Tuesday, July 27, 2021

बारिश, बाढ़ और वैश्विक जगत

भारत में बाढ़, तूफान और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से पिछले तीन वर्शों के दौरान रोजाना औसतन 5 लोगों की मौत हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ से कमोबेष देष का आधा हिस्सा चपेट में आ ही जाता है। बीते 18 जुलाई तक के आंकड़े यह बताते हैं कि अकेले इसी साल बाढ़ के चलते बिहार और असम में मरने वालों की तादाद 2 सौ के पार है। गौरतलब है कि पहले बाढ़ का कहर झेलते हैं और फिर बाढ़ के पानी के उतरने के पष्चात् भिन्न-भिन्न बीमारियों से जूझते हैं। जब तक जन-जीवन पटरी पर आता है तब तक एक और बाढ़ का समय आ चुका होता है और कहानी फिर स्वयं को दोहराती है। नदी का जल उफान के समय जब जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्ती और आसपास की जमीन को चपेट में लेता है तो इसी को बाढ़ की स्थिति कहते हैं। हालांकि यह अचानक नहीं होता। दक्षिण-पष्चिम मानसून भारत में कब आयेगा और किस औसत से बारिष होगी इसका अंदाजा भी मौसम विज्ञान को रहता है। फलस्वरूप बाढ़ से बचने का कोई विकल्प मानसून की स्थिति को देखते हुए सोचा जा सकता है। भारी बारिष और लचर सरकारी नीतियां मसलन बाढ़ और तटबंधों के निर्माण में कमी या उनकी कमजोरी के चलते उनके टूटने से हर साल विस्तृत क्षेत्र पानी की चपेट में आता है जिसमें बिहार और असम में भयावह रूप लिये बाढ़ लाखों को पानी-पानी करता है और कईयों के प्राण पर भारी पड़ता है।

कोरोना संकट के इस दौर में मुष्किलें चैगुनी हुई हैं ऐसे में बाढ़ का कहर रही सही कसर को भी मानो पूरी कर रहा हो। महज कुछ हफ्तों की बाढ़ राज्य और सम्बंधित इलाकों की अर्थव्यवस्था को अपने साथ भी बहा ले जाती है। बावजूद इसके साल दर साल बाढ़ का पानी चढ़ने और फिर उतरने का इंतजार बरकरार रहता है। बाढ़ से पहले जान-माल के नुकसान को रोकने को लेकर उठाये जाने वाले कदम और उससे जुड़े उपाय के मामले में राज्य और केन्द्र सरकार की उदासीनता किसी से छुपी नहीं है। यदि सरकारों में सक्रियता होती तो पानी को दिषा मिलता और लोगों की जान-माल को सुरक्षा। हालांकि एक तरफा सरकारों को दोशी ठहराना उचित नहीं है। पर्यावरण का लगातार होता क्षय और नदियों के साथ हो रही ज्यादती भी इसका कारण है। 

