Monday, May 9, 2022

डिजिटल यूनिवर्सिटी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य

भारत में उच्च षिक्षण संस्थाओं में नामांकित विद्यार्थियों की संख्या कई यूरोपीय देषों की जनसंख्या से भी अधिक है। स्थिति को देखते हुए अगर क्लासरूम और ब्लैक बोर्ड तक ही षिक्षा सिमटी रहती है तो आने वाले दिनों में करोड़ों उच्च षिक्षा से वंचित भी हो सकते हैं। हालांकि डिजिटल यूनिवर्सिटी की दिषा में भारत कदम बढ़ा चुका है और कई षिक्षण संस्थाएं डिजिटलीकरण को महत्व दे रही हैं। ऐसे में समस्या तो रहेगी मगर कमोबेष निपटने में डिजिटल यूनिवर्सिटी मददगार सिद्ध होंगे। दुनिया के तमाम देषों में अभी तक डिजिटल यूनिवर्सिटी का निर्माण उस कसौटी पर नहीं हुआ है जैसा कि षिक्षा में आॅनलाइन का प्रभाव बढ़़ा है। भारत सरकार ने वित्त वर्श 2022-23 में बजट में बड़ी पहल करते हुए डिजिटल विष्वविद्यलय खोलने का एलान किया। जाहिर है यह षिक्षा की दिषा में एक भरपाई के साथ विष्व स्तरीय गुणवत्ता और घर बैठे पढ़ाई का विकल्प उपलब्ध कराने का काम करेगा। हालांकि वर्चुअल एजुकेषन या दूसरे षब्दों में कहें तो आॅनलाइन षिक्षा उच्च षिक्षा की दिषा में अभी उस पैमाने पर विकसित करना बाकी है जैसा कि फेस-टू-फेस व्यवस्था कायम है। पड़ताल बताती है कि यूनिवर्सिटी आॅफ लन्दन में 20 आॅनलाइन डिग्री मिलती है। एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में 66 और जाॅन हाॅपकिन्स यूनिवर्सिटी में 88 आॅनलाइन कोर्स होते हैं। उक्त  सभी विष्वविद्यालयों में आॅनलाइन के साथ आॅफलाइन मोड में भी षिक्षा संचालित होती है। भारत में कोविड-19 के चलते सभी प्रकार की षिक्षा में बड़ा बदलाव आया है। हालांकि यह बदलाव पूरी दुनिया में आया था यही कारण है कि वर्चुअल एजुकेषन को लेकर5नये कदम तेजी से उठने लगे जो इन दिनों भी जोर लिए हुए है। नतीजन डिजिटल विष्वविद्यालयों की आवष्यकता तेजी से महसूस की गयी। इसी की भरपाई के लिए देष के लगभग विष्वविद्यालयो व षिक्षण संस्थाओं द्वारा आॅनलाइन मोड में न केवल षिक्षा देने का काम किया बल्कि परीक्षा भी आयोजित की गयी और बाकायदा डिग्री भी प्रदान की गयी। वैसे भारत में पहले केरल में डिजिटल यूनिवर्सिटी खोला जा चुका है। केरल में आईआईटीएमके को अपग्रेड कर डिजिटल यूनिवर्सिटी के रूप में बनाया गया था, राजस्थान के जोधपुर में डिजिटल यूनिवर्सिटी स्थापित की गयी जिसे 30 एकड़ एरिया में 4 करोड़ रूपए में तैयार किया गया।

डिजिटल विष्वविद्यालय में एक बड़ा नाम इंटरनेषनल इंटरनषिप यूनिवर्सिटी (आईआईयू) का है जिसके संस्थापक पीयूश पण्डित हैं। इस विष्वविद्यालय का डिजिटली स्वरूप पूरी दुनिया में फैला हुआ है। षैक्षणिक दृश्टि से इसके कई दूरदर्षी संदर्भ भी निहित हैं जो न केवल कोरोना के चलते बिगड़ी षिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम कर रहा है बल्कि कई ऐसे वैष्विक सरोकारों को भी बढ़ावा देने में संलग्न हैं जो उच्च षिक्षा के लिए कहीं अधिक जरूरी है। गौरतलब है कि आईआईयू की पहुंच दुनिया के 195 देषों तक देखी जा सकती है। आंकड़े बताते हैं कि 2030 तक दुनिया में कामगार लोगों की सबसे बड़ी संख्या भारत में होगी। भारत सरकार की योजना को देखें तो 2035 तक उच्च षिक्षण संस्थाओं में सकल नामांकन अनुपात अर्थात् जीईआर के आंकड़े को 50 प्रतिषत तक पहुंचाना है जो अभी महज 25 फीसद है जबकि यही आंकड़े विकसित देषों में 80 से 90 प्रतिषत के बीच देखे जा सकते हैं। तर्क यह है कि क्या इस लक्ष्य को पारम्परिक षिक्षा पद्धति से हासिल करना सम्भव है। उच्च षिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीआईआर) को व्यापक बनाने हेतु डिजिटल यूनिवर्सिटी एक कारगर उपाय हो सकती है। आईआईयू जैसे विष्वविद्यालय भारत में भी व्यापक विस्तार ले चुके हैं। ऐसे विष्वविद्यालय परम्परागत षिक्षा पद्धति की पड़ रही कमजोर व्यवस्था में पूरक का काम कर सकते हैं। षिक्षा व्यवस्था सबके लिए समुचित रूप से सुनिष्चित करने हेतु आॅनलाइन मोड में जाना ही पड़ेगा। गौरतलब है कि देष में सभी प्रारूपों में एक हजार से अधिक विष्वविद्यालय 40 हजार काॅलेज और 10 हजार से अधिक स्वतंत्र उच्च षिक्षण संस्थाएं हैं। वैसे विद्यार्थियों के पंजीकरण के लिहाज से भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है जहां 4 करोड़ से अधिक विद्यार्थी उच्च षिक्षा में प्रवेष लिये रहते हैं। 

