Tuesday, May 31, 2016

जागरूक समाज का अर्थशास्त्र

सियासी नफे-नुकसान के बीच जागरूक समाज का एक ऐसा आर्थिक चेहरा भी हो सकता है जिस पर यकीनन षुरूआती दिनों में षायद ही किसी को विष्वास हुआ हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दो वित्त वर्श में रसोई गैस सब्सिडी से 21 हजार करोड़ की बचत सिर्फ इस नाते कर लिया कि उन्होंने समाज को इस बात के लिए उकसा दिया था कि यदि आप सक्षम हैं और सम्भव हो तो अपनी रसोई गैस सब्सिडी को ‘गिव-इट-अप‘ कर सकते हैं। देखा जाए तो देष में 1 अप्रैल, 2015 तक 18.19 करोड़ पंजीकृत एलपीजी उपभोक्ता थे। हांलाकि एलपीजी के लिए प्रत्यक्ष लाभ अन्तरण योजना षुरू होने के पष्चात् यह आंकड़ा 14.85 करोड़ रह गया साफ है कि करोड़़ों डुब्लीकेट और निश्क्रिय उपभोक्ता इससे बाहर कर दिये गये। वर्तमान में एलपीजी उपभोक्ताओं की संख्या निरन्तर इजाफा लिए हुए है। प्रधानमंत्री के एलपीजी सब्सिडी छोड़ने के आह्वान के चलते एक करोड़ से अधिक लोग इस सुविधा को फिलहाल अभी तक त्याग चुके हैं। इस खूबसूरत अभियान के चलते बचने वाली सब्सिडी का इस्तेमाल गिव बैंक अभियान के जरिये गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों को नये कनेक्षन देने के लिए किया जा रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी लाभ हस्तांतरण योजना में षुमार रसोई गैस जागरूक उपभोक्ताओं के चलते इसने अर्थव्यवस्था का एक नया चेहरा ही दिखा दिया जो काफी हद तक मध्यम दर्जे पर टिका है। गौरतलब है कि सालाना 12 सेलेंडर की सब्सिडी सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में डाली जाती है। वित्त वर्श 2014-15 में एलपीजी के लिए 40,551 करोड़ रूपए की सब्सिडी का भुगतान किया गया। जाहिर है कि 2015-16 के वित्त वर्श में भारी मात्रा में ‘गिव-इट-अप‘ के चलते इस मामले में काफी राहत मिली है साथ ही करोड़ों उपभोक्ता के पंजीकृत रद्द होने से भी सब्सिडी में बचत हुई है। इसके अलावा तेल की कीमत भी छः साल के निचले स्तर पर आना राहत में इजाफा करने वाला था। बीते वित्त वर्श के अप्रैल से सितम्बर के बीच यह सब्सिडी खर्च 8,814 करोड़ रूपए ही रहा है। हालांकि इस बारे में कोई अनुमान नहीं है कि कितने एलपीजी उपभोक्ताओं की सालाना कर योग्य आय 10 लाख रूपए या उससे अधिक है। यदि इस मामले में भी सटीक आंकड़े आ गये और सरकार की नीतियां इन्हें सब्सिडी से बाहर करने की हुई तो बचत की दर में और बढ़ोत्तरी हो जायेगी।
देखा जाए तो सरकार ने चुनिन्दा जिलों में रसोई गैस उपभोक्ताओं के बैंक खाते में सीधे सब्सिडी भुगतान की प्रक्रिया नवम्बर, 2014 में षुरू की थी जबकि 1 जनवरी, 2015 से देष के षेश हिस्सों में इसे बाकायदा लागू कर दिया गया। देष में बढ़ती जनसंख्या और रसोई गैस की मांग को देखते हुए सरकार चालू वित्त वर्श में 10 हजार नये एलपीजी डिस्ट्रीब्यूटर बनाने की बात कही है। 1 मई को उत्तर प्रदेष के बलिया जिले से प्रधानमंत्री उज्जवला योजना की षुरूआत हुई। इसी तरह की एक योजना 15 मई को दाहोद में भी हुआ। इस प्रकार की महत्वाकांक्षी योजना और परियोजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले 5 करोड़ परिवारों को एलपीजी कनेक्षन उपलब्ध कराये जायेंगे। इसकी ताकत स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ने वालों से भी मिल रही है। लगभग 8 हजार करोड़ रूपए की इस योजना से कई परिवारों को गैस कनेक्षन के चलते रसोई की समस्या से मुक्ति मिलने वाली है। फिलहाल देष में 18 हजार एलपीजी डिस्ट्रीब्यूटर हैं। जिस गति से प्रधानमंत्री मोदी ने नागरिकों की बुनियादी समस्याओं को हल करने की कोषिष में लगे हैं उसे देखते हुए स्पश्ट है कि सरकार लोगों का भरोसा जीतने में काफी कारगर भूमिका में है। प्रधानमंत्री मोदी एलपीजी छोड़ने वाले उपभोक्ताओं को एक करोड़ की संख्या होने पर धन्यवाद भी दिया है। साथ ही उम्मीद कर रहे होंगे कि गिव-इट-अप का यह अभियान कई करोड़ में बदलेगा। भारयुक्त संदर्भ यह भी है कि मौजूदा एनडीए सरकार कई अहम फैसलों के तहत एलपीजी को लेकर संजीदा दिखाई देती है। जिस प्रकार रसोई गैस के मामले में सरकार की योजना है उसे देखते हुए साफ है कि इस मामले में मोदी सरकार होमवर्क काफी पुख्ता है। 
भारत में सामाजिक-आर्थिक बदलाव में सरकार की ओर से दी गयी सुविधाएं नागरिकों के बुनियादी समस्याओं को हल करने के काम आती रही हैं। यह पहला अवसर है जब सरकार सब्सिडी को स्वेच्छा से वापस करने को लेकर किसी प्रधानमंत्री ने समाचार पत्रों एवं टेलीविजन के माध्यम से या अपने चुनावी भाशणों में इसका प्रचार-प्रसार किया हो और जनता पर इतना बड़ा असर हुआ हो। सब्सिडी को आम तौर पर नागरिक अपना हक समझते हैं जबकि इस बात की षायद कभी भी व्याख्या हुई हो कि सक्षम के सब्सिडी छोड़ने से गरीब को एलपीजी कनेक्षन उपलब्ध होगा। भारत गांवों का देष है। किसानों से जुड़े अनेक वस्तुओं पर सब्सिडी की बात होती रही है और इसे लेकर निर्भरता भी कमोबेष बढ़ी ही है। देष में पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और उर्वरक आदि पर सब्सिडी का चलन हमेषा से रहा है। हज सब्सिडी भी प्रचलन में है। हालांकि कुछ वर्शों से इस तरह की सब्सिडी पर सवाल भी खड़े होने लगे हैं और समाप्त करने की बात भी हो रही है। भारत में सब्सिडी बिल बहुत बड़ा है। वित्त वर्श 2014-15 में तो यह कुल जीडीपी का दो फीसदी रहा। हालांकि सरकार ने 2015-16 के लिए गत वर्श की तुलना में 10 प्रतिषत इसे कम किया है। बावजूद इसके अभी भी खाद्य सब्सिडी, उर्वरक सब्सिडी, पेट्रोलियम सब्सिडी सहित कई क्षेत्रों में बहुत बड़ी राषि खर्च की जाती है। 
ध्यान्तव्य यह भी है कि देष की सवा अरब आबादी में बैंक खाताधारकों की संख्या भी मात्रात्मक बहुत कम थी पर अगस्त, 2014 की जन-धन योजना के षुरूआत के चलते यह भी उम्मीद से अधिक प्रगति प्राप्त कर ली है। अन्तिम आंकड़े तक इस योजना के तहत लगभग 22 करोड़ नये खाते खोले जा चुके हैं जबकि इसमें जमा होने वाली राषि 37 हजार करोड़ से अधिक है। इतने कम समय में भारी पैमाने पर खाता खुलना भी इस योजना का पुख्ता नियोजन माना जा रहा है। इसके चलते न केवल रसोई गैस सब्सिडी हस्तांतरण में मदद मिल रही है बल्कि बैंकिंग व्यवस्था से दूर खड़े व्यक्ति को इसके समीप लाकर बदलाव की ओर धकेलने की कोषिष भी की गयी है। अभी भी देष की पूरी आबादी में 21 करोड़ के पास ही आधार कार्ड हैं जबकि कैष ट्रांसफर आधार कार्ड के आधार पर ही होना है। जन-धन योजना की व्यापक प्रगति के बावजूद अभी भी ज्यादातर गरीबों के बैंक खाते नहीं हैं। कई पिछड़े इलाकों में बैंक तक नहीं हैं। इन सभी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के लिए अभी कई काम करने बाकी हैं। फिलहाल जिस प्रकार सरकार ने एलपीजी, कैरोसिन की सब्सिडी राषि, पेंषन और छात्रवृत्ति की रकम और सरकार की अन्य कल्याणकारी योजनाओं का पैसा सीधे लाभार्थियों के खाते में पहुंचाने के प्रयास में है। उसे देखते हुए जनधन योजना सहित आधार कार्ड के मामले में और तेजी लाने की जरूरत होगी। इस प्रकार के कार्यक्रमों के चलते केन्द्र से चलने वाला सौ का सौ पैसा लाभार्थियों के खाते में ही गिरेगा। इसमें बिचैलिये कोई हेराफेरी नहीं कर सकते हैं। सात दषकों से लालफीताषाही और भ्रश्टाचार से लिप्त देष और उससे प्रभावित लोग ऐसी समस्याओं से निजात भी पायेंगे पर यह पूरी तरह तभी सफल होगा जब इस पर लगाई गयी लगाम पर कोई समझौता न हो। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी न खाऊंगा, न खाने दूंगा की तर्ज पर काम कर रहे हैं। ऐसे में बेहतर उम्मीद रखने से गुरेज नहीं किया जा सकता।
सुशील कुमार सिंह