बाढ़ की चपेट में यूरोप

वैसे यह बाढ़ की भीशण तबाही अकेले भारत की नहीं है। इस बार तो यूरोप भी पानी-पानी हुआ है। यहां भी सैकड़ों लापता हैं और मरने वालों की तादाद भी अच्छी खासी रही है। यूरोप में सौ साल की तुलना में सबसे भयंकर बाढ़ है तो चीन में हजार साल की तुलना में सबसे अधिक बारिष हुई। यूरोप के कई देष जैसे जर्मनी, बेल्जियम, स्विटजरलैण्ड, लक्जमबर्ग और नीदरलैण्ड समेत स्पेन आदि देषों में बारिष ने सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिये हैं। अधिकांष यूरोपीय देष में बाढ़ के हालात पैदा हुए मगर नीदरलैण्ड ने अपने जल प्रबंधन के चलते भारी बारिष के बावजूद कोई जन हानि नहीं होने दिया। आर्थिक बुलंदियों वाला जर्मनी बाढ़ से सबसे ज्यादा नुकसान झेला है। बाढ़ के चलते यहां ग्रामीण इलाकों में बड़ा नुकसान हुआ। रेल और सड़क सम्पर्क टूट गये और सैकड़ों की तादाद में लोगों को जान गंवानी पड़ी। बर्बादी इस कदर है कि इसकी भरपाई के लिए तीन सौ मिलियन यूरो खर्च करने पड़ेंगे। बेल्जियम में भी अब तक का सबसे विनाषकारी बाढ़ देखा जा सकता है। बाढ़ से मौत पर यहां राश्ट्रीय षोक दिवस भी घोशित किया गया। स्विटजरलैण्ड ने बारिष के चलते झीलें और नदियां उफान ले लीं जिन्हें सामान्य होने में अभी इंतजार करना पड़ रहा है। यहां भी लगभग 5 सौ मिलियन डाॅलर का नुकसान बताया जाता है। गौरतलब है कि नीदरलैण्ड सदियों से समुद्र और उफनती नदियों से जूझ रहा है। इसका अधिकांष भूमि समुद्र तल से नीचे है ऐसे में 66 फीसद हिस्से में बाढ़ आने का जोखिम बना रहता है मगर नीदरलैंड अपने बुनियादी ढांचे में किये गये बेहतरीन जल प्रबंधन के चलते नुकसान को रोकने में सक्षम है। ब्रिटेन भी बाढ़ की स्थिति से नहीं बचा मगर तबाही जैसी स्थिति नहीं है। मगर यह रहा है कि ब्रिटेन खराब मौसम के हालात से निपटने के लिए 5 साल के मुकाबले कम तैयार था। आंकड़े यह बताते हैं कि यूरोप को 70 हजार करोड़ का नुकसान इस बाढ़ वाली त्रासदी से हुआ है।

अमेरिका और चीन की स्थिति 

दुनिया का सबसे अमीर देष अमेरिका जिसकी अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डाॅलर के आसपास है वह भी एक तरफ भीशण गर्मी तो दूसरी तरफ बाढ़ की चपेट में है। भारी बारिष ने न केवल रिकाॅर्ड तोड़ा बल्कि व्हाइट हाउस के बेसमेंट आॅफिस में भी पानी घुस गया। गौरतलब है कि दक्षिण-पष्चिम अमेरिकी राज्यों में भीशण गर्मी से लोगों का जीवन मुहाल है जबकि दक्षिण-पूर्वी राज्यों ने भीशण चक्रवाती तूफान से हो रही बारिष ने कहर ढहाया और इसके पहले इसी साल मार्च में अमेरिका के उत्तरी राज्यों में इतनी बर्फ गिरी कि हफ्ते तक बिजली गुल रही। अनुमान यह बताते हैं कि यहां पड़ने वाली इस बार की गर्मी 1913 में डेथ वैली रिकाॅर्ड तापमान को भी पीछे छोड़ सकती है। गर्मी से 50 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं। दुनिया भर में कोरोना फैलाने का जिम्मेदार माने जाने वाले चीन में बीते एक हजार सालों के मुकाबले इस बार मूसलाधार बारिष हो रही है। चीन में बाढ़ की स्थिति इस कदर बिगड़ी कि पैसेंजर ट्रेनों में भी अंदर गले तक पानी भरने का चित्र देखा गया। हालांकि यह अंडर ग्राउंड स्टेषन की बात है। बारिष का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन के झेंगझोउ प्रांत में रिकाॅर्ड 617 मिलिमीटर बारिष दर्ज की गयी और यह आंकड़ा 3 दिन का है जबकि यहां साल भर में 640 मिलीमीटर बारिष होती है। चीन की तबाही का मंजर सोषल मीडिया पर भी खूब वायरल हुआ। 

