Monday, February 29, 2016

बजट का आर्थिक और तकनीकी पक्ष

इस बार के बजट में मोदी सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाओं और परियोजनाओं को बल देने का प्रयास किया गया है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने करीब दो घण्टे के बजट भाशण में पूरे साल भर का आय-व्यय का विवरण संसद के सामने परोस दिया जिसे लेकर देष भर में आलोचना-समालोचना का बाजार गरम है। किसी भी बजट में देष के नागरिक अपने हिस्से की विषेशता खोजते जरूर हैं जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा कि 125 करोड़ देषवासी इस बजट के माध्यम से उनकी परीक्षा ले रहे होंगे। प्रत्येक बजट की भांति इस बजट में भी कई आर्थिक और तकनीकी पक्ष हैं जिन्हें ब्यौरेवार तरीके से कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। बीते तीन साल से लगातार देष सूखे का षिकार रहा है और पिछला वर्श तो बेमौसम बारिष का भी षिकार हुआ जिसके चलते किसान भारी दबाव में थे। इस दबाव को ध्यान में रखते हुए अरूण जेटली ने किसानों को राहत देने वाली कई योजनाओं को बजट में षामिल किया। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि सरकार किसानों को कुछ बेहतर देकर अपनी बरसों पुरानी किसान विरोधी छवि को भी बदलना चाहती है। ग्रामीण ढांचे को सुधारने पर अधिक खर्च के अलावा कृशि हेतु 35 हजार करोड़ का फण्ड, सिंचाई के लिए भी बड़े फण्ड का एलान, आगे के पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने, पांच लाख एकड़ खेती मे जैविक खेती को बढ़ावा देना, दालों के उत्पादन के लिए 5 हजार करोड़ रूपए की अतिरिक्त व्यवस्था इस बात को पुख्ता बनाती है। सरकार का जोर कृशि उत्पादकता, फसल बीमा, क्रेडिट और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस बजट में देखा जा सकता है।
बीते एक वर्श में विदर्भ, बुंदेलखण्ड और पंजाब सहित समस्त उत्तर भारत सूखाग्रस्त रहा जिसके चलते देष का अन्नदाता न केवल व्यथित था बल्कि आत्महत्या करने पर भी उतारू था। मोदी सरकार यह समझने की कोषिष में थी कि किसानों को बिना राहत दिये किसानों के हिमायती होने की पहचान बनाना षायद मुष्किल है। लगभग दो वर्श पुरानी मोदी सरकार ने सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए दीनदयाल अन्त्योदय योजना तथा 55 सौ करोड़ की फसल बीमा योजना, इसके अलावा 15 हजार करोड़ रूपए का अलग से प्रावधान भी किया है। विगत् एक दषक से चल रही मनरेगा परियोजना को भी 38 हजार 5 सौ करोड़ का फण्ड की घोशणा जो अब तक की सबसे बड़ी राषि कही जायेगी  साथ ही मनरेगा के तहत 5 लाख तालाब और कुंए आदि भी निर्मित किये जायेंगे। ग्राम पंचायत को अलग से 2 लाख 87 हजार लाख करोड़ फण्ड देने की योजना इस बात का संकेत है कि पंचायतों की तस्वीर अब कुछ अलग हो सकती है खास यह भी है कि 1 मई, 2018 तक देष के सभी गांव तक बिजली पहुंचेगी इसके लिए भी 85 सौ करोड़ का फण्ड है। इसके अतिरिक्त मोदी की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को गांव तक पहुंचाने का प्रयास इस बजट में देखा जा सकता है। काॅरपोरेट सेक्टर के लिए भी बहुत कुछ है पर उतनी संतुश्टजनक बात षायद नहीं है जितना षायद समझा जा रहा था। यहां यह भी बता दें कि मोदी सरकार को काॅपोरेट सरकार की संज्ञा भी दी गयी है। इस बार इन्होंने इस पहचान को भी कमजोर करने की कोषिष की गई है। 29 फरवरी को जो हुआ उसके अंदाजा बजट सर्वे के चलते पहले ही हो चुका था। इस बजट से सरकार की एक नई सूरत भी उभरती है ऐसा कहना गैर वाजिब नहीं होगा।
वित्तीय क्षेत्र में स्थिरता लाने की कोषिष करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली देखे गये। वैष्विक अर्थव्यवस्था में व्यापक संकट की पड़ताल से भी पता चलता है कि बजट काफी सकारात्मक है। जीडीपी 7.6 प्रतिषत है, काॅरपोरेट टैक्स की छूट को धीरे-धीरे समाप्त करने की बात भी कही गई है पर इन्कम टैक्स के मामले में तो खबर निराषाजनक है क्योंकि टैक्स स्लैब में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है इसकी 9 कैटेगरी हैं। छोटे करदाताओं को थोड़ी-मोड़ी राहत होते हुए दिखाई देती है। अब टीडीएस में कटौती कम की होगी परन्तु सरचार्ज एक करोड़ पर 12 से 15 फीसदी के चलते कईयों के हाथ मायूसी भी लगी है। हालांकि कर चोरों पर षिकन्जा कसने का इरादा भी बजट में निहित दिखाई देता है। कृशि में एफडीआई 100 फीसदी और राजकोशीय घाटे का लक्ष्य 3.9 करने का अनुमान है फिलहाल यह वर्तमान में 3.15 है। सस्ते आवास को बढ़ावा दिया गया है और 60 वर्ग मीटर तक का मकान कर मुक्त किया गया है। देष में बिजली की किल्लत को देखते हुए परमाणु उर्जा क्षेत्र को और मजबूत बनाने हेतु 3 हजार करोड़ रूपए की राषि निर्धारित की गई है। जीएसटी पर निर्भर करेगा कि आगे की कर निर्धारण क्या होगा पर सर्विस टैक्स ने वस्तुएं के महंगी होने के संकेत दे दिये हैं। इतना ही नहीं एक प्रतिषत टैक्स बढ़ोत्तरी के चलते सभी कारें महंगी हो जायेंगी। सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात आदि भी महंगे होंगे। इसके अतिरिक्त कई मामले में काॅरपोरेट सेक्टर को राहत देने का प्रसंग भी बजट में देखा जा सकता है। सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन आदि जैसे संदर्भ के साथ वित्तीय क्षेत्र में सुधार आदि किसी भी बजट के बड़े महत्वपूर्ण पक्ष होते हैं। गरीबों को एक लाख का बीमा इस दिषा में उठाया गया कदम दिखाई देता है। बजट साल में एक दिन आता है और कईयों को उम्मीदों से भरता है तो कईयों को ना उम्मीद भी करता है पर असल पक्ष यह है कि आम व्यक्ति आंकड़ों में उलझने के बजाय बुनियादी जरूरतों तक ही बजट से लेना-देना रखता है।
मध्यम वर्ग की दृश्टि में बजट में निहित टैक्स स्लैब एक चेहरा होता है पर जेटली के बजट ने उन्हें बड़ी मायूसी दी है क्योंकि आय छूट को बढ़ाया नहीं गया। हालांकि पांच लाख तक की आय में 2 से 5 हजार की अतिरिक्त छूट की बात कही गयी है परन्तु टैक्स स्लैब पुराना होने से करीब 2 करोड़ लोगों को मायूसी हुई होगी। देष में 4 करोड़ के आस-पास लोग इन्कम टैक्स रिटर्न भरते हैं। एफडीआई के मामले में मोदी सरकार थोड़ी चुस्त-दुरूस्त दिखाई पड़ती है और अनुमान है कि दस अरब डाॅलर की राषि इससे जुटाई गयी है और पिछले 10 माह में निर्यात 15.5 फीसद कम हुआ है। महंगाई उम्मीद के मुताबिक 5 फीसद के आस-पास ही है। राजकोशीय घाटे की स्थिति काफी हद तक काबू में कही जा सकती है जो विगत् वर्श की भांति ही दिखाई देती है। दिक्कत यह है कि जिस प्रतिषत पर देष की जीडीपी है उससे देष की बेरोजगारी और गरीबी दूर करने में अभी दषकों लगेंगे। स्किल डवलेपमेंट के मामले में भी सरकार ने नये प्रषिक्षण केन्द्र खोलने की बात कही है। डिजिटल इण्डिया, क्लीन इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया साथ स्टैंडअप इण्डिया जैसी योजना पर जेटली ने बजट के माध्यम से काफी गम्भीरता दिखाई है। षिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार का धन आबंटन का सिलसिला काफी हद तक ठीक है। लक्ष्य है कि 3 करोड़ युवाओं को सक्षम बनाया जायेगा। कई जानकार इस बजट को नई बोतल में पुरानी षराब की संज्ञा भी दे रहे हैं तो कई इसे मोदी सरकार की छवि सुधारने की दिषा में मान रहे हैं। कुल मिला-जुलाकर लब्बो-लुआब यह है कि अरूण जेटली का यह बजट पूरी तरह खारिज करने लायक नहीं है। भले ही कुछ को तकलीफ हुई होगी पर इस बजट के माध्यम से मोदी सरकार ने किसानों की तकलीफ दूर करने की कोषिष की है।



सुशील कुमार सिंह

Saturday, February 27, 2016

आरक्षण, संविधान और सर्वोच्च न्यायलय

बीते 2 फरवरी को तमिलनाडु के कोयम्बटूर में एक रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात को पुनः दोहराया कि आरक्षण समाप्त नहीं होगा, तो इस बात का भी कयास लगाया जाने लगा कि मोदी आरक्षण जैसे संवेदनषील मुद्दे को लेकर अपनी राय देष की जनता के सामने एक बार फिर स्पश्ट करना चाहते हैं। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण के बयान के चलते सियासत काफी गरम हो चली थी। उनके द्वारा आरक्षण से सम्बन्धित दिये गये वक्तव्य को बिहार विधानसभा में भाजपा की हार से भी जोड़ा गया। इतना ही नहीं विरोधी दल इस कमजोर नब्ज़ को पकड़ते हुए मोदी को आरक्षण विरोधी कसौटी पर भी कसने का अभ्यास करते रहे हैं और आज भी जनता के बीच वे इस अभियान को चलाने से बाज नहीं आते हैं। क्या आरक्षण देष में एक समस्या है? यदि समस्या नहीं है तो सरकार और सियासत इसके प्रति इतनी गम्भीर क्यों होती है? क्या आरक्षण से ही सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ों को राहत देना मात्र ही एक विकल्प है या ऐसे वर्गों द्वारा आरक्षण के लिए वह सब कुछ करना वाजिब है जो देष के लिए नासूर बनता हो। 26 जनवरी, 1950 से लागू संविधान ऐसे तमाम उपबन्धों से प्रभावी है जिसमें स्त्रियों, बच्चों और अन्य कमजोर वर्गों के लिए अलग से सहूलियत है। इसी संविधान में सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए मौलिक अधिकार में निहित अनुच्छेद 15 और 16(4) के अन्तर्गत आरक्षण वाली सुविधा भी देखी जा सकती है।
बीते कुछ दिनों से हरियाणा आरक्षण की आग में सुलग रहा था जिसके चलते हालात बद से बद्तर हुए। हरियाणा में जो हुआ वह देष के लिए बहुत ही खौफनाक रहा। ध्यानतव्य हो कि 1990 में मण्डल आयोग की सिफारिषों को तत्कालीन प्रधानंत्री वी.पी. सिंह ने जब लागू करने का परिप्रेक्ष्य विकसित किया तब पूरे देष में ऐसे ही भयानक दृष्य देखने को मिलते थे जैसा कि इन दिनों हरियाणा में। हालांकि सबके बावजूद 1993 में ओबीसी को 27 फीसद आरक्षण दे दिया गया तब देष के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव थे। मोदी काल में राज्यवार आरक्षण की स्थिति कमोबेष कम खराब नहीं है। राजस्थान के गुर्जरों, गुजरात के पाटीदारों, आन्ध्र प्रदेष में कापू और अब हरियाणा में जाट समुदाय को आरक्षण की मांग करते हुए देखा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 15 देष के नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंष, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेद नहीं करता जबकि अनुच्छेद 16 सभी नागरिकों के नियोजन में अवसर की समानता देता है लेकिन सामाजिक न्याय तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए इन उपबन्धों का अपवाद भी निर्धारित किया गया है जो सरकार को किसी विषेश वर्ग की उन्नति के लिए विषेश उपबन्ध करने का अधिकार प्रदान करता है। इसी व्यवस्था को अक्सर आरक्षण का नाम दिया जाता है। जिसके लिए वह सब कुछ किया जाता है जो सभ्य नागरिकों की दृश्टि से कहीं से और कतई उचित नहीं है। इसी मांग के बीच में संविधान को ताक पर रख कर जो सियासत गरम की जाती है वह भी दांतों तले उंगली दबाने वाली होती है। हरियाणा इसका पुख्ता सबूत है। हरियाणा में आरक्षण के नाम पर संविधान के साथ भी अन्याय किया गया है। सरकारी सम्पत्तियों को स्वाहा किया गया। इसमें सियासतदान संदेह के घेरे में है। देष की षीर्श अदालत ने अब नुकसान की भरपाई के लिए अपना रूख कड़ा कर लिया है।
आर्थिक नुकसान की तीव्रता को देखते हुए मांग की जा रही है कि सरकार सम्पत्ति नुकसान रोकथाम कानून 1984 में बिना देरी किये संषोधन करे। सर्वोच्च न्यायालय की पहल भी बाकायदा इस दिषा में देखी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी यह है कि हरियाणा में हुए जाट आंदोलन के दौरान हिंसक प्रदर्षन और लूटपाट की घटनाओं को लेकर सख्ती दिखाई है, कहा है कि राश्ट्र की सम्पत्ति को हुए नुकसान की भरपाई आंदोलनकारियों और राजनीतिक दलों से ही की जानी चाहिए। फिलहाल षीर्श अदालत की चिंता को विस्तार दिया जाए तो कुछ इस प्रकार दिखाई देती है। तोड़-फोड़ को लेकर हाई कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर जांच करे और मुआवजा भी तय करे। यदि मामला एक से अधिक राज्यों का हुआ तो इसका संज्ञान सर्वोच्च अदालत स्वयं लेगी। इसके अलावा उच्चतम या उच्च न्यायालय के सेवारत् या सेवानिवृत्त ‘क्लेम कमिष्नर‘ नियुक्त होंगे जो नुकसान का आंकलन करेंगे। जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय होगी साथ ही नुकसान की भरपाई नुकसान पहुंचाने वालों से ही की जायेगी जो नुकसान से दोगुनी नहीं होगी साथ ही आपराधिक कार्रवाई चलती रहेगी। हालांकि 2009 में आंदोलनकारियों और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान पर षीर्श अदालत ने पहले भी कड़े निर्देष दिये थे। औद्योगिक संगठन पीएचडी चैम्बर आॅफ काॅमर्स एण्ड इंडस्ट्री यह दर्षाते हैं कि देष में जाट आंदोलन के चलते 34 हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इस आंदोलन के कारण पर्यटन सेवा, यातायात सेवा मुख्यतः रेल और सड़क परिवहन व वित्तीय सेवा को 18 हजार करोड़ का नुकसान सहना पड़ा। कृशि कारोबार के साथ मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली निर्माण कार्य सहित खाद्य पदार्थों के कारोबार में होने वाला नुकसान 12 हजार करोड़ का है। अनुमान तो यह भी है कि सड़क, रेस्टोरेंट, रेलवे स्टैण्ड व अन्य की तोड़-फोड़ के चलते 4 हजार करोड़ का नुकसान किया गया है। इस भारी-भरकम नुकसान के चलते देष की बुनियादी ढांचे को जो चोट पहुंची है उसकी वापसी तो होनी ही चाहिए।
आरक्षण की मांग मनवाने के लिए जो मनमाना तरीका अपनाया जाता है और जिस प्रकार हिंसा के साथ सम्पत्तियों को नश्ट किया जाता है वह सब तो कश्टकारी है ही पर इस बार हरियाणा में दस महिलाओं का इसी दौरान दुश्कर्म भी हुआ जो पूरी व्यवस्था को षर्मसार करने के लिए काफी है। कई बुनियादी सवाल आरक्षण को लेकर हैं। पहला तो यह कि आरक्षण मनमानी नहीं हो सकता इसके पीछे वजह यह है कि 1963 में बालाजी बनाम मैसूर राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 50 फीसदी की सीमा निर्धारित की इसी के मद्देनजर मण्डल कमीषन की 1978 की सिफारिष के तहत 1993 में 27 फीसदी आरक्षण दिया गया। दूसरा यह कि असाधारण परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी स्थिति में इस प्रतिषत को नहीं बढ़ाया जा सकता। हालांकि तमिलनाडु में 69 प्रतिषत, महाराश्ट्र में 52 फीसदी आरक्षण देखा जा सकता है। सवाल है कि अगर सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में जाट समुदाय को षामिल करती है तो ओबीसी के लिए मौजूदा 27 फीसद में क्या विस्तार नहीं होगा या उन्हें मात्र ओबीसी में समावेषित किया जाएगा, चित्र स्पश्ट नहीं है। किसी भी समाज या राश्ट्र के लिए अनिवार्य है कि पिछड़े और वंचित का उत्थान किया जाए तभी लोकतंत्र का आदर्ष स्वरूप सम्भव है पर उत्थान की मांग को लेकर देष की सम्पत्ति को स्वाहा किया जाए ये कहां का गौरव है। आरक्षण की अपनी सीमा है, संविधान की भी अपनी गरिमा है और सर्वोच्च न्यायालय की इस देष में कहीं अधिक बड़ी बारीक जिम्मेदारी भी है। जो चिंता आरक्षण को लेकर और उससे हुए नुकसान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिखाई है उसे सराहा जाना तो जरूरी है ही साथ ही संविधान में निहित उपबन्धों को भी उकेर कर देखा जाए कि आरक्षण को लेकर कहां, कितनी गुंजाइष है। सबके बावजूद इस बात पर लगाम जरूर हो कि आरक्षण मांग के बहाने देष में अनाप-षनाप का अवसर नहीं किसी को नहीं है।