बात तभी सम्भव, जब आतंक रुके

इस तथ्य को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता कि विगत् दो वर्शों के षासनकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को अन्तर्राश्ट्रीय ऊँचाई देने के साथ-साथ पड़ोसी पाकिस्तान से भी सम्बंध सुधारने की हर सम्भव कोषिष की ऐसे में भारत वैष्विक स्तर पर प्रखर तो हुआ पर पाक के मामले में सम्बंध इकाई से षुरू होकर इकाई तक ही रह गये। षायद यही कारण है कि पाक के प्रति सकारात्मक और नरम राय रखने वाले मोदी उससे रिष्ता कायम करने की बात तभी सम्भव बता रहे हैं जब वह आतंक को रोके। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी ने बीते 27 मई को पाकिस्तान के साथ षान्ति बहाली पर अपनी नीति साफ करते हुए कहा कि ऐसी कोई पहल दोतरफा ही हो सकती है इसलिए पाकिस्तान को पहले आतंकवाद पर दामन साफ करना होगा। उन बाधाओं को हटाना होगा जो उसने स्वयं खड़ी की हैं। मोदी ने यह भी कहा कि पाक आतंकवाद पर हर स्तर पर समर्थन देना बंद करे और इस मामले में कोई समझौता नहीं हो सकता। उनका यह भी मानना है कि पाक आतंकी हमलों की साजिष रचने वालों पर प्रभावषाली कार्यवाही करने में विफल रहा है। इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी कहा कि आपस में संघर्श के बजाय दोनों देषों को गरीबी से लड़ना चाहिए। ऐसा षायद पहली बार हुआ होगा जब प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को लेकर इतनी कठोर और चुभने वाली बात कही है।
मोदी भी जानते हैं कि विगत् दो वर्श के कार्यकाल में कई अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान से जुगलबन्दी करने की कोषिष की गयी। काठमाण्डू के सार्क सम्मेलन से पटरी से उतरी बात को रूस के उफा के रास्ते संभालने की कोषिष की गयी पर पाक के पलटी मारने से मामला खटाई में ही रहा। नवम्बर, 2015 में पेरिस में षरीफ के साथ क्षण भर की गुफ्तगू और तत्पष्चात् विदेष मंत्री सुशमा स्वराज की दिसम्बर के पहले पखवाड़े में इस्लामाबाद की यात्रा मोदी की पाक के प्रति अच्छे सम्बंध निर्माण की कवायद ही थी इतना ही नहीं 25 दिसम्बर, 2015 को स्वयं औचक्क लाहौर की यात्रा इस बात का संकेत था कि भारत पाकिस्तान से सम्बंधों को लेकर संवेदनषील हैं। लेकिन 2 जनवरी, 2016 में पठानकोट पर आतंकी हमला और मार्च के अन्तिम सप्ताह में पाकिस्तान की संयुक्त जांच कमेटी का इस मामले भारत आना मगर भारत की एनआईए को पाकिस्तान में प्रवेष न देने की हिमाकत करते हुए वादा खिलाफी के साथ कष्मीर के रास्ते एक बार फिर उसने दोगलापन दिखाया जबकि पठानकोट के हमलावर पाकिस्तानी नागरिक थे इसका पुख्ता सबूत भारत ने पाकिस्तान को पहले ही दे दिया था। हालांकि मुम्बई मामले में भी सबूत देने के बावजूद एक भी कदम पाकिस्तान ने नहीं बढ़ाया था।
मोदी ने पाकिस्तान को सम्बंध बेहतर करने के कई अवसर दिये पर वह कान में तेल डालकर सोता रहा और घेरने की स्थिति में आतंक के बजाय कष्मीर का राग अलापता है। बीते अप्रैल में पाकिस्तान ने कष्मीर मसले का हवाला देते हुए भारत के साथ षान्ति प्रक्रिया को स्थगित करने की बात कही। साफ था कि पाकिस्तान बरसों से भारत के भरोसे को तोड़ने के क्रम में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहता। पहले कष्मीर और अब आतंक के कारण ही भारत और पाक के रिष्ते पटरी पर नहीं आ रहे हैं। देखा जाए तो दोनों देषों के बीच कड़वाहट उतनी पुरानी है जितनी की देष की स्वतंत्रता मगर इसके पीछे मूल वजह कष्मीर समस्या ही रही है। समस्याओं ने समय के साथ करवट ली और कष्मीर की घाटियां पाक समर्थित और आयातित आतंक से पट गयीं जिसकी सूरते हाल में भारत को दषकों से कीमत चुकानी पड़ रही है। बीते दिनों अखबारों एवं टेलीविजन, मीडिया के माध्यम से इस बात पर बहुत कुछ छापा भी गया और कहा भी गया कि दो वर्श पुरानी नरेन्द्र मोदी की सरकार की क्या उपलब्धियां रहीं और क्या खामियां। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भारत को बुलन्दी देने के मामले में प्रधानमंत्री मोदी को डिस्टिंक्षन माक्र्स से पास होते हुए देखा जा सकता है। भारत-पाकिस्तान के रिष्तों के मामले में उनका रवैया काफी उदार और सहयोगी रूप लिए हुए था पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ ने कई वादा-खिलाफी के साथ मिलाजुला कर अपना रवैया वैसा ही रखा जैसे कमोबेष पाकिस्तान रखता आया है।
 26 मई, 2014 को तमाम पड़ोसी देषों का मोदी के षपथ के दिन देष की राजधानी में जमावड़ा लगा था जिसमें नवाज़ षरीफ भी उसी मान के साथ भारत बुलाये गये थे पर सम्बंधों को सकारात्मक दिषा देने में षरीफ, उतने षरीफ सिद्ध नहीं हुए। वैसे देखा जाए तो वैष्विक फलक पर भारत अपनी सकारात्मक छवि के लिए ऊंचाईयां छू रहा है तो पड़ोसी पाकिस्तान अपने घटिया करतूतों के चलते उसी वैष्विक पटल पर अनचाही लोकप्रियता बटोर रहा है। आतंक को मजबूत आधार देने वाले पाकिस्तान ने भारत में कहीं अधिक सच्चे मन से आतंकवाद की रोपाई भी की है। यही आतंकवाद दोनों देषों के बीच के सम्बंधों को दरकिनार कर रहा है जिसकी चिंता प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य में देखी जा सकती है। गौरतलब है कि पाक की आतंकी गतिविधियों से भारत दषकों से कराह रहा है। अब तो दुनिया भर के तमाम देष इसकी पीड़ा भोग रहे हैं। विगत् दो वर्शों में जहां भी और जिस भी देष का दौरा मोदी ने किया आतंकवाद का जिक्र किये बगैर यात्रा का समापन नहीं हुआ है पर क्या इस दिषा में रणनीतिक कदम वैष्विक स्तर पर उठे हैं षायद हां में जवाब पूरी तरह सम्भव नहीं है। मोदी संयुक्त राश्ट्र को यह भी मषविरा दे चुके हैं कि वे पहले आतंक की परिभाशा तो सुनिष्चित करें। जिस कदर आतंक ने विगत् कुछ वर्शों में चैतरफा विस्तार लिया है साफ है कि बहुत कम समय में मुट्ठी भर आतंकियों का ग्लोबलाइजेषन हो गया है।
जी-20 षिखर बैठक से लेकर पेरिस के जलवायु सम्मेलन तक चाहे प्रधानमंत्री मोदी ने आतंक पर अपना मन्तव्य जरूर रखा है। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्शों में दुनिया में इस्लाम के नाम पर संगठित किये जा रहे आतंकी संगठनों की बाढ़ आई है। अनुमान के मुताबिक इनकी संख्या 100 हो सकती है। संयुक्त अरब अमीरात ने 83 ऐसे संगठनों की सूची जारी की थी जबकि इसके पूर्व अमरीका भी ऐसा कर चुका है। वैष्विक परिप्रेक्ष्य में आंकड़े भी बताते हैं कि बीते 15 सालों में आतंक के चलते मारे जाने वाले लोगों की संख्या में 15 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है और आतंकी जिस प्रकार विस्तार ले रहे हैं यह भविश्य में और भी भयावह हो सकता है। जो देष आतंकियों को पनपने और पनाह देने में समर्पण दिखा रहे हैं वे भूल गये हैं कि इनके पलटवार से वे भी सुरक्षित नहीं है पाकिस्तान इसका पुख्ता सबूत है कि अब उसी के आतंकी उस पर ही पलटवार कर रहे हैं। ब्लूचिस्तान के आर्मी स्कूल तथा बाचा विष्वविद्यालय इसका उदाहरण है। भारत में 2012 से 2013 के बीच आतंकवाद में 70 फीसदी की वृद्धि हुई है। आईएस इन दिनों सारी दुनिया में पहला ऐसा आतंकी संगठन है जो अपने लिए एक अलग राश्ट्र स्थापित करने में कामयाब हो रहा है। ग्लोबल टेरारिज्म इंडैक्स, 2015 से यह भी पता चलता है कि वर्श 2014 में 14 हजार आतंकी वारदातें दुनिया भर में हुई जो पिछले साल की तुलना में 35 फीसदी अधिक है और वर्तमान में इसी गति कम नहीं हुई है। वैष्विक पटल को खंगाला जाए तो आतंकी मुट्ठी भर मिलेंगे पर इनका साम्राज्य जिस तरह रूप ले रहा है मानों ग्लोबलाइजेषन की ओर बढ़ रहे हों। जबकि यह साफ हो चुका है कि आतंक एक वैष्विक समस्या है फिर भी रणनीति के मामले में छोटे से लेकर बड़े देष सधा हुआ कदम उठाने में कामयाब नहीं रहे हैं। 


सुशील कुमार सिंह


Monday, May 30, 2016

भारत-ईरान : पुराने सम्बन्ध, नए पढ़ाव

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारत की पष्चिम की ओर देखो नीति दषकों पुरानी है जबकि इतिहास में झांका जाये तो यह सदियों पुरानी है। जिसमें ईरान के मामले में तो भारत काफी संजीदा रहा है। हालांकि इस दौरान कई मौके दुविधा से युक्त तो कई अनुभव कड़वे भी रहे हैं पर इन सबके बीच भारत यह जानता है कि ईरान एक बड़ी क्षेत्रीय षक्ति है तथा उसकी भौगोलिक स्थिति उसे पड़ोसी क्षेत्रों जैसे पर्सिया की खाड़ी, पष्चिम एषिया, काॅकेषस, कैस्पियन तथा दक्षिण व मध्य एषिया में उसे महत्वपूर्ण बनाती है। गौरतलब है कि विष्व के प्राकृतिक गैस का 10 फीसदी भण्डार रखने वाला ईरान ओपेक देषों में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है जिसके चलते भारत और ईरान के बीच ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के व्यापक अवसर देखे जा सकते हैं। हालांकि भारत-पाकिस्तान-ईरान गैस पाईपलाइन समझौता लम्बे समय तक कागजी ही रहा और अब तो नाउम्मीदी के ही संकेत हैं। प्रधानमंत्री मोदी वैष्विक पटल पर दुनिया के तमाम देषों के साथ भारत को सजीव तरीके से जोड़ने की कवायद में पिछले दो बरस से लगे हैं। जून, 2014 से भूटान से षुरू यह कारवां 22 मई, 2016 को दो दिवसीय यात्रा पर ईरान पहुंचा। जहां दोनों देषों के षीर्श नेताओं ने महत्वपूर्ण समझौते किये। जिसमें भारत ने पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और यूरोप तक अपनी पहुंच सुनिष्चित करने वाले बेहद अहम चाबहार समझौते पर सहमति की मोहर लगाई। भारत और ईरान के बीच हुए इस करार को रणनीतिक और कारोबारी दृश्टि से अहम माना जा रहा है जबकि चीन और पाकिस्तान के लिए यह समझौता खटकने वाला है। दरअसल इस समझौते के चलते भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच सीधे बन्दरगाह सम्पर्क स्थापित हो जायेंगे साथ ही इस इलाके में बढ़ते चीन और पाकिस्तान के असर कम हो जायेंगे। ऐसे में चीन और पाकिस्तान की बेचैनी बढ़ना लाज़मी है। फिलहाल भारत-ईरान के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम, थिंक टैंक के बीच चर्चाएं, विज्ञान एवं तकनीक में परस्पर सहयोग, पुराने मुद्दों के मामले में जानकारियों का आदान-प्रदान तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि समेत चाबहार बन्दरगाह के विकास के लिए और स्टील रेल आयात करने के लिए 3373 करोड़ रूपए का ऋण देने पर सहमति के साथ कुल जमा 12 समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। 
जानकारों की राय में ईरान से हुए ये समझौते भविश्य के लिए फायदे वाले सिद्ध होंगे। गौरतलब है कि चाबहार समझौते के चलते ओमान की खाड़ी में स्थित इस बंदरगाह के विकसित होने से भारत की जो निर्भरता पाकिस्तान पर है वह समाप्त हो जायेगी और मध्य एषिया तक भारत की सीधी पहुंच हो जायेगी। ऐसे में मध्य एषिया की दौड़ लगाने में भारत को कोई रूकावट नहीं आयेगी साथ ही रूस तक भी अपनी पहुंच बना सकेगा। ध्यानतव्य है कि वर्श 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान चाबहार को विकसित करने में सहमति बनी थी जिसके चलते भारत ने अफगानिस्तान को ईरान से जोड़ने वाली सड़क का निर्माण किया है पर ईरान के अलग-थलग पड़ने के चलते परियोजना कमजोर पड़ गयी। इसके अलावा देखा जाए तो भारत लम्बे समय से ईरान तथा पाकिस्तान से होकर गैस पाईपलाइन लाने का प्रयास भी कर रहा था पर यह भी परवान नहीं चढ़ सकी और यह मामला लगभग तब समाप्त हो गया जब पिछले महीने ईरान के राजदूत ने 27 सौ किलोमीटर लम्बी समुद्र के भीतर की इस परियोजना के नेस्तोनाबूत होने का संकेत दे दिये। जाहिर है 2003 से खटाई में पड़े चाबहार समझौते को एक बार संजीदा बनाकर मोदी ने ईरान के साथ एक सकारात्मक कूटनीति का परिचय दिया है साथ ही पड़ोसी चीन और पाकिस्तान को झटका भी। हालांकि ईरान के राश्ट्रपति हसन रूहानी बीते 25 और 26 मार्च को पाकिस्तान की यात्रा पर थे। जो दोनों देषों के ऊर्जा, संचार और सुरक्षा चिंता से जुड़ी थी। इस यात्रा से पाकिस्तान को ईरान से बड़ी आस भी थी पर भारत से ईरान की नज़दीकी को देखते हुए उसका चिंता में आना स्वाभाविक है। फिलहाल चाबहार विकसित होने से ईरान से प्राकृतिक गैस और कच्चा तेल लाना आसान होगा। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी संदर्भित करते हैं कि यदि भारत अपनी उपस्थिति अफगानिस्तान तथा मध्य एषिया में बढ़ाना चाहता है तो भारत के लिए ईरान की भूमिका प्रमुख हो जाती है। जिसे देखते हुए मोदी के दो वर्शीय षासनकाल के अन्तिम पहर में इस दो दिवसीय यात्रा को प्रमुखता से देखा जा रहा है। 
वैसे भारत-ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त षासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं। दोनों देषों के बीच संस्कृति, कला, वास्तुकला तथा भाशा के क्षेत्र में भी अन्तःक्रियाएं होती रही हैं। भारत में उत्पन्न हुए बौद्ध धर्म ने पूर्वी ईरानी क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। आध्यात्मिक अन्तःक्रिया के चलते सूफीवाद का उदय भी माना जाता है। विष्व के सात आष्चर्य में षामिल ताजमहल का वर्णन प्रायः भारतीय षरीर में ईरानी आत्मा के प्रवेष के रूप में किया जाता है। स्वतंत्रता के षुरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च, 1950 को एक चिरस्थायी षान्ति और मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर भी हुए थे। हालांकि षीत युद्ध के दौरान दोनों के बीच अच्छे सम्बंध नहीं थे ऐसा ईरान का अमेरिकी गुट में षामिल होने के चलते था जबकि भारत गुटनिरपेक्ष बना रहा जबकि आज हालात उलट दिखाई देते हैं। अब भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध पिछले सात दषकों की तुलना में कहीं अधिक मजबूत हो चले हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले में भी भारत-ईरान का आपसी सहयोग बना रहा। वर्श 2003 में ईरानी राश्ट्रपति खातमी के भारत दौरे के दौरान इस मामले में संयुक्त समझौता भी हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2001 में ईरान दौरे के समय आधारभूत संरचनात्मक परियोजना के लिए ईरान को दो सौ मिलियन डाॅलर ऋण उपलब्ध कराये जाने की घोशणा भी की थी। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था पर भारत एवं अमेरिका के बीच नाभिकीय समझौता 2005 ने दोनों देषों के बीच तनाव उत्पन्न कर दिया। यदि भारत ईरान और अमेरिका में से किसी एक को चुनता तो यह उसके लिए निहायत कठिन था। हालांकि ईरान के लिए भी यह चुनौती रही है कि वह भारत और पाकिस्तान को लेकर संतुलन कैसे बनाये रखे। वर्शों पूर्व भारत से ईरान का गतिरोध तब हो गया जब उसने कष्मीर में स्वषासन की बात कह दी जो भारत को नागवार गुजरा था। 
फिलहाल मोदी के ईरान दौरे ने एक बार फिर दोनों देषों के बीच नई किस्म की विचारधारा को एकरूपता दे दी है जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा है कि भारत और ईरान की दोस्ती उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इतिहास। मोदी ने यह भी दोहराया कि दोनों देषों के बीच अतीत के गौरव को हासिल करने का समय है। वैसे मोदी जिस भी देष का दौरा करते हैं वहां के तमाम सम्बंधों के अलावा सांस्कृतिक सम्बंधों से देष को जोड़ना नहीं भूलते, ईरान में भी इसकी भरपाई हुई है। मोदी का यह कहना कि क्षेत्र में षान्ति, स्थिरता और समृद्धि बनाये रखने में भारत और ईरान की अहम भूमिका है यह स्वयं में सम्बंधों को नई धरातल देने की कोषिष है। बीते 22 मई को ईरान पहुंचे मोदी का जादू वहां भी चला। पिछले 15 सालों में वाजपेयी के बाद ईरान जाने वाले पहले प्रधानमंत्री का गौरव भी इन्हें ही मिलता है। मोदी सरकार के ठीक 26 मई को दो साल पूरे हो रहे हैं और दो साल के दरमियान यह अन्तिम विदेषी यात्रा होगी जिसे निहायत सफल करार दिया जायेगा। कुल मिलाकर संदर्भित पक्ष यह है कि मध्य एषिया में भारत की पहुंच पहले की तुलना में आसान होने जा रही है।
सुशील कुमार सिंह


