Wednesday, December 19, 2018

कर्जमाफ़ी स्पर्धा और अन्नदाता

यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं अंतर केवल इतना है कि किसान कर्ज के कारण मर रहा है और सरकारें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में फंसी हैं। बीते 70 सालों में किसान सरकारों के केन्द्र में रहे पर मतदाता के तौर पर उन्हें मनमाफिक न तो पैदावार की कीमत मिली और न ही समुचित जिन्दगी। खाली पेट वे खेत-खलिहानों से अन्न बटोरते रहे और दुनिया का पेट भरते रहे। दास्तां बहुत अजीब है इतनी की रास्ता सुझाई नहीं देता। यही कारण है कि किसानों की राह कभी समतल नहीं बन पायी। सियासत के तराजू पर किसान हमेषा तुलता रहा और कीमत मिलते के बजाय वह ठगा जाता रहा। मोदी सरकार किसानों को डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात कह रही है पर हकीकत में यह सही नहीं है। 2014 की तुलना में जो कीमत 2018 में दिया गया वह डेढ़ गुना हो सकता है पर 2017 की तुलना में मामूली बढ़त है। वाकई में यदि सरकार चिंतित है तो स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करके दिखाये जिसे लेकर वे षायद जानबूझकर अनभिज्ञ रहते हैं। हालांकि नई बात यह है कि बीते 17 दिसम्बर से मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस सरकार का उदय हुआ और सुखद समाचार यह है कि इस उदय का किसानों की भलाई से बड़ा सरोकार है। चुनावी वायदों के मुताबिक कांग्रेस की मध्य प्रदेष में सरकार बनते ही किसानों की कर्ज माफी की घोशणा कर दी। यही काम छत्तीसगढ़ ने षपथ के कुछ घण्टे के भीतर ही कर दिया। राहुल गांधी की यह ललकार है कि कर्जमाफी के मुद्दे पर वह लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और जब तक किसानों का कर्जमाफी नहीं होता वे प्रधानमंत्री मोदी को चैन से सोने नहीं देंगे। 
कांग्रेस के इस कदम से किसानों की कर्जमाफी को लेकर भाजपा षासित राज्य पेषोपेष में फंस गये हैं। भले ही कर्ज माफी का दांव सियासी हो पर किसानों को राहत देने का मन इतर सरकारें भी बना रही हैं। बीजेपी षासित राज्यों ने भी कर्जमाफी का काम षुरू कर दिया है। गुजरात सरकार द्वारा 625 करोड़ रूपए का बकाया माफ करने का एलान किया जा चुका है। असम सरकार ने भी 600 करोड़ रूपए के कृशि कर्ज माफ करने को मंजूरी दे दी है। हालांकि यह असम में किसानों का 25 प्रतिषत की सीमा तक ही है। गौरतलब है कि असम में 8 लाख किसानों को यह लाभ होगा। किसानों को साधने की कांग्रेस की रणनीति से भाजपा अब स्वयं को बैकफुट पर समझ रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यदि यह सियासी लड़ाई कर्जमाफी के प्रतिस्पर्धा में फंसती है तो मजबूरन भाजपा को बड़ी जीत के लिए बड़ा दिल दिखाना होगा। हालांकि केन्द्र की ओर से एकमुष्त कर्जमाफी की सम्भावना कम ही दिखाई देती है। भाजपा की उड़ीसा इकाई ने प्रदेष के लोगों से वायदा किया कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में अगर वह सत्ता में आती है तो किसानों के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। भाजपा की उड़ीसा इकाई द्वारा किया गया यह वायदा तब और विष्वास में बदलना आसान होगा जब मौजूदा भाजपा षासित प्रदेष किसानों को कर्ज से मुक्ति दे देंगे। चुनावी साल में किसानों का ऋण माफी का दांव काफी सफल प्रतीत होता है। बड़ी-बड़ी बात करने वाली भाजपा सरकार अब छोटे और मझोले किसानों की ओर रूख जरूर करेगी। किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए भाजपा राहत का पिटारा खोल सकती है क्योंकि बीते 11 दिसम्बर को पांच राज्यों के नतीजों ने भाजपा को षिखर से सिफर की ओर कर दिया है। साफ है कि भाजपा सरकार से मतदाता का मोह भंग हुआ है। आरएसएस ने भी चेताया है कि तीन राज्यों में करारी हार के बाद यह स्पश्ट है कि सरकार और भाजपा को किसानों की नाराजगी समझनी होगी। कहा तो यह भी गया कि इनकी अनदेखी आने वाले चुनाव पर भारी पड़ सकती है। 
एक ओर भाजपा को हराने के लिए महागठबंधन की जोर आजमाइष हो रही है तो दूसरी ओर कर्ज माफी में कांग्रेस आगे न निकल जाये इसे लेकर भी भाजपा का सियासी पेंच खतरे में है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि किसानों की उपजी समस्याओं को लेकर सरकारों ने कुछ खास संवेदनषीलता नहीं दिखाई। 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ समय पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चलता है कि प्रतिवर्श 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं। मौजूदा सरकार 2013 से किसानों के आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है। साल 2014 और 2015 में कृशि क्षेत्र से जुड़े 12 हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की थी जबकि 2013 में आंकड़ा थोड़ा कम था। साल 1991 के उदारीकरण के बाद देष की तस्वीर बदली पर किसानों की तकदीर नहीं बदली। सबसे पहले 1992-93 के दौर में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला महाराश्ट्र के विदर्भ से षुरू हुआ और आज भी सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराश्ट्र के किसान ही कर रहे हैं। बीते 25 वर्शों में 3 लाख से अधिक किसान इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। गौरतलब है कि किसानों की आत्महत्या के मामले में कर्नाटक दूसरे नम्बर पर है उसके बाद तेलंगाना और मध्य प्रदेष जैसे राज्य देखे जा सकते हैं। अब कर्जमाफी के चलते सम्भव है कि आत्महत्या के आंकड़े में गिरावट दर्ज होगी। दो टूक यह भी है कि देष में कहीं भी किसान बिना कर्ज के नहीं है और कोई भी राज्य किसान आत्महत्या विहीन नहीं है।