दुनिया का जल निकासी प्रबंधन 

यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं में किसी का बस नहीं चलता न इसे पूरी तरह रोका जा सकता है मगर सही रणनीति और तकनीक और साथ ही इसके प्रति सजगता विकसित की जाये तो जान-माल का नुकसान कम किया जा सकता है। हालांकि कई देष ऐसे हैं जिन्होंने इस मामले में अपने को पूरी तरह मुक्त भी किया है। छोटा सा देष सिंगापुर अपने ड्रेनेज सिस्टम को लगभग 30 वर्शों में 9 सौ करोड़ रूपए खर्च करके पूरी तरह बाढ़ नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। यहां 98 फीसद बाढ़ की कमी देखी जा सकती है। यूरोप का ठण्डा प्रदेष नीदरलैण्ड 66 फीसद बाढ़ से प्रभावित होता था पर अब ऐसा नहीं होता। उसने पानी से लड़ने के बजाय पानी के साथ जीने का रास्ता अपनाया और जल भराव से निपटने का सही तरीका। गौरतलब है यहां 4 सौ साल पहले ही पानी निकासी बन चुकी थी। जापान भी जल प्रबंधन के मामले में काफी बेहतरीन देषों में एक है। फ्रांस को इस मामले में सौ बरस पहले 1910 से ही जागरूक देखा जा सकता है। यहां जलाषयों का जाल बिछाया गया है जो महान झीलों के रूप में अलग-अलग पहचान रखती है जबकि लंदन के टेम्स नदी में एक विषालकाय बैरियर बना हुआ है जिसका काम बाढ़ नियंत्रण करना है। इसके अतिरिक्त भी कई देष हैं जो जल निकासी के मामले में बेहतरी के लिए जाने जाते हैं। भारत को भी बाढ़ से निपटने के लिए बेहतरीन तकनीक खोजनी होगी और इसको जमीन पर उतारना भी होगा। 

भारत में बाढ़ की बाढ़ क्यों

यह किसी से छुपा नहीं है कि पृथ्वी स्वयं में परिवर्तन करती है और कुछ मानव क्रियाकलापों ने इसको बदला है। जलवायु परिवर्तन के अतिरिक्त मानव गतिविधियों ने प्राकृतिक आपदा को कई गुना मौका दिया है इसी में एक बाढ़ भी है। मगर बेहतरीन जल प्रबंधन से इससे बचा भी जा सकता है और पानी को सही दिषा दिया जा सकता है। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ने 21 जुलाई 2017 बाढ़ नियंत्रक और बाढ़ पूर्वानुमान पर अपनी एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-2008 से 2015-16 निहित हैं। उक्त से यह स्पश्ट होता है कि कोषिषें जारी रहीं पर बाढ़ बरकरार रहीं। केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़े को देखें तो 1950 में महज 371 बांध देष में थे। अब इसकी संख्या 5 हजार के इर्द-गिर्द है। पिछले कुछ वर्शों से असम में बाढ़ की विनाषलीला भी तेज हुई है। इसके पीछे प्रमुख कारण अरूणाचल प्रदेष में पन बिजली परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर बांधों को दी गयी मंजूरी है। गौरतलब है कि नदियों पर बनने वाले बांध और तटबंध जल के प्राकृतिक बहाव में बाधा डालते हैं। बारिष की स्थिति में नदियां उफान लेती हैं और इसी तटबंध को तोड़ते हुए मानव बस्ती को डुबो देती हैं। विष्व बैंक ने भी कई बार यह बात कही है कि गंगा और ब्रह्यपुत्र नदियों पर जो बांध बने हैं उसके फायदे के स्थान पर नुकसान अधिक होता है। यह भी रहा है कि तटबंधों में दरार आने और उनके टूटने के चलते पानी अनियंत्रित हुआ है। आम तौर पर ये बाढ़ आने के कारणों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई है। पेड़ लगाने की मुहिम तो दिखाई देती है मगर चोरी-छिपे दषकों पुराने पेड़ को कब काट दिया जाता है इसकी खबर न सरकार को हो रही है और न गैर सरकारी संगठनों को। फैलते षहर, सिकुड़ती नदियां और लगातार हो रहा जलवायु परिवर्तन बाढ़ को बढ़त दे रहा है। 

निपटा कैसे जाये?