रेड टेप से रेड कारपेट तक

रेड टेप से रेड कारपेट तक
अमेरिकन इंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के एक रेज़िडेन्ट फेलो सदानंद धूमे ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी को लेकर हाल ही में कहा था कि अब तक मोदी सरकार का रिकाॅर्ड मिलाजुला रहा है। मोदी ने निवेषकों के लिए लाल कालीन बिछाने का सर्वश्रेश्ठ काम किया साथ ही उन्होंने रक्षा, बीमा, खाद्य प्रसंस्करणों समेत विदेषी निवेष के कई नियमों में ढील दी है। गौरतलब है कि भारत में प्रत्यक्ष विदेषी निवेष 33 फीसदी के साथ बढ़ कर वर्तमान में 64 अरब डाॅलर से अधिक है जबकि यह मोदी सरकार से पहले 48 अरब डाॅलर था। अमेरिका-इण्डिया पाॅलिसी स्टडी सेन्टर फाॅर स्ट्रैटजी एण्ड इंटरनेषनल स्टडीज का मानना है कि मोदी सरकार का ट्रैक रिकाॅर्ड भले ही बहुत षानदार न हो लेकिन यह मजबूत जरूर है। मोदी ने बीते दो वर्शों में एषियाई सुरक्षा पर अमेरिका से मेल खाते अपने विचारों से अमेरिकी सुरक्षा समुदाय को न केवल हैरान किया है बल्कि अमेरिकी रक्षा निर्यातों के लिए सबसे बड़े बाजारों में भी भारत को षामिल किया है साथ ही संयुक्त अभ्यासों के लिए बड़ा साझीदार भी बना है। उपरोक्त परिप्रेक्ष्य मोदी सरकार के दो साल को समझने के लिए एक बानगी मात्र है। सरकार के आंकलन के परिप्रेक्ष्य में यह संदर्भित भी है और सारगर्भित भी कि मोदी के दो साल कहीं-कहीं तो सामान्य पर कई हिस्सों में निहायत कमाल से भरे हैं। वैसे कम षब्दों में उपलब्धियों को समेटना चुनौतीपूर्ण है पर कोषिष करने में कोई हर्ज नहीं है। बीते दो वर्शों में सत्ता समीकरण को लेकर भी जबरदस्त बदलाव का दौर जारी रहा। कहीं दो साल, बुरा हाल तो कहीं अच्छे दिन कब आयेंगे को लेकर आलोचना, समालोचना भी चलती रही साथ ही उम्मीदी और नाउम्मीदी के बीच सरकार को लेकर खूब गुणा-भाग भी हुआ है। सरकार से कितना मोह भंग हुआ है और मोदी का जादू कितना बरकरार है इसके भी कयास कम-से-कम  एक वर्श से तो लगाये ही जा रहे हैं। बेहतर कामकाज के लिए जानी जाने वाली मोदी सरकार को लेकर राजनीतिक विष्लेशकों का मन्तव्य भी पूरा स्पश्ट नहीं हो पाया है।  
फिलहाल सरकार के दो साल पूरे होने के मौके पर गुजरात बीजेपी 26 मई को अहमदाबाद में ‘विकास पर्व‘ समारोह आयोजित कर रही है। ‘मेरा देष बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है‘ यह सरकार का थीम साॅन्ग है जिसमें तमाम योजनाओं एवं नीतियों का जिक्र है और सरकार की उपलब्धियों को गीत-संगीत के माध्यम से परोसने का एक नायाब अंदाज भी। जन-धन योजना, स्वच्छ भारत अभियान, डिजिटल इण्डिया, मेक इन इण्डिया, स्किल इण्डिया समेत दर्जनों नियोजन मोदी सरकार के दो वर्श के कार्यकाल के चष्मदीद गवाह हैं साथ ही फलक पर परोसी गयी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों के विभिन्न आयामों के साथ कूटनीतिक और वैदेषिक सफलताओं का दस्तावेज भी सैकड़ों पृश्ठ लिए हुए है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, नमामि गंगे, सांसद आदर्ष ग्राम योजना से लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था की तेज होती रफ्तार, एक खुषहाल भारत के लिए मजबूत किसान साथ ही भारतीय उद्यमियों के लिए हौंसले बुलन्द करने वाले कई ऐसे आर्थिक परिपाटी के प्रादुर्भाव का होना सरकार की सषक्तता का परिचायक ही है। एक उज्जवल भविश्य की ओर भारत को धकेलने का काम करना और अभूतपूर्व पारदर्षिता कायम करने की भरपूर कोषिष करने के चलते भी मोदी सरकार का द्विवर्शीय रिपोर्ट कार्ड उजाले की ओर जाता दिखाई देता है। चैतरफा विकास सुनिष्चित करने के मुरीद मोदी कई योजनाओं को समाप्त करने के लिए भी जाने जाते हैं मसलन योजना आयोग के बदले नीति आयोग का बनाना। मोदी इस बात के लिए भी अपनी तारीफ करवा सकते हैं कि उन्होंने पहले की यूपीए सरकार के कई नीतियों और नियोजनों को समाप्त किया है पर उन्होंने मनरेगा परियोजना को लेकर कोई आड़ा-तिरछा निर्णय नहीं लिया। एक बार लोकसभा में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि मनरेगा कांग्रेस सरकार की नाकामियों का पिटारा है और इसका ढोल हम बजाते रहेंगे। अप्रत्यक्ष व आलोचना के तौर पर ही सही मनरेगा मोदी को भी भाया है। मनरेगा समेत यूपीए की कई योजनाएं इनके भी मन को भाया है।
नई परम्परा की षुरूआत करने वाले मोदी रेडियो के माध्यम से अब तक 20 बार मन की बात कर चुके हैं। बच्चों की षिक्षा एवं परीक्षा पर संवेदनषीलता जताने और पानी को परमात्मा का प्रसाद बताने वाले मोदी देष के प्रत्येक नागरिकों को उकसाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। विदेष की धरती पर कभी ऐसा अवसर नहीं आया जब भारतीय प्रधानमंत्री को लेकर हजारों की तादाद जुटती रही हो और लोकप्रियता के आकाष में इतनी किसी ने चमक छोड़ी हो। मोदी विगत् दो वर्शों में करीब तीन दर्जन देषों में यात्रा कर चुके हैं। जून 2014 से भूटान से विदेष यात्रा षुरू करने वाले मोदी दो साल के कार्यकाल के अन्तिम दिवस आते-आते ईरान तक की यात्रा के लिए जाने जायेंगे। अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर प्रधानमंत्री मोदी आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन की चर्चा करने वालों में भी षायद अव्वल माने जायेंगे। यह सही है कि मोदी इन दो वर्शों में आतंकवाद के मामले में दुनिया को अपनी वेदना से अवगत कराने में भारत ने बड़ी कामयाबी पाई है। अमेरिका समेत विष्व के कई पहली पंक्ति के देषों के साथ सम्बंधों को इन्होंने परवान चढ़ाया है। रेड टेप के बजाय रेड कारपेट कल्चर से विष्व को अवगत कराकर मोदी ने भारत की अलग तस्वीर ही दुनिया में पेष कर दी। मई, 2015 की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत पर्यटन के मामले में छलांग लगाते हुए वैष्विक सूची में 65वें से 52वें स्थान पर आ गया था। सरकार ने इस दौरान टूरिस्ट वीजा में भी नये नियमों का समावेषन करके काफी हद तक तरल बनाने का काम किया है। षौचालय से लेकर स्टार्टअप इण्डिया, स्टैण्डअप इण्डिया जैसे कार्यक्रमों को बेहतर रूप देने वाले मोदी के षासनकाल के दो वर्श की तस्वीर फिलहाल चमकदार तो है परन्तु यही कार्यकाल कई खामियों को भी समेटे हुए है।
सघन और संवेदनषील कार्यकाल के दौरान सरकार कई बार कमजोर भी पड़ी है। कई महत्वाकांक्षी विधेयकों को लेकर आज भी तस्वीर साफ नहीं है मसलन जीएसटी। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर तो सरकार बैकफुट पर ही चली गयी। राज्यसभा में संख्याबल की कमी के कारण दो साल का पूरा कार्यकाल पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के लिए पूरी तरह चिकना पथ साबित नहीं हुई। अरूणाचल प्रदेष और उत्तराखण्ड में क्रमषः 26 जनवरी एवं 27 मार्च, 2016 को राश्ट्रपति षासन लगाकर अपनी खूब आलोचना भी करवाई। इसके अतिरिक्त मोदी की कार्यषैली को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं। धर्मांतरण से लेकर असहिश्णुता तक का बाजार इन्हीं दो वर्शों में खूब गरम रहा। असहिश्णुता के चलते तो वर्श 2015 के अगस्त के महीने से पुरस्कार वापसी का एक अभियान ही षुरू हो गया था। राजनीति में करिष्माई कद रखने वाले मोदी की पार्टी भाजपा दिल्ली विधानसभा में बुरी तरह हारी जबकि बिहार हार ने उनके करिष्मे पर ही प्रष्न चिह्न खड़ा कर दिया। हालांकि बीते 19 मई को घोशित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने असम में सत्ता के साथ मोदी के कामकाज और करिष्मे पर एक बार फिर मोहर लगते हुए देखी गयी। रोचक यह भी है कि इन दो वर्शों में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में 14 प्रान्तों में भाजपा की सरकारे चल रही है जबकि मोदी से पहले यही संख्या कांग्रेस के पास थी जो अब आधा दर्जन पर सिमट कर रह गयी। कहा जाय तो कांग्रेस मुक्त भारत का महाअभियान चलाने वाले मोदी इन दो वर्शों में इस मामले में भी कारगर सिद्ध हुए हैं। बावजूद इसके खास बातों के लिए जाने, जाने वाले मोदी का रिपोर्ट कार्ड खामियों से भी भरा कहा जा सकता है। मिलाजुला कर दो वर्श की कार्यकाल पद्धति को संतुलित तौर पर देखा जा सकता है।
सुशील कुमार सिंह