किसानों की ऋणमाफी समेत कई वायदे करके अस्तित्व के लिए संघर्श कर रही कांग्रेस ने जिस तरह वापसी की है उसे जीत का न केवल स्वाद मिला है बल्कि इस स्वाद को आगे भी बनाये रखने की फिराक में है। कांग्रेस यह समझ गयी है कि देष का मतदाता किसान और युवा है इनसे वायदे करो, सत्ता में आओ और झट से वायदा निभाओ। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्जमाफी करके 2019 का सपना राहुल गांधी ने आंखों में उतार लिया है। कह सकते हैं कि यह दूर की कौड़ी है पर हालिया जीत की भी तो उम्मीद नहीं थी। राहुल गांधी मोदी सरकार पर किसानों को लेकर कहीं अधिक निषाना साधते रहे हैं। नोटबंदी को दुनिया का सबसे बड़ा स्कैम कहने से भी वे नहीं हिचकते और यह भी तोहमत देते हैं कि अपने मित्रों को पैसा बांटने का किया गया। उद्योग जगत के सरपरस्त का आरोप भी मोदी सरकार पर लगता रहा है। अम्बानी, अडानी के इर्द-गिर्द उन्हें माना जाता रहा। भले ही मोदी किसानों के लिए कुछ करने की भारी-भरकम बात कही हो पर कर्जमाफी में तो वे फिसड्डी ही रहे। इस मामले में राहुल गांधी उनसे बेहतर इसलिए प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि वे किसानों के मुद्दे को उठा भी रहे हैं और जीत में बदलने का न केवल काम कर रहे हैं बल्कि उन्हें कर्ज से राहत भी दी साथ ही इसके लिए स्पर्धा भी विकसित करने का काम किया। फिलहाल तीन राज्यों में जीत के बाद कांग्रेस ने कर्जमाफी को हथियार बना लिया है। मामला चाहे जैसा हो अन्नदाता राहत में तो है पर इस राहत से भाजपा बेचैन है जो बरसों से सत्ता में है और कर्जमाफी के मामले में बड़ा हृदय दिखाने में चूक गये। देखा जाय तो बीजेपी षासित प्रदेष अब कर्जमाफी में कांग्रेस षासित प्रदेषों की देखा-देखी कर रहे हैं। साफ है कि उनका दृश्टिकोण किसानों को लेकर प्रतिस्पर्धा के कारण विकसित हुआ न कि वे स्वयं संवेदनषील थे। हालांकि उत्तर प्रदेष की योगी सरकार 36 हजार करोड़ की कर्जमाफी पहले कर चुकी है। स्थिति से तो यही लगता है कि किसानों की राह कुछ तो समतल होगी। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, December 18, 2018

व्यवस्था एवम उपयोग का बड़ा साधन ई-गवर्नेंस

तकनीक किस सीमा तक षासन-प्रषासन की संरचना को तीव्रता देती है और किस सीमा तक संचालन को प्रभावित करती है। यदि इसे असीमित कहा जाय तो अतार्किक न होगा। प्रौद्योगिकी मानवीय पसंदों और विकल्पों द्वारा निर्धारित परिवर्तनों का अनुमान ही नहीं बल्कि परिणाम भी है। ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को फिलहाल समाप्त किया जा सकता है और इस दिषा में कदम आगे बढ़ चुके हैं। नागरिकों को सरकारी सेवाओं की बेहतर आपूर्ति, प्रषासन में पारदर्षिता की वृद्धि साथ ही सुषासन प्रक्रिया में व्यापक नागरिक भागीदारी को मनमाफिक पाने हेतु ई-गवर्नेंस कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है भारत में उदारीकरण के बाद यह परिलक्षित हुआ जिसका सीधा आषय समावेषी विकास है जबकि भारत अभी इस मामले में मीलों पीछे है। इतना ही नहीं प्रषासनिक प्रक्रिया से लालफीताषाही और कागजी कार्यवाही में कटौती भी सुषासन की ही राह है जिसे ई-षासन से सम्भव किया जा सकता है। ई-गवर्नेंस, स्मार्ट सरकार के द्वन्द को भी समाप्त करने में भी यह मददगार है। सरकार के समस्त कार्यों में प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग ई-गवर्नेंस कहलाता है जबकि न्यूनतम सरकार अधिकतम षासन, प्रषासन में नैतिकता, जवाबदेहिता, उत्तरदायित्व की भावना व पारदर्षिता स्मार्ट सरकार के गुण हैं जिसकी पूर्ति ई-षासन के बगैर सम्भव नहीं है। भारत सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना 1970 में की और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र की स्थापना के साथ ई-षासन की दिषा में कदम रख दिया था मगर इसका मुखर पक्ष 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकटीकरण से देखा जा सकता है। देखा जाय तो दक्षता, पारदर्षिता और जवाबदेहिता ई-षासन की सर्वाधिक प्रभावी उपकरण है। बरसों से सरकारें इस बात को लेकर चिंतित रही हैं कि प्रषासनिक प्रक्रियाओं को कैसे सरल किया जाय, कैसे अनावष्यक देरी को खत्म किया जाय, नीति निर्माण से लेकर नीति क्रियान्वयन तक कैसे पारदर्षिता लायी जाय इन सभी से निजात दिलाने में ई-गवर्नेंस से बेहतर कोई विकल्प नहीं।
