Thursday, January 28, 2021

सभी के लिए समान अवसर और सुशासन

समान अवसर न केवल लोकतंत्र की बुनियादी कसौटी है बल्कि सुषासन की चाह रखने वाली सरकारों के लिए स्मार्ट सरकार बनने का पहला चैप्टर है। सभी के लिए समान अवसर का सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र मानवतावादी दृश्टिकोण है और यही संदर्भ षासन और प्रषासन को सामाजिक सुषासन की ओर धकेलता है जो सुषासन की एक बुनियादी विचारधारा है। गौरतलब है कि सुषासन सामाजिक-आर्थिक न्याय की पराकाश्ठा है और लोक सषक्तिकरण इसके केन्द्र में होता है। समाज का प्रत्येक तबका सुषासन से सुसज्जित हो ऐसी अभिलाशा इसलिए ताकि जन सामान्य का जीवन खुषी और षान्ति से परिपूर्ण हो। यह अतिष्योक्ति नहीं कि सम्पूर्ण संविधान स्वयं में एक सुषासन है और इसी संविधान के भाग-4 के अन्तर्गत निहित नीति निर्देषक तत्व सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भरपूर निर्धारण है जो ईज़ आॅफ लिविंग का बेहद खूबसूरत उदाहरण है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से ओत-प्रोत यह हिस्सा न केवल सामाजिक सुषासन को प्रतिश्ठित करने में योग देता है बल्कि राज्य सरकारें सचेतता के साथ कुछ भी बकाया न छोड़ें इस ओर ध्यान भी केन्द्रित करता है। गौरतलब है कि नीति निर्देषक तत्व के हर अनुच्छेद में गांधी दर्षन का प्रचण्ड भाव उद्घाटित होता है। अनुच्छेद 38, 41, 46 और 47 इस मामले में विषेश रूप से प्रासंगिक देखे जा सकते हैं। अनुच्छेद 38 के विन्यास को समझें तो यह जनता के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक व्यवस्था कायम रखना, अनुच्छेद 41 काम के अधिकार, षिक्षा के अधिकार और लोक सहायता पाने का अधिकार के निहित भाव को समेटे हुए है जबकि अनुच्छेद 46 कमजोर तबको के षैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना और अन्ततः अनुच्छेद 47 को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह जनता के पोशण और जीवन स्तर को ऊंचा उठाये। हांलाकि भाग-4 के भीतर 36 से 51 अनुच्छेद निहित है जो सभी सामाजिक सुषासन के ही पर्याय हैं। इसी के अंदर समान कार्य के लिए समान वेतन समेत कई समतामूलक बिन्दुओं का प्रकटीकरण और आर्थिक लोकतंत्र का ताना-बाना दिखता है। डाॅ0 अम्बेडकर ने कहा था कि अगर आप मुझसे जानना चाहते हैं कि आदर्ष समाज कैसा होगा तो मेरा आदर्ष समाज ऐसा होगा जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित होगा। बारीक पड़ताल की जाये तो पता चलता है कि अम्बेडकर के इस कथन में सबके लिए समान अवसर का पूरा परिप्रेक्ष्य निहित है। एक और विचार यदि प्रषासनिक चिंतक फीडलैण्डर का भी देखें तो स्पश्ट होता है कि सामाजिक सेवाएं किसी जाति, धर्म तथा वर्ग के भेदभाव के बिना सभी तक उपलब्ध होनी चाहिए। जाहिर है हर किसी को नजरअंदाज किये बिना जैसा कि संविधान के भाग 3 के अंतर्गत मूल अधिकार में अनुच्छेद 16 के भीतर लोक नियोजन में अवसर की समता की बात कही गयी है हालांकि इसके अपने कुछ अपवाद हैं। 

गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत एक संघीय राज्य है जिसकी प्रकृति पुलिस राज्य के विपरीत जन कल्याणकारी की है। यहां राज्यों का कत्र्तव्य है कि वह सुषासनिक विधि का निर्माण कर उक्त सिद्धान्तों का अनुसरण करें। ऐसे ही कथा और व्यथा को ध्यान में रखते हुए 14 जून 1964 को सामाजिक सुरक्षा विभाग की स्थापना की गयी। 1972 में इस विभाग को षिक्षा तथा समाज कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया तत्पष्चात् इसे स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा 24 अगस्त 1979 को समाज कल्याण मंत्रालय के रूप में दिया गया। मगर एक बार फिर इसके कार्य प्रकृति से प्रभावित होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983-84 में इसका नाम बदलकर समाज एवं महिला कल्याण मंत्रालय कर दिया गया। इसकी गौरव गाथा यही तक नहीं है। 1988 से यह कल्याण मंत्रालय, ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के नाम से जाना जाता है। महिलाओं और पुरूशों के बीच समानता लाने और महिलाओं के साथ हिंसा समाप्त कराने के विशय में देष ने एक लम्बा रास्ता तय किया है जो महिलाएं रोजमर्रा की जिन्दगी में कई किरदार निभाती हैं उन्हें पुरूशों के समान स्थान देने में कई नीतियां धरातल पर उतारी गयी। संविधान में सभी को समान मौलिक अधिकार और समान विकास का अधिकार जहां दिया गया वहीं 1992 के 73वें और 74वें संविधान संषोधन में लोकतांत्रिकरण विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देते हुए स्थानीय स्वषासन ने इन्हें 33 फीसद की भागीदारी दी गयी जो अब यहां 50 फीसद है। कई कानूनों के माध्यम से इनकी सुरक्षा की चिंता की गयी मसलन घरेलू हिंसा कानून 2005। भेदभाव की परिपाटी को जड़ से खत्म करने के लिए सामाजिक सुषासन की धारा समय के साथ मुखर होती रही उसी का एक और ष्लोगन  बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ अभियान है।

संविधान स्वयं में सुषासन है जो समावेषी और सतत् विकास की अवधारणा से युक्त है कानून के समक्ष समता की बात हो, स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा हो या सबको समान अवसर देने की बात हो उक्त संदर्भ संविधान में बारीकी से निहित हैं। सीमांत और वंचित वर्गों का कल्याण अवसर की समानता का बोध है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग का षैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक सषक्तिकरण के अलावा वरिश्ठ नागरिकों की देखभाल, महिलाओं की सुरक्षा साथ ही समाज के सभी वर्गों के लिए स्वतंत्र जीवन का अवसर उपलब्ध कराना इसकी पूरी पटकथा है। जिसके लिए यह चिंता बार-बार रही है कि सुषासन की भोर हो या दोपहर सामाजिक सरोकारों और विकास विन्यास में कोई छूट न जाये। यह बात अधूरी न रहे इसे देखते हुए दिव्यांगता के मुद्दे को प्रभावी ढंग से देखने व नीतिगत मामलो पर और अधिक ध्यान देने के साथ संगठनों और राज्य सरकारों तथा सम्बंधित केन्द्रीय मंत्रालयों के बीच और अधिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए नोडल विभाग के तौर पर 12 मई 2012 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में से दिव्यांगजन सषक्तिकरण विभाग को बनाया गया था। समता के मौलिक धारा को देखते हुए मई 2016 में दिव्यांगजन सषक्तिकरण विभाग नाम से पुनः नामकरण किया गया। इन सबके बावजूद भारत से भुखमरी का नामोनिषान मिटाने के लिए अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। जिस समावेषी विकास की बात होती रही है उसे तीन दषक का वक्त बीत चुका है। इतने समय में देष की आर्थिक व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन भी आ चुका है मगर गरीबी, भुखमरी और अषिक्षा से अभी नाता खत्म नहीं हुआ है। गौरतलब है कि देष में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं जबकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 की हालिया रिपोर्ट में भुखमरी में भारत को कहीं आगे बताती है जो नेपाल व अन्य पड़ोसी देषों से भी पिछड़ता दिखाई देता है। यहां बुनियादी समस्याओं की कसौटी पर समान अवसर की अवधारणा मानो हांफ रही हो। जाहिर है नीतिगत मौका और चैड़ा करना होगा। भारत सरकार 2030 के सतत् विकास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ दिखाई देती है मगर मौजूदा स्थिति में जो पोशण की स्थिति है उस पर सामाजिक सुषासन पर अधिक ध्यान देने की कवायद रहनी चाहिए। यही कुपोशण से निपटना और देष को समृद्ध बनाने में मदद भी करेगा। गौरतलब है सामथ्र्यवान लोग और समृद्ध देष का गहरा नाता है। 

भागीदारी की महत्ता एवं प्रासंगिकता के गुण सदियों से गाये जाते रहे हैं। हाल के वर्शों में भागीदारी या सहभागिता व ग्रामीण विकास ने षासन के प्रमुख विशय के रूप में अपनी अलग व विषिश्ट पहचान बनायी है। संयुक्त राश्ट्र आर्थिक व सामाजिक परिशद् ने सरकार व प्रषासन के सभी स्तरों पर आम लोगों की सार्थक व व्यापक भागीदारी सुनिष्चित करने पर बल दिया है। यह तब और षक्तिषाली होगा जब सभी के लिए सब प्रकार के अवसर उपलब्ध होंगे। लोकतंत्र के भीतर लोक और तंत्र तब अधिक परिणामी सिद्ध होते हैं जब आम लोगों की षासन के कामकाज में दखल होती है। इसी संदर्भ को देखते हुए साल 2005 में सूचना के अधिकार को भी प्रतिश्ठित किया गया जिसका षाब्दिक अर्थ सरकार के कार्यों में झांकना है। जहां सत्ता जवाबदेह, पारदर्षी और संवेदनषीलता से ओत-प्रोत हो वहां सुषासन निवास करता है। नीतियां जितनी अवसर की युक्तता से युक्त होंगी समता और सभी का समान विकास उसी पैमाने पर होगा। अक्षमता से समर्थता बीते सात दषकों में भारत की लम्बी छलांग रही है और इस इतिहास में कई आगे तो कई पीछे रहे हैं। जो पीछे छूटे हैं उन्हें साथ खड़ा करना सुषासन है। विज्ञान और तकनीक के मौजूदा युग में चीजें बढ़त की ओर हैं मगर लोक कल्याणकारी अवधारणा का पूरा पराक्रम अभी आना षेश है। विदित हो कि बीता एक वर्श भारत और विष्व के लिए एक अभूतपूर्व संकट का दौर था कमोबेष यह स्थिति अभी भी है। कोविड-19 ने भी यह पाठ पढ़ाया है कि सबके लिए समान अवसर अभी बाकी है। लोगों के लिए सुविधाओं और अवसरों की कमी उन्हें अपनी पूरी क्षमता और दक्षता के विकास के उद्देष्य को हासिल करने से रोकती हैं। जहां रूकावट है वहीं अवसर का आभाव और सुषासन का प्रभाव धूमिल है। 