Monday, May 23, 2016

परिपक्व लोकतंत्र के परिचायक चुनावी नतीजे

बीते 19 मई को घोशित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे वाकई में राश्ट्रीय राजनीति को भी दिषा देने के काम आयेंगे। असम, पष्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी विधानसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के लिए बेहद सकारात्मक रहे हैं जबकि कांग्रेस की जो स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान थी लगभग वही बनी हुई है। चुनाव-दर-चुनाव कांग्रेस के किले पर भाजपा का कब्जा होता जा रहा है, जिससे यह भी संकेत स्पश्ट हो चला है कि आज से तीन बरस पहले भाजपा ने जो कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाया था वह मुकम्मल होता दिखाई दे रहा है। पिछले लोकसभा के चुनाव के दौरान कांग्रेस 14 राज्यों पर काबिज थी जो अब सिमट कर आधा दर्जन राज्यों तक सीमित हो गई है वहीं भाजपा ठीक इसके उलट ताजे नतीजों के साथ 14 राज्य पर स्वयं काबिज हो चुकी है। असल में जब 13 सितम्बर, 2013 को भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोशित किया था तभी से पूरे भारत में लोकसभा चुनाव को लेकर मोदी ने एक महाअभियान छेड़ रखा था और उनके जादू का लोहा तब माना गया जब 16 मई, 2014 के नतीजे में स्पश्ट बहुमत के साथ मोदी का प्रधानमंत्री बनना तय हुआ। आवेग और आवेष के साथ मोदी न केवल 16वीं लोकसभा के हीरो साबित हुए बल्कि दस बरस से केन्द्र की सत्ता में विराजमान कांग्रेस को भी जमा 44 सीटों पर सीमित कर दिया। उन दिनों षायद ही कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा को लेकर कोई इतना संवेदनषील रहा हो पर विगत् दो वर्शों से जिस प्रकार लगातार कांग्रेस विधानसभा चुनाव में परास्त हो रही है उसे देखते हुए अब इस पर संदेह कम ही रह गया है। इस बार भी असम और केरल कांग्रेस के हाथ से निकल चुका है जबकि पष्चिम बंगाल और तमिलनाडु में क्रमषः ममता बनर्जी और जयललिता की वापसी हुई है।
भारतीय राजनीति के फलक पर भाजपा अधिक रसूकदार बनकर उभरी है इसमें कोई षक नहीं है। जिस प्रकार असम में बहुमत और केरल, पष्चिम बंगाल सहित अन्य चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने प्रदर्षन किया है उसे देखते हुए यह लगने लगा है कि भाजपा अब पैठ के मामले में अखिल भारतीय स्तर को प्राप्त कर चुकी है। हालांकि असम में सत्ता विरोधी लहर के चलते भी कांग्रेस की हार मानी जा सकती है। गौरतलब है कि यहां कांग्रेस ने 15 साल तक षासन किया है। एक लोकतांत्रिक और मजबूत बात यह भी है कि किसी भी प्रदेष के नतीजों का त्रिषंकु का न होना भी इस बात का स्पश्ट संकेत है कि भारत की जनता लोकतंत्र को किसी झंझवात में डालने के बजाय एक स्पश्ट राय रखने लगी है। इससे लोकतंत्र की परिपक्वता का भी पता चलता है। जयललिता ने तमिलनाडु में इतिहास रचा है तो पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने भी यही काम किया है साथ ही केरल और तमिलनाडु के नतीजों ने एक बार फिर यह साफ किया है कि क्षेत्रीय दलों की क्या एहमियत होती है। हालांकि पुदुचेरी के नतीजे कांग्रेस को राहत दे सकते हैं पर खोने और पाने के बीच में इतना फासला है कि कांग्रेस को एक बार नये सिरे से होमवर्क करने की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस की हालत यह है कि छोटे और क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के बावजूद हाषिये पर ही रह गयी। इसके पूर्व बिहार के चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा बनकर 27 सीटों के साथ कांग्रेस बिहार में तुलनात्मक बेहतर प्रदर्षन के लिए समझी गयी परन्तु इसे बरकरार नहीं रख पाई। कांग्रेस को अगर उठ खड़ा होना है तो उसे पहले आन्तरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मन से पुर्नजीवित करना होगा। अक्सर कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि इसके अन्दर का लोकतंत्र निर्जीव है। 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे विपक्षी एकता को भी सोचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। हालांकि जिस प्रकार पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का प्रदर्षन है उसे देखते हुए भाजपा समेत मोदी को यह भी सोचना पड़ेगा कि उनकी तमाम कोषिषें ममता को हाषिये पर धकेलने के काम नहीं आ सकी जबकि इसी प्रदेष में वामदलों को तो इतना जोर का धक्का लगा है कि षायद वे अब कांग्रेस से समझौता करने से तौबा ही कर लेंगे। हालांकि कांग्रेस और वामदल हार के बाद एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ते हुए देखे गये। सियासी संदर्भ और निहित परिप्रेक्ष्य को देखते हुए ममता बनर्जी और जयललिता को राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी देखा जायेगा। सम्भव है कि आने वाले सियासत में इनका रसूक बढ़ सकता है। 60 के दषक में केरल से लेफ्ट सरकार की षुरूआत हुई थी आज एक बार फिर कांग्रेस से सत्ता फिसलकर उनके हाथ आई है। जाहिर है भारतीय सियासत के क्षितिज में लोप हो रहे लेफ्ट के लिए केरल की जनता ने संजीवनी दे दी है। कमाल की बात तो यह है कि यहां का नेतृत्व 92 वर्शीय वी.एस अच्युतानंदन कर रहे थे जो भारतीय राजनीति में सर्वाधिक वयोवृद्ध नेता के तौर पर भी जाने-समझे जाते हैं। 20वीं सदी के एक मलयाली कवि कुमारन आषान ने एक कविता लिखी थी जिसकी एक पंक्ति में यह था कि ‘अपने नियमों को बदलो नहीं तो तुम्हारे नियम तुम्हें बदल देंगे।‘ यह बात लेफ्ट के साथ कांग्रेस पर भी बाखूबी लागू होती है। कहा तो यह भी जाता है कि ‘सियासी मंजर कांटों से भरे न हो तो चलने का मजा क्या। फिलहाल कई कयासों और अनुमानों को दरकिनार करते हुए जो भी नरम-गरम परिणाम आये हैं वह देष की राजनीति में नई पटकथा लिखने के काम आयेंगे। थोड़ी चर्चा एक्ज़िट पोल पर भी कर लें जो असम, केरल और पष्चिम बंगाल में तो पास हुआ परन्तु तमिलनाडु और पुदुचेरी में फेल भी हुआ। 
इसमें कोई षक नहीं कि उपरोक्त पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आने वाले अन्य प्रदेषों के चुनाव के लिए रणनीति बनाने के काम भी आ सकते हैं। इतना ही नहीं उक्त नतीजे प्रधानमंत्री मोदी के लोप हो रहे करिष्मे को एक बार पुनः स्थापित करने के रूप में समझे जा सकते हैं। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह का तो यहां तक मानना है कि जनता ने प्रधानमंत्री के कामकाज पर मोहर लगाई है। हालांकि जिस रौब के साथ प्रधानमंत्री ने चुनाव के दौरान तूफानी रेलियां की थीं उसकी एवज में असम को छोड़ अन्य प्रदेषों में प्रदर्षन बहुत उच्च स्तरीय नहीं माना जा सकता पर एक जीत भी उनकी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके पहले वहां उनका कोई सियासी रसूक नहीं था। इस बात को भी समझ लेना ठीक होगा कि प्रधानमंत्री मोदी के विकास के वायदों से भी वोटरों को लुभाने में मदद मिली है। असम के लिए तो यह बात सौ फीसदी सही है। इन सबके अलावा अच्छी बात यह है कि लोकतंत्र अब तुलनात्मक कहीं अधिक परिपक्व होता दिखाई दे रहा है। हालांकि कई विधाओं में अभी भी नये सिरे से सोच विचार की जरूरत है पर जिस प्रकार से राश्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति का स्वरूप बदलता जा रहा है उसे देखते हुए कहना सम्भव है कि गठबंधन का दौर राश्ट्रीय पार्टियों के लिए भी समाप्त नहीं हुआ है। इस नतीजे का एक फायदा यह भी है कि राज्यसभा में संख्याबल को लेकर मोदी की जो परेषानी है वह आगामी कुछ दिनों में राहत देने वाली हो सकती है। हाल ही में 57 राज्यसभा सदस्यों का चुनाव होना है। फिलहाल मिलाजुला कर इस चुनाव को भाजपा के लिए उम्मीदों से भरा तो कहा ही जा सकता है परन्तु कांग्रेस के लिए खोने के अतिरिक्त षायद ही कुछ रहा हो।

सुशील कुमार सिंह


हांफते शहर, बढ़ती आबादी

मई की 18 तारीख को संयुक्त राश्ट्र की एक रिपोर्ट से परिचित होने का अवसर मिला जिसका षरीर और ढांचा भारत कह षहरी जनसंख्या से सम्बन्धित था। रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत की षहरी आबादी 2050 तक 30 करोड़ और बढ़ जायेगी। हालांकि यह कोई अप्रत्याषित आंकड़ा नहीं है क्योंकि भारत समेत पूरा वैष्विक जगत षहरी आबादी की ओर तेजी से रूपांतरित हो रहा है। हां यह बात और है कि कई देषों की गति इस मामले में धीमी है। भारत के संदर्भ में यह बात इसलिए अधिक गम्भीर है क्योंकि यहां पहले से ही जनघनत्व की अधिकता के चलते अनेक षहर चरमरा रहे हैं। ऐसे में इतनी बड़ी जनसंख्या का आगामी वर्शों में समावेषन का होना कई विकट समस्याओं के होने का संकेत है। देखा जाए तो बीते कई दषकों से देष जनसंख्या विस्फोट की समस्या से जूझ रहा है। तमाम कोषिषों के बावजूद अभी भी इस समस्या से उबरना सम्भव नहीं हो पाया है। यद्यपि भारत दुनिया का पहला ऐसा देष है जिसने अपनी जनसंख्या नीति बनाई थी पर यह आषानुरूप नहीं रही। राश्ट्रीय जनसंख्या आयोग के इस कथन को भी इस मामले में उचित करार दिया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि जनसंख्या नियंत्रण का मामला केवल लोगों की इच्छा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता अतः जनसंख्या नीति पर पुर्नविचार करना चाहिए। फिलहाल जनसंख्या विस्फोट की मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए पुरानी पड़ गई जनसंख्या नीति को भी रफ्तार देने की कवायद की जानी चाहिए। तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि वर्श 1951 में 36 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत 2011 की जनगणना तक 121 करोड़ तक पहुंच चुका था। बीते एक दषक यानी 2001 से 2011 के बीच जनसंख्या में लगभग 18 करोड़ की वृद्धि देखी जा सकती है। मौजूदा स्थिति में भी प्रतिवर्श यह वृद्धि दर डेढ़ करोड़ से अधिक की बनी हुई है। जाहिर है कि अगली जनगणना तक 15 से 20 करोड़ की जनसंख्या और बढ़ जायेगी। ऐसे में देष की बुनियादी आवष्यकताओं और समस्याओं को लेकर सरकारों को नये सिरे से होमवर्क भी करना होगा। अनुमान तो यह भी है कि आने वाले कुछ ही वर्शों में भारत चीन को पछाड़ते हुए दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देष बन जायेगा जो कहीं से हितकारी तो नहीं है।
जनसंख्या विस्फोट का प्रभाव बहुआयामी होता है इससे षहरी आबादी की बढ़ोत्तरी समेत कई अनगिनत समस्याएं भी पैदा होती हैं। वर्श 1951 में स्वतंत्रता के बाद हुई पहली जनगणना में कुल षहरी आबादी 15 फीसदी से भी कम थी जबकि 2011 तक यह 31े फीसदी तक पहुंच गयी है। जिस प्रकार षहरों का विकास और षहरी जनघनत्व में दिन-प्रतिदिन की औसत से इजाफा हो रहा है उसे देखते हुए अनुमान लगाना सही है कि गांव और कस्बों की आबादी से अधिक आने वाले दिनों में षहरी आबादी होगी। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने भी आगामी तीन दषक में षहरी आबादी को 60 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान लगाया है। जाहिर है कि आने वाले 25 वर्शों में 30 करोड़ की आबादी षहरों में जब समायेगी जैसा कि संयुक्त राश्ट्र की रिपोर्ट में भी कहा गया है और सूरत भी कुछ इसी प्रकार की दिखाई दे रही है तब की स्थिति में हालात बद-से-बद्तर होंगे यदि इसके बुनियादी तथ्यों से अनभिज्ञ रहे तो। इसके लिए सरकार को नये सिरे से बुनियादी और व्यावहारिक दोनों तथ्यों पर जमीनी हकीकत से जूझना भी पड़ेगा। निष्चित रूप से यह तथ्य और पक्ष सटीक है कि भारत की बहुतायत समस्याएं जनसंख्या विस्फोट के चलते पनपी हैं और जिस रूप में गांवों से नई आर्थिक सोच के तहत षहरों की ओर पलायन हो रहा है। उसे रोक पाने में तो नाकामी हाथ लगी ही है। बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर केवल स्मार्ट षहरों तक ही सरकार को सीमित नहीं रहना होगा बल्कि नई रणनीति के साथ बुनियादी संसाधनों से भी दो-चार होना पड़ेगा। हाल ही में देखा गया है कि महाराश्ट्र के लातूर में ट्रेन की बोगियों में पानी भर कर जल पहुंचाने का काम किया गया। यह समस्या की एक बानगी मात्र है। यदि हालात नियंत्रण में नहीं रहे तो ऐसी समस्याएं भविश्य में आम हो जायेंगी।
अभी भी देष के षहरों में दो करोड़ से अधिक मकानों की कमी है। मोदी सरकार 2022 तक मकान बनाने का वायदा कर चुकी है पर वास्तव में इसकी पूर्ति कितनी हो पायेगी यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। कृशि संसाधन भी जनसंख्या के अनुपात में सूखे और बाढ़ तथा बेमौसम बारिष के चलते और मौसम की बेरूखी के कारण उछाल पर नहीं हैं। जाहिर है ऐसे में खाद्यान्न समस्या भी पीछा करेगी। एक अनुमान तो यह भी है कि 10 अरब की जनसंख्या तक का ही संसाधन पालन पोशण के लिए पृथ्वी पर हर सूरत में उपलब्ध हो सकता है। मौजूदा स्थिति में दुनिया 7.5 अरब की है। जाहिर है कि ढ़ाई अरब की जनसंख्या के बाद यह षक पूरी तरह से समाप्त हो जायेगा कि गुंजाइषें और भी हैं। दुनिया का षायद ही कोई देष हो जहां षहरी और ग्रामीण व्यवस्थाएं न पाई जाती हों। भारत गांवों का देष है और अभी भी यहां षहर की तुलना में आबादी अधिक है। बंग्लादेष, पाकिस्तान समेत भारत जैसे बड़े दक्षिण एषियाई देष अपने बड़े षहरों में षहरी आबादी का विस्तार कर रहे हैं साथ ही दूसरे दर्जे के षहरों की आबादी भी बढ़ा रहे हैं। ऐसी स्थिति में देष में जलवायु अनुकूल षहरों के विकास की आवष्यकता होगी। दुनिया के षहरों पर संयुक्त राश्ट्र परिवास ने पहली रिपोर्ट वल्र्ड सिटीज़ रिपोर्ट-2016 (अर्बनाइजेषन एण्ड डवलेप्मेंट) अमेर्जिंग फ्यूचर में कहा है कि भारत में सकल घरेलू उत्पाद में षहरी क्षेत्रों का योगदान 60 फीसदी से अधिक है। गौरतलब है कि जब षहरों में बेतहाषा जन दबाव बढ़ेगा और कमाने वालों की संख्या भी बढ़ेगी तो कुल जीडीपी का आधे से अधिक होना कोई हैरत की बात नहीं है। 
संयुक्त राश्ट्र मानव बस्ती कार्यक्रम रपट में यह भी कहा गया है कि अतिरिक्त ग्रीन हाउस गैस का जलवायु परिवर्तन पर असर होगा। जाहिर है कि दुनिया के सामने दो पेंच हैं पहला यह कि समानांतर संसाधन के संसार में गुणोत्तर वृद्धि दर लिये जनसंख्या को बुनियादी आवष्यकताएं कैसी पूरी की जायेंगी। दूसरा, लगातार पृथ्वी से प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से समाप्ति की ओर होना मसलन जल, वन, जैव विविधताएं आदि। कम ऊर्जा में कैसे काम चले साथ ही परिवहन, बिजली संचार, जल आपूर्ति और स्वच्छता जैसे बुनियादी ढांचे के लिए धन की व्यवस्था भी मुख्य समस्याओं में षुमार है। औद्योगिकरण के चलते सैकड़ों वर्शों से रिस रही समस्याएं अब कहीं अधिक प्रवाह ले चुकी हैं। बीते तीन दषक से पृथ्वी को बचाने को लेकर जो कोषिषें हो रही हैं उसमें भी काफी बेईमानी भरी हुई है। विकसित और विकासषील देषों के बीच भी कार्बन उत्सर्जन कटौती को लेकर कोई खास प्रगति नहीं दिखाई देती। सदियों से सभ्यता यह विवेचना करने पर मजबूर करती रही है कि तकनीक की बैसाखी पर खड़े षहरों में आकर्शण तो बहुत होता है परन्तु जमीनी सच्चाई यह है कि हांफते षहर सजग जीवन देने में षायद ही सक्षम हों। यही कारण है कि कितने भी लोक लुभावन से युक्त षहर क्यों न हों पर गांव से बेहतर प्रकृति के रचनाकार होने का दम्भ इनमें नहीं है। आदिकाल में जो मानव पाता और दाता के सम्बंधों से युक्त था वर्तमान में वो विध्वंसक की श्रेणी में है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य में दो टूक यह भी है कि षहर की संख्या और जनसंख्या दोनों आने वाले दिनों में वृद्धि करेगी पर जीवन मूल्य का हा्रस नहीं होगा इसे लेकर निष्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। 
सुशील कुमार सिंह


