Sunday, October 18, 2020

अनुच्छेद ३७० से छिनी दो परिवारों की सियासत

देष भर में कई ऐसे राजनीतिक परिवार है जिनकी कई पीढ़ियां सियासत में सक्रिय हैं। जिसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी फलक पर रहते हैं। ऐसे ही सियासी दलों के दो घराने जम्मू-कष्मीर में भी देखे जा सकते हैं जिसमें एक नेषनल कांफ्रेंस के फारूख अब्दुल्ला का तो दूसरा पीडीपी की महबूबा मुफ्ती का घराना देखा जा सकता है। दरअसल पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त कर दिया गया था। तभी से नेषनल कांफ्रेंस और पीडीपी समेत कई नेताओं को नजरबंद कर दिया गया। अब जब उनकी रिहाई हो रही है तो इनकी टीस भी बाहर आ रही है। फारूख अब्दुल्ला तो अनुच्छेद 370 चीन की सहायता से दोबारा वापस चाहते हैं और महबूबा मुफ्ती ने तो रिहा होते ही बयानबाजी की कि अब हमें यह याद रखना है कि दिल्ली दरबार ने 5 अगस्त को अवैध और अलोकतांत्रिक तरीके से हमसे क्या लिया था हमें वो वापस चाहिए। गौरतलब है कि 5 अगस्त 2019 को नेषनल कांफ्रेंस और पीडीपी दो दल के सियासत जमीनदोज हो गये थे क्योंकि जिस अनुच्छेद 370 और 35ए के बूते ये घाटी में अपनी गगनचुम्बी सियासत करते थे उस पर केन्द्र की मोदी सरकार ने बुलडोजर चला दिया था जिससे इनके सियासी घर तबाह हो गये। उसी को लेकर एक बार फिर आवाज बुलंद करने में लगे हैं जिसकी न कोई गूंज है न जरूरत है। देष में कई दल के संचालन कई पीढ़ियों से अपनी सियासी पारी खेल रहे हैं सत्ता और विपक्ष के उलट-फेर में अपने अवसर पाते-खोते देखे जा सकते हैं। जम्मू-कष्मीर में भी कभी नेषनल कांफ्रेंस तो कभी पीडीपी सत्तासीन हुई। कांग्रेस की भी सत्ता रही इतना ही नहीं पीडीपी के साथ भाजपा ने गठजोड़ करके अपनी भी सत्ता की गठरी बांधने का प्रयास किया था। जिस महबूबा मुफ्ती को 370 और 35ए के बगैर जम्मू-कष्मीर खाली-खाली लग रहा है उन्हीं के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा के साथ भाजपा ने भी लगभग तीन साल की सियासी पारी खेली। 

फिलहाल जिन सियासतदानों को विषेश राज्य से सामान्य प्रान्त बने संविधान के पहली अनुसूची का 15वां राज्य जम्मू-कष्मीर आज भी गले की फांस बना हुआ है उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी कानून था जिसे या तो लागू नहीं करना था या बहुत पहले समाप्त कर देना चाहिए था। यहां यह समझना ठीक रहेगा कि घाटी के वे कौन से सियासी घराने हैं जिनकी पिछले साल के एक फैसले ने रोजी-रोटी छीन ली। गौरतलब है षेर-ए-कष्मीर के नाम से मषहूर षेख अब्दुल्ला ने चैधरी गुलाम अब्बास के साथ मिलकर आॅल मुस्लिम कांफ्रेंस के नाम से 15 अक्टूबर 1932 में पार्टी का गठन किया बाद में यही नेषनल कांफ्रेंस के रूप में पहचान ले ली और 1951 में जब इसने की सभी 75 सीटों पर जीत हासिल की तो इसकी धमक का घाटी में पता चला। वहां से इसकी सियासी यात्रा फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला तक जारी है जबकि पीपुल डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी के संस्थापक महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद कभी नेषनल कांफ्रेंस के तले ही अपनी सियासत चमकाते थे और तमाम उलट-फेर के साथ 1989 में विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में देष के गृहमंत्री भी रहे। यहां बता दें कि इन्हीं के कार्यकाल में इनकी बेटी डाॅ0 रूबिया का अपहरण हुआ था जिसे लेकर सियासी सौदेबाजी हुई थी। फिलहाल 1989 में इन्होंने अपनी पार्टी पीडीपी का गठन किया जिसकी मुखिया अब महबूबा मुफ्ती हैं। आष्चर्य है कि जिस अनुच्छेद 370 और 35ए के हटने पर देष ने जष्न मनाया, 70 साल की बीमारी से भारत मुक्ति पाया और लम्बे समय से चली आ रही सियासत को विराम लगा उसी पर अब ये दोनों दल गैर जरूरी सियासत में लगे हुए हैं। जिस प्रकार दोनों दलों के नेता व्याकुलता दिखा रहे हैं उससे साफ है कि इनका सियासी सफर अब कोयला हो चुका है। 

जम्मू-कष्मीर से धारा 370 हटते ही यह दो केन्द्र षासित प्रदेष के रूप में मानचित्र खींच दिया गया जिसमें एक स्वयं जम्मू-कष्मीर तो दूसरा लद्दाख है। घाटी में विधानसभा को कायम रखा गया है जबकि लद्दाख को अन्य केन्द्रषासित की तर्ज पर देख सकते हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 और 35ए जम्मू-कष्मीर के लिए एक बेड़ी का काम कर रहे थे। जिससे मुक्त होने के बाद यह मुख्य धारा से न केवल जुड़ा है बल्कि कई रूकावट भी खत्म हो गये। जम्मू-कष्मीर का क्षेत्रफल, आबादी और वहां के नियम कानून सब बदल गया है। संविधान का नीति निर्देषक तत्व जो लोक कल्याण का पथ बनाता है अनुच्छेद 370 के रहते घाटी में कभी पहुंची ही नहीं उसका भी रास्ता आसान हो गया। इतना ही नहीं पूरा भारतीय संविधान ही अब वहां पहुंच गया है। नौकरी, सम्पत्ति और निवास के विषेश अधिकार समाप्त हो गये। जाहिर है सब कुछ भारत जैसा हो गया। अन्य राज्यों के लोग जमीन लेकर बस सकते हैं। एक निषान, एक विधान का रास्ता खुल गया। दोहरी नागरिकता जैसे प्रावधान का खात्मा हो गया। अनुच्छेद 35ए के तहत जिस जकड़न से जम्मू-कष्मीर जकड़ा हुआ था उससे भी मुक्ति मिल गयी। यदि जम्मू-कष्मीर की लड़की बाहर के लड़के से षादी करेगी तो उसके अधिकार पहले छिन जाते थे अब ऐसा कुछ नहीं होने वाला। इसी अनुच्छेद के जरिये कई ऐसे 80 फीसद पिछड़े और दलित हिन्दू समुदाय थे जो स्थायी निवास प्रमाण पत्र से वंचित थे। उन्हें भी अब पूूरा भारत महसूस होता है। इसके अलावा कष्मीर तीन दषक पहले जिन कष्मीरी पण्डितों का विस्थापन हुआ उनकी वापसी का भी रास्ता पूरी तरह खुल गया। 