वास्तव में सामाजिक सुषासन किसी का अनुकरण नहीं है बल्कि यह स्वयं का अनुभव है आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया मात्र तब बनकर रह जाती है जब सरकारें अपनी षेखी बघारने के लिए ऊँचे वायदे करती हैं मगर जमीन पर जमीनी विकास हवाहवाई रहता है। प्रौद्योगिकीकरण, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण सुषासन के उपकरण बन चुके हैं और सामाजिक सुषासन वर्तमान दौर में अवसर की समता के आधार तय कर रहे हैं। जाहिर है देष का जितना अधिक सामाजिक-आर्थिक विकास होगा, सत्ता का विकेन्द्रीकरण, व्यावहारिकता में परिवर्तन और राजनीतिज्ञों और नौकरषाहों में कार्यों के प्रति समर्पण होगा, अवसर की समता सबल होगी। इतना ही नहीं भ्रश्टाचार पर नियंत्रण और जन सहभागिता को बढ़ावा मिलेगा, सुषासन उतना परिपक्व होगा। विकास प्रक्रिया में बदलाव की आवष्यकता हमेषा रहती है इसी का परिणाम उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण तथा विकास प्रषासन है और उक्त सभी का गठजोड़ सामाजिक सुषासन का संयोजन है। ऐसे ही संयोजनों से सबके लिए समान अवसर तैयार होते हैं। सबका साथ, सबका विकास मौजूदा सरकार का पुराना नारा है मगर प्रासंगिकता आज के दौर में अधिक है। स्पश्ट है कि समान अवसर सबको न केवल ताकत देता है बल्कि सुषासन की राह को भी चिकना बनाता है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


गणतंत्र और गाँधी दर्शन

गणराज्य में राज्य की सर्वोच्च षक्ति जनता में निहित होती है तथा विधि की दृश्टि में सभी नागरिक बराबर होते हैं। भारतीय संविधान की उद्देषिका में भारत को गणतंत्र घोशित किया गया है जिसका तात्पर्य है भारत का राश्ट्राध्यक्ष निर्वाचित होगा न कि आनुवांषिक। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो या सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हो। इतना ही नहीं समता की गारंटी हो या धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर निचले तबके के किसी वर्ग का उत्थान हो उक्त का संदर्भ संविधान में निहित है जो गांधी विचारधारा से ओत-प्रोत है। गांधी जी इस बात पर जोर देते थे कि हमारी सभ्यता इस बात में निहित है कि हम औरों के लिए कितने उदार और समान विचार रखते हैं। सदाचार, सत्य एवं अहिंसा, न्याय और निश्ठा एवं नैतिकता को गांधी अपने प्रयासों में हमेषा संजो कर रखते थे। इन्हीं की परिकल्पना सर्वोदय बीते सौ वर्शों से आज भी प्रासंगिक है साथ ही इस निहित परिप्रेक्ष्य को भी समेटे हुए है कि कोई भी नीति या निर्णय तब तक उचित नहीं जब तक अन्तिम व्यक्ति का उदय न हो। गणतंत्र की रूपरेखा भी उक्त बिन्दुओं से होकर गुजरती है। हम भारत के लोग इस बात का प्रकटीकरण हैं कि समता और दक्षता का संदर्भ सब में समान है, भेदभाव से परे संविधान नागरिकों की वह ताकत है जिससे स्वयं के जीवन और देष के प्रति आदर और समर्पण का भाव विकसित करता है। इतना ही नहीं संविधान में निहित मूल अधिकार और लोक कल्याण से ओत-प्रोत नीति निर्देषक तत्व गांधी दर्षन का आईना हैं। अनुच्छेद 40 के भीतर पंचायती राज व्यवस्था मानो गांधी दर्षन का चरम हो। संविधानविदों ने संविधान बनाने में 2 साल, 11 महीने, 18 दिन का लम्बा वक्त लिया और इस भरपूर समय में संविधान के प्रत्येक मसौदे के अंदर गांधी विचारधारा को नजरअंदाज नहीं किया गया। जिस तर्ज पर संविधान बना है इसका दुनिया में विषाल होना स्वाभाविक है मगर यही विषालता इस संसार में बेमिसाल भी बनाता है। 

गांधी दर्षन और सुषासन एक-दूसरे के पर्याय हैं जबकि गणतंत्र इसे कहीं अधिक ताकतवर बना देता है। सामाजिक-आर्थिक उन्नयन के मामले में सरकारें खुली किताब की तरह रहें इसका प्रकटीकरण भी उपरोक्त संदर्भों में युक्त है। बावजूद इसके राजनीतिक पहलुओं से जकड़ी सरकारें गणतंत्र की कसौटी पर कितनी खरी हैं यह प्रष्न कमोबेष उठता जरूर है। लोकतंत्र के देष में जनता के अधिकारों को अक्षुण्ण बनाये रखना सरकार का पहला कत्र्तव्य है। ऐसा संविधान के भीतर पड़ताल करके भी देखा जा सकता है। गणतंत्र की पराकाश्ठा जनता की भलाई में है। सरकार कितनी भी ताकतवर हो यदि जनता कमजोर हुई तो गांधी दर्षन और गणतंत्र दोनों पर भारी चोट होगी। षासन कितना भी मजबूत हो यह इस बात का प्रमाण नहीं कि इससे देष मजबूत है बल्कि मजबूती इस बात में हो कि जनता कितनी सषक्त है। यह परिकल्पना सुषासन की दीर्घा में आती है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो लोक सषक्तिकरण का पर्याय है। गणतंत्र और सुषासन का भी गहरा नाता है। संविधान स्वयं में सुषासन है और गणतंत्र इसी सुषासन का पथ और चिकना बनाता है। 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान एक ऐसी नियम संहिता है जो दीन-हीन या अभिजात्य समेत किसी भी वर्ग के लिए न तो भेदभाव की इजाजत देता है और न ही किसी को कमतर अवसर देता है। सात दषक से अधिक वक्त बीत चुका है सरकारें आईं और गईं मगर गणतंत्र, गांधी दर्षन और सुषासन की प्रासंगिकता बरकरार रही। वैसे देखा जाये तो गणतंत्र के कई और मायने हैं मसलन देष के अलग-अलग हिस्सों के न केवल संस्कृतियों का यहां प्रदर्षन होता है बल्कि सभी सेनाओं की टुकड़ियां अपनी ताकत को सम्मुख लाकर देष की आन-बान-षान को भी एक नया आसमान देती है। मित्र देषों को भारत अपने परिवर्तन से परिचय कराता है तो दुष्मन देषों को अपनी ताकत का एहसास कराता है।

गणतंत्र दिवस वह अवसर है जहां से कई प्रकाष पुंज निकलते हैं। गौरतलब भारत एक उभरती हुई ताकत है अर्थव्यवस्था की दृश्टि से भी और दुनिया में द्विपक्षीय से लेकर बहुपक्षीय सम्बंधों के रूप में भी देखा जा सकता है। ध्यानतव्य हो कि 1951 में देष की जनसंख्या केवल 36 करोड़ थी और मौजूदा समय में यह 136 करोड़ है। समय के साथ गणतंत्र और संविधान दोनों की प्रमुखता और प्रासंगिकता बढ़ते हुए क्रम में देखी जा सकती है। साल 1950 में पहली बार गणतंत्र दिवस मनाने का अवसर मिला था और तब मुख्य अतिथि इण्डोनेषिया के राश्ट्रपति सुकार्णो थे जबकि 2021 में इस पावन अवसर पर कोरोना के चलते मुख्य अतिथि की अनुपस्थिति रही। हालांकि इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन आमंत्रित थे पर काल और परिस्थिति उपस्थिति में रूकावट बन गयी। पड़ताल बताती है कि ऐसा 1952, 1953 और 1966 में भी हो चुका है। यह गणतंत्र और संविधान की ही देन है कि राश्ट्रपति से लेकर ग्राम सभा का चुनाव होता है। गणतंत्र हमारी विरासत है प्राचीन काल में गणों का उल्लेख मिलता है और मौजूदा समय में इसका लम्बा इतिहास। गांधी दर्षन को देखें तो नैतिकता और सदाचार के जो मापदण्ड उन्होंने कायम किये उनसे षाष्वत सिद्धान्तों के प्रति उनकी वचनबद्धता और निश्ठा का पता चलता है। गांधी दर्षन को यदि गणतंत्र से जोड़ा जाये तो यहां भी षान्ति और षीतलता का एहसास लाज़मी है। संविधान नागरिकों के सुखों का भण्डार है और गणतंत्र इसका गवाह है। गांधी ने सर्वोदय के माध्यम से प्रस्तावना में निहित उन तमाम मापदण्डों को संजोने का काम किया जिसका मौजूदा समय में जनमानस को लाभ मिल रहा है। हम भारत के लोग सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की अवधारणा को आत्मसात करने वाला संविधान एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें परत दर परत गांधी विचारधारा का भी समावेष देखा जा सकता है। स्वतंत्रता और समता व्यक्ति की गरिमा, बंधुता से लेकर राश्ट्र की एकता और अखण्डता सब कुछ संविधान की उद्देषिका में निहित है और उक्त संदर्भ गांधी दर्षन के कहीं अधिक समीप है। फिलहाल 2021 में 72वें गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर षासन से सुषासन की बयार की बाट जनता जोहती दिख रही है उसका बड़ा कारण कोविड-19 के चलते सब कुछ का उथल-पुथल में चले जाना है। आषा है कि यह गणतंत्र कई अपेक्षाओं को पूरा करेगा और नागरिकों को वो न्याय देगा जो गांधी दर्षन से ओत-प्रोत है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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संविधान, गणतंत्र और सुशासन

सुषासन सम्बंधी आकांक्षाएं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित हैं। यह प्रस्तावना षासन के लिए एक दार्षनिक आधार प्रस्तुत करती है जिसके चलते सुषासन का मार्ग सषक्त होता है। इसी के अंतर्गत गणतंत्र और लोकतंत्र की पराकाश्ठा भी देखी जा सकती है। भारत में लोकतंत्र षासन का हृदय है जबकि गणतंत्र एक ऐसा प्रारूप जहां विधि की दृश्टि में सभी नागरिक बराबर होते हैं। गणतंत्र के षाब्दिक अर्थ में जाया जाये तो इसका तात्पर्य है कि भारत का राश्ट्राध्यक्ष निर्वाचित होगा न कि आनुवांषिक। 26 जनवरी, 1950 को देष में संविधान लागू हुआ और यह तारीख गणतंत्र दिवस के रूप में प्रतिश्ठित हुई तब से लेकर अब तक यह तारीख एक विरासत के तौर पर भारतीय जनमानस के भीतर कहीं अधिक प्रमुखता के साथ अंतरनिहित है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा यदि देष के सामने कोई मजबूत चुनौती थी तो वह एक अच्छे संविधान के निर्माण की थी जिसे संविधान सभा ने लोकतांत्रिक मूल्य को आत्मसात करते हुए 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन में एक भव्य और दिव्य संविधान निर्मित करके यह भी कसर पूरी कर दी। गणतंत्र की यात्रा संविधान लागू होने के दिन से षुरू हुई और स्वतंत्र भारत में गणतंत्र और सुषासन एक पर्याय के तौर पर कदमताल करने लगे। गौरतलब है कि संविधान स्वयं में एक सुषासन है और देष के उन्नयन की कुंजी भी। 

