Wednesday, June 27, 2018

मानवाधिकार परिषद से भारत ने तोड़ा नाता

दुनिया भर में मानवाधिकारों की रक्षा करने के मकसद से जब साल 2006 में संयुक्त राश्ट्र ने मानवाधिकार परिशद की स्थापना की तब उसे भी षायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि कुछ ही समय में यह परिशद विवादों का संगठन बन कर रह जायेगा। स्विट्जरलैण्ड के जेनेवा षहर में मुख्यालय रखने वाला यह परिशद का मुख्य काज मानवाधिकार को प्रोत्साहित करना है परंतु इन सैद्धान्तिक तथ्य और व्यावहारिक पक्ष से यह दरकिनार होता दिख रहा है। अमेरिका बीते 19 जून को इस परिशद से यह आरोप लगाकर नाता तोड़ लिया कि 47 सदस्यों वाली यह परिशद इज़राइल विरोधी है साथ ही कहा कि लम्बे समय से परिशद में कोई सुधार नहीं आया जिसकी वजह से वह बाहर जा रहा है। पड़ताल बताती है कि अमेरिका तीन साल से संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार परिशद (यूएनएचआरसी) का सदस्य है। अभी डेढ़ वर्श ही पूरा हुआ था कि ऐसी खबर आने लगी कि परिशद् में सहमति का अभाव और अमेरिका की मांगों को न मानने के चलते वह इससे नाता तोड़ सकता है और जिसका औपचारिक ऐलान बीते 19 जून को कर भी दिया गया। बता दें कि पूर्व राश्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष के षासनकाल में भी अमेरिका ने तीन साल तक परिशद का बहिश्कार किया था मगर बराक ओबामा के राश्ट्रपति बनने के बाद 2009 में अमेरिका परिशद में षामिल हुआ। दो टूक यह भी है कि अमेरिका बीते कुछ वर्शों से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही कई कड़े कदम उठा चुका है। पेरिस जलवायु समझौता, यूनेस्को और ईरान परमाणु डील से वह पहले ही नाता तोड़ चुका है।
20 जनवरी 2017 को राश्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया के फलक पर कई ऐसे फैसले लिये जिससे उन्हें एक अलग सांचे में ढाला गया सत्ताधारी की पहचान मिली है। सप्ताह भर के भीतर 7 मुस्लिम देषों के अमेरिका के भीतर प्रवेष रोकना उनकी पहली ठोस कार्यवाही थी। सषक्त देष के राश्ट्रपति ट्रंप कई तरह के निर्णयों को लेकर एक अलग स्वभाव के लिये जाने जाते हैं। इसी क्रम में यूएनएचआरसी से हटने का एलान इस बात को दर्षाता है कि अमेरिका अपने निजी हितों को साधने के मामले में इस कदर सोच रखता है कि उसे षेश दुनिया की चिंता नहीं है। इस कदम से सभी को निराषा मिली है। यूएनएचआरसी के अध्यक्ष ने भी बयान जारी कर यह कहने का प्रयास किया कि बीते 12 वर्शों में इस संगठन ने कई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जेनेवा स्थित यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि मण्डल ने भी ट्रंप के इस कदम पर खेद जताया है। गौरतलब है कि अमेरिका के प्रतिनिधि द्वारा वांषिंगटन में इस परिशद से हटने का एलान किया गया था जिसमें स्पश्ट था कि हमने यह कदम इसलिए उठाया है क्योंकि हमारी प्रतिबद्धता ऐसी पाखण्डी और अहंकारी संस्था का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं देती जो मानवाधिकारों का मजाक बनाती है। उक्त परिप्रेक्ष्य को देखते हुए क्या यह मान लिया जाय कि संयुक्त राश्ट्र की यह परिशद मानवाधिकार का कारगर संरक्षण करने में अक्षम है। जब मार्च 2006 में 60वीं संयुक्त महासभा ने इस परिशद को स्थापित करने के निर्णय की पुश्टि की तो इसे लेकर कई कषीदे गढ़े गये थे पर यह पटरी से हटता हुआ दिखाई दे रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका का यह कदम दुनिया में मानवाधिकारों को और असुरक्षित करने में बल दे सकता है। समझने वाली बात यह भी है कि पहले खामियों के चलते रिपोर्टों को खारिज किया जाता था अब तो हाल यह है कि अमेरिका ने यूएनएचआरसी जैसे संगठन को ही खारिज कर दिया है।
मानवाधिकार का सिद्धांत और व्यवहार सर्वाधिक गहन विशयों में से एक है जिसने अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों का ध्यान अपनी ओर आकर्शित किया। मानवाधिकार का विचार, विकास की एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम लगता है। प्रथम और द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान मानवाधिकारों के भीशण हनन के चलते संयुक्त राश्ट्र के चार्टर में मानवाधिकारों की धारणा के सम्बंध में प्रसंग षामिल किये गये। जिसे लेकर उल्लेखनीय प्रगति 1948 में हुई जब महासभा ने 10 दिसम्बर को मानवाधिकार का एक सार्वभौमिक घोशणा पत्र अपनाया और दुनिया भर के मानव को कारगर संरक्षणकत्र्ता के रूप में अन्तर्राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मूर्त रूप सामने आया। संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार आयोग की जगह बनाया गया यह परिशद कई संदेहों से घिर कर अब अपने मकसद से दूर होता दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है कि दुनिया के ताकतवर देषों की प्रतिबद्धता मानवाधिकार के मामले में तेजी से घट रही है। एक तरफ देषों के बीच टकराव उग्र हो रहा है तो दूसरी तरफ न्याय और अन्याय को लेकर एक राय बनाना मुष्किल होता जा रहा है। इतना ही नहीं नागरिकों के मानवाधिकारों पर जब-जब बात होती है इसकी जवाबदेही सुरक्षाकर्मियों पर थोप दी जाती है। क्या यह बात वाजिब हो सकती है कि अधिकार और न्याय के मामले में बड़े देष संकुचित होते जायें और छोटे और कमजोर देष षोशण के षिकार। एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई ऐसे तीसरी और चैथी दुनिया के देष मिल जायेंगे जो अमेरिका और यूरोपीय देषों से मदद की दरकार रखते हैं। अपने प्रति हो रहे अन्याय को लेकर उनसे डटे रहने की उम्मीद करते हैं मगर यह सब इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि निजी हितों को साधने की फिराक में सभी को अपनी चिंता है। जब अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से हटने का एलान किया था तब राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने धमकाने के अंदाज में कहा था कि वे अमेरिका के राश्ट्रपति हैं न कि पेरिस के। 
दरअसल यूएनएचआरसी का मुख्य कार्य संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर अंतर्राश्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना रहा है। यह व्यक्तियों, समूहों, गैर-सरकारी संस्थानों की ओर से मिलने वाली षिकायतों पर काम करता है और मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करता है। परिशद, आॅफिस आॅफ द हाई कमिष्नर आॅन ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) के साथ बेहद करीब से काम करता है। एचआरसी के प्रस्ताव सदस्य देषों के राजनीतिक रूख स्पश्ट होते हैं। वैधानिक रूप से तो नहीं लेकिन नैतिक स्तर पर ये काफी प्रभावी माने जाते हैं। कुछ खास मामलों में मसलन सीरिया, उत्तर कोरिया के विशय में परिशद पूछताछ समिति भी बना सकती है या विषेश प्रस्ताव ला सकती है। वर्श 2017 में पेष अपनी वार्शिक रिपोर्ट में ओएचसीएचआर ने ऐसे 29 देषों का जिक्र किया जिन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की। इनमें से नौ देष मानवाधिकार परिशद के सदस्य देष ही निकले जिसे लेकर विवाद होना लाज़मी था। तत्पष्चात् साल 2018 की ह्यूमन राइट्स वाॅच रिपोर्ट में वेनेजुएला, रवांडा, चीन जैसे देषों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए गए हैं। ये सभी देष भी मानवाधिकार परिशद के सदस्य हैं। साफ है कि जिन्हें मानवाधिकार संरक्षण के लिये सदस्य देष के रूप में चुना गया वे भी हनन के दोशी हैं ऐसे में संगठन विषेश का महत्व जाहिर है घटता है। हर साल मार्च, जून और सितम्बर में इसके सदस्य आपस में मिलते हैं। यहां कष्मीर में मानवाधिकार को लेकर मुद्दा पाकिस्तान द्वारा भी उठाया जा चुका है। बीते मार्च में यूएनएचआरसी के 37वें सत्र में जब ऐसा हुआ तब भारत ने इस पर कड़ी आपत्ति की थी। बीते 23 जून को इस मामले में पाकिस्तान को एक बार फिर बड़ा झटका तब लगा जब भूटान, अफगानिस्तान बेला रूस और क्यूबा समेत 6 देषों ने कष्मीर रिपार्ट को खारिज कर दिया। गौरतलब है कि मौजूदा समय में पाकिस्तान यूएनएचआरसी का सदस्य है जबकि भारत 2020 तक इस परिशद में नहीं है। बावजूद इसके पाकिस्तान एक भी सदस्य देष का समर्थन जुटाने में नाकाम रहा। फिलहाल दुनिया में मानवाधिकार की रक्षा को लेकर बनाया गया यूएनएचआरसी विवाद का अड्डा बनता दिख रहा है। ऐसे में बड़ी सर्जरी की जरूरत है और अमेरिका को भी अपने अंदर झांकना चाहिए न कि आरोप लगाकर भागना चाहिए। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चीन की पटरी पर नेपाल की दौड़

सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि अब राजनयिक नीतियां, आर्थिक अपरिहार्यताओं के तले सांस लेने लगी हैं। इसी के दायरे में इन दिनों नेपाल को चीन से सम्बंध बढ़ाने के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि ऐसे ही परिप्रेक्ष्य के साथ नेपाल का सम्बंध भारत से भी है और कई मायनों में कहीं अधिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भी। चीन के छः दिन के दौरे पर गये नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली और चीन के बीच दोनों देषों को जोड़ने के लिये सड़क, रेल और हवाई मार्ग बनाने के बारे में समझौता हुआ और यह भरोसा जताया गया कि इससे एक नये युग की षुरूआत होगी। इतना ही नहीं आॅप्टिकल फाइबर नेटवर्क से भी दोनों देषों के सम्बंध में सहमति हुई है। गौरतलब है कि ओली का चीन जाना कुछ हद तक भारत के लिए चिंता का विशय है। दरअसल चीन की नजर हमेषा नेपाल पर रही है और जब-जब नेपाल में ओली की सत्ता हुई तब-तब यह चिंता तुलनात्मक बढ़े हुए दर के साथ रही है। ओली के दौरे से वन बेल्ट, वन रोड़ के तहत राजनीतिक साझेदारियां बढ़ सकती हैं जिसका संदर्भ चीनी विदेष मंत्रालय दर्षा रहा है। जाहिर है यह भारत के लिये सही नहीं है। इस परियोजना को लेकर भारत का विरोध आज भी कायम है। ऐसे दौरों एवं मुलाकातों से चीन और नेपाल के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मेल-जोल भी गहरे होंगे जिसका कूटनीतिक लाभ चीन अधिक उठायेगा और नेपाल का उपयोग वह कूटनीतिक संतुलन में भारत के प्रति कर सकता है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच नेपाल एक बफर स्टेट है। ऐसे में चीन किसी भी कीमत पर नेपाल के साथ दोस्ती करना चाहता है और यह काम केपी षर्मा ओली के प्रधानमंत्री रहने के समय कहीं अधिक आसान हो जाता है। 
केपी षर्मा ओली के हाथ में नेपाल की कमान दूसरी बार आयी है जिनके बारे में यह कहा जाता है कि नेपाल को चीन के करीब ले जाने में उनकी दिलचस्पी रही है। इतना ही नहीं ओली जब दोबारा नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो इसी साल मार्च के दूसरे सप्ताह में उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षाहिद खाकन अब्बासी का अपने देष में स्वागत किया था। अब्बासी ओली की सत्ता संभालने के बाद नेपाल पहुंचने वाले किसी भी देष का पहला प्रधानमंत्री था। तब भी भारत और पाकिस्तान के सम्बंध बेपटरी थे और अब भी। भारत और नेपाल के मामले में यदि नेपाल को चीन की ओर झुके हुए परिप्रेक्ष्य में परखें तो माथे पर बल पड़ता है पर चीन तो यही सोचता है कि नफे-नुकसान के समीकरण से भारत को बाज आना चाहिए। देखा जाय तो नेपाल की अर्थव्यवस्था काफी हद तक भारत पर निर्भर है ऐसे में चीन की ओर उसका झुकाव एकतरफा नहीं हो सकता। भारत के लिये यह बात असहज करने वाली होगी यदि वन बेल्ट, वन रोड़ परियोजना को नेपाल द्वारा समर्थन मिलता है। चीनी रेलवे का विस्तार हिमालय के जरिये नेपाल तक ले जाने की बात हो रही है। जो हर लिहाज़ से चीन के लिये ही बेहतर है। हालांकि नेपाल को यह भी डर होगा कि परियोजना में भारी खर्च होगा ऐसे में तजाकिस्तान, लाओस, मालदीव, किर्गिस्तान, पाकिस्तान समेत मंगोलिया व अन्य देषों की तरह कहीं वह भी चीन के कर्ज के बोझ के तले दब न जाये। ओली के बारे में यह भी स्पश्ट है कि नेपाल में चुनाव कुछ हद तक भारत विरोधी भावना के कारण ही जीते हैं जबकि भारत नेपाल को लेकर हमेषा बड़े भाई की भूमिका में रहा है ओर जरूरी आर्थिक मदद भी करता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले दौरे में नेपाल के लिये एक और सहज काम किया कि उन्होंने दोनों देषों के बीच हुए 1950 के समझौते में नेपाल द्वारा संषोधन की चाह रखने को सकारात्मक लिया। हालांकि भारत की चाहत है कि महाकाली नदी का पानी यमुना को दिया जाय और षायद ओली के रहते यह सम्भव नहीं है। दो टूक यह भी है कि नेपाल भारत से दुष्मनी की बात नहीं करता परन्तु समय-समय पर भारत के खिलाफ चीनी कार्ड खेलता रहता है।
नेपाल एक सम्प्रभु देष है और वह अपनी विदेष नीति को किसी देष के मातहत होकर षायद ही आगे बढ़ाये पर कुछ भी ऐसा हुआ तो भारत के लिये चिंतित होना लाज़मी है। सभी जानते हैं कि चीन के लिये नेपाल एक रणनीतिक ठिकाना मात्र है। हालांकि चीन के अंदर भी एक डर है। असल में नेपाल के भीतर भारी तादाद में तिब्बती भी रहते हैं और चीन ने तिब्बत पर अवैधानिक रूप से कब्जा किया हुआ है। फलस्वरूप उसे यह चिंता सताती रहती है कि नेपाल के हजारों तिब्बती ऐसा कोई आंदोलन न करें कि उसका असर तिब्बत पर पड़े। ऐसे में नेपाल के साथ उसका उठाया गया कदम दो तरफा होता है। एक नेपाल में स्वयं का घुसपैठ करना, दूसरा भारत की दखल को नेपाल में कमजोर करना। केपी षर्मा ओली और चीन के बीच 14एमओयू और विनमय पत्रों पर हस्ताक्षर हुआ है जिसमें सीमा पार बिजली सम्पर्क का आधारभूत संरचना भी षामिल है। फिलहाल ओली की चीन यात्रा हर लिहाज़ से चीन और नेपाल के लिये ठीक हो सकती है पर यह भारत के लिये सचेत होने की घण्टी भी है। इससे पहले ओली 2016 में चीन के साथ एक ट्रंाजिट कारोबारी संधि पर हस्ताक्षर किये थे जिसके चलते सामानों को नेपाल लाने के लिये भारत पर निर्भरता कम करना था। प्रधानमंत्री मोदी बीते मई नेपाल की यात्रा पर थे और कसावट से भरा संवाद ओली के साथ किया था। गौरतलब है कि ओली पहली बार जब प्रधानमंत्री बने थे तब चीन की यात्रा पहले किया था। दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर भारत की यात्रा पहले की पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनका चीन के प्रति झुकाव कम है। निहित संदर्भ यह भी है कि 2016 में नेपाल के लगभग साढ़े पांच हजार छात्रों ने चीन के षैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई की। बात इतनी ही नहीं है नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ाने की दृश्टि से वहां के 40 हजार छात्रों को मंडारिन सिखायी जा रही है जो चीन की भाशा है। ध्यानतव्य हो कि विदेष मंत्री सुशमा स्वराज का पिछला चीनी दौरा हिन्दी और चीनी भाशा सीखने से भी जुड़ा था। सम्भव है कि भाशा आदान-प्रदान से उपादेयता में अन्तर आ सकता है पर इसकी आड़ में यदि अवसर खोजा जायेगा तो हर हाल में चीन ही लाभ में होगा।  
लगभग तीन वर्श पीछे चलें तो पता चलता है कि सितम्बर 2015 में नेपाल द्वारा नये संविधान के अंगीकृत किये जाने के फलस्वरूप भारत-नेपाल की बीच सम्बंध तनावग्रस्त हुए थे। गौरतलब है कि पौने तीन करोड़ की आबादी वाले नेपाल में सवा करोड़ मधेषी हैं जो उत्तर प्रदेष और बिहार मूल के हैं और नेपाल की तराई में रहते हैं। नये संविधान में इनके साथ भेदभाव किया गया था जिसे लेकर नेपाल के भीतर विरोध बढ़ा और आर्थिक नाकेबंदी हुई थी। तब उस वक्त सुषील कोइराला के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री केपी षर्मा ओली थे। भारत से नेपाल में आपूर्ति पूरी तरह बंद हो गयी थी। ऐसा मधेषियों ने नाकाबंदी के चलते किया था पर नेपाल ने पूरा दोश भारत पर मढ़ दिया था। इसी दौरान औली ने चीन की ओर झुकने की चुनौती भी भारत को दी थी और चीन गये भी थे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत-नेपाल सम्बंध पर चीन की कूटनीति प्रभावी रही है। प्रचण्ड और ओली जैसे सत्ताधारियों ने चीनी कार्ड भी खेला है। नेपाल में चीन के जमते पांव के दोशी नेपाल की सत्ता होती है पर माथे पर बल भारत के होता है। षान्ति और मैत्री संधि का अनुच्छेद 2 स्पश्ट करता है कि नेपाल और भारत की सरकारें अपने पड़ोसी के साथ किसी भी ऐसे टकराव की जानकारी एक-दूसरे को देंगी जिसका प्रभव उनके मैत्रीपूर्ण रिष्ते पर पड़ने वाला हो पर सच्चाई यह है कि कूटनीतिक और आर्थिक अपरिहार्यताओं ने इन्हें भी बौना किया है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, June 20, 2018