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि बाढ़ से निपटने के लिए क्या किया जाये? तकनीकी विकास के साथ-साथ मौसम विज्ञान के विषेशज्ञों को मानसून की सटीक भविश्यवाणी करनी चाहिए जबकि अभी यह भविश्यवाणी 50 से 60 फीसद ही सही ठहरती है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में चेतावनी केन्द्र की बात बरसों से लटकी हुई है। सीएजी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि अब तक 15 राज्यों में इसे लेकर कोई प्रगति नहीं हुई है और जहां यह केन्द्र बने हैं वहां की मषीने खराब हैं। ऐसे में असम और बिहार समेत निगरानी केन्द्र सभी बाढ़ इलाकों में नूतन तकनीक के साथ स्थापित होने चाहिए। हालांकि इन दिनों बाढ़ से महाराश्ट्र, गोवा आदि प्रदेष भी चपेट में है। बाढ़ तो जम्मू-कष्मीर में भी भीशण रूप ले लेती है। पिछले कुछ वर्शों से देखा जाये तो भारत का लगभग हिस्सा कहीं कम तो कहीं ज्यादा बाढ़ की वजह से नुकसान में रहा है। ऐसे में जरूरी है कि जल निकासी प्रबंधन को बिना किसी हीला-हवाली के ठीक किया जाये। बाढ़ भारतीय संविधान में निहित राज्य सूची का विशय है। कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विशय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है मगर केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी मार्गदर्षन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। राज्यों की आर्थिकी को ध्यान में रखते हुए केन्द्र को और दो कदम आगे होना चाहिये। बादल फटना, गाद का संचय होना, मानव निर्मित अवरोधों का उत्पन्न होना और वनों की कटाई जैसे अन्य कारण बाढ़ के लिए जिम्मेदार हैं इस पर भी ठोस कदम हों। गौरतलब है कि चीन, भारत, भूटान और बांग्लादेष में फैले एक बड़े बेसिन क्षेत्र के साथ ब्रह्यपुत्र नदी अपने साथ भारी मात्रा में जल और गाद का मिश्रण लाती है। जिससे असम में कटाव की घटना में वृद्धि होती है और लाखों पानी-पानी हो जाते हैं। कुछ वर्श पहले सरकार की यह रिपोर्ट थी कि साल 1953 से 2017 के बीच बारिष और बाढ़ के चलते 3 लाख 65 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है जो 3 से 4 महीने का सामान्य स्थिति में जीएसटी कलेक्षन के बराबर है और एक लाख लोगों की जान भी गयी है। 

भारी बारिष और बाढ़ की वजह से तबाही तो होती है भीशण गर्मी और सूखे भी तबाही के प्रतीक हैं। अंतर्राश्ट्रीय श्रम आयोग की रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि 2030 तक प्रचण्ड गर्मी के कारण भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ नौकरियां खत्म हो जायेंगी। फिलहाल गर्मी और बाढ़ दोनों जलवायु परिवर्तन और मानव क्रियाकलाप का परिणाम है जिसे रोकते-रोकते दषकों हो गये मगर परिणाम ढाक के तीन पात हैं पर इससे उत्पन्न बाढ़ जैसी तबाही को रोकने के लिए सरकारें ठोस कदम उठा सकती हैं। समझने वाली बात तो यह भी है कि दक्षिण पष्चिम मानसून से ही भारत में पैदावार में बाढ़ आती है। मानसून भी बना रहे और बाढ़ पर नियंत्रण भी पा लिया जाये तो यह सोने पर सुहागा हो। 

(27  जुलाई, 2021)