गणतंत्र के इस अवसर पर संविधान और सुषासन की कसौटी पर सरकार के चरमोत्कर्श को भी पहचानना ठीक रहेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकारें आती और जाती हैं जबकि संविधान और गणतंत्र साथ ही लोकतंत्र और उसका पराक्रम बना रहता है। रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा और सुरक्षा समेत कई बुनियादी समस्याएं षासन के लिए पहले भी चुनौती थी और अब भी बनी हुई हैं। रोज़गार से लेकर कारोबार तक की समस्याएं कमोबेष अभी बरकरार है। हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। इतना ही नहीं 2020 के हालिया ग्लोबल हंगर इंडेक्स को देखें तो भारत में भूख की स्थिति का भी जो वर्णन है वह भी हतप्रभ करने वाला है। समस्याओं का उन्मूलन किसी चुनौती से कम नहीं है। संविधान और गणतंत्र एक ही उम्र के हैं जबकि सुषासन हमारी विरासत भी है। हालांकि गणतंत्र को भी प्राचीन काल से ही देखा जा सकता है जो मौजूदा समय में एक मजबूत इतिहास के साथ विरासत भी है। समता, स्वतंत्रता और बंधुता समेत कई परिप्रेक्ष्य संविधान के मूल में है। संविधान के भाग-4 के अंतर्गत निहित नीति निर्देषक तत्व जहां आर्थिक लोकतंत्र और लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हैं वहीं गांधी दर्षन के सर्वोदय के भाव को भी यह समेटे हुए हैं। 

सुषासन वह है जो सभी के सुखों का ख्याल रखे और बेपटरी व्यवस्था को चलायमान करे। कोविड-19 के चलते 2021 का गणतंत्र भी कई जकड़न से भरा रहा पर हर्शोल्लास को कमतर नहीं आंका जा सकता। संविधान और सुषासन नागरिकों को सषक्त बनाता है। संविधान सर्वोच्च विधि और नियमों की संहिता है जिसके पदचिन्हों पर चलकर सरकारें नीतियों का निश्पादन करती हैं। इसी के फलस्वरूप सुषासन की बयार बहती है और गणतंत्र के प्रति नागरिकों का समर्पण दिखता है। हर राश्ट्र अपनी जनता और सरकार के साझा मूल्यों के द्वारा निर्देषित होता है ऐसे मूल्यों के प्रति पूरे राश्ट्र की प्रतिबद्धता षासन के दायरे और उसकी गुणवत्ता को बहुत अधिक प्रभावित करती है। गणतंत्र की स्थापना के समय भारतीय परिप्रेक्ष्य में राश्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, गुटनिरपेक्षता एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था के मूल्य निहित थे। पिछले 72 वर्शों में हमारी वैचारिक अवधारणा जन अभिरूचि के अनुसार निर्धारित होती आयी है। वैसे देखा जाय तो सुषासन का दावा करने वाली सरकारों के लिए गणतंत्र एक अवसर भी होता है जो समतामूलक दृश्टिकोण से युक्त होते हुए अंतिम व्यक्ति तक विकास विन्यास के रचनाकार बने हैं और दषकों पुराने संकल्प को दोहरायें कि यह क्रम आगे भी जारी रहेगा। 

संविधान हमारी प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साझा समझ है जबकि गणतंत्र हमारी विरासत और ताकत है और इन्हीं के दरमियान जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायित्व भावना से ओत-प्रोत सुषासन को क्रियागत होते देखा जा सकता है। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है मगर सत्ता के मखमली चटाई पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ कभी-कभी रूखा व्यवहार कर देते हैं। चूंकि संविधान स्वयं में सुषासन है ऐसे में सुषासन के साथ संविधान के भी चोटिल होने के खतरे बढ़ जाते हैं। फिलहाल परिस्थितियां कुछ भी हों संविधान से ही देष की परवरिष होती है और गणतंत्र की आन-बान-षान बरकरार रहती है साथ ही सामाजिक-उन्नयन में सरकारें खुली किताब और सुषासन का पथ चिकना करती हैं।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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हम भारत के लोग का गणतंत्र और संविधान

स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा यदि देष के सामने कोई मजबूत चुनौती थी तो वह अच्छे संविधान के निर्माण की थी, जिसे संविधान सभा ने प्रजातांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन में एक भव्य संविधान तैयार कर दिया, जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। हालांकि संविधान 26 नवम्बर, 1949 में ही बनकर तैयार हो चुका था पर इसे लागू करने के लिए एक ऐतिहासिक तिथि की प्रतीक्षा थी, जिसे आने में 2 महीने का वक्त था और तिथि 26 जनवरी थी। दरअसल 31 दिसम्बर, 1926 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेषन में यह घोशणा की गई कि 26 जनवरी, 1930 को सभी भारतीय पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनायें। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में उसी दिन पूर्ण स्वराज लेकर रहेंगे का संकल्प लिया गया और आजादी का पताका लहराया। देखा जाये तो 26 जनवरी, 1़950 से षुरू होने वाला गणतंत्र दिवस एक राश्ट्रीय पर्व के तौर ही नहीं राश्ट्र के प्रति समर्पित मर्म को भी अवसर देता रहा है। निहित मापदण्डों में देखें तो गणतंत्र दिवस इस बात को भी परिभाशित और विष्लेशित करता है कि संविधन हमारे लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। दुनिया का सबसे बड़ा लिखित भारतीय संविधान केवल राजव्यवस्था संचालित करने की एक कानूनी पुस्तक ही नहीं बल्कि सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का पथ प्रदर्षक है। नई पीढ़ी को यह पता लगना चाहिए कि गणतंत्र का क्या महत्व है? 26 जनवरी का महत्त्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इस दिन संविधान प्रभावी हुआ था, बल्कि भारत को वैष्विक पटल पर बहुत कुछ प्रदर्षित करने का अवसर भी इस दिन मिलता है साथ ही सभी नागरिकों में नये आयामों के साथ देष के प्रति सर्मपण दिखाने का अवसर भी निहित रहता है। अब तक 71 बार हो चुका गणतंत्र दिवस कई साकारात्मक परिवर्तनों के साथ अनवरत् और अन्नत की ओर अग्रसर है। हालांकि देष में पनपी समस्याओं को लेकर भी निरंतर ये सवाल उठते रहते है कि अभी भी देष समाजिक समता और न्याय के मामलें में पूरी कूबत विकसित नहीं कर पाया है। गरीबी सहित कई सामाजिक समस्याएं अभी भी यहाँ व्याप्त है, पर इस बात को भी समझने की जरूरत है कि इससे निपटने के लिए बहु-आयामी प्रयास जारी है। यह बात सही है कि गणतंत्र जैसे राश्ट्रीय पर्व का अर्थ तभी निकल पायेगा जब गाँधी की उस अवधारणा को बल मिलेगा जिसमें उन्होंने सभी की उन्नति और विकास को लेकर सर्वोदय का सपना देखा था।

गणंतत्र के इस अवसर पर संविधान की बनावट और उसकी रूप रेखा पर विवेचनात्मक पहलू उभारना आवष्यक प्रतीत हो रहा है। देखा जाये तो संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह ऐसा मंच था जहाँ से भारत का आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिपेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुयीं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुत्ता हो, समाजिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गई है। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढाँचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है, जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहें। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करे तो पता चलता है कि यह किसी क्रांति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी लड़ाई और राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है। संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गाँधी विचारधारा का प्रतीक है। संपूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गाँधी दर्षन के परिपेक्ष्य लिए हुए है। गाँधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं था। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गई कि विशमता, अस्पृश्यता, पोशण आदि का नामोनिषान न रहें पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाये तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि समाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थे और सही मायने में गणतंत्र के गढ़न से भी यह ओत-प्रोत था।

संक्षेप में कहें तो जहाँ गणतंत्र हमारी बड़ी विरासत और ताकत है तो वहीं संविधान हमारी प्रतिबद्वता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साँझा समझ है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायी को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेंगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटायी पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते है। जिसके पास सत्ता नहीं वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है। पड़ताल से पता चलता है कि 26 जनवरी, 1950 का गणतंत्र दिवस राजपथ पर से नहीं, बल्कि इर्विन स्टेडियम से षुरू किया गया था, जो आज का नेषनल स्टेडियम है। प्रथम राश्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने इर्विन स्टेडियम में झंडा फहराकर परेड की सलामी ली। 1954 तक यह समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होता रहा। साल 1955 से पहली बार गणतंत्र दिवस का परेड राजपथ पहुँचा, तब से आजतक यह नियमित रूप से जारी है। 8 किमी. लम्बी गणतंत्र परेड रायसीना हिल से षुरू होती है और राजपथ इंडिया गेट से षुरू होते हुए लाल किला तक पहुँचती है। तब लाल किले केदीवान-ए-आम में इस अवसर पर मुसायरे की परम्परा षुरू हुई। 1959 में हेलिकापटर से फूल बरसाने की प्रथा षुरू हुई, जबकि 1970 के बाद से 21 तोपों की सालामी का चलन प्रारम्भ हुआ।

15 अगस्त, 1947 की स्वाधीनता के बाद देष कई बदलाव से गुजरा है और 26 जनवरी, 1950 के गणतंत्रात्मक स्वरूप के धारण करते हुए कई विकास को भी छुआ है। 136 करोड़ का देष भारत और उसकी पूरी होती उम्मीदों में गणतंत्र की भूमिका को भी देखा-परखा जा सकता है। काल और परिपेक्ष्य में दृश्टिकोण परिवर्तित हुए है, कई संषोधन और सुधार भी हुए है पर गणतंत्र के मायने हर परिस्थितियों में कहीं अधिक भारयुक्त बना रहा। पहले गणतंत्र के अवसर पर इंडोनेषिया के राश्ट्रपति सुकार्णों की उपस्थिति तो कोरोना के इस दौर में साल 2021 के गणतंत्र दिवस पर कोई विदेषी मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित नहीं होगा। हालांकि इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन को न्यौता दिया था मगर उन्होंने जनवरी की षुरूआत में ही न आने का प्रस्ताव भेज दिया था। 1950 से अब तक ऐसा तीन बार हो चुका है। 1952 और 1953 में जहां अतिथि की अनुपस्थिति रही वहीं 1966 में तात्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर षास्त्री के निधन के पष्चात् भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसी को आमंत्रित ही नहीं किया गया था। फिलहाल भारत समेत वैष्विक पटल पर इस दिन की गूंज रहती है। देष की झलक और झाँकियों के साथ सबके मन में तिरंगे और राश्ट्रगान के प्रति एक नये किस्म कि सोच भी विकसित होती है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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टीका पर टीका-टप्पणी और सुशासन

महामारी से लड़ाई में टीका किसी संजीवनी से कम नहीं होता। यह 7 दषकों में कई बार सिद्ध हुआ है। साल भर से दुनिया एक ऐसी अदृष्य बीमारी से जूझ रही है जिसके खात्मे को लेकर अब उम्मीद जग गयी है। महामारी के बीच भारत में बने दो टीके इस दौर में किसी किरण से कम नहीं है। इस संजीवनी की जरूरत सभी देषों को है जिन्होंने टीका बनाने में अभी सफल नहीं हुए वो दूसरों से इसकी चाह रखते हैं। भारत में बने कोविषील्ड और कोवैक्सीन की मांग दुनिया में देखी जा सकती है। ब्राजील, मोरक्को और सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका व मंगोलिया समेत दस देषों ने भारतीय टीके की मांग की है। हालांकि दुनिया के कई देष महामारी को खत्म करने वाले टीके बनाने का दावा कर चुके हैं जिसमें यूरोपीय, अमेरिकन, रूस व चीन आदि को देखा जा सकता है मगर सौ फीसद की गारन्टी किसी के पास नहीं है। भारत के टीके को लेकर टीका-टिप्पणी भी जारी है। इसके साईड इफेक्ट को लेकर भी कई बातें हो रही हैं। इन सबके बीच 16 जनवरी 2021 को टीका अभियान षुरू किया गया। देष के वैज्ञानिक भारी वक्त और लम्बा अनुभव खर्च करके इस अभियान तक पहुंच बनायी है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि देष की जनता ने कोरोना पर जारी सरकार की गाइडलाइन को समर्पित मन से स्वीकार किया है और यह बात प्रधानमंत्री समेत पूरी व्यवस्था जानती है। षायद इसी की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री भाशण के दौरान भावुक भी हुए थे और कहा था कि जो हमें छोड़कर चले गये उन्हें वैसी विदाई भी नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। 