सुशील कुमार सिंह

Thursday, February 25, 2016

बजट सत्र का आगाज़ पर हाल वही

बीते 23 फरवरी को बजट सत्र के चलते एक बार फिर संसद भवन में जन प्रतिनिधियों का जमावड़ा लगा जहां सत्र के तीसरे दिन 25 फरवरी को रेल बजट पेष किया गया वहीं 29 फरवरी को आम बजट पेष होना है और यह उम्मीद है कि इस सत्र में उन तमाम कमियों को पूरा किया जायेगा जो पहले के मानसून और षीत सत्र में अधूरे रह गये हैं मगर अभिभाशण के दूसरे दिन ही संसद फिर पुराने रंग में दिखी। लोकसभा में थोड़े व्यवधान के बीच जिस प्रकार बहस हुई उससे कुछ उम्मीद जगती है पर राज्यसभा में इसका कोई चिह्न परिलक्षित नहीं हुआ। यदि आगे के दिनों में इसी प्रकार के लक्षण प्रतिबिम्बित होते हैं तो इस बात पर भी मोहर लग जायेगी कि विरोधी को सियासत से गहरा नाता है न कि देषहित से। कई इस वक्तव्य के उलट भी सोच सकते हैं कि विरोध ही असली देषहित है। मुट्ठी भर अलग-अलग दलों के विरोधी इस बात का जिम्मा कैसे ले सकते हैं कि वही देष के असल तारनहार हैं जबकि पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार तो यहां टाइम पास करने आई है। यह तल्ख टिप्पणी इसलिए कि पिछले बजट सत्र से लेकर मानसून सत्र और  अन्ततः षीतसत्र भी विरोध की भेंट चढ़ते रहे। धुर दक्षिण से लेकर उत्तर तथा पूरब-पष्चिम तक की जनता देष की महापंचायत से सत्र के दौरान कुछ बेहतर की प्रतीक्षा में नजर गड़ाये रहती है। एक कहावत है कि यथास्थिति में फंसे रहने के बजाय परिवर्तन उन्मुख होना कहीं अधिक बेहतर होता है। प्रत्येक सत्र की भांति समसामायिक मुद्दों को लेकर सियासत गरम रहने के बजाय कुछ संसद की दीर्घा में नीतिगत काज हो जायें तो देष की सवा अरब जनसंख्या को कुछ राहत परोसा जा सके।
भारत की सियासत बीते 20 महीनों में नीतिगत न होकर दबाव समूह की भांति हो गयी है। दबाव समूह का अपना एक सामान्य हित होता है और उसी के आधार पर औरों को भी संगठित करता है। हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक के मामले में विरोधी सियासतदानों को इसी आधार पर एकजुट होते हुए देखा जा सकता है। मजे की बात यह है कि वामदल, कांग्रेस और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सहित बसपा या अन्य दलों का गठन अलग-अलग विचारधारा पर आधारित है मगर सरकार को घेरने के लिए सभी का एक राय होना अचरज में डालने वाला है जिसमें सर्वाधिक हैरत कांग्रेस की वजह से दिखाई देती है। देखें तो बाकी दल मसलन वामदल विरोध की ही पैदाइष है इसलिए उसका विरोध लाज़मी है। अन्य छोटी पार्टियां छोटे क्षेत्रों तक सीमित हैं पर कांग्रेस तो राश्ट्रीय और पूरे भारत के क्षेत्रफल पर फैली हुई है। आष्चर्य होता है कि 65 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में जो पार्टी 50 साल से अधिक सत्ता पर काबिज रही हो उसके अन्दर रचनात्मक विरोध का धर्म क्यों नहीं विकसित हो पा रहा है, बात समझ से परे है। जेएनयू प्रांगण में देष के खिलाफ नारे लगे उस पर सियासत गरमाने में कांग्रेस अधिक दोशी रही है और अभी भी इससे बाज नहीं आ रही है।
कहावत तो यह भी है कि सियासत अपनी जगह और देषहित अपनी जगह पर सियासतदान अपनी सियासत के चलते देषहित को मलीन करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह तय है कि जबतक संसद से नीतियां निर्मित होकर निश्पादन हेतु जनता के बीच नहीं आयेंगी तब तक विकास को लेकर गति नहीं दिया जा सकेगा। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयकों में जीएसटी और भू-अधिग्रहण सहित कई को इस बजट सत्र से काफी आस है कि इन्हें कानूनी रूप मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी तीन दर्जन के आस-पास विधेयक हैं जो संसद की चैखट पर एड़ी रगड़ रहे हैं। विडम्बना यह भी है कि संसद के उच्च और निम्न दोनों सदनों में परेषानी कमोबेष उतनी ही है। बुधवार को मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जेएनयू और वेमुला आत्महत्या को लेकर बहुत तीखे तेवर के साथ जवाब दिये। दूसरे षब्दों में कहें तो राज्यसभा में कल का दिन स्मृति ईरानी का ही था पर सवाल इस बात का है कि जिन विरोधियों को लेकर यह सब कुछ हो रहा था उन पर कितना असर पड़ा? क्या इससे विरोध के सुर नरम पड़ेंगे? रोहित वेमुला के आत्महत्या के मामले की जांच करने वाली न्यायिक समिति में दलित सदस्य की मांग को लेकर मायावती ने सवाल उठाये थे। षायद स्मृति ईरानी से नोंक-झोंक के बीच सवाल का जवाब भी उन्हें मिला होगा।
फिलहाल सदन किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं है बल्कि इसलिए है कि सभी आवष्यक मसलों पर व्यापक और सार्थक चर्चा हो सके। दुर्भाग्य से पिछले बजट सत्र के बाद से संसद में रस्म अदायगी का काम ज्यादा हुआ है। मानसून और षीतकालीन सत्र दोनों निराषा से भरे हैं। एक मुसीबत यह भी है कि कांग्रेस की विरोध की नीति पर बाकी दल उसका समर्थन करना ही बेहतर समझते हैं। यदि इस तौर-तरीके पर कोई कड़ा कदम नहीं उठाया गया तो संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने से भी नहीं रोका जा सकेगा। इसका कोई मतलब नहीं है कि देष की जनता आने वाले सत्र पर टकटकी लगाये हो और राजनीतिक दल समस्याओं पर चर्चा करने के बजाय सदन में तमाषा खड़ा करें। सदन में जटिल मसलों को हल करने के बजाय हंगामा करना या नारे लगाना देष की जनता को अंधेरे में रखने के बराबर है। संसद और सड़क की राजनीति के अन्तर को भी समझना होगा। इस बात को भी समझना होगा कि जो सियासतदान संसद में दषकों से बने होने का दावा करते हैं उन्हें बड़ी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। जिस सियासत से संसद को जूझना पड़ता है उससे तो यही लगता है कि संसद वर्श में तीन बार सत्र के दौरान बंधक बनाई जाती है और देष की जनता को वह सब देखना और सुनना पड़ता है जिसके लिए उन्होंने मतदान ही नहीं किया है। अन्त में यह कहना हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि आने वाले दिनों में सत्र में वह सब होगा जिसकी अपेक्षा देष करता है।


सुशील कुमार सिंह



रेल बजट का मिशन 2020

हम न रूकेंगे, हम न झुकेंगे, चलो मिलकर कुछ नया बनायें, यह पंक्ति पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की है जिसे बजट पेष करते समय रेल मंत्री सुरेष प्रभु ने दोहराई। रेल बजट को अलग से परोसने की प्रथा ब्रिटिष काल से ही 1923 से देखी जा सकती है जो अभी भी बादस्तूर फरवरी के अन्तिम सप्ताह में प्रति वर्श देखने को मिलती है। आने वाले वित्त वर्श (2016-17) का यह बजट कई उम्मीदों और प्रभावों से युक्त होने के बावजूद कई खामियों से भी जकड़ा हुआ प्रतीत होता है। सीधी-सपाट बात यह है कि यात्रियों को इस बजट में किराया न बढ़ाकर फिर राहत दी गई है। ट्रेन के नाम पर चार नई ट्रेनें अन्त्योदय, तेजस, हमसफर और उदय को चलाने का एलान देखा जा सकता है पर हर यात्री को कन्फर्म टिकट देने का लक्ष्य निहायत लम्बा अर्थात् अब से तकरीबन चार साल बाद 2020 तक ही सम्भव होगा। एक अच्छी बात यह है कि हर रिज़र्व कैटेगरी में 33 प्रतिषत सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित होंगी। किसी भी बजट में आम आदमी के लिए क्या खास बातें हैं ये खासा महत्व का होता है। इसे देखते हुए एक साफ लकीर यह खिंचती है कि बजट पूर्ववत् की भांति लब्बोलुआब से परिपूर्ण तो है परन्तु पिछले दरवाज़े से कई बातें इसमें षिकायत के लिए भी उपलब्ध हैं। पीएम मोदी के विजन को साकार करना रेल मंत्री सुरेष प्रभु के लिए एक बड़ी चुनौती रही होगी। जैसा कि मोदी डेढ़ बरस पहले ही बुलेट ट्रेन के कायल रहे हैं पर इस मामले में बजट सूना है। तेजी और कुषलता के साथ रेलवे में कैसे काम हो, लाइन बिछाने का लक्ष्य कैसे पूरा हो इसकी भी सुगबुगाहट बजट में है।
एक बड़ी दुविधा वाली बात रेलवे में यह रही है कि ट्रेनें अक्सर लेट-लतीफ होती हैं और रफ्तार भी बहुत कम रहती है। भारत में ट्रेनों की स्पीड पर भी घोर चिंता की जा सकती है। इस मामले में हम चीन की तुलना में करीब चार गुना पीछे हैं। हालांकि रेल मंत्री ने पैसेंजर ट्रेनों की रफ्तार बढ़ाकर 80 किलो मीटर प्रति घण्टा लक्ष्य रखा है पर व्यवहार में यह कितना खरा उतरेगा यह तो पटरी पर दौड़ती ट्रेनों से ही पता चलेगा। इसके अलावा ट्रेन के अन्दर की सुविधाओं पर भी काफी कुछ कहा गया है। एक बात यह भी समझना होगा कि रेल को लेकर देबोराॅय कमेटी ने बड़ी खूबसूरत सिफारिषें बहुत पहले की थी जिसमें उन्होंने रेल सुरक्षा पर गहरी चिंता व्यक्त की थी और इसे अन्य माध्यमों से पूरा करने की बात कही थी। उन्होंने रेलवे को तकनीकी और गैर तकनीकी हिस्से में बांटते हुए इसे सुगम बनाने सहित कई सिफारिषें आज भी सरकार के पास पड़ी हैं पर इस पर कोई अमल नहीं हुआ। सोषल मीडिया का जिक्र करते हुए रेल मंत्री ने कहा कि यहां से रोजाना रेलवे के एक लाख से ज्यादा षिकायते मिलती हैं। देखा जाए तो रेलवे के षिकायतकत्र्ता का प्लेटफाॅर्म इन दिनों सोषल मीडिया भी बना हुआ है। एक बात तो तय है कि परिवहन व्यवस्था का सर्वाधिक भार रेलवे उठाती है पर जिस प्रभाव के साथ इसे होना चाहिए उसका आभाव आज भी महसूस होता है। हर बड़े स्टेषन पर सीसीटीवी सर्विलांस होंगे पर यह कब तक पूरे होंगे कहना कठिन है। मिला-जुला कर कई ऐसी बातें इस रेल बजट से निकल कर आईं हैं जिसमें तात्कालिक के बजाय यह बजट ‘मिषन 2020‘ अधिक प्रतीत होता है।
रेल मंत्री ने कहा कि संचालन अनुपात 92 फीसदी हासिल करने की कोषिष करेंगे। यहां बताना जरूरी है कि कांग्रेस के समय में यह अनुपात लगभग 97 फीसदी था। यहां समझना जरूरी है कि अगर संचालन अनुपात कम होता है तो रेल मुनाफे में होती है। इस साल के रेल बजट मे 8720 करोड़ रूपए के बचत की उम्मीद है जबकि 1.21 लाख करोड़ रूपए खर्च का प्रावधान है। रेलवे में मुनाफे का सिलसिला लालू प्रसाद के रेलमंत्री के दिनों से षुरू हुआ जो बादस्तूर 20 हजार करोड़ से अब लगभग 9 हजार करोड़ तक पहुंच गया है। देष में करीब 13 हजार गाड़ियां पटरी पर दौड़ती हैं और रोजाना 2 करोड़ लोग यात्रा करते हैं। देष में जनसंख्या की वृद्धि दर प्रति वर्श डेढ़ से पौने दो करोड़ के बीच है। 2015 के सुरेष प्रभु के रेल बजट से भी ट्रेनें नदारद थी कमोबेष इस बार भी स्थिति वैसी ही है। जो ट्रेनें बढ़ाई गयी हैं वे ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है। हालांकि यह कहा गया है कि ट्रेनों में डिब्बों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। जो खास बातें इस बजट में हैं उसमें 33 फीसदी महिलाओं के आरक्षण, लोअर बर्थ पर 50 फीसद वरिश्ठ नागरिकों के लिए आरक्षण, ट्रेनों में पायलट आधार पर बच्चों के खाने-पीने की अलग से व्यवस्था आदि के चलते कुछ वर्गों को अतिरिक्त राहत और सुविधा मिलती हुई दिखाई देती है। यह सभी के अनुभवों में होगा कि ट्रेनों के षौचालय बड़ी बुरी स्थिति में होते हैं। साफ-सफाई को लेकर बातें कही गई हैं पर ऐसा कई रेल बजट में सुनने को मिलता रहा है जो आज तक पूरी तरह अमल में नहीं आ पाया है।
जब भी देष में रेल बजट या आम बजट पेष होते हैं तो समस्त जनता इस उम्मीद से अटी रहती है कि इस बार के बजट में उसके लायक क्या है? तथ्यात्मक आंकड़ों में उलझने के बजाय देष के करोड़ों जनमानस बहुत छोटी-छोटी बातों से संतोश करने के लिए मजबूर होते हैं। एक बड़ी तादाद के लिए ये राहत की बात है कि किराये में कोई छेड़छाड़ नहीं है पर चिंता यह है कि रेल यात्री की तुलना में नई रेल का कोई खास जिक्र नहीं है। रेल मंत्री सुरेष प्रभु एक चार्टेड एकाउंटेड हैं, लेखा और लेखा परीक्षण का उन्हें बड़ा ज्ञान है। राजस्व के नये स्त्रोत कैसे खोजे जायेंगे, रोजगार को कैसे विस्तार दिया जायेगा और कैसे उपभोक्ता को बेहतर सुविधायें देना है इस पर जरूर अच्छा होमवर्क किये होंगे। यहां यह भी समझना जरूरी है कि रेल को आर्थिक वृद्धि का इंजन भी माना जाता है। रेलवे की कुल कमाई का करीब आधा से अधिक हिस्सा रेल कर्मचारियों को वेतन बांटने में खर्च होता है। सातवें वेतन आयोग के लागू होने पर यह राषि की दर 15 से 20 फीसदी बढ़ सकती है। मिला-जुलाकर रेल का मुनाफा कम हो सकता है। ऐसे में मिषन 2020 कितना सारगर्भित हो पायेगा। अभी से कहना बहुत मुष्किल है। रेल मंत्री ने स्वयं कहा है कि ये चुनौतियों का समय और सबसे कठिन दौर है, जिसका हम सामना कर रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि पिछले वर्श की तुलना में रेलवे की इस वर्श का कई महाकमा बेहतर स्थिति में है पर अभी सुधार की जरूरत है। वैसे देखा जाए तो रेल मंत्री ने रेल सुविधाओं को लेकर जो एलान किये हैं वो भी काफी एड़ी-चोटी वाले हैं। भारत में संरचनात्मक खामियां बरसों से व्याप्त रहीं हैं, परिवहन के क्षेत्र में तो इसकी मात्रा बहुत अधिक है। यात्री रेलवे की आत्मा है का सम्बोधन करने वाले रेल मंत्री षायद अधिक फिक्रमंद जताने के लिए ऐसा कह रहे हैं पर यह भी समझना होगा कि भारत का बहुत बड़ा तबका रेलगाड़ी की संख्या पर निर्भर करता है जिसको लेकर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। फिलहाल बजट हर दृश्टिकोण से खराब नहीं हो सकता पर तमाम विरोधी इस बजट को न केवल निराषाजनक बल्कि देष के अहित में है जैसे वक्तव्य देने में लगे हैं।