जिस जम्मू-कष्मीर को 70 सालों से कानूनी फांस थी उससे मुक्ति पर आज भी वहां के सियासी लोगों के पेट पर इतना बल पड़ रहा है कि चीन की भी साहयता से गुरेज नहीं है। फारूख अब्दुल्ला का मानना है कि चीन की आक्रामकता का मुख्य कारण अनुच्छेद 370 का हटाया जाना भी है। सवाल यह है कि अनुच्छेद 370 अैर 35ए के हटते ही सबसे ज्यादा आक्रामकता तो पाकिस्तान में आयी थी। पाकिस्तान आर-पार के लिए भी तैयार हो रहा था जिसका नाम लेना षायद फारूख अब्दुल्ला ने जरूरी नहीं समझा। खास यह है कि जम्मू-कष्मीर अनुच्छेद 370 को लेकर भले ही बड़ा मुद्दा रहा हो लेकिन भारत की दृश्टि में पाक अधिकृत कष्मीर सर्वाधिक खटकने वाला रहा है। चीन को यह चिंता है कि यदि भारत पीओके पर काबिज होता है तो उसकी कई महत्वाकांक्षी योजना विफल हो जायेगी मसलन वन बेल्ट, वन रोड़। चीन कइ्र देषों के साथ गुनाह करने के लिए जाना जाता है इन दिनों लद्दाख में भी यही सिलसिला जारी है। यह एक ऐसा विस्तारवादी देष है जो रेंगते हुए दूसरों की जमीन को हथियाता है और गरीब और कमजेार देषों को कर्ज देकर उन्हें आर्थिक गुलाम बनाता है। पाकिस्तान इसका बड़ा उदाहरण है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 370 और 35ए हटने के बाद चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग और मोदी की मुलाकात महाबलिपुरम् में हुई थी और इस मुलाकात में भी जम्मू-कष्मीर पर चर्चा का नामोनिषान नहीं था। वैसे भी दुनिया के लगभग सभी देष यह समझ गये हैं कि यह भारत का आंतरिक मामला है मगर भारत के ही कुछ सियासतदान इसे चीन से जोड़ कर देख रहे हैं। हैरत इस बात का भी है कि अनुच्छेद 370 भारत की सरकार द्वारा भारत के संविधान के भीतर से हटाने से जुड़ा मामला है और संविधान के भीतर लिखा गया इतिहास है जिसे सियासी मौका परस्त कह रहे हैं कि अगर भविश्य में मौका मिलेगा तो चीन के साथ मिलकर इसकी वापसी करेंगे। ध्यान्तव्य हो कि अनुच्छेद 370 और 35ए हटाते समय इन सभी को सीआरपीसी की धारा 107 और 151 के तहत हिरासत में लिया गया था। देखकर तो लगता है कि हिरासत में लेने का निर्णय सही था। 



 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन न. १२, इंद्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर, 

देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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कानून का शासन और सुशासन

कानूनों, नियमों और विनियमों की षासन प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। काूनन का षासन षासन, प्रषासन और विकास के बीच एक ऐसा सम्बंध रखता है जिससे लोक व्यवस्था व लोक कल्याण को बढ़ावा देना आसान हो जाता है जबकि सुषासन षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुषासन की अवधारणा जीवन, स्वतंत्रता एवं खुषी प्राप्त करने के लोगों के अधिकार से जुड़ी हुई है। किसी भी लोकतंत्र में ये तभी पूरा हो सकता है जब वहां कानून का षासन हो। कानून का षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं है। संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समानता एवं संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। लोकतंत्र और कानून का षासन पर्याय के रूप में देखा जा सकता है मगर जब राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सत्ताधारी लकीर से हटते हैं तो न केवल लोकतंत्र घाटे में जाता है बल्कि कानून का षासन भी सवालों से घिर जाता है। गौरतलब है कि षान्ति व्यवस्था और अच्छी सरकार एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं और ये कनाडाई माॅडल हैं। भारत में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों को दी गयी है ऐसे में राज्य षान्ति व्यवस्था कायम करके अच्छी सरकार अर्थात् सुषासन को अपने पक्ष में कर सकते हैं। संघीय ढांचे के भीतर भारतीय संविधान में कार्यों का ताना-बाना भी बाकायदा देखा जा सकता है। जब सब कुछ में कानून का षासन होता है तब न केवल संविधान की सर्वोच्चता कायम होती है बल्कि नागरिक भी मन-माफिक विकास हासिल करता है। 

स्पश्ट है संविधान एक ऐसा तार्किक और कानूनी संविदा है जो सभी के लिए लक्ष्मण रेखा है। कानून का षासन और सुषासन एक-दूसरे को न केवल प्रतिश्ठित करते हैं बल्कि जन कल्याण और ठोस नीतियों के चलते प्रासंगिकता को भी उपजाऊ बनाये रखते हैं। देखा जाय तो कानून स्वायत्त नहीं है यह समाज में गहन रूप से सन्निहित है। यह समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। समाज कानून को प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है। कानून का षासन नियंत्रण और पर्यवेक्षण से मुक्त नहीं होता। यह परिवर्तन का सषक्त माध्यम है जिसके चलते न्याय सुनिष्चित करना, षान्ति स्थापित करना तथा सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिष्चित करना सम्भव होता है। सुषासन का अपरिहार्य उद्देष्य सामाजिक अवसरों का विस्तार और गरीबी उन्मूलन देख सकते हैं। इसे लोक विकास की कुंजी भी कहना अतिष्योक्ति न होगा। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं। गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के बाद जो आर्थिक मापदण्ड विकसित किये गये वे मौजूदा समय के अपरिहार्य सत्य हैं। कानून का षासन अच्छे और नैतिक षासन की अनिवार्य आवष्यकताओं में एक है जो सुषासन के बगैर हो ही नहीं सकता। भारतीय संविधान देष का सर्वोच्च कानून है और सभी सरकारी कार्यवाहियों के ऊपर है। यह कल्याणकारी राज्य और नैतिक षासन की परिकल्पना से भरा है और ऐसी ही परिकल्पनाएं जब जन सरोकारों से युक्त समावेषी विकास की ओर झुकी होती हैं जिसमें षिक्षा, चिकित्सा, रोजगार व गरीबी उन्मूलन से लेकर लोक कल्याण के सारे रास्ते खुले हों वह सुषासन की परिकल्पना बन जाती है। 