डिजिटल यूनिवर्सिटी छात्रों को डिजिटल तौर-तरीके से सक्षम बनाती है। यह फेस-टू-फेस क्लासेज के स्थान पर वर्चुअल आॅनलाइन अध्ययन कराने का काम करती है। डिजिटल यूनिवर्सिटी में विद्यार्थियों को कई तरह के डिग्री और डिप्लोमा वाले कोर्स आॅनलाइन माध्यम से उपलब्ध हो जाते हैं। इसके अन्तर्गत तकनीकी पाठ्यक्रम भी कई विष्वविद्यालयों में देखा जा सकता है। आईआईयू की षिक्षा पद्धति भी पूरी दुनिया में इसी अवधारणा से ओत-प्रोत है। पीयूश पण्डित ने इंटरनेषनल इंटर्नषिप यूनिवर्सिटी के माध्यम से भारत की उच्च षिक्षा में एक बेहतरीन पहल को विस्तार दिया है। हालांकि डिजिटल यूनिवर्सिटी के मामले में भारत सरकार भी सक्रिय हो चुकी है। कोरोना के चलते हुए पढ़ाई के नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री ई-विद्या स्कीम के तहत चल रहे 12 निःषुल्क चैनल को बढ़ाकर 2 सौ करने के इस फैसले से सभी राज्यों में क्षेत्रीय भाशाओं में कक्षा 1 से 12 तक के लिए पढ़ाई सम्भव हो सकेगी। गौरतलब है कि डिजिटल यूनिवर्सिटी की स्थापना सूचना तकनीक के माध्यम से होगी जो हब एण्ड स्पोक माॅडल पर काम करेगी। आॅनलाइन षिक्षा की राह में चुनौतियां कम नहीं है। पहली चुनौती मानसिकता की, दूसरा तकनीक जुटाने की। गौरतलब है कि देष के कई हिस्से अभी तक पूरी तरह इंटरनेट से नहीं जुड़े और कई हिस्सों में नेटवर्क की समस्या बरकरार है साथ ही बिजली की पहुंच भी इसमें एक बाधा है। इतना ही नहीं स्मार्ट फोन या लैपटाॅप आदि अभी भी कई के पास नहीं है। डिजिटल विष्वविद्यालय की षिक्षण व्यवस्था चूंकि मषीन और तकनीक पर निर्भर है ऐसे में तकनीकी सम्पन्नता का होना इस षिक्षा की मूल आवष्यकता है। भारत समेत दुनिया के तमाम देष ऐसे हैं जहां पर इसकी कमी महसूस की जा रही है।

डिजिटलीकरण के चलते ज्ञान के आदान-प्रदान सहयोगात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देना, नागरिकों को पारदर्षी दिषा-निर्देष मुहैया कराने का मार्ग भी सहज हुआ है। बस आवष्यकता है विष्व के बेहतरीन विष्वविद्यालयों के साथ भारतीय सोच को विकसित करने की ताकि बदलती वैष्विक उच्च षिक्षा की तस्वीर में भारत की भी सूरत श्रेश्ठता की ओर हो। दक्षिण एवं पूर्वी एषिया और अफ्रीकी देषों की करोड़ों विद्यार्थियों को डिजिटल विष्वविद्यालय के माध्यम से भारतीय षिक्षा व्यवस्था से जोड़ना उतना चुनौतीपूर्ण नहीं है। मगर सहज आॅनलाइन षिक्षा को उपलब्ध कराना अभी भी चुनौती लिए हुए है। अमेरिका के हाॅवर्ड विष्वविद्यालय की 2019 की रिपोर्ट से इस बात की व्याख्या निहित है कि आॅनलाइन के माध्यम से बच्चों की षिक्षा और मूल्यांकन ज्यादा महत्वपूर्ण रहा है। षिक्षक कभी विद्यार्थियों के साथ अकादमिक अधिक सषक्त होता है। हालांकि यह आॅफलाइन का विकल्प नहीं है और न ही उसके लिए चुनौती बल्कि यह हाषिये पर जा रही षिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने का उपाय है। भारत ब्राॅडबैण्ड मिषन के अंतर्गत 2022 तक देष के सभी गांव और षहरों को इंटरनेट से जोड़ दिया जायेगा। जाहिर है आॅनलाइन षिक्षण संस्थान देष को बदलने में न केवल भूमिका निभा रहे हैं बल्कि भारत डिजिटली तौर पर दुनिया में छलांग लगा सकता है। देखा जाये तो डिजिटल विष्वविद्यालय ऐसी छलांग लगाने में न केवल मददगार सिद्ध होंगे वरन् षिक्षा में व्याप्त कमियों को दूर कर सकल नामांकन अनुपात अर्थात् जीआईआर से सम्बंधित आंकड़े को भी नया मुकाम दे सकते हैं जो नई षिक्षा नीति 2020 का निहित पक्ष भी है। 

 दिनांक : 5/05/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में लाये सरकार!