डिजिटल इण्डिया की सफलता के लिये मजबूत डिजिटल आधारभूत संरचना भी तैयार करना जरूरी है। भारत में ढ़ाई लाख ग्राम पंचायतें हैं जिसमें 3 नवम्बर 2018 तक करीब एक लाख बीस हजार ग्राम पंचायतों को हाई स्पीड नेटवर्क से जोड़ दिया गया है। सम्भव है कि ग्रामीण सुषासन हेतु ऐसे नेटवर्क कहीं अधिक अपरिहार्य हैं। इससे गांव न केवल डिजिटलीकरण से युक्त होंगे बल्कि बुनियादी और समावेषी जरूरतों को भी पूरा कर पायेंगे। षैक्षणिक और षोध संस्थानों के बीच आदान-प्रदान अत्याधुनिक नेटवर्क के माध्यम से खूब किया जा रहा है। राश्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क ने कई तरह के एप्लीकेषन तैयार कर देष भर में इसे बढ़ाने में मदद दी है। डिजिटल सेवाओं के अन्तर्गत जो ई-गवर्नेंस का एक बेहतरीन उपकरण है जिसका तेजी से देष में फैलाव हो रहा है। इसका अंदाजा इन्हीं बातों से लगाया जा सकता है कि एक करोड़ से अधिक छात्र-छात्रायें राश्ट्रीय छात्रवृत्ति हेतु ई-पोर्टल से जुड़ चुके हैं जिन्हें बीते 3 सालों में 5 हजार करोड़ से अधिक का भुगतान किया जा चुका है। जीवन प्रमाण के आधार पर देखें तो ई-अस्पताल और आॅनलाईन रजिस्ट्रेषन सेवा षुरू हो चुकी है। मरीज और डाॅक्टर सम्बंध कायम हो रहे हैं। देष के 318 अस्पताल में यह लागू है। इसी तरह मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जिसके तहत 13 करोड़ कार्ड जारी हो चुके हैं, इलेक्ट्राॅनिक राश्ट्रीय कृशि बाजार जिसके अंतर्गत 93 लाख किसान जोड़े गये हैं जो देष के 16 राज्यों में 585 से भी ज्यादा बाजारों को इस नेटवर्क से सम्बंधित हैं। ई-वीजा के चलते भी 163 देषों के पर्यटकों को जोड़ने का काम जारी है। अब तक 41 लाख ई-वीजा जारी किये जा चुके हैं। ई-अदालत के चलते देष भर के विभिन्न अदालत में चल रहे मुकदमे पर निगरानी रखना आसान हुआ है जबकि न्यायिक डेटा ग्रिड के कारण लम्बित पड़े मुकदमे, निपटाये जा चुके मामले और हाई कोर्ट और जिला अदालतों में दायर मुकदमों के बारे में सूचना उपलब्ध होना आसान हुआ है। इसमें दीवानी और फौजदारी दोनों तरह के मामले षामिल हैं। इसके अलावा देष भर में आम लोगों को डिजिटली साक्षरता प्रदान करना, छोटे षहरों में बीपीओ को बढ़ावा देना साथ ही रोज़गार उद्यमिता और सषक्तीकरण के लिए डिजिटल इण्डिया एक बेहतरीन परिप्रेक्ष्य लिये हुए है जिसके चलत ई-गवर्नेंस को तेजी से मजबूती मिल रही है। 
वैसे ई-गवर्नेंस के उद्देष्य में जो मुख्य बातें हैं उनमें भ्रश्टाचार कम करना, अधिक से अधिक जन सामान्य के जीवन में सुधार करना, सरकार और जनता के बीच पारदर्षिता लाना, सुविधा में सुधार करना, जीडीपी में वृद्धि करना और सरकारी कार्य में गति बढ़ाना आदि है। वर्तमान में एक नई आवाज के रूप में ई-प्रषासन व ई-गवर्नेंस को देखा जा सकता है। इलेक्ट्राॅनिक के माध्यम से कार्य करना आसान हुआ है पर दुरूपयोग के कारण अपराध भी बढ़े हैं। साइबर अपराधों की गति और भौगोलिक सीमाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इसकी चूक ने जल, थल और आकाष सभी दिषाओं में अपराध का विस्तार किया है। वित्तीय धोखाधड़ी से लेकर बौद्धिक धोखाधड़ी समेत कई प्रकार के अपराध इसके साइड-इफैक्ट भी हैं। सभी जानते हैं कि ई-षासन के क्षेत्र में डाटा और सूचना दो चीजे हैं इसलिए इससे जुड़े अपराध भी इसी से सम्बंधित हैं। फेसबुक पर भी यह आरोप रहा है कि उसने डेटा का हेरफेर किया है। हमेषा यह चिंता रही है कि छोटी सी चूक डेटा और सूचना में सेंध लगा सकती है। ऐसे में डिजिटल इण्डिया के साथ सचेत इण्डिया का संदर्भ भी ई-व्यवस्था में निहित देखा जा सकता है फिलहाल ई-षासन से दक्षता का विकास हुआ है, प्रषासन की जवाबदेहिता बढ़ी है और जनता को लाभ भी पहुंचा है। यहां यह समझना जरूरी है कि ई-गवर्नेंस सब कुछ नहीं देगा बल्कि जो चाहिए उसमें पारदर्षिता और तीव्रता लायेगा। इसमें कोई षक नहीं ई-गवर्नेंस के कारण नौकरषाही का कठोर ढांचा नरम हुआ है और इन्हें कहीं अधिक लक्ष्योन्मुख बनाया है। षिक्षा, स्वास्थ्य व गरीबी इत्यादि विविध क्षेत्र हैं जो राश्ट्र को हमेषा चुनौती देते रहे हैं। इन्हें दूर करने और संसाधनों की प्रभावी उपयोगिता हेतु षासन व प्रषासन निरंतर प्रयासरत् रहा है। इसी प्रयास को ई-गवर्नेंस तेजी से लक्ष्योन्मुख करने में मददगार हुआ है। षासन-प्रषासन में प्रौद्योगिकी कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसमें व्याप्त पारदर्षिता से आंका जा सकता है। 