बेमेल ही था भाजपा-पीडीपी का मेल

जम्मू- कश्मीर की तीन साल से अधिक पुरानी भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार का बीते मंगलवार अंत हो गया। नोक-झोंक और आपसी तनातनी के साथ सरकार चलाने के बाद यह बेमेल गठबंधन लोकसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले आखिरकार टूट गया। जाहिर है सूबे में संवैधानिक संकट पैदा हो गया है क्योंकि मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए राजनीतिक समीकरण सत्ता के लिहाज़ से षून्य है। फिलहाल राज्य राज्यपाल षासन के अधीन है और दोनों दल अपने-अपने नफे-नुकसान की पड़ताल में लगे हैं। भाजपा के हाथ खींचने से महबूबा सरकार गिर गयी पर षायद ही महबूबा मुफ्ती को इसका यकीन रहा हो कि एकाएक ऐसा हो जायेगा। सियासत के अपने पैरामीटर होते हैं और अवसरवादिता भी इसमें षुमार होती है। भाजपा ने महबूबा से ऐसे समय में तौबा किया जब इसका मौका हाथ आया। हालांकि 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में पहली बार बनी गठबंधन सरकार सौदेबाजी से जकड़ी थी और महबूबा मुफ्ती से भी यह मुक्त नहीं थी। देखा जाय तो कुछ भी टिकाऊ जैसा नहीं था। बीते तीन वर्शों से घाटी में आतंकवाद बढ़ा, कट्टरता बढ़ी और कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ी। सैकड़ों की तादाद में भले ही आतंकवादी मारे गये हों पर सेना के षहीद होने के सिलसिले आज भी नहीं थमे हैं। घाटी में पत्थरबाजों का भी बड़ी तादाद में विस्तार हुआ। पर्यटकों को भी निषाना बनाया गया। कष्मीर घाटी के साथ षान्त जम्मू भी अषान्ति की चपेट में दिखने लगा। भाजपा भले ही सत्ता की बराबर की भागीदार रही हो पर महबूबा के सामने उनकी नीतियां कमजोर और बौनी सिद्ध हो रही थी। जिसके चलते बीते कई वर्शों से भाजपा की लगातार किरकिरी होती रही। जिसे देखते हुए उसे गठबंधन तोड़ने वाला कदम उठाना ही पड़ा।
फिलहाल जम्मू-कष्मीर में राज्यपाल षासन के चलते अब पूरा जिम्मा केन्द्र के पास आ गया है जबकि घटी चैतरफा समस्या से घिरी है। ऐसे में घाटी में अमन-चैन कायम होने के लिये भाजपा की पीठ थपथपायी जायेगी और स्थिति बिगड़ने के मामले में विधिवत् आलोचना भी होगी। बेमेल गठबंधन सरकार को देखते हुए समर्थन वापसी कहीं से अप्रत्याषित तो नहीं था मगर रमजान के बाद जब आॅप्रेषन आॅल आउट दोबारा षुरू करने की बात आयी तो महबूबा की ओर से जो हुआ वह आष्चर्यजनक जरूर था। गौरतलब है कि महबूबा मुफ्ती सीज़ फायर की पक्षधर थी जबकि केन्द्र सरकार आॅप्रेषन के पक्ष में थी। यह संदर्भ दर्षाता है कि भाजपा घाटी के घटनाक्रम को लेकर किस कदर दबाव में थी। हालांकि पीडीपी और भाजपा के बीच तनातनी सरकार गठन के समय से ही षुरू हो गयी थी। 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के 5 दिन के भीतर ही घाटी के अलगाववादी तत्वों को जेल से रिहा करने का काम किया। तभी से यह संकेत मिलने लगा कि यह सरकार उत्तर और दक्षिण ध्रुव है। न इनका घालमेल होगा, न ही मेल होगा। जब तक चलेंगे बेमेल ही रहेंगे। घाटी से अफस्पा हटाने की महबूबा की मांग से लेकर अलगाववादियों से बातचीत करने यहां तक कि पाकिस्तान से भी डायलाॅग जारी रखने जैसे मनसूबे उनमें कूट-कूटकर भरे थे। गौरतलब है कि दिसम्बर 2014 में जम्मू-कष्मीर की विधानसभा का चुनाव सम्पन्न हुआ था। नतीजे के बाद पीडीपी ने दहषतगर्दों और पाकिस्तान को धन्यवाद दिया था कि उनकी वजह से चुनाव में कोई गड़बड़ी नहीं आयी। दो टूक यह भी है कि भाजपा अपने महत्वाकांक्षी राजनीति के चलते पीडीपी से गठजोड़ किया और आज काफी हद तक उसकी कीमत चुका रही है।
जाहिर है घाटी का अमन-चैन दुष्वार हुआ है। दुष्मनों की तादाद बढ़ी है ऐसे में सरकार को अतिरिक्त मषक्कत करनी होगी। गौरतलब है कि पिछले साल जून से जारी आॅप्रेषन आॅल आउट के तहत 250 से अधिक दुर्दांत आतंकी घाटी में ढ़ेर किये जा चुके हैं मगर इनके बोझ से घाटी अभी मुक्त नहीं हुई है। पत्रकार षुजात बुखारी का दिन दहाड़े हत्या वहां की बिगड़ी कानून व्यवस्था को प्रदर्षित करती है। बरसों से सेना पर पत्थर बरसाया जा रहा है और यह क्रम अभी रूका नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्र सरकार अपनी जिम्मेदारी समझती है और हालात को देखते हुए कड़े कदम भी उठा सकती है। सुरक्षा बलों को पूरी छूट मिल सकती है स्थिति को काबू में लाने के लिये एहतियातन हर जरूरी कदम उठाना केन्द्र सरकार की फिलहाल मजबूरी भी है। महबूबा मुफ्ती ने साफ किया है कि उन्होंने सत्ता नहीं गठजोड़ के मकसद से भाजपा के साथ हाथ मिलाया था और वह इसमें कामयाब भी हुई हैं। महबूबा की दलीलों को देखें तो साफ हो जाता है कि भाजपा ने ऐसे सियासी दल के साथ जम्मू-कष्मीर में तीन साल से अधिक वर्श खर्च कर दिये जिसमें राश्ट्रवाद नहीं अलगाववाद षुमार था। गौरतलब है कि महबूबा अमन के लिये अलगाववादियों और पाकिस्तान से बात की वकालत करती रही। कष्मीर में बाहुबल और षक्ति की नीति को खारिज करती रही। अनुच्छेद 370 को लेकर उनकी अपनी आपत्ति थी। 11 हजार पत्थरबाजों से मुकदमे वापस कराने में भी वे सफल रही। ऐसा वह कह रही हैं। जाहिर है कि जिसकी झोली में इतना सब कुछ आयेगा वह अपने मकसद में कामयाब ही कहलायेगा। भाजपा की दलील है कि पीडीपी ने मनमानी तरीके से काम किये और काम में बाधा डाली। इतना ही नहीं जनता के मूल अधिकार भी खतरे में पड़े और विकास के मामले में तो जम्मू व लद्दाख से भेदभाव और वह घाटी तक ही केन्द्रित रही। भाजपा यह भी कह रही है कि राश्ट्रीय एकता और अखण्डता के खतरे के मद्देनजर उसने देषहित में यह फैसला लिया। हैरत इस बात की है कि भाजपा को उपरोक्त का 3 साल बाद पता चला। 
तो क्या यह माना जाय कि जिस इरादे से भाजपा पीडीपी को समर्थन दिया था उसमें वह नाकाम रही और जिस हालात में जम्मू-कष्मीर पहुंच गया उसे देखते हुए यह भी मानना स्वाभाविक है कि महबूबा सरकार भी हर मोर्चे पर विफल रही है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि नाकामी के भागीदार भाजपा भी रही है। गठबंधन तोड़ने के बाद भाजपा की अपनी दलीलें हैं और सत्ता से हाथ धो बैठी महबूबा भी अपनी भड़ास निकाल रही है। 40 महीने पुरानी सरकार के ढहने से राजनीति भी गरम हुई है। मुख्य विपक्षी नेषनल कांफ्रेंस ने साफ किया कि वे गठबंधन सरकार नहीं बनायेंगे जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि राज्य को आग में झोंक दिया। जाहिर है अब चुनाव ही मात्र एक विकल्प है। घाटी की सूरत काफी बिगड़ी अवस्था में चली गयी है। आंकड़े बताते हैं कि 141 आतंकी मारने की एवज में 63 जवान षहीद हुए हैं और पाकिस्तान ने बीते तीन सालों में हजार से अधिक बार सीज़ फायर का उल्लंघन किया है और करीब छोटी-बड़ी लगभग चार हजार घटनायें घटी हैं। जिस तादाद में समस्याएं बढ़ी हैं उसकी तुलना में सरकार के क्रियाकलाप न के बराबर प्रतीत होते हैं। महबूबा मुफ्ती भले ही लाख सफाई दें घाटी के अंदर उनके रहते हुए सेनाओं पर जिस प्रकार हमला किया गया वह हतप्रभ करने वाला है। भाजपा देर से ही सही समर्थन वापस लेकर कुछ गुनाह कम करने की कोषिष की है परन्तु उसकी अग्नि परीक्षा अब षुरू हुई है। जान-माल की सुरक्षा के साथ-साथ घाटी को आतंकियों के बोझ से मुक्त करना अब केन्द्र सरकार के जिम्मे है। जब दो दलों में मतभेद हैं तो लोक कल्याण की उपादेयता उसमें हो ही नहीं सकती। ऐसे में सरकार का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। पीडीपी की यह चाहत की केन्द्र सरकार हुर्रियत समेत सभी अलगाववादियों से बातचीत करे यह कहीं से दुरूस्त बात नहीं है और भाजपा का गठबंधन तोड़ने वाला कदम हर प्रकार से जायज प्रतीत होता है। दो टूक कहें तो दोनों को एक-दूसरे से मानो मुक्ति मिल गयी हो।




सुशील कुमार सिंह
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नीति आयोग की नीति और राजनीति

भारत राज्यों का संघ है और बिना संघीय ढांचे को मजबूत किये टीम इण्डिया बनाने की सोच और न्यू इण्डिया की संकल्पना सम्भव नहीं है। जब 1 जनवरी, 2015 को योजना आयोग के स्थान पर ‘थिंक टैंक‘ नीति आयोग बनाने का प्रस्ताव मंत्रिमण्डल द्वारा जारी किया गया तब यह तय माना जा रहा था कि यह भारत सरकार को निर्देषात्मक एवं नीतिगत गतिषीलता प्रदान करेगा। कमोबेष यह अपने पद्चिन्हों पर चल भी रहा है पर यह आयोग सियासत से परे है पूरी तरह नहीं माना जा सकता। बीते 17 जून को नीति आयोग की ताजा बैठक में जहां एक तरफ कई मुख्यमंत्री प्रदेष और अपनी वित्तीय जरूरतों का रोना रोते रहे वहीं गैर एनडीए मुख्यमंत्रियों की ओर से अलग गुट बनाने और दिखाने का प्रयास भी चलता रहा। गौरतलब है कि यह बैठक 2022 तक न्यू इण्डिया बनाने के लिए जरूरी रणनीतिक दस्तावेज को लेकर बुलाई गयी थी। इसी बैठक में मनरेगा को किसानों के लिये फायदेमंद बनाने के लिये मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी जिसमें बिहार, सिक्किम, गुजरात, उत्तर प्रदेष, पष्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेष के मुख्यमंत्रियों को षामिल किया गया। कमेटी को इस बात का परामर्ष देना है कि मनरेगा का कृशि में कैसे बेहतर इस्तेमाल हो। प्रधानमंत्री मोदी ने नीति आयोग से राज्यों के साथ सामंजस्य बढ़ाने को कहा। इस पर राज्यों का यह भी आरोप है कि यह आयोग जो भी नीतियां बनाता है उसमें उनकी भागीदारी ज्यादा नहीं होती। हालांकि इसके बाद यह सहमति बनी है कि अब राज्यों के साथ ज्यादा बैठकों का दौर होगा ताकि आने वाली रूकावटों को हटाया जा सके।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि बीतते वर्शों के साथ सरकार का संस्थागत ढांचा विकसित और परिपक्व हुआ है। जिन उद्देष्य को लेकर नीति आयोग प्रकाष में आया था उस पर भी कदम आगे बढ़े हैं। इस आयोग ने लोगों के विकास के लिये, नीति बनाने के लिये एक प्रकार से सहकरी संघवाद को षामिल किया। जिसका तात्पर्य है कि केन्द्र के साथ राज्य भी योजनाओं को बनाने में अपनी राय रख सकेंगे। खास यह भी है कि इसके अन्तर्गत योजना निचले स्तर पर इकाईयों गांव, जिले, राज्य व केन्द्र के साथ आपसी बातचीत के बाद तैयार की जायेगी। साफ है कि नीति आयोग जमीनी वास्तविकता के आधार पर योजना चाहता है। प्रधानमंत्री मोदी बैठक के दौरान लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने के लिये व्यापक चर्चा का समर्थन किया। इससे उन्होंने देष का बहुत पैसा बचेगा की बात कही। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गर्वनिंग काउंसिल ने देष के विकास के लिये ऐतिहासिक बदलाव का मन बनाया है परंतु यह तभी मूर्त रूप ले सकता है जब सरकारें टीम इण्डिया की तरह काम करें मगर पार्टी और राजनीति की गुटबाजी के चलते यहां खेमों में सरकारें बंटी रहती है हद तक खींचातानी का भी आंतरिक संदर्भ देखा जा सकता है। बिहार और आंध्र प्रदेष काफी समय से विषेश राज्य के दर्जे की बात कर रहे हैं। नीति आयोग की इस बैठक में भी एक बार फिर यह मांग दोनों प्रदेषों ने उठाया। यहां बता दें कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं जबकि आन्ध्र प्रदेष की सत्ता चला रहे चन्द्रबाबू नायडू हाल ही में एनडीए को छोड़ चुके हैं जिसकी मुख्य वजह विषेश राज्य का दर्जा ही माना जाता है। जिस तरह के मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य उथल-पुथल की अवस्था में जा रहे हंै और नये गठबंधन और समीकरण विकसित करने के प्रयास हो रहे हैं।उसे देखते हुए नीति आयोग के अंदर सियासी भंवर होने से इंकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है 2019 के आम चुनाव होने तक नीति आयोग की कई बैठकें होंगी जिसमें बिछड़े और नये सियासी साथियों से कुछ भावनात्मक जुड़ाव का मौका भी मिलेगा।
नीति आयोग के गठन के बाद यह स्वाभाविक अपेक्षा थी कि जीडीपी ग्रोथ के साथ देष के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों मसलन गरीबी, बेरोज़गारी और महंगाई इत्यादि की समस्या के निराकरण हेतु राज्यों के साथ मिल बैठकर ऐसी नीतियां बनेगी जिससे सहकारी संघवाद का स्वप्न भी पूरा होगा। चूंकि नीति आयेाग एक थिंक टैंक है ऐसे में खुले मस्तिश्क के साथ इस मंच पर काम किया जा सकता है। मगर सियासी अनबन में क्या यह पूरी तरह सफल है पड़ताल का विशय है। वैसे देष में हर चैथा व्यक्ति अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अषिक्षित हैं। देष में बेरोजगार युवाओं की भरमार है साथ ही सरकारी नौकरियों में भी कटौती का संदर्भ देखा जा सकता है। आर्थिक नीति और मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण के अभाव में महंगाई भी जनता को दबाव में समय-समय पर लेती रहती है। गौरतलब है कि राज्यों की जरूरत की बात तो बाद में आती है, राजनीतिक घमासान को लेकर चिंतायें पहले नम्बर पर है। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और केन्द्र के बीच बरसों से छत्तीस का आंकड़ा है। पष्चिम बंगाल समेत कर्नाटक, केरल और आन्ध्र प्रदेष के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री मोदी से आग्रह किया कि दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल अनिल बैजल के साथ छिड़ी जंग समाप्त करायें। गौरतलब है कि ये सभी नीति आयोग की बैठक के एक दिन पहले केजरीवाल के घर पर थे। इसका सियासी अर्थ भी समझा जा सकता है और सांकेतिक विपक्षी एकता की ताकत के तौर पर भी पहचाना जा सकता है। सबके बाद समझना यह है कि जिस नीति आयोग को सहकारी संघवाद की तर्ज पर आगे बढ़ा रहे हैं क्या वे राज्यों के गुटों में विभाजन के चलते लक्ष्य पा पायेगा। गठबंधन समेत 22 राज्यों में एनडीए की सरकार चल रही है परन्तु जिन राज्यों में इनकी उपस्थिति नहीं है वहां की राजनीति से नीति आयोग षायद ही बेअसर हो। इतना ही नहीं बिहार के विषेश राज्य की मांग के चलते नीतीष कुमार भी राजनीतिक पेषोपेष में देखे जा सकते हैं।
विपक्ष का यह आरोप है कि अर्द्धसत्य, अतिष्योक्ति और छलावा नीति आयोग में प्रधानमंत्री के भाशण को परिभाशित करती है। दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने के प्रधानमंत्री के वायदे को विपक्ष महा जुमला बता रहा है। मोदी ने चार साल पहले 26 मई को प्रधानमंत्री के रूप में पद संभाला और उसी साल 15 अगस्त को लाल किले से योजना आयोग की जगह नीति आयोग को लाने की बात कही जिसका मूर्त रूप 1 जनवरी, 2015 को देखने को मिला। नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया पिछले साल अगस्त में त्यागपत्र देकर कोलम्बिया विष्वविद्यालय में पढ़ाने चले गये दरअसल वे वहीं से छुट्टी पर आये हुए थे तब से राजीव कुमार इस पद पर काबिज हैं। नेषनल इंस्टीट्यूट फाॅर ट्रांसफाॅमिंग के प्रथम अक्षर एनआईटीआई से बना नीति आयोग एक थिंक टैंक के तौर पर उम्मीदों को परवान चढ़ाने का काम किया। आर्थिक परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण की मूल धारा क्या होती है इसे नीति आयोग के दायरे में ही आंका जा सकता है। हालांकि देष में समस्याओं के निराकरण को लेकर ठोस कदम उठे हैं पर पूरे नहीं पड़े हैं। इस आयोग के चलते राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रषासित प्रदेषों के उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री एक प्लेटफाॅर्म पर जुटते हैं हालांकि योजना आयोग को अन्तिम अनुमति देने वाली राश्ट्रीय विकास परिशद् में भी ये सभी सदस्य होते हैं। संगठनात्मक तौर पर नीति आयोग कई सम्भावनाओं की संस्था है। न्यू इण्डिया से लेकर डिजिटल इण्डिया और स्मार्ट सिटी से लेकर स्मार्ट गांव तक ही नहीं हर मर्ज की दवा और उसकी धारणा इसमें निहित है। परिसंघीय ढांचे से युक्त भारतीय संविधान का सहकारी संघवादी अवधारणा से भी यह ओत-प्रोत है मगर सियासी लोभ-लालच के चलते कुछ हद तक नीति आयोग भी राजनीतिक एकता और गुट मंच दिख रहा है जो कहीं से समुचित नहीं कहा जा सकता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Wednesday, June 13, 2018