सेहत और सुषासन का गहरा नाता है। एक छोटी सी कहावत हम भले तो जग भला लेकिन इस कोरोना में यह भी देखने को मिला जग भला तो हम भले। महामारियां आती हैं एक स्याह दौर लाती हैं और फिर समाधान को लेकर सावधान होना और अनुसंधान को मुखर कर देती हैं। सुषासन एक ऐसी अवधारणा है जो हर हाल में कमजोर नहीं पड़ सकती। लोकतंत्र के भीतर लोगों से बनी सरकारों को उन जिम्मेदारियों को उठाना ही पड़ता है जो लोगों पर भारी पड़ती हैं यही सुषासन है। वायरस पर वार के लिए टीका बना दिया गया मगर यह भ्रम से मुक्त नहीं हो पाया है। टीके पर अफवाहों का भी बाजार गर्म है। टीका लगाने के बाद उसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए टीका-टिप्पणी भी जारी है। फिलहाल जो वैक्सीन इन दिनों अभियान में है उसे केवल 18 वर्श या उसके ऊपर के उम्र वालों को भी लगायी जा सकती है। अगर किसी को कोरोना के लक्षण हैं तो उसके ठीक होने के 4 से 8 हफ्ते बाद ही वैक्सीन लगायी जायेगी। इतना ही नहीं आमतौर पर किसी बीमार पर भी यही नियम लागू है। अफवाहों से दूर रहें और सकारात्मकता को दृढ़ करें। ऐसा आह्वान भी देखा जा सकता है। विषेशज्ञों का मानना है कि टीका लगाने के बाद षरीर सामान्य रूप से काम करे इसके लिए अफवाहों से दूर रहें और सकारात्मक बने रहे। इसमें कोई दो राय नहीं कि सकारात्मकता कई समस्याओं का इलाज है लेकिन यह सभी में एक जैसा हो सम्भव नहीं। षासन की यह जिम्मेदारी है कि वैक्सीन को सभी तक समुचित और सस्ते रूप में पहुंचाये मगर किसी अनहोनी या साइड इफेक्ट के मामले में तीव्र भी बनी रहे। कहा गया है कि जहां इंजेक्षन लगाया गया है वहां दर्द, सिर दर्द, थकान, मांसपेषियों में दर्द और असहज महसूस करना साथ ही उल्टी आना, कमजोरी, बुखार, सर्दी तथा खांसी जैसे लक्षण उभर सकते हैं। कहा तो यह भी गया कि सामान्य दर्द की दवा से आराम मिलेगा और घबराने की जरूरत नहीं है। 

सुषासन कोई एकतरफा संदर्भ नहीं है यह सहभागी दृश्टिकोण, मानवाधिकार और सरकार की संवेदनषीलता और जवाबदेहिता से युक्त है। जनता को खुषियां देना और कठिनाईयों से मुक्ति दिलाना सुषासन के पैमाने हैं। सेहत को लेकर सरकार की चिंता और महामारी से देष को मुक्ति दिलाना सुषासन का ही पर्याय है। वैक्सीन का यह अभियान इसी सुषासन की तीव्रता को बढ़त दिलाता है। इसके साइड इफेक्ट को ध्यान में रखकर कई प्रकार की निगरानी और चैकन्नेपन को तवज्जो भी दिया जा रहा है। मास्क लगाने और दो गज की दूरी वैक्सीन के बाद भी जरूरी है। यात्रा करने से बचने की बात भी कही गयी। दो महीने तक षराब का सेवन करने से भी मनाही है। यदि किसी प्रकार का रिएक्षन हो तो टीकाकरण कार्ड में लिखे हुए नम्बर पर फोन करने की व्यवस्था आदि सभी संदर्भ सेहत के साथ सुषासन पर जोर देते हैं। फिलहाल टीका लगने के बाद 30 मिनट तक टीका केन्द्र में रहना और दूसरी डोज़ 28 दिन बाद सुनिष्चित की गयी है। सबके बावजूद भ्रम इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि उक्त तमाम संदर्भ कुछ हद तक नकारात्मक दिख रहे हैं। हालांकि पहले भी कई टीके लगने से कुछ बीमारी के लक्षण उभरते रहे हैं। ऐसे में इसे सकारात्मक लेने में ही सेहत के प्रति छिड़ी लड़ाई पूरी होगी। वैसे खबर तो यह भी है कि नाॅर्वे में वैक्सीन लगवाने के बाद 29 लोगों की मौत हो गयी। यहां स्पश्ट कर दें कि देषों के वैक्सीन में भी एकरूपता नहीं है।

जनसंख्या के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा देष है और जब सेहत की बात आती है तब षासन को यह सिद्ध करना पड़ता है कि उसका सुषासन कितना बड़ा है। वैसे इसके पहले की कई बीमारियों में सेहत और सुषासन के गहरे सम्बंधों को देखा जा सकता है। भारत ने 2012 तक पोलियो को हरा दिया जो नौनिहालों की सेहत पर बरसों भारी रही। विष्व स्वास्थ संगठन के अनुसार चेचक की बीमारी लगभग 3 हजार सालों तक इंसानों के लिए मुसीबत बनी रही जिसके चलते 20वीं सदी में 30 करोड़ लोगों की मौत हुई और इस बीमारी से निजात पाया गया। साल 1977 में चेचक का आखिरी ज्ञात मामला सोमालिया में सामने आया था और साल 1977 को भारत को चेचक मुक्त घोशित किया गया। साल 1949 में भारत में स्कूल के स्तर पर भी सभी राज्यों ने बीसीजी टीकाकरण की षुरूआत की गयी और साल 1951 में इसे बड़े स्तर पर पूरे देष में लागू किया गया। इसके अलावा भी कई ऐसी बीमारियां जब-जब आई और सेहत पर भारी पड़ी तब-तब षासन के लिए चुनौती बढ़ी। गौरतलब है आजादी के वक्त भारत में चेचक के सबसे अधिक मामले सामने आ रहे थे। मई 1948 में भारत सरकार ने इस बीमारी से निपटने को लेकर न केवल अधिकारिक बयान जारी किया बल्कि चेन्नई (मद्रास) के किंग्स इंस्टीट्यूट में बीसीजी टीका बनाने का लैब षुरू की गयी। कोरोना वायरस के मामले में भी एक बार फिर दुनिया के साथ भारत भी सेहत की चुनौती में फंस गया। पूरा भारत महीनो बंद रहा लोगों के साथ सरकार का भी कारोबार ठप्प हो गया और अब कोरोना से निपटने के लिए दो टीके बन कर न केवल तैयार है बल्कि वैक्सीन 16 जनवरी 2021 से अभियान में है। अन्ततः षासन इस मामले में इस मापतौल के साथ अपना काम करे कि न केवल टीकाकरण सफल हो बल्कि स्वस्थ भारत और सेहतमंद लोग हों।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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Sunday, January 24, 2021

उच्च शिक्षा का वैश्विक परिप्रेक्ष्य और भारत

आज से दो दषक पहले मनो-सामाजिक चिंतक पीटर ड्रकर ने एलान किया था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जायेगा। दुनिया के गरीब देष षायद समाप्त हो जायेंगे लेकिन किसी देष की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जायेगा कि वहां की षिक्षा का स्तर किस तरह का है। देखा जाये तो ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है। किसी भी देष का विकास देष विषेश के लोगों के विकास से जुड़ा होता है। ऐसे में षिक्षा और षोध अहम हो जाते हैं। विकास के पथ पर कोई देष तभी बढ़ सकता है जब उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्ञान आधारित ढांचा और उच्च षिक्षा के साथ षोध व अनुसंधान के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होंगे। 21वीं सदी वैष्विक ज्ञान समाज में उच्च षिक्षा के अन्तर्राश्ट्रीयकरण की समुची अवधारणा को पुर्नपरिभाशित करने की आवष्यकता पर बल दिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि दुनिया क अनेक देष ऐसे कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी दी है और इसे बढ़ावा देने की दिषा में बड़े नीतिगत बदलाव किये हैं। वैष्विक और भारतीय परिप्रेक्ष्य तुलनात्मक तौर पर उच्च षिक्षा और षोध के मामले में उस स्तर पर नहीं है जहां भारत जैसे देष को दिखना चाहिए।

भारत का उच्च षिक्षा क्षेत्र षैक्षिक संस्थाओं की संख्या की दृश्टि से दुनिया की सबसे बड़ी षिक्षा प्रणाली है जहां 998 विष्वविद्यालय और करीब 40 हजार काॅलेज और 10 हजार से अधिक स्वतंत्र उच्च षिक्षा संस्थाएं हैं। वैसे विद्यार्थियों के पंजीकरण के लिहाज से भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है जहां लगभग 4 करोड़ उच्च षिक्षा में प्रवेष लिए रहते हैं लेकिन इतनी बड़ी मात्रा के बीच गुणवत्ता कहीं अधिक कमजोर है। उच्च षिक्षा में सुषासन का वातावरण तब सषक्त माना जाता है जब नई खोज करने, अनुसंधान करने और बौद्धिक तथा आर्थिक मूल्यों को बढ़ावा देने वाली डिग्रियां हों जो न केवल युवा सषक्तिकरण का काम करेंगी बल्कि देष को भी सषक्त बनायेंगी। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। वैष्विक पड़ताल बताती है कि भारत के लगभग 7 लाख विद्यार्थी विदेषों में पढ़ाई कर रहे हैं जिनमें से 50 फीसद उत्तर अमेरिका में हैं जबकि 50 हजार से कम दूसरे देषों के विद्यार्थी भारत पढ़ने आते हैं। सबसे अधिक जनसंख्या में तो पड़ोसी देषों के छात्र होते हैं मसलन कुल छात्रों के एक चैथाई से अधिक नेपाली, लगभग 10 फीसद अफगानी, 4 प्रतिषत से थोड़े अधिक बांग्लादेषी और इतने ही सूडान से। इसके अलावा 3.4 फीसद भूटान से, 3.2 फीसद नाइजीरिया से और अन्य देषों के हजारों विद्यार्थी षामिल हैं। भारत में विदेषी छात्रों की संख्या कम होने की बड़ी वजह उच्च षिक्षा में व्यापक गहरापन का आभाव होना है। यदि इसी को षोध की दृश्टि से देखें मसलन डाॅक्टरेट करने वाले सबसे अधिक इथोपियाई और तत्पष्चात् यमन का स्थान है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि लगभग 74 फीसद विदेषी विद्यार्थी ग्रेजुएट और 17 फीसद के आसपास पोस्ट ग्रेजुएट में प्रवेष लेते हैं। इनका पसंदीदा विशय बीटेक, एमबीए, आर्ट, साइंस एण्ड काॅमर्स में बैचलर डिग्री देखी जा सकती है। 1991 के उदारीकरण के बाद उच्च षिक्षा और षोध के क्षेत्र में भी एक बड़ा फेरबदल हुआ है जिसके चलते विदेषी विद्यार्थियों की संख्या भारत में निरंतर बढ़ी है मगर व्यापक आकर्शण का आभाव बरकरार रहा। पिछले 10 वर्शों में अन्तर्राश्ट्रीय विद्यार्थियों की संख्या दोगुनी हुई है। स्पश्ट है कि भारत में यदि षैक्षणिक वातावरण को उभरती हुई अर्थव्यवस्था की तरह ही एक विकसित स्वरूप दिया जाये तो विदेषी विद्यार्थियों के लिए यह षिक्षा केन्द्र हो सकता है। उच्च षिक्षा के अन्तर्राश्ट्रीयकरण के महत्व को महसूस करने का वैसे यह एक वक्त भी है। जिस तादाद में भारत के विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका के देषों में अध्ययन करते हैं उसकी तुलना में यहां रणनीतिक तौर पर बेहतर काम करने की आवष्यकता है। 