इस परिदृष्य में एक आवष्यक उप सिद्धांत न्यायिक सक्रियतावाद भी है जो कार्यपालिका की उदासीनता के खिलाफ उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में अनेक जनहित याचिका के रूप में देखी जा सकती है। इसका एक उदाहरण है तो बहुत पुराना मगर आज भी प्रासंगिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2007 के एक मामले में न्यायिक सक्रियतावाद के खिलाफ चेतावनी दी है और कार्यपालिका को बेबाक संदेष दिया कि वे आत्म नियंत्रण से काम लें। आत्मनियंत्रण के चलते कानून का षासन और उससे जुड़ी सुषासन का उद्देष्य दक्षता और सक्षमता से पूरा किया जा सकता है। सरकार एक सेवा प्रदायक इकाई है सच यह है कि भारत सरकार और राज्य सरकारें स्वास्थ एवं षिक्षा की दिषा में बरसों से कदम उठाती रही हैं मगर यह चिंता रही है कि आखिरकार यह किसके पास पहुंच रही है। इसकी गहनता से जांच करने पर यह तथ्य सामने आया कि इसका लाभ गैर गरीब तबके के लोग उठा रहे हैं। ऐसा न हो इसके लिए सरकार और प्रषासन को न केवल चैकन्ना रहना है बल्कि नागरिक भी इस मामले में जागरूक हों कि उनका हिस्सा कोई और तो नहीं मार रहा। भारत में लोक सेवा प्रदायन को बेहतर बनाने की दिषा में कानून का षासन अपने-आप में एक बड़ी व्यवस्था है। इस सेवा के लिए जिन तीन संस्थाओं ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है उनमें एक न्यायपालिका, दूसरा मीडिया और तीसरा नागरिक समाज रहा है। मौजूदा समय में भी इन तीनों इकाईयों की भूमिका कानून के षासन सहित सुषासन को सुनिष्चित कराने में बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। हालांकि मीडिया और नागरिक समाज न्यायपालिका की तर्ज पर न अधिकार रखता है और न ही उसकी कोई ऐसी बहुत बड़ी अनिवार्यता है मगर संविधान से मिले अधिकारों का प्रयोग कमोबेष करता रहा है। 

किसी भी देष में कानूनी ढांचा आर्थिक विकास के लिए जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक विकास के लिए भी होता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है और कानून का षासन उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुषासन और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां दूसरे देषों की तुलना में भिन्न हैं। अषिक्षा का होना, जगारूकता का आभाव, बुनियादी समस्याएं, गरीबी का प्रभाव, भ्रश्टाचार का बरकरार रहना और निजी महत्वाकांक्षा ने सुषासन को उस पैमाने पर पनपने ही नहीं दिया जैसे कि यूरोपीय देषों के नाॅर्वे, फिनलैण्ड आदि देषों में है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे मजबूत और व्यापक संविधान वाला देष भारत कानून का षासन बनाये रखने में अभी पूरी तरह सफल दिखता नहीं है। इसका प्रमुख कारण नागरिकों का पूरी तरह सक्षम न होना है। नागरिक और षासन का सम्बंध तब सषक्त होता है जब सरकार की नीतियां उसकी आवष्यकताओं को पूरा करने का दम रखती हो। यहीं पर सुषासन भी कायम हो जाता है, षान्ति को भी पूर्ण स्थान मिलता है साथ ही कानून व्यवस्था समेत खुषियां वातावरण में तैरने लगती हैं। 


  सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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महंगी पड़ेगी राज्यों पर उधारी

ब्रिटिष षासन में भारत वर्श के जितने अनिश्ठ हुए उनमें भारतवासियों का षिल्प ज्ञान, कौषल, इंजीनियरिंग, साहित्य रचना और अन्य स्थापत्य विधा एवं विद्या आदि षामिल हैं। आजाद भारत में कोरोना ने 6 माह में जितने अनिश्ट करने थे उसमें सब कुछ षामिल होते देख सकते हैं। बुनियादी विकास जहां चकनाचूर हुआ वहीं अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी और राज्य जरूरतों को पूरा करने की फिराक में कर्ज के मकड़जाल में उलझ गये और अभी भी यह क्रम जारी है। पहली वित्त वर्श 2020-21 की पहली छमाही अर्थात् 30 सितम्बर तक 28 राज्य सरकारों और दो केन्द्रषासित प्रदेषों की संयुक्त बाजार उधारी 57 फीसदी बढ़ते हुए साढ़े तीन लाख करोड़ रूपए से अधिक हो गयी। पिछले 6 महीने में राजस्व में तेजी से गिरावट आई और वित्तीय दबाव बढ़ा। हालांकि वित्त वर्श 2019-20 की पहली छमाही अर्थात् 30 सितम्बर तक राज्यों ने सवा दो लाख करोड़ रूपए की उधारी ली। राज्य सरकारें उधार क्यों ले रही हैं और कर्ज के भंवर में क्यों फंसी है इसे समझने के लिए केवल कोविड-19 की ओर निहारा जा सकता है मगर पिछले साल भी तो उधार लिया गया था जाहिर है कोविड के चलते उधारी बढ़ी है। आन्ध्र प्रदेष, कर्नाटक, महाराश्ट्र और तमिलनाडु जैसे औद्योगिक राज्यों में कोरोना संक्रमण चरम पर रहा। ये राज्य ज्यादा विकसित भी हैं मगर बाजार से काफी उधार ले भी रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि अर्थव्यवस्था की कमर इन दिनों टूटी है। देष की अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान देने वाले राज्यों की स्थिति कहीं अधिक बिगड़ी है। राजस्व संग्रह के मोर्चे पर उक्त राज्यों की चुनौतियां बढ़ी हैं। जबकि उत्तर प्रदेष, बिहार, हिमाचल प्रदेष और पंजाब जैसे राज्यों में उधारी उतनी नहीं है। राज्यों की आर्थिक हालत खराब होने की पीछे एक बड़ा कारण जीएसटी भी है। राज्यों को केन्द्र द्वारा उनका हिस्सा न मिल पाना भी उधारी एक बड़ा कारण है। देष का विकास दर ऋणात्मक 23 पर है। देष की अर्थव्यवस्था भी बेपटरी है। हालांकि सितम्बर में जीएसटी कलेक्षन 95 हजार करोड़ से अधिक का था जो जुलाई 2017 के जीएसटी के बराबर है मगर स्थिति इतनी बेपटरी है कि इतने मात्र से काम नहीं चल सकता। 