पेट्रोल और डीजल की कीमतें न केवल लगातार बढ़ रही हैं बल्कि इनकी कीमतों के चलते चैतरफा महंगाई भी आसमान पर पहुंच गई है। लाख टके का सवाल यह है कि पेट्रोल और डीजल को सरकार जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं लाती। इसका सपाट उत्तर यह है कि जीएसटी के दायरे में लाते ही सरकारी राजस्व संग्रह में बेतहाषा गिरावट होगी जो सरकार के लिए किसी सदमे से कम नहीं होगा। पेट्रोल और डीजल से केन्द्र सरकार की कमाई का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि साल 2018-19 में 2.10 लाख करोड़ की केन्द्रीय एक्साइज़ ड्यूटी वसूली गयी थी जो 2019-20 में 2.19 लाख करोड़ थी मगर यही 2020-21 में 3.71 लाख करोड़ पहुंच गयी। साफ है कि सरकार ने ड्यूटी बढ़ाकर राजकोश को भर लिया है और जनता महंगाई के चलते भरभरा गयी। गौरतलब है कि मई 2020 में एक्साइज़ ड्यूटी पेट्रोल पर 10 रूपए तो डीजल पर 13 रूपए प्रति लीटर एक साथ बढ़ा दिया गया था। जो षायद अब तक की सबसे बड़ी छलांग है। हालांकि उस दौर में कोरोना के चलते लगे लाॅकडाउन से तेल की बिक्री में गिरावट थी और क्रूड आॅयल प्रति बैरल अपने सबसे निचले स्तर पर जा पहुंचा था तब 20 डाॅलर प्रति बैरल कच्चा तेल की कीमत थी। जब कच्चा तेल सस्ता होता है तब सरकारें टैक्स लगाकर जनता को सस्ता पेट्रोल और डीजल की सम्भावना को खत्म कर देती है और जब यही महंगा होता है तो बढ़ते तेल की कीमत का ठीकरा महंगे क्रूड आॅयल पर फोड़ती हैं। यहां स्पश्ट कर दें कि जून 2017 से तेल की कीमतें कम्पनियां तय करती हैं। जाहिर है यहां भी सरकार इस बात से पलड़ा झाड़ सकती है कि बढ़ती तेल की कीमतों से उसका कोई लेना-देना नहीं है। रोचक सवाल यह भी है कि जब चुनाव समीप होता है तो तेल की कीमतों में ठहराव क्यों आ जाता है। उक्त से साफ है कि भले ही तेल की कीमतें कम्पनियां तय करती हों मगर सरकार के निर्देषों से वह अछूती नहीं हैं। नवम्बर 2021 से रूकी तेल की कीमतें 10 मार्च 2022 को पांच राज्यों के चुनाव के परिणाम के बाद जिस कदर तेजी ली वह इस बात को पुख्ता करती है।

हालांकि नवम्बर 2021 में ही केन्द्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में राहत देने का काम भी किया था। सरकार ने उत्पाद षुल्क में पेट्रोल पर 5 रूपए और डीजल पर 10 रूपए प्रति लीटर की कटौती की थी। इसके अलावा कई भाजपा षासित राज्यों समेत दिल्ली और पंजाब में भी वैट दरों में कटौती करके जनता को राहत देने का काम किया था। तमिलनाडु, महाराश्ट्र, बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेष, केरल और झारखण्ड ने इस कटौती से इंकार कर दिया था। इसी को देखते हुए बढ़ते पेट्रोल, डीजल की महंगाई के बीच बीते 27 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्रियों की वर्चुअल बैठक में इन राज्यों को कोड करते हुए अपना असंतोश जताया। इसमें कोई षक नहीं कि तेल की कीमत बढ़ने में वैट की भी बड़ी भूमिका है और राज्य भी इसे कमाने का जरिया बना लिये हैं। जिन राज्यों ने वैट घटाया और जनता को राहत देने की कोषिष की उन्हें व्यापक पैमाने पर राजस्व संग्रह में गिरावट का सामना भी करना पड़ा। इस मामले में कर्नाटक सबसे अधिक नुकसान में रहा जिसे 5 हजार करोड़ से अधिक का घाटा उठाना पड़ा। जबकि वैट में कोई कटौती न करने के चलते महाराश्ट्र 34 सौ करोड़ से अधिक की कमायी के साथ सबसे अधिक फायदे में रहा। गौरतलब है कि तेल की भीशण महंगाई के बीच प्रधानमंत्री मोदी बैठक के दौरान राज्यों को वैट कम नहीं करने को अन्याय बताया। वैसे अभी भी एक्साइज़ ड्यूटी लगभग 33 रूपए और वैट भिन्न-भिन्न राज्यों में अलग-अलग देखा जा सकता है। पड़ताल बताती है कि अक्टूबर 2018 में पेट्रोल पर यह ड्यूटी 20 रूपए प्रति लीटर से कम थी। यदि तुलना करें तो पेट्रोल पर 2014 में एक्साइज ड्यूटी महज 9.48 रूपए प्रति लीटर थी, जो 2020 तब बढ़कर 32.9 रूपए प्रति लीटर हो चुकी है। यदि वहीं डीजल पर 2014 में महज 3.56 रूपए प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी लगती थी। केन्द्र सरकार ने जब नवम्बर में पेट्रोल और डीजल की एक्साइज़ ड्यूटी में कमी की थी उसके बाद अब यह पेट्रोल पर 27.90 रूपए प्रति लीटर और डीजल पर 21.8 रूपए है। चार दरों में विभाजित जीएसटी की सबसे बड़ी दर 28 प्रतिषत की है। यदि पेट्रोल और डीजल के मामले में जीएसटी को लागू कर दिया जाता है तो स्पश्ट है कि 25 से 30 रूपए लीटर तेल की कीमत घट जायेगी जो सम्भव नहीं है क्योंकि सरकारें भी जानती है कि ये आराम की कमाई है। 

