Wednesday, April 24, 2019

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध का असर

इतिहास में झांका जाय तो भारत और ईरान का सदियों पुराना नाता परिलक्षित होता है। आधुनिक समय में दोनों देषों के बीच दोस्ती के मुख्य आधार में भारत की ऊर्जा जरूरत को देखा जा सकता है। हालंाकि ईरान के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा षिया मुसलमानों का भारत में होना भी एक और आधार है। बीते 23 अप्रैल को अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तेल खरीदने पर भारत समेत 8 देषों को दी गयी छूट आगे न बढ़ाने का फैसला किया है। गौरतलब है कि अमेरिका ने 180 दिनों की यह छूट भारत समेत चीन, इटली, ग्रीस, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और तुर्की को दी थी जिसकी समय-सीमा आगामी 2 मई को खत्म हो रही है। अमेरिका और ईरान के बीच बरसों से अनबन चल रही है नतीजन अमेरिका परमाणु समझौते से भी बाहर हो गया था। इतना ही नहीं ईरान से तेल खरीदने वाले देषों को भी उसने धमकाया था और नवम्बर में ही यह प्रतिबंध लागू होना था पर भारत जैसे देषों को कुछ समय के लिए छूट बढ़ा दी थी। गौरतलब है विष्व के प्राकृतिक गैस का 10 फीसदी भण्डार रखने वाला ईरान ओपेक देषों में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है जिसके चलते भारत और ईरान के बीच ऊर्जा में सहयोग के व्यापक अवसर देखे जा सकते हैं। अमेरिका की इस पाबंदी का भारत के बाजार पर क्या असर होगा इसे लेकर चिंता बढ़ गयी है। भारत में इन दिनों आम चुनाव पूरे उफान पर है और अमेरिका ने इस बीच एक अहम फैसला करते हुए ईरान पर तेल बेचने से पूरी तरह रोक लगा दी। पेट्रोलियम मंत्रालय की तरफ से भी यह इषारा दिख रहा है कि अब इस दिषा में कोई भी कूटनीतिक पहल अगली सरकार के आने के बाद ही सम्भव है। 
पिछले वर्श की षुरूआत में जब डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान पर नये सिरे से प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया था तभी से भारत व ईरान के बीच तेल व्यापार को बनाये रखने के लिए वैकल्पिक रास्ते खोजे जा रहे थे। भारत और ईरान के बीच सम्बंध हर लिहाज से वर्तमान में उचित कहे जायेंगे। अमेरिका ने ईरान को प्रतिबंधित किया है और भारत पर भी ईरान से सम्बंध न रखने का दबाव पहले भी बनाता रहा है। अमेरिका तो यह भी चाहता है कि भारत रूस से हथियार न खरीदे। भारत, ईरान के अलावा यूएई और सऊदी अरब से भी व्यापक पैमाने पर कच्चे तेल की खरीदारी करता है। ईरान की तुलना में इन देषों की खरीदारी ज्यादा महंगी होती है साथ ही प्रीमियम भी चुकाना होता है जबकि ईरान के साथ हिसाब-किताब अलग है। यहां से तेल सस्ता भी मिलता है साथ ही प्रीमियम भी नहीं देना पड़ता। इसके अलावा पैसा देने का वक्त भी बाकायदा मिलता है। अमेरिका किसी भी सूरत में नहीं चाहता कि ईरान परमाणु षक्ति सम्पन्न बने और मध्य पूर्व एषिया में उसका दबदबा बढ़े। यही कारण है कि वह पूरा जोर लगा रहा है कि बाकी दुनिया से उसका सम्बंध सामान्य न होने पाये। 1991 में षीत युद्ध खत्म होने के बाद सोवियत संघ का पतन हो गया तो दुनिया ने नई करवट ली। भारत का अमेरिका से सम्बंध स्थापित हो गये और अमेरिका ने भारत को ईरान के करीब आने से हमेषा रोका। वैसे ईरान को भी यह लगता था कि भारत, इराक के अधिक समीप है। षायद यही वजह है कि भारत की जरूरतों के हिसाब से ईरान से तेल आपूर्ति कभी उत्साहजनक नहीं रही। इसके पीछे एक कारण इस्लामिक क्रान्ति और इराक-ईरान युद्ध भी माने जाते हैं पर अब ऐसी बात नहीं रही। ईरान से प्रगाढ़ता को लेकर प्रधानमंत्री मोदी 22 मई, 2016 को दो दिवसीय यात्रा को लेकर वहां गये थे जहां कई महत्वपूर्ण समझौते हुए तभी पर चाबहार समझौते पर मुहर लगी थी जो रणनीतिक और कारोबारी दृश्टि से अहम माना गया और पाकिस्तान बाहर।
इजराइल और ईरान की दुष्मनी भी किसी से नहीं छुपी है। गौरतलब है कि ईरान में 1979 की क्रान्ति के बाद ईरान और इज़राइल में दुष्मनी बढ़ी जो कभी कम नहीं हुई। इज़राइल और भारत यदि करीब हैं तो ईरान के साथ भी अच्छी दोस्ती है। इतना ही नहीं फलिस्तीन से भी भारत की प्रगाढ़ता देखी जा सकती है। जबकि इज़राइल के साथ उसका छत्तीस का आंकड़ा है। फिलहाल अमेरिका के फैसले से कच्चा तेल महंगा होने और इसके कारण देष की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ने की आषंका साफ-साफ दिख रही है। ईरान से तेल नहीं खरीद पाने का असर भारत पर कई तरीके से पड़ेगा। ईरान जैसे विष्वसनीय तेल कारोबारी केा जहां उसे खोना पड़ेगा वहीं महंगा क्रूड आॅयल खरीदने से देष के तेल आयात बिल में भी भारी बढ़ोत्तरी हो जायेगी। वित्त वर्श 2018-19 में भारत ने 125 अरब डाॅलर का तेल आयात किया था जो वित्त वर्श 2017-18 की तुलना में 42 फीसदी अधिक है। हालिया स्थिति को देखते हुए लगता है कि वित्त वर्श 2019-20 में आयात बिल में व्यापक इजाफा होगा। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि भारत के कुल तेल खपत में घरेलू उत्पादन की हिस्सेदारी घटती जा रही है। गौरतलब है कि 6 साल पहले भारत अपनी आवष्यकता का 74 फीसदी तेल बाहर का आयात करता था जबकि साल 2017-18 के वित्त वर्श से यह आंकड़ा 83 फीसदी हो गया। एक तो बाहर के देषों पर क्रूड आॅयल को लेकर निर्भरता, दूसरे देष में तेल की बढ़ती खपत से महंगाई बढ़ने के पूरे आसार दिखते हैं।
भले ही अमेरिकी प्रभुत्व के चलते भारत पर ईरान से तेल को लेकर दूरी का दबाव हो पर भारत-ईरान के बीच दोस्ती ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दोनों संदर्भों से ओत-प्रोत है। दोनों देषों के बीच संस्कृति, कला, वास्तुकला व भाशा के क्षेत्र में भी अन्तःक्रियाएं होती रहती हैं। भारत में उत्पन्न हुए बौद्ध धर्म ने पूर्वी ईरानी क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। आध्यात्मिक अन्तःक्रिया के चलते सूफीवाद का उदय भी माना जाता है। विष्व के सात आष्चर्य में षामिल ताजमहल का वर्णन प्रायः भारतीय षरीर में ईरानी आत्मा के प्रवेष के रूप में किया जाता है। स्वतंत्रता के षुरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च, 1950 केा एक चिरस्थायी षान्ति और मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर भी हुए थे। हालांकि षीत यद्ध के दौरान दोनों के बीच अच्छे सम्बंध नहीं थे ऐसा ईरान का अमेरिकी गुट में षमिल होने के चलते था जबकि भारत गुटनिरपेक्ष बना रहा जबकि आज हालात उलट दिखाई देते हैं। अब भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध पिछले सात दषकों की तुलना में कहीं अधिक मजबूत हो चले हैं और ईरान अमेरिका को फूटी आंख नहीं भा रहा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले में भी भारत-ईरान का आपसी सहयोग बना रहा। वर्श 2003 में ईरानी राश्ट्रपति खातमी के भारत दौरे के दौरान इस मामले में संयुक्त समझौता भी हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2001 में ईरान दौरे के समय आधारभूत संरचनात्मक परियोजना के लिए ईरान को दो सौ मिलियन डाॅलर ऋण उपलब्ध कराये जाने की घोशणा भी की थी। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था पर भारत एवं अमेरिका के बीच नाभिकीय समझौता 2005 ने दोनों देषों के बीच तनाव उत्पन्न कर दिया। यदि भारत ईरान और अमेरिका में से किसी एक को चुनता तो यह उसके लिए निहायत कठिन था। हालांकि ईरान के लिए भी यह चुनौती रही है कि वह भारत और पाकिस्तान को लेकर संतुलन कैसे बनाये रखे। वर्शों पूर्व भारत से ईरान का गतिरोध तब हो गया जब उसने कष्मीर में स्वषासन की बात कह दी जो भारत को नागवार गुजरा था। फिलहाल अमेरिका प्रतिबंध से भारत-ईरान सम्बंधों पर भले ही कूटनीतिक दूरियां न बढ़े पर कच्चे तेल को लेकर भारत की परेषानियां बढ़ सकती है। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, April 22, 2019