विकास के नये आयाम के रूप में ई-गवर्नेंस को प्रतिश्ठित रूप में देखा जा सकता है। रफ्तार भले ही धीमी रही हो पर असर व्यापक है। भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है और डिजिटल तकनीक में यह और तेजी ले सकती है। सब कुछ स्मार्ट हो रहा है इस क्रान्ति ने आम आदमी को भी स्मार्ट बना रहा है। मोबाइल षासन का दौर है जो ई-षासन को और भी प्रासंगिक बना रहा है। डिजिटल बदलाव की जो लहर है वह सरकार के लिए भी राहत है क्योंकि कई कोषिषें नागरिक अब स्वयं करने लगे हैं। भारतीय वैष्विक अर्थव्यवस्था भी बदल रही है और सेवाओं का तौर-तरीका भी बदला है। अब कतार में खड़े होने के बजाय डिजिटीकरण से सम्भव हो गया है। भारत का षानदार आईटी उद्योग तेजी लिए हुए है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस उद्योग ने देष का नक्षा बदल दिया है। राश्ट्रीय गवर्नेंस योजना जो 2006 से षुरू हुई बीते एक दषक में बड़ा विस्तार ले चुकी है। सरकार भी अधिकतम नहीं होना चाहती बल्कि अधिकतम गवर्नेंस करना चाहती है। ई-गवर्नेंस ने यहां भी काम आसान कर दिया है। हालांकि राजनीतिक तौर पर सरकार के भीतर कई मजबूरियां हैं पर उदारीकरण से लेकर सूचना के अधिकार तक तत्पष्चात् राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना और डिजिटीकरण ने सुषासन की राह को जिस कदर चैड़ा किया है उससे स्पश्ट है कि ई-गवर्नेंस व्यवस्था उपयोग का बहुत बड़ा उपकरण है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Tuesday, December 11, 2018

मोदी मैजिक के बीच राहुल की वापसी

बड़ी जीत का दावा करने वाली भाजपा 5 राज्यों के चुनाव में औंधे मुंह गिरी है। भाजपा बिन पानी मछली की तरह अगर तड़प रही है तो कांग्रेस जीत के सरोवर में गोते लगा रही है। ऐसा पहली बार है जब बीते साढ़े चार सालों में 5 राज्यों में भाजपा ने चुनाव लड़ा हो और परिणाम सिफर रहे हों। राजस्थान और मध्य प्रदेष में हुए क्रमषः 200 व 230 विधानसभा सीटों के बीच कांटे की टक्कर भाजपा और कांग्रेस के बीच रही पर सत्ता को लेकर जो बड़े पैमाने पर सीट जीतने का सपना था वो भाजपा का पूरा नहीं हुआ। हालांकि राजस्थान में एक उम्मीदवार की मृत्यु के कारण चुनाव 199 सीटों पर ही हुए थे। 90 विधानसभा वाले छत्तीसगढ़ में जिस कदर बीजेपी निस्तोनाबूत हुई उसकी उम्मीद न तो वहां के मुख्यमंत्री रमन सिंह को थी न तो प्रधानमंत्री मोदी को रही होगी और न ही राजनीतिक जानकार को यह संज्ञान रहा होगा। इतना ही नहीं 119 सीटों वाली तेलंगाना में जिस तरह का प्रदर्षन केसीआर की पार्टी टीआरएस ने की वह भी भारतीय राजनीति में बड़ा महत्व का है। जिसके प्रभाव से 2019 का लोकसभा चुनाव प्रभावित हुये बगैर षायद ही रह पाये। उत्तर पूर्व के राज्य मिजोरम में 40 सीटों के मुकाबले जिस तरह के नतीजे दिखे उसमें कांग्रेस का किला ढहा है और बीजेपी की उम्मीदों पर कुठाराघात हुआ है। हालांकि यहां बीजेपी को खोने के लिए कुछ नहीं था पर कांग्रेस ने एमएनएफ के हाथों अपनी सत्ता गंवा दी। चुनावी समर को षिद्दत से समझा जाय तो यह आभास होगा कि इस चुनाव में सबसे ज्यादा भाजपा ने खोया है और कांग्रेस ने छप्पर फाड़ कर पाया है। मोदी का चेहरा परोस कर चुनाव जीतने वाली भाजपा षायद यह मंथन जरूर करेगी कि यह हश्र क्यों हुआ। राजनीतिक पटल पर ऐसा बहुधा होता रहता है कि चमत्कार हर बार नहीं होते और ऐसा भी रहा है कि वोटर किसी के लिए स्थायी जायदाद नहीं होते। सरकार और सत्तासीन लोग जब जनहित को सुनिष्चित करने के बजाय सत्ता हथियाने के चाल-चरित्र पर चल पड़ते हैं तब षायद यही सबब होता है जैसा कि 11 दिसम्बर के चुनावी नतीजे में बीजेपी को देखना पड़ा है। 
क्या नरेन्द्र मोदी एक जिताऊ नेता हैं, चतुर राजनीतिज्ञ हैं और देष के मर्म को समझने वाले मर्मज्ञ षासक व प्रषासक हैं। इसमें कोई गुरेज नहीं कि सभी का जवाब हां में ही होगा मगर बीते 11 दिसम्बर को जो नतीजे सामने देखने को मिले क्या उसके बाद उनके मैजिक पर पूरा भरोसा किया जा सकता है। एक रोचक बात यह है कि आज से डेढ़ साल पहले 2017 में 11 मार्च को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेष विधानसभा चुनाव के नतीजे आये थे जहां सत्तासीन कांग्रेस उत्तराखण्ड में 70 के मुकाबले 11 पर सिमट गयी थी और भाजपा 57 सीट हथियाई थी उत्तर प्रदेष की स्थिति तो और बेजोड़ थी। यहां 403 के मुकाबले 325 सीट हथियाने वाली बीजेपी इतिहास ही रच डाला था। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा कम अवसर रहा है जब इतनी बड़ी जीत किसी दल ने किसी दल के मुकाबले पायी हो। तब पूरा देष मोदी मैजिक मानता था और राहुल गांधी जिनकी बांछे मौजूदा चुनाव में कहीं अधिक खिली हुई हैं वो इन प्रदेषों में धूल फांक रहे थे। राजस्थान, मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ के नतीजों से मामला उलट हो गया है। कह सकते हैं कि मोदी मौजिक के बीच रसातल में जा चुकी कांग्रेस की राहुल गांधी ने वापसी करा दी है। इतना ही नहीं यह परिणाम ऐसे अवसर पर आया है जब राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष बनने की वार्शिकी भी है। ठीक आज ही के दिन उनके अध्यक्ष के पद पर ताजपोषी हुई थी। यह महज एक इत्तेफाक है। राजस्थान के मतदाताओं ने 2013 में जिस पायदान पर भाजपा को रखा था उससे इन 5 सालों में नाराज क्यों हुए और बीते 15 सालों से मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में सत्तासीन भाजपाई कमजोर कांग्रेस और उसके अगुवा के आगे हथियार क्यों डाल दिये। मुख्यतः छत्तीसगढ़ के मामले में यह बात बहुत संवेदनषील है। जिस तरह भाजपा के किले में कांग्रेस ने सेंध मारी है उससे भाजपा के पूरे राजनीतिक गणित को सिरे से छिन्न-भिन्न कर दिया है। मंथन करें या न करें पर भाजपा को सबक तो जरूर लेना चाहिए। 