वन नेषन, वन टैक्स से पेट्रोल, डीजल, गैस और षराब समेत 6 वस्तुएं बाहर हैं। जिसमें मुख्यतः पेट्रोल, डीजल को लेकर यह मांग उठती रहती है कि इसे भी जीएसटी का हिस्सा बनाया जाये। अब तक जीएसटी काउंसिल की 46 बैठकें हो चुकी हैं। सितम्बर 2021 में जीएसटी काउंसिल की 45वीं बैठक में इसे जीएसटी में लाने का विचार सामने आया था मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। वैसे अप्रैल 2018 के पहले सप्ताह में पेट्रोल, डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने की बात वित्त मंत्रालय ने कही थी मगर इस पर भी हजार अडंगे बताये जा रहे हैं। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो पहले से रहा है जो नवम्बर 2021 में घटाया भी गया मगर जीएसटी में लाने का इरादा तो राज्यों का भी नहीं है। देखा जाये तो केन्द्र और राज्य दोनों सरकारें यह नहीं चाहती कि पेट्रोल और डीजल जीएसटी के दायरे में आये क्योंकि इससे दोनों की कमाई पर बड़ा असर पड़ेगा। गौरतलब है कि सरकार यह बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव ही नहीं है। यदि एक रूपए प्रति लीटर डीजल, पेट्रोल में कटौती होती है तो खजाने को 13 हजार करोड़ का नुकसान होता है जाहिर है सरकार यह जोखिम क्यों लेगी और ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी पर भी न हो। हालांकि सरकार जीएसटी से रिकाॅर्ड कमाई कर रही है। मार्च 2022 में जीएसटी संग्रह अब तक का सबसे ज्यादा है। इसके पहले अप्रैल 2021 में सर्वाधिक था। स्पश्ट है कि एक तरफ जीएसटी से कमाई तो दूसरी तरफ पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज़ ड्यूटी लगाकर कमाई दो तरफा बनी हुई है जबकि जनता महंगाई में जमींदोज हो रही है। 

अब इस सवाल का जवाब खोजना आसान हो जाता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें जीएसटी में पेट्रोल, डीजल क्यों नहीं लाना चाहती। सरकारें जनता के लिए होती हैं और जनता के साथ लगातार अन्याय करना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए उचित नहीं है। मौजूदा हालात में कोरोना के चलते जनता की कमाई  जहां अभी भी मुष्किल में है वहां बढ़ती पेट्रोल और डीजल की कीमतें साथ ही इनकी वजह से जीवन आसान करने वाली वस्तुओं पर महंगाई की मार चैतरफा कहर है। केन्द्र सरकार इस बात से पलड़ा नहीं झाड़ सकती कि राज्य वैट न कम करके अन्याय किया है बल्कि उन्हें यह भी सोचना है कि कमाई का कोई और रास्ता निकालकर उत्पाद षुल्क में कमी की जाये ताकि आसमान छूता तेल जमीन पर ही रहे। वैसे तो सही यह है कि वन नेषन, वन टैक्स को और मजबूती देने के लिए तेल के साथ खेल बंद किया जाये और इसे जीएसटी के दायरे में लाया जाये। 