श्रीलंका मे हमला द. एशिया के लिए चुनौती


श्रीलंका के तीन प्रमुख षहरों कोलंबो, निगंबो और बट्टिकलोवा में बीते 21 अप्रैल को आतंकी हमला हुआ जिसमें दो सौ से अधिक श्रीलंकाई के साथ कई भारत के नागरिक भी मारे गये और 5 सौ से अधिक घायल बताये जा रहे हैं। श्रीलंका में हुए आतंकी हमले से जाहिर है दक्षिण एषिया में षान्ति की पहल को झटका लगेगा। गौरतलब है कि दक्षिण एषिया में अषान्ति का एक बहुत बड़ा कारण आतंकवादी गतिविधियां रही हैं। भारत इस मामले में सबसे अधिक भुक्तभोगी देष है। पाक प्रायोजित आतंक से भारत तीन दषकों से जूझ रहा है जबकि श्रीलंका इतने ही समय से राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त नहीं कर पाया। हालांकि श्रीलंका में हुए इस हमले की किसी संगठन ने जिम्मेदारी नहीं ली है लेकिन यह आतंकी हमला समुदाय विषेश को टारगेट पर रखकर किया गया प्रतीत होता है। इस हमले से यह भी उजागर होता है। श्रीलंकाई समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच कहीं अधिक विभाजित प्रतीत होता है। श्रीलंका के भीतर समय-समय पर जातीय नरसंहार भी देखने को मिला है। भारत और श्रीलंका के बीच सम्बंध बहुत उतार-चढ़ाव से भरे रहे हैं। कितने दूर, कितने पास के आधार पर इस सम्बंधों की जांच की जा सकती है। प्रधानमंत्री मोदी जब 27 साल बाद पड़ोसी पहले की नीति के तहत मार्च 2015 में श्रीलंका की यात्रा की थी तब दोनों देषों के रिष्तों के एक नये अध्याय की षुरूआत हुई थी। विष्व के राजनीतिक मंच पर और दक्षिण एषिया के भीतर भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाये इसके लिए जरूरी है कि वह पड़ोसी देषों को भरोसे में ले। मोदी द्वारा श्रीलंका की की गयी यात्रा इसी दृश्टि से देखी गयी थी जहां उन्होंने द्विपक्षीय समझौते के तहत वीजा नियमों में छूट, कस्टम मामलों में सहयोग, युवाओं के बीच बेहतर संवाद समेत चार समझौते पर दस्तखत किये थे।
पड़ताल इस बात की भी जरूरी प्रतीत होती है कि श्रीलंका की जातीय व सामुदायिक स्थिति कैसी है। कुल आबादी का यहां 74 फीसदी सिंघली, 13 प्रतिषत श्रीलंका के तमिल, 6 प्रतिषत भारतीय मूल के तमिल और अन्य रहते हैं। तमिल हिन्दू धर्म अनुयायी हैं जबकि सिंघली बौद्ध धर्म के पोशक हैं। हालांकि यहां मुसलमान और ईसाई की संख्या भी कई षहरों में ठीक-ठाक है। जिस कोलम्बो के सेंट ऐंथनी चर्च में ईस्टर की प्रार्थना के लिए सब जुटे थे और जहां किये गये धमाके से दुनिया दहल गयी उस कोलंबो की जनसंख्या 56 लाख है जिसमें करीब 32 फीसदी मुसलमान और इतने ही बौद्ध षामिल हैं। करीब 23 प्रतिषत हिन्दू और बाकी हिस्सा ईसाईयों का है। हमले ने चर्च की छत उड़ा दी और जो इसकी जद में आये और जो बच गये वे भी आंखों के सामने मौत का मंजर देखा। निगंबो के सेंट सेबेस्टियन चर्च भी पूरी तरह तबाह हो गया है। गौरतलब है कि 14 लाख की आबादी वाला यह षहर 65 फीसदी रोमन कैथोलिक के लिए जाना जाता है जबकि 14 फीसदी से अधिक यहां मुसलमान हैं और 12 फीसदी बौद्ध हैं और बचा हुआ हिस्सा हिन्दुओं का है। तीसरा प्रमुख षहर बट्टिकलोआ जो श्रीलंका की पहले राजधानी हुआ करती थी यहां हिन्दू अधिक हैं और ईसाई और बौद्ध अल्पसंख्यक अल्पसंख्यक में आते हैं। यहां सिय्योल चर्च पर हमला हुआ और मंजर सबके सामने है। कोलंबो के जिस चर्च को आतंकियों ने बर्बाद किया वह राश्ट्रीय तीर्थस्थल घोशित था और जब श्रीलंका में डच आये थे उस काल का बना हुआ था। श्रीलंका में बर्बादी कितनी हुई इसका हिसाब लगाया जा रहा है मगर ईसाई समुदाय को निषाना लगा कर चर्च और होटलों पर हमला करके यह जता दिया गया कि यह हमला मकसद को ध्यान में रखकर किया गया है। गौरतलब है कि इस हमले से ठीक 32 साल बाद 21 अप्रैल 1987 को बम धमाके में 113 लोगों की मौत हुई थी। तब इस घटना के लिए लिट्टे को जिम्मेदार ठहराया गया था। गौरतलब है कि श्रीलंका करीब चार दषकों से लिट्टे के कारण बहुत सुलगा है। लिबरेषन टाइगर्स आॅफ तमिल ईलम (एलटीटीई) की स्थापन प्रभाकरन ने 1976 में की थी जिसका उद्देष्य उत्तर और पूर्व श्रीलंका में तमिलों के लिए स्वतंत्र राज्य बनाना था। 1983 से 2009 तक श्रीलंका गृह युद्ध की चपेट में रहा और 16 मई 2009 को तात्कालीन राश्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने गृह युद्ध और लिट्टे की समाप्ति का ऐलान कर इतिश्री की सूचना दी। 
श्रीलंका बीते तीन दषकों से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। जिसके कारण वहां का समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में कब विभाजित हो गया पता ही नहीं चला। तमिल और सिंघली का मामला भी बरसों विवादों में ही रहा है। इस विवाद के कारण भारत और श्रीलंका के बीच सम्बंध भी कई उतार-चढ़ाव लिये। नेहरू काल से मोदी षासन तक इसे देखा जा सकता है। उस दौर में श्रीलंकाई सरकार यह चाहती थी कि प्रवासी भारतीय देष छोड़कर चले जाये। 1948 और 1949 में वहां के भारतीयों को समान अधिकार और मताधिकार से भी वंचित कर दिया गया। यहीं से विवाद जड़ ले लिया। 1983 आते-आते तो तमिलों को श्रीलंका से खदेड़ने की नीति भी बना दी गयी। जमकर नरसंहार हुए और उनके सामने दो ही विकल्प थे या तो वे मारे जायें या समुद्र में कूद कर जान दें दे। जब भारत ने इस पर कड़ा रूख अपनाने का प्रयास किया तब श्रीलंकाई राश्ट्रपति जयवर्द्धने ने कहा था यदि संयोगवष भारत आक्रमण करता है तो सम्भव है कि हम पराजित हो जायें, लेकिन लड़ेंगे षान से। कोलंबो समेत कई समझौते से लेकर परिवर्तन की हर दिषा पर दोनों देषों ने अनुकूल अभ्यास किया और सम्बंध को ऊंचाई दी और 90 का दषक समाप्त होते-होते सब कुछ सामान्य हो गया। महिन्द्रा राजपक्षे के कार्यकाल में सिंघली बुद्धिस्थ का मनोबल बढ़ गया था। नतीजन इन्हीं के समय में वहां बोदु बाला सेना पनपी इससे इस वर्ग में भी चरमपंथ आया जिसका परिणाम यह हुआ कि श्रीलंका के मुसलमान और तमिल समुदाय में आक्रोष बढ़ गया और सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिला। 2014-15 में मैत्रीपाल सिरिसेन के समर्थन में सरकार बनी मुस्लिम, तमिल और प्रगतिषील बुद्धिस्थ इसमें षामिल हुए। यह भी सामाजिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा प्रभाव था। इस बार निषाने पर ईसाई समुदाय आया जिसकी किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली। हालांकि यह श्रीलंका के भीतर पनपा निजी मामला है पर आतंकी हमले की दृश्टि से इसे षेश दुनिया से अलग नहीं माना जा सकता। मुख्यतः इस समय तो इसलिए भी नहीं क्योंकि दुनिया आतंक के खिलाफ पूरी ताकत झोंक रही है। 
दक्षिण एषिया के देष जितनी षान्ति और सद्भावना से पोशित होंगे उतने ही एक-दूसरे के लिए उपजाऊ होंगे। भारत दषकों से आतंक झेल रहा है पर षान्ति की पहल करना नहीं छोड़ा। श्रीलंका पर चीन की भी नजर है और इससे वह हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर भारत को कूटनीतिक मात देना चाहता है। आतंकी हमले के बाद भारत ने श्रीलंका को आष्वासन दिया है कि वह हर तरीके से उसके साथ है। ऐसा एक पड़ोसी की दृश्टि से समुचित है। कूटनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी यहां एक संतुलन की राजनीति भारत को करना होगा। गौरतलब है कि बरसों पहले भारत पर श्रीलंका यह आरोप लगा चुका है कि वह उसके आंतरिक मामलों में दखल देता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या भी श्रीलंका विवाद ही रहा है। सार्क के 8 देषों में श्रीलंका भले ही क्षेत्रफल की दृश्टि से मात्र 25 हजार वर्ग किलोमीटर का एक द्वीप हो है पर सामाजिक ध्रुवीकरण के मामले में वह कहीं अधिक तीव्रता वाला देष है। षायद यही सामाजिक ध्रुवीकरण सामुदायिक संघर्श को जन्म दे देता है। सामुदायिक संघर्श किसी भी देष के लिए निहायत हानिकारक होते हैं और दूसरे देषों के साथ सहयोग और द्वन्द्व का असल मिला-जुला रहता है। सम्भव है कि दक्षिण एषिया में षान्ति के लिए श्रीलंका में षान्ति जरूरी है ऐसे में श्रीलंका को भी इस नई चुनौती से समय के साथ निपटना ही होगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, April 17, 2019