ऐतिहासिक दृश्टि से विचार करें तो 12वीं और 13वीं सदी में भारत ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक दुनिया भर के विद्वानों को अपने यहां आकर्शित करने के मामले में कहीं अधिक आगे था। नालंदा, तक्षिला और विक्रमषिला जैसे अनेक उच्च षिक्षा के विष्वविद्यालय आकर्शण के प्रमुख केन्द्र थे। षनैः षनैः वक्त बदलता गया भारत का इतिहास भी कई रूप लेता गया और यहां के षैक्षणिक वातावरण में भी बड़ा परिवर्तन हुआ और यह परिवर्तन आकर्शण के बजाय दूरी बनाने का काम किया। 20वीं सदी में अमेरिका और ब्रिटेन उच्च षिक्षा के केन्द्र बन गये और अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर दुनिया के देषों को यह लुभाने में कामयाब भी रहे। दुनिया भर के अनेक प्रतिभा सम्पन्न लोगों को यहां पढ़ने का पूरा अवसर मिला फलस्वरूप अनुसंधान और नवाचार को भी व्यापक बढ़ावा मिला। इसका नतीजा आर्थिक विकास में प्रगति का होना देखा जा सकता है। हालांकि 21वीं सदी में भी यह प्रभाव कहीं गया नहीं है। यह उच्च षिक्षा के अन्तर्राश्ट्रीयकरण का ही प्रभाव था कि आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन व सिंगापुर समेत कई देष पिछले दो दषकों से षिक्षा में आकर्शण को लेकर ऐसी नीतियां बनायी जिससे उनके यहां विद्यार्थियों की आवा-जाही बढ़ गयी। परिणाम यह हुआ कि श्रम बाजार में खपाने के लिए मानव संसाधन प्राप्त करना आसान हो गया। विदेषों में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अमेरिका अव्वल है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में विदेषों में अध्ययन करने वाले कुल छात्रों में एक चैथाई अमेरिका में पढ़ते हैं। जबकि 50 प्रतिषत अंग्रेजी बोलने वाले अन्तर्राश्ट्रीय विद्यार्थी दुनिया के केवल पांच देषों में हैं जिसमें अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड षामिल हैं। 

जैसा कि आर्थिक उदारीकरण का अन्तर्राश्ट्रीय षिक्षा को लेकर एक महत्वपूर्ण घटना थी इसी प्रकार की एक और घटना विष्व व्यापार संगठन 1995 (डब्ल्यूटीओ) था। जिसके तहत व्यापार और सेवाओं सम्बंधित सामान्य समझौते पर हस्ताक्षर किया जाना। इसमें षिक्षा को एक ऐसी सेवा माना गया है जिससे व्यापारी के नियमों के माध्यम से उदार बनाने और विनियमित करने की जरूरत है। जिसका प्रभाव कई रूपों में समय के साथ देखा जा सकता है। बीते वर्शों में नीति निर्माताओं ने वैष्विक परिप्रेक्ष्य की दिषा में भी कदम उठाये और विदेषों में भारतीय उच्च षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए नीतियां भी तैयार की जिसमें सामान्य सांस्कृतिक छात्रवृत्ति जैसी योजनाएं षामिल हैं जिसके तहत लैटिन अमेरिका, एषिया और अफ्रीका के देषों को छात्रवृत्तियां प्रदान कर भारत में उच्च षिक्ष को प्रोत्साहित किये जाने का काम किया गया। साल 2018 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय जो वर्तमान में षिक्षा मंत्रालय है इसमें विदेषी विद्यार्थियों को भारत में पढ़ाई के लिए आकर्शित करने हेतु एक अभियान स्टडी इन इण्डिया षुरू किया। हाल ही में जारी राश्ट्रीय नई षिक्षा नीति 2020 में भी उच्च षिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता के विष्व स्तरीय उच्च मापदण्ड अपनाने की आवष्यकता पर जोर दिया गया है। जाहिर है भारत की उच्च षिक्षण संस्थाओं ने भी वैष्विक बदलाव को समझने का काम किया और अन्तर्राश्ट्रीय परिवर्तन को भारतीय बुनियादी ढांचे के साथ सरोकारी व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। उक्त संदर्भ यह परिलक्षित करते हैं कि यदि उच्च षिक्षा को लेकर भारत गुणवत्ता, रैंकिंग और उपजाऊ या रोज़गारपरक व्यवस्था को तवज्जो देता है तो विदेषी छात्रों को न केवल भारत में पढ़ने का आकर्शण बल्कि अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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सुशासन की सीमा पीस एंड हैप्पिनेस

इसमें कोई संदेह नहीं कि उभरते परिदृष्य और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में विकास को तवज्जो मिला है। इसके पीछे सरकार द्वारा किये गये प्रयासों को नकारा नहीं जा सकता। सकारात्मक दृश्टिकोण को यदि और बड़ा कर दें तो व्यवसायी षासन का संदर्भ उभरता है जिसे उत्प्रेरक सरकार भी कह सकते हैं। ऐसा षासन जहां समस्या उत्पन्न होने पर उनका निदान ही नहीं किया जाता बल्कि समस्या उत्पन्न ही नहीं होने दिया जाता। षासन या सरकार चाहे उद्यमी हो या उत्प्रेरक परिणामोन्मुख होना ही होता है। सुषासन इसी की एक अग्रणी दिषा है जहां कार्यप्रणाली में अधिक खुलापन, पारदर्षिता और जवाबदेहिता की भरमार होती है। सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें इसकी सम्भावना भी देखी जा सकती है। सरकार की नीतियां मंद न पड़े और क्रियान्वयन खामियों से मुक्त हों और जनता के दुःख-दर्द को मिटाने का पूरा इरादा हो तो वह सुषासन है और यदि इसका ख्याल बार-बार है तो पीस और हैप्पिनेस बरकरार रहेगा। जैसा कि कनाडाई नारे के तहत षान्ति व्यवस्था और अच्छी सरकार एक दूसरे के पर्याय हैं। 

आत्मनिर्भर भारत के अंतर्गत सुधारों और प्रोत्साहन के उद्देष्य से विभिन्न क्षेत्रों को मजबूत करना। अर्थव्यवस्था, अवसंरचना, तंत्र और जन सांख्यिकीय और मांग को समझते हुए आधारित सुधार हमेषा षान्ति और खुषियां देती रहती हैं। सरकारें अपनी योजनाओं के माध्यम से मसलन प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, किसान क्रेडिट कार्ड सहित आत्मनिर्भर पैकेज आदि तमाम के माध्यम से सुषासन की राह समतल करने के प्रयास में रहती हैं। गौरतलब है कि षासन संचालन की गतिविधि को षासन कहते हैं दूसरे षब्दों में राज करने या राज चलाने को षासन कहते हैं मगर सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा हैं और यह तब तक पूरा नहीं होता जब तक जनता सषक्त नहीं होती। इसके आभाव में राज-काज तो सम्भव है पर पीस एण्ड हैप्पिनेस का अभाव बरकरार रहता है। साल 2020 कोरोना की अग्निपरीक्षा में रहा जबकि साल 2021 कई सम्भावनाओं से दबा है। हालांकि कोविड-19 का प्रभाव अभी बरकरार है। ऐसे में सत्ता को पुराने डिजाइन से बाहर निकलना होगा। दावे और वादे को परिपूर्ण करना होगा। किसी भी देष के विकास वहां के लोगों के विकास से जुड़ा होता है ऐसे में सुषासन केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं बल्कि सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण की सीमा लिए हुए है।

देखा जाये तो देष को आर्थिक सुधार के मार्ग पर अग्रसर हुए तीन दषक हुए हैं इस दौरान देष की अर्थव्यवस्था कई अमूल-चूल परिवर्तनकारी बदलाव से गुजरी है। मगर कई समस्याएं आज भी रोड़ा बनी हुई हैं। भारत सरकार 2030 के सतत् विकास लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वचनबद्ध है मगर वर्तमान में पोशण की जो स्थिति है उसमें और सुदृढ़ नीति की आवष्यकता है। भारत में भुखमरी की स्थिति पीस एण्ड हैप्पिनेस के लिए चुनौती है। यह तब और आष्चर्य की बात है कि जब खाद्यान्न कई गुना बढ़ा हो। राश्ट्रीय स्वास्थ मिषन के तहत समता पर आधारित किफायती और गुणवत्ता को स्वास्थ सेवाएं सबको सुलभ कराने का लक्ष्य रखा गया है। मगर एनीमिया जैसे रोग देष में एक प्रमुख समस्या बना हुआ है। चुनौती यहां की निर्धनता और अषिक्षा भी है। हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की हालिया रिपोर्ट में पता चलता है कि अभी भी स्थिति 94वें स्थान के साथ नाजुक है जो कई पड़ोसी देषों की तुलना में भी ठीक नहीं है। बेरोज़गारी के मामले में कई रिकाॅर्ड टूटे हैं यह समस्या कोरोना के पहले भी थी अब तो हालात बद से बदत्तर हुए हैं।

देष का आर्थिक विकास दर भी ऋणात्मक में चला गया। हालांकि इस बीच एक सुखद संदर्भ यह है कि दिसम्बर 2020 में जीएसटी का कलेक्षन एक लाख 15 हजार करोड़ से अधिक हुआ जो 1 जुलाई 2017 से लागू जीएसटी किसी माह की तुलना में सर्वाधिक उगाही है। इससे यह भरोसा बढ़ता है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आ रही है मगर जिस स्तर पर चीजे डैमेज हुई हैं उसे मैनेज करने के लिए यह नाकाफी है। अभी भी षिक्षा का ताना-बाना बिगड़ा है और आर्थिक आभाव में कईयों से षिक्षा दूर चली गयी है। 9 करोड़ मिड डे मील खाने वाले बच्चे किस हालत में है कोई खोज खबर नहीं है। नई षिक्षा नीति 2020 एक सुखद ऊर्जा भरती है मगर कोरोना ने जो कोहराम मचाया है उससे षिक्षा सहित व्यवस्थाएं जब तक पटरी पर नहीं आयेंगी पीस एण्ड हैप्पिनेस दूर की कौड़ी बनी रहेगी। हालांकि सरकार बुनियादी ढांचे में निवेष, हर हाथ को काम देने के लिए स्टार्टअप और सूक्ष्म, मध्यम और लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा नारी सषक्तिकरण, गरीबी उन्मूलन की दिषा में कदम उठा रही है और कई तकनीकी परिवर्तन के माध्यम से सीधे जनता को लाभ देने की ओर है। मसलन किसान सम्मान योजना।

