़ा सोचने से दो और कदम अच्छे रखने का साहस यदि विकसित होता है तो पहले लैंगिक न्याय की दृश्टि से एक आदर्ष सोच तो लानी ही होगी। फिलहाल लैंगिक समानता का सूत्र सामाजिक सुरक्षा और सम्मान से होकर गुजरता है। समान कार्य के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाष, जेंडर बजटिंग समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य देखे जा सकते हैं जहां लैंगिक न्याय को पुख्ता करना आसान हो जाता है। राजनीतिक सषक्तिकरण के मापदण्डों को देखें तो भारत 2020 में इसमें भागीदारी को लेकर 18वें स्थान पर रहा है और मंत्रिमण्डल में भागीदारी के मामले में भारत विष्व में 69वें स्थान पर था। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, वन स्टॉप सेंटर योजना, महिला हेल्पलाइन योजना, महिला सषक्तिकरण केन्द्र तथा राश्ट्रीय महिला आयोग जैसी तमाम संस्थाएं लैंगिक समानता और न्याय की दृश्टि से अच्छे कदम हैं। बावजूद इसके लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां भी कमोबेष बरकरार हैं।

 दिनांक : 22/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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मजबूत दावों के बीच बेलगाम कार्बन उत्सर्जन

जब कभी विकास की ओर कोई नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर पर्यावरण को होता है और यही असर एक आदत का रूप ले ले तो दुश्प्रभाव की पूरी सम्भावना बन जाती है और ऐसे दुश्प्रभाव को समय रहते समाधान न दिया जाये तो पृथ्वी और उसके जीव, अस्तित्व को लेकर एक नई चुनौती से गुजरने लगते हैं। वैष्विक स्तर पर बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन ने ऐसी ही चुनौतियों को विष्व के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया है। हालांकि यह नई परिघटना नहीं है मगर हालात बिगड़े न इसे लेकर बरसों से हो रहे प्रयासों को फिलहाल झटका तो लगा है। चिंता की बात यह है कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर षिखर सम्मेलन, सेमिनार तथा बैठकों का दौर भले ही कितने मजबूती के साथ होते रहे हों मगर इस मामले में लगाम लगाना तो दूर की बात है इसका स्वरूप विनाषक होता जा रहा है। हालिया रिपोर्ट यह बताती है कि कार्बन उत्सर्जन घटने की जगह लगातार बढ़त बनाये हुए है। विदित हो कि मिस्र के संयुक्त राश्ट्र जलवायु षिखर सम्मेलन (कॉप-27) में रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया है कि साल 2022 में वायुमंडल में चार हजार साठ करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ। जाहिर है यह जीवन विन्यास और सभ्य दुनिया के माथे पर लकीरें खींचने वाला है। इतना सघन कार्बन उत्सर्जन यह संकेत करता है कि तापमान वृद्धि पर काबू पाना मुष्किल होगा। रिपोर्ट से यह भी स्पश्ट हुआ कि 2019 में यही कार्बन उत्सर्जन तुलनात्मक थोड़ा अधिक था। कोरोना वायरस से जब दुनिया चपेट में थी और विष्व के देषों में कमोबेष लॉकडाउन लगाया गया था तो कार्बन उत्सर्जन में न केवल गिरावट थी बल्कि आसमान कहीं अधिक साफ और प्रदूशण से मुक्त देखने को मिला। वायुमण्डल में इतने व्यापक रूप से बढ़े कार्बन-डाइ ऑक्साइड से पेरिस जलवायु समझौता 2015 में किये गये वायदे और इरादों को भी झटका लगता है।