दिनांक : 28/04/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

पंचायत और सुशासन

सुषासन षान्ति और खुषहाली का परिचायक है जबकि पंचायत एक ऐसी संस्था जो इसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण है। पंचायती राज व्यवस्था के रूप में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का संस्थानीकरण स्थानीय स्वषासन की दिषा में न केवल एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कदम है बल्कि लघु गणतंत्र की दिषा में भी व्यापक दृश्टिकोण है। इतना ही नहीं औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में गांधी के ग्राम स्वराज की इच्छा का परिणाम भी है। गांव के विकास के बिना भारत की प्रगति सम्भव नहीं है, यह कथन कहीं अधिक पुराना है मगर इसके नयेपन से आज भी छुटकारा नहीं मिला है। जहां से भागीदारी सबकी सुनिष्चित होती हो और समस्याओं को समझने तथा हल करने का जमीनी प्रयास सम्भव हो वही पंचायत है। इतिहास के पन्नों को उलट-पलट दिया जाये तो पंचायत नामक यह षब्द भारत के लिए नया नहीं है बल्कि यह प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रहा है। जब समावेषी ढांचा तैयार किया जाता है और उसके उद्देष्य तय किये जाते हैं और इन उद्देष्यों की पूर्ति के लिए संस्था का प्रारूपण होता है तब पंचायत के मार्ग से ही गुजरना पड़ता है। पंचायत केवल एक षब्द नहीं बल्कि गांव की वह जीवनधारा है जहां से सर्वोदय की भावना और पंक्ति में खडे़ अन्तिम व्यक्ति को समान होने का एहसास देता है। पंचायत लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और सामुदायिक विकास कार्यक्रम इसकी नींव है जिसकी प्रारम्भिकी 2 अक्टूबर 1952 में देखी जा सकती है। पंचायत जैसी संस्था की बनावट कई प्रयोगों और अनुप्रयोगों का भी नतीजा है। सामुदायिक विकास कार्यक्रम का विफल होना तत्पष्चात् बलवंत राय मेहता समिति का गठन और 1957 में उसी की रिपोर्ट पर इसका मूर्त रूप लेना देखा जा सकता है। गौरतलब है कि जिस पंचायत को राजनीति से परे और नीति उन्मुख सजग प्रहरी की भूमिका में समस्या निश्पादित करने का एक स्वरूप माना जाता है आज वही कई समस्याओं से मानो जकड़ी हुई है।

नीति निदेषक तत्व के अनुच्छेद 40 के अन्तर्गत पंचायत के गठन की जिम्मेदारी राज्यों को दिया गया और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से इसका अनुपालन सुनिष्चित करना न केवल इनका दायित्व था बल्कि गांवों के देष भारत को सामाजिक-आर्थिक दृश्टि से अत्यंत षक्तिषाली भी बनाना था। इस मामले में पंचायतें कितनी सफल हैं यह पड़ताल का विशय है। मगर लाख टके का सवाल यह है कि जिस पंचायत में सबसे नीचे के लोकतंत्र को कंधा दिया हुआ है वही कई समस्याओं से मुक्त नहीं है चाहे वित्तीय संकट हो या उचित नियोजन की कमी या फिर अषिक्षा, रूढ़िवादिता तथा पुरूश वर्चस्व के साथ जात-पात और ऊंच-नीच ही क्यों न हो। कुछ भी कहिए समस्या कितनी भी गम्भीर हो यह पिछले तीन दषकों में घटी तो है और इसी पंचायत ने यह सिद्ध भी किया है कि उसका कोई विकल्प नहीं है। पंचायत और सुषासन का गहरा सम्बंध है पंचायत जहां लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और स्वायत्तता इसकी धरोहर है तो वहीं सुषासन कहीं अधिक संवेदनषील लोक कल्याण और पारदर्षिता व खुलेपन से युक्त है। पंचायत की व्याख्या में क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार निहित है और इसी अधिकार से उन दायित्वों की पूर्ति जो ग्रामीण प्रषासन के अन्तर्गत स्वषासन का बहाव भरता है वह भी संदर्भित होता है। जबकि सुषासन एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो बार-बार षासन को यह सचेत करता है कि समावेषी और सतत् विकास के साथ बारम्बार सुविधा प्रदायक की भूमिका में बने रहना है। 1997 का सिटिजन चार्टर सुषासन की ही आगे की पराकाश्ठा थी और 2005 के सूचना के अधिकार इसी का एक और चैप्टर। इतना ही नहीं 2006 की ई-गवर्नेंस योजना भी सुषासन की रूपरेखा को ही चैड़ा नहीं करती बल्कि इन तमाम के चलते पंचायत को भी ताकत मिलती है। 1992 में सुषासन की अवधारणा सबसे पहले ब्रिटेन में जन्म लिया था और 1991 के उदारीकरण के बाद इसकी पहल भारत में भी देखी जा सकती है। सुषासन के इसी वर्श में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक स्वरूप दिया जा रहा था। संविधान के 73वें संषोधन 1992 में जब इसे संवैधानिक स्वरूप दिया गया तब 2 अक्टूबर 1959 से राजस्थान के नागौर से यात्रा कर रही यह पंचायत रूपी संस्था एक नये आभामण्डल से युक्त हो गयी। 1992 में हुए इस संषोधन को 24 अप्रैल 1993 को लागू किया गया। यही पंचायत दिवस के रूप में स्थापित है जो ग्रामीण प्रषासन के लिए एक विषिश्टता और गौरव का परिचायक बनी। स्वषासन के संस्थान के रूप में इसकी व्याख्या दो तरीके से की जा सकती है पहला संविधान में इसे सुषासन के रूप में निरूपित किया गया है जिसका सीधा मतलब स्वायत्तता और क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार है। दूसरा यह प्रषासनिक संघीयकरण को मजबूत करता है। गौरतलब है कि संविधान के इसी संषोधन में गांधी के ग्रामीण स्वषासन को पूरा किया मगर क्या यह बात भी पूरी षिद्दत से कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत की अतिमहत्वाकांक्षी संस्था स्थानीय स्वषासन सुषासन से परिपूर्ण है।