सभी के लिए भोजन और बुनियादी आवष्यकता की पूर्ति सुषासन की दिषा में उठाया गया संवदेनषील कदम है जबकि विकास के सभी पहलुओं पर एक अच्छी राह देना पीस एण्ड हैप्पिनेस का पर्याय है। डिजिटल गवर्नेंस का दौर है इससे ईज़ आॅफ लीविंग भी आसान हुआ है मगर 2022 में किसानों की आय का दोगुना करना और दो करोड़ घर उपलब्ध कराना बड़ी चुनौती है। 60 फीसद से अधिक किसान अभी भी बुनियादी समस्या से जूझ रहे हैं। पिछले बजट में करीब डेढ़ लाख करोड़ रूपए का प्रावधान गांव और खेत-खलिहानों के लिए किया गया जो सुषासन के रास्ते को चैड़ा करता है। बावजूद इसके वर्तमान में कृशि और खेती से जुड़े तीन कानूनों को लेकर जारी किसानों का आंदोलन और कई दौर की वार्ता के बावजूद बात न बनना षान्ति के लिए एक समस्या है। 5 वर्शों में 5 करोड़ नये रोज़गार के अवसर छोटे उद्यमों में विकसित करने वाला कदम उचित है मगर कोरोना के चलते कई स्टार्टअप और उद्यम संकट में चले गये ऐसे तमाम बातों से यह स्पश्ट है कि बात जितनी बनती है कुछ उतनी ही बिगड़ने वाली भी है नतीजन पीस एण्ड हैप्पिनेस को बड़े पैमाने पर बनाये रख पाना कठिन काज है मगर सुषासन से यह सब कुछ सम्भव है क्योंकि सुषासन की सीमा पीस एण्ड हैप्पिनेस है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

शोध और नवाचार की नई डगर

इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोरोना के चलते साल 2021 पर विकास का बड़ा दबाव रहेगा जिसके लिए विज्ञान और अनुसंधान की राह सषक्त करनी ही होगी। इसी दिषा में राश्ट्रीय विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति (एसटीआईपी) 2020 का मसौदा देखा जा सकता है जो 2013 की ऐसी ही नीति का स्थान लेगी। गौरतलब है यह मसौदा अनुसंधान और नवाचार क्षेत्र से सम्बंधित है जिसके चलते लघु, मध्यम तथा दीर्घकालिक मिषन मोड परियोजनाओं में भी महत्वपूर्ण बदलाव सम्भव है। देष के सामाजिक, आर्थिक विकास को प्रेरित करने के लिए षक्तियों और कमजोरियों की पहचान करना और उनका पता लगाना साथ ही भारतीय एसटीआईपी पारिस्थितिकीतंत्र पर वैष्विक स्पर्धा में खड़ा करना आदि इसके उद्देष्यों में षामिल है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने, विज्ञान और तकनीक व नवाचार को लेकर कोश पर जोर देने साथ ही अकादमिक व पेषेवर संस्थाओं में लैंगिक एवं सामाजिक आॅडिट जैसे कई महत्वपूर्ण संदर्भ इस नीति में देखे जा सकते हैं जाहिर है विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का यह मसौदा एक अवसर भी है। 

बीते वर्शों में भारत एक वैष्विक अनुसंधान एवं विकास हब के रूप में तेजी से उभर रहा है। देष में मल्टीनेषनल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट केन्द्रों की संख्या 2010 में 721 थी और अब यह 1150 तक पहुंच गयी है और वैष्विक नवाचार के मामले में 57वें स्थान पर है। एसटीआईपी की नई नीति के मसौदों के प्रमुख बिन्दु में निर्णय करने वाले सभी इकाईयों में महिलाओं का कम से कम 30 प्रतिषत प्रतिनिधित्व व लैंगिक समानता से जुड़े संवाद में लैस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रान्सजेन्डर (एलजीबीटी) समुदाय को षामिल किये जाने का संदर्भ भी है। नीति में इस बात पर जोर है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार के तंत्र में समानता और समावेष और बुनियादी तत्व होंगे। इसमें महिला वैज्ञानिकों पर जोर है। गौरतलब है विज्ञान एवं तकनीक व नवाचार से सम्बंधित यह मसौदा निर्माण प्रक्रिया के दौरान 3 सौ चरणों में परामर्ष किया गया जिसमें विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, आयु वर्ग, लिंग, षैक्षणिक पृश्ठभूमि व आर्थिक स्तर के 40 हजार से अधिक साझेदार षामिल रहे। इस नीति के प्रारूप के मुताबिक सरकार का इरादा यह है कि दुनिया की बेहतरीन मानी जाने वाली 3-4 हजार विज्ञान पत्रिकाओं पर एकमुष्त सब्सक्रिप्षन ले लें और देषवासियों को मुफ्त उपलब्ध कराये जो एक नेषन, एक सब्सक्रिप्षन तर्ज पर होगा। फिलहाल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की इस पहल से विज्ञान सबके लिए सम्भव होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि विकास के पथ पर कोई देष तभी आगे बढ़ सकता है जब उसकी आने वाली पीढ़ी के लिए सूचना, ज्ञान और षोध आधारित वातावरण बने साथ ही उच्च षिक्षा के स्तर में व्यापक सुधार और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों। इसका हालिया उदाहरण भारत में कोविड-19 की रोकथाम के दो टीके का निर्माण देखा जा सकता है। जहां आत्मनिर्भर भारत और स्वयं का सृजित किया टीके का एक समावेषी वातावरण दिखता है। बावजूद इसके षोध और नवाचार की अनवरत् यात्रा प्रत्येक स्थानों पर नहीं हुई है जिसे लेकर देष को नये सिरे से नवाचार और विज्ञान को सरपट दौड़ाना ही होगा। इसी दिषा में उक्त मसौदा देखा जा सकता है। षोध को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं कि प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच षोध और नवाचार के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं, दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में हाईटेक होने का लाभ षोध को मिल रहा है। वैसे विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। 40-50 साल पहले की बात करें तो भारत में लगभग 50 प्रतिषत वैज्ञानिक अनुसंधान विष्वविद्यालयों में ही होते थे लेकिन धीरे-धीरे धन की उपलब्धता कम होती चली गयी नतीजन षोध भी पिछड़ गया। हालांकि हालात तो यह हैं कि युवा वर्ग की दिलचस्पी वैज्ञानिक षोध में कम और अन्य क्षेत्रों में अधिक दिखती है। पड़ताल बताती है कि अनुसंधान और विकास में भारत का सकल व्यय वित्तीय वर्श 2007-08 की तुलना में साल 2017-18 तक लगभग 3 गुने की वृद्धि हुई मगर अन्यों की तुलना में यह अधिक नहीं रहा। 2017-18 की षोध पर व्यय की तस्वीर कुछ इस प्रकार है। गौरतलब है ब्रिक्स देषों में भारत ने अपने जीडीपी का 0.7 फीसद ही अनुसंधान और विकास पर व्यय किया है जबकि अन्य देषों में ब्राजील 1.3 फीसद, रूस 1.1, चीन 2.1 और दक्षिण अफ्रीका 0.8 फीसद खर्च किया। दक्षिण कोरिया व इज़राइल जैसे देष इस मामले में 4 फीसद से अधिक खर्च कर रहे हैं और अमेरिका को 2.8 फीसद पर देखा जा सकता है। बावजूद इसके भारत को अगले दषक में विज्ञान के क्षेत्र में तीन महाषक्तियों में षामिल कराना नई नीति का लक्ष्य है साथ ही स्थानीय अनुसंधान और विकास क्षमताओं को बढ़ावा देने तथा चुनिंदा क्षेत्रों मसलन घरेलू उपकरणों, रेलवे, स्वच्छ तकनीक, रक्षा आदि में बड़े स्तर पर होने वाले आयात को कम करके बुनियादी ढांचा स्थापित करेगा।



 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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सर्वोदय की बाट जोहती जनता

1970 के दषक के उत्तरार्द्ध में यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड द्वारा नवीन लोक प्रबंधन की सैद्धान्तिक आधारषिला इस उद्देष्य से रखी गयी कि पुराने डिजाइन से विकास करने वाले षासन को नया रूप देना था। इसका उद्देष्य बिल्कुल स्पश्ट है कि रूपांतरण के माध्यम से एक उपक्रमी, व्यवसाय तुल्य, विचार दर्षन से उत्प्रेरित सरकार की नवीन खोज करना जो अपनी भूमिका ‘नाव खेने‘ की जगह ‘स्टेयरिंग‘ संभालने के रूप में बदल लेती है। जब सड़क खराब हो तो ब्रेक और एक्सेलेरेटर पर कड़ा नियंत्रण और जब सब कुछ अनुकूल हो तो सुगम और सर्वोदय से भरी यात्रा निर्धारित करता है। जाहिर है ऐसी षासन पद्धति में लोक कल्याण की मात्रा में बढ़त और लोक सषक्तिकरण के आयामों में उभार को बढ़ावा मिलता है। इस बात का सभी समर्थन करेंगे कि 21वीं सदी के इस 21वें साल पर तुलनात्मक विकास का दबाव अधिक है क्योंकि इसके पहले का वर्श महामारी के चलते उस आईने की तरह चटक गया है जिसमें सूरत बिखरी-बिखरी दिख रही है। यदि इसे एक खूबसूरत तस्वीर में तब्दील किया जाये तो ऐसा सर्वोदय और सषक्तिकरण के चलते होगा जिसकी बाट बड़ी उम्मीद से जनता जोह रही है। तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को नया रूप लेना लाज़मी है। षायद न्यू इण्डिया की अवधारणा इस दौर की सबसे बड़ी आवष्यकता है। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था में हो रहे अनवरत् परिवर्तन को देखते हुए न केवल दक्ष श्रम षक्ति बल्कि स्मार्ट सिटी और स्मार्ट गांव की ओर भी कदमताल तेजी से करना होगा। यह दौर मौद्रिक और वित्तीय कदम उठाने के मामले में और समस्याओं से बंध चुके लोगों को बहाल करने का भी है। ऐसे में सर्वोदय इसकी प्राथमिकता है और यह सुषासन पर पूरी तरह टिका है।

सर्वोदय सौ साल पहले उभरा एक षब्द है जो गांधी दर्षन से उपजा है मगर इसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। एक ऐसा विचार जिसमें सर्वभूत हितेष्ताः को अनुकूलित करता है जिसमें सभी के हितों की भारतीय संकल्पना के अलावा सुकरात की सत्य साधना और रस्किन के अंत्योदय की अवधारणा मिश्रित है। सर्वोदय सर्व और उदय के योग से बना षब्द है जिसका संदर्भ सबका उदय व सब प्रकार के उदय से है। यह सर्वांगीण विकास को परिभाशित करने से ओतप्रोत है। आत्मनिर्भर भारत की चाह रखने वाले षासन और नागरिक दोनों के लिए यह एक अन्तिम सत्य भी है। समसमायिक विकास की दृश्टि से देखें तो समावेषी विकास के लिए सुषासन एक कुंजी है लेकिन सर्वज्ञ विकास की दृश्टि से सर्वोदय एक आधारभूत संकल्पना है। बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी है पर कई चुनौतियों के चलते समस्या समाधान में अभी बात अधूरी है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिससे लोक कल्याण को बढ़त मिलती है तत्पष्चात् नागरिक सषक्तिकरण उन्मुख होता है। बीते वर्श में कोरोना के चलते भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह मुरझाई है वह लोक सषक्तिकरण के लिए एक खराब अवस्था थी और असर अभी भी जारी है। विकास दर ऋणात्मक 23 से नीचे चली गयी और जनता की ही नहीं सरकार की भी आर्थिक दिषा-दषा बेपटरी हो गयी गयी। हांलाकि इसी दिसम्बर में अप्रत्यक्ष कर गुड्स एवं सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) से उगाही एक लाख 15 हजार करोड़ रूपए से अधिक की हुई जो जुलाई 2017 से लागू जीएसटी कानून से अब तक किसी भी माह में सर्वाधिक है। संकेत सकारात्मक हैं पर लोक सषक्तिकरण को लेकर जो ताना-बाना उथल-पुथल में गया है उसे देखते हुए संतोश कम ही होता है। गौरतलब है बेरोज़गारी, बीमारी, रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी समस्याएं अभी भी चोटिल हैं। गरीबी और भुखमरी की ताजी सूरत भी स्याह दिखाई देती है। हालिया ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़े बताते हैं कि यहां भूख का गम्भीर संकट है। गौरतलब है कि 2020 की रिपोर्ट में भारत 107 देषों में 94वें पायदान पर है जबकि 2014 में यही रैंकिंग 55 हुआ करती थी। 