वन नेषन वन टैक्स वाला जीएसटी अच्छी स्थिति में तो नहीं है। बीते 5 अक्टूबर को जीएसटी काउंसिल की 42वीं बैठक हुई जिसमें कई सकारात्मक चर्चा रही मगर राज्यों पर उधार लेने का बोझ तब कम होगा जब उनके बकाये का भुगतान केन्द्र करेगी। गौरतलब है कि इसी साल 27 अगस्त को जीएसटी काउंसिल की 41वीं बैठक हुई थी। केन्द्र ने राज्य सरकार को दो विकल्प सुझाये थे जिसमें एक आसान षर्तों पर आरबीआई से क्षतिपूर्ति के बराबर कर्ज लेना, दूसरा जीएसटी बकाये की पूरी राषि अर्थात् 2 लाख 35 हजार करोड़ रूपए बाजार से बातौर कर्ज ले सकते हैं। जो इन विकल्पों पर नहीं जाते हैं उन्हें भरपाई के लिए जून 2022 तक का इंतजार करना पड़ सकता है। जाहिर है कि राज्यों के सामने चुनौती है और बाजार पर उनकी निर्भरता। फिलहाल जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर 21 राज्यों ने पहले विकल्प को चुना है जिसमें सभी राज्य संयुक्त तौर पर करीब 97 हजार करोड़ रूपए आबीआई से कर्ज लेंगें जिसमें भाजपा षासित राज्यों के अलावा कई गैर भाजपाई षासित राज्य मसलन आन्ध्र प्रदेष और ओडिषा जैसे ही षामिल हैं। लेकिन झारखण्ड, केरल, महाराश्ट्र, दिल्ली, पंजाब, पष्चिम बंगाल, तेलंगाना समेत तमिलनाडु और राजस्थान समेत ने यह नहीं कहा है कि वे क्या करेंगे। राज्यों पर बढ़ता कर्ज का बोझ एक विशम समस्या तो है। चालू वित्त वर्श की पहली तीन तिमाही के उधारी चार्ट के मुताबिक इस दौरान राज्य बाजार से 5 लाख करोड़ रूपए जुटा सकते हैं। गौरतलब है कि इसमें से राज्य करीब 75 प्रतिषत राषि पहले ही ले चुके हैं। जाहिर है पहली तिमाही में तय उधारी कार्यक्रम के मुकाबले राज्यों ने 16 प्रतिषत अधिक उधार लिया है। यह बात स्पश्ट करती है कि चालू वित्त वर्श की षुरूआत में ही राज्यों की वित्तीय स्थिति पर अच्छा खासा असर पड़ा था। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अप्रैल माह में केन्द्र सरकार जो जीएसटी एक लाख या उससे ऊपर उगाहती थी वह घटकर एक चैथाई रह गया। 

अरूणाचल प्रदेष, बिहार, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेष, पंजाब, मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों की उधारी 21 से लेकर 343 प्रतिषत तक बढ़ गयी है। एक ओर राज्यों का राजस्व कोरोना की चपेट में रहा तो दूसरी ओर केन्द्र से मिलने वाला जीएसटी बकाया भी सम्भव न हो सका। ऐसे में राज्य कर्ज के जाल में उलझते जा रहे हैं। भारत के कई छोटे राज्य जहां राजस्व बामुष्किल से नियामकीय व्यवस्था तक ही रह पाता है और विकास के लिए केन्द्र की टकटकी रहती है उनकी हालत भी बहुत खराब ही रही है। उत्तराखण्ड और झारखण्ड सहित कई ऐसे राज्य में मानो विकास ठप्प हो गया हो। महाराश्ट्र में इस दौरान एक हजार करोड़ रूपए और झारखण्ड ने 2 दौ करोड़ राषि कर्ज के रूप में ली। केयर रेटिंग का ताजा विष्लेशण कहता है कि मौजूदा वित्त वर्श में 28 राज्यों और दो केन्द्रषासित प्रदेषों ने बाजार से कुल मिलाकर 3 लाख 75 हजार करोड़ उधार लिए गये हैं जो पिछले वर्श की तुलना में 55 फीसद अधिक है। कोरोना की मार ऐसी कि न तो सही से जीवन चल रहा है और न ही समूचित तरीके से देष और प्रदेष। अभी भी कोरोना के दुश्चक्र में देष फंसा है। अनलाॅक-5 के बावजूद अभी असमंजस व्यापक पैमाने पर पसरा है। बीमारी कमोबेष अपना जगह घेरे हुए है और अर्थव्यवस्था का टूटन अभी भी जारी है। ऐसे में उधारी का सिलसिला कैसे थमेगा यह लाख टके का सवाल है।