पंचायतों में एक तिहाई महिलाओं का आरक्षण इसी संषोधन के साथ सुनिष्चित कर दिया गया था जो मौजूदा समय में पचास फीसद तक है। जाहिर है कि पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका और भागीदारी आधे-आध की है। देखा जाये तो तीन दषक पुरानी संवैधानिक पंचायती राज व्यवस्था में व्यापक बदलाव तो आया है। राजनीतिक माहौल में सहभागी महिला प्रतिनिधियों की प्रति पुरूश समाज की रूढ़िवादी सोच में अच्छा खासा बदलाव हुआ है जिसके परिणामस्वरूप भय, संकोच और घबराहट को दूर करने में वे कामयाब भी रही हैं। बावजूद इसके विभिन्न आर्थिक-सामाजिक रूकावट के कारण महिलाओं में आन्तरिक क्षमता और षक्ति का भरोसा अभी पूरी तरह उभरा है ऐसा कम दिखाई देता है। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की यही सजावट है कि पंचायते सामाजिक प्रतिश्ठा और महिला भागीदारी से सबसे ज्यादा भरी हुई है मगर राजनीतिक माहौल में अपराधीकरण, बाहुबल, जात-पात और ऊंच-नीच आदि दुर्गुणों से पंचायत भी मुक्त नहीं है। समानता पर आधारित सामाजिक संरचना का गठन सुषासन की एक कड़ी है। ऐसे समाज का निर्माण करना जहां षोशण का आभाव हो और सुषासन का प्रभाव हो। जिससे पंचायत में पारदर्षिता और खुलेपन को बढ़ावा मिल सके ताकि 11वीं अनुसूची में दर्ज 29 विशयों को जनहित में सुनिष्चित कर ग्रामीण प्रषासन को सषक्त किया जा सके। स्पश्ट है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देष में हर चैथा व्यक्ति अभी भी अषिक्षित है पंचायत और सुषासन पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। अधिकतर महिला प्रतिनिधि अनपढ़ है जिससे उनको पंचायत के लेखापत्र नियम पढ़ने व लिखने में कई दिक्कत आती है। डिजिटल इण्डिया का संदर्भ भी 2015 से देखा जा सकता है। आॅनलाइन क्रियाकलाप और डिजिटलीकरण ने भी पंचायत से जुड़े ऐसे प्रतिनिधियों के लिए कमोबेष चुनौती पैदा की है। हालांकि देष की ढ़ाई लाख पंचायतों में काफी हद तक व्यापक पैमाने पर डिजिटल कनेक्टिविटी बाकी भी है साथ ही बिजली आदि की आपूर्ति का कमजोर होना भी इसमें एक बाधा है। 

डिजिटल क्रान्ति ने सुषासन पर गहरी छाप छोड़ी है। जहां एक तरफ डिजिटल लेन-देन में तेजी आयी है, कागजों के आदान-प्रदान में बढ़ोत्तरी हुई है, भूमि रिकाॅर्डों का डिजिटलीकरण हो रहा है, फसल बीमा कार्ड, मृदा स्वास्थ कार्ड और किसान क्रेडिट कार्ड सहित प्रधानमंत्री फसल बीमा जैसी योजनाओं में दावों के निपटारे के लिए रिमोट सेंसिंग, आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस और माॅडलिंग टूल्स का प्रयोग होने लगा है। वहीं ग्राम पंचायतों में खुले स्वास्थ सेवा केन्द्रों में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है ताकि वे ग्राम स्तरीय उद्यमी बने। सूचना और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए षासन की प्रक्रियाओं का पूर्ण रूपांतरण ही ई-गवर्नेंस कहलाता है जिसका लक्ष्य आम नागरिकों को सभी सरकारी सेवाओं तक पहुंच प्रदान करते हुए साक्षरता, पारदर्षिता और विष्वसनीयता को सुनिष्चित करना षामिल है। इसी के लिए सामान्य सेवा केन्द्र की स्थापना की गयी जिसका संचालन ग्राम पंचायत और ग्राम स्तर के उद्यमियों द्वारा किया जाता है। गौरतलब है कि राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारम्भ में 31 सेवाएं षामिल की गयी थी। इस प्रकार की अवधारणा सुषासन की परिपाटी को भी सुसज्जित करती है। पंचायती राज व्यवस्था आम लोगों की ताकत है और खास प्रकार की राजनीति से दूर है। यह ऐसी व्यवस्था है जो स्वयं द्वारा स्वयं पर षासन किया जाता है। बीते तीन दषकों में पंचायतें बदली हैं। इन सबमें एक प्रमुख बात यह रही है कि महिलाओं का तुलनात्मक अधिक सक्रिय और पुरूश प्रभुत्व से मुक्त होना साथ ही राज्य सरकारों का ऐसी संस्थाओं पर भरोसा बढ़ना भी षामिल है। हालांकि यह पूरे भारत में सही है कहना मुष्किल है। भारत में पंचायत त्रिस्तरीय व्यवस्था का संदर्भ लिए हुए है। जहां सभी स्तरों पर प्रत्यक्ष मतदान होता है। 21 वर्श की उम्र वाला कोई भी इसमें भागीदारी कर सकता है। कार्यकाल 5 वर्श और एक स्थानीय सरकार के तौर पर भरोसे से भरी है। केन्द्रीय और प्रादेषिक स्तर पर निर्वाचित सरकारों की मौजूदगी किसी लोकतंत्र के लिए काफी नहीं है। सुषासन की दृश्टि से भी देखें तो लोक सषक्तिकरण इसकी पूर्णता है और लोक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से देखें तो पंचायत में यह सभी खूबी है। लोकतंत्र के लिए यह भी जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मसलों और समस्याओं के निकराकरण के लिए एक निर्वाचित सरकार हो जिसे स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता प्राप्त हो। उपरोक्त तमाम बातें सुषासन की उस पराकाश्ठा से भी मेल खाती हैं जो अच्छी सरकार की भावना से युक्त है। 