आईएएस के आसमान मे स्याह हिन्दी मीडियम

सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बनने की जगह इलाहाबाद रही है जिसका औपचारिक नाम अब प्रयागराज है। अब वहां की हालत चयन दर के मामले में बेहतर नहीं है। पहली बार साल 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लंदन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का दषकों-दषक बड़ा स्थान बना रहा। आज वहां मीलों सन्नाटा है। हालांकि सन्नाटा तो दिल्ली में भी है। इतना ही नहीं उत्तर भारत में पनप चुके कई केन्द्रों मसलन लखनऊ, पटना, जयपुर समेत कई स्थानों पर आलम यही है। यहां अध्ययन करने वाले प्रतियोगियों को लेकर बात नहीं कही जा रही है बल्कि प्रतिवर्श सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम में चयन के स्तर को लेकर यह चिंता जताई जा रही है। बहुत खोजबीन के बाद कुछ आंकड़े वेबसाइट से प्राप्त हुए जिसे पढ़कर सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम की दुर्दषा का पता चलता है। आंकड़ों की पड़ताल कहती है कि हिन्दी माध्यम का बुरा हाल तब हुआ जब से सिविल सेवा में बदलाव आया। साल 2011 में पहली बार वैकल्पिक विशय हटाकर प्रारम्भिक परीक्षा में सीसैट जोड़ा गया था। आगे क्रमिक तौर पर 2013 में मुख्य परीक्षा में भी बड़़ा बदलाव लाया गया। तभी से हिन्दी माध्यम का चयन दर भारी गिरावट का षिकार हो गया। साल 2013 में हिन्दी माध्यम में सिविल सेवा की परीक्षा पास करने वाले प्रतियोगियों का आंकड़ा तुलनात्मक बेहतर था पर बाद में यह निरंतर निराष करने वाला सिद्ध हुआ। 2014 में यह तेजी से गिरते हुए 2.11 प्रतिषत रह गया। 2015 में यह थोड़ा उठान के साथ 4.28 पर आकर खड़ा हो गया और 2016 में यह 3.45 था। हिन्दी माध्यम के प्रतियोगियों की चयन दर की ये सूरत भयभीत करने वाली है। देखा जाय तो 65 फीसदी आबादी घेरने वाले हिन्दी प्रतियोगी इकाई के षुरूआती प्रतिषत में सिमट कर रह गये हैं। आंकड़े के क्रम में 2017 में यह 4 फीसदी से थोड़ा ज्यादा था और 2018 में हिन्दी माध्यम में चयनित उम्मीदवार का दर 2.16 रह गया है। यह एक ऐसी सूरत है जो वर्शों से सिविल सेवा की तैयारी करने वाले प्रतियोगियों को हैरान कर सकती है और निराष भी पर बरसों से इस क्षेत्र में होने के नाते मैं यह समझता हूं कि इस परीक्षा की तैयारी करने वाले बरसों-बरस तक टूटते नहीं है बल्कि चयनित न होने पर स्वयं में नव निर्माण भर लेते हैं। 
द इण्डियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक मसूरी स्थित लाल बहादुर राश्ट्रीय प्रषासनिक अकादमी में ट्रेनिंग ले रहे 370 अधिकारियों में से केवल 8 हिन्दी माध्यम के थे। बात हिन्दी माध्यम तक की ही नहीं है सवाल देष में बड़ी तादाद में लगे उम्मीदवारों के वजूद का भी है। सवाल यह भी है कि सिविल सेवा परीक्षा के प्रति जिस समर्पण के साथ युवा जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा खपाता है आखिर हिन्दी माध्यम उसे वहां तक पहुंचने में क्यों व्यवधान है। सवाल दूसरा यह है कि कठिनाई हिन्दी माध्यम की है या कोई खामी यूपीएससी में है या फिर हिन्दी माध्यम के प्रतियोगी का स्तरहीन प्रदर्षन है। सवाल चकरा देने वाले हैं फिर भी सुधार तो करना पड़ेगा। चाहे प्रतियोगी की कमी हो या प्रतियोगिता की व्यवस्था में इस दर को लम्बे समय तक बनाये रखना उचित तो कतई नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी माध्यम की दुर्दषा हमेषा से ऐसी रही। इसी परीक्षा में कभी 100 स्थान के भीतर 10 से 20 हिन्दी माध्यम के उम्मीदवार होते थे। इतना ही नहीं 2002 में अजय मिश्रा हिन्दी माध्यम से 5वीं रैंक पर थे जबकि किरण कौषल 2008 में तीसरी रैंक हासिल की थी। उसके बाद से स्थिति बेकाबू हुई और 2014 से तो हिन्दी माध्यम का प्रतियोगी नदारद होने लगा। सवाल यह भी है कि क्या 2008 के बाद हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले की बौद्धिक योग्यता में गिरावट आ गयी। यह तीखा सवाल है और इसका हल ढ़ूंढ़ना होगा। हिन्दी बनाम अंग्रेजी का रूप ले चुकी सिविल सेवा परीक्षा में क्या अंग्रेजी माध्यम के प्रतियोगी ही बौद्धिकता के चरम पर है। जहां तक जान पड़ता है कि एक दषक पहले इस परीक्षा में सवाल उठते थे पर हिन्दी बनाम अंग्रेजी न होकर इंजीनियरिंग बनाम अन्य हुआ करता था। 
समस्या यह है कि इन समस्या से कैसे निपटा जाय। सरसरी दृश्टि से तो यही कहा जायेगा कि इसमें भाग लेने वाले प्रतियोगी विशय के ज्ञान व बोध को चैड़ा करें पर क्या इतना मात्र कहना ही पूरी तरह वाजिब है। बीते दो दषकों से दिल्ली से लेकर इलाहाबाद, पटना, जयपुर व लखनऊ समेत उत्तर भारत के हिन्दी भाशी क्षेत्रों समेत पूरे भारत में कोचिंगों की बाढ़ आयी। हालांकि इसमें नाम तो भोपाल, इंदौर और देहरादून समेत कई क्षेत्रों का लिया जा सकता है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में हिन्दी माध्यम की कोचिंग की तादाद भी अधिक है और प्रतियोगी भी। यहीं पर हिन्दी माध्यम की तैयारी करने और कराने वालों का सबसे बड़ा संगम होता है। यहीं से रणनीति की कताई-बुनाई और परीक्षा में सफल होने का पूरा ताना-बाना बुना जाता है। नोट्स से लेकर पढ़ने-पढ़ाने की रणनीति का यहां बहुत बड़ा बाजार है। इस बाजार में महंगे-सस्ते सभी बिक रहे हैं। प्रतियोगी की भाग-दौड़ में भी षायद ही कोई कमी हो। वह भी हर कोचिंग के चैखट पर कमोबेष माथा टेकता मिल जायेगा। दो टूक कहें तो वह काॅरपोरेट व पूंजीवाद की इस दुनिया में काफी हद तक कोचिंग के आभामण्डल से भी ग्रस्त है। अंदर क्या पकता है और यूपीएससी की दृश्टि से कितना सटीक है इसकी चिंता किये बगैर वह इस आभामण्डल में कुछ हद तक तो फंस रहा है। स्थिति तो यह भी है कि जो जितना कठिन पढ़ाई बना दे उतना अच्छा उसका बौद्धिक स्तर है जबकि सच्चाई यह है कि सिविल सेवा परीक्षा विष्लेशणात्मक एवं विचारषील अवधारणा से युक्त है जिसमें निर्धारित षब्दों के भीतर बात कहने की क्षमता विकसित करनी है। जिस हेतु जरूरी सामग्री व सधा हुआ मार्गदर्षन तथा सीमित विवेकषीलता की आवष्यकता है। 
स्वतंत्रता के पष्चात् सर्वाधिक बड़ा फेरबदल सिविल सेवा परीक्षा में साल 1979 में देखा जा सकता है जो कोठारी समिति की सिफारिषों पर आधारित है। यहीं से सिविल सेवा परीक्षा प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार को समेटते हुए त्रिस्तरीय हो गयी और इस परिवर्तित पैटर्न के पहले टाॅपर उड़ीसा के डाॅ0 हर्शुकेष पाण्डा हुए। प्रषासनिक सेवा को लेकर हमेषा से युवाओं में आकर्शण रहा है साथ ही देष की सेवा का बड़ा अवसर भी इसके माध्यम से देखा जाता रहा। लाखों युवक-युवतियां इसे अपने कैरियर का माध्यम चुनते हैं पर विगत् कुछ वर्शों से हिन्दी माध्यम के प्रतियोगी को लगातार निराषा मिल रही है। जिस प्रकार हिन्दी माध्यम की चमक यहां फीकी पड़ रही है यकीनन इसका असर देष की कार्यप्रणाली पर भी पड़ रहा है। यूपीएससी इस परीक्षा में सुधार हेतु कई कदम समय-समय पर उठाये हैं आरोप तो नहीं है पर कम होता हिन्दी माध्यम का चयन यह कहने की इजाजत देता है कि एक बार इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि खामी कहां है। हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाशा प्रेमियों के लिए इस सच्चाई को जानना जरूरी है ताकि वे इस दिषा में व्यावहारिक उपाय अपनाते हुए स्वयं के चयन के साथ आंकड़ों में भी सुधार ला सकें। कई बेहतरीन हिन्दी भाशी प्रतियोगियों को जब हताष होते हुए देखता हूं तो यह स्मरण आता है कि कहीं गलती किसी और की और भुगतान कोई और न कर रहा हो। फिलहाल हिन्दी माध्यम वालों केे पिछड़ने की वजह और भी हो सकती है। एक साथ सभी की तलाष मुमकिन नहीं है पर औपचारिक सुधार और अनौपचारिक आदतों को बदलकर इस माध्यम के प्रतियोगी अपनी बढ़त बना सकते हैं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, April 15, 2019