सुशील कुमार सिंह

Tuesday, February 23, 2016

क्या हो आरक्षण का आधार

देश जब-जब आरक्षण की आग में झुलसा है तब-तब सियासत की परीक्षा के साथ देश की सम्पत्ति भी स्वाहा हुई है। 1990 के दशक में ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को लेकर जब मण्डल आयोग की सिफारिशों को वी.पी. सिंह सरकार ने लागू करने का इरादा जताया तब पूरे देश में हिंसा और तबाही का जो आलम था वैसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। काॅलेज से लेकर विश्वविद्यालय तथा संसद से लेकर सड़क तक इसका जोर सिर चढ़ कर बोल रहा था। करोड़ों की सम्पत्ति जहां खाक हो रही थी वहीं कईयों की जान भी इसमें गयी है साथ ही देश आरक्षण और गैर आरक्षण के बीच बंट गया था। व्यापक पैमाने पर ट्रेन, बस समेत करोड़ों की सरकारी सम्पत्ति की होली जलाई गई। छात्र आत्मदाह करने से भी बाज नहीं आये। इस मामले में दिल्ली विष्वविद्यालय के राजीव गोस्वामी का नाम पहले स्थान पर आता है। आखिरकार वर्श 1993 में पी.वी. नरसिंहराव सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिषों को विधिवत लागू कर दिया। लगभग ढ़ाई दषक होने के बाद भी आरक्षण के जिन्न से भारत को अभी भी छुटकारा नहीं मिला है। भले ही सरकार ने इन दिनों चल रहे जाट आरक्षण को लेकर पक्ष में हामी भर ली हो पर असलियत यह है कि अभी भी हरियाणा उबल रहा है। जाट आंदोलन का देष के उत्तरी राज्यों पर अलग-अलग हिस्सों में पड़े असर को जोड़ दिया जाए तो नुकसान की मात्रा 34 हजार करोड़ हो जाती है जिसका खुलासा औद्योगिक संगठन पीएचडी चैम्बर आॅफ काॅमर्स एवं इण्डेस्ट्री ने किया। पिछले एक हफ्ते में जाट आंदोलन के चलते पर्यटन सेवा, यातायात सेवा मुख्यतः सड़क और रेल परिवहन व वित्तीय सेवा को 18 हजार करोड़ रूपए का नुकसान सहना पड़ा। इसके अलावा कृशि कारोबार के साथ मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली निर्माण कार्य सहित खाद्य पदार्थों के कारोबार में होने वाला नुकसान 12 हजार करोड़ का है। यह भी अनुमान है कि सड़क, रेस्टोरेन्ट, रेलवे स्टैण्ड व अन्य के तोड़-फोड़ के चलते 4 हजार करोड़ का नुकसान किया गया। नुकसान का यह पूरा आंकलन हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, चंडीगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष तथा जम्मू कष्मीर समेत उत्तरी राज्यों से सम्बन्धित है। उक्त राज्य देष के जीडीपी में 32 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं। जाट आंदोलन ने हरियाणा में स्थापित कई मैन्यूफैक्चरिंग कम्पनियों को आर्थिक नुकसान की ओर धकेल दिया है। हरियाणा के मानेसर व गुडगांव प्लान्ट से रोजाना मारूति सुजुकी पांच हजार गाड़ियों का उत्पादन करती है। रविवार को छोड़ दिया जाए तो बाकी दिन इसी दर से यहां भी नुकसान जारी हैं।
इस आंदोलन के चलते जो आर्थिक नुकसान हुआ है उससे कई कारोबारियों को समस्याएं भी पैदा होंगी जिसे देखते हुए भारतीय उद्योग व्यापार मण्डल ने नुकसान की भरपाई हेतु विषेश पैकेज की मांग रखी है। इसके अलावा जान-माल की सुरक्षा की मांग भी की गई है। आर्थिक नुकसान की तीव्रता को देखते हुए मांग की जा रही है कि सरकार को सम्पत्ति नुकसान रोकथाम कानून, 1984 में बिना देरी किये संषोधन करना चाहिए। पूर्व अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने माना कि ऐसा करने से आंदोलन करने वाले नेताओं को सजा मिल सकेगी। फिलहाल ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की पहल भी देखी जा सकती है। तोड़-फोड़ पर हाई कोर्ट स्वतः सज्ञान लेकर जांच करें और मुआवजा भी तय करें यदि मामला एक से अधिक राज्यों का हुआ तो इसका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट स्वयं लेगा। इसके अलावा उच्चतम या उच्च न्यायालय के सेवारत् या सेवानिवृत्त न्यायाधीष ‘क्लेम कमिष्नर‘ नियुक्त होंगे जो नुकसान का आंकलन करेंगे। जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय होगी साथ ही नुकसान की भरपाई नुकसान पहुंचाने वालों से की जायेगी जो नुकसान से दुगुनी नहीं होगी साथ ही आपराधिक कार्रवाई चलती रहेगी। हालांकि 2009 में आंदोलनकारियों और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़े दिषा-निर्देष दिये थे। राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों की उदासीनता को देखते हुए इनसे निपटने के लिए हाई कोर्ट को भी कई षक्तियां दी थी। ये दिषा-निर्देष पांच राज्यों में गुर्जरों के हिंसक आंदोलन के चलते हुए सरकारी सम्पत्ति के नुकसान पर दिये गये थे।
पिछले एक वर्श के दौरान आरक्षण की मांग के चलते हुए तीन आंदोलन में करोड़ों की सम्पत्ति नश्ट हुई है। हरियाणा के जाट आंदोलन में तो यह नुकसान सर्वाधिक है। समझने की बात है कि यदि यही पैसा विकास में लगाया जाता तो प्रधानमंत्री मोदी की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं फलक पर होती। आरक्षण के लिए राजस्थान के गुर्जरों, गुजरात के पटेलों और अब हरियाणा के जाटों को देखें तो नुकसान होने वाली राषि खासी बड़ी हो जाती है। समझना तो यह भी है कि सम्पत्तियों का जो नुकसान हो रहा है वह देष के कर दाताओं से बनाई गयी है। एक ओर जहां देष में विकास के लिए जद्दोजहद चल रही है वहीं विनाष का खेल भी बादस्तूर जारी है। केन्द्र सरकार ने बीते दिनों स्टार्टअप इण्डिया कार्यक्रम के लिए चालू वित्तीय वर्श में 2000 करोड़ रूपए की राषि रखी जबकि राश्ट्रीय कौषल विकास का बजट 1500 करोड़ रूपए का है और डिजिटल इण्डिया के लिए राषि 2510 करोड़ है। विचार बिन्दु यह है कि क्या इन छोटी राषि की परियोजनाओं को इन बड़े नुकसानों के न होने से बड़ा बल नहीं मिलता? एक ओर जहां ‘मेक इन इण्डिया‘ के माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी विष्व भर के निवेषकों का भारत की ओर ध्यान आकर्शित कराने में लगे हैं तो वहीं दूसरी ओर देष में ही सरकारी सम्पत्तियों को बेरहमी से नश्ट किया जा रहा है और इसमें भी सर्वाधिक हरियाणा के जाट आंदोलनों से हुआ है उसके बाद क्रमषः गुजरात के पटेल आंदोलन और फिर राजस्थान के गुर्जर आंदोलन का स्थान आता है। देखा जाए तो सामाजिक और षैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्गों के आरक्षण का प्रावधान संविधान में निहित है पर आर्थिक नुकसान को जिस पैमाने पर किया जा रहा है वह संवैधानिक मर्यादाओं को भी तार-तार करने वाला है।
किसी भी समाज या राश्ट्र के लिए यह अनिवार्य है कि उसके सबसे पिछड़े और वंचित वर्ग का उत्थान किया जाए तभी वह राश्ट्र लोकतंत्र का आदर्ष प्रस्तुत कर सकता है और अपना विकास भी। पर उत्थान की मांग में उसी राश्ट्र की सम्पत्ति को स्वाहा किया जाए तब इसे क्या कहेंगे? भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोक कल्याणकारी संविधान की रचना की साथ ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर भी बल दिया बावजूद इसके लगभग सात दषकों से देष में नीति विज्ञान और उसके निश्पादन से जो संतुलन बनना चाहिए उसका षायद आभाव रहा। जिसके चलते जन मानस का मुख्यधारा से पिछड़ने और वंचित होने की परिघटना देष में व्याप्त होती रही। अब वही उत्थान की फिराक में आंदोलन को हथियार बनाने से नहीं चूक रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि आरक्षण की मांगों को लेकर संयम का निहायत आभाव रहा है। रेल रोकने, रेल-बस आदि फूंकने, सड़कों पर धरना देने से लेकर तोड़फोड़ करने सहित कई हिंसात्मक कृत्य में आरक्षण की मांग करने वाले लिप्त देखे गये हैं और ऐसे मामलों में सरकारें भी परिस्थितियों की सही विवेचना करने में विफल रही हैं साथ ही आर्थिक नुकसान की व्यापक तबाही के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंची हैं। हरियाणा मामले में लिया गया निर्णय इसका पुख्ता सबूत है। सबके बावजूद यह भी समझना होगा कि आरक्षण कूबत का जरिया नहीं है वरन् सामाजिक-षैक्षणिक पिछड़ेपन की भरपाई है जिसे पाने के लिए देष की सम्पत्ति को तबाह करना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। वास्तव में बल अथवा ताकत की मदद से आरक्षण की मां मनवाने वाले लोगों के खिलाफ सरकार को कानून का सहारा लेना चाहिए और उन्हें यह समझाने की कोषिष भी करनी चाहिए यह अपनी मांग मनवाने का सही तरीका नहीं है। इस तरह के प्रयासों से समाज के अन्य वर्गों में भी गलत धारणा जन्म लेगी और वह भी कुछ इसी तरह का रास्ता अपनाने की कोषिष कर सकते हैं, जिससे समाज में भी संघर्श बढ़ेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Monday, February 22, 2016

स्वप्रमाणित हो देशभक्ति

विचारधाराओं का अन्त, वाद-विवाद का जन्म दो परस्पर स्कूलों के बीच 1960 के दषक में प्रारम्भ हुआ तत्कालीन समय में दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं से तात्पर्य है उदारवादी (पूंजीवादी) एवं साम्यवादी। पहली विचारधारा का नेतृत्व अमेरिका जबकि दूसरे का पूर्व सोवियत संघ के हाथों में था लेकिन आधुनिक चिंतकों का एक मत यह भी है कि आज के संदर्भ में कोई भी देष विचारधारा पर चलने का दावा नहीं कर सकता। यहीं से विचारधाराओं का अन्त परिलक्षित होने लगता है। भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ और देष की सम्प्रभुता को कायम रखने के लिए पूरी कूबत भरा संविधान भी साथ लेकर चलता रहा जिसके सात दषक पूरे होने वाले हैं। भारत न तो 1960 के उन देषों की पंक्ति में खड़ा था जहां विचारधाराओं का अंत हो रहा था और न ही ऐसी चाहत से भरा था जहां से देष को ठेस पहुंचाने वाली कोई सुलगती आफत आती हो। दो ध्रुवों में बंटे विष्व के बीच भारत ने एक रास्ता नहीं अपनाया वरन् पूंजीवाद के साथ समाजवाद को लेकर अपना नया मार्ग बनाया जिस पर आज भी उसे कायम होते हुए देखा जा सकता है। औपनिवेषिक काल में भी कई विचारधाराएं अन्दर ही जन्म ले रही थीं जिसका विस्तार आज की भारतीय राजनीति में बाकायदा देखा जा सकता है। जेएनयू प्रकरण ने देष में दो विचारधाराओं को एक बार फिर आनन-फानन में उदय कर दिया है एक वो जो देष और उसकी राश्ट्रभक्ति में सर्वस्व न्यौछावर कर रहे हैं और दूसरे वे जिन्हें देष के अमन-चैन से तकलीफ है। देष भर के समाचारपत्रों और टीवी चैनलों पर भी बहस छिड़ी है। देखा जाए तो देष का चैथा स्तम्भ भी विचारों में बंटा हुआ है। बंटवारा किसके हिस्से में कितना मुनाफे वाला है इसकी पड़ताल आगे होती रहेगी।
एक बड़ी खूबसूरत कहावत है कि ‘जब हम आराम के दिनों में होते हैं तो आराम छोड़कर बाकी सब कुछ करते हैं।‘ भारत स्वतंत्रता से लेकर करीब-करीब 90 के दषक तक कई आधुनिक संदर्भों और नवनूतन विकास में पीछे रहा। तब हमारी विचारधाराएं और संघर्श इतने विचलित नहीं थे। उदारीकरण से लेकर अब तक देष ने और देष के लोगों ने विकास के साथ उत्थान और गति को भी हासिल कर लिया। हैरत यह है कि देष से जो मिला उसके ऋण उतारने के बजाय अब ऊंच-नीच करने पर उतारू हैं। कई लोग इसे खूबसूरत लोकतंत्र की संज्ञा भी दे रहे हैं। मैं यहां 9 फरवरी के जेएनयू प्रकरण को लेकर बात कहने की कोषिष कर रहा हूं। यहां जो हुआ उसे लेकर सियासत तो गरम है ही, देष के नागरिकों में भी अलग-अलग मानकों पर उबाल है और इस बात पर भी जोर है कि किसकी देषभक्ति कितनी बड़ी है। चूंकि मामला विष्वविद्यालय से उभरा था ऐसे में पहले उन्हें ही देषभक्ति सिद्ध करनी थी। इसी के मद्देनजर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने निर्णय लिया कि प्रत्येक केन्द्रीय विष्वविद्यालय जिनकी संख्या देष में 47 है वे रोज 207 फीट ऊंचा तिरंगा फहरायेंगे। कईयों ने सवाल भी उठाया कि तिरंगा तो ठीक है पर इसकी ऊंचाई इतनी क्यों? कुछ ने तो यह भी कहा कि देषभक्ति की परीक्षा केन्द्रीय विष्वविद्यालय ही क्यों दें, बाकी विष्वविद्यालय भी इस परिधि में क्यों नहीं? हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की यह पहल जेएनयू से ही षुरू की जा रही है जहां से देष के टूटने की आवाज आई थी। देखा जाए तो संविधान में निहित अनुच्छेद 19(1)क इन तमाम के बीच में आ गया। यह सही है कि यही अनुच्छेद हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है। समझने की एक बात और यह है कि हमारी अभिव्यक्ति में यह अनुच्छेद जितना मजबूत है उतना ही कमजोर भी प्रतीत होता है इसे समझने की जहमत किसी ने ही षायद उठाई हो। मसलन हम भारत माता की जय कर सकते हैं, वन्दे मातरम् भी कर सकते हैं और वह सब कुछ कर सकते हैं जिसमें राश्ट्रहित के साथ कोई अनहोनी न हो और इसकी आड़ में हम स्वहित भी साध सकते हैं बषर्ते मर्यादा का ख्याल रहे। पर इसकी कमजोरी यह है कि इस प्रावधान की अपनी एक नैतिक सीमा है जिसे समझने में कुछ लोग भूल कर रहे हैं वहीं इसे कमजोर भी बना रहे हैं साथ ही इसकी आड़ में इसे महिमामण्डित भी कर रहे हैं। अफजल की आजादी, कष्मीर की आजादी और भारत तेरे होंगे टुकड़े-टुकड़े आदि की अभिव्यक्ति की इजाजत यह प्रावधान नहीं देता है। यह तो साफ है कि जेएनयू में जो किया गया वह अभिव्यक्ति में तो नहीं आता पर जिस कदर इस प्रकरण को सियासी दलों ने ‘हाइजैक‘ किया उसे भी सही नहीं कहा जा सकता। विचारों में बंटे सियासी दल अपनी-अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और सीमा पर सुरक्षा देने वाले बर्फ के रेगिस्तान में जान दे रहे हैं। यहां पर भी विचारधाराओं का कोई मेल नहीं है।
विचारधारा से ही आदर्ष समाज की परिकल्पना की जाती है। विचारधाराएं सामाजिक परिवर्तन पर बल देती हैं। देषभक्ति भी एक विचारधारा ही है। इसके अलावा फांसीवाद, यथास्थितिवाद, साम्राज्यवाद आदि भी विचारधाराएं ही हैं जिनका भारत से कोई लेना-देना नहीं है। मौजूदा स्थिति में देष कई सियासी विचारधाराओं से भी युक्त है जैसे कांग्रेसी विचारधारा, भाजपा की विचारधारा, समाजवादी विचारधारा और वामपंथी समेत कई अन्य विचारधाराएं मौजूद हैं। सवाल तो यह है कि विचारधाराओं का विकास और उसका निश्पादन देष की उन्नति और उत्थान का जरिया बन रहा है या नहीं। यदि विचारधारा उस स्वतंत्रता को हासिल करने की फिराक में हो  जिससे का अस्तित्व खतरे में पड़ता हो तो ऐसी विचारधाराओं का देष में फिलहाल इजाजत नहीं है। भारतीय संविधान भी दो विचारधाराओं से कसा हुआ है एक संघात्मक तो दूसरा एकात्मक। संविधान भी साफ करता है कि सामान्य परिस्थितियों में संघात्मक का निश्पादन जबकि आपात की परिस्थितियों में एकात्मक लक्षण से युक्त होगा। कई यह भी मानते हैं कि देष में इन दिनों अघोशित आपात की स्थिति प्रतीत होती है। इसे भी एक विचारधारा कह सकते हैं पर पूरी सच्चाई पड़ताल का विशय है। जाहिर है संविधान में ऐसे किसी षब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। देष में ऐसा भी रहा है कि विचारधाराओं ने अपनी जड़े जमाने के लिए ‘ग्रेषम का नियम‘ भी अपना ली हैं इसका एक आर्थिक है कि ‘बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा‘ को बाजार से बाहर कर देती है। इसी तर्ज पर देखें तो खराब विचारधाराएं पैठ बनाने के चक्कर में अच्छी विचारधाराओं का दमन और षोशण भी करती हैं। जेएनयू में भारत के खिलाफ जो विचारधारा उठी वह उसी बुरी मुद्रा की तरह है जो अपने हो-हल्ले के चलते और सियासी दलों के समर्थन के चलते अच्छी विचारधारा का लोप करना चाहती है।
लोकतांत्रिक विचारधाराओं का भी कई प्रारूप है मसलन समावेषी लोकतंत्र, विमर्षीय लोकतंत्र आदि। विमर्षीय लोकतंत्र का आभासी परिप्रेक्ष्य यह है कि यह मसले को चर्चे के केन्द्र में लाती है पर इसका नकारात्मक पहलू यह है कि यदि यह अभिजात्य के हाथों में चली गई तो रास्ते से भटक सकती है। जेएनयू में जो चर्चा थी वह न तो विमर्षीय लोकतंत्र में आती है और न ही इसमें कोई अन्य प्रकार की लोकतांत्रिक चीज षामिल थी। मानो यह देष को एक नई समस्या में जकड़ने का एक नियोजित कार्यक्रम था। जेएनयू परिघटना को एक पखवाड़ा बीतने के बाद भी देष इससे मुक्त होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा। इसी से पता चलता है कि ऐसे विमर्ष और वाद-विवाद भारत के लिए कितनी तबाही बन सकते हैं। संदर्भ यह भी है कि देषभक्ति के पैमाने पर किसे क्या करना चाहिए यह कोई नहीं सिखाएगा बल्कि यह स्वयं का एक विशय है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Friday, February 19, 2016