Saturday, May 14, 2016

आर्थिक विकास के इंजन जीएसटी पर सियासी खेल

किसी भी देष में जब सुषासन की अवधारणा को अधिरोपित करने वाला धनात्मक आवेष पैदा किया जाता है तो उसके लिए न केवल सषक्त आर्थिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है बल्कि संसाधन जुटाने के रास्तों को भी पुख्ता करना पड़ता है जिसमें जीएसटी को भी षामिल माना जा रहा है पर हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि इस बजट सत्र में भी यह महत्वाकांक्षी योजना एक बार फिर बिना अधिनियमित हुए रह गयी। जिसके चलते एक बार फिर मोदी सरकार के हाथ मायूसी आई। प्रधानमंत्री मोदी की इस विधेयक को लेकर दर्द का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने बीते 13 मई को राज्यसभा में फेयरवेल के दौरान कहा कि अगर जीएसटी बिल आप लोगों के रहते पारित हो जाता तो अच्छा होता। इसके अलावा कैम्पा बिल के पारित नहीं होने का मलाल भी उनमें देखा जा सकता है। गौरतलब है कि राज्यसभा के 53 सदस्य जुलाई में यानी अगले सत्र से पहले रिटायर्ड हो रहे हैं जिसे लेकर उन्हें फेयरवेल दिया जा रहा था। मोदी ने यह भी कहा कि जीएसटी बिल के पारित होने से उत्तर प्रदेष और बिहार जैसे राज्यों को सबसे अधिक लाभ होगा साथ ही अन्य राज्यों का लाभ भी इसमें देखा जा सकता है। कैम्पा बिल पारित होने पर राज्यों को 42 हजार करोड़ रूपए मिलने का रास्ता भी साफ हो जाता है। राश्ट्रीय मुआवजा वनीकरण बिल (कैम्पा) के पारित होने से आने वाली बरसात के मौसम में वनीकरण को फायदा मिल सकता था। फिलहाल अब इसके लिए भी प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं। जीएसटी को लेकर जिस प्रकार पिछले दो वर्शों में सदन की कार्यवाही रही है उससे साफ है कि एक अच्छा विधेयक सियासत की भेंट चढ़ा है। सच्चाई यह है कि जीएसटी मोदी सरकार के लिए किसी महत्वाकांक्षी योजना-परियोजना से कम नहीं रहा है पर इसके प्रति निभाया गया आचरण अनुपात में कहीं अधिक सियासी रूख लिए रहा।
आर्थिक परिप्रेक्ष्य में जीएसटी को आर्थिक विकास का इंजन भी माना जा रहा है। जिसे लेकर एक समुच्चय अवधारणा यह भी रही है कि इसके चलते पूरे देष में टैक्स की एक समान व्यवस्था लागू की जा सकेगी। केन्द्र और राज्य के बीच अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर जो अनबन है उसे भी ठीक किया जा सकेगा साथ ही अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर पनपे विवादों को भी समाधान दिया जा सकेगा पर इसके मूर्त रूप न लेने के चलते इसमें निहित तमाम अच्छे संदर्भ फिलहाल धरातल पर नहीं उतारे जा सकते। गौरतलब है कि जीएसटी एक ऐसा विधेयक है जिसकी खामियों के कारण इसे दरकिनार नहीं किया जा रहा है बल्कि सियासी रार के चलते यह आज भी राज्यसभा में पारित होने की बाट जोह रहा है। यहां बताते चलें कि लोकसभा में यह पहले पारित किया जा चुका है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जीएसटी के मामले में यह व्यक्त कर चुके हैं कि इससे देष की आर्थिक दषा सकारात्मक होगी। बावजूद इसके उन्हीं के दल के लोग इस मामले में अपना रूख नरम नहीं कर रहे हैं। असल में बीते दो वर्शों से जब से एनडीए की सरकार आई है और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तभी से देष दो ध्रुवीय राजनीति में फंस गया है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था। 44 लोकसभा की सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस आज भी राज्यसभा में संख्या बल के मामले में कहीं बेहतर है जिसके चलते सरकार के कई विधेयक लोकसभा की दहलीज तो पार कर लेते हैं पर राज्यसभा में अटक जाते हैं। इसकी मुख्य वजहों की पड़ताल की जाए तो काफी हद तक यह राजनीतिक विरोध के चलते होता है न कि विधेयक की खामियों की वजह से। यह बात जीएसटी के मामले में सौ फीसदी सही है। संसदीय षासन प्रणाली में विरोधी को मुद्दों की सियासत और सरकार को रचनात्मक सहयोग के लिए जाना-पहचाना जाता है पर दो साल में गुजर चुके आधा दर्जन सत्र की पड़ताल यह बताती है कि 16वीं लोकसभा का विपक्ष रचनात्मकता के मामले में काफी गिरावट लिए हुए है।
रोचक तथ्य तो यह भी है कि जीएसटी मोदी सरकार की ही कवायद नहीं है। पहली बार सन् 2000 में जीएसटी सम्बन्धी एम्पावर्ड कमेटी बनायी गयी उस समय भी एनडीए की सरकार थी जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे। यह अप्रत्यक्ष कर ढ़ाचे में सुधार लाने के लिए थी। इसी कमेटी के जिम्मे जीएसटी का माॅडल तैयार करना तथा आईटी से सम्बन्धित ढांचे को भी रूपरेखा देना था। केन्द्रीय स्तर पर एक्साइज़ ड्यूटी और सर्विस टैक्स तथा प्रांतीय स्तर पर वैट और स्थानीय कर इसके लागू होने के बाद समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया। मतलब साफ था कि कर ढांचे को तर्कसंगत बनाना और देष को एक एकीकृत व्यवस्था देना था। जिसे यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान पेष किया गया परन्तु राज्यों से असहमति के कारण यह पास नहीं हो सका जिसकी मुख्य वजह पेट्रोलियम, तम्बाकू और षराब पर लगने वाला टैक्स था। ये टैक्स जीएसटी के चलते समाप्त हो जाते। इसके चलते राज्यों ने भारी राजस्व नुकसान को देखते हुए इसका विरोध किया। गौरतलब है कि कई राज्यों के कुल राजस्व का यह दो-तिहाई होता है। एक दषक से यूपीए सरकार से लेकर एनडीए सरकार तक जीएसटी को लेकर गम्भीरता दिखाई जा रही है पर अधिनियम के रूप में इसे ला पाने में कोई सरकार सफल नहीं दिखती। इस मामले में मोदी सरकार की गम्भीरता तो दिखती है मगर राज्यसभा में इनकी संख्याबल की कमी और कांग्रेस के एकमत न होने से मामला जस का तस बना हुआ है।
 गौरतलब है कि केन्द्र और राज्य के बीच विवाद झेल रहा जीएसटी विधेयक जिसे वर्श 2014 में 122वें संविधान संषोधन के तहत षीत सत्र में पेष किया गया था और प्रधानमंत्री मोदी ने इसे 1 अप्रैल, 2016 में लागू करने की बात कही थी। इस बार भी अधिनियमित होने से वंचित रह गया और प्रधानमंत्री की घोशणाओं का भी कोई मतलब नहीं हर गया। मौजूदा बजट सत्र में भी जीएसटी एक भी कदम आगे नहीं बढ़ पाया। देखा जाए तो केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर विवाद पहले ही खत्म हो चुके हैं। मौजूदा केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने पहले ही कह दिया था कि इसके आने के बाद राज्यों को जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक क्षतिपूर्ति मिलेगी। षुरूआती तीन साल पर षत् प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवे साल 50 फीसदी का प्रावधान किया गया। जीएसटी काउंसिल में राज्यों के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे साथ ही यह भी कहा गया कि राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई के लिए दो वर्श के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। उक्त संदर्भ को देखते हुए स्पश्ट है कि जीएसटी को लेकर सरकार ने कांटों को दूर करने की पूरी कोषिष की है। नेषनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक का इजाफा किया जा सकता है। अनुमान तो यह भी है कि भारत की मौजूदा जीडीपी में 15 से 25 फीसदी का विकास दर बढ़ सकता है। बहरहाल आर्थिक दिषा के सुधार में महत्वपूर्ण समझे जा रहे इस विधेयक को लेकर पुनः आगे सम्भावनाएं तलाषी जायेंगी पर इसकी खासियत को देखते हुए इस पर एकमत होना यदि आर्थिक ढांचे का सबल पक्ष है तो विरोधियों को देर से ही सही इस पर मोहर लगा देनी चाहिए।