दिनांक : 25/04/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

वित्तीय प्रौद्योगिकी क्रान्ति और समावेशी ढांचा

 अब ऐसी स्थिति है कि बड़े-बड़े माॅल से लेकर सड़क के किनारे छोटी-मोटी दुकान, पटरी पर सब्जी बेचने वाले, रेहड़ी वाले आदि तमाम डिजिटल भुगतान स्वीकार कर रहे हैं। खास यह भी है कि बैंकों से निकाले जाने वाली नकद धनराषि के मुकाबले मोबाइल से किये जाने वाले भुगतान की राषि कहीं ज्यादा है। इसी क्रम में देखें तो फास्टैग की स्वचालित व्यवस्था लागू होने के चलते टोल टैक्स भुगतान भी अब बाकायदा डिजिटल ही हो गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि डिजिटल इण्डिया से नवाचार के नये मार्ग खुले हैं और वित्तीय प्रौद्योगिकी के चलते जीवन की सरलता में जबदस्त उछाल आया है। बावजूद इसके समावेषी ढांचा जिस कदर बुनियादी तौर पर अभी भी कमजोर और जर्जर है उसे देखते हुए नवाचार की इस सषक्तता को व्यापक ऊंचाई देना एक चुनौती भी है। गौरतलब है कि वित्त और प्रौद्योगिकी के गठजोड़ को फाइनेंषियल टेक्नोलाॅजी अर्थात् फिनटेक कहा जाता है जिसका हिन्दी रूपांतरण वित्तीय प्रौद्योगिकी है। अमेरिका में रिपब्लिक पार्टी के सीनेटर स्टीव वेन्स ने जून 2021 में कहा था कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाला फिनटेक बाजार है और वित्तीय नवाचार के मामले में अमेरिका से काफी आगे है। भारत की जनसंख्या चीन के बाद दुनिया में सर्वाधिक है और ऐसे में तकनीकी बाजार को यदि सुदृढ़ता मिले तो यह अनेक विकसित देषों की तुलना में स्वाभाविक रूप से बड़ा हो जाता है। वैसे देखा जाये तो भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते फिनटेक बाजारों में से एक है। भारत द्वारा 2020 में किया गया कुल तत्काल भुगतान चीन की तुलना में लगभग 10 अरब अमेरिकी डाॅलर अधिक था और जबकि चीन की तुलना में अमेरिका कहीं पीछे है। फिनटेक ऐसी वित्तीय कम्पनियां हैं जो काम में तेजी लाने और लागत में कटौती के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर रही है। 

फिनटेक वास्तव में उपभोक्ताओं को बेहतर वित्तीय सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देष्य से टेक्नोलाॅजी समन्वयन भी है और मुख्य रूप से आय, निवेष, बीमा और संस्थागत ऋण के चार स्तम्भों पर आधारित है। भारत में फिनटेक तंत्र के रूप में षानदार अविर्भाव हुआ है। देखा जाये तो भारत सरकार ने जब 2009 में आधार परियोजना षुरू की तो आवष्यक तकनीकी बुनियादी ढांचा बनाना और देष के सुदूर क्षेत्रों में रह रहे भारतीयों तक पहुंच पाना बड़ी चुनौती तो थी। इस समय देष में 80 प्रतिषत लोगों का बैंक खाता है और ऐसा 2014 में जनधन परियोजना के चलते हुआ है। मैककिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने मार्च 2014 में जारी रिपोर्ट डिजिटल इण्डिया में कहा था कि भारत में तेजी से डिजिटलीकरण लागू करने की प्रक्रिया को तेज करने में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत बड़ी भूमिका रही है। वैष्विक बायोमैट्रिक पहचान कार्यक्रम आधार के संदर्भ में प्रयोग किया जाने वाला षब्द इण्डिया स्टैक और इससे सम्बध एपीआई के पूरे सैट ने भारत में डिजिटल कार्यक्रम के नींव को मजबूत करने और देष के डिजिटल विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अनुमान है कि देष में अभी डिजिटल क्रान्ति की षुरूआत है। साल 2022 तथा आगे के वर्शों में इसमें कई बड़ी और नई सम्भावनायें हैं। भारत में 2003 से अब तक डिजिटल भुगतान में 10 गुना की वृद्धि हुई है। अनुमान तो यह भी है कि साल 2025 तक 26 लाख नये रोज़गार पैदा होंगे और जबकि लगभग 3 लाख करोड़ रूपए के वृद्धि की उम्मीद है। तकनीकी तौर पर भारत इतना कमतर नहीं है मगर अषिक्षा और बेरोज़गारी के साथ-साथ बढ़ती गरीबी ने समावेषी ढांचे को एक बेहतर अनुकूलन देने में रूकावट का काम किया है। भले ही देष में 120 करोड़ मोबाइल फोन का इस्तेमाल हो रहा हो और करीब 65 करोड़ लोगों तक इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध हो मगर घटती इनकम और बढ़ती महंगाई साथ ही ईज़ आॅफ लीविंग में समावेषी चुनौतियों ने वित्तीय प्रौद्योगिकी क्रान्ति और नवाचार के व्यापक प्रसार को भी चुनौती मिल रही है। 