दुनिया के लिए शिक्षा भी बड़ी चुनौती

सजग वह है जो षिक्षा को लेकर सतर्क है और षासन उस सरकार का अच्छा जिसकी प्राथमिकताओं में यह षुमार हो। सुषासन और षिक्षा का गहरा सम्बंध है। संरचना, प्रक्रिया और व्यवहार का संयोजन यदि बेहतर है तो षिक्षा बेहतर होगी, गुणवत्ता युक्त होगी और देष उन्नति की राह पर होगा। देष कोई भी हो षिक्षा देने के अपने-अपने प्रारूप हैं। भारत, चीन, पाकिस्तान व अमेरिका समेत सभी देषों में यह अलग-अलग है पर एक बात के लिए सभी में एकरूपता है कि अच्छी षिक्षा की दरकार सभी को है। इसी से अच्छे नागरिक के साथ अच्छे मानव संसाधन का संदर्भ निहित है। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाष जावेडकर का हालिया बयान कि उनके सरकार के कार्यकाल में षिक्षा पर होने वाला व्यय साल 2014 के जीडीपी के 3.8 फीसदी की तुलना में बढ़कर 4.6 प्रतिषत हो गया है और अब इसे 6 फीसदी का लक्ष्य देने की बात कह रहे हैं। इसके पहले कांग्रेस के मेनिफेस्टो में भी जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने की बात की गयी है। सम्भव है सरकार किसी की हो षिक्षा में सुधार के प्रति दोनों आतुर हैं। फिलहाल भारत में सार्वजनिक षिक्षा प्रणाली काफी कमजोर मानी जाती रही है पर अब इसमें कुछ सुधार भी हुए हैं। खराब बुनियादी सुविधा से लेकर हजारों की तादाद में षिक्षकों के खाली पद और अप्रषिक्षित तथा षिक्षा के प्रति उदासीन षिक्षकों ने तो इसकी हालत और पस्त की है। कोठारी समिति कह चुकी है कि न्यूनतम 6 प्रतिषत जीडीपी का षिक्षा पर लागू किया जाना चाहिए जिस पर किसी सरकार ने इच्छाषक्ति अभी तक नहीं दिखाई। हालांकि चुनावी बेला में मानव संसाधन विकास मंत्री बड़ी बात बोल रहे हैं। बारहवीं पंचवर्शीय योजना की सिफारिष में भी षिक्षा में बजटीय आबंटन की कमी को लेकर कुछ वर्शों की पड़ताल देखी जा सकती है। सीएजी रिपोर्ट 2017 के अनुसार राज्य सरकारें 2010-2011 और 2015-2016 के बीच 21 से लेकर 41 प्रतिषत तक धन का उपयोग करने में असमर्थ रही। 
गुणवत्तापूर्वक षिक्षा प्रदान करने के मामले में भारत कहीं अधिक पीछे है। हालांकि दुनिया भर के पढ़े-लिखे और पेषेवर लोगों की जमात में अमेरिका का वर्चस्व भी कुछ घटा है। कोरिया और चीन जैसे देष इसमें अपना हिस्सा बढ़ा रहे हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की सालाना रिपोर्ट से यह बात भी सामने आयी है कि चीन और कोरिया जैसे देष में काॅलेज की पढ़ाई और पेषेवर षिक्षा हासिल करने वाले लोगों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। अमेरिका और जर्मनी को छोड़ दूसरे अन्य औद्योगिक देषों में भी स्थिति ऐसे ही बनते दिखती है। अमेरिका के लिए एक चेतावनी भी दी गयी थी कि 2020 तक काॅलेज ग्रेजुएट की संख्या में अपना सर्वोच्च स्थान बनाने के लिए उसे ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे। भारत की स्थिति यह है कि प्रतिवर्श 3 करोड़ से अधिक यहां ग्रेजुएट होते हैं और 55 लाख के आसपास पोस्ट ग्रेजुएट जबकि पीएचडी में नामांकन बहुत कम हो पाता है। इतना ही नहीं विद्यालय से लेकर महाविद्यालय और अधिकतर विष्वविद्यालय षिक्षा के मूलभूत आवष्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ देखे जा सकते हैं। उच्च षिक्षा में दुनिया भर के छात्रों के बीच जर्मनी के छात्रों की संख्या भी 50 सालों से करीब-करीब स्थिर है। कहा जाता है कि 50 साल पहले जर्मनी में हर पांचवां उच्च षिक्षा पाता था। अब हर चैथा व्यक्ति उच्च षिक्षा पाता है। तुलनात्मक खर्च के मामले में भी जर्मनी बहुत पीछे है। 1995 के दौर में जर्मनी षिक्षा पर जीडीपी का 5 फीसदी से अधिक खर्च करता था अब यह आंकड़ा गिरा हुआ है। मगर एक हकीकत यह है कि भारत में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतना ही गरीबी रेखा के नीचे है। 
पढ़ाई हो या कमाई अमेरिका दुनिया का ध्यान आकर्शित करता है। अमेरिका की षिक्षा प्रणाली कितनी उपजाऊ है यह भी एक पड़ताल का विशय है। भारत के पब्लिक स्कूलों में समृद्ध परिवारों के बच्चों का प्रवेष दर अधिक होता है जबकि अमेरिका के सघन आबादी वाले षहरों में जो सरकारी स्कूल हैं उनमें अधिकतर साधारण वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। अमेरिका में एक नियम यह भी है कि बच्चे को निकटवर्ती स्कूल में ही भर्ती करवाना होगा जिस हेतु निःषुल्क बस सेवा, कई स्कूलों में सुबह का नाष्ता जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। षिक्षा को षारीरिक और मानसिक पाठ्यक्रम को ध्यान में रख कर दिया जाता है। बच्चों को कोई समस्या न हो इसके लिए सहायक भी नियुक्त किये जाते हैं। स्कूल में उपचार के लिए नर्स भी होती है। बहुत से षिक्षक स्कूल में अतिरिक्त समय देते हैं। इतना ही नहीं किताबें, नोटबुक्स आदि की भी व्यवस्था उपलब्ध कर आभावग्रस्त बच्चों को इससे मुक्ति दिलाते हैं। इसके अलावा भी कई सकारात्मक संदर्भ से युक्त यहां की व्यवस्था देखी जाती है। अमेरिका के बाकी हिस्सों में सबसे उन्नत षिक्षा प्रणाली है। राज्य और स्थानीय सरकार पाठ्यक्रम तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। राज्य षिक्षा पर बहुत अधिक नियंत्रण लेता है। एक दषक पहले ऐसा भी रहा है कि भारत में विष्वस्तरीय षिक्षा नहीं मिल सकती है पर अब ऐसा नहीं है। भले ही कुल जीडीपी का षिक्षा पर खर्च कम लग रहा हो पर प्रवृत्ति ने षिक्षा की गुणवत्ता को बड़ा किया है। पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन किया गया है परन्तु यह समझ पाना भी मुष्किल हो रहा है कि उक्त बदलाव पूरी तरह प्रासंगिक है या नहीं। 
पड़ोसी चीन पर दृश्टि डालें तो बच्चों की पढ़ाई की षुरूआत वहां 6 साल से होती है। यहां ग्रेड 1 में 6 साल की उम्र में जो प्राइमरी षिक्षा का भाग होता है और यह एक से 6 ग्रेड तक हाती है। इसी तरह जूनियर सेकेण्डरी 7 से 9 ग्रेड तक पढ़ाई जो 15 साल की उम्र में इसे पूरा करते हैं। तत्पष्चात् सेकेण्डरी एजुकेषन होती है जिसमें 10 तक की पढ़ाई करवाई जाती है। उसके बाद पोस्ट सेकेण्डरी जो 14वीं ग्रेड तक और अन्ततः ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई होती है। चीन के स्कूलों में बच्चों को दिन में दो बार वार्म-अप करना होता है जबकि भारत में एक बार ही वार्म-अप करवाया जाता है। बच्चों को खाना खाने के लिए एक घण्टे का टाइम दिया जाता है। कुछ स्कूलों में तो बच्चों को सोने की भी इजाजत है। चीन में पढ़ने वाले बच्चें स्कूल में नींद ले सकते हैं इसे कोई नैतिक गिरावट नहीं मानी जाती। हालांकि यहां 8 बजे से 4 बजे तक के स्कूल होते हैं लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि केवल पढ़ाई होती है अन्य क्रियाकलाप के कारण यह समय बढ़ा है। यहां भी सरकारी और प्राइवेट स्कूल पाये जाते हैं और फीस में मोटा अंतर देखा जा सकता है। दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान की स्थिति पर भी दृश्टि डाली जाय तो यहां ढाई करोड़ से अधिक बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते जिनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। जुलाई 2018 के पाकिस्तान के चुनावी घोशणापत्रों में भी यह बात कही गयी कि सवा दो करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। छठी कक्षा आते-आते करीब 60 फीसदी लड़कियां स्कूल से बाहर हो जाती हैं और 9 कक्षा आते -आते 13 फीसदी ही षिक्षा जारी रख पाती हैं। पाकिस्तान इन दिनों कई समस्याओं से जूझता दिखता है यह अपने जीडीपी का 2.8 फीसदी ही षिक्षा पर खर्च कर पाता है जबकि भारत एषियाई और ब्रिक्स देषों से ज्यादा खर्च षिक्षा पर करता है। सब के बावजूद दो टूक यह है कि षिक्षा पर न केवल धन का व्यापक आबंटन करना है बल्कि पाठ्यक्रम को भी समय और परिस्थिति के अनुकूल ढलान देना है। दुनिया में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिता बढ़ी है उससे पार पाने के लिए षिक्षा रूपी हथियार को मजबूत होना ही पड़ेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, April 10, 2019