बीते 7 दिसम्बर को एक्जिट पोल के नतीजे भी अपनी मिलीजुली राय पहले ही दे चुके थे। भाजपा के मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से कड़ी चुनौती बता रहे थे तो राजस्थान में वसुंधरा की कुर्सी जा सकती है की बात भी थी। सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी मगर छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं रहा। यहां कांग्रेस ने एकतरफा जीत हासिल की है। भाजपा को झटका और कांग्रेस को वापसी का जो अवसर मिला है इसे कई 2019 लोकसभा का सेमी फाइनल भी मान रहे हैं। इसमें भी राय बंटी हुई है इस बात से थोड़ा-मोड़ा सहमत हुआ हुआ जा सकता है कि विधानसभा और लोकसभा के चुनावी मुद्दे भिन्न होते हैं पर मोदी षासनकाल में जिस तरह भाजपा चुनाव जीती है उससे यह कहीं नहीं लगता कि उन्होंने राज्य और केंद्र के चुनाव में कोई बड़ा अंतर एजेण्डे को लेकर किया है। भाजपा इस आरोप से नहीं बच सकती कि प्रधानमंत्री समेत तमाम केन्द्रीय मंत्री, विभिन्न प्रदेषों के मुख्यमंत्री और अनगिनत नेताओं को मैदान में उतारकर जनता के बीच एक ऐसा वातावरण बनाने का काम करती रही है साथ ही रैलियों का अम्बार लगाकर जनता का मत अपनी ओर खींचने की कोषिष भाजपा करती रही है। यह भी सच है कि भाजपा चुनाव जीतने के तरीकों को जिस धुरी पर लेकर चलती थी उससे जनता ऊब रही थी। किसान, बेरोजगार और बीमार की चर्चा कम धर्म, जाति, क्षेत्र और नाना प्रकार के आभामण्डल का प्रभाव रैलियों में अधिक होता था। हालांकि भाजपाई इस बात को मानेंगे नहीं पर बुनियादी नीतियों से भाजपा जनता से इन दिनों कटती जा रही थी। कांग्रेस इन नीतियों पर चल रही थी या नहीं यह षोध का विशय है पर भाजपा के कर्मकाण्डी दृश्टिकोण को मसलन मन्दिर-मन्दिर को कांग्रेस ने अपनाकर कुछ वैसा ही फायदा लेने की कोषिष की जैसा भाजपा करती रही है।
मजे की बात यह है कि हिन्दू कर्मकाण्ड और मन्दिर-मन्दिर की अवधारणा अपनाने के बावजूद राहुल गांधी धर्मनिरपेक्ष रहे जबकि भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगता रहता है। भाजपा के षीर्श विचारकों को यह समझ आ जानी चाहिए कि जनता की नब्ज उनके हाथों से खिसक रही है। कांग्रेस का यह पलटवार बहुत दूर तक और देर तक असर डालेगा और सर्वाधिक असर 2019 के लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस की इस मजबूती से तीन बातें हुई हैं पहला राहुल गांधी को अब कोई हल्का नेता समझने की गलती नहीं करेगा। दूसरा भाजपा की कांग्रेस विहीन भारत की नीति छिन्न-भिन्न हुई हैं। तीसरा यह कि कांग्रेस मनोवैज्ञानिक लाभ के साथ अब भाजपा से भविश्य में और कड़ाई से मुकाबला करेगी और महागठबंधन के रास्ते थोड़े सहज हो सकते हैं। मात्र एक बार का चुनाव कांग्रेस को ऐसी संजीवनी दे दी है जो उसकी पूरी जीवनी को बदल सकता है। कार्यकत्र्ताओं में जान फूंक सकता है और नषे में चूर भाजपाईयों को होष में लाने का काम कर सकता है। षब्द कड़े हैं परन्तु षुद्ध भी हैं और सटीक भी हैं। फिलहाल 11 दिसम्बर से षीतसत्र की षुरूआत हुई है जाहिर है 8 जनवरी तक चलेगा। इस हार-जीत का असर यहां भी पड़ना लाज़मी है। मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूत और जीत के सुरूर में कांग्रेस की रणनीति भी बदलेगी और मोदी मैजिक को चुनौती भी देगी। दो टूक यह है कि मोदी मैजिक के लिए अब खतरे की घण्टी बज चुकी है और बिना दुविधा के राहुल की वापसी हो चुकी है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, December 5, 2018

दक्षिण एशिया में द्वंद के बीच शांति की पहल

अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं और अनिवार्यताओं की परिभाषा अलग हो चुकी है इसलिए नीतियों में फेरबदल भी अनिवार्य हो चली है। दुनिया में चाहे उत्तर-उत्तर का संवाद हो या दक्षिण-दक्षिण का या फिर उत्तर-दक्षिण का ही संवाद क्यों न हो सभी देष अपने हिस्से के राजनीतिक और आर्थिक विकास हासिल करना चाहते हैं साथ ही द्वन्द्व के बजाय सहयोग की भी अपेक्षा रखते हैं। दुनिया कई समूहों में बंटी है पर संयुक्त राश्ट्र एक ऐसा संगठन है जहां सभी का नाम दर्ज है। वैष्विक मंचों पर विकसित एवं विकासषील देष के प्रतिनिधि अपने हितों को पोशित करने के उद्देष्य से चतुर और कुटिल चाल भी चलते रहते हैं। अमेरिका जैसे देष कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर सबल होने के कारण न केवल दूसरे की मदद करते हैं बल्कि बढ़े हुए मात्रा में प्रभुत्व भी स्थापित करते हैं। दो टूक यह भी है चाहे अफगानिस्तान में षान्ति बहाली की बात हो या फिर दक्षिण एषिया में स्थिरता की बात हो अमेरिका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव छोड़ता रहता है। दक्षिण एषिया में भारत बड़ा और विकसित देष है मगर पड़ोसियों से परेषान है। मुख्यतः सीमा विवाद को लेकर चीन से तो आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान से। भारतीय उपमहाद्वीप में षान्ति प्रयासों के लिए हमेषा से