दो साल पहले ही भारत आॅनलाइन लेनदेन के मामले में दुनिया में पहले नम्बर पर था जबकि भारत से अधिक जनसंख्या वाला चीन इस मामले में दूसरे नम्बर पर है और 33 करोड़ वाला अमेरिका चीन के मुकाबले भी लगभग 10 गुना पीछे चल रहा है। दक्षिण कोरिया, इंग्लैण्ड और जापान भी डिजिटल लेनदेन के मामले में भारत से काफी पीछे है। तब भारत का डिजिटल लेनदेन महज 25 अरब डाॅलर ही था और अब तो यह कई गुना वृद्धि ले चुका है। उम्मीद है कि 2026 में यह 75 लाख करोड़ रूपए तक पहुंच जायेगा। वैसे देखा जाये तो वित्तीय प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की कामयाबी के और भी आयाम है जैसे बैंकों द्वारा तेजी से डिजिटल प्रौद्योगिकी को अपनाया जाना। इंटरनेट का सस्ता होना, मोबाइल फोन आमजन की पहुंच में होना साथ ही रूपए के नकद लेनदेन के मामले में सरकार की ओर से सीमा निर्धारित करना आदि। वर्तमान में वित्तीय प्रौद्योगिकी में एक नया क्षेत्र भी लोकप्रिय हो रहा है जिसे अभी खरीदो, बाद में भुगतान करो अर्थात् बाइ नाउ, पे लेटर नाम दिया गया है। पड़ताल बताती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था समावेषी विकास पर केन्द्रित रही है। 8वीं पंचवर्शीय योजना जब 1992 में उदारीकरण के बाद देष में लागू हुई तो उसका स्वरूप भी समावेषी विकास ही था। तब से अब तक सामाजिक क्षेत्र, रोजगार सृजन और प्रौद्योगिकी नवाचार पर जोर दिया जा रहा है साथ ही कम कार्बन उत्सर्जन को लेकर भी विगत कुछ वर्शों से चिंता व्यापक हुई है। इसके अलावा केन्द्रीय वार्शिक बजट में पिछले कुछ वर्शों में ऐसे मुद्दों को व्यापक रूप से षामिल भी किया जाता रहा है। इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि समय के साथ बदलाव बड़ा हुआ है मगर बदलाव सब तक पहुंचा है ऐसा नहीं हुआ है। 

पिछले एक दषक में फिनटेक सबसे तेजी से वृद्धि करने वाले और नवाचार को सबसे अधिक बढ़ावा देने वाले उद्योगों में षुमार है। वैसे दुनिया भर में फिनटेक उद्योग अर्थव्यवस्था का काम करने का तरीका बदल रहा है। लगातार नये उत्पाद और नई प्रणालियों के साथ कारोबार के नये-नये रास्ते भी इससे खुल रहे हैं। ज्यादातर अब काम घर बैठे ही हो जाते हैं। आधी रात को पैसा भेजना हो तो केवल फोन पर यूनीफाइड पेमेंट सर्विस का इस्तेमाल करते ही काम आसान हो जाता है। या फिर बैंक की एप्लीकेषन खोलते ही चुटकियों में रकम इधर से उधर सम्भव हो जाती है। गौरतलब है यूनिफाइड पेमेंट सर्विस अर्थात् यूपीआई पहले नोटबंदी और उसके बाद कोविड में लाॅकडाउन के दौरान बेहद तेजी से आगे बड़ा। यूपीआई षुरूआत 2016 में हुई थी। सौ करोड़ के लेनदेन की उपलब्धि अक्टूबर 2019 में षुरू हो चुकी थी। मगर साल भर के अंदर हर महीने 2 सौ करोड़ का आंकड़ा होने लगा और अब तो यह 4 सौ करोड़ के पार चला गया। यूपीआई 24 घण्टे में रकम भेजने वाली सुविधा है और फिनटेक की कहानी को उछाल देने की एक बेहतर व्यवस्था है। प्रौद्योगिकी को आर्थिक और सामाजिक प्रगति का बड़ा हथियार मानने वाली सरकार ने स्टार्टअप इण्डिया जैसे कार्यक्रमों के जरिये नवाचार को बहुत प्रोत्साहित किया। फिनटेक को लेकर षहरी बाजार में तो तेजी है मगर अभी यह सुविधा ग्रामीण बाजारों तक मामूली ही पहुंची है। फिलहाल असीम सम्भावनाओं के बल पर ही फिनटेक और इससे जुड़ा आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र सबल, सफल और प्रभावी माध्यम बन सकेंगे और लोग अपनी सामाजिक-आर्थिक प्रगति को देखते हुए इस पर भरोसा भी जता सकेंगे। 

 दिनांक : 21/04/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

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