स्वतंत्रता के बाद 15 मार्च 1950 को योजना आयोग का परिलक्षित होना तत्पष्चात् प्रथम पंचवर्शीय योजना का कृशि प्रधान होना और 7 दषकों के भीतर ऐसी 12 योजनाओं को देखा जा सकता है जिसमें गरीबी उन्मूलन से लेकर समावेषी विकास तक की भी पंचवर्शीय योजना षामिल है। बावजूद इसके देष में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। महामारी से पहले की अर्थव्यवस्था लगभग तीन लाख ट्रिलियन डाॅलर की थी जिसे 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर करने का इरादा जताया गया है। 2022 तक किसानों की आमदनी भी दोगुनी करने की बात हुई है और दो करोड़ से अधिक घर साल 2022 के भीतर ही दिये जाने हैं। बुनियादी विकास की चुनौतियां साथ ही षहरी और ग्रामीण विकास की अवधारणा के अलावा कई तकनीकी विकास से भी देष को ओत-प्रोत होना है। किसानों का कायाकल्प, युवाओं में आवेष और मानव संसाधन का उपयोग कैसे सम्भव हो इन सबका भार आगामी वर्शों पर रहेगा। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए आवष्यक है कि कृशि और कृशि प्रसंस्करण आधारित गतिविधियों को मजबूती देना। कृशक हितैशी योजनाओं सुधारों और वित्तीय प्रोत्साहन को नये सिरे से अवसर देना। सबसे बड़ी बात सरकार और किसान के बीच एक विकासात्मक सुलह को हासिल करना ताकि सर्वोदय की सुचिता को खतरा न हो। ध्यानतव्य हो कि जब विकास के सभी क्षेत्र धराषाही हो रहे थे तब कृशि ही एक ऐसा क्षेत्र था जिसने अपनी विकास दर को 3.7 फीसद से ऊपर रखते हुए देष को अन्न से भर दिया। संकटकाल के दौरान अन्नदाताओं की प्रासंगिकता और खेत और खलिहानों की उपयोगिता कहीं अधिक समझ में आयी। जाहिर है अपने हिस्से के विकास की बाट तो खेत-खलिहान भी जोह रहे हैं। 

सुषासन लोक विकास की कुंजी है जो षासन को अधिक खुला और संवेदनषील बनाता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतंात्रिकरण के साथ सर्वोदय व सषक्तिकरण का महत्व सुषासन की सीमा में ही हैं। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी होता है और ऐसा तभी सम्भव है जब पूरी प्रणाली पारदर्षी और ईमानदार हो। कानून ने विवेकपूर्ण और तर्कसंगत सामाजिक नियमों और मूल्यों के आधार पर समाज में एकजुटता की स्थापना की है और षायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जो कानून से अछूता हो। कानून और कानूनी संस्थाएं, संस्थाओं के कामकाज में सुधार लाने, सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ाने और समाज में न्याय प्रदान करने के महत्वपूर्ण संदर्भ रोज की कहानी है। करोड़ों की तादाद में जन मानस षासन और प्रषासन से एक अच्छे सुषासन स्वयं के लिए सर्वोदय और अपने हिस्से के सषक्तिकरण को लेकर रास्ते पर खड़ा मिलता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह खड़ा होता और आगे भी खड़ा होगा कि अंतिम व्यक्ति को उसके हिस्से का विकास कब मिलेगा। वर्तमान दौर कठिनाई का तो है पर बुनियादी विकास ऐसे तथ्यों और तर्कों से परे होते हैं। देष में नौकरियों के 90 प्रतिषत से ज्यादा अवसर सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र मुहैया कराता है। इस क्षेत्र की एहमियत को देखते हुए सरकार ने कई कदमों की घोशणा पहले के बजट में भी की है। एमएसएमई क्षेत्र पर भी वैष्विक महामारी के कारण बाजार में घटी हुई मांग के सदमे से उबरने का दबाव स्पश्ट देखा जा सकता है। यह क्षेत्र जितनी षीघ्रता से पटरी पर लौटेगा उतनी ही तेजी से देष की अर्थव्यवस्था और रोज़गार की स्थिति बेहतर होगी। गौरतलब है कि भारत सरकार देष को 50 खरब डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनाने के ऊंचे लक्ष्य को हासिल करने के उद्देष्य से समावेषी विकास और रोज़गार सृजन के लिए समर्पित है। जाहिर है यह आसान काज नहीं है इसके लिए उद्यमिता को बढ़ावा और तकनीक में नवाचार जरूरी होगा जिसके लिए कौषल विकास केन्द्रों समेत कईयों को भी बढ़त देनी होगी। ध्यानतव्य हो कि देष में 25 हजार कौषल विकास केन्द्र हैं जबकि चीन जैसे देषों में ऐसे केन्द्र 5 लाख से अधिक हंै। 

सामाजिक-आर्थिक प्रगति सर्वोदय का प्रतीक कहा जा सकता है। इसी के भीतर समावेषी विकास को भी देखा और परखा जा सकता है। मेक इन इण्डिया, स्किल इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया और स्टैण्डअप इण्डिया जैसी योजनाएं भी एक नई सूरत की तलाष में है। जिस तरह अर्थव्यवस्था और व्यवस्था को चोट पहुंची है उसकी भरपाई आने वाले दिनों में तभी सम्भव है जब अर्थव्यवस्था नये डिजाइन की ओर जायेगी। कहा जाये तो ठहराव की स्थिति से काम नहीं चलेगा। सवाल तो यह भी है कि क्या बुनियादी ढांचे और आधारभूत सुविधाओं से हम पहले भी भली-भांति लैस थे। अच्छा जीवन यापन, आवासीय और षहरी विकास, बुनियादी समस्याओं से मुक्ति और पंचायतों से लेकर गांव तक की आधारभूत संरचनायें परिपक्व थी। इसका जवाब पूरी तरह न तो नहीं पर हां में भी नहीं दिया जा सकता। कुल मिलाकर विकास के सभी प्रकार और सर्वज्ञ विकास और सब तक विकास की पहुंच अभी अधूरी है और इसे पूरा करने का दबाव साल 2021 या आगे आने वाले वर्शों पर अधिक इसलिए रहेगा क्योंकि 2020 का घाटा जल्दी जाने वाला नहीं है। आॅक्सफोर्ड इकोनोमिक्स की पड़ताल भी यह बताती है कि साल 2025 तक भारत का विकास दर 5 फीसद से कम रह सकती है। विकास कोई छोटा षब्द नहीं है भारत जैसे देष में इसके बड़े मायने हैं। झुग्गी-झोपड़ी से लेकर महलों तक की यात्रा इसी जमीन पर देखी जा सकती है और यह विविधता देष में बरकरार है ऐसे में विकास की विविधता कायम है। यह जरूरी नहीं कि महल सभी के पास हो पर यह बिल्कुल जरूरी है कि बुनियादी विकास से कोई अछूता न रहे। जब ऐसा हो जायेगा तब सर्वोदय होगा और तब लोक सषक्तिकरण होगा और तभी उत्प्रेरित सरकार और सुषासन से भरी धारा होगी।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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साल 2021 में सर्वोदय की उपेक्षा

साल 2020 के तमाम घटनाओं से जीवन में जो खालीपन पैदा हुआ मानो 2021 सभी की भरपायी करने का वर्श है। आज से ठीक सौ साल पहले 1920 का दौर भी एक महामारी से ही जूझा था और तब ऐसी ही अपेक्षा 1921 से की गयी थी। भारतीय जनगणना की दृश्टि से देखें तो यही वर्श था जब पहली और अन्तिम बार जनसंख्या घटी थी। इस सदी के 21वें साल में सर्वोदय की जो सम्भावना सभी में कुलांछे मार रही है उसको गांधी के दिग्दर्षन में सौ साल पहले ही देखा जा सकता है। गौरतलब है कि सर्वोदय षब्द गांधी द्वारा प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें सभी के हित की भारतीय कल्पना, सुकरात की सत्य-साधना और रस्किन की अंत्योदय की अवधारणा सम्मिलित है। सर्वोदय सर्व और उदय के योग से बना षब्द है। जिसका सीधा अर्थ सबका उदय और सब प्रकार के उदय से है। गांधी के विचारों को और बड़ा करके देखें तो जान पड़ता है कि ऐसे षब्दों के आषय और भाव जग सुधारक की भूमिका में रहे हैं। उन्होंने कहा था कि मैं अपने पीछे कोई पंथ और सम्प्रदाय नहीं छोड़ना चाहता हूं। उक्त कथन से यह साफ है कि सर्वोदय जीवन की समग्रता है। जाहिर है लोक-लुभावन क्रान्ति के बजाये 21वीं सदी के इस 21वें साल को विकास का जरिया बना देना चाहिए और ऐसा विकास जहां से सभी को यह एहसास हो कि यह उनका देष है और जीवन आसान हुआ है। हम यह उम्मीद भी नहीं बंधा रहे हैं कि आने वाली चुनौतियां इस वर्श में खत्म हो जायेंगी मगर 2021 में कुछ ऐसा हो कि 2020 की बुरी यादें जीवन से दूर हो जायें। इस सदी की सम्भवतः सबसे बड़ी त्रासदी कोरोना को लेकर एक अच्छी खबर कि टीका बनकर तैयार हो गया है और इसकी पहुंच में पूरा देष षीघ्र होगा। भारत दुनिया के उन देषों में से एक है जिन्होंने एक साथ दो निर्माता कम्पनियों की कोरोना वैक्सीन को मंजूरी दी है। इस समय दुनिया के 11 से अधिक देषों में कोविड-19 का टीका दिया जा रहा है। जिसमें से ऐसे देषों की संख्या कम है जहां दो कोरोना वैक्सीन उपयोग की जा रही है। मौजूदा समय में टीकाकरण एक भयंकर बीमारी से मुक्ति देगा जो सर्वोदय का एक प्रतीक ही कहा जायेगा। 