जेएनयू मामले में कांग्रेस का सिद्धांत और व्यवहार

लोकतंत्र केवल षासन का ही रूप नहीं बल्कि व्यक्ति के आत्मविकास का भी साधन है। पर इसी लोकतंत्र की आड़ में ऐसी क्रियाओं का उत्पादन होने लगे जो इसके अस्तित्व के लिए ही चुनौती हो तब क्या होगा? समकालीन लोकतंत्र का एक प्रमुख सिद्धान्त ‘विमर्षीय लोकतंत्र‘ भी है इसका अभिप्राय ‘चर्चा की स्वतंत्रता‘ है। मगर इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी है कि वह व्यक्ति की तुलना में समूह पर बल देता है। कहीं-कहीं समूह में नेतृत्व की भावना का उदय हो जाता है। इतना ही नहीं इस प्रकार के लोकतंत्र में विषिश्ट वर्ग का प्रभाव किसी न किसी रूप में जुड़ जाता है इन्हीं प्रभावों के चलते यह अपने असल मार्ग से भटक भी सकता है। जेएनयू प्रकरण की वर्तमान वास्तुस्थिति इसी प्रकार के तथाकथित संदर्भों से निहित प्रतीत होती है। बीते 9 फरवरी को जेएनयू में इसी चर्चा की स्वतंत्रता के चक्कर में कब संविधान की मर्यादा तार-तार हो गयी किसी को इसका ध्यान ही नहीं रहा। जितनी भी लानत-मलानत देष को लेकर हो सकती थी वह सब यहां थोक के भाव देखा जा सकता है। पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे से लेकर भारत तेरे होंगे टुकड़े-टुकड़े की गूंज के साथ कष्मीर की आजादी और आतंकी अफज़ल गुरू की हिमायत वाली करतूत भी यहां देखी जा सकती है। समस्या तब और बढ़ जाती है जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ऐसे वक्तव्यों को अभिव्यक्ति की आजादी कहते हुए सियासी रंग देते हुए जाने-अनजाने इसका समर्थन कर देते हैं साथ ही प्रधानमंत्री मोदी पर यह आरोप मढ़ना कि मोदी सरकार जेएनयू जैसे संस्थान पर अपनी धौंस जमा रही है जो पूरी तरह निंदनीय है।
लोकतंत्र की एक मूल मान्यता और आधार तत्व ‘न्याय‘ है जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय पर बल दिया जाता है। इसके अलावा भी कई अच्छे मानकों से लोकतंत्र भरा पड़ा है पर इसके साथ अन्याय करने वालों की भी कमी नहीं है। कई इस बात का दम भरते हैं कि वे करोड़ों की आवाज है जबकि यह पूरा सच नहीं है परन्तु यह तब तक मुगालते में रहते हैं जब तक जनता का सामना नहीं होता। भारत में प्रति पांच वर्श की दर पर चुनाव होते हैं तब पता चलता है कि ये कितनों की आवाज हैं। मई 2014 के 16वीं लोकसभा के नतीजे इस बात का समर्थन करते हैं कि फिलहाल कांग्रेस मात्र मुट्ठी भर लोगों की आवाज बन कर रह गयी है जबकि वामपंथ तो सिर्फ भारतीय राजनीति में सांस लेने का काम कर रहा है परन्तु जो भारी-भरकम आवाज के साथ देष में स्वीकार्य बहुमत की सरकार में है वही लोग उसे आवाज दबाने वाला बता रहे हैं। राजनीति इस बात के लिए भी रोचक कही जायेगी कि विरोधी कमतर होने के बावजूद सरकार को अधिकतम मानने की भूल नहीं करते। हद तो तब हो जाती है जब विरोध करने वाले विरोधी धर्म ही भूल जाते हैं। भारत इन दिनों ‘राइट-लेफ्ट‘ के चक्कर में भी फंस गया है। मोदी सरकार के अलावा सारे राजनीतिक दल विरोध की राजनीति करेंगे इसे सब समझते हैं पर राश्ट्रीय एकता और अखण्डता के सवाल पर भी यह विरोध कायम रहेगा इसे षायद ही कोई उचित ठहराये। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि औपनिवेषिक काल के उन दिनों में भी वामपंथी विचारधारा का इनसे कोई मेल-मिलाप नहीं था। उस जमाने में भी मामला ‘राइट-लेफ्ट‘ ही था। 70 साल के आजादी के इतिहास के बाद भी अभी यह बात झुठलाई नहीं गई है परन्तु एक बार 2004 में 14वीं लोकसभा के समय वामपंथ के समर्थन से कांग्रेस ने सरकार हांकी थी पर खामियाजा क्या हुआ, न्यूक्लियर मामले में समर्थन वापसी के चलते सरकार मायावती और मुलायम की वजह से पटरी से उतरते-उतरते बची थी। तब से लेकर अब तक कांग्रेस और वामपंथ दो किनारे की तरह ही रहे हैं पर जेएनयू प्रकरण के चलते इनको एक बार फिर एक साथ होने का मौका मिला है।
भारत के वर्तमान सियासी परिप्रेक्ष्य को देखते हुए क्या यह समझा जाना चाहिए कि इन दिनों कांग्रेस और वामपंथ विरोधी धर्म निभा रहे हैं या यह समझना चाहिए कि मोदी सरकार के विरोध के लिए गैर वाजिब को लेकर सुर मिला रहे हैं। इतनी सरल सी बात क्यों समझने में गलती हो रही है और वह गलती कांग्रेस के हिस्से में सर्वाधिक है, यह कि संविधान की प्रस्तावना में लिखित ‘राश्ट्रीय एकता और अखण्डता‘ और मूल अधिकार में निहित अनुच्छेद 19(1)क के तहत मिली ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता‘ की भी अपनी सीमाएं और मर्यादाएं हैं इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि कुछ भी बोल कर इन प्रावधानों के तहत स्वयं को सही ठहरा देंगे। जेएनयू में जो हुआ वह संविधान की मर्यादा को तो तार-तार करता ही है, देष की कानून व्यवस्था के लिए भी बहुत बड़ा खतरा है। गुटों में बंटे छात्र जिस कदर आमने-सामने हैं वह भी चिन्ता का विशय है साथ ही देष के अन्य विष्वविद्यालय भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। माना कि षिक्षा हस्तांतरण के साथ विष्वविद्यालय नेतृत्व और कौषल विकास के जरिया भी हैं पर यह कैसा कौषल विकास जो देष के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। जेएनयू में हुई देष विरोधी घटना को सिरे से नकारना चाहिए और जो न्यायोचित हो उस पर अमल करना चाहिए। कांग्रेस इस मामले में एक अच्छा रास्ता अख्तियार कर सकती थी पर दुर्भाग्य से वह ऐसी चूक कर गई जिसमें उसकी सियासत तो गरम हो गयी पर जो वातावरण बना षायद उसे वो भी नहीं चाहती रही होगी। रही बात सरकार की तो सरकार ने जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके क्या कोई गलत कदम उठाया है, इसका भी खुलासा बाद में हो जायेगा पर जिस प्रकार कांग्रेस देष को कन्फ्यूज़ करने की कोषिष कर रही है उसे कहीं से जायज़ कैसे करार दिया जा सकता है। जेएनयू में दिये बयान के चलते राहुल गांधी पर इलाहाबाद के एक न्यायालय ने कई धाराओं में मुकद्मा दर्ज करने का आदेष भी दिया है।
फिलहाल देखा जाए तो कांग्रेस सर्वाधिक पुरानी पार्टी है पर 65 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में 12 वर्श ही विरोध की भूमिका में रही है और 16वीं लोकसभा में तो विरोध भी मान्यता प्राप्त नहीं है। यह भी देखा गया है कि विगत् 20 महीनों से कांग्रेस मोदी सरकार को हर छोटे-बड़े मसले में संसद से लेकर सड़क तक  घेरती रही है। यही घेरने वाली आदत के चलते जेएनयू जैसे संवेदनषील मुद्दे पर भी राहुल गांधी ने ऐसा वक्तव्य दे दिया जिससे देष दो विचारों में बंटता दिखाई दे रहा है। सिद्धान्त और व्यवहार की दृश्टि से कांग्रेस को समय के साथ रूख बदल लेना चाहिए और देष की एकता और अखण्डता के मामले में बिना किसी पक्ष और प्रतिपक्ष के एक सुर में खड़े होने चाहिए। राहुल गांधी का छात्रों की गिरफ्तारी को गलत बताने का विचार आना समझा जा सकता है पर यह कहना कि ‘सबको अपनी बात कहने का हक‘ है, इसलिए समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि देष को तोड़ने वाली बातें किस ढांचे के अन्तर्गत हकदारी में आती हैं। उनके द्वारा यह भी कहना कि ‘आवाज दबाने वाला देषद्रोही‘ है, बेषक आवाज नहीं दबाई जानी चाहिए पर क्या अफज़ल गुरू के समर्थन में और कष्मीर की आजादी की आवाज़ को भी नहीं दबाना चाहिए? फिलहाल देष में विधि व्यवस्था से पूर्ण न्यायपालिका है जो निरपेक्ष है जिस पर सभी का भरोसा है समय आने पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

Wednesday, February 17, 2016

इस 'किन्तु-परन्तु' के बीच

शिक्षा या शोध तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक सामुदायिक सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी से निहित षिक्षा न हो। ठीक उसी भांति षैक्षणिक दुनिया तब तक पूरी नहीं कही जा सकती जब तक स्त्री षिक्षा की भूमिका पुरूश की भांति सुदृढ़ नहीं हो जाती। आज यह सिद्ध हो चुका है कि अर्जित ज्ञान का लाभ कहीं अधिक मूल्य युक्त है। ऐसे में समाज के दोनों हिस्से यदि इसमें बराबरी की षिरकत करते हैं तो लाभ भी चैगुना हो सकता है। देखा जाए तो 19वीं सदी की कोषिषों ने नारी षिक्षा को उत्साहवर्धक बनाया। इस सदी के अन्त तक देष में कुल 12 काॅलेज, 467 स्कूल और 5,628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे जबकि छात्राओं की संख्या साढ़े चार लाख के आस-पास थी। औपनिवेषिक काल के उन दिनों में जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराईयां व्याप्त थीं और समाज भी रूढ़िवादी परम्पराओं से जकड़ा था बावजूद इसके राजाराम मोहन राय तथा ईष्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे इतिहास पुरूशों ने नारी उत्थान को लेकर समाज और षिक्षा दोनों हिस्सों में काम किया। नतीजे के तौर पर नारियां उच्च षिक्षा की ओर न केवल अग्रसर हुईं बल्कि देष में षैक्षणिक लिंगभेद व असमानता को भी राहत मिली। हालांकि मुस्लिम छात्राओं का आभाव उन दिनों बाखूबी बरकरार था। वैष्विक स्तर पर 19वीं सदी के उस दौर में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी में लड़कियों के लिए अनेक काॅलेज खुल चुके थे और कोषिष की जा रही थी कि नारी षिक्षा भी समस्त षाखाओं में दी जाए।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह आधार बिन्दु तय हो चुका था कि पूर्ववत षैक्षणिक व्यवस्थाओं के चलते यह सदी नारी षिक्षा के क्षेत्र में अतिरिक्त वजनदार सिद्ध होगी। सामाजिक जीवन के लिए यदि रोटी, कपड़ा, मकान के बाद चैथी चीज उपयोगी है तो वह षिक्षा ही हो सकती थी। सदी के दूसरे दषक में स्त्री उच्च षिक्षा के क्षेत्र में लेडी हाॅर्डिंग काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय की स्थापना इस दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम था। आजादी के दिन आते-आते प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विष्वविद्यालय आदि में अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 42 लाख के आस-पास हो गयी और इतना ही नहीं इनमें तकनीकी और व्यावसायिक षिक्षा का भी मार्ग प्रषस्त हुआ। इस दौर तक संगीत और नृत्य की विषेश प्रगति भी हो चुकी थी। 1948-49 के विष्वविद्यालय षिक्षा आयोग ने नारी षिक्षा के सम्बंध में कहा था कि ‘नारी विचार तथा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्षित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्षों के अनुकूल पृथक रूप से षिक्षा पर विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता के दस बरस के बाद छात्राओं की संख्या कुल 88 लाख के आस-पास हो गयी और इनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्रों में दिखने लगा। वर्तमान में स्त्री षिक्षा सरकार, समाज और संविधान की कोषिषों के चलते कहीं अधिक उत्थान की ओर है। नब्बे के दषक के बाद उदारीकरण के चलते षिक्षा में भी जो अमूल-चूल परिवर्तन हुआ उसमें एक बड़ा हिस्सा नारी क्षेत्र को भी जाता है। वास्तुस्थिति यह भी है कि पुरूश-स्त्री समरूप षिक्षा के अन्तर्गत कई आयामों का जहां रास्ता खुला है वहीं इस डर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आपसी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
आज आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गये हैं। इसी के अनुपात में षिक्षा और दक्षता का विकास भी बदलाव ले रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पछाड़ दिया है और इस सच से भी किसी को गुरेज नहीं होगा कि परम्परागत षिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है, अब विकट स्थिति यह है कि नारी से भरी आधी दुनिया मुख्यतः भारत को षैक्षणिक मुख्य धारा में पूरी कूबत के साथ कैसे जोड़ा जाए। बदलती हुई स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा चोट स्त्री षिक्षा पर होगा। यद्यपि विज्ञान के उत्थान और बढ़ोत्तरी के चलते कई चमत्कारी उन्नति भी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 1947 से 1980 के बीच उच्च षिक्षा में स्त्रियों की संख्या 18 गुना बढ़ी है और अब तो इसमें और तेजी है। कुछ खलने वाली बात यह भी है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर की जो षिक्षा व्यवस्था है उससे देष पीछे है। विष्वविद्यालय जिस सरोकार के साथ षिक्षा व्यवस्था को अनवरत् बनाये हुए हैं उससे तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि संचित सूचना और ज्ञान मात्र को ही यह भविश्य की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में लगे हैं। इससे पूरा काम तो नहीं होगा। कैरियर के विकास में स्त्रियों की छलांग बहुआयामी हुई है पर इसके साथ पति, बच्चों, परिवार के साथ ताल-मेल बिठाना भी चुनौती रही है। काफी हद तक उनकी सुरक्षा को लेकर भी चिन्ता लाज़मी है। बावजूद इसके आज पुत्री षिक्षा को लेकर पिता काफी सकारात्मक महसूस कर रहे हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार 65 फीसदी से अधिक महिलाएं षिक्षित हैं पर सषक्तिकरण को लेकर संषय अभी बरकरार है इसके पीछे एक बड़ी वजह नारी षिक्षा ही है परन्तु जिस भांति नारी षिक्षा और रोजगार को लेकर बहुआयामी दृश्टिकोण का विकास हो रहा है अंदाजा है कि भविश्य में ऐसे संदेह से भारत परे होगा। सषक्तिकरण की प्रक्रिया में षिक्षा की भूमिका के साथ साध्य और साधन की मौजूदगी भी जरूरी है साथ ही सामाजिक-आर्थिक विकास को भी नहीं भूला जा सकता है। समाज के विकास में स्त्री भूमिका को आज कहीं से कमतर नहीं आंका जाता मगर यह आज भी पूरी तरह कई किन्तु-परन्तु से परे भी नहीं है। 2011 की जनगणना में निहित धार्मिक आंकड़ों का खुलासा मोदी सरकार द्वारा हाल ही में किया गया था जिसे देखने से पता चलता है कि लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है। सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि सिक्ख, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को इस स्तर पर बेहद सचेत होने की आवष्यकता है इसमें भी स्थिति सबसे खराब सिक्खों की है जहां 47.44 फीसद महिलाएं हैं जबकि हिन्दू महिलाओं की संख्या 48.42 वहीं मुस्लिम महिलाएं 48.75 फीसदी हैं। केवल इसाई महिलाओं में स्थिति ठीक-ठाक और पक्ष में कही जा सकती है। देखा जाए तो स्त्रियों से जुड़ी दो समस्याओं में एक उनकी पैदाइष के साथ सुरक्षा का है, दूसरे षिक्षा के साथ कैरियर और सषक्तिकरण का है पर रोचक यह है कि यह दोनों तभी पूरा हो सकता है जब पुरूश मानसिकता कहीं अधिक उदार के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की है। हालांकि वर्तमान में अब ऐसे आरोपों को खारिज होते हुए भी देखा जा सकता है क्योंकि स्त्री सुरक्षा और षिक्षा को लेकर सामाजिक जागरूकता तुलनात्मक कई गुना बढ़ चुकी है।
मानव विकास सूचकांक को तैयार करने की षुरूआत 1990 से किया जा रहा है। ठीक पांच वर्श बाद 1995 में जेंडर सम्बन्धी सूचकांक का भी उद्भव देखा जा सकता है। जीवन प्रत्याषा, आय और स्कूली नामांकन तथा व्यस्क साक्षरता के आधार पर पुरूशों से तुलना किया जाए तो आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि नारियों की स्थिति को लेकर अभी भी बहुत काम करना बाकी है। विकास की राजनीति कितनी भी परवान क्यों न चढ़ जाए पर स्त्री षिक्षा और सुरक्षा आज भी महकमों के लिए यक्ष प्रष्न बने हुए हैं। स्वतंत्र भारत से लेकर अब तक लिंगानुपात काफी हदतक निराषाजनक ही रहा है। हालांकि साक्षरता के मामले में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। वर्तमान मोदी सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ से लेकर कई ऐसे कार्यक्रमों को विकसित करने का प्रयास किया है जिससे कि इस दिषा में और बढ़त मिल सके फिर भी कई असरदार कार्यक्रमों और परियोजनाओं को नवीकरण के साथ लाने की जगह आगे भी बनी रहेगी साथ ही उनका क्रियान्वयन भी समुचित हो जिससे कि षैक्षणिक दुनिया में नारी को और चैड़ा रास्ता मिल सके।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Tuesday, February 16, 2016