प्रयास होता रहा है। यही प्रयास इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। इनके प्रयासों की तारीफ करते हुए पेंटागन में अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने पाकिस्तान पर निषाना साधा है। उनका कहना है कि अफगानिस्तान में षान्ति स्थापित करने के लिए 40 साल का समय काफी था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। ऐसे में अफगानिस्तान में लोगों की सुरक्षा, प्रतिबद्धता के लिए अमेरिका उन सभी का समर्थन करता है जिनकी कोषिषों की बदौलत षान्ति बहाली आसान हुई। इतना ही नहीं वह दक्षिण एषिया में षान्ति बनाये रखने के लिए मोदी, संयुक्त राश्ट्र अन्य लोगों के प्रयासों का समर्थन करने के लिए पास्तिान को कहा है। स्पश्ट है कि दक्षिण एषिया में षान्ति प्रयासों का समर्थन करने का फरमान अमेरिका ने पाकिस्तान को सुना दिया है। 
दक्षिण एषिया की नीति के संदर्भ में अमेरिका ने भारत को पहले ही इसी साल फरवरी में अहम साथी बता चुका है। उसी दौरान कहा था कि भारत-अमेरिका के सम्बंध बहुआयामी हैं और अनेक मोर्चे पर वांषिंगटन को नई दिल्ली से मदद मिली है। अफगानिस्तान में षान्ति और सुरक्षा के लिए भारत के प्रयासों की ट्रंप प्रषासन पहले भी सराहना कर चुका है। गौरतलब है अफगानिस्तान के विकास के लिए भारत ने बड़े पैमाने पर न केवल वहां निवेष किया है बल्कि सुरक्षा बलों को समय-समय पर भारतीय सैन्य विभाग ने प्रषिक्षण भी दिया है। इसके अलावा रक्षा के लिहाज़ से 2016 में भारत द्वारा अफगानिस्तान का 4 एमआई-35 विमान भी भेंट किया जा चुका है। इन सबको देखते हुए अमेरिका भारत को अपना भरोसेमंद साथी मानता है साथ ही दक्षिण एषिया में सम्पर्क बेहतर बनाने के लिए नई पहल महसूस करता है। जिस हेतु पाकिस्तान का इस दिषा में समर्थन चाहता है। एक प्रकार से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को यह अल्टीमेटम दी है कि अफगानिस्तान के साथ सहयोग करने पर ही अमेरिका की दृश्टि में उस पर भरोसा बढ़ेगा। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप पाकिस्तान में आतंकी रवैये को देखते हुए कई सख्त कदम उठा चुके हैं जिसमें करोड़ों की फण्डिंग अमेरिका ने कई किस्तों में फिलहाल रोके हुए है जिसका नतीजा यह है कि पाकिस्तान आर्थिक तौर पर काफी टूट रहा है। अभी पिछले माह ही ट्रंप ने कहा था कि पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। साफ है कि यदि अफगानिस्तान में युद्ध खत्म करना है तो पाकिस्तान को तालिबान के साथ षान्ति वार्ता में अहम भूमिका निभानी होगी। ऐसी इच्छा अमेरिका रखता है पर दुःखद यह है कि आतंकी संगठनों के दबाव व आईएसआई तथा सेना के आगे इमरान खान षायद ही ऐसा कुछ कर पायेंगे। षान्ति बहाली में यदि अमेरिका के मुताबिक इमरान खान मोदी का साथ देते हैं तो इस्लामाबाद में उनके लिए विरोध पैदा हो सकता है और सत्ता चलाना कठिन भी होगा। यदि पाकिस्तान इस दिषा में पहल नहीं करता है तो अमेरिका की नजरों में वह केवल आतंकी देष बना रहेगा और आर्थिक तौर पर मदद की गुंजाइष खत्म रहेगी। उक्त से यह लग रहा है कि मौजूदा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान कोई भी रास्ता अपनाये उन्हें कठिनाई से जूझना ही पड़ेगा।
पड़ताल बताती है कि दक्षिण एषिया के राश्ट्रों के बीच सहयोग और द्वन्द्व का असर मिलजुला हमेषा से रहा है। इन राश्ट्रों ने मिलकर सहयोग करने की दिषा में सार्क, बिमस्टेक, बीसीआईएम, बीबीआईएम, हिमतक्षेप समेत कई संगठन बनाये पर सभी उद्देष्य पर खरे उतरे हैं कहना कठिन है। दक्षिण एषिया का सबसे बड़ा संगठन सार्क में अफगानिस्तान समेत 8 देष आते हैं जो सामाजिक-आर्थिक सहयोग करने के लिए जाने जाते हैं मगर क्या ऐसा हो रहा। सहयोग तो छोड़िये पाकिस्तान जैसे देष अपनी बर्बरता से दक्षिण एषिया को अषान्ति के कगार पर धकेल दिया। गौरतलब है कि साल 2016 के सितम्बर में जब उरी में भारतीय सेना षिविर पर आत्मघाती हमले हुए जिसमें 17 भारतीय सैनिक षहीद और 19 घायल हुए थे। इस घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ था और उसी साल 16-17 नवम्बर को 19वां सार्क सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था जाहिर है भारत के लिए उरी की घटना बहुत बड़ा झटका था यह न केवल भारत के प्रभुता पर प्रहार था बल्कि दक्षिण एषिया के लिए भी अषान्ति का प्रतीक था। ऐसे में भारत ने इस्लामाबाद सार्क बैठक का बहिश्कार किया तभी से यह अनिष्चित स्थिति में चला गया है। कटु सत्य यह है कि पाकिस्तान की गलतियां दक्षिण एषिया के सभी देषों को प्रभावित कर रही हैं। चीन व्यापार के मामले में भारत का सबसे बड़ा पड़ोसी है और सीमा विवाद के मामले में भी सबसे बड़ा पड़ोसी है। नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान पर चीन का आर्थिक व कूटनीतिक प्रभुत्व निरंतर जारी रहता है। चीन के कारण भी दक्षिण एषिया में द्विपक्षीय सम्बंध न केवल प्रभावित होते हैं बल्कि संदेह भी आपस में गहरा हो जाता है। पाकिस्तान के मामले में चीन का रवैया दुनिया से छिपा नहीं है। भूटान और नेपाल के मामले में तो वह भारत से हमेषा प्रतिस्पर्धा करता रहता है। कुछ ऐसा ही रवैया अन्य पड़ोसियों के कारण भी देखा जा सकता है। 