विश्व इतिहास के पन्ने मे 12 जून 2018

वास्तव में रूस और चीन जैसे देष को छोड़ दिया जाय तो पूरी दुनिया में उत्तर कोरिया का कोई बड़ा हितैशी नज़र नहीं आता। इस परिप्रेक्ष्य में दृश्टि गड़ा के देखें तो अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और किम जोंग उन की मुलाकात ने उत्तर कोरिया को यह अवसर दे दिया है कि वह न केवल अपना निर्वासन खत्म करे बल्कि अन्तर्राश्ट्रीय बिरादरी से जुड़ने के अवसर का लाभ भी उठाये। बरसों की तनातनी मात्र एक मुलाकात से दुनिया के लिये राहत की सांस बन जायेगी ऐसी अवधारणा इतिहास में षायद ही हो। डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के किम जोंग ने सिंगापुर में 12 जून 2018 को जो किया वह विष्व इतिहास के पन्ने पर चस्पा आम इतिहास तो नहीं कहा जायेगा। इसी वार्ता ने दोनों देषों के 68 बरस की षत्रुता का अंत कर दिया गौरतलब है 1950 से 1953 के उत्तर व दक्षिण कोरियाई युद्ध के बाद अमेरिका और उत्तर कोरिया के राश्ट्राध्यक्षों की यह पहली मुलाकात थी। सिंगापुर के सेंटोसा द्वीप पर स्थित कैपिला होटल में 50 मिनट की ऐतिहासिक षिखर वार्ता जिस राह को अख्तियार किया वह कहीं न कहीं तीसरे विष्व युद्ध के आगाज का भी अन्त कहा जा सकता है। खास यह भी है कि आइजन हाॅवर (1953) से लेकर बराक ओबामा (2016) तक 11 राश्ट्रपतियों ने उत्तर कोरिया से सम्बंध सुधारने की कोषिष की लेकिन सफलता डोनाल्ड ट्रंप के हिस्से में आयी। 
ट्रंप और किम की षिखर बैठक ने उत्तर कोरिया को यह मौका दे दिया कि वह अपना परमाणु कार्य खत्म कर अपने देष को गरीबी और बदहाली से उबारे। ट्रंप ने भी इसकी सुरक्षा की गारंटी की बात कह दी है परन्तु उस पर प्रतिबंध जारी रहेंगे। रोचक यह भी है कि किम और ट्रंप जो एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं भा रहे थे साथ ही षब्दों के बाण और धमकियां जहां दोनों ओर से अनवरत् जारी थी वहीं सिंगापुर में दोनों गहरी सूझबूझ दिखा रहे थे। कई अवसर ऐसे भी देखे गये जब मनोवैज्ञानिक संतुलन के लिये ट्रंप ने किम के बांह और पीठ पर हाथ रखा, एक बार किम ने भी ऐसा किया। ट्रंप के हावभाव ने यह भी एहसास कराया कि अमेरिका ताकत वाला देष है। 71 वर्शीय ट्रंप और 34 वर्शीय किम के बीच वाकई में अच्छी कैमिस्ट्री देखने को मिली। उत्तर कोरिया में कम उम्र के लोगों को बड़ों से पहले स्थल पर पहुंचना होता है इसका निर्वहन करते हुए किम 7 मिनट पहले से वहां उपलब्ध थे। चन्द माह पहले दोनों देष षत्रुता के चरम बिन्दु पर थे और युद्ध के कगार पर पहुंच गये थे अब उनके बीच षान्ति का पर्व वाकई अद्भुत है। अमेरिका की आंखों में चुभने वाला किम अब ट्रंप के लिये प्रतिभाषाली हो गया है और व्हाइट हाऊस में बुलाने लायक भी। दरअसल वैष्विक फलक पर कूटनीति सीधे राह पर नहीं चलती बल्कि यह अपना टेढ़ा-मेढ़ा स्वरूप भी अख्तियार करती है। उत्तर कोरिया भले ही राह से भटक कर साल 2006 से लेकर अब तक 6 परमाणु परीक्षण समेत कई बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण कर दुनिया के लिये किरकिरी बना हो पर अमेरिका से सम्बंध जुड़ने के बाद सभी इसके घातक सिद्धांत से कमोबेष मुक्त महसूस कर रहे होंगे। इसमें सबसे ज्यादा दक्षिण कोरिया और जापान खुष होंगे। गौरतलब है कि ट्रंप ने मुलाकात से पहले जापानी प्रधानमंत्री षिंजो अबे और दक्षिण कोरिया के राश्ट्रपति मून से फोन पर बातचीत की थी। वार्ता के बाद ट्रंप ने जापान और चीन के प्रयासों को लेकर उनकी सराहना भी की थी। 
फिलहाल ट्रंप और किम की मुलाकात से दुनिया चैन की सांस ले सकती है मगर उत्तर कोरिया को वार्ता के लिये डोनाल्ड ट्रंप के समीप पहंचाने हेतु चीन और रूस की पर्दे के पीछे की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। वार्ता से पहले किम ने दो बार चीन की यात्रा की जाहिर है कि चीन की सीख उसे काम आयी होगी। किम बीते कुछ महीनों में जिस तर्ज पर अपने को परिवर्तित नेता के रूप में परोसने की कोषिष की वह भी वार्ता की सफलता के लिये अहम सिद्ध हुआ। इस मुलाकात के वैष्विक पटल पर कई मायने निकाले जा सकते हैं परन्तु भारत के लिये उत्तर कोरिया एक नया बाजार हो सकता है और कोरियाई प्रायद्वीप में वह अपनी वृहद् नीति को तत्परता से आगे बढ़ा सकता है। जाहिर है यहां से अब आगे की कवायद कूटनीतिक व आर्थिक हितों को साधने की होगी। कोरियाई प्रायद्वीप अब एक साथ अमेरिका, चीन व जापान जैसे विष्व षक्तियों की कूटनीतिक गतिविधियों का बड़ा केन्द्र हो सकता है। ऐसे में भारत को भी अपने हितों को लेकर कुछ हद तक सतर्क रहना होगा। हाल ही के वर्शों में देखा गया है कि प्रषान्त महासागर के क्षेत्र में देषों की आक्रामक नीतियां रही हैं। अमेरिका और कोरियाई द्वीप समेत जापान के साथ यदि चीन का परिप्रेक्ष्य भी सकारात्मक होता है तो इस बदले हुए परिप्रेक्ष्य में भारत के हित प्रभावित हो सकते हैं पर सच्चाई यह भी है कि चीन को छोड़ सभी देषों से भारत के रिष्ते अच्छे हैं। रिष्ते तो चीन से भी अच्छे हैं ऐसे में इसकी सम्भावना कम है परन्तु फिर भी सतर्क रहने की आवष्यकता रहेगी। भारत 2016 में चीन के बाद उत्तर कोरिया का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार देष था। वह बड़े पैमाने पर यहां खाद्यान्न की आपूर्ति भी करता रहा। विदेष नीति के जानकार यह मानते हैं कि ट्रंप और किम की मुलाकात के बाद यहां की फिजा बदलेगी जरूर। इसमें दक्षिण कोरिया की भी भूमिका अहम मानी जा सकती है। गौरतलब है कि दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून पहले से ही भारत आने की तैयारी में है लेकिन उत्तर कोरिया में मचे घमासान के बीच यह सम्भव नहीं हुआ। सम्भव है कि अगले महीने जुलाई में उनकी यात्रा सम्पन्न हो। 
किम जोंग ने भी कहा है कि दुनिया अब नया बदलाव देखेगी। ट्रंप और किम जोंग ने पनपते विष्व अषान्ति को षान्त कर दिया है परन्तु आतंकवाद से दुनिया अभी भी त्रस्त है। भारत के लिये आतंकवाद बड़ा पहलू रहा है। यही कारण है कि ट्रंप की निगाहें पाकिस्तान पर टेढ़ी ही हैं। भले ही उन्होंने पाकिस्तान को धूर्त देष घोशित किया हो पर आतंक को लेकर अभी अढ़ाई कोस भी नहीं चल सके हैं। सम्भव है कि उत्तर कोरिया से ध्यान हटाकर अब ट्रंप पाकिस्तान पर निगाहें लगायें। यदि पाक आयातित आतंक से भारत को राहत मिलती है तो यह उसकी बड़ी सफलता होगी और काफी हद तक चीन को भी सबक मिलेगा। सभी जानते हैं कि हर मौके पर चीन पाकिस्तान के साथ होता है। फिलहाल सिंगापुर में इस साल की सबसे जबरदस्त तस्वीर तब देखने को मिली जब ट्रंप और किम टेबल टाॅक कर रहे थे और दोस्ती की मिसाल के साथ इतिहास गढ़ रहे थे। वार्ता के दो दौर थे और इसकी गम्भीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ट्रंप ने दुनिया की सबसे बड़ी और खतरनाक समस्या का हल इस वार्ता को करार दिया। परमाणु बम पर बटन दबाने की धमकी देने वाले दोनों नेता आपस में मुस्कुरा और खिलखिला रहे थे। कह सकते हैं कि पहली मुलाकात का आगाज यह है तो किम द्वारा किये गये वायदे जिसे लेकर ट्रंप को पूरा विष्वास है कि निभाया जायेगा उस पर किम खरा उतरता है तो अमेरिका का उत्तर कोरिया के प्रति आने वाले दिनों में अंदाज कहीं अधिक सकारात्मक और अलग दिखेगा। सबके बाद दो टूक यह है कि 12 जून, 2018 अन्तर्राश्ट्रीय बिरादरी में एक ऐसी तिथि है जिसका मंथन कई अवसरों पर समय के साथ किया जाता रहेगा। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, June 11, 2018