बजट सत्र के मार्ग में कांटे

वह सवाल जो हम सबके सामने मुंह बाये खड़ा है, यह कि उत्पन्य नये प्रकरणों के चलते 23 फरवरी से षुरू होने वाले बजट सत्र का क्या होगा? प्रधानमंत्री मोदी समेत पूरी मंत्रीपरिशद् इसे लेकर घोर चिंता में जरूर होगी। षायद इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने मंगलवार को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें बजट सत्र संसद में ठीक-ठाक ढंग से चल सके इसे लेकर चर्चा की जानी थी। कहा तो यह भी जा रहा है कि जेएनयू का मुद्दा इस बैठक में उठाया गया। फिलहाल मोदी ने दोनों सदन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विपक्षी दलों से खुलकर सहयोग मांगा है। देखा जाए तो सत्र से पहले ऐसी बैठकों का चलन रहा है। फिलहाल वर्तमान में कई समस्याओं से घिरी सरकार की इस बजट सत्र में एक बार फिर परीक्षा होनी है। बीते वर्श के तीनों सत्रों मसलन बजट सत्र, मानसून सत्र और षीत सत्र के हाल को देखकर अनुमान लगाना सहज है कि विरोधी षायद ही इस सत्र में षांत बैठें। देखा जाये तो वर्श की षुरूआत से ही सरकार कई समस्याओं से घिरती चली गयी। 2016 के दूसरे दिन ही पठानकोट में हुए आतंकी हमले से जहां देष कई दिनों तक असुरक्षित रहा वहीं पाकिस्तान के साथ सरकार को काफी कसरत करनी पड़ी जो अभी भी जारी है। दूसरा पखवाड़ा समाप्त नहीं हुआ था कि हैदराबाद के केन्द्रीय विष्वविद्यालय में रोहित वेमुला नामक षोध छात्र की आत्महत्या ने देष भर में सिरे से एक बार फिर नई समस्या का आगाज कर दिया जिसे लेकर सरकार के मंत्री की जवाबदेही से आज भी मुक्ति नहीं मिली है और प्रधानमंत्री मोदी को भी काफी साफ-सफाई देनी पड़ी है। इस षोरगुल के बीच अरूणाचल प्रदेष की सियासत भी पटरी से उतर गयी और गणतंत्र दिवस के दिन उसे राश्ट्रपति षासन के हवाले करना पड़ा जिसे लेकर ने केवल सियासत गरम हुई बल्कि सुप्रीम कोर्ट भी संतुश्ट नजर नहीं आया। इन समस्याओं से निपटने का निदान खोज पाने से पहले ही देष के सर्वाधिक प्रतिश्ठित विष्वविद्यालय में षुमार जेएनयू में हुई एक देष विरोधी घटना से सभी के होष पख्ता हो गये जिसे लेकर इन दिनों सियासत का बाजार गरम है।
ताजा हालात यह है कि जेएनयू का मामला धूं-धूं कर जल रहा है और इस पर की जा रही सियासत भी फलक पर है साथ ही रोजाना आरोप-प्रत्यारोप की बारिष भी जारी है। अब यह मामला जेएनयू परिसर से निकलकर देष भर में सुलग रहा है। जेएनयू में क्या हुआ, क्यों हुआ और अब क्या हो रहा इसे 9 फरवरी से मीडिया के कई प्रारूपों में देखा जा सकता है। महत्वपूर्ण संदर्भ यह है कि इसी दरमियान सप्ताह भर के अन्दर बजट सत्र का आगाज होना है जिसे लेकर सरकार की मुख्य चिंता यह है कि इस सत्र को कैेसे बेहतर बनाया जाये। एक तरफ देष में उपजी समस्याएं तो दूसरी तरफ बजट सत्र में टकटकी लगाये देष की वो जनता जो इस उम्मीद में है कि इस बार वित्त मंत्री अरूण जेटली के पिटारे से सुख-सुविधा का संचार होगा। हालात जिस कदर स्वरूप बदल रहे हैं उसकी परछाई बजट सत्र पर न पड़े ऐसा कह पाना मुष्किल है। सभी विवादों में सरकार का षीर्श नेतृत्व और विपक्ष के आमने-सामने होने के कारण रास्ता निकालने की उम्मीद भी धुंधली दिखाई दे रही है। यह भी समझना है कि सत्र के तुरन्त बाद असम और पष्चिम बंगाल के चुनाव भी होने हैं। इसे देखते हुए भी सियासी कट्टरता घटने के बजाय बढ़ने की संभावना लिए हुए है। सरकार और विपक्ष के रिष्ते की खाई पहले से ही बेहद चैड़ी है। इस असर से भी बजट सत्र षायद ही बच पाये। बावजूद इसके इस बात को भी समझना जरूरी है कि यह पहला सत्र नहीं है जब तमाम समस्याओं से घिरता हुआ न दिखाई दे रहा हो। इसके पहले के सत्रों के हाल भी बेहाल रहे हैं।
अमूमन ऐसा देखा गया कि राजनीतिक दल मुख्यतः विरोधी बिना किसी होमवर्क के सरकार के क्रियाकलापों पर प्रतिक्रिया देने से नहीं हिचकिचा रहे हैं। एक वर्श में तीन सत्र होते हैं जिसकी षुरूआत में बजट सत्र है। आंकड़े दर्षाते हैं कि विगत् डेढ़ दषकों में साल 2015 का बजट सत्र सबसे अच्छा था। लोकसभा अपने निर्धारित समय में 125 फीसद और राज्यसभा ने 101 फीसद काम किया। आंकड़े संतुश्ट करने वाले जरूर हैं पर जिस प्रकार मायूसी के बादल इन दिनों छंटे नहीं हैं उसे देखते हुए सरकार परेषान नहीं होगी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। यह बात भी संदेह से परे नहीं है कि संसद का यह बजट सत्र भी कई सवालों के साथ अड़ंगेबाजी में नहीं उलझेगा। विरोधी हर हाल में मोदी सरकार को पुरानी कई क्रियाकलापों के चलते अपनी सियासी चालों से मात देने की कोषिष करेंगे। सरकार की सबसे बड़ी दुखती रग जीएसटी है जिससे पाड़ पाना असम्भव तो नहीं पर कठिन जरूर है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तारीफ प्राप्त कर चुके जीएसटी की तस्वीर अभी भी साफ नहीं है पर सरकार उम्मीद कर रही है कि पारित करा लिया जायेगा जबकि विपक्षी पार्टियों में इसका जिक्र ही नहीं आया है। बाकी दर्जनों सूचीबद्ध विधेयक आज भी संसद की चैखट पर उसकी संस्तुति की प्रतीक्षा में है। लोकतंत्र की इस व्यवस्था में सत्र की बड़ी एहमियत होती है। इन दिनों संसद में देष की जनता की गूंज उठती है। बीते दिसम्बर का षीत सत्र निहायत निराषा से भरा था इसकी भरपाई में भी यह बजट सत्र काम आ सकता है पर इसके लिए विरोधियों को बड़ा दिल दिखाना होगा और सरकार के उन कृत्यों को आगे बढ़ाने में मदद करनी होगी जो देषहित में है। हालांकि इस बार तो जेएनयू समेत कई प्रकरण के चलते सरकार की जवाबदेही बढ़ी है। फिलहाल लोकसभा में पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार राज्यसभा पर निर्भर विधेयकों पर भले ही मात खा जाये पर बजट के मामले में तो सब कुछ मन माफिक ही रहेगा।
बजट सत्र की तारीखें तय करने से पहले सरकार ने कुछ विपक्षी पार्टियों से बात की थी संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू ने कांग्रेस, जेडीयू, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम समेत समाजवादी पार्टी के नेताओं से इस पर मुलाकात की थी। वैसे बजट सत्र हमेषा दो हिस्सों में होता है ताकि बीच के अवकाष में स्टैंडिंग कमेटियों में सम्बन्धित मंत्रालय की अनुदान मांगों पर चर्चा हो सके। इस बार पष्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुचेरी, असम में अप्रैल-मई तक विधानसभा चुनाव होने हैं। इस लिहाज़ से राजनीतिक दल व्यस्त रहेंगे इसे देखते हुए बजट सत्र को दो हिस्सों में कराने के बजाय सरकार का एक साथ कराने का इरादा था पर आम राय न बनने के कारण अब यह पहले जैसा ही होगा। राश्ट्रपति अभिभाशण 23 फरवरी को होगा और रेल बजट की पेषगी 25 फरवरी को जबकि आम बजट 29 फरवरी को पेष किया जायेगा। बजट का पहला हिस्सा 16 मार्च तक वहीं दूसरा हिस्सा 40 दिन की छुट्टी के बाद 25 अप्रैल से षुरू होकर 13 मई तक चलेगा। पीएम की सर्वदलीय बैठक जो बीते मंगलवार को सम्पन्न हुई है उसमें लगभग यह सहमति बन गयी है कि सत्र सुचारू रूप से चलाया जायेगा। हालांकि विपक्षी दलों ने बजट सत्र से पूर्व एक बैठक में जेएनयू प्रकरण पर प्रधानमंत्री से स्पश्टीकरण मांगा है और अनुमान है कि संसद सत्र में जेएनयू समेत सभी मुद्दों पर चर्चा होगी। ऐसा करना सरकार की फिलहाल मजबूरी भी है क्योंकि सरकार जानती है कि इससे कम में विरोधी मानेंगे नहीं। पहले की स्थिति को देखते हुए  सरकार इस बजट सत्र को लेकर कोई जोखिम भी नहीं लेना चाहेगी।


सुशील कुमार सिंह
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Sunday, February 14, 2016

दिल्ली की गद्दी पर केजरीवाल का एक वर्ष

लोकतंत्र का अर्थ देष काल और परिस्थितियों के अनुपात में स्वयं परिश्कृत होता रहा है। दिल्ली राज्य की राजनीति का क्षितिज पक्ष यह रहा है कि यहां नये मिजाज और नये लोकतंत्र की ऐसी परिभाशा गढ़ी गई जो रोचक होने के साथ सियासी जगत में भी हलचल का काम किया था। फरवरी, 2015 के दिल्ली विधानसभा के नतीजे एक चर्चित लोकतंत्र का स्वरूप अख्तियार कर चुके थे। उदयीमान राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी ने भाजपा समेत कांग्रेस को जो पटखनी दी वे लोकतंत्र के पूरे इतिहास में कम ही देखने को मिला है। 14 फरवरी को केजरीवाल सरकार का एक वर्श पूरा हो रहा है। वैसे राजनीति विडम्बनाओं और विरोधाभासों का पुंज है। बावजूद इसके बगैर देष का काम चलता नहीं है। किसी सरकार या राजनेता का मूल्यांकन करने के लिए एक वर्श का समय कम होता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल युवा हैं और काफी कुछ सह कर कुर्सी तक पहुंचे हैं। सरकारें वर्शगांठ मनाने की परम्परा जमाने से निभाती रहीं हैं और ऐसे दिन कामकाज की रिपोर्ट के रस्म अदायगी के लिए भी जाने जाते हैं। अरविन्द केजरीवाल की सरकार का एक साल का मूल्यांकन में असल दिक्कत यह है कि इनकी षैली को पकड़ पाना मुष्किल हुआ है। षासन व्यवस्था के लिहाज़ से एक नये तरीके का लोकतांत्रिक परिचय इनकी सरकार में निहित रहा है।
सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को जमींदोज करने वाले केजरीवाल दिल्ली में एक वर्श पहले ऐसी पटकथा लिख गये कि सियासत के जानकारों के बूते में भी आंकलन नहीं समा पाया। दरअसल लोकतंत्र ऐसी विधा है जहां सभी का समावेषन बड़ी आसानी से तो हो जाता है पर जब निभाने की बारी आती है तभी वादे और इरादे की पोल-पट्टी खुलती है। लोकतंत्र में आलोचनाओं की कोई कमी नहीं होती। केजरीवाल भी इससे परे नहीं है। षुरूआती एक छमाही में देखा जाए तो ज्यादातर इनका समय आलोचनाओं में घिरे रहने में गया है जबकि दूसरी छमाही कई कामकाजी प्रयोग में बीतते हुए देखा गया। क्रान्तिकारी विचारधारा से राजनीति कितनी चलती है इस पर सबके अपने-अपने आंकलन हैं पर केजरीवाल ने यह सिद्ध किया है कि लोकतंत्र के साथ-साथ कामकाज में भी क्रान्तिकारी स्थिति पैदा की जा सकती है। सार्वजनिक मुद्दों पर बड़ी सहजता से बोलते हैं लगता है सीखने की आदत से अभी गुरेज नहीं किये हैं। लोग समझने भी लगे हैं और विष्वास भी काफी हद तक करने लगे हैं। केजरीवाल ने एक काम और किया है कि लोगों के मन में यह बिठा दिया है कि यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है तो उनकी सरकार दिल्ली वालों के लिए कायाकल्प वाली सिद्ध होगी।
भारत राज्यों का संघ है और इसी संघ में 29 राज्य और दिल्ली समेत 7 केन्द्रषासित प्रदेष हैं। केजरीवाल इस मामले में भी सफल कहे जायेंगे कि एक छोटे से अधिराज्य दिल्ली के मुख्यमंत्री होते हुए उन्होंने दिल्ली को उतना ही बड़ा बना दिया जितना बड़ा देष है। काफी हद तक यह समझाने में भी कामयाब रहे कि षहरी प्रदेष में संभालने में वैसी ही कूबत झोंकनी पड़ती है जैसी कि देष भर की सियासत में। लोकतंत्र की विधाओं को जब खरोंच लगती है तब जनता हुंकार भरती है। 1993 से दिल्ली में सरकारों का चलन षुरू हुआ सुशमा स्वराज, मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा सहित षीला दीक्षित यहां की सत्ता पर आदि काबिज हुए ये पहले से सियासत के धनी और राजनीति के अनुभवी रहे थे जबकि केजरीवाल सियासत का पूरा ककहरा रटने से पहले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गये। दो टूक यह है कि राजनीति का एक गैर अनुभवी व्यक्ति लोकतंत्र के मामले में षिखर पर और सत्ता के मामले में बहुधर्मी प्रयोग के लिए वो मान्यता हासिल किया जिसके लिए बरसों खपाने पड़ते हैं। जनता परिपक्व है सियासत के साथ सत्ता को भी समझती है। मीडिया से लेकर भाजपा और कांग्रेस के सभी कद्दावर नेताओं ने केजरीवाल को उतना भारयुक्त नहीं माना था जितना उन्होंने स्वयं को सिद्ध किया है।
सरकार के कार्यों की क्या षैली हो इसका अनुकरण भी केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती थी। भ्रश्टाचार को लेकर उनकी बेदाग छवि लोकतंत्र को भुनाने में बड़ी काम आई। अन्ना आंदोलन में उनकी पैठ और उससे मिली षोहरत राजनीतिक धु्रवीकरण में एक पूंजी की तरह थी। सबके बावजूद एक ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर उभरे कि देष की सियासत में बड़ा वजूद विकसित किया। षायद ही किसी प्रदेष के मुख्यमंत्री को इतनी ताकत और षिद्दत से पहले कभी लोकप्रियता मिली हो। दिल्ली की बागडोर इतनी आसान भी नहीं है यह षहरी मिजाज का है, यहां की परिवहन व्यवस्था को सुचारू बनाना, प्रदूशण से निपटना, बिजली, पानी, सुरक्षा के साथ विषेशतः महिला सुरक्षा के लिए मजबूत इंतजाम करना तो चुनौती है ही साथ ही स्कूल, काॅलेजों की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाना आदि आज भी केजरीवाल के लिए किसी जंग से कम नहीं है। बीते एक वर्श में जितना बोया गया है और जितना काटने की उम्मीद की जा रही है उसके बीच संतुलन बनाना भी इसी क्रम की चुनौती है। कई बार परिस्थितयों के भंवर में भी फंसे हैं। इनके मंत्रिपरिशद् के सदस्यों पर फर्जी डिग्री के आरोप लगना, इनके भ्रश्टाचार मुक्त अवधारणा को झटका देते हैं। कुछ अन्य मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों पर आरोप लगना भी इन्हें खास से आम बनाने के काम करते रहे हैं। दूरदर्षी फैसले केजरीवाल के तौर-तरीके को समझदारी से उन्मुख कर देते हैं। जनवरी 2016 में प्रदूशण से निपटने के लिए आॅड-ईवन फाॅर्मूला का सफलता दर जिस तरह से बयान किया गया है वह बहुत समुचित और कारगर है। दिल्ली की जनता ने भी इसे हाथोंहाथ लिया है और बिना किसी जोर जबरदस्ती के इसका साथ दिया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष से लेकर कई आला अफसरों ने केजरीवाल के इस फाॅर्मूले को प्रोत्साहित किया। फिलहाल अभी इस पर ब्रेक है परन्तु अप्रैल में फिर एक बार इसी फाॅर्मूले पर दिल्ली में परिवहन व्यवस्था सुचारू होगी।
जब दिल्ली में विधानसभा के नतीजे केजरीवाल के पक्ष में एकतरफा हुए तब लोकतंत्र की दुनिया में एक नई बहस छिड़ गयी थी कि ऐसे जनाधार का क्या आधार था। षोध और अन्वेशण भी षायद केजरीवाल के पक्ष में इतना जनाधार कभी नहीं बता सकते थे। यह केजरीवाल के दिल्ली की जनता को लेकर जो सुघड़ राजनीति थी और उनके बीच विकसित जनसम्पर्क का यह नतीजा था। हांलाकि केजरीवाल को लेकर दिल्ली की जनता ने नये प्रयोग और नई धारा के साथ नई राजनीति को अवसर देना चाह रही थी। वाकई में यह जनतंत्र का बहुत अनूठा अभ्यास था। जिस तर्ज पर सब कुछ हुआ है उसे देखते हुए तमाम पुरानी आलोचनाएं औचित्यहीन लगने लगी थीं। दिल्ली की जनता ने ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता सौंप दी जिसे काम के अलावा सियासत के पचड़ों से कोई लेना-देना नहीं था। केजरीवाल ने जिस चतुराई से लोगों में पैठ बना ली और उनके मन में फील गुड फैक्टर का जो माहौल बनाया वो भी सियासती इतिहास में कम ही देखने को मिला है। विकास का परिप्रेक्ष्य किस्तों में निहित है जाहिर है जमा पांच साल के कार्यकाल का एक वर्श ही बीता है उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली की जनता को वह सब मिलेगा जिसके वायदे पर केजरीवाल ने सत्ता हथियाई थी। इंजीनियर से नौकरषाह और अब राजनेता के साथ सत्ताधारी केजरीवाल इस बात को समझने में भी कोई गलती नहीं करेंगे कि उनकी सियासत औरों से हट कर है और जब तक हटी रहेगी खास बनी रहेगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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आतंकवाद का आन्तरिक और बाह्य विमर्श