   
सुशील कुमार सिंह

Wednesday, May 11, 2016

भारत-नेपाल संबंधों में कसैलापन

विगत् कुछ माह से भारत और नेपाल के बीच रिष्तों में पड़ी दरार देखने को मिल रही है परन्तु स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं कही जा सकती। ताजे घटनाक्रम में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार ने अपने देष के राश्ट्रपति की भारत यात्रा रद्द कर दी जो 9 मई से षुरू होने वाली थी जबकि इसके पहले बीते 7 मई को अपने राजदूत को भी दिल्ली से वापस बुला लिया था। यह फैसला ऐसे वक्त में आया है जब ओली ने अपने साथियों, माओ का समर्थन प्राप्त कर लिया। साफ है कि सरकार का संकट खत्म होने के साथ फैसले भी सख्त हुए हैं। देखा जाए तो नेपाल के अंदरूनी मामले में भारत कभी भी किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया है बल्कि मुष्किल वक्त में एक बेहतर पड़ोसी की भूमिका अदा करने में पीछे नहीं रहा है। मसलन अप्रैल, 2015 के भूकम्प में भारत ने वह सब किया जो कोई देष अपने देष के लिए करता है पर काठमाण्डू से दिल्ली की दूरी उन दिनों से बढ़ी है जब से नेपाल में नया संविधान अंगीकृत किया गया। लगभग सात साल की मषक्कत के बाद 2015 के सितम्बर माह की 20 तारीख को नेपाल में नया संविधान प्रतिस्थापित हुआ मगर बखेड़ा तब खड़ा हो गया जब देष की बहुसंख्यक आबादी वाले मधेसियों ने इसे ठुकरा दिया। आरोप था कि संविधान के माध्यम से उन्हें अधिकार विहीन बनाते हुए हाषिये पर धकेला गया है। यह संदर्भ भारत को भी काफी हद नागवार गुजरा था। भारत ने अपने रूख से नेपाली संविधान के प्रति चिंता का इज़हार किया था। नेपाल को जहां इसे एक प्रतिक्रिया के रूप में देखना चाहिए था उसने षायद इसे दखल के रूप में मान लिया। यहीं से सम्बन्धों की गांठ ढीली पड़ती दिखाई देती है। भारत पर अनाप-षनाप आरोप लगाते हुए नेपाल ने मुंह मोड़ने की कोषिष की। आरोप तो यहां तक थे कि भारत सीमा पर रसद सामग्री समेत कई जरूरी सामान को आगे नहीं बढ़ने दे रहा है जबकि सच्चाई यह थी कि ऐसा उन्हीं के देष में रहने वाले मधेसियों के चलते हो रहा था। नेपाल ने मामले को तूल देते हुए यह भी धमकी दी कि यदि भारत का रवैया सकारात्मक नहीं होता है तो वह चीन की तरफ जा सकता है। चीन के लिए नेपाल का इतना झुकाव होना काफी था जिसे लेकर चीन ने नेपाल को अपने स्तर पर राहत पहुंचा कर भारत से यह दूरी बढ़ाने में कुछ हद तक मदद करने का काम ही किया ही किया है।
हालांकि भारत-नेपाल के रिष्ते में एक बार फिर मिठास घुलते हुए तब देखी जा सकती है जब नेपाल के प्रधानमंत्री ओली विगत् दिनों अपनी पहली विदेष यात्रा पर नई दिल्ली पहुंचे और उन्होंने यहां छः दिन गुजारे। यह इस बात का भी संकेत है कि भले ही नेपाल का झुकाव चीन की तरफ रहा हो पर उनकी पहली पसंद तो भारत ही है। इतना ही नहीं भारत भी उन्हें यह भरोसा दिलाने में सफल रहा कि नेपाल में सरकार किसी की भी हो वह उसका अहित नहीं सोच सकता। ओली ने भी कहा कि भारत के बारे में उनकी सारी षंकाएं निराधार और निर्मूल थी। स्पश्ट है कि भारत और नेपाल के बीच की दोस्ती एक बार फिर पटरी पर आते हुए दिखाई दी थी परन्तु हाल ही में राजदूत वापस बुलाने समेत राश्ट्रपति का दौरा रद्द करने के चलते एक बार फिर सम्बंधों में कसैलापन आ गया। यहां यह भी समझना जरूरी है कि दोनों देषों के बीच बिगाड़ इस स्तर तक का कभी नहीं रहा कि खटास को मिठास में बदलना दोनों के लिए कठिन रहा हो। प्रधानमंत्री ओली अगले माह चीन के दौरे पर जा रहे हैं उसके पूर्व भारत में की गयी ओली की यात्रा में यह संदेष छुपा रहेगा कि नेपाल की नई सरकार चीन के साथ सम्बंधों को लेकर जो भी रास्ता अख्तियार करे पर भारत के मामले में सदियों पुराने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रिष्तों को लेकर आंच नहीं आने देगा। प्रधानमंत्री ओली यह भी वादा करके गये हैं कि नेपाल हमेषा से भारत का भरोसेमंद देष रहा है और आगे भी रहेगा।
असल में जब सत्ताओं का रूपान्तरण होता है तब अभिरूचियों, नीतियों और कूटनीतियों में भी व्यापक फेरबदल होते हैं। प्रधानमंत्री सुषील कोइराला के बाद केपी ओली के प्रधानमंत्री बनने के साथ नेपाल इसी प्रकार की धारणा में बदलता हुआ दिखाई देता है पर एक बढ़िया बात यह रही है कि भारत ने नेपाल के अनाप-षनाप आरोपों को लेकर कभी अतिउत्तेजना नहीं दिखाई। भारत जानता है कि नेपाल की आन्तरिक और बुनियादी समस्या का सर्वकालिक समाधान भारत के माध्यम से ही सम्भव है। बावजूद इसके भारत ने कभी नेपाल को झुका हुआ राश्ट्र या कमजोर राश्ट्र की हैसियत से नहीं निहारा और न ही कभी सामरिक दृश्टि से नेपाल को पोशित करने की कोषिष की, जबकि चीन नेपाल को लेकर कुछ इसी प्रकार की सोच रखता है। देखा जाए तो नेपाल भारत के लिए एक बफर स्टेट का भी काम करता है। चीन नेपाल में किसी भी तरीके से भारत को पीछे छोड़ते हुए स्वयं को स्थापित करना चाहता है। ऐसे में चीन से उसकी प्रगाढ़ दोस्ती भारत के लिए कहीं से बेहतर नहीं कही जायेगी परन्तु सदियों से जो सम्बन्ध भारत का नेपाल के साथ है चीन के चलते षायद ही प्रभावित हो। फिलहाल सम्बंधों में विगत् कुछ माह से आई दरार से मोदी के विदेष नीति के लिए एक बड़ा धक्का तो है पर प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि आतुरता में समाधान नहीं है। गौरतलब है कि मधेसी आंदोलन के दैरान जब नेपाल के राजनयिक से लेकर नेता तक भारत को खरी-खोटी सुना रहे थे तो उस दौरान भारत संयम बरतते हुए स्थिति को संभालने की कोषिष में लगा रहा। जाहिर है कि मोदी पड़ोसी नेपाल की समस्या को न केवल समझते हैं बल्कि उपचार के लिए भी तत्पर हैं। यह तो नेपाल की समझदारी है कि भारत की महत्ता को कितनी प्रमुखता देता है।
प्रधानमंत्री की पड़ोसवाद की अवधारणा को इस कथन से भी आंका जा सकता है जब उन्होंने अगस्त, 2014 में नेपाल यात्रा के दौरान यह कहा था कि दो पड़ोसी देषों के बीच सीमा को पुल का काम करना चाहिए न कि बाधा का। साफ है कि भारत बचकानी हरकत के मामले में न केवल कोसों दूर है बल्कि मोदी जैसे प्रधानमंत्री के वैदेषिक नीति में ऐसों के लिए कोई स्थान भी नहीं है। एक बात और मोदी विगत् दो वर्शों से नेपाल के प्रति जो रूख रखा है षायद ही किसी प्रधानमंत्री ने रखा हो जो निहायत सद्भावना से भरा, लोचषील और अपनत्व से युक्त है। कहा जाए तो भारत और नेपाल के बीच के सम्बन्ध कूटनीतिक होने के बजाय सुविधा प्रदायक नीति से अधिक प्रभावी रहे हैं। मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर यात्रा 26 मई, 2014 से षुरू हुई थी तभी से उन्होंने पड़ोसी देषों पर नये सिरे से ध्यान देना षुरू किया। पहली विदेष यात्रा भूटान से षुरू करते हुए 17 साल बाद किसी प्रधानमंत्री का नेपाल पहुंचना पड़ोसियों के प्रति मोदी की प्राथमिकता ही झलकती है साथ ही बेहतर इच्छाषक्ति भी। गौरतलब है कि दोनों देषों के सम्बन्धों में जो चाषनी घुली थी अब वो थोड़ी कड़वी हो चुकी है पर इसके कसैलेपन को दूर करने की जिम्मेदारी भारत से कहीं अधिक नेपाल की है।
   
 

सुशील कुमार सिंह

Monday, May 9, 2016

उत्तराखंड में एक साथ कई इतिहास

दो दिन का खेल बचा है आज यानि मंगलवार को फ्लोर टेस्ट तो कल यानि बुधवार को देष की षीर्श अदालत की यह घोशणा कि हरीष रावत सरकार पास हुई या फेल। असल में फ्लोर टेस्ट तो देहरादून की विधानसभा में होगा पर पास-फेल की घोशणा उच्चतम न्यायालय करेगा। देखा जाए तो इसके पहले एक करोड़ की जनसंख्या वाले भारत के इस 27वें राज्य में जो घटा वह पहले न देखा, न सुना गया। संविधान का इतिहास और इतिहास से संविधान का बड़ा गहरा नाता है मगर मौजूदा परिस्थिति में ऐसी संवैधानिक गुत्थी उलझी कि उत्तराखण्ड एक साथ कई इतिहास बनाने की ओर है। बीते 18 मार्च से लेकर आज तक प्रदेष के सियासी समीकरण ऐसे रास्ते अख्तियार करेंगे इसकी कल्पना न ही किसी सियासतदान को थी और न ही विष्लेशकों को। हां यह सही है कि दोनों को एक नये सिरे से सियासत समझने का अवसर जरूर मिला है। ताजा हालात यह है कि नैनीताल उच्च न्यायालय ने कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त करने वाले स्पीकर के निर्णय को बरकरार रखा है। जिसके चलते सूबे की सियासत पहले से कहीं अधिक सतरंगी हो गयी है।  हालांकि 27 मार्च को स्पीकर द्वारा कांग्रेस के इन बागी विधायकों की सदस्यता रद्द किये जाने के बाद से ही यह कयास लगाये जा रहे थे कि इनकी वापसी निहायत कठिन है। आनन-फानन में हाईकोर्ट के फैसले को तुरन्त सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इस मामले में 12 जुलाई को अगली सुनवाई की तारीख तय कर दी। इस प्रकरण के चलते हरीष रावत को बहुमत साबित करने में जहां आसानी हो सकती है वहीं भाजपा की उम्मीदें पहले की भांति फिर तार-तार हुई हैं। यहां यह भी स्पश्ट करते चलें कि न्यायालयों के फैसले से भले ही हरीष रावत के लिए रास्ते समतल हुए हों पर स्टिंग की दोहरी मार ने इनके सियासी रसूक को रसातल में ले जाने का काम भी किया है। प्रदेष में 27 मार्च से राश्ट्रपति षासन लगा है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर के बीच यहां की सियासत में लोकतंत्र बचाओ की अवधारणा भी बीते डेढ़ माह से जोर पकड़े हुए है। इन सबके बीच विधायकों के खरीद-फरोख्त की खबरें भी उत्तराखण्ड के पहाड़ी वातावरण में छाई रहीं। इसके अलावा अब नया समीकरण यह है कि बसपा के दो विधायक समेत कांग्रेस के कुछ विधायकों का हरीष रावत से मोह भंग हुआ है। यदि ऐसा टेस्ट फ्लोर पर भी हुआ तो हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट का फैसला भी इनके किसी काम का नहीं होगा।
 फिलहाल सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा बदल रही राजनीति के बीच पूरा आंकलन करना अभी सम्भव नहीं है परन्तु इन सबके बीच यह भी संकेत मिल रहा है कि या तो प्रदेष में हरीष रावत की वापसी होगी या फिर समय से पहले उत्तराखण्ड चुनाव में झोंक दिया जायेगा। संकेत तो इस बात के भी हैं कि हो न हो उत्तर प्रदेष की तर्ज पर जैसा कि 2001 में समाजवादी पार्टी के सौ विधायकों ने एक साथ इस्तीफा देकर विधानसभा भंग करने का दबाव बनाया था ठीक उसी भांति भाजपा के 28 विधायक भी ऐसा कर सकते हैं। इससे यह भी स्पश्ट हो रहा है कि इस कड़वी हो चुकी सियासत का स्वाद बीजेपी षायद सत्ता के रूप में नहीं लेना चाहती पर इसे और कसैला बनाने में वह कोई कोर-कसर भी नहीं छोड़ना चाहती। काफी हद तक बीजेपी भी दो अर्थों में फंसी दिखाई देती है। पहला यह कि हरीष रावत की वापसी नहीं होने देना है यदि हो गयी तो इनकी मेहनत का क्या होगा। दूसरे यदि हरीष रावत बहुमत सिद्ध नहीं कर पाते हैं तो बीजेपी स्वयं सरकार बनाने के मामले में तत्पर नहीं दिखती है क्योंकि वह जानती है कि जिस प्रकार प्रदेष की सियासत डैमेज हुई है उसे देखते हुए मतदाताओं के मन में अपने लिए सत्ता के साथ जगह बना पाना सम्भव नहीं होगा पर एक सच यह है कि जिस प्रकार हरीष रावत की छवि डैमेज हो रही है उसका फायदा बीजेपी को जरूर मिलेगा। इन सबके बीच लोकतंत्र की गौरवगाथा किस इतिहास को अमल करने वाला है इसका खुलासा भी आगामी दो दिन में हो जायेगा। ऐसे में प्रदेष की राजनीति का पहिया तेजी से घूम रहा है। यह राजनीति का तकाजा ही है कि बड़े से बड़ा धुरंदर यदि सियासी बुराईयों से जकड़ लिया जाए तो ढ़ाक के तीन पात हो जाता है और यदि इसकी ऊँचाईयों को प्राप्त कर ले तो कई पीढ़ियों की गौरवगाथा बन जाता है।
फिलहाल उथल-पुथल के इस दौर में सोमवार को हरीष रावत को सीबीआई के सामने भी होने का अल्टीमेटम था। एक रोचक और अद्भुत प्रसंग यह भी है कि 10 मई को साढ़े दस बजे से लेकर 1 बजे के बीच प्रदेष में राश्ट्रपति षासन को विराम दिया जायेगा। ऐसा सात दषकों में कभी नहीं हुआ कि राश्ट्रपति षासन इस तरह लगाया और हटाया गया हो। इसी विराम के बीच फ्लोर टेस्ट किया जायेगा। जाहिर है कि 9 बागी को हटाने के बाद मनोनीत सहित 62 के मुकाबले 32 विधायकों का समर्थन बहुमत के लिए चाहिए जो कि हरीष रावत के लिए कठिन नहीं है परन्तु बदले हालात के चलते कांग्रेस का घर एक बार फिर टूट सकता है। ऐसे में सत्ता दूर की कौड़ी हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 6 मार्च को जब फ्लोर टेस्ट का निर्णय दिया था तब साथ में यह भी कहा था कि यदि हाईकोर्ट बागियों की सदस्यता बहाल करता है तो मतदान में वे भी भागीदारी कर सकेंगे। साफ है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से परास्त बागी न घर के हुए न घाट के। एक बात और अक्सर स्पीकर के बर्खास्तगी वाले निर्णय के मामले में न्यायालयों के निर्णय बहुत देर से आये हैं जिसका कोई खास मतलब सिद्ध होता नहीं दिखाई दिया है। मसलन दो दषक के आस-पास जब उत्तर प्रदेष में बसपा के मामले में स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी के निर्णय को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी और जब तक दल-बदल को लेकर अन्तिम निर्णय आया कल्याण सिंह सरकार के पांच साल का कार्यकाल पूरा हो चुका था। हालांकि उत्तराखण्ड के मामले में ऐसा नहीं हुआ।
दल-बदल कानून पहली बार 1985 में आया था जिसके लिए संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गयी तत्पष्चात् एसआर बोम्मई, केस 1994 में उच्चतम न्यायालय की इस मामले में एक गाइडलाइन आई जिसमें कई बिन्दु थे साथ ही इसे और पुख्ता बनाने के लिए 2003 में नये सिरे से संषोधन भी हुआ। इसके पीछे मंषा थी कि किसी भी सूरत में दल-बदल कानून को पुख्ता किया जाए और दल बदलुओं को बख्षा न जाये। उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय से यह और साफ होता है कि दल बदलुओं के प्रति रत्ती भर उदारता नहीं दिखाई जायेगी। अक्सर यह भी रहा है कि अन्तिम विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाने वाला अनुच्छेद 356 केन्द्र सरकारों की बिना खास होमवर्क किये राज्य सरकारों को उखाड़ने के लिए पहले विकल्प के तौर पर ही इस्तेमाल कर दिया गया है। आज हरीष रावत विधानसभा में बहुमत सिद्ध कर पाते हैं या नहीं परन्तु अनुच्छेद 356 के मामले में भाजपा कांग्रेस का रास्ता अख्तियार करते हुए ही दिखाई दे रही है। सियासत में महत्वाकांक्षा का गैर सीमित होना संविधान और प्रजातंत्र दोनों के लिए खतरा होता है। इन्हीं खतरों को भांपते हुए नैनीताल हाईकोर्ट समेत देष की षीर्श अदालत ने निर्वचन के मामले पटरी से उतर चुकी सियासत के बीच अपनी निरपेक्ष ताकत झोंकने की कोषिष की है जो भविश्य में लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगा।