चीन मे भारत की पहल और पारदर्शिता

भारत और चीन के रिष्ते दुनिया की नजरों में प्रेरणा से कहीं अधिक युक्त प्रदर्षित हों न कि खटकने वाले इसका संकेत अब दोनों देषों को देते हुए देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी भारत-चीन रिष्ते को इसी दिषा में ले जाने की बात कह रहे हैं और चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग भी कुछ ऐसा ही राग अलाप रहे हैं। सम्भव है कि इसके कई सामाजिक-आर्थिक लाभ आगामी दिनों में देखने को मिल सकते हैं। साथ ही पड़ोसी चीन से कूटनीतिक और परिस्थितिजन्य मामलों में भी भारत की यह पहल और पारदर्षिता संतुलन बिठाने के काम आयेगी। गौरतलब है कि चार साल में मोदी और जिनपिंग के बीच 14 बार अलग-अलग मंचों पर मुलाकात और बैठकें हुई हैं। ताजा परिप्रेक्ष्य देखें तो मोदी 42 दिन के भीतर दूसरी बार बीते 9 जून को चीन पहुंचे जबकि इसके पहले 27 व 28 अप्रैल को अनौपचारिक वार्ता के लिये चीन गये थे। चीन के किंगदाओ में सम्पन्न हुए षंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) से अलग भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राश्ट्रपति के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई जिसे महत्वपूर्ण कोषिष करार दी जा सकती है। अप्रैल यात्रा के दौरान इस बात की षुरूआत हुई थी कि चीन राजनीतिक भरोसे को निरंतर बढ़ाना और पारस्परिक लाभ के क्षेत्र में काम करना चाहता है। ऐसा करने से दोनों देषों को स्थिरता के साथ आगे बढ़ाया जा सकेगा। यह बात जिनपिंग ने स्वयं कही थी परन्तु भारत को इन सबके साथ उन लाभों की भी चिंता करनी होगी जिसके व्यवधान में केवल चीन है जैसे डोकलाम जैसे विवाद का उत्पन्न होना, अरूणाचल प्रदेष के मामले में उसकी भंवे का तने रहना साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों के पक्ष में वीटो करना। इतना ही नहीं हिन्द महासागर के देषों और नेपाल और भूटान को अपने हित में साधने की वह कवायद जो भारत के लिए बेहतर नहीं है। 
भारत पहली बार एससीओ की बैठक में बातौर सदस्य देष भागीदारी कर रहा है। गौरतलब है कि जून, 2017 में रूस की सहायता से भारत को एससीओ में सदस्यता मिली थी जबकि इससे पहले वह एक पर्यवेक्षक की भूमिका में था। खास यह भी है कि साल 2005 में जब भारत ने पर्यवेक्षक बनने के लिये आवेदन किया तब उसे नकार दिया गया था। फिलहाल अफगानिस्तान, बेला रूस, ईरान समेत मंगोलिया इस संगठन के वर्तमान में पर्यवेक्षक देष हैं। उक्त तथ्य से यह भी उजागर होता है कि भारत और रूस के सम्बंधों की सारगर्भिता कहां कितनी उपजाऊ है और कितनी लाभकारी भी। बीते चार वर्शों में मोदी रूस की भी चार यात्रा कर चुके हैं जिसमें हाल ही के 21 मई की एक अनौपचारिक यात्रा भी देखी जा सकती है। इसमें कहीं दुविधा नहीं है कि रूस भारत का नैसर्गिक मित्र है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि पड़ोसी होने के बावजूद चीन कभी भारत का अच्छा मित्र नहीं रहा परन्तु कई मामलों में चीन की सकारात्मकता और भारत की पारदर्षिता का प्रभाव कुछ हद तक दिख रहा है। चीन जानता है कि भारत की उपादेयता आर्थिक और सामरिक दृश्टि से कहीं अधिक गति वाली है और वैष्विक फलक पर उसकी कूटनीति भी तुलनात्मक अधिक साख से सराबोर है साथ ही दुनिया की नजरों में वह एक उदारवादी व सरल और सभ्य देष है। आपस में आर-पार और व्यापार करना है तो बार-बार तनाव का जोखिम लेने के बजाय सम्मान को एहमियत देना होगा। चीन जानता है कि भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता को ठेस पहुंचाने की कोषिष की तो कभी भी सम्बंध समतल नहीं हो सकेंगे। इसकी बानगी 1962 में उसके द्वारा भारत पर किया गया आक्रमण और 1954 के पंचषील समझौते के विरूद्ध जाने को देखा जा सकता है। यह एक ऐसी घटना है जिसके चलते तमाम सम्बंधों के बावजूद हिन्दी-चीनी भाई-भाई का परिप्रेक्ष्य तब से कभी नहीं विकसित हो पाया। इतना ही नहीं समय कितना भी बदल गया हो भारत ने चीन पर संदेह करना बंद नहीं किया। 
प्रधानमंत्री मोदी ने एससीओ के मंच से न केवल सम्प्रभुता और अखण्डता के सम्मान की बात कही है बल्कि सिक्योर की वह परिभाशा गढ़ दी जिसे लेकर चीन भी हतप्रभ होगा। उन्होंने जो खुलासा किया उसमें एस का आषय सिक्योरिटी (सुरक्षा), ई का मतलब इकनोमिक डवलप्मेंट (आर्थिक विकास), सी को कनेक्टीविटी (सम्पर्क), यू को यूनिटी अर्थात् एकता जबकि आर का तात्पर्य रेस्पेक्ट फाॅर सवरेंटी इंटीगरिटी (सम्प्रभुता और अखण्डता का सम्मान) और अन्ततः अन्तिम ई को एन्वायरमेंटल प्रोटेक्षन अर्थात् पर्यावरण सुरक्षा का निहित संदर्भ प्रदर्षित कर उन्होंने एससीओ के मंच से लोकस-फोकस सिद्धांत को जीवित कर दिया है। इस सिद्धांत का निहित परिप्रेक्ष्य है कि देखो वहीं, जहां उद्देष्य है। भले ही चीन मोदी के इस मंत्र को आज समझा हो पर उपरोक्त बिन्दुओं से अनभिज्ञ है ऐसा समझना उचित नहीं है। यही कारण है कि तमाम समस्याओं के बावजूद दोनों देषों के बीच कारोबार और द्विपक्षीय सम्बंध रूके नहीं। फिलहाल बदले हालात और बदले भाव यह संकेत कर रहे हैं कि दोनों कमोबेष एक-दूसरे की आवष्यकता महसूस कर रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाय कि भारत और चीन की दोस्ती आगे चलकर दुनिया के लिये प्रेरणा होगी जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं? देखा जाय तो भारत के सम्बंध पाकिस्तान को छोड़कर दुनिया के सभी देषों के साथ फलक पर है। इससे भी सटीक बात यह है कि वाणिज्य और व्यापार से लेकर सामाजिक और समरसता के सभी सिद्धांतों में भारत सभी के लिये मानो अब जरूरी देष हो गया हो। जाहिर है द्विपक्षीय रिष्तों का अपना खाका होता है और उसमें उतरना भी पड़ता है। जब मोदी ने चीन के बुहान में यात्रा की तब भविश्य के रिष्तों का संदर्भ और उजागर हुआ मगर पूरा सच आने वाले दिनों में ही पता चल पायेगा। चीन बरसात के मौसम में ब्रह्यपुत्र नदी का हाइड्रोलोजिकल डाटा साझा करने में सहमत हो गया है। इसके तहत चीन हर साल 15 मई से 15 अक्टूबर के बीच बाढ़ के मौसम में ब्रह्यमपुत्र का हाइड्रोलाॅजिकल डाटा उपलब्ध करायेगा। ध्यान्तव्य हो कि इसके चलते चीन से आने वाला पानी असम की घाटी को कितना प्रभावित करेगा इसका पता पहले ही चल जायेगा। हालांकि यह डाटा चीन पहले भी उपलब्ध कराता रहा है। मगर पिछले साल जून में षुरू और लगभग अगस्त तक 73 दिनों तक चले डोकलाम विवाद के चलते चीन ने हाइड्रोलाॅजिकल डाटा साझा नहीं किया जिसका नतीजा यह हुआ असम घाटी में आयी बाढ़ के चलते जान-माल का काफी नुकसान हुआ था। 
एससीओ क्या है और इसकी क्या प्रासंगिकता है साथ ही भारत के लिये यह कितना लाभकारी है इसकी पड़ताल भी जरूरी है। यह संगठन 2001 में बना था जिसका उद्देष्य सीमा विवादों का हल, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ाना और मध्य एषिया में अमेरिका के बढ़ते प्रभाव को रोकना था। इसके सदस्य देषों ने चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और रूस, तजाकिस्तान, उजबेकिस्तान समेत भारत और पाकिस्तान है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि सुरक्षा सहयोग के अलावा सदस्य देषों के बीच व्यापार और निवेष भी इसके उद्देष्य में है। पहले इसे षंघाई-5 की संज्ञा दी जाती थी। जून 2001 से इसे षंघाई सहयोग संगठन कहा जाने लगा। हालांकि इसके उद्देष्य बिल्कुल स्पश्ट हैं बावजूद इसके चीन का कई देषों से सीमा विवाद और आतंक के मामले में उसका दोहरा रवैया इस संगठन के निहित उद्देष्य को कुछ हद तक कमजोर बनाता है। तत्कालीन दौरे में मोदी ने द्विपक्षीय बैठक में कई सकारात्मक बिन्दुओं को लाभोन्मुख बनाने की कोषिष की। मोदी द्वारा एकता और अखण्डता के सम्मान और आतंकवाद पर कही गयी बात आईना दिखाने का काम किया है। फिलहाल चीन के साथ गैर बासमती चावल के निर्यात पर समझौता हुआ है। इससे व्यापार घाटा पाटने में कुछ हद तक मदद मिलेगी। दोनों देषों के बीच अन्य समझौते में चीन के सीमा षुल्क प्रषासन और भारत के कृशि एवं कल्याण विभाग को देखा जा सकता है। गौरतलब है कि दुनिया का सबसे बड़ा चावल का बाजार चीन भारत से बासमती के अलावा दूसरे किस्म का चावल भी खरीदेगा। साल 2006 में बनी व्यवस्था में भी संषोधन किया है। जिनपिंग ने मोदी को सुझाव दिया कि द्विपक्षीय व्यापार को 2020 तक 100 अरब डाॅलर तक पहुंचाना चाहिए। पिछले साल दोनों देषों का व्यापार लगभग 85 अरब डाॅलर था लेकिन इस मामले में चीन कहीं अधिक मुनाफे में है। आज से दो-तीन बरस पहले जब 70 अरब डाॅलर का व्यापार दोनों देषों के बीच था तब चीन 61 अरब जबकि भारत 9 अरब तक ही सीमित रहता था। यहां मेक इन इण्डिया को न केवल दुरूस्त करना होगा बल्कि मेड इन चाइना से मिल रही चुनौती से भी निपटने की जरूरत है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा वर्तमान में 54 अरब डाॅलर के आसपास है। पिछले चार वर्शों में भारत की ओर से निर्यात 11 अरब डाॅलर से मात्र 14 अरब डाॅलर ही हुआ जबकि चीन का भारत को निर्यात का यही आंकड़ा 32 से बढ़कर 38 अरब डाॅलर हो गया। इसे देखते हुए साफ है कि कूटनीति के साथ-साथ आर्थिक नीति पर भारत को कहीं अधिक सर्तक रहना होगा। 
षंघाई सहयोग संगठन के मंच से कई और बाते भी हुई हैं खास यह रहा कि चीन की बेल्ट एण्ड रोड इनिषियेटिव का भारत ने खुलकर विरोध किया और उसी के घर में कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है यह एक बार फिर जता दिया। गौरतलब है कि इस परियोजना में पाक अधिकृत कष्मीर का क्षेत्र भी षामिल है जिसे लेकर भारत पहले भी खिन्नता प्रकट कर चुका है क्योंकि पूरा कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है। हालांकि मोदी ने सम्प्रभुता और अखण्डता का सम्मान जरूरी बताते हुए समावेषी परियोजना का समर्थन किया। आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथी समूहों पर भी यहां करारी चोट की गयी है। पाकिस्तान को आड़े हाथ लेते हुए बिना नाम लिये मोदी ने पहले की तरह आतंक को लेकर कई बाते कही। दो दिवसीय षिखर सम्मेलन के अंतिम दिन किंगदाओ में घोशणा पत्र पर 8 सदस्य देषों ने हस्ताक्षर किये। ऐसा देखा गया है कि हर देष अपने लक्ष्य हासिल करने के अपने रास्ते बनाता है भारत ने भी इस दिषा में पहल की और कुछ हद तक चीजे हासिल की। इसी दरमियान पाकिस्तान के राश्ट्रपति से भी मोदी के हाथों का स्पर्ष हुआ, संक्षिप्त बातचीत भी हुई। गौरतलब है कि दोनों पूर्णकालिक सदस्य के रूप में इसमें भागीदारी की पर इनके बीच द्विपक्षीय कुछ नहीं हुआ। समझना तो यह भी है कि प्रत्येक परिस्थितियों में चीन पाकिस्तान का दोस्त है जिसे आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक तथा मनोवैज्ञानिक सहयोग देता रहा है। चीन से दर्जन भर देष सीमा विवाद से जूझ रहे हैं। भूटान से लेकर नेपाल तक और जरूरी हुआ तो लंका से लेकर म्यांमार तक अपना डंका बजाना चाहता है। इन सबको देखते हुए भारत को तो सतर्क रहना ही है और रूस से गहरी दोस्ती और चीन से बेहतर प्रेम जरूरी है। दो टूक यह है कि चीन भारत को प्रतिस्पर्धी समझने के बजाय सहगामी समझे तो दोनों और लाभ में जा सकते हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