लोकसभा चुनाव जिस पर दुनिया की टकटकी

वर्ष 1888 में कैम्ब्रिज में एक व्याख्यान के दौरान सर जाॅन स्ट्रैची ने बड़े अहंकार से कहा था कि भारत देष या भारत जैसी कोई और चीज न कभी थी और न है। इस कथन को सवा सौ साल से अधिक हो गया तब देष औपनिवेषिक सत्ता में फंसा हुआ था। देष की आजादी को अब 72 बरस पूरे हो रहे हैं और 17वीं लोकसभा के गठन का दौर इन दिनों चल रहा है जिसके पहले मतदान की तिथि 11 अप्रैल है। भारत का साल 1951-52 का वह पहला चुनाव जिस पर दुनिया ने टकटकी लगाकर देखा था और आज भी उसकी दृश्टि इस पर है। जाॅन स्ट्रैची ने तब साम्राज्यवाद के घमण्ड में यह बोला था। यदि वही स्ट्रैची आज भारत के लोकतंत्र को देखते तो उन्हें पता चलता कि भारत का अस्तित्व हजारों वर्श न केवल पुराना है बल्कि ख्यातियों से भरा है जो अपने  सद्भाव उन्मुख कृत्य से दुनिया की दृश्टि अपनी ओर खींचता रहेगा। बीते 5 साल की पड़ताल करें तो पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी 92 देषों की यात्रा कर चुके हैं अर्थात् संयुक्त राश्ट्र संघ में कुल सदस्य देषों का लगभग आधे देषों का। गौरतलब है कि भारत में 17वीं लोकसभा के गठन के लिए 11 अप्रैल से मतदान षुरू हो रहा है जो 19 मई तक चलेगा जिसमें सात चरण हैं और 23 मई को नतीजे आयेंगे। स्पश्ट कहें तो अमेरिका, यूरोपीय देष, चीन व पाकिस्तान समेत दक्षिण एषिया व आसियान के तमाम देष की दृश्टि इस चुनाव पर है। भारत के पड़ोसी देष चीन की इस चुनाव पर कुछ अधिक ही गहरी नजर है और पाकिस्तान भी इस पर नजरें गड़ाये हुए है। चीन बाखूबी जानता है कि भारत का बढ़ता बाजार उसके लिए पड़ोस में गड़ा खजाना है। 14 बार मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग के बीच मुलाकात हो चुकी है। हालांकि तनाव भी कम ज्यादा इसी दौरान पनपे भी हैं। डोकलाम विवाद इस दौर का सबसे संवेदनषील मामला है। चीन जानता है कि भारत एक उभरती अर्थव्यवस्था है। वल्र्ड बैंक भी कहता है कि 2025 तक भारत 4 खरब यूएस डाॅलर के साथ दुनिया का तीसरा बड़ा बाजार होगा। जाहिर है फायदा चीन भी उठायेगा। दो टूक यह भी है कि औपचारिक और अनौपचारिक दोनों परिस्थितियों में भारत और चीन कहीं आगे निकल चुके हैं पर सीमा विवाद से लेकर दबाव की कूटनीति भी साथ-साथ चल रही है। 
यह चुनाव पाकिस्तान के लिए भी बेहद खास है। पुलवामा घटना के बाद पाकिस्तान से व्यापारिक रिष्ते जिस प्रारूप में भारत ने तोड़ा है और मोस्ट फेवर्ड नेषन का दर्जा छीना है साथ ही सिन्धु जल समझौते पर भी कड़ा रूख दिखाया उससे पाकिस्तान हाषिये पर चला गया है। उसको लगता है कि यदि भारत में सत्ता बदलेगी तो उसके संकट भी घटेगे जबकि सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की समस्या तब समाप्त होगी जब उसी के घर में पल रहे आतंकियों का खात्मा होगा। मोदी षासनकाल में की गयी सर्जिकल और एयर स्ट्राइक से पाकिस्तान यह समझ गया है कि पड़ोस पहले जैसा नहीं है। फिलहाल प्रत्येक गतिविधि पर वहां की सरकार एवं मीडिया की बारीक नजर है। बीते 5 वर्शों के दौरान अमेरिका के लिए भारत कहीं अधिक अहम हो गया है। न केवल भारत का बाजार उसके लिए मायने रखता है बल्कि रणनीतिक क्षेत्र समेत दूसरे अन्य क्षेत्रों में भी दोनों की साझेदारी खूब बढ़ी है। समान को खपाने के लिए अमेरिका को भारत चीन जैसा ही दिखता है। हालांकि भारत और अमेरिका के बीच साल 2018 में व्यापारिक घाटे में करीब डेढ़ बिलियन यूएस डाॅलर से अधिक का इजाफा हुआ है जो 2017 की तुलना में करीब 7 प्रतिषत है। अमेरिका भारत के साथ लगातार व्यापार बढ़ाना चाहता है। पहले मोदी और बराक ओबामा के बीच घनिश्ठ सम्बंध रहे और अब डोनाल्ड ट्रम्प के साथ प्रगाढ़ता देखी जा सकती है। पुलवामा घटना के बाद ट्रंप की रणनीतिक दृश्टि भारत पर रही है जो इसे पुख्ता करता है। दरअसल आने वाली सरकार भी दूसरे देषों के साथ होने वाला व्यापार की दिषा और दषा तय करेगी लिहाजा अमेरिका, पाकिस्तान और चीन चुनाव से निगाहें चुरा नहीं सकते हैं बल्कि कहीं अधिक गड़ा कर देख रहे हैं। 
सर्जिकल स्ट्राइक पर भारत को दुनिया का साथ मिला। सुरक्षा परिशद् में भारत की सदस्यता को दुनिया के तमाम देषों से समर्थन मिला, अन्तरिक्ष कूटनीति से सार्क को नई दिषा देने का काम भी भारत ने ही किया। प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर अन्तर्राश्ट्रीय सौर संगठन का गठन भी हुआ। आतंकवाद पर मोदी के आह्वान को दुनिया ने स्वीकारा। ऐसे कई कृत्यों के चलते बीते पांच वर्शों में भारत ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्शित कराया। भारत के लोकसभा चुनाव पर दक्षिण एषियाई देष भी टकटकी लगाये हुए हैं। सार्क देषों की बैठक साल 2016 से नहीं हुई है। गौरतलब है कि उरी में पाक प्रायोजित आतंकी हमले के कारण इस्लामाबाद में होने वाली बैठक को भारत ने खारिज कर दिया था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। विष्व के अलावा एषिया की सबसे बड़ी आबादी यहां पर रहती है। यहां सभी धर्मों के लोग रहते हैं। यहां की आबादी सबसे युवा हैं। खास यह भी है कि दुनिया के देष दो से तीन पार्टियां वाली होते हैं जबकि भारत में हजारों पार्टियां होती हैं। विविधता में एकता का प्रतीक भारत जब 1950 में गणतंत्र बना तब एषियाई देषों में उथल-पुथल थी। चीन साम्यवाद की जकड़ में आ गया था। जाॅर्डन और ईरान के प्रधानमंत्रियों का कत्ल हो चुका था और कष्मीर को लेकर भारत में उबाल था। जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री नियुक्त थे पर देष में चुनाव नहीं हुआ था। रूस नेहरू पर अपना प्रभाव बड़ा रहा था उधर अमेरिका भी इस कोषिष में था। देखा जाय तो अस्थिरता के दौर में पहला आम चुनाव जब देष में हुआ तब भी दुनिया ने टकटकी लगा कर देखी। साम्राज्यवादी विचारक मानते थे कि भारतीय स्वषासन के लायक नहीं हैं। पहला आम चुनाव के लिए मतदान 21 अक्टूबर को षुरू हुआ और पहला मत हिमाचल प्रदेष की छिनी तहसील में डाला गया। फरवरी तक चले इस मतदान में चुनी हुई नेहरू की सरकार सामने आयी तब भी दुनिया ने दांतों तले उंगली दबाई थी कि 36 करोड़ का जटिल देष 17 करोड़ से अधिक मतदाताओं को कैसे पेटी में बंद करके अपनी सत्ता चुन ली। तब हमारी काबिलियत को लेकर के दुनिया को संदेह था षायद इसलिए वे टकटकी लगा कर देख रहे थे पर आज 17वीं लोकसभा के चुनाव के दौर तक भारत ने दुनिया में अपनी स्थिति बुलंद कर दी। दक्षिण एषिया से लेकर आसियान तक यूरोप से लेकर अमेरिका तक अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका समेत पड़ोसी चीन और पाकिस्तान सभी में यह धमक पैदा हुई कि भारत अर्थव्यवस्था की दृश्टि से ही नहीं कूटनीतिक दृश्टि से भी एक सषक्त देष है अब षायद इसी का नतीजा है कि दुनिया की दृश्टि हमारे चुनाव पर टिकी है।
17वीं लोकसभा का नतीजा क्या होगा इसका खुलासा तो 23 मई को होगा पर लोकतंत्र की साख और पूंजी एक बार फिर न्याय की मांग कर रही है। देष के 90 करोड़ मतदाता लोकतंत्र को बड़ा बना सकते हैं इसके लिए बड़े पैमाने पर मतदान की आवष्यकता होगी। दुनिया की दृश्टि में भारत पहले जैसा नहीं है और यही दृश्टिकोण षायद उसे ताकतवर भी बनाता है। सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ी खासियत इसकी तब रहेगी जब एक सषक्त सत्ता चुनी जायेगी। इस विचार से परे होकर कि दुनिया क्या सोचती बल्कि इस विचार से युक्त होकर कि देष की भलाई किसमें है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, April 8, 2019