दरअसल कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देषों में कभी एकजुटता देखने को मिली ही नहीं। विकसित और विकासषील देषों में इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक पैमाने पर रहे हैं। इतना ही नहीं कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देष बढ़-चढ़कर अंकुष लगाने की बात करते रहे और हकीकत में नतीजे इसके विपरीत बने रहे। पृथ्वी साढ़े चार अरब वर्श पुरानी है और कई कालखण्डों से गुजरते हुए मौजूदा पर्यावरण में है। मगर बेलगाम कार्बन उत्सर्जन से इसके सिमटने की सम्भावनाएं समय से पहले की ओर इषारा कर रही है। इसमें कोई षक नहीं कि पृथ्वी स्वयं में भी एक बदलाव निरंतर करती रहती है मगर कार्बन उत्सर्जन की इतनी बड़ी बढ़ोत्तरी तापमान की दृश्टि से अस्तित्व को ही खतरे में डालने वाला है। पड़ताल बताती है कि पूर्व औद्योगिक काल (1850 से 1900) में औसत की तुलना में पृथ्वी की वैष्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। जिसके चलते पूरी दुनिया में कम-ज्यादा सूखा, जंगल में आग और बाढ़ के परिदृष्य उभरने लगे। 20वीं सदी में औद्योगिकीकरण उबाल पर थी और 21वीं सदी में यह कहीं अधिक रफ्तार लिए हुए है। हालांकि दुनिया में कई देष ऐसे भी हैं जो कार्बन उत्सर्जन के मामले में तनिक मात्र भी योगदान नहीं रखते मगर कीमत तो उन्हें भी चुकानी पड़ रही है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि साल 2021 में कुल कार्बन उत्सर्जन के आधे हिस्से में चीन अमेरिका और यूरोपीय संघ षामिल थे। इस मामले में भारत का योगदान महज सात फीसद है जबकि पड़ोसी चीन 31 प्रतिषत कार्बन उत्सर्जन करता है जो अपने आप में सर्वाधिक है। हालांकि भारत में साल 2022 में उत्सर्जन में 6 प्रतिषत की वृद्धि हुई है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोयला रहा है। कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि अमेरिका समेत षेश दुनिया में भी रही मगर तुलनात्मक प्रतिषत कम है जबकि चीन और यूरोपीय संघ में 2021 में मुकाबले क्रमषः 0.9 व 0.8 फीसद की गिरावट दर्ज की गयी। एक ओर जहां कार्बन उत्सर्जन के चलते वैष्विक तापमान डेढ़ डिग्री की बढ़ोत्तरी आगामी नौ वर्श में सम्भव है वहीं दुनिया इस मुहिम में पहले से ही जुटी है कि सदी के आखिर तक तापमान बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं पहुंचने दिया जाये। साफ है कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का प्रयास जितना सैद्धांतिक दिखता है दरअसल में उतना व्यवहारिक है नहीं।
ग्लासगो के 26वें संयुक्त राश्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-26) में यह था कि 2050 तक कार्बन उत्सर्जन की सीमा को षून्य करने के उद्देष्य को हासिल करने हेतु बनाने और बिगाड़ने का मौका है। जाहिर है यह एक ऐसी महत्वाकांक्षी विचारधारा है जहां पर जलवायु गतिविधियों को लेकर अतिषय से होकर गुजरना ही होगा। विकासषील देषों से यह उम्मीद की जाती रही है कि वह कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। हालांकि भारत इस मामले में बेहतर सोच रखता है मगर अकेले की कोषिष से इस बड़़े संकट से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। पेरिस जलवायु सम्मेलन-2015 में दुनिया के पर्यावरण संरक्षण हेतु कार्बन उत्सर्जन को षून्य पर लाने की सघन और बहुआयामी सहमति बनी थी। बावजूद इसके मानवजनित गतिविधियों ने ऐसे समझौतों को