कैशलेस इकोनोमी की कवायद पानी मे!

जब साल 2016 के 8 नवम्बर को रात को ठीक 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने यह आदेष दिया कि पांच सौ और हजार रूपये के नोट अब लीगल टेंडर नहीं रहेंगे और वे ऐसा क्यों कर रहे हैं जब इस वजह का खुलासा हुआ तो उसमें काले धन को षीर्श पर रखा गया था। गौरतलब है कि उन दिनों कुल परिचालित धन का 86 फीसदी हजार और पांच सौ के नोट थे। सरकार को भरोसा था कि इससे काला धन समाप्त होगा और अर्थव्यवस्था तुलनात्मक सषक्त होगी। उस दौरान इस निर्णय को बहुत जोखिमपूर्ण समझा गया जिसे लेकर सरकार ने खुद अपनी पीठ भी थपथपाई थी। दिक्कतों का सिलसिला भी महीनों चला दूसरे षब्दों में कहें तो कमोबेष नोटबंदी की मुष्किलें अभी भी रूकी नहीं है। काले धन की खोज में की गयी नोटबंदी और बाद मे कैषलेष में हुई इसकी तब्दीली कितनी सफल रही यह पड़ताल का विशय है। लम्बे वक्त बीतने के बाद अब इसके साइड इफैक्ट भी दिख रहे हैं। खाते में जमा अपने ही रूपयों के लिये लोग बैंक और एटीएम का चक्कर लगाते-लगाते थक गये। कैषलेस का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार इस मामले में भी लोगों को निराष ही किया। देष में कैष इन हैण्ड रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच चुका है और मोदी सरकार षायद इससे बेखबर है। देष में इस समय जनता के हाथ में मुद्रा का स्तर साढ़े अट्ठारह लाख करोड़ रूपये से ऊपर पहुंच गया है। जो अब तक का अधिकतम स्तर है। हैरत यह है कि काले धन पर चोट करने और इण्डिया को कैषलेस इकोनोमी में परिवर्तित करने की फिराक में देष की अर्थव्यवस्था मानो राह से ही भटक गयी। 
जब से नोटबंदी हुई है षिकायते भी बढ़ी हैं। पहले षिकायत थी कैष की कमी है अब षिकायत है कि कैष ही कैष है। पहले उम्मीद थी कि काला धन आयेगा और लेन-देन इंटरनेट के माध्यम से होगा। अब यह दोनों फलक से गायब हैं। नोटबंदी के बाद जनता के हाथ में मुद्रा सिमट कर करीब पौने आठ लाख करोड़ रूपये रह गयी थी। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े अब यह सवा उन्नीस लाख करोड़ रूपये से अधिक बता रहे  है। जबकि नोटबंदी के समय सारे नोट मिलाकर 17 लाख करोड़ रूपये के मूल्य के थे। चलन में मौजूदा कुल मुद्रा में से बैंकों के पास जो नकदी पड़ी है यदि उसको घटा देते हैं तो ज्ञात होता है कि लोगों के हाथ में कैष ही कैष है। गौरतलब है कि नकदी संकट के चलते लोगों का बैंकों से विष्वास उठा है। यही कारण है कि लोग बैंकों के माध्यम से आदान-प्रदान करने से कतरा रहे हैं जबकि एटीएम की हालत यह है कि वे नोट उगलने से ही मना कर रहे हैं। इन सभी समस्याओं को देखते हुए जनता नकदी बैंकों में रखने के बजाय अपने पास रख रही है जिसका नतीजा यह है कि नागरिकों का पैसा रखने वाले बैंक आज दरिद्रगी से जूझ रहे हैं। आंकड़े यह बताते हैं कि दो हजार रूपये के नोट सात लाख करोड़ रूपये के मूल्य के चलन में है जबकि पांच सौ के नोट पांच लाख करोड़ की कीमत के हैं। बड़ी चिंता यह भी है कि दो हजार के नोट बैंकों से तेजी से गायब हो रहे हैं। बैंको की करेंसी चेस्ट में भी दो हजार रूपये के नोट की संख्या 14 फीसदी से अधिक नहीं है। सवाल है कि यह नोट कहां है और क्या ये डम्प हो रहे हैं?
ताजा आंकड़ा यह बताता है कि मई, 2018 तक लोगों के पास साढ़े अट्ठारह लाख करोड़ रूपये से अधिक की मुद्रा थी जो पिछले वर्श की तुलना में 31 फीसदी अधिक है जबकि 8 नवम्बर 2016 की तुलना में देखें तो यह दोगुना से भी अधिक है। जब से ये स्थिति देखने को मिली है आर्थिक तनाव से सरकार, समाज और बैंक तीनों जूझ रहे हैं। बैंको की हालत बहुत पतली है जिन बैंकों का औसत बैलेंस नोटबंदी के पहले 300 करोड़ रूपये था अब वह करीब सौ करोड़ रूपये ही है। इतना ही नहीं बैंकों में जमा नकदी रोजाना 14 करोड़ से घटकर 4 करोड़ के नीचे चली गयी है और 2 हजार के नोट 50 लाख तक ही जमा हो रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीतियां तो यही इषारा कर रही हैं कि उन्होंने नोटबंदी करके काले धन और कैषलेस को लेकर बीन बजाया लेकिन यह केवल एक तमाषबीन का काम हुआ। अब कुछ बातें इस तरह से भी देखी जा सकती है कि सरकारी क्षेत्रों के बैंक करोड़ों का घाटा क्यों झेल रहे हैं। इस बात को कोई भी समझना नहीं चाहता कि नोटबंदी ने लोगों के रोजगार पर भी प्रहार हुआ था साथ ही तत्कालीन व्यवस्था को महीनों तक हाषिये पर फेंक दिया था। यह मार केवल जमा खोरों पर नहीं सामान्य जनता के साथ-साथ बैंकों पर भी पड़ी है। आंकड़े बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का सामूहिक षुद्ध घाटा साल 2017-18 में बढ़ कर 87 हजार करोड़ रूपये से अधिक हो गया। हालांकि इस घाटे में घोटाले की मार अधिक है। जिसमें पहले नम्बर पर पंजाब नेषनल बैंक आता है, दूसरे पर आईडीबीआई बैंक है। घोटाले का दंष झेल रहे बैंक इसे पाटने के लिये जनता की जेब पर डाका डाल रहे हैं और अनाप-षनाप तरीके अपना कर खाताधारकों को चूना लगा रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीति नोटबंदी और जीएसटी की जुगलबंदी से भले ही कोश में पैसा आ रहा हो पर नागरिकों के जीवन में आर्थिक बेचैनी अभी कहीं से कम नहीं हुई है। इसी बेचैनी और आर्थिक कमी ने लोन धारकों को भी पेषोपेष में डाला है जिसके चलते बैंक के कर्ज चुका नहीं पा रहे हैं और मामला एनपीए हो रहा है और बैंक बिलबिला रहे हैं। 
मोदी सरकार कैषलेस का दांव खेला पर आंकड़े इसे सफल करार नहीं दे रहे हैं। काले धन के मामले में भी सरकार की चुप्पी बहुत कुछ इषारे कर रही है। लगातार चुनाव जीतने को ही अपनी सफल नीति मान चुकी सरकार कुछ हद तक पथ से भटकी हुई भी लगती है। अर्थषास्त्री भी मोदी की अर्थनीति को जल्दबाजी में लिया गया निर्णय करार दे चुके हैं। हालांकि सरकार इन सभी को नकारती रही है और सैकड़ों योजनायें सफल हुई हैं, करोड़ों युवाओं को रोजगार मिला है साथ ही करोड़ों किसानों को मुफलिसी से बाहर निकाला है का दावा पानी पी-पीकर ये करती रही है। आंकड़े जिस तरह सामने हैं उससे तो साफ है कि मोदी सरकार की कैषलेस इकोनोमी को झटका लगा है और काले धन के मामले में भी यह बुरी तरह असफल रहे हैं। जिस तर्ज पर सरकार ने हुंकार भरी थी और जनता को अपने पक्ष में किया था अब उन सारी बातों की कलई खुल रही है। जाहिर है कि यह कहीं से ठीक नहीं है हालांकि इसे ठीक करने का दायित्व सरकार का है और कसरत भी उन्हें ही करनी होगी। चिंता का विशय तो यह है कि इतने व्यापक पैमाने पर कैष का प्रचलन में होना जमाखोरी को फिर मौका देगा और अर्थव्यवस्था को भी बेपटरी कर सकता है। सरकार को चाहिये कि दो हजार के बड़े नोट से तौबा करे और कैषलेस के लिये उतना ही कदम उठाये जितना व्यावहारिक है। पूरे के चक्कर में कैषलेस धेले भर भी सफल नहीं हो पाया जबकि समस्या दिन-प्रतिदिन की दर से बढ़ रही है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, June 6, 2018