प्रधानमंत्री मोदी के लिए जीएसटी किसी महत्वाकांक्षी योजना से कम नहीं थी और जो कृशि हाषिये पर था आज उसी का विकास दर सबसे ज्यादा है। राज्य पैसों के लिए मोहताज हैं और देष की अर्थव्यवस्था भी बेपटरी है जबकि कोविड की गति अभी उतनी नहीं थमी है। कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए देषबंदी हुई जिसने अर्थव्यवस्था को ही बंधक बना दिया। कारोबार और वाणिज्य गतिविधियां प्रभावित हुई, कल-कारखाने बंद हो गये, 12 करोड़ से अधिक लोग एकाएक बेरोजगार हो गये। जिसका असर सब पर पड़ा। कोरोना वायरस महामारी के चलते भारी राजस्व हानि से जूझ रहे राज्यों के लिए सिर्फ बाजार ही एक सहारा है। एक ओर देष का राजकोशीय घाटा छलांग लगा रहा है तो दूसरी ओर राज्य केन्द्र से जो अपेक्षा कर रहे हैं उसमें वे खरा नहीं उतर पा रहे हैं। मई 2020 में 20 लाख करोड़ रूपए का कोरोना राहत पैकेज भी उतना कारगर नहीं दिखाई देता उसका प्रभाव अभी दिखना बाकी है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आक्रामक उधारी से सभी राज्यों के बकाया ऋण में भारी बढ़ोत्तरी होगी जो पहले के वित्त वर्श 2015 से 2020 के बीच वार्शिक 14.3 फीसद की दर से बढ़ता हुआ 2019-20 में 52 लाख करोड़ रूपए तक को पार कर चुका है। बकाया ऋण पिछले पांच सालों में लगभग दोगुना हो गया है और यह दर केन्द्र का बकाया आन्तरिक ऋण की तुलना में बहुत अधिक है। राज्यों के बकाया ऋण में केवल बाजार उधारी ही नहीं है बल्कि अन्य वित्तीय संस्थानों से उधार ली गयी राषि केन्द्र से ऋण, भविश्य निधि, आरक्षित निधि व अन्य आकस्मिक धन षामिल है। समस्या यह है कि स्वास्थ संभालने की फिराक में राज्य ही बीमार हो गये। दूसरे षब्दों में कहें तो जिस केन्द्र की ओर राहत भरी टकटकी राज्य लगाते थे वह उन्हीं का पैसा न दे पाने के लिए लाचार हो गया। वास्तुस्थिति यह भी है कि उधारी से दब रहे राज्य सुषासन को कैसे सषक्त करें।


 सुशील कुमार सिंह

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नया श्रम कानून श्रमिकों के लिए कितना सुशासनिक

सखाराम गणेष देउस्कर की 1904 में बंग्ला में प्रकाषित एवं 1908 में हिन्दी में अनुवादित पुस्तक में लिखा है कि इतिहास पढ़ने से मालूम होता है कि राज भक्ति की सहायता के बिना कभी किसी देष में कारीगरी और वाणिज्य की उन्नति नहीं हुई है। इस कथन के आलोक में देखें तो स्पश्ट है कि लोकतंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संवेदनषील श्रम कानून के बिना संगठित एवं असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और उत्थान सम्भव ही नहीं है। षायद इसी के चलते 73 साल के इतिहास में श्रम कानून में बदलाव का एक बड़ा प्रयास इन दिनों देखा जा सकता है। पड़ताल बताती है कि इससे जुड़ी तीन संहिताओं को संसद के दोनों सदनों ने मोहर लगा दी है। गौरतलब है केन्द्र सरकार द्वारा 29 श्रम कानूनों को 4 श्रम संहिताओं में समेटने का प्रयास किया गया है। नई व्यवस्था से संगठित के साथ 92 फीसद असंगठित श्रमिक को कितना लाभ होगा यह बड़ा प्रष्न है। सभी श्रमिकों को नियुक्ति पत्र देना न केवल अनिवार्य होगा बल्कि वेतन भुगतान डिजिटल के माध्यम किया जायेगा। वर्श में एक बार सभी श्रमिकों का स्वास्थ परीक्षण की अनिवार्यता समेत कारोबार को आसान बनाने, पारदर्षी और उत्तरदायी व्यवस्था से लेकर समय सीमा में विवादों के निस्तारण आदि इस नये श्रम कानून में निहित हैं जो मजदूर सषक्तिकरण का पर्याय दिखता है। लोक सषक्तिकरण की भावना से युक्त सुषासन भी इसी अभिमत से प्रेरित है जिसमें अधिक लोक कल्याण, संवेदनषीलता, जवाबदेहिता और पारदर्षिता के साथ उदार व्यवस्था निहित है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा जो सामाजिक और आर्थिक न्याय से अभिभूत है और षासन पर एक नई परत भी है। श्रम कानून का यह नया स्वरूप श्रमिकों के जीवन की राह कितना समतल करेगा इसके लिए कई अन्य पक्षों को समझना होगा। 

कारखानो, दफ्तरों एवं दुकानों के संचालन, सेवा षर्तों, मजदूरी, कार्य स्थल की परिस्थितियों साथ ही श्रमिकों के अधिकारों से जुड़े कानूनों में परिवर्तन के चलते सरकार कोविड-19 के दुश्चक्र में फंसी बेपटरी अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करने की कवायद में है। हालांकि अर्थव्यवस्था सुधारने के नाम पर किये गये इन बदलावों को विपक्षी विरोध कर रहे हैं। वैसे जब किसी संहिता का निर्माण किया जाता है तो सबसे अनोखी बात यह होती है कि बदलाव जिसके लिए हुआ लाभ उसे मिला या नहीं। इस नयी संहिता को कार्य परिस्थिति संहिता-2020 की संज्ञा भी दी जा रही है जो कामगारों से सम्बंधित नियमों और कानूनों का एक एकीकृत ढांचा है। खास यह भी है कि इस कानून के आने से अलग-अलग लाइसेंस की आवष्यकता नहीं रह जायेगी। गौरतलब है इसके अन्तर्गत विभिन्न स्थानों पर एक ही लाइसेंस के जरिये ठेकेदारों को ठेका मजदूरी के लिए कामगारों की नियुक्ति की अनुमति होगी। ताजी व्यवस्था के चलते ठेका मजदूरों की संख्या 35 से 50 सम्भावित है और प्रत्येक कार्य के लिए ठेका मजदूर लाये जा सकेंगे। 