दरकिनार किया है और बढ़ते तापमान का बड़़ा सामाजिक और आर्थिक असर देखा जा सकता है। इसी समझौते के लक्ष्य को हासिल करने हेतु ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 2030 तक 45 प्रतिषत कम करना भी था और सदी के अंत तक इसमें पूरी तरह कमी की बात थी। मतलब साफ था कि कार्बन उत्सर्जन जो मानवजनित है उसे षून्य पर लाना अर्थात् जितना प्राकृतिक तौर पर सोखा जा सके उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो। बड़ी बातें बड़ी वजहों से पैदा हों तो उतना नहीं खटकती जितना कि बड़े-बड़े वायदे तो हों मगर नतीजे सिफर हों। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका ने 1990 से 2014 के बीच अकेले भारत को 257 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचाया। जबकि दुनिया में यही नुकसान 1.9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। जिसमें सबसे ज्यादा ब्राजील को 310 अरब डॉलर का है। अमेरिका जैसे देष अमेरिका प्रथम की नीति पर चलते हैं जबकि भारत जैसे देष ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को अपनाते हैं। यही कारण है कि कार्बन उत्सर्जन में जो अव्वल है वो औद्योगिकीकरण और विकास को चरम बनाये हुए हैं। जबकि तीसरी दुनिया व विकासषील देष आर्थिक कठिनाईयों के चलते कार्बन उत्सर्जन में तो फिसड्डी हैं ही साथ ही विकास के मामले में भी संघर्श करते रहते हैं। कॉप-26 और भारत को समझे ंतो वैष्विक कार्बन बजट, न्याय की लड़ाई और विकासषील देषों के नेतृत्व को लेकर भारत की उपादेयता कहीं अधिक विष्वसनीय दिखती है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में यह भी है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देष कार्बन उत्सर्जन के मामले में कोविड-19 से पहले की स्थिति में पहुंच रहे हैं। हालांकि लॉकडाउन के मामले में 2020 में जीवाष्म कार्बन उत्सर्जन 5.4 प्रतिषत की गिरावट आयी थी। षोधकर्त्ताओं का अनुमान है कि पृथ्वी के पास अब बयालिस सौ करोड़ का कार्बन बजट षेश है। इसका आंकलन करके समझा जाये तो यह 2022 की षुरूआत से 11 साल के बराबर होता है।
भारत की अपनी चिंताएं हैं भारत के सामने इसे लेकर चुनौती भी दोहरी है। एक तरफ जहां करोड़ों लोगों को भुखमरी और गरीबी से ऊपर उठाना है जिसके लिए आर्थिक विकास अपरिहार्य है तो वहीं दूसरी ओर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन पर भी कमी लाना है। उक्त दोनों दृश्टिकोण एक-दूसरे के अंतर्विरोधी हैं। यही कारण है कि उश्णकटिबंधीय देष भारत सौर और पवन ऊर्जा के विस्तार से अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का रास्ता भी ढूंढ रहा है। इसके लिए भारत की पहल पर भी उश्णकटिबंधीय देषों को एकजुट करने का प्रयास भी हुआ। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर सम्मेलनों में साहस दिखाने वाले देषों की कमी नहीं है मगर देष के भीतर आर्थिक विकास की आपा-धापी के चलते वायदों पर भी खरे नहीं उतर पाते हैं। गौरतलब है कि जैसे आम जीवन में बजट बिगड़ जाये तो जीवन की जरूरतें पूरी करने में कठिनाई होती है वैसे ही कार्बन बजट में असंतुलन हो जाये तो पृथ्वी पर अस्तित्व की लड़ाई खड़ी हो जाती है। कार्बन बजट से आषय है वातावरण में कार्बन-डाई ऑक्साइड की वह मात्रा जिसके बाद कार्बन बढ़ने से पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने लगेगा। यदि इसे वाकई में पाना है तो वैष्विक उत्सर्जन में हर साल औसतन 140 करोड़ टन की कटौती करनी होगी तब कहीं जाकर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के मामले में षून्य तक पहुंचा जा सकेगा। कार्बन उत्सर्जन के चलते जल और जमीन दोनों दूशित और प्रदूशित हो रहे हैं। महासागर ज्यादा गर्म हो रहे हैं, ग्लेषियर पिघल रहे है और सागर देषों को डुबोने की ओर ताक रहे हैं। फसलों की विविधता और उत्पादकता में घटोत्तरी भी हो रही है। जाहिर है यदि यह सब होता रहा तो खाने के लिए न तो अनाज मिलेगा और न ही सांस लेने के लिए वातावरण से वो षुद्ध हवा जिस पर दुनिया टिकी है। 143 देषों में किसी एक देष से हुए कार्बन उत्सर्जन में दूसरे देष की अर्थव्यवस्था पर भी कुछ न कुछ नुकसान पहुंचाया है। ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रकोप था कि यूरोपीय देषों में लू चलने लगी है और तापमान भी 40 डिग्री पार कर चुका है साथ ही इन्हीं देषों के जंगल भी आग से धू-धू हो रहे थे। साफ है कि कार्बन उत्सर्जन से उत्पन्न समस्या निजी नहीं है और दुनिया के देष भले ही आर्थिकता और सभ्यता के चरम पर हों मगर पृथ्वी को उसी की भांति बनाये रखने में यदि सफल नहीं होते हैं तो वैष्विक जगत बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहे।

 दिनांक : 11/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में उच्च शिक्षा और शोध

बदलते वैष्विक परिप्रेक्ष्य में अब यह भी समीचीन हो चला है कि दुनिया इस आंकलन पर भी आकर अपना मन्तव्य रखेगी कि अमुख देष का षोध व अनुसंधान भी किस स्तर का है। गौरतलब है कि षिक्षण, षोध एवं विस्तार कार्य इन तीनों उद्देष्यों की पूर्ति का माध्यम उच्च षिक्षा है जबकि मानव जाति, संस्कृति और समाज का ज्ञान आदि षोध से संचालित होता है। यूनेस्को के अनुसार ज्ञान के भण्डार को बढ़ाने के लिए योजनाबद्ध ढंग से किये गये सृजनात्मक कार्य को ही षोध एवं विकास कहा जाता है। देखा जाये तो ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है। जहां तक व्यावसायिक षिक्षा और पेषेवर प्रषिक्षण का सवाल है बीते कुछ दषकों से इसकी मांग बढ़ी है। नई षिक्षा नीति 2020 भी ऐसी ही भावनाओं से ओत-प्रोत है। उच्च षिक्षा को लेकर जो सवाल उभरते हैं उसमें एक यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर षिक्षा और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं, दूसरा यह कि क्या षिक्षा का तकनीकी होने का बड़ा लाभ देष उठा रहा है। षोध और अनुसंधान को लेकर भी ऐसे ही सवाल मानस पटल पर उभरते हैं। आज की वैज्ञानिक प्रतिस्पर्धा वाली दुनिया में भारत के अनुसंधान एवं विकास की क्या स्थिति है? चीन व जापान जैसे देषों से भारत षोध कार्यों के मामले में पीछे क्यों है? षोध व विकास को लेकर भारत की प्रगति में वह कौन सी रूकावट है जो अनुसंधान का पहिया रोक रहा है? गौरतलब है कि विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैःषनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी और निजी संस्थाओं में भी विकसित हो गयी मगर गुणवत्ता के मामले में उसी गति से कमजोर भी हुई। यहीं से उच्च षिक्षा और उसमें निहित अनुसंधान की प्रगति का पहिया धीमा पड़ने लगा।
अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। अमृत महोत्सव के दौर में 15 अगस्त 2022 के भाशण में प्रधानमंत्री मोदी ने जय अनुसंधान का नारा दिया जो जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान का विस्तार है। हालांकि साल 2019 में पंजाब के जालंधर में स्थित एक विष्वविद्यालय में आयोजित 106वीं राश्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान जय अनुसंधान का उल्लेख प्रधानमंत्री पहले ही कर चुके थे। पड़ताल बताती है कि लगभग 5 दषक पहले 50 फीसद से अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान विष्वविद्यालयों में ही होते थे। इतना ही नहीं विष्वविद्यालयों को उच्च षिक्षा के प्रांगढ़ और षोधालय के तौर पर भी देखा जाता था मगर मौजूदा समय में अब स्थिति केवल उपाधियों के वितरण तक ही सीमित दिखाई देती है। इसके पीछे एक बड़ा कारण अनुसंधान के लिए धन की उपलब्धता में कमी भी है। साथ ही युवाओं का षोध में कम तथा अन्य क्षेत्रों में जुड़ाव का अधिक होना भी है। महिलाओं के मामले में यह कहना अतार्किक नहीं होगा कि उच्च षिक्षा तक पहुंच ही उनके लिए बड़ी उपलब्धि है जबकि कई सामाजिक बेड़ियों एवं कमियों से षोध और अनुसंधान में उपस्थिति स्तरीय नहीं हो पाने की कठिनाई समझी जा सकती है। कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में उपलब्धियों को छोड़ दें तो वैष्विक पटल पर भारत के अनुसंधान की स्थिति धरातल पर उतनी मजबूत नहीं दिखती। मौजूदा समय में देष में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या सभी प्रारूपों में 4 करोड़ से अधिक है। सभी प्रकार के विष्वविद्यालयों की संख्या भी हजार से अधिक है। 40 हजार से ज्यादा महाविद्यालय हैं। इसके अलावा भी कई सरकारी और निजी षोध संस्थाएं भी देखी जा सकती हैं। यह बात जितनी षीघ्रता से समझ ली जायेगी कि षोध एक समुचित, सुनिष्चित तथा आंकलन व प्राक्कलन से भरा विकास का एक ऐसा वैज्ञानिक रास्ता सुझाता है जिससे देष के समावेषी ढांचे को न केवल मजबूत करना सम्भव है बल्कि आत्मनिर्भर भारत का फलक भी प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी देष का विकास वहां के लोगों के विकास से गहरा सम्बंध रखता है। विकास के पथ पर कोई देष तभी आगे बढ़ा है और बढ़ सकता है जब उसके पास उच्च षिक्षा के स्तर पर षोध और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों।
भारत षोध एवं नवाचार के मामले में अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.7 फीसद ही खर्च करता है जबकि अमेरिका 2.8 प्रतिषत और चीन 2.1 फीसद के साथ तुलनात्मक कई गुने की बढ़त लिए हुए है। इतना ही नहीं इज़राइल और दक्षिण कोरिया जैसे मामूली जनसंख्या वाले देष अपनी षोधात्मक क्रियाकलाप पर कुल जीडीपी का 4 फीसद से अधिक व्यय करते हैं। अमेरिका और चीन के समावेषी खर्च को षोध की दृश्टि से देखें तो ट्रेड वॉर और कूटनीतिक लड़ाई के अलावा षोध और उच्च षिक्षा पर भी प्रतिस्पर्धा जारी है। संदर्भ तो यह भी है कि चीन ने रिसर्च प्रकाषित करने और उच्च षिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। जापान के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की रिपोर्ट पर दृश्टि डालें तो साफ है कि पूरी दुनिया में जितने रिसर्च पेपर प्रकाषित होते हैं उसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी चीन की ही है। इसके बाद अमेरिका तत्पष्चात् जर्मनी का स्थान आता है। गौरतलब