संकल्प पत्र से नई सरकार की खोज

साल 2014 में बीजेपी के मेनिफेस्टो में आर्थिक सुधार से लेकर गोरक्षा का वादा और राम मंदिर का जिक्र देखा जा सकता है। एक भारत, श्रेश्ठ भारत और सबका साथ, सबका विकास उस समय का आधारभूत नारा था। राजनीतिक पटल पर इसी मेनिफेस्टो के चलते भाजपा ने न केवल पूर्ण बहुमत प्राप्त किया बल्कि लोकतंत्र की उस धारणा को भी पुख्ता बनाया जो बीते 30 साल से कई सवालों से घिर गया था। भाजपा एक बार फिर अपनी सरकार को निरंतरता देने के लिए चुनावी समर में है और बीते 8 अप्रैल को उसने फिर एक संकल्प को जनता के सम्मुख रखा है। इस उम्मीद में कि देष के 90 करोड़ मतदाता एक बार फिर दिल्ली की गद्दी उसे सौंपेगे। बीजेपी के संकल्प पत्र से पहले कांग्रेस का घोशणा पत्र भी इसी गद्दी की प्राप्ति के लिए कहीं अधिक भारी-भरकम स्वरूप में देखा जा सकता है। दोनों मुख्य राश्ट्रीय दल देष में बदलाव की बयार बहाने के उत्सुक हैं। गरीबी को जड़ से खत्म करने का पूरा इरादा जता रहे हैं पर किसके गुब्बारे में कितनी हवा है यह जनता तय करेगी। भाजपा का संकल्प पत्र 5 साल में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या घटा कर आबादी के 10 प्रतिषत से कम पर लाने का संकल्प जता रहा है। जबकि कांग्रेस ने अपने घोशणा पत्र में 5 करोड़ परिवार और 25 करोड़ लोगों को 72 हजार सालाना देकर गरीबी खत्म करने की बात कह रही है। कांग्रेस के घोशणा पत्र और भाजपा के संकल्प पत्र में गरीब प्राथमिकता में दिखाई दे रहे हैं पर चुनावी समर में यह लोक लुभावन मुद्दा होकर रह जायेगा या फिर हकीकत में गरीबों के सपने पूरे होंगे। ये आने वाला वक्त बतायेगा। 
भाजपा के संकल्प पत्र की पड़ताल करें तो पता चलता है यह कई छोटे-बड़े वायदों के साथ कुछ 2014 की भावनाओं से युक्त प्रतीत होता है। किसानों की आय 2022 तक दोगुनी की बात इसमें देखी जा सकती है। हालांकि इसका वायदा सरकार सालों से कर रही है। किसानों को लेकर देष हमेषा चिंतित रहा है और मोदी सरकार भी इस चिंता से परे नहीं है पर पांच सालों में क्या हुआ इसका हिसाब देने का अब वक्त है और नये वायदे करने का समय भी। भाजपा प्रधामंत्री किसान सम्मान निधि योजना, प्रधानमंत्री कृशि सिंचाई योजना सहित ई-नाम, ग्राम आदि दर्जन भर वायदों के साथ किसानों का मन एक बार फिर जीतना चाहती है। देष युवाओं का है जाहिर है युवा संकल्प पत्र के केन्द्र में होंगे उनके लिए भी संकल्प पत्र में 7 प्रकार की योजनाएं लागू करने की बात कही गयी है। बुनियादी ढांचा देष की हमेषा आवष्यकता रही है और षायद यह समय के साथ बना रहेगा। मसलन षौचालय, पक्के मकान, पेय जल की सुविधा आदि जिसे लेकर 17 कार्यक्रम इससे जुड़े देखे जा सकते हैं। देष में परिवहन का हाल भी बहुत षोचनीय है और उसमें रेलवे को लेकर चिंता बड़ी हो जाती है। इसी के मद्देनजर संकल्प पत्र में भाजपा ने पुनः सरकार पाने की चाहत में स्मार्ट रेलवे स्टेषन, रेल विद्युतीकरण सहित कई वायदे करते दिख रही है। किसी भी देष की अर्थव्यव्यवस्था यदि सुदृढ़ हो तो नागरिक मजबूत होते हैं। अर्थव्यवस्था में बड़े सुधार को लेकर कई प्रकार के कार्यक्रम षामिल किये गये जिसमें निर्यात दोगुना करने की बात सहित विनिर्माण के क्षेत्र में जीडीपी की हिस्सेदारी बढ़ाने का संकल्प षामिल है। निहित भाव में कोई भी देष सुषासन के बगैर सही दिषा नहीं प्राप्त कर सकता। भाजपा की सरकार बीते पांच सालों में सुषासन को लेकर कई संकल्प दोहराती रही है। अब 2019 के संकल्प पत्र में भी डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने से लेकर 8 प्रकार की सेवाएं इस श्रेणी में षामिल करने की बात कही है।
फहरिस्त अभी लम्बी है। गौरतलब है कि 1992 से 1997 के बीच 8वीं पंचवर्शीय योजना एक ऐसी व्यवस्था थी जिसे समावेषी विकास के लिए जाना जाता है। भाजपा ने संकल्प पत्र में समावेषी विकास को स्थान देते हुए यह सुनिष्चित करने का प्रयास किया है कि बरसों से चला आ रहा बकाया अगले पांच साल में पूरा करेगी। बच्चों के टीकाकरण से लेकर छोटे दुकानदार, असंगठित मजदूर सबकी चिंता इसमें दिखता है। 2014 में गोरक्षा को घोशणा पत्र में षामिल करके भाजपा ने गायों की प्रमुखता व उपयोगिता को एक धरोहर की भांति प्रसार व प्रचार किया। गंगा भी इनके केन्द्र में रही है। अब 2019 के संकल्प पत्र में सांस्कृतिक धरोहर को प्रमुखता देने की बात कही जा रही है। 2022 तक स्वच्छ गंगा का लक्ष्य संकल्प पत्र में देखा जा सकता है। हालांकि इस पर अब के सरकार के प्रयास विफल ही रहेंगे। उपरोक्त सभी मुद्दों का जोड़ 75 विशयों को अंगीकृत किये दिखता है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने भाजपा मुख्यालय में जब घोशणापत्र जारी होने के बाद अपने विचार रख रहे थे तब ऐसा लग रहा था कि बहुतायत में बातें प्रधानमंत्री मोदी के भाशणों में सुनने को मिलता रहा है। वित्त मंत्री ने कहा कि देष के इतिहास में पहली सरकार है जिसने मध्यम वर्ग को मजबूत किया है और जिसके कार्यकाल में गरीबी सबसे तेजी से घटी है। उन्होंने संकल्प पत्र की तरह ही यह संकल्प दोहराया कि अगले पांच साल में हम गरीबों की संख्या का प्रतिषत इकाई अंक में ले जायेंगे और धीरे- धीरे इसे पूरी तरह समाप्त कर देंगे। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह भी भारी-भरकम दावों से भरे हैं उन्होंने जोर दिया कि पिछले 5 वर्शों से मजबूत, निर्णायत, पारदर्षी एवं संवेदनषील सरकार दी है। साथ ही वे 2019 के चुनाव में इस घोशणा पत्र के माध्यम से आर्षीवाद भी मांग रहे हैं। फिलहाल 2014 के घोशणापत्र समिति के अध्यक्ष डाॅ0 मुरली मनोहर जोषी थे जो अब भाजपा के राजनीतिक क्षितिज पर स्याह पड़े हैं और इस बार सब कुछ भाजपा अध्यक्ष अमित षाह की अगुवाई में हुआ। 
कांग्रेस ने अपने घोशणा पत्र के माध्यम से गरीबी पर चोट करने की जो बात कही साथ ही षिक्षा, सुरक्षा समेत जिन दर्जनों मुद्दों को सरकार की चाह में परोसा है उसे देखते हुए भाजपा की तुलना में उसका संकल्प न तो कमतर है और न ही कमजोर है। कांग्रेस अपनी घोशणा को जनता तक पहुंचाने में कितनी सफल होगी यह उसके प्रचार तंत्र पर निर्भर है। मगर भाजपा पर इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है कि उनके द्वारा निर्धारित 75 संकल्प आसमान की ऊँचाईयों पर इसलिए लहरायेंगे क्योंकि तुलनात्मक मषीनरी मजबूत है। कांग्रेस को यह उम्मीद है कि जनता उनकी वापसी करेगी और मोदी का गुब्बारा फूटेगा। जबकि भाजपा को यह विष्वास है कि जनता उनके 5 साल के कार्यकाल को बेजा नहीं बता सकती और मोदी जैसे प्रधानमंत्री को एक मौका जरूर देगी। भारतीय लोकतंत्र में यह धारणा कमोबेष झलकती है कि मतदाता किसी को बहुत मजबूत बना देता है तो किसी को बहुत कमजोर भी। 2014 के चुनाव में कांग्रेस का 44 सीट पर सिमटना उसकी लोकतंत्र के इतिहास में सबसे बड़ी कमजोरी थी तो 282 के साथ अकेले भाजपा की सत्ता होना कांग्रेस के अलावा किसी दल की सबसे बड़ी मजबूती थी। एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हैं साथ ही अनेक दल अकेले और गठबंधन के साथ इस समर में योद्धा बनने की फिराक में है। मेनिफेस्टो व संकल्प पत्र को लेकर जनता पर पहले भी असर होता रहा है सम्भव है इस बार भी ऐसा होगा पर इतिहास यह भी रहा है कि कांग्रेस के अलावा की सरकार को जनता दूसरा मौका देने से चूकती रही है। फिलहाल संकल्प का तो कुछ भी हो सरकार को पुर्नस्थापित करने की चुनौती भाजपा की बड़ी बनी रहेगी।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, April 3, 2019