वैसे तो कानून पहले से ही कई प्रारूपों में उपलब्ध रहे हैं मगर उनके क्रियान्वयन को लेकर या तो इच्छाषक्ति का आभाव था या फिर कोई अन्य बात। गौरतलब है उद्योगों को क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923 व बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 का पालन करना होगा। पारिश्रमिक भुगतान अधिनियम 1936 की धारा 5 भी उद्योगों पर लागू होगी। बाल मजदूरी और महिला मजदूरों से जुड़े प्रावधान पहले की तरह जारी रहेंगे। ट्रेड यूनियन को मान्यता देने वाले कानून यहां खत्म होते दिख रहे हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे प्रावधान इस बदलाव में निहित हैं। ठेका श्रम (विनियमन और उत्सादन) अधिनियम 1970 आदि पर भी इसका प्रभाव पड़ना लाज़मी है। विपक्ष को यह चिंता है कि इण्डस्ट्रीयल रिलेषन बिल 2020 के आने से जिन कम्पनियों में कर्मचारियों की संख्या 300 से कम है वहां पर षोशण बढ़ सकता है। इसका मूल कारण ऐसी कम्पनियों को कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार की मंजूरी नहीं लेना, पहले यह संख्या 100 थी। ऐसे संस्थान जहां 10 से कम श्रमिक कार्य कर रहे हैं उनको अब स्वेच्छा से एम्प्लाॅयज़ स्टेट इन्ष्योरेंस काॅरपोरेषन (ईएसआईसी) का सदस्य बनने का विकल्प दिया गया है और वे संस्थान जहां 20 से कम श्रमिक हैं और स्वरोजगार वाले श्रमिक भी एम्प्लाॅय प्रोविडेंट फण्ड आॅरगेनाइजेषन (ईपीएफओ) की सुविधा ले सकेंगे। एक सामाजिक सुरक्षा फण्ड का प्रावधान भी किया गया है जो असंगठित श्रमिकों, ठेके पर काम करने वाले और प्लेटफाॅर्म श्रमिकों के लिए होगी। गौरतलब है कि देष के 740 जिलों में ईएसआईसी अस्पताल का प्रावधान सामाजिक सुरक्षा संहिता में है। देखा जाय तो लाॅकडाउन के दौर में 12 करोड़ से अधिक लोग बेरोज़गारी के षिकार हुए जिसमें से कईयों की पुर्नवापसी की सम्भावना षायद ही हो।

आॅक्यूपेषनल सेफ्टी, हेल्थ एण्ड वर्किंग कण्डीषन बिल 2020 कम्पनियों को इस बात की छूट देगा कि वह ठेका पर नौकरी दे सकें और इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है जिसकी कोई सीमा नहीं है। सोषल सिक्योरिटी बिल 2020 में भी कुछ नये प्रावधान देख सकते हैं जिन लोगों को फिक्स टर्म के आधार पर नौकरी मिलेगी उन्हें उसी के आधार पर ग्रेज्यूटी पाने का हक होगा। अब इसके लिए 5 साल की आवष्यकता नहीं है। स्पश्ट है कि कांट्रैक्ट कितने भी दिन का हो ग्रेज्यूटी का फायदा मिले। संविधान की सातवीं अनुसूची के तीन सूची संघ, राज्य एवं समवर्ती में कार्यों का बंटवारा है। श्रम कानून समवर्ती सूची में आता है जिसमें केन्द्र और राज्य दोनों की सहमति से कानून बनाया जा सकता है। फिलहाल सुषासन और श्रम कानून एक सिक्के के दो पहलू की तरह हैं और दोनों लोक सषक्तिकरण का भाव रखते दिखाई दे रहे हैं। यदि फिलहाल इसमें श्रमिकों का हित सुनिष्चित होता है तो यह कहीं अधिक सुषासनिक संहिता कही जायेगी।


  सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन न. १२, इंद्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर, 

देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


नौकरशाही का विकास प्रशासन न बन पाना !

वैसे कुछ मुद्दे कभी मुरझाते नहीं है लेकिन वे हमेष बने रहें तो बहुतों को अखर जाते हैं।  नौकरषाही उनमें से एक है जो सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का एक ऐसा वाहक है जिस पर जनता के विकास का बोझ है मगर यह बोझ कब उतरेगा और क्यों नहीं उतर रहा है यह बड़े-बड़े चिंतकों का भी पसीना निकाल रहा है। बीते 4 अक्टूबर को सिविल सेवा प्रारम्भिक परीक्षा 2020 सम्पन्न हुई जिसमें एक सवाल था कि भारत के संदर्भ में नौकरषाही का निम्नलिखित में से कौन सा उपयुक्त चरित्र चित्रण है। चार विकल्पों में अन्तिम विकल्प में लिखा था लोकनीति को क्रियान्वित करने वाला अभिकरण, जाहिर है यही सही उत्तर है। इस प्रष्न के आलोक में नौकरषाही पर अनायास यह प्रष्न उभर गया कि ईसा पूर्व चीन में पहचानी गयी नौकरषाही आधुनिक काल में प्रषा के मार्ग से होते हुए औपनिवेषिक सत्ता में इस्पाती रूप वाली स्वतंत्र भारत की लोक सेवा का अब चरित्र चित्रण कैसा है। षासन नीतियां बनाता है, प्रषासन नीतियों को लागू कराता है और नीतियों के प्रभाव से जनता को खुषियां मिलती हैं। अब यह मुद्दा अलग है कि खुषी किसे मिली, किसे नहीं मिली। सामुदायिक विकास कार्यक्रम से लेकर किसान सम्मान निधि तक की यात्रा में अनगिनत ग्रामीण विकास के साथ भारत विकास की योजनाएं आयी। बावजूद इसके कई विकास की बाट अभी भी जोह रहे हैं। इतना ही नहीं लाखों की तादाद में अन्नदाता गरीबी के चलते आत्महत्या कर चुके हैं। युवा रोज़गार की फिराक में कुंठित और अवसाद में जा रहा है। बुनियादी विकास जिस भी स्तर पर किया गया वह कम ही बना रहा। ऐसा क्या है कि पूरा नहीं हो रहा है या तो संसाधन का आभाव है या तो नौकरषाही विकास प्रषासन में तब्दील ही नहीं हो पायी। वैसे नौकरषाही षब्द का कायाकल्प हो चुका है। अब इसे लोकसेवक के तौर पर जाना जाता है। 