सबके बावजूद क्या पाकिस्तान से षान्ति बहाली की अमेरिका की उम्मीद पूरी होगी। क्या इमरान खान अफगानिस्तान में षान्ति बहाली में कोई ठोस कदम उठा सकते हैं। क्या अपने देष के भीतर व्याप्त आतंकी संगठनों को खत्म करके अमेरिका से रिष्ता सुधार सकते हैं या फिर सीमा पर गोलाबारी रूकवा कर षान्ति प्रक्रिया के लिए भारत के साथ गोलमेज सम्मेलन कर सकते हैं। इमरान भी कह चुके हैं कि युद्ध से कुछ नहीं हासिल होगा और भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी कह रहे हैं कि उनके देष का आतंक खत्म करने में वो मदद कर सकते हैं। यह समझना बहुत मुष्किल है कि जिस देष की आर्थिक हालत इतनी खराब हो, विकास पटरी से उतर चुका हो और चीन की आर्थिक गुलामी झेल रहा हो उसे षान्ति बहाली का रास्ता बेहतर क्यों नहीं लग रहा है। इमरान भी भली-भांति जानते हैं कि अफगानिस्तान में षान्ति बहाली भारत के लिए बेहतर रास्ता बन जायेगा और मध्य एषियाई देषों से भारत का बाजार और व्यापार इससे न केवल बढ़ेगा बल्कि नषे की आने वाली खेप भी रूक जायेगी। ऐसे में भारत अमन-चैन की ओर अधिक होगा जो पाक के गले नहीं उतर सकता। मगर अमेरिका से दुष्मनी और उसकी डांट, धौंस साथ ही आतंकियों, वहां की सेना और आईएसआई के इषारे पर नाचना षायद उनको पसंद रहेगा। अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए जो बोला वह सौ फीसदी सही है और यह पाकिस्तान के लिए अवसर भी है कि अपने अंक बढ़ाते हुए दक्षिण एषिया में षान्ति स्थापित करने में आगे आये।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, December 3, 2018

अपेक्षाओं पर कितना खरा जी-20 सम्मेलन

जी-20 देषों की 13वीं षिखर वार्ता बीते 1 दिसम्बर को समाप्त हुई है। दो दिन तक चलने वाला यह सम्मेलन बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के आह्वान के साथ जहां समाप्त हुआ वहीं ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देने की उम्मीद भी जगा गया। उम्मीद तो यह भी जगाई गयी है कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध खत्म करने की पहल होगी और एषिया प्रषान्त क्षेत्र में स्थिरता के लिए काम किया जायेगा। डिजिटल आतंकवाद से मिलकर लड़ने के लिए सभी देष फिलहाल राजी हैं साथ ही वित्तीय क्षेत्र के प्रयासों के सुधार को आगे भी जारी रखने की मंजूरी इस मंच के सभी देषों ने दे दी है। इरादों की सूची बड़ी है जिसमें मनी लाॅन्ड्रिंग से लेकर आतंक को रोकने तक की बातें जी-20 के मंच से हुई। अक्सर यह रहा है कि जब सम्मेलन समाप्त होता है तो कुछ सवाल सुलगते रहते हैं और कुछ बिना उत्तर के ही बने रहते हैं। रूस के साथ अमेरिका के तनाव जग जाहिर हैं और अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्यापार और जलवायु को लेकर आक्रमक रूप से भी सभी परिचित हैं। खास यह भी है कि यूक्रेन विवाद जी-20 के मंच से कभी गायब नहीं होता। गौरतलब है साल 2014 के आॅस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में हुई जी-20 की बैठक में रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के मुद्दे का सामना करने से पहले नींद का बहाना करके बिना बताये माॅस्को वापस चले गये थे। यूक्रेन विवाद, चीन के साथ व्यापार विवाद और सऊदी अरब के साथ व्याप्त तनाव के बीच दुनिया भर के नेताओं के साथ ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन ने भी इस सम्मेलन में षिरकत किया। देखा जाय 2008 से अमेरिका में षुरू जी-20 की प्रथम बैठक से अब तक यह वैष्विक तनाव की छाया से षायद ही कभी मुक्त रहा हो। 
फिलहाल नये समीकरण नई उम्मीद के साथ नई अवधारणा को समेटे अर्जेंटीना की ब्यूनस आयर्स में  सम्पन्न हुई जी-20 देषों का सम्मेलन भारत के लिहाज से काफी सधा हुआ प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री मोदी विकासषील देषों के अधिकारों की आवाज मंच से उठाते देखे गये और द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय बैठकों ने भी काफी कुछ उम्मीदें बढ़ाने का यहां काम किया। अमेरिका के साथ मिल रहे ट्रेड वार के बीच चीन ने कहा कि वह भारत से ज्यादा आयात के लिए तैयार है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 100 अरब डाॅलर के व्यापार का एमओयू हस्ताक्षरित है जबकि वित्त वर्श 2017-18 में भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा 63 अरब डाॅलर था। भारत इस दौरान करीब 76 अरब डाॅलर मूल्य का आयात किया जबकि निर्यात केवल 13 अरब डाॅलर से थोड़ा ज्यादा रहा। इसके पहले 2016-17 में भी यह घाटा 51 अरब डाॅलर से अधिक था। मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग के बीच जी-20 षिखर बैठक षुरू होने के पहले द्विपक्षीय वार्ता हुई जिसमें जिनपिंग ने भारत से सोयाबीन और सरसों व अन्य तिलहन उत्पादों का आयात बढ़ाने पर रजामंदी दिखाई। हालांकि यह मुद्दा नया नहीं है इसके पहले मोदी बीते अप्रैल के बुहान, चीन दौरे के दौरान तिलहन उत्पाद के आयात को लेकर बात हुई थी। दो टूक यह भी है कि चीन अमेरिका के साथ व्यापारिक युद्ध के चलते कहीं अधिक परेषान है जिसके कारण सोयाबीन समेत तिलहन उत्पादों पर भारी ड्यूटी लगा दी है इसी को संतुलित करने के लिए भारत से इसे लेकर इच्छा जतायी है। 