बीते जी-20 षिखर सम्मेलन में वैष्विक नेताओं ने आतंकवाद से निपटने के लिए विषेश रणनीति बनाने की बात की। कई दषकों से संयुक्त राश्ट्र में भी आतंकवाद की चर्चा होती रही पर आतंक की क्या परिभाशा होगी आज तक इस पर राय षुमारी नहीं हो पायी है। दुनिया में पांच देष आतंक के चलते भयंकर रूप से प्रभावित हैं जिसमें क्रमषः इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया और सीरिया का नाम आता है जबकि छठे नम्बर पर भारत है। देखा जाए तो आतंक से सर्वाधिक प्रभावित पांचों देष इस्लामिक हैं जबकि सामान्य  गैर इस्लामिक देषों की सूची में आतंकवाद की पीड़ा झेलने में भारत पहले नम्बर पर है। पिछले कुछ वर्शों से दुनिया में इस्लाम के नाम पर गठित किये जा रहे आतंकवादी संगठनों की बाढ़ आई हुई है। अनुमान के मुताबिक इनकी तादाद सौ से अधिक हो सकती है। पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात ने 83 ऐसे संगठनों की सूची जारी की थी जबकि इसके पूर्व अमेरिका भी इस्लामी आतंकवादी संगठनों की सूची जारी कर चुका है। भारत में बरसों से आतंकवादी कहर बरपा रहे हैं हिजबुल मुजाहिदीन, लष्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा सहित कईयों के लिए अभी भी भारत ही किरकिरी बना हुआ है। मुम्बई से लेकर संसद भवन और पठानकोट तक भारत को लहुलुहान करने का काम ऐसे संगठनों द्वारा किया जा रहा है पर ताज्जुब की बात यह है कि आतंकी कसाब से लेकर अफज़ल गुरू तक की फांसी को देष के अन्दर ही विरोध किया जाता है। इसकी ताजा बानगी जेएनयू में देखी जा सकती है। बीते 9 फरवरी को देष के सर्वाधिक प्रतिश्ठित विष्वविद्यालय जेएनयू में अफज़ल गुरू की बरसी मनाई जा रही थी। ध्यान्तव्य हो कि इसी दिन 2013 में अफजल गुरू को फांसी दी गयी थी। इस घटना के चलते यहां के छात्र न केवल दो गुटों में बंटे बल्कि स्थिति भी संवेदनषील हुई। जेएनयू में पाकिस्तान के नारे लगाये गये, कष्मीर को लेकर भी कई अनाप-षनाप बातें उछाली गयीं। चिंता के साथ अचरज इस बात का है कि जेएनयू में पढ़ने वाले छात्रों का एक समूह पाकिस्तान और अफज़ल गुरू का हिमायती क्यों है? भारत सरकार की बहुत बड़ी राषि इस विष्वविद्यालय पर खर्च की जाती है और बहुत कम षुल्क पर यहां के युवाओं को अवसर मिला हुआ है पर इतने प्रतिश्ठित विष्वविद्यालय में ऐसी घटना का होना देष के लिए बड़ी दुर्घटना कही जायेगी।
आतंकवाद से लड़ने वाला हमारा कानून अभी भी इतना सख्त नहीं है जितना की अमेरिका और इंग्लैण्ड का है। अबतक भारत में जितने भी आतंकी हमले हुए हैं वे पाकिस्तान के इस्लामिक संगठनों से सम्बन्धित रहे हैं। इतना ही नहीं आज आईएस सहित कई संगठन भारत के अन्दर भी भारतीय युवाओं को इस काम में बाकायदा उपयोग कर रहे हैं। बेषक आतंक का कोई धर्म नहीं है पर अधिकतर ऐसे संगठन उन्हीं को झांसे में ले रहे हैं जो इस्लामिक पृश्ठभूमि से हैं। यह एक सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है। पठानकोट के हमले के बाद पंजाब से लेकर दिल्ली और उत्तराखण्ड सहित कई क्षेत्र गणतंत्र दिवस के दिनों में आतंकी दहषत में थे उन्हीं दिनों रूड़की एवं हरिद्वार से चार आतंकी दबोचे भी गये थे जो स्थानीय मुस्लिम लड़के थे और जिनका ताल्लुक आईएस नेटवर्क से सम्बन्धित माना गया। सवाल है कि अपनी ही जमीन पर आतंक की रोपाई करने वाले आतंकवादी संगठन को स्थानीय स्तर पर खाद-पानी कौन दे रहा है? वैसे भारत में कई अलगाववादी संगठन भी काम कर रहे हैं जो पाकिस्तान के हिमायती और आतंकियों के मजबूत समर्थक हैं। कष्मीर में अफज़ल गुरू की फांसी को लेकर अलगाववादी संगठनों ने जो मोर्चेबन्दी की थी वह बात भी किसी से छुपी नहीं है। यांत्रिक चेतना से भरा सवाल तो यह भी है कि आतंक से निपटने के लिए कौन सी तकनीक अपनाई जाए। आंकड़े भी यह बताते हैं कि 80 से 85 फीसदी आतंकी वारदातें इस्लामिक संगठनों की तरफ से हो रही हैं। यूं तो दुनिया में कुछ इसाई और यहूदी आतंकी संगठन भी हैं लेकिन उनका प्रभाव और ताकत तुलनात्मक बहुत न्यून है। अलकायदा द्वारा 11 सितम्बर, 2001 को किये गये न्यूयाॅर्क हमले के बाद से धर्म से प्रेरित आतंकवाद में नाटकीय तरीके से वृद्धि देखी जा सकती है। हालांकि न्यूयाॅर्क हमले के दोशी ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने पाकिस्तान के एटबाबाद में घुस कर मारा परन्तु इसकी करतूतों ने इस्लामी आतंकवाद को उभरने में काफी मदद की है। इसके पूर्व माओवाद जैसा राजनीतिक तथा एथनिक से प्रेरित आतंकवाद होते थे जो आज रसातल में चले गये हैं।
आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि बीते 15 सालों में आतंक के चलते मारे जाने वाले लोगों की संख्या में 15 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। केवल अकेले भारत में अब तक 416 लोग आतंक के चलते मौत के षिकार हुए और हजारों जख्मी और घायल लोगों की सूची में षामिल हैं। जो देष आतंकवादियों को पनपने और पनाह देने में समर्पण दिखा रहे हैं वे भूल गये हैं कि इनके पलटवार से वे भी सुरक्षित नहीं हैं। पाकिस्तान इसका पुख्ता सबूत है कि जिन आतंकियों को संरक्षण दिया अब वही पेषावर से लेकर ब्लूचिस्तान तक कहर बरपा रहे हैं। इस्लामी आतंकवाद में षिया, सुन्नी और वहाबी सहित हर तरह का आतंकवाद षामिल है। भारत में 2012 से 2013 के बीच आतंकवाद में 70 फीसदी की वृद्धि हुई है। आईएस इन दिनों सारी दुनिया में पहला ऐसा आतंकी संगठन है जो अपने लिए एक अलग राश्ट्र स्थापित करने में कामयाब हो रहा है और सभ्य देषों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। दुनिया को तबाह करने के मंसूबे रखने वाले आईएस के निषाने पर भारत भी है। ‘ग्लोबल टेरारिज़्म इण्डैक्स 2015‘ को देखें तो पता चलता है कि वर्श 2014 में करीब 14 हजार आतंकवादी वारदातें दुनिया भर में हुईं जो पिछले साल की तुलना में 35 फीसदी अधिक है। कमोबेष 2015 में भी इसी प्रकार की बढ़त देखी जा सकती है। चिंता तो यह भी है कि आईएस का नेटवर्क भारत के अन्दरूनी हिस्सों में भी फैल चुका है। विगत् दो-तीन वर्शों मे कई पढ़े-लिखे युवा ऐसी गतिविधियों में लिप्त देखे गये और मात्रात्मक ये बढ़त बनाये हुए हैं।
उपरोक्त तमाम पक्षों से यह साफ हो जाता है कि आतंक एक वैष्विक समस्या है परन्तु इसमें इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की भरमार है। आईएस जैसे कुछ संगठनों की जड़े इतनी मजबूत हैं कि सभ्य देषों के पसीने छूट रहे हैं। आतंक से पूरी तरह निपटने के लिए दुनिया के सुर ही एक न हो बल्कि क्रियाकलाप में भी एकजुटता हो। प्रधानमंत्री मोदी भी वैष्विक मंचों पर आतंक को लेकर पिछले 20 महीनों से एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं पर नतीजे इकाई दहाई में अटक कर रह गये हैं। इस मामले में रोचक तथ्य तो यह भी है कि अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा स्वयं यह कह चुके हैं कि पाकिस्तान आतंकवादियों के लिए सबसे सुरक्षित स्थान है बावजूद इसके उसी पाकिस्तान को बीते 10 फरवरी को आतंकवाद निरोधी अभियान के नाम पर 58 अरब की मदद देने की घोशणा की। जबकि इन्हीं दिनों मुम्बई आतंकी हमले का गुनाहगार डेविड हेडली का कबूलनामा भी देखा गया जिसमें पाकिस्तान साफ तौर पर षामिल है। यही बात खटकने वाली है कि जिन्हें मोहताज होना चाहिए वे फलक पर हैं। यदि ऐसी ही कूटनीति रहेगी तो दुनिया से आतंक को निस्तोनाबूत करने का मंसूबा सिर्फ विचारों तक ही रह जायेगा।

सुशील कुमार सिंह
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Saturday, February 13, 2016

सामाजिक मान्यता की होड़ में ‘वैलेंटाइन डे‘

प्रत्येक फरवरी माह की 14 तारीख में दृश्यमान होने वाले ‘वैलेंटाइन डे‘ के विकास को एक सघन विपणन का प्रयास माना जाए तो षायद सभी सहमत नहीं होंगे पर सच्चाई यह है कि कुछ एषियाई देषों में इसे इसी रूप में देखा गया है मसलन सिंगापुर, चीन और कोरिया सहित कई देष ‘वेलेंटाइन डे‘ पर सबसे अधिक पैसा खर्च करते हैं। अब यह चलन अन्य महाद्वीपों में भी प्रसार ले चुका है। वर्श 1992 के आस-पास ‘वैलेंटाइन डे‘ को लेकर भारत में भी बाजार सजग होने लगे थे। यही दौर उदारीकरण का भी था और इसी दरमियान ‘वैलेंटाइन डे काडर््स‘ का प्रचलन षुरू हुआ। भारतीय बुद्धिजीवी इस दिन की लोकप्रियता के लिए पाष्चात्य साम्राज्यवादी षक्तियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनकी राय है कि इस दिन के सहारे वे हमारे बाजार में अपना माल खपाना चाहते हैं जबकि कईयों का मानना है कि यह प्रेम का पर्व नहीं वरन् संस्कारों के अवमूल्यन का दिन है। भारत में ‘वैलेंटाइन डे‘ को लेकर राय हमेषा से बंटी हुई देखी जा सकती है। कई संगठन इसके विरोध में इस कदर आगे बढ़ जाते हैं कि कानून व्यवस्था से लेकर मानवीय पहलू को भी दागदार करने से गुरेज नहीं करते। दो टूक यह भी है कि वैलेंटाइन डे की षनैः षनैः अपनी एक सामाजिक मान्यता हो गयी है। यह युवाओं के त्यौहार से बाहर निकलते हुए सभी वर्गों में काफी हद तक पैठ बनाने में सफल भी हुआ है। यह सच है कि कमोबेष इस दिन को ‘प्रेम दिवस‘ के तौर पर जाना समझा जाता है और इससे बड़ी सच्चाई यह भी है कि प्रेम के बिना जीवन की कल्पना नहीं हो सकती पर प्रेम के असल अर्थ और व्याख्या को लेकर सभी के अपने-अपने विमर्ष हैं।
फ्रांस में माना जाता है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ कार्ड देने की परम्परा यहीं से षुरू हुई थी जब 1415 में ड्यूक आॅफ आॅरलिंस चाल्र्स ने अपनी पे्रयसी को पत्र भेजा था। मुम्बई में ‘वैलेंटाइन डे‘ पर फूल, चाॅकलेट और उपहार देने की परम्परा के साथ इजहार की भावना देखी जा सकती है पर बाल ठाकरे के समय से ही षिवसेना द्वारा विरोध सर्वाधिक यहीं हुए हैं। ईरान में इस दिन मां और पत्नी के प्रति प्रेम दर्षाया जाता है विषेशतः बच्चे अपनी मां को उपहार और फूल देकर आभार व्यक्त करते हैं। दक्षिण कोरिया में इस दिन छुट्टी होती है और महिलाएं अपने पति को उपहार देतीं हैं, जापान में भी कुछ ऐसा ही चलन है। जापान में 1936 से ही चाॅकलेट देने का ट्रेंड है। फिलीपींस में इस दिन हजारों सामूहिक विवाह होते हैं। बीते वर्श 2000 षादियां एक साथ हुईं थीं। फिनलैण्ड में इस दिन को दोस्ती के लिए माना जाता है जबकि इटली में ‘वैलेंटाइन डे‘ को बसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। ऐसे दिनों में कवि महोत्सव से लेकर कई रचनात्मक आयोजन भी कई देष करते हैं। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ वैष्विक जगत में कई प्रारूपों में प्रसार लिए हुए है।  
नव संस्कृतिवाद के दौर में नवाचार और नव स्फूर्ति का उदयीमान होना कोई नई बात नहीं है। भारतीय समाज और संस्कृति में बरसों से इसी भांति नयापन महसूस किया जाता रहा है। प्राचीन काल से लेकर 21वीं सदी के इस दौर तक कई विमर्ष के चलते समाज परिमार्जित भी हुआ। कई विवेचनाओं ने नये आयामों को इसी संस्कृति में रचने-बसने का अवसर भी दिया जिसमें ‘वैलेंटाइन डे‘ जैसे दिवस भी षामिल हैं। इस तथ्य को षायद ही कोई झुठलाये कि समाज में वैचारिक भेद हमेषा से कायम रहे हैं। इसे भी नजरअंदाज करना मुष्किल होगा कि एक विचार दूसरे के लिए कहीं न कहीं पूरक का काम भी करते रहे हैं। इन्हीं विचारों की आपाधापी में सभ्यता और संस्कृति का सुगम पथ भी समय के साथ सपाट होते रहे। हिन्दू काल से मुस्लिम काल तत्पष्चात् इसाई काल के बीच भारतीय संस्कृति न जाने कितनी बार उथल-पुथल का सामना किया पर इस सच को सभी समझेंगे की बावजूद इसके यह संस्कृति भावनाविहीन कभी नहीं रही। क्या भावना से युक्त हमारी भारतीय संस्कृति हमारी बड़ी ताकत नहीं है? कई बार पष्चिमी देषों की नकल करते-करते अपनी संस्कृति के साथ ऊंच-नीच कर बैठते हैं मगर क्या वैलेंटाइन डे के साथ भी ऐसी ही बातें हैं। कदाचित ऐसा नहीं है क्योंकि इस दिवस के इतिहास और समाजषास्त्र में ऐसी कोई ऐंठन नहीं दिखाई देती जहां से कुछ भरभराने का जोखिम हो। देखा जाए तो इसमें बेहिसाब भावना के साथ चाहत के लक्षण निहित हैं।
भारत की ग्रामीण व्यवस्थाएं संयुक्त परिवारों में रचती-बसती थी कमोबेष यह स्थिति अभी भी दुर्लभ ही सही पर कायम है जहां रिष्तों की तरावट और प्रेम की गर्माहट व्यापक पैमाने पर व्याप्त रहती थी। समय बदला, परिस्थितियां बदलीं तथा समाज भी बदल गया। आधुनिकीकरण व षहरीकरण ने संयुक्त परिवारों को कब छिन्न-भिन्न कर दिया इसका एहसास ही नहीं हुआ। नगरों एवं महानगरों में विस्थापित लोग एकल परिवार के रचनाकार बन गये और मोहताज हुए तो उसी भावना का जिसका दोहन वे बिना मूल्य चुकाये संयुक्त परिवार से प्राप्त करते रहे। पूरी तरह तो नहीं पर यह सच है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ की मान्यता और महत्व की बढ़त में कुछ हद तक एकांगीपन भी जिम्मेदार है। ‘वेलेंटाइन डे‘ की मान्यता को लेकर सामाजिक मनोविज्ञान को भी कारक के रूप में देखा जा सकता है। टीवी चैनलों और अखबारों में ‘वैलेंटाइन डे‘ की खबरें नब्बे के दषक में षुरू हुई थी। धीरे-धीरे फिल्मों के माध्यम से इसके प्रति संचेतना से भरा बड़ा खेमा तैयार हुआ। स्कूल और काॅलेजों में ये षुरूआती पहल के रूप में आया और आज के दौर में अब यह प्रत्येक स्थानों पर प्रसार लिए हुए है। चलो मान लेते हैं कि विलायती प्रेम दिवस को भारत में अपसंस्कृति के तौर पर निहारा जाता है पर किसी से यह पूछा जाए कि इसके होने वाले दस नुकसान बतायें तो षायद वाजिब उत्तर नहीं मिलेगा। यहां कहना तर्कसंगत होगा कि जिस प्रकार ‘वैलेंटाइन डे‘ को बिना किसी खास प्रयास के अंगीकृत कर लिया गया है ठीक उसी प्रकार बिना किसी मजबूत तर्क के इसे लेकर विरोध भी होते रहे हैं। गौरतलब है कि आपाधापी की इस दुनिया में उन भावनाओं का मोल कहां है जो आज अवमूल्यन के षिकार हो गये। कम से कम इस मामले में ‘वैलेंटाइन डे‘ को तो जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि कुछ हद तक इसने व्याप्त खाई को पाटने का काम ही किया है।  सोच तो इसकी भी होनी चाहिए कि पष्चिम की बहुत सारी संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति का पहले भी घालमेल हुआ है उसी क्रम में ‘वैलेंटाइन डे‘ को भी देखा जा सकता है।
वर्श 1828 में ब्रह्यमसमाज के संस्थापक राजाराम मोहन राय ने भी उस दौर में कहा था कि पष्चिमी संस्कृति को निर्बाद्ध रूप से प्रवेष करने दो, जो एहसासयुक्त हो उसे स्वीकार करो बाकियों के लिए खिड़की खोल दो और बाहर जाने का रास्ता दे दो। जाहिर है कि हमारी संस्कृति परिमार्जन और चुनौतियों के साथ और अधिक पुख्ता हुई है। यह महज संयोग नहीं है कि वर्तमान भारतीय परिवेष में पष्चिम का अंधानुकरण हुआ है बल्कि विष्व बाजार की प्रतिस्पर्धा, आर्थिक उदारीकरण और वैष्वीकरण के चलते ऐसा करना अनिवार्य था। इन्हीं सबके बीच ‘वैलेंटाइन डे‘ का प्रचलन भी मुखर हो गया। भारत में इसको लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिलती रही है। इसे इष्क का त्यौहार कहना और इसके प्रति इस धारणा का विकसित होना कि यह युवाओं के रास्ते से भटकने का महज एक दिन है। ऐसे विचारों के चलते ही ‘वैलेंटाइन डे‘ संदिग्ध दृश्टि से भी देखा गया है। यह बात भी सही है कि हमारा समाज कम खुला है ऐसे में इन दिनों की घुसपैठ से एक अनजाना डर बना रहता है। सोषल मीडिया से लेकर ईमेल तक और टेलीविजन से लेकर आधुनिक बाजारों तक कुछ न कुछ ‘वैलेंटाइन डे‘ के नाम पर बेचने का चलन भी देखा जा सकता है। स्मार्ट फोन के चलन ने ऐसे दिवसों की महत्ता को और बढ़ा दिया है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अगर दिन विषेश को किसी प्रसंग से जोड़ दिया जाए तो उसके प्रति संवेदना अलग रूप ले लेती है ऐसा ही कुछ ‘वैलेंटाइन डे‘ के साथ है। इस दिन हर 14 फरवरी को यह मान लिया जाता है कि यह ‘इष्क‘ का दिन है जबकि यह पूरा सच नहीं है। यह एक संवेदनषील और सभ्य सलीखे से स्वयं को पेष करने का भी दिन है। इसमें कठिनाई यह है कि जब इसे एक लड़का-लड़की के प्रेम के परिप्रेक्ष्य में आंका जाता है तो यह दिवस कमजोर होने लगता है। भारत में ‘महिला दिवस‘, ‘बाल दिवस‘, ‘षिक्षक दिवस‘, जैसे कई ऐसी तिथियां हैं जिसके प्रति अलग से स्नेह उमड़ता है पर जो लोकप्रियता ‘वैलेंटाइन डे‘ ने हासिल की है वैसी मनोवैज्ञानिक चाहत उनके प्रति उमड़ता हुआ नहीं दिखाई देता। ‘वैलेंटाइन डे‘ की एक समस्या यह भी है कि यह विलायती प्रेम से जकड़ा दिवस माना जाता है और भारत में यह अवधारणा रही है कि पष्चिम आयातित संस्कृति का तात्पर्य अपकृत्य से भी भरी संस्कृति का होना जबकि सच्चाई इससे अलग है। देखा जाए तो विदेषों में भी प्रेम की षुद्धता का काफी ख्याल रखा गया है। पष्चिमी समाजषास्त्र एवं दर्षनषास्त्र के अध्येयता इस बात को भली-भांति जानते और समझते हैं। भारत की प्राचीन परम्पराओं में कामदेव से लेकर खजुराहों की मूर्तियों में भित्ति चित्र के रूप में उकेरी गयीं भावनायें प्रेम की उन्हीं परिषुद्धता का एक बेहतर प्रमाण हैं जिसके नाम पर हमें इतराने का कई बार अवसर मिला है।