21वीं सदी का 21वां साल आम वर्शों की भांति नहीं है यह इस बात को भी तय करेगा कि पिछले साल जो खोया गया उसकी भरपाई कितनी षिद्दत से की गयी। भारत समेत दुनिया कोविड-19 का पूरा एक साल देखा। अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई, लगभग एक करोड़ की तादाद में लोग इस वायरस से पीड़ित हुए। अमेरिका में तो यह तादाद दो करोड़ के आस-पास है। अभी भी यूरोप और अमेरिका के देषों में मौत का दौर जारी है। कोरोना अभी गया नहीं है ऐसे में चुनौती न घटी है और न कमतर हुई है। पहली चुनौती कोरोना मुक्त भारत फिर सुषासन की राह पर चलना। वैसे सुषासन स्वयं में एक सर्वोदय है जहां समावेषी विकास के साथ सतत् विकास का प्रभाव होता है। मगर बीते एक वर्श में भारत की अर्थव्यवस्था जिस प्रकार मुरझायी है यह समावेषी विकास की वेषभूशा को चकनाचूर कर दिया है। हालांकि इसी के बीच एक अच्छी खबर यह है कि साढ़े तीन साल के जीएसटी के पूरे कालखण्ड में दिसम्बर 2020 में उगाही 1 लाख 15 हजार करोड़ से अधिक की हुई है जो किसी भी माह का रिकाॅर्ड है। इससे यह परिलक्षित होता है कि कोरोना के दंष से व्यवसाय उबर रहा है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि सर्वोदय और सुषासन पगडण्डी पर हैं। इसके लिए अलग से अनुप्रयोग की आवष्यकता है जिसमें पहली प्राथमिकता स्वास्थ फिर सभी प्रकार के विकास हैं। बेइंतहा बेरोजगारी और बेषुमार बीमारी इस बात का परिचायक है कि सर्वोदय का करवट आसान नहीं होगा। 8वीं पंचवर्शीय योजना 1992 से चला समावेषी विकास और तभी से यात्रा पर निकला सुषासन एक-दूसरे के साथ भी हैं और पूरक भी मगर सर्वोदय दूर की कौड़ी बनी रही। देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अषिक्षित। हालिया आंकड़े भी बताते हैं कि देष गरीबी और भूख से भरा है। जाहिर है यह गांधी के दर्षन सर्वोदय के विरूद्ध है।

समोवषी विकास पुख्ता किया जाये, सर्वोदय का रास्ता स्वयं चैड़ा हो जायेगा। रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, षिक्षा, चिकित्सा तमाम बुनियादी तत्व क्या इस वर्श ऐसी चुनौतियों से निपटने में मददगार होंगे। सरकार की रणनीतियां और जनता को दिया जाने वाला विकास यह तय करता है कि सुषासन कितना आगे बढ़ा है। यहां मैं याद दिला दूं कि सुषासन सरकार की मजबूती और मात्र उसकी नीतियों के निर्माण से पूरा नहीं होता। सुषासन लोक सषक्तिकरण है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का प्रतीक है न कि बड़े-बड़े आंकड़ों की नुमाइष है। स्वतंत्रता से पूर्व स्वराज षब्द का जो महत्व था आज स्वतंत्रता के बाद वह सुराज हो गया है। ऐसा राज जहां सब कुछ सभी के लिए हो। स्वराज का जो महत्व था आज वही सर्वोदय षब्द में है और इसकी प्राप्ति सुषासन के बगैर सम्भव नहीं है। मोदी सरकार सुषासन को नई करवट देने की फिराक में राह समतल करती रही है। मगर कई बुनियादी समस्याओं से वे भी मुक्त नहीं है। किसानों के विकास और युवाओं के रोज़गार दो बड़ी कसौटी हमेषा सरकारों के लिए रही। किसान और जवान सुषासन की बाट बरसों से जोह रहे हैं मगर दुःखद पक्ष यह है कि किसान इन दिनों आंदोलन में है और बेरोज़गार युवा खाक छान रहा है। सवाल है कि ऐसे प्रष्नों के उत्तर क्या इस साल मिल पायेंगे। दुविधा बड़ी है और सरकार भी सुविधा में दिखाई नहीं देती है। दो टूक यह भी है कि सरकार बहुमत से बनती है और मौजूदा समय में देष के बहुसंख्यक किसान आंदोलन में है। सरकार कानून देने पर आमादा है और किसान लेना नहीं चाहता। रास्ता कठिन है पर नामुमकिन नहीं। क्या यह वर्श किसानों के लिए और बेरोज़गार भटक रहे युवाओं के लिए सर्वोदय का काम करेगा। 

आज से तीन साल पहले मोदी सरकार ने न्यू इण्डिया की अवधारणा दी थी। तेजी से बदलते वैष्विक परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को नया रूप देना लाज़मी है। षायद न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इस मनोदषा से प्रभावित है पर यह तभी सम्भव है जब गांव और षहर, अमीर और गरीब, स्त्री और पुरूश समेत सभी प्रकार की असमानता को पाटने का काम किया जा सकेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो न्यू इण्डिया, पुराना भारत ही बनकर रह जायेगा। 21वीं सदी का यह 21वां साल न्यू इण्डिया को भी एक नया आयाम दे पायेगा यह चुनौती भी रहेगी। उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं है मगर सर्वोदय भरा देष देना मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती रहेगी। दषकों पहले लोक कल्याणकारी व्यवस्था के चलते व्यवस्था का आकार बड़ा हो गया बावजूद इसके विकास बौना ही रहा। जिस तरह जन मानस की आंखों में सपने ठूसे जाते हैं उसी सपने का जीता-जागता उदाहरण सर्वोदय की चाह है। इसे लेकर मोदी सरकार कितनी खरी है इसका अंदाजा पहले के किये गये कार्यों से लगाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति के माध्यम से सम्पूर्ण विष्व को बदलने के लिए सत्य और अहिंसा का जो रास्ता गांधी ने अपनाया उस पर भारत आज भी कायम है तथा सम्पूर्ण समस्याओं का समाधान इसी के माध्यम से षायद सम्भव भी है। जिस प्रकार वैष्विक दृश्टिकोण बदल रहे हैं कूटनीतिक और राजनीतिक तौर-तरीकों में फेरबदल हुआ है उसे देखते हुए भी यह नया वर्श कई अपेक्षाओं से भर जाता है। फिलहाल सरकार से राश्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखते हुए सबके उदय को नीतियों में उतारते हुए सुखमय जीवन की आस 2021 में रहेगी।



 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

दमखम वाला भारत फिर सुरक्षा परिषद् में

भारत में अमेरिकी राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा के हवाले से जुलाई 2020 में यह बात आई थी कि यदि जो बाइडेन अमेरिकी राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र जैसी अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिशद् में स्थायी सीट मिल सके। गौरतलब है कि आगामी 20 जनवरी को जो बाइडेन अमेरिका के 46वें राश्ट्रपति की षपथ लेंगे और यह देखना बाकी रहेगा कि उक्त कथन की प्रासंगिकता और उपयोगिता भविश्य में कैसी और कितनी रहती है। फिलहाल भारत 8वीं बार इसी परिशद् में अस्थायी सदस्य के रूप में एक बार फिर प्रवेष ले चुका है जो साल 2021-2022 के लिए है। पड़ताल बताती है कि इसके पहले भारत 7 बार अस्थायी सदस्य के रूप में 1950-1951, 1967-1968, 1972-1973, 1977-1978, 1984-1985, 1991-1992 और 2011-2012 में भी सुरक्षा परिशद् में रहा है। इस बार भारत के साथ सुरक्षा परिशद् में नार्वे, केन्या और आयरलैंड समेत मैक्सिको भी षामिल है। खास यह भी है कि भारत अगस्त 2021 में संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् का अध्यक्ष होगा और 2022 में भी एक महीने के लिए अध्यक्षता करेगा। 

गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देषों को चुनने का उद्देष्य सुरक्षा परिशद् में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है जबकि स्थायी सदस्य षक्ति संतुलन के प्रतीक हैं। चीन स्थायी सदस्यों में आता है जबकि भारत विगत् 7 दषकों से अस्थायी सदस्य के रूप में ही जब तब बना रहता है। चीन यहां अपनी स्थिति काफी मजबूत बनाये हुए है। इसने न केवल बजट में योगदान बढ़ाया है बल्कि संयुक्त राश्ट्र के कई संगठनों के उच्च पदों पर भी यह पहुंच चुका है। इसे देखते हुए भारत की सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य ही सही स्थिति अहम् हो जाती है। इन दिनों तो दोनों देषों के बीच सीमा विवाद भी जारी है और दुनिया में भी कुछ चीजें कोरोना के चलते पहले जैसी नहीं हैं। भारत का सुरक्षा परिशद् में होना कई लिहाज़ से ठीक कहा जा सकता है। मसलन सीमा विवाद से लेकर सीमा पार आतंकवाद, आतंकवाद से जुड़ी फण्डिंग, मनी लाॅण्डरिंग, कष्मीर जैसे मुद्दों पर फिलहाल स्थिति मजबूत होगी। वैसे भारत ऐसे मामलों को लेकर काफी सतर्क रहा है और चीन को छोड़ दिया जाये तो अन्य सदस्य भारत को दरकिनार नहीं करते हैं। सुरक्षा परिशद् में भारत की स्थिति कुछ हद तक चीन को संतुलित करने के काम भी आयेगी। यदि भारत को स्थायी सदस्यता में तब्दील कर दिया जाये जिसकी वह पूरी योग्यता रखता है तो लाभ के प्रारूप भी बदल जायेंगे। 

मौजूदा समय में भारत वैष्विक फलक पर है। द्विपक्षीय से लेकर बहुपक्षीय मामलों में उसकी समझ को दुनिया तवज्जो देती है। मगर यह सवाल दषकों से जीवित है कि सुरक्षा परिशद् में भारत को आखिर स्थायी सदस्यता कब मिलेगी। जबकि वह यूएनओ के संस्थापक सदस्यों में से एक है और पीस कीपिंग अभियानों में सर्वाधिक योगदान देने वाला देष है। इस समय 85 सौ से अधिक षान्ति सैनिक विष्व भर में तैनात हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या और 3 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था साथ ही परमाणु षक्ति सम्पन्न देष ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और उभरती हुई अर्थव्यवस्था है। असल में सुरक्षा परिशद् की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विष्व युद्ध की उपजी स्थिति को देखकर की गयी थी। 75 वर्शों में पृश्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाये तो षीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइष थी जो नहीं किया गया।

5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज से यह बामुष्किल 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप का कोई भी इसमें स्थायी सदस्य नहीं है। ढांचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि विगत् कई वर्शों से भारत ने स्थायी सदस्यता को लेकर दुनिया से समर्थन हासिल किया सिवाय चीन के। बिना न्यूक्लियर सप्लायर समूह के सदस्य बने उसे सारी सुविधाएं मिलना भारत की षान्तिप्रियता की पहचान है जबकि चीन एनएसजी मे भारत न आ पाये इसके लिए वीटो करता है और पाक समर्थिक आतंकियों को भी वीटो से बचाता रहता है हालांकि अजहर मसूद के मामले में ऐसा नहीं हो पाया। वैसे स्थायी सदस्यता की दौड़ में भारत ही नहीं है इसमें जर्मनी ब्राजील, जापान को भी देखा जा सकता है। फिलहाल अस्थायी सदस्य के तौर पर भारत को अपनी मजबूत वैदेषिक नीति का लाभ उठाते हुए दुनिया में उपस्थिति बड़े पैमाने पर दर्ज करा लेना चाहिए और स्वयं से जुड़ी समस्याओं को हल प्राप्त कराने के लिए संयुक्त राश्ट्र को प्रभाव में लेने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहिए और कोषिष तो यह भी करनी चाहिए कि स्थायी सदस्यता प्राप्ति का राह और लम्बा न हो।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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