राजनीतिक क्षितिज से ओझल वामपंथ

जब षक्ति को वैधानिकता मिलती है तो वह सत्ता में बदल जाती है। यही एक बड़ी वजह रही है कि राजनीतिक दल षक्ति प्रदर्षन के मामले में न पीछे हटते हैं और न ही किसी अन्य के डटे रहने को बर्दाष्त करते हैं। दरअसल राजनीति के अपने स्कूल होते हैं जिसका अभिप्राय विचारधारा से है और इन्हीं के चलते राजनीतिक संगठनों का अस्तित्व कायम रहता है। भारत में कांग्रेस, भाजपा सहित आधा दर्जन राश्ट्रीय दल हैं जबकि अनेकों राज्य स्तरीय और सैकड़ों की मात्रा में गैर मान्यता प्राप्त दल उपलब्ध हैं जो किसी-न-किसी विचारधारा के पक्षधर होने की बात करते हैं। भारतीय राजनीति में वैचारिक संक्रमण भी खूब आते रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखा जाय तो कई दल स्वतंत्रता से पूर्व के हैं तो कई बाद के। इन्हीं में वामपंथ भी षामिल हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन के उन दिनों में कमोबेष कांग्रेस के समकालीन थी। इतिहास में इस बात का भी लक्षण उपलब्ध है कि वामपंथ और कांग्रेस उस काल में भी एक-दूसरे के विरोध में थे। यह समय का फेर ही है कि वामपंथ मत और विचार की अस्वीकार्यता के चलते आज भारत की राजनीति में कहीं ओझल सा हो गया है। पष्चिम बंगाल से समाप्त हो चुके वामपंथ अब त्रिपुरा भी खो चुके हैं। पूरे भारतीय मानचित्र में केवल केरल में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। रोचक यह भी है कि वामपंथ को सियासी क्षितिज से ओझल करने में पहले कांग्रेस और अब भाजपा को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं मौजूदा भाजपा के प्रवाहषील राजनीति में तो कांग्रेस भी तिनका-तिनका हो गयी थी पर दिसम्बर 2018 के नतीजे में मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वापसी करके कांग्रेस ने अपना कुनबा ढहने से बचा लिया और मौजूदा लोकसभा चुनाव में कड़ी टक्कर देने की फिराक में है।
फिलहाल 25 बरस पुराने त्रिपुरा में वामपंथ सरकार को भाजपा ने जिस तर्ज पर ध्वस्त किया उससे भी साफ है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं बल्कि पूर्वोत्तर की भी पार्टी बन चुकी है। हालांकि असम पहले ही भाजपा जीत चुकी है। नागालैण्ड में बड़ी जीत और मेघालय में मात्र दो सीट जीतने के बावजूद गठबंधन की सरकार का निरूपण करने में मिली सफलता सियासी जोड़-तोड़ में भी इसे अव्वल बनाये हुए है जबकि यहां 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। वामपंथ का देष की राजनीतिक में मिटने की ओर होना वाकई में नये तरीके के विमर्ष को जन्म देने के बराबर है। वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोच, विचार और जन उन्मुख अवधारणा क्या है? इसे खोजना वाकई में मषक्कत वाला काज है। इनकी अपनी एक वैष्विक स्थिति रही है परन्तु आम जनमानस में इनकी स्वीकार्यता लगभग खत्म हो चुकी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में वामपंथ एक विरोध की विचारधारा मानी जाती थी और इसकी लोकप्रियता में इन दिनों कहीं अधिक गिरावट देखी जा सकती है। एक दषक पहले वर्श 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों वामदल में सीपीआई (एम) और सीपीआई की लोकसभा में सीटों की संख्या क्रमषः 43 और 10 थी जबकि कांग्रेस 145 और भाजपा 138 स्थान पर थी। ऐसे में वामपंथ ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया। इतिहास में यह पहली घटना है कि कांग्रेस को कोसने वाले वामदल ने कांग्रेस को ही समर्थन दे दिया। भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में वामपंथियों ने गांधी को खलनायक और जिन्ना को नायक की उपाधि दी थी। यह कथन वामपंथ के कांग्रेसी तल्खी का भी बेहतर नमूना है। 1962 के चीनी आक्रमण को लेकर भी वामदल एकमत नहीं था। ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोधी और कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रेरित दल हैं जिसकी जड़ सरहद पार है। ऐसे में कांग्रेस को इनके द्वारा दिया जाने वाला समर्थन एक बेमेल समझौता था।
सवाल यह है कि क्या वामदल भारतीय मानसिकता को समझने-बूझने में विफल हुआ है? पिछले तीन चुनावों से इनकी स्थिति को परखा जाय तो 14वीं लोकसभा में जहां 53 सीटों के साथ इनकी हैसियत सरकार के समर्थन के लायक थी वहीं 15वीं लोकसभा में केवल 20 पर सिमट गयी जबकि वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में तो मात्र 10 का ही आंकड़ा रहा। यह संख्या सीपीआई (एम) और सीपीआई को जोड़कर बतायी जा रही है। 17वीं लोकसभा में भी इनकी संख्या सम्भव है कि गिरावट में ही रहेगी। साल 2016 के पष्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से दषकों सत्ता पर रहने वाला वामपंथ यहां से भी बुरी तरह उखड़ गयी। ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के 211 सीट के मुकाबले सीपीआई मात्र 1 और सीपीआई (एम) 26 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी। यहां त्रिपुरा से भी खराब स्थिति देखी जा सकती है। त्रिपुरा में माणिक सरकार 60 सीटों के मुकाबले 18 पर सिमट गयी जबकि भाजपा दो-तिहाई बहुमत के साथ इतिहास ही दर्ज कर दिया और कांगेस न तो त्रिपुरा में और न ही नागालैण्ड में खाता खोल पायी। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को देखते हुए क्या यह माना जा सकता है कि वामपंथ देष से पूरी तरह खत्म होने की ओर है। जिन क्षेत्रों में इनकी स्वीकार्यता थी वहां इनकी बड़ी हार कुछ ऐसे ही इषारे किया है। वामदल को बारी-बारी से सभी ने खत्म किया है जिसमें तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और काफी हद तक कांग्रेस भी षामिल रही है। आगामी चुनाव में राहुल गांधी अपनी परम्परागत सीट अमेठी के साथ केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ेंगे। यहां साफ है कि केरल के 20 लोकसभा सीट पर उनका निषाना है। जहां 2016 से वाम की सरकार चल रही है। जाहिर है वामपंथ के गढ़़ में राहुल लोकसभा के माध्यम से बड़ी सेंध लगाना चाहते हैं। इसे देखते हुए वामपंथी अब भाजपा को ही नहीं कांग्रेस को भी हारता हुआ देखना चाहते हैं। हालांकि कांग्रेस के निषाने पर दक्षिण का केवल केरल ही नहीं बल्कि तमिलनाडु की 39 और कर्नाटक की 28 सीट भी है। पहली वामपंथी सरकार 60 के दषक में करेल में ही आयी थी और इस समय केरल तक ही सिमट कर रह गयी है।
वामपंथी विचारधारा का इस अवस्था में पहुंचने के पीछे एक कारण इनके पारंपरिक तौर-तरीके से जनता का ऊबना भी है, दूसरा यह कि भाजपा नये क्लेवर और फ्लेवर की राजनीति करती रही। कहा जाय तो किसी जमाने में जिस राजनीति के लिए कांग्रेस जानी जाती थी आज उसका स्थान भाजपा ने ले लिया है। जनमानस को भी नई और सही राह चाहिए क्योंकि अब आस्थावादी दौर जा चुका है। एक ही विचारधारा की चाबुक से जागरूक जनमत को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता। षायद यही कारण है कि वामपंथ का ही नहीं कांग्रेस का तिलिस्म भी भरभरा गया। ऐसे में सवाल यह है कि क्या जनमानस का वामपंथ पर से भरोसा उठ गया है? क्या नई विचारधारा इनकी रूढ़िवादी सोच पर भारी पड़ रही है? वास्तव में देखा जाय तो विचारधारा की भूख किसे नहीं है इसके बावजूद वामपंथी अपने अस्तित्व के लिए इसमें संघर्श करते हुए भी तो नहीं दिख रहे हैं। मीडिया के चुनावी बहस हो, चुनाव हो, सरकार की आलोचना या उस पर दबाव ही क्यों न हो वामपंथ के पोलित ब्यूरो का संदेष और संचार दोनों नदारद हैं। ऐसे में इनमें मनोवैज्ञानिक टूटन भी देखी जा सकती है। एक कमी वामपंथियों में यह भी रही है कि इन्होंने देष के अन्दर देषीय ताकत बढ़ाने के बजाय वर्ग भेद में अधिक समय व्यतीत किया। 1962 के चीन आक्रमण के चलते वैचारिक संघर्श पनपे। परिणामस्वरूप दो वर्श बाद इनके दो गुट बन गये जो बाकायदा आज भी कायम है। रोचक बात यह भी है कि इसके बावजूद भी इनके विचारों का भारत पर कोई खास प्रभाव नहीं रहा बल्कि सोवियत प्रभावित नेहरूवाद इन पर हमेषा भारी पड़ा। एक असलियत यह भी है कि वामदल क्लास की विसंगतियों से पैदा हुआ एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन है जबकि भारतीय राजनीति में आज भी यह पष्चिमी अवधारणा मुखर नहीं हो पायी है। यहां विकास के साथ जाति, धर्म और क्षेत्रीय फैक्टर महत्वपूर्ण रहा है और वामपंथी इस मामले में भी विफल करार दिये जा सकते हैं। ऐसे में राजनीति से वाम का ओझल होना बाखूबी समझा जा सकता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

Monday, April 1, 2019

क्या सरकार बेरोजगारों को देख पा रही है!