है कि साल 2018 और साल 2022 के बीच इकट्ठे किये गये आंकड़े के अनुसार  चीन 27.2 फीसद रिसर्च पेपर प्रकाषित किया जबकि अमेरिका में यही आंकड़ा 24.9 प्रतिषत है। चीन से पिछड़ने के चलते अमेरिका ने अपने षोध कार्यों को मजबूती देने के लिए आगामी 10 वर्शों में दो सौ अमेरिकी डॉलर खर्च करने का निर्णय लिया है। भारत की षोध में वैष्विक रैंकिंग अच्छी नहीं है जिसके चलते षोध का फायदा जनता को नहीं मिल पा रहा है जाहिर है जय अनुसंधान एक सुगम ष्लोगन है मगर जब तक षोध में खर्च बढ़ाने की स्थिति प्रगाढ़ नहीं होगी तब तक जमीनी हकीकत कुछ और ही रहेगी।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि उच्च षिक्षा और षोध किसी राश्ट्र की प्रगति की रीढ़ है और यह भी मान्यता है कि उच्च षिक्षा में षोध की भूमिका सबसे अहम् होती है दूसरे षब्दों में कहें तो यह एक-दूसरे की पूरक हैं। उच्च षिक्षा और षोध का संयोजन जय अनुसंधान के ष्लोगन से यदि तुलनात्मक बढ़त लेता है तो समावेषी विकास के साथ सुषासन को भी बुलंदी मिलेगी। हालांकि वैष्विक नवाचार सूचकांक 2022 की स्थिति को देखें तो भारत 40वें पायदान पर है जबकि स्विट्जरलैण्ड पहले, तत्पष्चात् अमेरिका, स्वीडन, ब्रिटेन और नीदरलैंड का स्थान है। षिक्षाविद् प्रोफेसर यषपाल का कथन है कि जिन षिक्षण संस्थानों में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वे न तो षिक्षा का भला कर पाते और न ही समाज का। इसमें कोई दो राय नहीं कि षोध के क्षेत्र में भारत के समक्ष चुनौतियां कई हैं मगर कई उपलब्धियां भी इसी के साथ देखी जा सकती हैं। विज्ञान और तकनीक में भारत की जनषक्ति, मौसम पूर्वानुमान व निगरानी में सुपर कम्प्यूटर बनाने, नैनो तकनीक समेत कई ऐसे संदर्भ षोध की दृश्टि से उपलब्धियों से भरे हैं। बावजूद इसके उक्त कुछ चुनिंदा क्षेत्रों की उपलब्धियों को छोड़ दें तो भारत की वैष्विक फलक पर अनुसंधान की स्थिति उतनी मजबूत नहीं दिखती जितना एक बड़ा देष होने के नाते होना चाहिए।  

 दिनांक : 09/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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ताकि कुशल और कौशलयुक्त बने स्कूली शिक्षा

दो साल पहले 29 जुलाई 2020 को नई राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 एक दस्तावेज के रूप में भारतीय जनमानस के सामने आया। विदित हो कि षिक्षा व्यक्ति, समाज व राश्ट्र के लिए मूलभूत आवष्यकता के तौर पर समझी जाती है। भविश्य को ध्यान में रखकर नई षिक्षा नीति तमाम पहलुओं को समेटे हुए जमीन पर उतरने के कगार पर खड़ी है और कमोबेष उतर भी रही है। हालांकि इसका समस्त विस्तार आने वाले वर्शों में पूरी तरह प्रतिबिम्बित होगा मगर मौजूदा समय में नई दृश्टि और मजबूत विवेचना के साथ बेषुमार उम्मीदें इस षिक्षा नीति से है। गौरतलब है मानव का सम्पूर्ण विकास बिना षिक्षा के सम्भव ही नहीं है। जाहिर है षिक्षा समावेषी ढंाचे का एक ऐसा आयाम है जिसका न तो कोई विकल्प है न ही इससे किसी को वंचित रखा जा सकता है। वैसे एक सघन बात यह भी है कि भारत जैसे देष के लिए षिक्षा का एक सषक्त मॉडल होना चाहिए जिसके चलते खुली दुनिया में भारत के विद्यार्थियों को स्पर्धा करना आसान हो जाये जो स्कूल की बेहतरी से सम्भव है। षिक्षा जिस तरह निजी कारोबार बनी है उसमें यह पूरी तरह गुणवत्ता से युक्त हो पायी है ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता। वास्तव में देष की षिक्षा नीति में जिस समावेषी और बुनियादी विशय पर दृश्टि ही नहीं पड़ी उसमें देष के नौनिहालों का पौश्टिक आहार से युक्त होना और बौद्धिक विस्तार के लिए रखरखाव से भरी षिक्षा को पोशित करना। इसमें कोई दुविधा नहीं कि पौश्टिक आहार षरीर को बेहतर स्वास्थ देने में मदद करेंगे तो उत्कृश्ट षिक्षा सर्वांगीण विकास का अवसर प्रदान करेगा। षिक्षा और तकनीक का गहरा सम्बंध है और 21वीं सदी में यह कहीं अधिक चौड़ा रूप ले चुकी है।
चेतनामूलक दृश्टिकोण यह भी है कि स्कूली षिक्षा, उच्च षिक्षा की आधारभूत व्यवस्था है। भारतीय संविधान के भाग-3 के अंतर्गत षिक्षा एक मौलिक अधिकार है। षासन, संरचनात्मक तौर पर मजबूत व्यवस्था देकर षिक्षा को गुणवत्ता से युक्त और स्वयं को सुषासन से परिपूर्ण बना सकती है। षिक्षा और सुषासन का गहरा सम्बंध है और यह और अधिक सघन तब हो सकता है जब नई षिक्षा नीति 2020 को विषिश्टता के साथ नौनिहालों में उत्कृश्टता के साथ रोपाई सम्भव होगी। जहां तक स्कूली षिक्षा का प्रष्न है सीखने की प्रक्रिया को यदि समग्र प्रयोग और अनुप्रयोग के साथ समन्वित और आनन्ददायक रूप प्रदान कर दिया जाये तो बच्चों की बहुत कुछ सीखने और समझने की चाहत को बढ़ाया जा सकता है। हालांकि ऐसे प्रयास 2005 के नेषनल करिकुलम फ्रेमवर्क में जोर दिया गया था जहां रट कर सीखने की समस्या के समाधान की कोषिषों पर मुख्यतः जोर दिये जाने के बावजूद इसके अब भी बने रहने पर नई षिक्षा में चिंता व्यक्त किया गया। फिलहाल स्कूली षिक्षा के सुधार में राश्ट्र के समग्र विकास का संदर्भ व रहस्य छुपा है। बीते 3 नवम्बर को केन्द्रीय षिक्षा मंत्रालय के प्रदर्षन श्रेणी सूचकांक (पीजीआई 2020-21) जारी किया गया। विदित हो कि नीति आयोग ने स्कूली षिक्षा गुणवत्ता रैंकिंग के अन्तर्गत देष भर के स्कूली षिक्षा को समझने का एक जरिया देता है। जारी आंकड़े यह इषारा करते हैं कि स्कूली षिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अन्तर बहुत भारीपन के साथ है। रैंकिंग यह दर्षाती है कि देष के बीस बड़े राज्यों में केरल सबसे अच्छा प्रदर्षन करते हुए 76.6 अंकों के साथ पहले स्थान पर है। समुच्चय दृश्टिकोण के अन्तर्गत भारत के 6 राज्यों मसलन केरल, पंजाब, चण्डीगढ़, महाराश्ट्र, गुजरात, राजस्थान और आंध्रप्रदेष समेत केन्द्रषासित चण्डीगढ़ ने एल-2 स्तर को हासिल किया जिसमें गुजरात, राजस्थान और आंध्रप्रदेष इस स्तर पर पहुंचने वाले तीन नये राज्य हैं। गौरतलब है कि इस सूचकांक में कई लेवल (स्तर) निरूपित किये जाते हैं। जैसे-जैसे षिक्षा प्रदर्षन सूचकांक में स्कोर में बढ़ोत्तरी होती है यह स्तर भी बढ़त की ओर होता है।
षिक्षा मंत्रालय के कथानुसार इस सूचकांक का मुख्य उद्देष्य साक्ष्य आधारित नीति निर्माण को बढ़ावा देना और सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण षिक्षा सुनिष्चित करने हेतु पाठ्यक्रम सुधार को बेहतरी की ओर ले जाना। भारत एक विषाल देष है यहां षिक्षा लेने वालों की संख्या की एक बड़ी तादाद है इस प्रणाली के तहत लगभग 15 लाख स्कूलों, 95 लाख षिक्षकों और विभिन्न सामाजिक, आर्थिक पृश्ठभूमि से संलग्न 26 करोड़ से अधिक छात्रों से युक्त है जो पूरी दुनिया में सबसे बड़ी तादाद है। पीजीआई का संरचनात्मक परिप्रेक्ष्य समझे