Thursday, February 11, 2016

राज्यपाल को राष्ट्रपति और शीर्ष अदालत की दो टूक

बहुधा ऐसा कम ही रहा है कि जब राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल को संविधान की गरिमा बनाये रखने की नसीहत दी गई हो। हालांकि राज्यपाल के सम्मेलनों में इस प्रकार की औपचारिक बातचीत अक्सर होती रही है पर इस बार के सम्मेलन में बात कुछ अलग थी। बीते दिनों राज्यपालों के दो दिवसीय सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा कि देष ने आजादी के बाद निरंतर मजबूती हासिल की है और ऐसा संविधान के अनुपालन की दृढ़ता के चलते सम्भव हुआ है। यहां पर राश्ट्रपति की टिप्पणी भले ही अतिरिक्त सौम्यता लिए हुए हो पर अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन लागू करने के क्रम में राज्यपाल की भूमिका पर इसे एक सवालिया निषान के रूप में देखा जा रहा है। असल में बीते 26 जनवरी से अरूणाचल प्रदेष राश्ट्रपति षासन का षिकार है और मामला सर्वोच्च न्यायालय गया। इसी मामले की सुनवाई करते हुए बीते 8 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने अरूणाचल प्रदेष के राज्यपाल जे.पी राजखोवा पर टिप्पणी की जिसमें अदालत ने कहा कि राज्यपाल राज्य विधानसभा का सत्र अपनी मर्जी से नहीं बुला सकते हैं साथ ही यह भी कहा कि स्पीकर को हटाये जाने के बाद सदन की कार्रवाई का प्रभार डिप्टी स्पीकर के हाथों में होने के वक्त यदि विधानसभा में तुकी सरकार के विरोध में अविष्वास प्रस्ताव पारित होता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। एक ओर राश्ट्रपति द्वारा राज्यपालों को दिया जाने वाला नसीहत तो दूसरी ओर अदालत की इस खरी-खरी के चलते एक बार देष भर के राज्यपालों में संविधान के प्रति नई आस्था का मापदण्ड जरूर विकसित हुआ होगा। इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय के इस कथन के आलोक में यह भी साफ होता है कि अरूणाचल प्रदेष में सियासी आबोहवा के बीच संविधान के मूल भावना को चोट पहुंचाई गयी है। उक्त परिप्रेक्ष्य में राश्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की चिंता को इसलिए भी वाजिब करार दिया जायेगा क्योंकि एक संविधान संरक्षक है तो दूसरा संविधान के साथ हुए उचित-अनुचित क्रियाकलाप को लेकर व्याख्या और विषदीकरण करता है।
देखा जाए तो भारतीय संविधान में अवरोध एवं संतुलन के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया है। इसमें षक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त भी अपनाया गया है और इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि लोकतांत्रिक स्वभाव में ही सब कुछ घटित हो पर अरूणाचल प्रदेष में लगे राश्ट्रपति षासन से मामला इससे अलग दिखाई दे रहा है। इसको लेकर पहले भी 4 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र की हत्या को वह मूकदर्षक की तरह नहीं देख सकता। जस्टिस जे.एस. केहर के नेतृत्व वाली पांच जजों की बेंच ने यह टिप्पणी उस दलील पर की जिसमें भाजपा विधायकों के वकील कह रहे थे कि अदालत राज्यपाल के निर्णय पर सुनवाई नहीं कर सकती। गौरतलब है कि आज से दो दषक पहले न्यायपालिका की सक्रियता के चलते लोकतंत्र के हिमायतियों को कई सूझबूझ मिली थी पर लगता है कि अब वह मानस पटल से मिट चुका है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अक्रर्मण्य एवं दिग्भ्रमित कार्यपालिका को उचित मार्ग पर लाने का काम न्यायपालिका बरसों से करती रही है।
संविधान के अनुच्छेद 356(1) के तहत अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन का लगाये जाने के चलते देष में एक बार फिर लोकतांत्रिक विमर्ष जोर लिए हुए है। देखा जाए तो बीते षीतकालीन सत्र के दौरान भी अरूणाचल का मुद्दा उठा था पर कांग्रेस ने हो-हल्ला करके कार्रवाई नहीं चलने दी। अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन क्यों लगाया गया इसे तफ्सील से समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करना होगा। असल में यहां संकट फरवरी, 2014 से ही कायम है तब चुनाव से कई महीने पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री नवाब तुकी ने विधानसभा भंग कर दी थी। यहां की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में 42 विधायकों के साथ कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में सफल रही पर मुख्यमंत्री का सपना देख रहे कांग्रेस के विधायक के. पुल ने अपनी ही सरकार पर वित्तीय अनियमित्ता का आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। 16 दिसम्बर, 2015 को जब देष में षीत सत्र चल रहा था तब कांग्रेस के 21 बागी विधायकों समेत भाजपा के 11 और 2 निर्दलीय के साथ एक अस्थाई जगह पर विधानसभा सत्र आयोजित किया गया। इसमें विधानसभा अध्यक्ष नवाब रेबिया पर महाभियोग चलाया गया। देखा जाए तो विधानसभा अध्यक्ष को लेकर महाभियोग जैसा जिक्र संविधान में है ही नहीं। फिलहाल कांग्रेस के बागी विधायकों ने नवाब तुकी के स्थान पर कैलिखो पाॅल को नेता चुना जिसके चलते स्पीकर ने इनकी सदस्यता रद्द कर दी। नवाब तुकी ने राज्यपाल को भाजपा का एजेंट होने का आरोप भी लगाया। इन तमाम झगड़ों को देखते हुए राश्ट्रपति षासन की रस्म अदायगी भी 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन पूरी कर दी गयी।
अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन की पूरी पटकथा के बीच कई चीजें आमने-सामने हो गयी हैं।  केन्द्रीय गृह मंत्रालय के भी अपने स्पश्टीकरण हैं उनकी दृश्टि में चीन के खतरे को मद्देनजर रखते हुए अरूणाचल प्रदेष में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी था जो पूरी तरह गले नहीं उतरती है। बेषक अरूणाचल पर चीन की तिरछी नजरें हैं परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वहां लोकतंत्र को उजाड़ दिया जाए। हो सकता है कि केन्द्र के पास इसके अलावा कोई विकल्प न रहा हो पर पूरी तरह विकल्पहीन थे इसे लेकर भी सरकार को क्लीन चिट नहीं दिया जा सकता। लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि राश्ट्रपति षासन को हमेषा तिरस्कार की दृश्टि से देखा गया है और इसे उन्हीं परिस्थितियों में लगाने की बात रही है कि जब पानी सर के ऊपर चला जाये पर इस पर मनमानी भी खूब हुई है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि राज्यपाल की नियुक्ति सरकार की सिफारिष पर राश्ट्रपति करते हैं परन्तु वह संविधान के प्रति जवाबदेह है न कि सरकार के प्रति। हालांकि 1967 से ही राज्यपालों के स्वविवेकीकरण में अमूल-चूल परिवर्तन देखा जा सकता है पर संविधान में अपनी मर्जी चलाने की गुंजाइष इन्हें नहीं है। इसी चूक के चलते देष की षीर्श अदालत ने न केवल राज्यपाल पर तल्ख टिप्पणी की बल्कि राश्ट्र के मुखिया ने भी इन्हें सजग होने का मषवरा दिया।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Wednesday, February 10, 2016

आतंक का अतिवाद और सभ्य लोकतंत्र की कशमकश

इस तथ्य को गैर वाजिब नहीं कहा जायेगा कि पिछले कुछ वर्शों में दुनिया में इस्लाम के नाम पर गठित किये जा रहे आतंकी संगठनों की बाढ़ आई हुई है। अनुमान तो यह भी है कि इनकी तादाद दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर सौ से अधिक है। कुछ दिन पूर्व संयुक्त अरब अमीरात ने 83 आतंकी संगठनों की सूची जारी की थी। इसके अतिरिक्त अमेरिका भी कमोबेष ऐसी ही सूची जारी कर चुका है। देखा जाए तो भारत की जुबान पर भी दर्जनों आतंकी संगठनों का नाम दर्ज है जिनके चलते वह दषकों से लहुलुहान होता रहा है। यह जद्दोजहद का विशय है कि इतनी बड़ी संख्या में पनप रहे आतंकियों को खाद-पानी कौन दे रहा है। पाकिस्तान में आतंकी संगठन के पहले और अब के संदर्भ को देख कर अंदाजा लगाना सहज है कि पाक आतंकियों को सुरक्षा देने में कितना समर्पित रहा है। अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा का यह कथन कि पाकिस्तान आतंकियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित षरणगाह है इस बात को और पुख्ता करता है। इन दिनों आतंकी डेविड हेडली उर्फ दाऊद गिलानी पाकिस्तान को लेकर जो खुलासे कर रहा है उसे सुनकर आंखें खुली की खुली रह जायेंगी। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले जमात-उद-दावा पूर्व के लष्कर-ए-तैयबा के  हाफिज सईद से निर्देषित होकर वह काम करता था और भारत के कई स्थान आतंक की जद में थे। बीते दो दिनों से जो खुलासे हो रहे हैं उससे साफ है कि भारत को तबाह करने में पाकिस्तान के आतंकी संगठन कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे साथ ही उसका यह कहना कि आईएसआई के फण्ड से 26/11 का हमला हुआ यह सुनिष्चित करता है कि आतंक और आईएसआई दोनों एक ही संगठन के दो प्रतिरूप हैं। लष्कर, जैष-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन और हरकत-उल-मुजाहिदीन ये वे आतंकी संगठन हैं जो भारत में बरसों से तबाही के सामान रहे है जिसके बारे में हेडली ने बाकायदा अदालत में बताया। इन संगठनों का पाक के कब्जे वाले कष्मीर में पूरी ठाट-बाट है। हैरत इस बात की है कि पाकिस्तान सब कुछ जानते हुए भारत को दषकों से सबूत देने के बावजूद भ्रम में रखे हुए है और इसी काम में आगे भी लगा हुआ है।
फिलहाल पाकिस्तान के आतंकी संगठन समेत दुनिया में कई संगठन सभ्य देषों के लिए चुनौती बने हुए हैं। आईएसआईएस इन दिनों सारी दुनिया में पहला ऐसा आतंकी संगठन है जो अपने लिए अलग राश्ट्र स्थापित करने में सफल रहा है यही कारण है कि इस्लामी आतंकी संगठनों में उसका दबदबा निरंतर बढ़ता जा रहा है। एक दौर था जब अलकायदा इसी प्रकार का दबदबा कायम करने की फिराक में 2001 में अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला किया जिसकी कीमत थोड़ी देर से ही सही उसे अपनी जान गवां कर चुकानी पड़ी जब अमेरिका पाकिस्तान के एटबाबाद में षरण लिए अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को न केवल निस्तोनाबूत किया बल्कि उसे कब्र भी नसीब नहीं होने दिया। असल में दुनिया पर आतंक के बड़ा खतरा का इस कदर विस्तार लेना किसी भी सभ्यता से भरे लोकतांत्रिक देष के लिए एक नाजुक दौर है। जिस तर्ज पर मुम्बई से लेकर पेरिस के अलावा पहले और बाद इंग्लैण्ड, आॅस्ट्रेलिया, इण्डोनेषिया सहित कई देषों में आतंकी हमले हुए हैं और हो रहे हैं वे बाकियों के लिए चुनौती है। ‘ग्लोबल टेरारिज़्म इण्डैक्स 2015‘ के मुताबिक वर्श 2014 में पूरी दुनिया में 13 हजार से अधिक आतंकी वारदातें हुई जो पिछले वर्श से 35 फीसदी अधिक हैं। ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण हमले में अनगिनत लोग मारे गये जिसमें 78 फीसदी इराक, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सीरिया के थे। यह जानकर हैरत होगी कि इन देषों के बाद भारत का नाम आता है जहां 416 लोग मारे जा चुके हैं। तथ्य चैतरफा असंतोश से भरे हैं पर उनका क्या हुआ जो इसके जिम्मेदार हैं। निष्चित तौर पर इन घटनाओं ने उनके मनोबल में बढ़त का ही काम किया।
बरसों से भारत पर हुए आतंकी हमले को लेकर बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जाता रहा है। इस बात का भी ताना देने से गुरेज नहीं रहा है कि भारत आतंक के मामले में कठोर रवैया नहीं अपनाता है। बीते ढ़ाई दषकों से सबूत पर सबूत देने के बावजूद पाकिस्तान हिलाहवाली करता रहा और भारत आतंक-दर-आतंक सहता रहा बावजूद इसके इसका हल सलीखे के दायरे में होने का इंतजार भी भारत ने किया है। कुछ ने तो यहां तक भी कहा है कि भारत ऐसी समस्याओं से उबर ही नहीं पायेगा। दुःख इस बात का है कि हमारे प्रयासों को विष्व बिरादरी भी कमतर आंकती रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र को सिराहने रखने वाले भारत में होने वाले आतंकी हमले को समझने में दुनिया ने देरी की है। इसके चलते भी कई लोगों को जो बर्बर नहीं हो सकते थे उन्हें भी बढ़त लेने का अवसर मिला है। पिछले डेढ़ दषक से जब से अमेरिका हमले की जद में आया तभी से दुनिया इसको लेकर चैकन्नी हुई पर नतीजे क्या हैं सिफर तो नहीं पर दहाई तक भी तो नहीं पहुंचे हैं जबकि आतंकविहीन दुनिया के लिए सौ का आंकड़ा छूना है। कभी-कभी इतिहास, संस्कृति और राजनीति की गहराईयों में इसकी खोजबीन होती है तो लगता है कि समावेषी लोकतंत्र के इस दौर में मानव अस्तित्व के लिए खतरा बनने वाले आतंकी इतने व्यापक पैमाने पर बढ़त कैसे बना लिए? भारत के पड़ोस में बंग्लादेष, पाकिस्तान, नेपाल और अब तो म्यांमार भी लोकतंत्र का घर है पर लोकतंत्र के बावजूद पाकिस्तान जैसों ने आतंक को खाद-पानी देने से गुरेज क्यों नहीं किया? इससे महसूस होता है कि लोकतंत्र को लेकर पाकिस्तान जैसों ने अपनी ही परिभाशा बना ली जिसमें आतंक की भी साझेदारी निहित है पर उनका क्या जिनके लोकतंत्र में आतंक तिनके के स्वरूप में भी बर्दाष्त नहीं है। भारत ऐसे देषों में षुमार है जहां लोकतंत्र की सर्वोच्चता और सोच के अलावा किसी भी विध्वंसक प्रवृत्ति को तनिक मात्र भी बर्दाष्त नहीं करता।
कई वजनदार प्रष्न हैं जो अनायास फूट पड़ते हैं कि दुनिया का हर देष और तबका आतंक की आग में क्यों झुलस रहा है? आईएसआईएस का दबदबा क्यों बढ़ रहा है? पाकिस्तान आतंकी संगठनों को लेकर इतना उदार क्यों बना हुआ है? क्यों दूसरों की करतूतों को हम सहें या वे जो सभ्य हैं, जो रीत-नीति से चलते हैं और जिनके यहां विकास की पैदावार होती है आखिर वे भी विध्वंस को कब तक सहेंगे? प्रधानमंत्री मोदी ने बीते 20 महीनों में आतंक को लेकर वैष्विक मंचों पर जो चिंता जाहिर की है और इसे समाप्त करने को लेकर जो एकजुटता दिखाई है वह काबिल-ए-तारीफ है पर मुष्किल यह है कि दवा के साथ दर्द कम नहीं हो रहा है। आतंकवाद आज के दौर में एक ऐसे बिसात पर चल पड़ा है जहां सभ्य देषों की चालें अनुपात में कारगर सिद्ध नहीं हो रही हैं। पेरिस हमले के बाद जो पलटवार फ्रांस ने किया उसके नतीजे भी अनुकूल नहीं है। आतंकी पनाह को लेकर अमेरिका द्वारा पाकिस्तान पर की गयी टिप्पणी का वजन भी अभी तक नहीं दिखा है। पठानकोट के हमले के मामले में पाक को दिये गये सबूत पर मामला खटाई में पड़ा हुआ है। आतंक को लेकर अन्तर्राश्ट्रीय कानून भी बहुत स्पश्ट नहीं है। ऐसे बहुत से क्या और क्यों हैं जो एक-दो कदम से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। डिजिटलाइजेषन के इस दौर में आतंकियों का जो प्रभाव बढ़ा है वह सभी के माथे पर बड़ा बल पैदा कर रहा है। बड़े आतंकी नेटवर्क से निपटने के लिए बड़े स्तर के रणनीतिक होमवर्क की अवष्यकता पड़ेगी। अब कच्ची चाल में पूरी सफलता की गारंटी सम्भव नहीं है।