कैसे हो जन सुरक्षा की सरकार !

सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विचारक अब्राहम मोस्लो ने 1943 में व्यक्तियों के जीवन में आवष्यकता के सोपान क्रम विकसित किये थे जिसमें पहले स्तर पर रोटी, कपड़ा और मकान तत्पष्चात् सुरक्षा की आवष्यकता बतायी थी। हालांकि इसके आगे भी तीन और आवष्यकताओं का क्रम बताया था। इस सिद्धांत के आलोक में चीजे अभी भी उसी अवस्था में हैं कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार की सुरक्षा चाहता है साथ ही इस बात का विष्वास भी जताना चाहता है कि ऐसा करने में सरकार और व्यवस्था अव्वल हैं। वैसे एक दृश्टि से देखा जाय तो सुरक्षा किसी भी षासन, प्रषासन की न केवल क्षमता और दक्षता का आंकलन प्रदर्षित करती है बल्कि जनतंत्र में जनता के प्रति सरकार की निश्ठा की झलक भी इसमें मिलती है। देष कई प्रकार की समस्याओं से जूझ रहा है और उतनी ही प्रकार की सुरक्षा की चिंता भी सता रही है। आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद पर कह सकते हैं कि लगाम पहले से अधिक कसी गयी है पर कष्मीर में जिस कदर अषान्ति फैली है उससे स्पश्ट है कि कसक अभी बाकी है। मोदी सरकार का पिछला 4 साल इस लिहाज़ से संतोशजनक कहा जा सकता है कि आतंकवादियों को मुंह तोड़ जवाब देने की कोषिष की मगर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी भी है। सरकार का इरादा ठीक हो सकता है कष्मीर में षान्ति बहाली को लेकर मोदी सरकार की कोषिष भी अच्छी कही जा सकती है परन्तु जिस कीमत पर सेना को उपद्रवियों से निपटना पड़ रहा है उससे तो यही लगता है कि आन्तरिक सुरक्षा के साथ जन सुरक्षा बड़ी व्याधि से ग्रस्त है।  
देष में आतंकियों के सफाये में आॅप्रेषन आॅल आउट सहित कई कार्यक्रमों के चलते सरकार को सफलता के पद्चिन्हों पर चलते हुए देखा जा सकता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय सेना को सरकार की ओर से आतंकी एवं पाक सैनिकों से निपटने के लिये तुलनात्मक अधिक छूट मिली है जिसका वह प्रयोग भी कर रहे हैं। षायद यही कारण है कि पठानकोट में हमले के बाद देष के अंदर जन सुरक्षा को लेकर चुनौती उतनी बड़ी देखने को नहीं मिली। हालांकि सीमा पर सुरक्षा कर्मियों का षहीद होना और सीमा से सटे जनता की सुरक्षा आज भी खतरे में है। चार सालों में आईएसआई और अलकायदा ने भारत में घुसपैठ करने की खूब कोषिष की लेकिन सफलता उन्हें नहीं मिली। यह बात कितनी सही है कि विगत् 4 वर्शों में मोदी सरकार ने कष्मीर को एक प्रयोगषाला के तौर पर प्रयोग किया पर परीक्षण कितना सफल रहा कहना अभी भी मुष्किल है। हालांकि यह प्रयोग अभी भी रूका नहीं है। खास यह भी है कि महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर भाजपा की सरकार भी वहां चल रही है जबकि इसे लेकर यह आरोप रहा है कि भाजपा ने सत्ता के लालच में अलगावादियों से हाथ मिलाया है। कष्मीर के पिटारे में बहुत कुछ है यहां खूबसूरत वादियां हैं तो खून की होली खेलने वाले उपद्रवी तत्व भी। गौरतलब है कि कष्मीर के भीतर हुर्रियत नेता फन फैलाये रहते हैं। अलगाववाद को सिफर से षिखर तक पहुंचाने में ये कहीं अधिक कामयाब रहते हैं। इन्हें वहां के लोकतंत्र और जन सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे अर्थों में देखें तो हुर्रियत नेताओं की भारत की जमीन पर अलगाव की खेती करना ही नीयत है जबकि यह इस प्रकार ढ़ोंग करते हुए दिखाई देते हैं कि मानो कष्मीर की सर्वाधिक चिंता इन्हें ही है। 
आंतरिक सुरक्षा तथा जन सुरक्षा देष के लिये बड़ा मुद्दा है। सुरक्षा बल पर नक्सलवादी भारी पड़ रहे हैं जबकि पूर्वोत्तर में अलगाववादी गतिविधियों से निपटने के मामले में हम कुछ बेहतर स्थिति में हैं। हमारे लिये कष्मीर सबसे कमजोर कड़ी है पर सच्चाई यह भी है कि बड़ी संख्या में यहां से आतंकियों का सफाया हो चुका है। कष्मीर की हालत साल 2010 में भी बहुत खराब थी और अब भी कह सकते हैं। पिछले 4 सालों में घाटी से 270 आतंकवादियों का खात्मा किया जा चुका है पर इनकी खेती षीघ्र ही फिर नहीं लहलहाने लगेगी ऐसा कह पाना मुष्किल है। सुरक्षा को लेकर कौन जिम्मेदार है साथ ही जन सुरक्षा की कसौटी पर केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच कौन सा कानून कारगर है। सब कुछ के बाद तो यही लगता है कि सुरक्षा मसला उस कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा है जहां से आंतरिक सुरक्षा पोशित होती है यही वजह है कि आम लोगों के अंदर एक बेहतर एहसास इसे लेकर नहीं पनप रहा है। कई राज्यों में कानून व्यवस्था आये दिन खतरे के निषान से ऊपर चली जाती है। वैसे यह राज्य का मामला है पर पूरी तरह केन्द्र से विमुख होकर राज्य आंतरिक सुरक्षा को अंजाम षायद ही दे पाये। पुलिस महकमे में लाखों पद खाली चल रहे हैं। यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंकड़े के साथ है। मुष्किल यह भी है कि वीआईपी कल्चर ने जन सुरक्षा को हाषिये पर धकेला है। सुरक्षाकर्मी वीआईपी के इर्द-गिर्द रहते हैं और पहले से जनता और पुलिस का बिगड़ा संतुलन और असंतुलित हो जाता है। देष की षीर्श अदालत ने समय-समय पर सुरक्षा और व्यवस्था को लेकर आदेष देती रही है। स्टेट सिक्योरिटी कमीषन बनाने की बात, डीजीपी का 2 साल का कार्यकाल, जांच कार्य में लगी पुलिस को कानून व्यवस्था के काम से अलग करना समेत नेषनल सिक्योरिटी कमीषन गठित करने तक की बात कही है। 
देष में पुलिस बल की स्वीकृत क्षमता 20 लाख के आसपास है जिसमें साढ़े चार लाख पद रिक्त हैं। आंकड़े यह प्रदर्षित करते हैं कि 518 लोगों की निगरानी के लिये एक पुलिस है। आन्ध्र प्रदेष, बिहार, उत्तर प्रदेष, दिल्ली समेत पष्चिम बंगाल में तो स्थिति बद से बद्तर है यहां 11 सौ लोगों पर एक पुलिसकर्मी है। कोई भी आराम से अपना ध्यान अगर इन प्रांतों के कानून व्यवस्था की ओर लगाये तो उसे पता चलेगा कि यहां आये दिन स्थिति बेकाबू क्यों होती है। करीब डेढ़ लाख देष में महिला पुलिस बल हैं परन्तु महिला पुलिस स्टेषन की संख्या बेहद कम 613 मात्र है। उपरोक्त से यह परिलक्षित होता है कि आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी जिनके कन्धों पर हैं वे कितने कम हैं और षायद कमजोर भी। दुःखद यह भी है कि पिछले 12 साल से सुप्रीम कोर्ट के आदेष की धज्जियां भी यहां खूब उड़ी हैं। रिपोर्ट आलमारियों में धूल फांक रही हैं और यह चिंता अभी भी बरकरार है कि पुलिस जनता की पुलिस कैसे बने। देष की राजधानी हो या कोई अन्य हिस्सा महिलायें कहीं भी असुरक्षित पायी जा रही हैं। आंकड़े भी यह समर्थन करते हैं कि आंतरिक सुरक्षा की कमजोरी ने महिलाओं की सुरक्षा को हाषिये पर ला दिया है। जिस तकनीक के तहत अपराध बढ़ रहे हैं और जिस पैमाने पर तमाम छानबीन के बावजूद मामले दूध के दूध, पानी के पानी नहीं हो रहे हैं उसके चलते भी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठते रहे हैं। फिलहाल समाज को अपराध मुक्त और लोगों द्वारा बेखौफ जीवन जीने के लिये जो आंतरिक सुरक्षा की संकल्पना थी उस पर कमी कसर अब न रहे तो अच्छा है। राटी, कपड़ा और मकान जितनी जरूरी सुरक्षा है। ऐसा षासन जो इन सब को उपलब्ध कराये, इसके प्रति संवेदनषील रहे वही जनतांत्रिक मूल्यों का पोशक कहा जा सकेगा। देष में उदारीकरण के बाद विकास के मायने बदले हैं समावेषी विकास की अवधारणा ने कई प्रकार की परेषानियों से मुक्ति दिलायी है बावजूद इसके असुरक्षा का प्रसार भी व्यापक पैमाने पर हुआ है। दिल्ली में हर साल एक लाख बच्चे गायब होते हैं जिसमें से आधे से अधिक का यह पता ही नहीं चलता कि वे कहां हैं और किस हाल में हैं। समय के साथ बढ़ रही असुरक्षा को देखते हुए सरकार को इस मामले में कहीं अधिक पुख्ता कदम और तकनीकी रूप से दृढ़ होना पड़ेगा ताकि जनता में यह एहसास आसानी से रहे कि सरकार जन सुरक्षा की कसौटी पर खरी है। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, June 4, 2018