   
सुशील कुमार सिंह

Friday, May 6, 2016

शिक्षा के व्यापारीकरण के बीच उत्कृष्टता की चिंता

विगत् कुछ वर्शों से षिक्षा के मामले में भी ऐसा देखा गया है कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बगैर मामला पटरी पर नहीं आ पा रहा है। चाहे मसला इंजीनियरिंग एवं मेडिकल काॅलेजों में सीटों के निर्धारण का रहा हो या फिर फीस पर अंकुष लगाने की, देष की षीर्श अदालत को इस मामले में भूमिका निभानी ही पड़ी है। अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि उच्चतम न्यायालय ने दूसरी बार ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए निजी मेडिकल काॅलेजों को अपने निर्णयों के चलते एक बार फिर झटका दिया है जिसमें मेडिकल काॅलेजों में भरी जाने वाली 85 फीसदी सीटें सरकारी कोटे के तहत होंगी जबकि इसके पूर्व 42 फीसद सीटें ही इसके अन्तर्गत आती थीं। इस आदेष से देष के 600 से अधिक निजी मेडिकल काॅलेज प्रभावित होंगे। जाहिर है कि इन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देष के चलते आर्थिक चिंता सताने लगी होगी। बीते दिन षीर्श अदालत ने यह भी कहा था कि षिक्षा व्यापार नहीं बल्कि उत्कृश्ट कार्य है। ऐसे में यह साफ है कि उच्चतम न्यायालय की सोच पैसे के तोल-मोल में फंसी षिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की है। अचरज और हैरत तो यह भी है कि दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर षैक्षणिक संस्थाएं उद्यम में तब्दील हो रही हैं। देखा जाए तो वर्श 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारत की षैक्षणिक संस्थाओं का बाकायदा उद्यमीकरण षुरू हुआ। षनैः षनैः समाज में आदर्ष स्थापित करने वाली ये संस्थाएं व्यवसाय के अड्डे बनते चले गये जिसका खामियाजा आर्थिक रूप से ऊंच-नीच की खाई में फंसे भारतीय समाज को बाखूबी चुकाना पड़ा। आंषिक तौर पर ही सही यह बात सच है कि षिक्षा में पनपी आर्थिक खाई ने उसकी उत्कृश्टता को भी जोखिम में डाल दिया। विगत् दो दषकों से अनायास ही एक नई अवधारणा यह भी विकसित हो गयी कि मानो महंगी षिक्षा का मतलब ही बेहतर षिक्षा हो, जिसे समुचित विचारधारा का कोई भी व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा।
मेडिकल काॅलेजों के लिए पूरे देष में एक प्रवेष परीक्षा नीट कराने के निर्देष के बाद षीर्श अदालत का ऐसे काॅलेजों के लिए सरकारी कोटें से 85 फीसदी सीटें भरने का निर्देष यकीनन कलेजे को ठण्डक पहुंचाने वाला है। बताते चलें कि इसके पूर्व 43 फीसदी सीटें डीमेट के जरिये स्वयं निजी मेडिकल काॅलेज भरते थे। असल में कहा जाए तो इस कोटे में काॅलेज सीटों की बिकवाली करते थे और इसकी एवज में मोटी रकम वसूलते थे। उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की बेंच ने मध्य प्रदेष द्वारा निजी मेडिकल एवं डेंटल काॅलेजों के षुल्क एवं सीटों के आबंटन के सम्बंध में बनाये गये मध्य प्रदेष व्यावसायिक षिक्षण संस्थान प्रवेष एवं फीस विनिमय अधिनियम, 2007 को उचित ठहराते हुए एक अनुचित व्यवस्था पर विराम लगा दिया है। इस अधिनियम के निर्मित होने के चलते ऐसे निजी मेडिकल काॅलेजों के फीस और सीटें तय करने का अधिकार एएफआरसी (प्रवेष एवं षुल्क विनियामक आयोग) के पास आ गया था। हालांकि इस अधिनियम को मध्य प्रदेष हाई कोर्ट में चुनौती दी गयी थी पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इसके पक्ष में निर्णय देते हुए यह साफ कर दिया है कि मेडिकल एवं डेंटल काॅलेजों को लेकर काॅलेज धारकों को उत्कृश्टता और गुणवत्ता के मामले में कोई रियायत नहीं दी जायेगी। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देष के चलते ऐसे काॅलेजों में होने वाली मनमानी पर न केवल लगाम लगेगा बल्कि उन्हें निर्धारित फीस पर प्रवेष भी देना होगा साथ ही सीटों पर होने वाली सौदेबाजी भी बन्द हो जायेगी। इस प्रकरण से डोनेषन के नाम पर बदनाम हो रहे षिक्षण संस्थाओं को भी सुकून का सांस लेने का अवसर मिलेगा। हांलाकि नीट के मामले में कई प्रदेष संतुश्ट नहीं हैं क्योंकि इसमें परीक्षा का माध्यम महज हिन्दी और अंग्रेजी भाशा है जबकि केरल और तमिलनाडु समेत कई प्रांत इसे स्थानीय भाशा में सम्पन्न कराने की मांग कर रहे हैं। संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू ने इससे उपजी चिंता को लेकर कहा कि इससे जुड़े मामले को स्वास्थ्य मंत्री को अवगत करायेंगे। देखा जाए तो देष के सभी प्रान्तों को एक परीक्षा प्रणाली में ढालना स्वयं में एक चुनौतीपूर्ण कृत्य तो कहा जायेगा।
फिलहाल उक्त परिप्रेक्ष्य की पूरी विवेचना यह भी दर्षाती है कि सरकारी और प्राइवेट काॅलेजों में होने वाले मेडिकल दाखिलों की कमान देष की सबसे बड़ी अदालत ने संभाल ली है। इस मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने संविधान में निहित अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल कर न केवल पूर्व न्यायाधीष आर. एम. लोढ़ा कमेटी का गठन किया गया बल्कि यह भी कहा कि मेडिकल दाखिले की प्रक्रिया सरकार की देखरेख में ही सम्भव होनी चाहिए साथ ही मेडिकल काउंसिल आॅफ इण्डिया पर भी षीर्श अदालत ने जमकर निषाना साधा है जबकि इसके पहले वर्श 2013 में न्यायालय की पीठ के बहुमत के फैसले में यह भी कहा गया था कि एमसीआई को नीट के आयोजन का कोई अधिकार नहीं है यह केवल मेडिकल षिक्षा का नियमन करती है। प्राइवेट काॅलेजों पर सख्त उच्चतम न्यायालय एक ऐसी पारदर्षी व्यवस्था कायम करना चाहता है जिससे मेधावी और कमजोर वर्ग के छात्र दाखिले से वंचित न रह जायें। भले ही समाज में आर्थिक खाई पनपी हो पर डाॅक्टर बनने का सपना गरीबों का भी पूरा हो सके। यह बात सही है कि मेडिकल काॅलेजों समेत इंजीनियरिंग काॅलेजों में बीते दो दषकों में जिस कदर बेतहाषा वृद्धि हुई है और कमाई की जो होड़ मची है उससे देष में व्यावसायिक षिक्षा का स्तर बहुत कमजोर हुआ है। निहित संदर्भ यह भी है कि बरसों से पटरी से उतर रही उच्चतर षिक्षा व्यवस्था को सषक्त और मजबूत बनाने के लिए कुछ कठोर कदम उठाने की आवष्यकता तो है पर इस पर भी ध्यान हो कि सुधार केवल प्रवेष परीक्षा तक ही नहीं बल्कि माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक पर भी हो ताकि इसे और अधिक व्यावहारिक बनाया जा सके।
देखा जाए तो सरकारी और निजी षैक्षणिक संस्थान देष में दो ध्रुवों के समान हो गये हैं और दो ध्रुवों में बंटे ये संस्थान षिक्षा लेने वालों की आर्थिक हैसियत का आंकलन भी खूब करवा देते हैं। देष में 17 आईआईटी समेत दर्जनो मैनेजमेंट के संस्थान आईआईएम हैं। इसके अलावा हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग एवं डेंटल और मेडिकल काॅलेज हैं जिसमें सर्वाधिक संख्या निजी की है और यहीं पर पारदर्षी नियम का बाकायदा आभाव भी है। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजे निर्देष के चलते काफी हद तक ऐसी चिंता दूर हो सकेगी परन्तु बीते कुछ वर्शों से सरकारी संस्थानों में भी फीस बढ़ोत्तरी को लेकर व्यापक प्रसार किया जा चुका है। आईआईटी से इंजीनियरिंग करने वालों की फीस 90 हजार से तीन लाख करने की बात बीते कुछ माह पूर्व  कही गयी है जबकि आईआईएम में कुछ समय पूर्व फीस में बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इसके अलावा प्रतिभा होने के बावजूद निजी इंजीनियरिंग और मेडिकल काॅलेजों की फीस उनके बूते के बाहर है। निजी मेडिकल काॅलेजों के हालात तो इस कदर पटरी से उतरे हैं कि यहां की भारी भरकम फीस तो है ही साथ ही डोनेषन सोच कर अभिभावकों के पसीने छूटने लगते हैं। उपरोक्त संदर्भ के चलते देष की तकनीकी और स्वास्थ्य सम्बंधी षिक्षा कहीं न कहीं चरमराई प्रतीत होती है। बरसों से लाख जतन करने के बावजूद अनुकूल व्यवस्था व्याप्त नहीं हो पाई पर सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से बेहतर होने की उम्मीद जगी है।