सुशील कुमार सिंह
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Monday, February 8, 2016

निडर उत्तर कोरिया का एक और दुस्साहस

उत्तर कोरिया द्वारा बीते 6 जनवरी, 2016 को किये गये चैथे परमाणु परीक्षण से दुनिया अभी चिंता से मुक्त नहीं हो पाई थी कि उसने प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण करके एक बार फिर सभी के माथे पर बल डाल दिया। संयुक्त राश्ट्र महासचिव और अमेरिका सहित कई देषों ने इसकी घोर निन्दा की है। तात्कालिक घटना को लेकर फिर वही सवाल उठता है कि इसका निदान क्या है? हालांकि तत्काल न्यूयाॅर्क में एक आपात बैठक के बाद सुरक्षा परिशद् ने कहा कि उत्तर कोरिया के खिलाफ नए प्रतिबंधों का प्रस्ताव षीघ्र ही पारित किया जाएगा पर सवाल तो यह है कि उत्तर कोरिया पर किसी भी प्रतिबंध का असर क्यों नहीं हो रहा है? क्यों उत्तर कोरिया वैष्विक चेतावनी को नजरअंदाज कर रहा है? रही बात प्रतिबंध की तो इसके पहले भी 2006 के परमाणु परीक्षण के बाद सुरक्षा परिशद् ने प्रस्ताव पारित किये थे तब से लेकर अब तक दो प्रस्ताव और आ चुके हैं, बावजूद इसके उत्तर कोरिया के दुस्साहस में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही है। विषेशज्ञ मानते हैं कि उत्तर कोरिया अमेरिका को निषाना बनाने के लिए परमाणु हथियार बना रहा है। अगर इस तकनीक का इस्तेमाल सेटेलाइट प्रक्षेपण में हो तो यह राॅकेट लाॅन्चर है पर विस्फोटक लाद दिये जाएं तो यह ‘इंटर काॅन्टिनेंटल मिसाइल‘ में बदल जायेगा। उत्तर कोरिया पहले ही ऐसी मिसाइल बना चुका है जो अमेरिका पर हमला करने में सक्षम है जिसकी मारक क्षमता 10 हजार किलोमीटर है। जाहिर है कि उत्तर कोरिया के इस कदम से अमेरिका सहित दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देषों की परेषानी बढ़ी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सुरक्षा परिशद् की बैठक दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के आग्रह पर बुलाई गयी थी साथ ही जापान ने अमेरिका का समर्थन करते हुए उत्तर कोरिया के खिलाफ कड़े प्रतिबन्ध का समर्थन किया जबकि 6 जनवरी, 2016 में परमाणु परीक्षण के चलते दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया को सबक सिखाने की बात कही थी।
उत्तर कोरिया पिछले एक दषक से विवादों को जन्म देने वाला देष भी बन गया है। 2006 से 2016 के बीच चार बार परमाणु परीक्षण और राॅकेट प्रक्षेपण करके सुर्खियों में है साथ ही ऐसा कहा जा रहा है कि वह पांचवें एटमी परीक्षण की तैयारी में भी है। उत्तर कोरिया अन्तर्राश्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद लगातार अपने परमाणु क्षमता को बढ़ाने के दुस्साहस से पीछे नहीं हट रहा है। हालांकि उसका कहना है कि उसने एक उपग्रह को कक्षा में स्थापित करने के लिए राॅकेट छोड़ा है पर इस बात पर विष्वास करना मुनासिब नहीं समझा गया। यह माना जा रहा है कि इसके बहाने उसका असल मकसद बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करना है। उत्तर कोरिया का प्रमुख सहयोगी चीन इस पूरे प्रकरण को उकसावे वाली कार्रवाई मानता है जबकि दक्षिण कोरियाई नौसेना ने चेतावनी के चलते उत्तर कोरिया के पोत पर गोलियां तक दाग दी हैं। माना तो यह भी जाता है कि उत्तर कोरिया के पास छोटे परमाणु हथियार और कम और मध्यम दूरी की मिसाइल है परन्तु जिस प्रकार इसकी हरकतों से विष्व बिरादरी तनाव में है उसे देखते हुए हथियारों के मामले में इसे क्लीन चिट नहीं दी जा सकती। सबके बावजूद यक्ष प्रष्न यह है कि उत्तर कोरिया की इन हरकतों से कैसे निजात पाया जा सकता है। क्या चीन के रहते हुए इस पर प्रतिबंध लगाना सम्भव है। संयुक्त राश्ट्र में वीटो देषों के समूह में चीन भी है जिसके अड़ंगे बाजी के चलते प्रतिबंध मुमकिन नहीं है। हालांकि चीन सहित रूस ने मिसाइल परीक्षण की निन्दा की है। देखा जाए तो परमाणु परीक्षण रोकने के लिए बीते जनवरी में उत्तर कोरिया ने षान्ति संधि की मांग की थी जो एक प्रकार से पहले के प्रस्तावों की भांति ही था जिसमें उसने कहा था कि वह अमेरिका के साथ एक षान्ति सन्धि में हस्ताक्षर करने और अमेरिका व दक्षिण कोरिया के बीच सालाना सैन्य अभ्यास रोकने के बदले अपने परमाणु परीक्षण बन्द कर सकता है जिसे अमेरिका ने सिरे से पहले की भांति ही ठुकरा दिया था।
बदलते हुए अन्तर्राश्ट्रीय परिदृष्य में अपनी सुरक्षा और आत्मविष्वास के लिए कई देष परमाणु सामग्रियों को जुटाने में अनावष्यक उर्जा खर्च कर रहे हैं जबकि वे खतरे से या तो बाहर हैं या उसके निषान से काफी नीचे हैं। असल में किम जोंग अपने निजी समस्याओं के चलते भी इस अंधेरगर्दी पर उतरा हुआ है और अन्तर्राश्ट्रीय ताकतें इस मामले में खुलकर कुछ खास नहीं कर पा रही हैं। सोचने वाली बात तो यह भी है कि उत्तर कोरिया वैष्विक पटल पर इतनी बड़ी सुरक्षा सामग्री के कद का भी नहीं है। तानाषाह किम जोंग के मन्सूबे भी हैरत में डालने वाले हैं उसने सत्ता से हटाये इराक के राश्ट्रपति सद्दाम हुसैन और लीबिया के गद्दाफी का एक माह पूर्व उदाहरण देते हुए कहा था कि जब देष अपनी परमाणु महत्वाकांक्षा को छोड़ देते हैं तो उनके साथ ऐसा ही होता है। इस बात को जायज नहीं करार दिया जा सकता क्योंकि कई देष परमाणु संसाधनों की होड़ में ना होने के बावजूद स्वयं के साथ और विष्व के लिए भी अमन-चैन के बेहतर उदाहरण बने हुए हैं। संयुक्त राश्ट्र परमाणु हथियारों की समाप्ति की कवायद में 70 के दषक से लगा हुआ है और उसे फिर एक बार झटका लगा है। इस मामले में सीटीबीटी व एनपीटी जैसी नीतियां देखी जा सकती हैं। सीटीबीटी का उद्देष्य है कि कोई भी देष चाहे वह परमाणु षस्त्र धारक है या नहीं, किसी भी तरह का परीक्षण नहीं कर सकता। इस संधि के अनुच्छेद 4 में यह भी है कि संदेह के आधार पर किसी भी देष में जाकर निरीक्षण भी किया जा सकता है। हालांकि भारत सहित कुछ देषों ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि यह किसी भी देष की सम्प्रभुता के विरूद्ध है। परमाणु अस्त्र अप्रसार सन्धि (एनपीटी) भी इसी प्रकार की एक सन्धि है जिसके अनुच्छेद 6 में यह वर्णित है कि परमाणु षस्त्र सम्पन्न राश्ट्र परमाणु षस्त्र को समाप्त करने के लिए प्रत्येक 25 वर्श में इसका निरीक्षण करेंगे जिसे लेकर वर्श 1995 में सम्मेलन किया गया पर बिना किसी नतीजे के यह अनिष्चितकाल के लिए आगे बढ़ा दिया गया। हालांकि सन्धियों की परिस्थितियों को देखते हुए भारत सीटीबीटी और एनपीटी दोनों का विरोध करता रहा है।
विरोध के बावजूद मिसाइल दागने को लेकर दुनिया को हैरत में डालने वाला उत्तर कोरिया वैष्विक सुर्खियां भी खूब बटोरे हुए। चर्चित परन्तु अलोकप्रिय तानाषाह किम जोंग इस बात से परे है कि षेश दुनिया पर उसकी हरकतों का क्या प्रभाव पड़ रहा है। उत्तर कोरिया बीते 5 साल में तुलनात्मक कहीं अधिक विष्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। इसके पीछे वजह दिसम्बर, 2011 में तानाषाह किम जोंग का सत्ता पर काबिज होना है। किम जोंग के अब तक के कार्यकाल की पड़ताल भी बताती है कि यहां पर व्याप्त समस्याएं बड़े पैमाने पर विकास कर चुकी हैं। बावजूद इसके किम जोंग इससे बेअसर रहते हुए अपने निजी एजेण्डे मसलन परमाणु षस्त्र एवं मिसाइल आदि को तवज्जो देने में लगा हुआ है। यह बात भी समुचित है कि जब कोई तानाषाह लोककल्याण की अवधारणा से विमुख होता है और लोकतंत्र को मटियामेट कर अनाप-षनाप निर्णय पर उतारू हो जाता है तो ऐसे ही कृत्य उनकी प्राथमिकताओं में होते हैं। भुखमरी, बीमारी और बेरोजगारी समेत अनगिनत समस्याओं से जूझ रहे उत्तर कोरिया के तानाषाह के दुस्साहस से दुनिया स्तब्ध है पर दुनिया इसको लेकर क्या कदम उठाएगी अभी कहना कठिन है।




सुशील कुमार सिंह
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तीन दशक से सबूत के बावजूद

अमेरिका के एक अखबार ‘न्यूयाॅर्क टाइम्स‘ ने अपने सम्पादकीय लेख में लिखा कि दुनिया भर की जिहादी ताकतों की मजबूती में पाकिस्तान का हाथ है और यह भी सम्भव है कि आईएस के फलने-फूलने के लिए भी इस्लामाबाद से खाद मिल रही हो। आगे यह भी कहा गया कि ऐसे बहुत से सबूत पाये गये हैं जो बताते हैं कि पाकिस्तान ने तालिबान के अभियान में योगदान दिया है। इसके अलावा पाकिस्तानी खूफिया एजेन्सी आईएसआई लम्बे समय से मुजाहिदीन बलों के प्रबन्धक के रूप में काम भी किया है। मुष्किल यह है कि पाकिस्तान का सर्वाधिक आतंक झेलने वाला भारत विगत् तीन दषकों से सबूतों के साथ यह कहता रहा कि पाक आतंक की फैक्ट्री है पर यह बात कभी भी षिद्दत से नहीं ली गयी। पठानकोट हमले के बाद पहली बार ऐसा हुआ है जब पाकिस्तान सबूतों के बिनाह पर कार्रवाई का भरोसा जताया। हालांकि एक माह बीतने के बाद भी कार्रवाई के नाम पर जो भागम-भाग हुई उसमें रास्ते तय नहीं हुए हैं। न्यूयाॅर्क टाइम्स के ताजा लेख से यह साफ होता है और विष्लेशकों के पास ब्यौरा और सबूत भी यह संकेत करते हैं कि पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों को लेकर अब मामला ‘इंटरनेषनल डोमेन‘ में है पर सवाल यह रहेगा कि इन सबके बावजूद भी भारत कितने लाभ में होगा।
26/11 के हमले की योजना और घटनाओं के क्रम से डेविड हेडली से बहुत उम्मीद की जा रही है। 170 प्रष्नों के उत्तर में हेडली ने सोमवार को कई खुलासे किये जिसमें उसने मास्टर माइंड हाफिज़ सईद का नाम लिया है जो जमात-उद-दावा का सरगना है और पाकिस्तान में मान्यता प्राप्त षहरी है। डेविड हेडली ने यह भी कहा है कि उसने हाफिज़ सईद के भाशण से प्रभावित होकर यह सब काम किया। असल में डेविड हेडली का असली नाम दाऊद गिलानी है और वह भारत में 26 नवम्बर, 2008 के हमले में षामिल रहा है। हमले से पहले वह सात बार भारत आ चुका था। सोमवार का दिन भारतीय न्यायिक इतिहास में पहला मौका था जब एक आतंकी वीडियो लिंक के जरिये गवाही दिया और जानकारी रिकाॅर्ड की गयी। जाहिर है आतंक से पिछले तीन दषक से लड़ने वाले भारत के लिए यह और पक्के सबूत होंगे। समझने वाली बात यह है कि पाकिस्तान जिस षिद्दत से सबूतों को नकारने में लगा रहा और बार-बार भारत की उम्मीदों को तार-तार करता रहा बावजूद भारत हर घटना का सबूत देने में कभी कोई कोताही नहीं बरती। हेडली के बयान से साजिष की न केवल परतें खुलेंगी बल्कि इसके पीछे बड़ा दिमाग किसका है इसका भी पता चलेगा। जिसके कारण 160 से अधिक लोगों को जान गवानी पड़ी। अमेरिकी एजेन्सियों के सामने दिये बयान की प्रतियां राश्ट्रीय जांच एजेन्सी को मिली हैं। इससे साफ भी हुआ है कि मामला कितने परत वाला है। हेडली ने यह भी बताया है कि मुम्बई के अलावा दिल्ली में उपराश्ट्रपति आवास, इण्डिया गेट और सीबीआई मुख्यालय की भी रेकी की थी जिसमें मुख्य हेंडलर की भूमिका में आईएसआई के मेजर इकबाल और समीर अली षामिल थे।
बीते रविवार को पंजाब के खेमकरण सेक्टर में बीएसएफ ने भारतीय सीमा में पाक तस्करों की घुसपैठ की कोषिष को नाकाम करते हुए चारों को मार गिराया। ड्रग्स तस्करी का खेल भी पाकिस्तान से भारत की सीमा के अन्दर बरसों से खेला जा रहा है। देखा जाए तो आठ हजार करोड़ रूपए के ड्रग्स हर साल पाकिस्तान से पंजाब आ रही है। एम्स के सर्वे से यह भी पता चलता है कि दो लाख लोग पंजाब में अफीम के आदि हैं जबकि 20 करोड़ रूपए रोज पंजाब में ड्रग्स सेवन के लिए खर्च किये जाते हैं। तथ्य इस बात का पुख्ता सबूत है कि पड़ोसी देष पाकिस्तान से आतंकी ही नहीं जहर भी भारत में आता रहा है। ध्यानतव्य है कि बीते 2 जनवरी को आतंकी हमले का षिकार पठानकोट में आतंकी तस्करी की आड़ में अन्दर प्रवेष करने की संदिग्धता बताई गयी है। इसमें दो राय नहीं कि तस्करी के मामले में पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान सहित कई ऐसे पष्चिमोत्तर एषियाई देष हैं जहां बड़ा नेटवर्क है और इस चपेट में भारत के सीमावर्ती क्षेत्र भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी की बातों में पहले भी यह जिक्र आया है कि आतंक और नषीले पदार्थों का काफी गाढ़ा रिष्ता है। बीते 5 से 7 फरवरी के बीच हिन्द महासागर में इंटरनेषनल फ्लीट रिव्यू, 2016 का आयोजन किया गया। मोदी ने रविवार को समुद्र के रास्ते आतंकवाद और लूटपाट की घटनाओं का जिक्र करते हुए समुद्री सुरक्षा के सामने दो सबसे बड़ी चुनौतियों में इन्हें माना है। यह सही है कि समुद्री खुलापन भी आतंक और तस्करी का हमेषा से जरिया रहा है।
फिलहाल पाकिस्तान पर आतंक को लेकर नकेल कसने की कवायद इस दौरान सही दिषा और दषा में है। अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी पाकिस्तान को आतंकियों का सबसे सुरक्षित स्थान बता चुके हैं। अन्तर्राश्ट्रीय दबाव से भी पाकिस्तान इन दिनों गुजर रहा है। जिस ताकत के साथ भारत आतंक को लेकर प्राथमिकता बनाये हुए है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना आसान है कि पाकिस्तान को बचने का आगे बहुत अवसर नहीं मिलेगा। जिस प्रकार चैक-चैबंद बढ़ी है उससे भी लगता है कि नतीजे बहुत अच्छे नहीं तो बहुत खराब भी नहीं आयेंगे। सबके बावजूद पाकिस्तान के घड़ियाली आंसू पर भी तिरछी नजर डालनी ही होगी। आतंकियों का भरण-पोशण करने वाला पाकिस्तान भारत की भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ करने जैसी गलती करता रहा है। हालांकि इन दिनों पाकिस्तान भी आतंक की चपेट में देखा जा सकता है। ताजा घटनाक्रम बीते जनवरी माह में पेषावर के बाचा विष्वविद्यालय में आतंकी हमले से पाकिस्तान के 16 दिसम्बर, 2014 में पेषावर के ही आर्मी स्कूल में हुए आतंकी हमले की याद ताजा हो जाती है। असल बात तो यह है कि पाकिस्तान में विगत् कई दषकों से आतंकियों को लेकर जो ढीला रवैया अपनाया उसका भी नतीजा है कि अब नकेल कसने के टाइम में उसी पर पलटवार हो रहा है पर देखने वाली बात यह भी रहेगी कि इन सबके बावजूद भी क्या पाकिस्तान आतंक को लेकर कोई साफ-सुथरा दिमाग भी इस्तेमाल करेगा।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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