नौकरषाही को सही से समझने के लिए मैक्स वेबर के सामाजिक-आर्थिक प्रषासन की पड़ताल जरूरी है। जिसमें नौकरषाही को प्रभुत्व के लिए जाना जाता है। जब देष आजाद हुआ तब प्रषासन के सामने विकास प्रषासन की चुनौती थी मगर प्रषासनिक विकास के आभाव में यह उद्देष्य अधूरा ही रहा। भारत के प्रषासनिक अधिकारी यू.एल गोस्वामी ने अपने लेख द स्ट्रैक्चर आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन इन इण्डिया 1955 में विकास प्रषासन का पहली बार प्रयोग किया गया था जिसका मूल उद्देष्य सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन है। चूंकि वह दौर बहुत अलग था तुरंत आजादी का था और साथ ही विरासत में बंटवारा भी मिला था। आर्थिक दृश्टि से कमजोर समय था और विकास की दृश्टि से मांग बहुत बड़ी थी। जिन प्रषासकों पर विकास की जिम्मेदारी थी उनका स्वयं आधा-अधूरा विकास था। दो टूक यह है कि विकास प्रषासन प्रषासनिक विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। दरअसल सात दषक पहले 1952 में जब तुलनात्मक लोक प्रषासन के माध्यम से यह प्रयास हुआ कि एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरकिा के देषों के विकास का आधार क्या है तो पता चला कि इनका वही माॅडल है जिनके ये उपनिवेषवाद में थे। ऐसे में समस्याएं और बड़ी हो गयी। स्थिति को देखते हुए भारत जैसे देष जो कृशि प्रधान थे वो यूरोपीय देष जो औद्योगिक मामले में अगुआ थे माॅडल की नकल नहीं कर सकते जिन्होंने ऐसा किया वे विकास से अछूते रहे। विकास प्रषासन का उद्देष्य परिवर्तन लाना है और जबकि प्रषासनिक विकास प्रषासकों में परिवर्तन लाता है। नौकरषाही प्रषासनिक विकास के आभाव में विकास प्रषासन के उद्देष्य को हासिल नहीं कर सकती थी। ऐसा न हो पाना लोकहित के लिए भी नुकसानदायक है। समय और काल के अनुपात में सब कुछ बदला है। नौकरषाही लोक सेवक के रूप में परिवर्तित हुई। इस्पाती स्वरूप प्लास्टिक का रूप ले लिया मगर जिस तरह देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे है और इतने ही अषिक्षित साथ ही चिकित्सा व अन्य बुनियादी समस्याओं का खड़ा होना यह जताता है कि आज भी लोक सेवक नौकरषाही की भांति केवल नीतियों का क्रियान्वयन कर रहे हैं चाहे जनता का समुचित विकास हो रहा हैे या नहीं।

समावेषी विकास की कोषिष भी उदारीकरण के बाद प्रबल हुई। विष्व बैंक की अवधारणा स्टेटे टू मार्केट को भी अपनाया गया। सुषासन की नई परिभाशा को गढ़ कर नया क्लेवर-फ्लेवर भी दिया जाने लगा मगर नौकरषाही या लोक सेवा की बुनियाद में कमी क्या है इस पर षायद ठीक से गौर नहीं किया गया। 1965 में वाॅरेन बेनिस ने कहा था आगामी 3 दषक में नौकरषाही समाप्त हो जायेगी। नौकरषाही कहीं गयी नहीं, लोक सेवक के रूप में विद्यमान है मगर जब तक समावेषी विकास की अवधारणा पूरी तरह विस्तार नहीं लेगी तब तक इसका विकास प्रषासन के रूप में बन पाना सम्भव नहीं होगा। पहले चुनौती नौकरषाही को विकास प्रषासन में तब्दील करने की थी अभी भी लोकसेवकों को इसी रूप में बदलने की चुनौती है। 


 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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किसान व मज़दूर हेतु जान लड़ाने वाला महात्मा

कहा तो यह भी जाता है कि यदि 1892 में दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करने वाले एक भारतीय मुसलमान व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा गुजरात के राजकोट में वकालत करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी न स्वीकार करते तो इतिहास के पन्ने षायद एक महात्मा की गौरवगाथा से वंचित रह जाते। गांधी जी भारत के उन चमकते हुए सितारों में से थे जिन्होंने राश्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इतना ही नहीं राश्ट्रीय एकता के लिए औपनिवेषिक सत्ता के उन दिनों में अपने जीवन के हर कोने को बलिदान में तब्दील कर दिया। यही कारण है कि आधुनिक भारत व भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में गांधी युग का व्यापक विस्तार है। सभी जानते हैं कि 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में गांधी का जन्म हुआ। षिक्षा-दीक्षा और अंग्रेजों के सामने दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कई परीक्षा देने के बाद जब उनकी वापसी जनवरी 1915 में भारत हुई तब भारत नई करवट, नई ऊर्जा और औपनिवेषिक सत्ता के अधीन नई उम्मीदें पाल चुका था। दौर प्रथम विष्वयुद्ध का था कुछ भी भारतीयों के अनुकूल नहीं था अंग्रेजों से संघर्श और जीवन मूल्य की बढ़त को लेकर जिन्दगी सभी की दो-चार थी। बरसों की षिक्षा-दीक्षा, षोध-बोध, परामर्ष व विमर्ष से मैं यह कह सकता हूं कि चुनौतियों के बीच या तो आप स्वयं जाते हैं या तो उसका सामना करने के लिए बेबस होते हैं, कारण चाहे जो हो पर यह तो साफ है, कि आप महान बनने की राह पर तो है पर कितने महान होंगे ये वक्त पर छोड़ देना चाहिए। षायद यह कथन महात्मा गांधी के गौरवगाथा के साथ कहीं अधिक मेल खाता है। 

मोहनदास करमचंद गांधी भीड़ में एक ऐसा नाम था जो दौर के हिसाब से स्वर्णिम होता चला गया। ध्यान हो कि जब गांधी ने सत्याग्रह के एक बड़े प्रयोग के लिए 1917 में बिहार के चम्पारण गये तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी पर जब इसी चम्पारण ने गांधी की वापसी महात्मा के तौर पर करायी तो सभी को समझ में आया कि अंग्रेजों को सबक सिखाने में यह षख्स आगे भी बड़े काम का होगा और इतिहास खंगाल कर देखा जाय तो आजादी तक गांधी बड़े काम के ही सिद्ध हुए। गौरतलब है कि 19वीं षताब्दी के अंत तक जर्मनी के रासायनिक रंगों में नील बाजार को लगभग समाप्त कर दिया था। चम्पारण के यूरोपीय निलहे अपने कारखाने बंद करने के लिए बाध्य हो गये। अब किसान भी नील की खेती से मुक्ति चाहते थे पर अंग्रेजी नील के कारोबारी चतुराई के साथ इसका फायदा उठाया और अनुबंध से मुक्त करने के लिए लगान और अन्य गैरकानूनी करों को बढ़ा दिया। जाहिर है गरीबी की मार झेल रहे किसान इस दोहरी मार की चपेट में फंस गये। रास्ता निकालने की कोषिष की गयी। चम्पारण के ही एक किसान राजकुमार षुक्ल ने जब उस दौरान लखनऊ में गांधी से भेंट की तो वहां की व्यथा का वर्णन करते हुए उनसे चम्पारण आने का आग्रह किया। बेषक गांधी ने इसे पहली चुनौती के तौर पर तो नहीं पर किसानों के हित में जाना न केवल मुनासिब समझा बल्कि उन्हें तिनकठिया से मुक्ति दिलाकर अपने पहले सत्याग्रह की सफलता के साथ समाप्ति की। तिनकठिया का तात्पर्य किसानों को अपनी जमीन पर कम से कम 3/20 भाग पर खेती करना तथा उन मालिकों के तय दामों पर उन्हें बेचना है। सभी जानते हैं चम्पारण के दौरान गांधी को रोकने के साथ वापस जाने के लिए भी कहा गया पर षायद रोकने वाले यह नहीं जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका के औपनिवेषिक सत्ता में तपा एक गांधी में महात्मा के सारे लक्षण पहले से ही थे। और उक्त संदर्भ को सही साबित करते हुए चम्पारण से लौटे मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी के तौर पर दुनिया में अंकित हो गये। 