   
सुशील कुमार सिंह

Tuesday, May 3, 2016

एक उद्यमी का सियासी वजूद

देश की जमा सात दशक  की सियासत में कई उतार-चढ़ाव देखे जा सकते हैं। चाहे सदन उच्च हो या निम्न राजनीति हमेषा रोचक और हैरत से भरी रही है पर ऐसा पहली बार हो रहा है जब कर्ज से डूबे षराब के कारोबारी और राज्यसभा के सदस्य रहे विजय माल्या पर षिकंजा कसने के चलते सदन की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा हो। नौ हजार करोड़ से अधिक के कर्जदार विजय माल्या फिलहाल देष छोड़ चुके हैं और तभी से उन पर षिकंजा कसने की कवायद जोर पकड़ने लगी पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे हैं। दरअसल स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया समेत 17 बैंकों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि लोन के मामले में देष की षीर्श अदालत उन्हें कोर्ट में पेष होने के लिए कहे। हालांकि इस बीच माल्या का पास्टपोर्ट भी रद्द कर दिया गया और उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी किया गया परन्तु मामला एकतरफा ही रहा और विजय माल्या की ओर से कोषिषों पर कोई खास प्रतिउत्तर नहीं मिला। मार्च के प्रथम सप्ताह से ही माल्या देष छोड़ चुके हैं और उनकी वापसी की सारी कवायदे धरी की धरी रह गयी हैं। माल्या ने भी बीते दिनों पत्र लिखकर जो हालिया बयान किया है वो भी अचरज वाले ही जाहिर होते हैं पत्र के माध्यम से कहा है कि मुझे निश्पक्ष सुनवाई या न्याय नहीं मिलेगा इसलिए मैं राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देता हूं। पत्र के आलोक में यह भी परिलक्षित होता है कि माल्या को देष की न्यायिक व्यवस्था पर मानो भरोसा ही न हो। सवाल है कि रसूकदार और कई आदतों के चलते चर्चित उद्यमी माल्या को भारत छोड़ने के लिए आखिर किसने मजबूर किया? लंदन में लैण्डिंग के बाद से ही कयास लगाये जाने लगे थे कि माल्या की वापसी षायद ही हो जो अब सही प्रतीत होती है।
कारोबारी दुनिया में प्रवेष करने वाले माल्या को बीस बरस की उम्र में उद्यम के नुस्खे विरासत में मिले थे और 60 साल की उम्र आते-आते कारोबार के क्षेत्र में ऐसा पेंग बढ़ाया कि उन्हें देष ही छोड़ना पड़ गया। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर विकास करने वाले कारोबारी सही विष्लेशण और विवेचना के आभाव में कभी-कभी ऐसे ही कठिनाइयों में फंस जाते हैं। दुनिया भर में अकूत दौलत इकट्ठा करने वाले माल्या देष के बैंकों का कर्ज चुकाये बिना ही देष को छोड़ना ही बेहतर समझा और अब लंदन में बैठकर निश्पक्ष न्याय नहीं मिलेगा जैसे वक्तव्य दे रहे हैं। वर्श 2002 में कर्नाटक विधानसभा के माध्यम से राजनीति में कदम रखने वाले माल्या राज्यसभा तक की यात्रा में भी काफी उतार-चढ़ाव रहे हैं। फिलहाल उनके इस्तीफे के साथ उनका राजनीतिक सफर भी यहीं पर विराम लेता है और इसके पीछे किंगफिषर की उस उड़ान को षामिल किया जा सकता है जिसके कर्ज की गठरी इतनी भारी हो गयी कि चुकाना मुनासिब नहीं समझा गया। वर्श 2003 में किंगफिषर एयरलाइंस की षुरूआत की गयी थी। जिस रखरखाव और साजो-सामान के साथ किंगफिषर को धरातल से आसमान पर उड़ाने की परिकल्पना की गयी थी वह हवाई यात्रा की दुनिया में काफी नायाब हो सकती थी परंतु उसका हश्र इतना बुरा होगा इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। 2012 आते-आते एयरलाइंस वित्तीय घाटे में आ गयी और यहां से कहानी बदल गयी। विरासत में व्यवसाय संभालने वाले माल्या सर्वश्रेश्ठ सेलिंग वाला यदि कोई कार्य किया है तो वह किंगफिषर बियर है जिसे उनकी असली उड़ान कही जा सकती है परन्तु किंगफिषर के मामले में उनकी एक ऐसी घातक लैण्डिंग हुई कि एक बड़े कर्जदार के रूप में भारत में प्रतिश्ठित हो गये। गौरतलब है कि विजय माल्या का उद्यमी इतिहास भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।
षानो-षौकत और चमक-दमक जीवनषैली जीने के लिए जाने जाने वाले माल्या बैंकों के साथ सैटलमेंट करने के बजाय डिफाॅल्टर होना कहीं बेहतर समझा। जब से माल्या ने देष छोड़ा है सांसदों के एथिक्स को लेकर भी प्रष्न उठे हैं। देखा जाए तो विगत् कुछ वर्शों से जनप्रतिनिधियों के आचरण और नैतिकता को लेकर काफी गिरावट आती जा रही है। लगातार प्रतिनिधियों की अपराधिक छवि को लेकर देष की षीर्श अदालत ने अपने एक अहम फैसले में 10 जुलाई 2013 को जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 8(4) को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार में खरी नहीं उतरती। इस फैसले पर क्या सत्ता क्या विपक्ष दोनों में खलबली मची। दरअसल देष की संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों की ऐसी कोई छानबीन नहीं हो पाती है जिनकी छवि को लेकर कोई साफ-सफाई सामने आ सके। आंकड़ें यह बताते हैं कि लाख जतन करने के बावजूद भी कमजोर आचरण वाले 25 से 30 प्रतिषत सदस्य मिल ही जाते हैं। विजय माल्या जैसे लोग भी इसके एक अंग हैं। विजय माल्या के आचरण को लेकर भी 11 सदस्यी एथिक्स कमेटी ने इस पर मार्च से ही काम करना षुरू कर दिया था। कमेटी के अध्यक्ष भाजपा के वरिश्ठतम् लाल कृश्ण आडवाणी हैं। 25 अप्रैल की अपनी बैठक में आम राय से फैसला किया था कि माल्या को अब सदन का सदस्य नहीं रहना चाहिए। जिसे लेकर 3 मई को होने वाली अगली बैठक में उन्हें निश्कासित करने की योजना बन रही थी। उसके ठीक पहले ही माल्या ने स्वयं इस्तीफा देकर एथिक्स कमेटी से यह मौका छीन लिया।
हमेषा यह अपेक्षा रही है कि देष के सर्वोच्च सदन में बैठे प्रतिनिधि बेहतर उदाहरण पेष करें। बावजूद इसके विजय माल्या जैसे नीति निर्माता समस्याओं का डटकर सामना करने के बजाय देष छोड़ने को वाजिब समझते हैं। यह चिंताजनक है कि अरबों के व्यापारी माल्या देष के बैंकों को बट्टा लगाकर देष छोड़ चुके हैं। राज्यसभा के सदस्य के तौर पर यह निहायत संवेदनषील मुद्दा है कि भारत सरकार के पास वर्तमान में ऐसी कोई जोड़-जुगाड़ नहीं है जिससे बैंकों को राहत और देष छोड़ चुके माल्या को वापस लाया जा सके। हालांकि इंग्लैंण्ड की सरकार से इस मामले में बातचीत चल रही है पर अंतिम सफलता किस हद तक होगी अभी कहना कठिन है पर ऐसा देखा गया है कि औपचारिक रूप से प्रत्यर्पण को लेकर देषों के बीच आपसी गाइड लाइन होती है जिसके मद्देनजर देर-सवेर विजय माल्या की वापसी भी तय मानी जा सकती है। ध्यान्तव्य है कि आज से तीन बरस पहले माल्या ने कर्ज लौटाने के लिए कर्ज मांगा था तब यूपीए की सरकार ने कोई खास तवज्जो नहीं दिया था। गौरतलब है कि बजाज के चेयरमैन राहुल बजाज ने उस दौरान यह भी कहा था कि जो डूब रहा है उसे डूबने दिया जाय। यह बात समझना थोड़ा मुष्किल है कि किसी बड़े कारोबारी को वित्तीय संकटों से उभारने के लिए देष में कैसी नीतियां हैं पर यह समझना आसान है कि कर्ज वापसी के रास्ते बिना समझे कर्ज देना पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम भी कह चुके हैं कि बैंकों के कर्ज गरीब चुकाने में अव्वल रहते हैं। जाहिर है जिन 17 बैंकों ने 9 हजार करोड़ रूपए से अधिक का कर्जदार विजय माल्या को बनाया है उनकी भी कुछ गलतियां हैं। बिना विवेचना और व्याख्या के बेषुमार कर्ज देना कितना उचित था? फिलहाल एक उद्यमी का एक बड़े कर्जदार के रूप में होना साथ ही देष छोड़ने तक की नौबत से देष का ही नुकसान हुआ है। रही बात राज्यसभा से इस्तीफा का तो व्यवस्था में लोग आते-जाते रहते हैं, चिंता तो घर वापसी की है।


  
सुशील कुमार सिंह

जलते वन के बीच उगते सवाल

कहावत है कि अनियंत्रित आग और बेतरजीब तरीके से पानी की बर्बादी जीवन विन्यास में अस्तित्व मिटने जैसा है पर विडम्बना यह है कि देष इन दिनों इसी दौर से गुजर रहा है एक ओर महाराश्ट्र, दिल्ली एवं राजस्थान सहित एक दर्जन से अधिक राज्यों में पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है तो दूसरी ओर उत्तराखण्ड, हिमाचल और जम्मू-कष्मीर जैसे हिमालयी राज्य बुरी तरह आग की चपेट में हैं। इन सभी में वनाग्नि को लेकर उत्तराखण्ड की स्थिति निहायत भयावह है। इसके अलावा गाद-गदेरों से भरे प्रदेष में जल संकट भी गहराया हुआ है। माना जा रहा है कि यदि जल्द ही आग पर काबू नहीं पाया गया तो पानी का संकट और भी गहरा सकता है। वैसे तो वनों में आग लगने की घटना कोई नई बात नहीं है परन्तु इस बार की स्थिति काफी भिन्न एवं चिंताजनक है। बीते सात सालों की तुलना में उत्तराखण्ड में वनाग्नि की यह सबसे बड़ी घटना है। देखा जाए तो जंगल की आग से धधका समूचा उत्तराखण्ड एक बड़ी परेषानी से घिर चुका है। प्रदेष के दो मण्डलों गढ़वाल एवं कुमायूँ के पूरे के पूरे 13 जिले इसकी चपेट में हैं। गढ़वाल मण्डल में तो जंगलों में भड़की आग अब बेकाबू हो चुकी है। यहां अब तक आग की सैकड़ों घटनाओं में हजारों हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की वन सम्पदा जल कर राख हो चुकी है जबकि कुमायूँ मण्डल में भी कमोबेष स्थिति कुछ ऐसी ही है। यहां स्थित कार्बेट नेषनल पार्क का करीब 300 हेक्टेयर क्षेत्रफल भी इसकी भेंट चढ़ चुका है। आग बुझाने में हजारों फायरकर्मी के साथ गांव के हजारों प्रषिक्षित लोग भी षामिल हैं। बावजूद इसके अभी भी वनाग्नि विकराल रूप लिए हुए है जिसकी चपेट में आने के चलते कईयों की जान भी जा चुकी है और कई झुलस चुके हैं।
बेकाबू हो चुकी आग पर कैसे काबू पाया जाय, कैसे इस भीशण तबाही से बचा जाए साथ ही भारी वन सम्पदा को कैसे बचाया जाए जैसे तमाम सवाल जलते वन में अनायास ही उग गये हैं। षान्त और षीतल उत्तराखण्ड की वादी इन दिनों तपिष से घिर चुकी है। हालांकि उत्तराखण्ड षासन ने यह दावा किया है कि भड़की आग पर काबू पाने में काफी हद तक उसे सफलता मिल चुकी है। एनडीआरएफ, एचडीआरएफ, वन, राजस्व आदि के करीब 10 हजार कर्मियों को आग बुझाने के काम में लगाया गया है। सेना के एमआई-17 हेलीकाॅप्टरों से धधक रहे जंगलों पर पानी छिड़का जा रहा है जिसके चलते आग की घटनाओं में कमी आई है। षासन का यह भी दावा है कि पहले की तुलना में आधे से अधिक पर काबू पाया जा चुका है पर सवाल तो यह भी है कि महीनों से जंगल में छोटे स्तर पर लगी आग को लेकर षासन क्यों सोया रहा? क्यों नहीं इसे लेकर पहले ही तत्परता दिखाई गयी? अचरज और आष्चर्य तो यह भी है कि प्रत्येक वर्श जंगलों में आग लगने की घटनाएं होती हैं और वन सम्पदा स्वाहा होती रहती है बावजूद इसके इसे लेकर सरकारों में संवेदनषीलता न के बराबर ही रही है। हद तो यह भी है कि आग लगने के कारणों पर षायद ही पूरी पड़ताल होती हो। षायद पहली बार ऐसा भी हो रहा है कि जब उत्तराखण्ड के वनों में लगी आग को लेकर राश्ट्रपति भवन चिंतित हुआ हो। प्रधानमंत्री की तरफ से आग पर नियंत्रण के प्रयास को लेकर प्रभावी मदद की अपील की गयी हो और उच्च न्यायालय इस मामले में सख्त हुआ हो। उपरोक्त के परिदृष्य में यह भी साफ होता है कि समस्याओं को छोटी समझने की गलती बड़ी-बड़ी सरकारें भी करती रही हैं जिसके नतीजे यह होते हैं कि जंगल में भड़की छोटी सी चिंगारी तबाही के बड़े सबब बन जाते हैं।
 फिलहाल जलते वन के बीच सवालों का उगना लाज़मी है जो इन दिनों उत्तराखण्ड की वादियों में तैर रहे हैं। वनाग्नि से जुड़े कई सवालों के जवाब भी अब धीरे-धीरे मिलने लगे हैं। षायद आने वाले दिनों में ये और स्पश्ट हो जायेंगे। हालांकि इस मामले में 46 ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिन पर जानबूझकर जंगल में आग लगाने का आरोप है। हो-न-हो ऐसी करतूतों के पीछे वन माफिया का भी हाथ हो सकता है। हालांकि जंगलों में आग लगने के बहुत से कारण बताये गये हैं जिसमें मानव जनित समेत कई षामिल हैं। सबके बावजूद लाख टके का सवाल यह है कि आग कैसे भी लगी हो इस पर काबू पाने के लिए समय रहते सरगर्मी क्यों नहीं दिखाई गयी। क्या वनाग्नि के चलते जंगलों की भीशण तबाही और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं बढ़त नहीं बना रही हैं? क्या तपिष और धुंए के चलते हिमालय के पर्यावरण सहित खेती-बाड़ी एवं तमाम औशधियों को नुकसान नहीं पहुंचा है? ऐसे तमाम क्या और क्यों के बीच फिलहाल उत्तराखण्ड काफी बड़े नुकसान की ओर जा चुका है।
ताजे आंकड़े में यह पता चलता है कि तीन हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल अब तक खाक हो चुके हैं और खाक होने का यह सिलसिला अभी जारी है। करीब 1500 आग लगने की घटनाएं भी सामने आई हैं। फिर वही सवाल कि आग ने इतना भयावह रूप कैसे ले लिया। ध्यानतव्य हो कि मार्च का अन्तिम पखवाड़ा और पूरा अप्रैल सियासत और राजनीति के जोड़-तोड़ में फंसा रहा और जल रहे जंगल पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। कचोटने वाला सवाल तो यह भी है कि एक ओर जहां देष में वनीकरण के लिए पूरी कूबत लगाई जा रही है, करोड़ों-अरबों इसकी योजनाओं-परियोजनाओं पर खर्च किया जा रहा है वहीं छोटी-छोटी लापरवाही के चलते बड़े-बड़े पेड़-पौधें और जंगल स्वाहा हो रहे हैं। इस मामले में किसी को एक तरफा जिम्मेदार ठहराना थोड़ा मुष्किल तो है परन्तु इससे बड़ी मुष्किल यह है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? इन दिनों उत्तराखण्ड राश्ट्रपति षासन के दौर से गुजर रहा है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जहां वनाग्नि को लेकर चिंता जताई है वहीं केन्द्रीय वन पर्यावरण मंत्रालय ने देष के 14 राज्यों को 20 जून तक आग लगने जैसी घटना के बाबत एलर्ट कर एहतियात बरतने को कहा है। फिलहाल उत्तराखण्ड की वनाग्नि ने एक बार फिर इस मामले में सरकारी मषीनरी की पोल खोल दी है साथ ही कई संगठनों को नये सिरे से इस मामले में राहत और बचाव सम्बन्धी अन्वेशण और खोज के लिए उकसाने का काम किया है।


   
सुशील कुमार सिंह