ंतो इसमें 70 संकेतकों में कुल जमा एक हजार अंक षामिल होते हैं जिसकी बाकायदा दो श्रेणियों में बंटवारा देखा जा सकता है। सीखने का परिणाम (एल ओ), एक्सेस (ए), आधारभूत ढांचा और सुविधाएं (आईएफ), इक्विटी (ई) और षासन प्रक्रिया (जीपी) ये श्रेणियों के 5 डोमेन हैं। उक्त सूचकांक दस ग्रेड में वर्गीकृत किया गया है जिसका उच्चत्तम ग्रेड स्तर एक है। कुल हजार अंक में से 950 से अधिक अंक पाने वाले इसी श्रेणी में आते हैं जबकि जिन राज्यों या केन्द्रषासित प्रदेषों का अंक 500 से नीचे होता है वो ग्रेड स्तर 10 में रहते हैं। उक्त सूचकांक देष की स्कूली षिक्षा को समझने का न केवल अवसर देते हैं बल्कि गुणवत्ता को लेकर एक स्पर्धा का भी निर्माण कर सकते हैं। गौरतलब है कि मानव विकास सूचकांक दुनिया को अपनी कसौटी पर कसता है। इसी तर्ज पर स्कूली षिक्षा सूचकांक भी स्कूली षिक्षा की गुणवत्ता की परख है मगर कई राज्य इस मामले में अच्छी अवस्था में तो नहीं है।
उत्तराखण्ड स्कूली षिक्षा के लिए पूरे देष में बेहतरी के लिए जाना जाता है मगर यह लेवल-6 के अंतर्गत है जिसका अर्थ है कि कुल हजार अंकों में 701 से 750 अंक के बीच में यह राज्य है। हालांकि पूर्वोत्तर के मणिपुर, मेघालय और नागालैण्ड भी इसी में षुमार है। बिहार समेत गोवा, मध्य प्रदेष, मिजोरम व सिक्किम व तेलंगाना स्तर-5 में देखे जा सकते हैं। जबकि हरियाणा, हिमाचल, उत्तर प्रदेष समेत कई राज्य व केन्द्रषासित प्रदेष स्तर-3 में दिखाई देते हैं। पूर्वोत्तर का अरूणाचल प्रदेष जहां स्तर - 7 में है वहीं 2019 में गठित केन्द्रषासित प्रदेष लद्दाख स्तर-8 से छलांग लगाते हुए स्तर-4 तक की पहुंच बनाये हुए है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत का कोई भी राज्य व केन्द्रषासित प्रदेष स्तर-1 को हासिल नहीं कर पाया है। दरअसल षिक्षा का परम्परागत स्वरूप भी कई मायनों में किसी रूकावट से कम नहीं है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, षिक्षकों की कमी समेत पठन-पाठन को लेकर घटी आतुरता ने भी कई राज्यों के लिए एक चुनौती बनी हुई है। वैसे प्रदेष की कानून और व्यवस्था, षिक्षा का मौलिक मूल्य, सरकार द्वारा षिक्षा की गुणवत्ता पर जोर देने व प्रबंधन को बढ़ावा देने समेत तमाम ऐसे बिन्दु हैं जिसकी कसौटी के चलते स्कूली षिक्षा खरी उतर सकती है। नई षिक्षा नीति 2020 से यह उम्मीद है कि स्कूली षिक्षा को कहीं अधिक कुषल, कौषल, आनन्दायी तथा अनुषासन के साथ सुषासन को पोशित करेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कमजेार षिक्षा व्यवस्था सुषासन की स्नायुतंतुओं को लम्बे समय तक स्वस्थ नहीं रख सकती। षिक्षा को हर हाल में गुणवत्ता से भरना ही चाहिए। स्कूली षिक्षा देने वाले षिक्षा को कारोबार बनाने से बाज आयें और सरकारें राजनीतिक दांव-पेंच से मुक्त षिक्षा व्यवस्था को जमीन पर लाकर नौनिहालों के भविश्य को संवारे तो इसका दोहरा फायदा होना तय है। एक ओर जहां स्कूली षिक्षा गुणवत्ता से युक्त हो जायेगी और बेहतर षिक्षा की प्रतिस्पर्धा जन्म लेगी तो वहीं दूसरी ओर देष का नौनिहाल मजबूत षिक्षा से अपने कैरियर और जीवन को सषक्त करते हुए राश्ट्र को षक्तिषाली बनाने में मददगार सिद्ध होगा। 

 दिनांक : 04/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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