अक्सर यह प्रष्न प्रासंगिक भाव से भी उठते रहे हैं कि गांधी अब कितने प्रासंगिक हैं? वर्श 1917 के चम्पारण से पहला सत्याग्रह षुरू करने वाले गांधी भले ही 1948 में इस दुनिया से विदा हो गये हों पर चम्पारण के सौ साल बीतने के बाद भी प्रासंगिक प्रष्न आज भी मुरझाये नहीं है। किसान आज भी अपनी उपज के सही दाम और दुनिया का पेट भरने वाला अन्नदाता एक बुनियादी जिन्दगी जीने के लिए तरस रहा है इसके लिए या तो सरकार की नीतियां गलत है या फिर किसान की किस्मत ही ऐसी होती है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है गांधी औपनिवेषिक सत्ता के दौर की वे षक्ति थे जो कमजोर दौर में भी ऊर्जा निर्माण करने का काम कर लेते थे साथ ही किसान और मजदूरों के लिए जान लगा देते थे। राश्ट्रीय एकता और अखण्डता की यदि प्रचुर मात्रा देखनी हो तो गांधी अध्याय पढ़ा जा सकता है। कहां कितना करना है और कितना समझना है आंदोलन को लेकर धैर्य कितना धारण करना है इन सभी के ज्ञान-विज्ञान से गांधी बेहतरीन तरीके से वाकिफ थे। खिलाफत आंदोलन समेत असहयोग आंदोलन से लेकर जेल यात्रा तक, छुआछूत मिटाने से लेकर स्वच्छता अभियान तक साथ ही सत्य और अहिंसा की कसौटी पर सभी को कसने की कोषिष करना, ये सभी बातें गांधी की असीम ताकत का वर्णन नहीं तो और क्या है। जब बात उठती है कि गांधी की प्रासंगिकता कितनी, तो उक्त कृत्य को देखकर और समझकर जरा सा भी असमंजस नहीं होता कि आज ही नहीं भविश्य में भी गांधी प्रासंगिक रहेंगे। सविनय अवज्ञा आंदोलन और वायसराय लाॅर्ड इर्विन के सामने समानता के साथ समझौता करना, दूसरे गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधि के तौर पर इंग्लैण्ड में महीनों अंग्रेजों के सामने भारत की सम्प्रभुता और उससे जुड़ी संवेदना को लेकर सौदेबाजी करना पर खाली हाथ वापस आना उक्त को एक महात्मा की पराकाश्ठा ही तो कहा जायेगा। वर्ग विन्यास व ऊंच-नीच के चलते नाखुष अम्बेडकर के साथ पूना समझौता। इतना ही नहीं छुआछूत को लेकर व्यथित होना साथ ही सत्य और अहिंसा की कसौटी पर स्वयं को कसते रहना गांधी की महानता की नई-नई व्याख्याएं हैं। इतिहास के पन्नों पर कालचक्र के अनुपात में गांधी को खूब उकेरा गया है पर जितनी बार पढ़ा गया एक नये गांधी से परिचय भी हुआ। 

चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्श पूरे हो चुके हैं जिन किसानों के लिए गांधी ने अंग्रेजों से बिहार में लोहा लिया वही किसान आज के दौर में व्यथित हैं। ढ़ाई दषक का इतिहास इस बात को तस्तीक करता है कि तीन लाख से अधिक अन्नदाता फसल बर्बादी, कर्ज के दबाव और दो वक्त की रोटी न जुटा पाने के चलते दुनिया को अलविदा कर चुके हैं। सूखा पड़ा तो किसान मरा, बाढ़ आई तो किसान बर्बाद हुआ पर एक सच यह रहा कि बढ़ते जीडीपी के इस दौर में सबकी आर्थिक स्थिति तुलनात्मक विस्तार लिया है पर किसानों का एक वर्ग ऐसा है जो गरीबी और मुफलिसी के चलते आज भी जान दे रहा है। सवाल है कि महात्मा गांधी की यहां क्या प्रासंगिकता है। चम्पारण के जिन किसानों को अंग्रेजी निलहे के अनुबंध से मुक्त करा के धान की खेती की स्वतंत्रता गांधी ने दिलाई थी आज उन्हीं की पीढ़ियां सौ साल बीतने के बाद भी मौत के कगार पर क्यों खड़ी है। इतिहास के पन्ने जब-जब इस बात के लिए उकेरे जायेंगे कि चम्पारण गांधी का पहला सत्याग्रह था तब-तब यह बात अनायास उभरेगी कि गांधी के विचारों को अपनाने और मानने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि आज भी गरीबी और मुफलिसी के अनुबंध से अन्नदाता मुक्त नहीं हैं। दो टूक यह भी है कि महात्मा बनने का मार्ग अभी भी बंद नहीं हुआ है पर षायद गांधी बनने की परम्परा समाप्त हो चुकी है। जाहिर है कि महात्मा से पहले गांधी तो बनना पड़ेगा। फर्क सिर्फ इतना है कि वो दौर औपनिवेषिक सत्ता का था अब संघर्श अपनों के बीच है पर कई काम जिसे 1917 में गांधी ने षुरू किया था वक्त के साथ अभी भी अधूरे हैं जिसकी जिम्मेदारी आज के दौर के गांधी को उठाना होगा।



सुशील कुमार सिंह

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