मोदी ने जी-20 के मंच से नौ सूत्री एजेण्डा पेष किया जिसमें भगोड़े आर्थिक अपराधों से निपटने, उनकी पहचान प्रत्यार्पण और उनकी सम्पत्तियों को जब्त करने के लिए सदस्य देषों से सक्रिय सहयोग मांगा। आतंकवाद और कट्टरवाद को भी बड़ी चुनौती बताते हुए इसे षान्ति और सुरक्षा के साथ ही आर्थिक विकास के लिए भी एक चुनौती बताया। मोदी ने जो आह्वान किया उसका नतीजा बेहतर सरोकार के चलते सफलता के साथ पाया जा सकता है। हालांकि काले धन के मामले में भी 2014 के ब्रिसबेन बैठक में जी-20 के सभी देषों ने एकजुटता दिखाई थी पर नतीजे उम्मीदों की भरपाई नहीं कर पाये। जब भी भारत का विष्व के साथ आर्थिक सम्बन्धों की विवेचना होती है तो जी-20 का मंच और प्रासंगिक होकर उभरता है और भारत की बात बीते कुछ वर्शों से असरदार रही भी है पर नतीजे उसके पक्ष में आये हैं कहना कठिन है। आतंकवाद मुक्त व्यापार और डाटा संरक्षण से लेकर अन्य बातें जो भारत ने उठाई वह सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी राश्ट्रपति और जिनपिंग के बीच जो बातें हुई उसके भी कुछ सकारात्मक पक्ष हैं। उसी का परिणाम है कि अमेरिका अगले तीन महीने तक चीनी उत्पादों पर अतिरिक्त आयात षुल्क नहीं लगायेगा। यहां द्विपक्षीय बातचीत को सफल माना जा सकता है जिसके असर में पूरी दुनिया है। भारत, रूस और चीन की त्रिपक्षीय बैठक कहीं अधिक महत्वपूर्ण है इसके पीछे कारण एक तो ऐसा 12 साल बाद ऐसा हुआ है दूसरे आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसे के प्रति प्रतिबद्धता जताई गयी। हालांकि पाकिस्तान के अजहर मसूद से लेकर लखवी तक संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में वीटो करके बचाना चीन की फितरत रही है। भारत, अमेरिका और जापान का गठजोड़ जिसे जय की संज्ञा दी जा रही है बेहद महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए। यह दक्षिण चीन सागर में षान्ति स्थापित करने या फिर चीन के एकाधिकार को समाप्त करने का एक अच्छा गठजोड़ है। मोदी जी-20 के मंच से भारत की एहमियत को बढ़ाने में सफल कहे जा सकते हैं। बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली, वैष्विक तरक्की और समृद्धि के लिए यह बैठक जानी और समझी जायेगी। आपसी सहयोग पर विचार-विमर्ष के लिए जो बन पड़ता वह भारत की ओर से किया गया है बाकी काम सदस्य देषों का है। 
दुनिया ने फिर देखा कि जी-20 के मंच से पेरिस जलवायु समझौते के मामले में कैसे डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अपने को अलग कर लिया। गौरतलब है कि हैम्बर्ग, जर्मनी में हुए जुलाई 2017 के जी-20 के 12वें षिखर सम्मेलन की समाप्ति तक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर अमेरिका टस से मस नहीं हुआ था पर बिना किसी टकराव के अमेरिका के लिए दरवाजा फिर भी खुला रहा वह अर्जेंटीना में भी यह दरवाजा खुला ही रह गया। सवाल यह है कि पृथ्वी बचाने की जिम्मेदारी से यदि अमेरिका जैसे देष भागेंगे तो आखिर संकल्पों का क्या होगा। बड़ा सच तो यह है कि लगभग दो साल से अमेरिका के राश्ट्रपति रहने वाले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका फस्र्ट की नीति अपना रहे हैं और अपने निजी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं। अमेरिका द्वारा ईरान-अमेरिका परमाणु संधि का तोड़ा जाना, ट्रांस पेसिफिक समझौते से हटना और इसी वर्श अक्टूबर में 1987 से चला आ रहा रूस से हुआ समझौता षस्त्र नियंत्रण संधि (आईएनएफ) से अलग होना इसका पुख्ता सबूत है। सबके बावजूद खास यह भी है कि भारत 2022 में जी-20 षिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा और यह दौर स्वतंत्रता की 75वीं वर्शगांठ का होगा। हालांकि इस सम्मेलन की मेज़बानी पहले इटली को करनी थी। इटली से भारत को मिली इस मेजबानी पर मोदी ने इटली का षुक्रिया अदा किया और जी-20 के सभी देषों को भारत आने का न्यौता दिया। गौरतलब है कि भारत दुनिया में सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था है और जी-20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है। दो टूक यह भी है कि इस समूह में अन्तर्राश्ट्रीय वित्तीय संरचना को सषक्त और आर्थिक विकास को धारणीय बनाने में मदद पहुंचायी है। मंदी के दौर में गुजर रही अर्थव्यव्स्थाओं के लिए भी कमोबेष ऊर्जा देने का भी काफी हद तक काम किया है। यह ऐसा देष है जहां दुनिया के मजबूत देष इकट्ठे होते हैं जो सुलगते सवालों पर अंजाम देने की कोषिष करते हैं पर कुछ सवाल या तो उत्तर की फिराक में अगले सम्मेलन का इंतजार करते हैं या फिर सुलगते रह जाते हैं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com