बिना किसानो मे सुधार के अधूरा पर्यावरण दिवस

रवीन्द्र नाथ टैगोर का यह कथन ‘ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है‘ अब यह बात कुछ हद तक मानो अप्रासंगिक सी होती जा रही है। पर्यावरण के मित्र के तौर पर यदि आज के समय में किसी को सराहा जाय तो किसान से बेहतर षायद ही कोई हो। खेत खलिहानों से लेकर बाग-बगीचों तक के सफर में देष के किसानों ने दिन-रात एक करके न केवल सवा सौ करोड़ आबादी को भोजन उपलब्ध कराया है बल्कि पर्यावरण के लिहाज़ से जरूरी पेड़-पौधों को भी संरक्षित करने का काम किया है। दुःखद यह है कि सादगी, ईमानदारी और मामूली संसाधनों में गुजर-बसर करने वाला किसान आज न केवल हाषिये पर है बल्कि अपने उत्पादन की सही कीमत और समुचित जिन्दगी के लिए तरस रहा है। 5 जून को मनाये जाने वाले पर्यावरण दिवस में इस बात की भी संवेदना होनी चाहिए कि हाड़-मांस गलाने वाले किसानों ने प्रकृति को तो बहुत कुछ दिया पर उसकी झोली खाली क्यों रही। पर्यावरण संतुलन के लिहाज़ से कुल क्षेत्रफल का 33 फीसदी हरियाली होनी चाहिए। आंकड़े इस बात को इंगित करते हैं कि यह 21 फीसदी के आस-पास हैं। षहरों से पेड़-पौधे बुरी तरह तहस-नहस किये जा चुके हैं और धीरे-धीरे छोटे षहर बड़े में और बड़े मैट्रोपोलिटन में तब्दील हो रहे हैं। यहां पर्यावरण संरक्षण के नाम पर गमलों में फूल उगाये जाते हैं। गांव में भी पर्यावरण अब पहले जैसा नहीं है। औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण के चलते गांव में भी बहुत तब्दीली हो चुकी है परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि हरियाली का जो अवषेश अभी कायम है वे वहां के खेती-बाड़ी वाले बाषिन्दों के चलते है जो बागों को आज भी संजोए हुए है। यही किसान देष के लिए भरपेट भोजन का काम कर रहे हैं जबकि गांव में इनकी जिन्दगी खतरे में है। इसी खतरे से उबरने के लिये आये दिन वे सड़कों पर सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन करते देखे जा सकते हैं। इसी क्रम में ताजा हालात यह है कि सरकारी नीतियों के खिलाफ एक बार फिर किसान आंदोलनरत् हैं। गौरतलब है कि किसान एकता मंच और राश्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले इन दिनों गांव बंद आंदोलन चल रहा है जिसका असर कई राज्यों में फिलहाल देखा जा सकता है। 
राजधानी दिल्ली की आजादपुर मण्डी में टमाटर की कमी हो गयी जिसके चलते दाम चार गुना बढ़ गये जबकि दूसरे राज्यों में दूध व सब्जियों को बाजार तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। यह अपने तरीके का अनूठा आंदोलन है। किसान दूध सड़कों पर बहा रहे हैं साग-सब्जी भी सड़क पर कचरे की तरह फेंके जा रहे हैं जिसके चलते मण्डियों में सन्नाटा पसरा है और सब्जियों की कीमतें तिगुनी-चैगुनी हो गयी हैं। गौरतलब है कि यह आंदोलन 1 जून से षुरू हुआ है और 10 जून तक इसी रूप में रहेगा। सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर किसान चाहते क्या हैं क्यों अपने ही उत्पादित वस्तुओं को सड़कों पर फेंक रहे हैं। महाराश्ट्र, मध्य प्रदेष समेत उत्तर भारत कई प्रदेष इस आंदोलन की जद्द में देखे जा सकते हैं। कई क्षेत्रों में कृशि उत्पादों की मण्डियों में ताजा आपूर्ति कम हो गयी है जिसके चलते जरूरी चीजों को लेकर दिक्कतें बढ़ी हैं। षहरों में उपभोक्ताओं को सब्जियां खरीदने के लिये ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है। पंजाब में तो दूध और सब्जी मण्डी तक न पहुंचे इसके लिए बाकायदा नाकाबन्दी ही कर दिया गया है। असल में उपज पर वाजिब दाम व अन्य मांगों को लेकर किसानों का यह दस दिवसीय आंदोलन कोई नई घटना नहीं है। पहले भी किसानों के आंदोलन देष में हुए हैं परन्तु सरकारें इनकी संवेदना को समझते हुए ठोस कदम उठाने में देरी नहीं करती थी। कुछ महीने पहले जब महाराश्ट्र में किसान आंदोलन के लिए उग्र हुए तो महाराश्ट्र सरकार ने स्थिति बिगड़ने से पहले ही उनकी मांग मान ली। मोदी सरकार के दौर में यह देखा गया है कि किसान तुलनात्मक अधिक आंदोलित हुए हैं पर उनके हाथ खाली रहे। हालांकि सरकार डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने और 2022 तक इनकी आय दोगुनी की बात कह रही है बावजूद इसके किसानों के आंदोलन रूक नहीं रहे हैं। 
आंदोलन षुरू होने के दिन ही कृशि मंत्री ने कहा कि मध्य प्रदेष सरकार किसानों के लिए बढ़िया काम कर रही है जबकि सच्चाई यह है कि यहां के किसानों ने मुफलिसी के चलते आत्महत्या किया है और सरकार के विरोध में कई बार सड़क पर उतरे हैं। जाहिर है मध्य प्रदेष के सुषासन में वो दम नहीं दिखा जहां किसान उचित मूल्य और समुचित जीवन जी रहा हो। इसी तरह देष के कई प्रांत किसानों के लिये अपषगुन ही सिद्ध हुए हैं। यही कारण है कि पंजाब से लेकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, बिहार, उत्तराखण्ड तथा मध्य प्रदेष समेत आंध्र प्रदेष और तेलंगाना व तमिलनाडु के किसानों ने आत्महत्या की फहरिस्त को विगत् कुछ सालों में और सघन बना दिया। सुषासन की बात करने वाली मोदी सरकार भी अपने पूरे कार्यकाल में इनकी आत्महत्या की दर को कम नहीं कर पायी। कर्जमाफी के नाम पर सीमाएं तय कर दी गयी और आज भी 2014 का वादा अधर में है। उत्तर  प्रदेष में योगी सरकार ने 36 हजार करोड़ का कर्ज माफी किया परन्तु यहां भी यह सभी किसानों के काम नहीं आया। आंकड़े यह बताते हैं कि तीन से चार लाख करोड़ के बीच किसानों के ऊपर कर्ज है यदि केन्द्र सरकार इसे माफ करने का जोखिम ले ले तो अन्नदाता कर्ज की सत्ता से मुक्त हो सकता है और आजाद देष में सांस ले सकता है साथ ही लोकतंत्र में आस्था को बढ़ा हुआ देख सकता है परन्तु सरकारों में जोखिम लेने की ताकत नहीं दिखती जबकि किसान धीरे-धीरे बुझ रहा है। इस दुविधा में भी देर तक रहने की जरूरत नहीं है कि दीये की बाती तब तक जलेगी जब तक उसमें तेल होगा ठीक उसी तर्ज पर भोजन से लेकर पर्यावरण तभी तक संरक्षित और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगा जब तक अन्नदाता बचा रहेगा। 
किसानों की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाय, कृशि ऋण माफ किया जाय, किसानों को उसकी फसल का लागत मूल्य में लाभ जोड़कर दिया जाय और किसानों की जमीन कुर्क के जो नोटिस भेजे गये हैं उसे वापस लिया जाय। मांग की समीक्षा यह दर्षाती है कि किसानों ने ज्यादा नहीं मांगा जितने में वे जी सकते हैं उतना ही मांगा है। अब बारी सरकार की है कि अपना फर्ज अदा करे। गौरतलब है कि मध्य प्रदेष में पिछले साल भी किसानों ने 1 जून से 10 जून तक आंदोलन किया था जिसका मुख्य केन्द्र मंदसौर था। इसी जिले की पिपलिया मण्डी में पुलिस फायरिंग में 6 किसान मरे थे। जिसके बाद पूरे मध्य प्रदेष में हिंसा, लूट, आगजनी एवं तोड़फोड़ हुई थी। अब सवाल है कि किसानों का संकटमोचक कौन है जाहिर है इसकी भी खोज होनी चाहिए। बीते 1 फरवरी को पेष बजट में किसानों के लिये बहुत कुछ कहा गया है सवाल उस पर अमल करने का है। दो टूक यह भी है कि कागज की नाव पर न सवारी हो सकती है और न ही हवाई बातों से किसी का भला। नीति-नियोजन करने वालों को यह समझना होगा कि 70 सालों से लगातार कमजोर होता किसान आखिर अपने पैरों पर खड़ा क्यों नहीं हो पा रहा? ध्यान पड़ता है कि 1980 के दषक में किसानों के आंदोलन ने तत्कालीन सरकार को हिला दिया था पर अब तो ऐसे आंदोलन से सरकार हिलती भी नहीं। 1991 में देष ने उदारीकरण अपनाया सबका भला हुआ स्कूल, काॅलेज, फैक्ट्रियां खुली नये-नये धन्ना सेठ बने जो पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ने के लिये भी जाने जाते हैं और संसाधनों के एकाधिकार के लिये भी परन्तु जो पर्यावरण का प्रेमी है और लेने से ज्यादा देता है उसकी हालत बद से बद्तर होती गयी। इसकी वजह षायद यह भी है कि सरकारें अब इनकी मांग पर पहले जैसे संवेदनषील नहीं होती। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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