बेरोज़गारी का आंकलन 1972 में षुरू हुआ। मौजूदा हालात सर्वाधिक बेरोजगारी दर के लिए माना जा रहा है। एनएसएसओ की रिपोर्ट यह दर्षाती है कि मोदी षासनकाल में बेरोजगारी तुलनात्मक कहीं अधिक बढ़ी है। नोटबंदी के बाद हालात तेजी से बिगड़े हैं। महिला कामगार सबसे ज्यादा बेरोज़गारी की षिकार हुई हैं। सेंटर फाॅर द माॅनिटरिंग आॅफ इण्डियन इकोनोमी (सीएमआईई) का सर्वेक्षण कहता है कि बढ़ती हुई बेरोजगारी का आंकड़ा 6.9 फीसदी तक जा चुका है। इसी की एक रिपोर्ट में यह भी है कि 2017 दिसम्बर से 2018 दिसम्बर के बीच एक करोड़ दस लाख नौकरियां खत्म हो चुकी हैं। इण्डियन मैन्यूफैक्चरिंग आॅर्गेनाइजेषन और कंडफेडरेषन आॅफ इण्डियन इण्डस्ट्री ने भी बताया है कि बड़ी तादाद में नौकरियां खत्म हुई। सरकार दलील कुछ भी दे आंकड़ों को झुठला भी सकती है पर उक्त सर्वे कुछ तो हकीकत से युक्त होंगे। नीति आयोग ने बेरोज़गारी को लेकर सफाई दी थी कि बेरोज़गारी के ऊँचे आंकड़े दिखाने वाली एनएसएसओ की रिपोर्ट अंतिम नहीं है पर 45 सालों में 2017-18 में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी के आंकड़े मोदी सरकार को कुछ और ही आईना दिखा रहे हैं। गौरतलब है प्रधानमंत्री मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे 2013 में आगरा में एक चुनावी रैली के दौरान यह वादा किया था कि सरकार गठन की स्थिति में प्रतिवर्श एक करोड़ रोजगार उपलब्ध करायेंगे परन्तु मामला कुछ लाख तक ही सरकार सिमट कर रह गया। साल 2017 में मोदी सरकार ने मैन्यूफैक्चरिंग, कन्स्ट्रक्षन तथा ट्रेड समेत 8 प्रमुख सेक्टरों में सिर्फ 2 लाख 31 हजार नौकरियां दी हैं जबकि 2015 में यही आंकड़ा एक लाख 55 हजार पर ही आकर सिमट गया था। हालांकि 2014 में 4 लाख 21 हजार लोगों को नौकरी मिली थी। इससे अलग एक आंकड़ा यह भी है कि जब यूपीए दूसरी बार सत्ता में आयी तब डाॅ0 मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2009 में ही दस लाख से अधिक नौकरियां दी गयी थी। दो सरकारों का तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह इंगित करता है कि अब तक मोदी सरकार कांग्रेस के एक साल के आंकड़े को कई सालों की मषक्कत के बाद भरपाई कर पायी है। 2014 के घोशणापत्र में रोजगार बीजेपी का मुख्य एजेण्डा था। जिस प्रकार रोजगार को लेकर सरकार कमजोर दिखायी दे रही है उससे तो यही लगता है कि रोज़गार बढ़ाना तो दूर लाखों खाली पदों को ही भर देती तो भी गनीमत थी। आंकड़े इस ओर इषारा करते हैं कि देष में 14 लाख डाॅक्टरों की कमी है, 40 केन्द्रीय विष्वविद्यालय में 6 हजार से अधिक पद खाली हैं। देष के सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी में भी हजारों में पद रिक्त हैं और इंजीनियरिंग काॅलेज 27 फीसदी षिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं जबकि 12 लाख स्कूली षिक्षकों की भी भर्ती जरूरी है। अब सवाल है कि सरकार महत्वपूर्ण रिक्तियों को बिना भरे रोजगार देने को लेकर चिंता मुक्त कैसे हो सकती है। इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए विपक्ष से लेकर बेरोजगार युवा तक सरकार पर लगातार हमले करते रहे हैं। चुनावी समर में भले ही ऐसे मुद्दे फलक से गायब हों पर हकीकत यह है कि आज भी युवाओं की हड्डी पसली कमजोर है। 
मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं बेषक नागरिकों पर केन्द्रित हों पर नये डिजाइन और संस्कृति वाली मोदी सरकार जिसका कार्यकाल लगभग समाप्त होने के कगार पर है। बेरोज़गारी समेत कई बुनियादी मुद्दों पर किये गये वायदे पूरे करने में विफल प्रतीत होती है। सुषासन की परिकल्पना से पोशित सरकार जिस पहल के साथ देष में मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया आदि को लेकर पूरी ताकत झोंकी वहां भी रोजगार की स्थिति संतोशजनक नहीं है। संयुक्त राश्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस मामले में मायूसी से भरे इषारे पहले भी कर चुकी थी। इसकी मानें तो साल 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 2016 की तुलना में थोड़ी बढ़ी थी जबकि 2018 में भी यह क्रम जारी रहा। फैक्ट और फिगर यह दर्षा रहे हैं कि रोजगार की रफ्तार धीमी है और असंतोश से भी भरे हैं। वैसे मोदी सरकार इस दिषा में काम नहीं कर रही है कहना ठीक नहीं होगा। रोजगार के अवसर बढ़े इसके लिए सरकार ने कौषल विकास मंत्रालय बनाया। थर्ड और फोर्थ ग्रेड की सरकारी नौकरियों में धांधली न हो इसके लिए साक्षात्कार भी समाप्त किया और इसकी घोशणा स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने की। बाॅम्बे स्टाॅक एक्सचेंज और सीएमआईआई के अनुसार मनरेगा के तहत रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या 83 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 67 लाख हो गयी। अब यह आंकड़े इससे भी ऊपर हैं। आंकड़े से यह परिभाशित होता है कि ग्रामीण इलाकों में रोजगार मुहैया कराने को लेकर सरकार का जोर सफल हुआ है परन्तु पढ़े-लिखे युवाओं की स्थिति बेकाबू हुई है। भारत एक समावेषी विकास वाला देष है यहां बुनियादी समस्याएं कदम-कदम पर चुनौती बनी हुई है। ऐसे में युवा बेरोजगारी को देर तक सह नहीं सकता ऐसे में करोड़ों की तादाद में पढे-लिखों का सब्र भी जवाब दे रहा है। जिसका चुनाव पर सीधा असर हो सकता है। 
65 फीसदी युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल के स्तर पर रोजगार की उपलब्धता स्वयं में एक बड़ी चुनौती है। मुद्रा बैंकिंग के माध्यम से 12 करोड़ से अधिक लोकन धारकों को रोज़गार की श्रेणी में सरकार गिनती है जो पूरी तरह गले नहीं उतरती क्योंकि रोजगार के लिए लोन लेना यह पूरी पड़ताल नहीं है कि सफलता भी सभी को उसी दर पर मिली होगी। वैसे देखें तो साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम बल वाला देष होगा। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रेाजगार के मोर्चे पर भी खरा उतरना होगा। भारत सरकार के अनुमान के अनुसार साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। ऐसे में पेषेवर और कुषल का होना उतना ही आवष्यक है। सर्वे कहते हैं कि षिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की स्थिति काफी खराब दषा में चली गयी है। 18 से 29 वर्श के षिक्षित युवा में बेरोजगारी दर 10.2 फीसद जबकि अषिक्षितों में 2.2 फीसदी थी। ग्रेजुएट में बेरोजगारी का दर 18.4 प्रतिषत पर पहुंच गयी है। अब यह लाज़मी है कि भविश्य में अधिक से अधिक षिक्षित युवा श्रम संसाधन में तब्दील हों तभी बात बनेगी। यदि खपत सही नहीं हुई तो असंतोश बढ़ना लाज़मी है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी बेरोजगारी के आंकड़े को बढ़ते क्रम में आंक रही है सम्भव है कि अभी राहत नहीं मिलेगी। देष में उच्च षिक्षा लेने वालों पर नजर डालें तो पता चलता है कि तीन करोड़ से अधिक छात्र स्नातक में प्रवेष लेते हैं 40 लाख के आसपास परास्नातक में नामांकन कराते हैं जाहिर है एक बड़ी खेप हर साल यहां भी तैयार होती है जो रोज़गार को लेकर उम्मीद पालती है। देष में पीएचडी करने वालों की स्थिति भी रोजगार को लेकर बहुत अच्छी नहीं है।  
रोजगार कहां से बढ़े और कैसे बढ़े इसकी भी चिंता स्वाभाविक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। ऐसे में स्वरोजगार एक विकल्प है। रोबोटिक टेक्नोलाॅजी से नौकरी छिनने का डर फिलहाल बरकरार है इसमें संयम बरतने की आवष्यकता है। आॅटोमेषन के चलते इंसानों की जगह मषीनें लेती जा रही हैं इससे भी नौकरी आफत में है। छंटनी के कारण भी लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर है। जाहिर है जो संगठन के अंदर है उन्हें बनाये रखा जाय और जो बेरोजगार बाहर घूम रहे हैं उनके लिए रोजगार सेक्टर में नये उप-सेक्टर सृजित किये जायें। विष्व बैंक भी कहता है कि भारत में आईट इंडस्ट्री में 69 फीसदी नौकरियों पर आॅटेमेषन का खतरा मंडरा रहा है। सरकार को चाहिए कि ई-गवर्नेंस की फिराक में मानव संसाधनों की खपत को कमजोर न करें और बरसों से खाली पदों को तत्काल प्रभाव से भरे। हालांकि चुनावी समर के बाद नई सरकार से ही ऐसी अपेक्षा की जा सकती है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gamil.com