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल:susilksingh589@gmail.com


Wednesday, July 14, 2021

असहमति और अभिव्यक्ति का अधिकार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार सत्ता संभालने के एक माह बाद जून 2014 में कहा था “अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा।” गौरतलब है कि लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी मूल्य है और संविधान में इन्हें कहीं अधिक महत्व दिया गया है। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा और जनता के लिए निहायत उदार दृश्टि से भरा है। इसी संविधान के भीतर अनुच्छेद 19(1)(क) में मूल अधिकार के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है जो न केवल लोक सषक्तिकरण का पर्याय है बल्कि षासन व्यवस्था को लोकहित में समर्पित बनाये रखने का अनूठा काज भी करता है। अर्थषास्त्र में नोबल पुरस्कार पाने वाले भारतीय अर्मत्य सेन की पुस्तक ‘द आर्गुमेंटेटिव इण्डियन‘ इसकी प्रासंगिकता को आज भी उजागर करती है। अभिव्यक्ति को असहमति से जोड़ना उतना ही समुचित है जितना की सहमति से, जिसकी इजाजत संविधान भी देता है और औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में यही सब हासिल करने के लिए वर्शों संघर्श किया गया। दरअसल सहमति और असहमति लोकतंत्र की दो खूबसूरत औजार हैं। एक तभी बेहतर होता है जब दूसरा सक्रिय होता है और जब देष में प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती के साथ लोकहित की जद्द में अन्तिम व्यक्ति भी षामिल होता है तो देष का नागरिक असहमति से सहमति की ओर स्वयं गमन कर लेता है। जाहिर है असहमतियों का दमन लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है। एक सभ्य और सहिश्णु समाज के निर्माण के लिहाज़ से असहमतियों को भी स्थान मिलना चाहिए। 

हालिया परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीष न्यायमूर्ति डी.वाई चन्द्रचूड़ ने असहमतियों के दमन के संदर्भ में जो टिप्पणी की, वह न केवल लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत करने वाली है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी नया आसमान देने वाला है। गौरतलब है कि अमेरिकन बार एसोसिएषन, सोसायटी फाॅर इण्डियन लाॅ फर्मस और चार्टड इंस्टिट्यूट आॅफ आर्बिट्रेटर्स द्वारा आयोजित भारत-अमेरिका कानूनी सम्बंधों पर साझा ग्रीश्मकालीन सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि नागरिक असहमतियों को दबाने के लिए आतंकवाद विरोधी कानूनों या आपराधिक अधिनियमों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जाहिर है इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के भीतर असहमति इसकी विषेशता और महत्ता है और संसदीय प्रणाली को आदर्ष से लबालब करना है तो असहमतियों को भी जगह देना होगा। न्यायमूर्ति ने यह भी कहा है कि हमारी अदालतों को यह निष्चित करना चाहिए कि वे नागरिकों को आजादी से वंचित करने के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति बनी रहें। यहां स्पश्ट कर दें कि सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। वाक् एवं अभिव्यक्ति समेत कई मूल अधिकार नागरिकों और व्यक्तियों को मिले हैं। किसी भी प्रसंग या विशय पर सहमत या असहमत होना यह उनका अधिकार है। मूल अधिकारों के दमन होने की स्थिति में अनुच्छेद 13 के अंतर्गत न्यायिक पुर्नविलोकन के तहत लोगों को सर्वोच्च न्यायालय रक्षा कवच देता है। स्पश्ट है कि विधायिका या न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकार चोटिल कर सकती हैं मगर न्यायपालिका न केवल रक्षा करती है बल्कि एक सजग प्रहरी की भूमिका भी निभाती है।

भारत में कानून का षासन है और कानून के समक्ष सभी समान हैं साथ ही यहां के लोकतंत्र ने भी एक लम्बा सफर तय किया है। लोकतंत्र में विचार हमेषा स्थिर रहें ऐसा जरूरी नहीं है। षासन के कामकाज और स्थिति के अनुपात में नागरिकों के विचार में भी उथल-पुथल आता है। असहमति भी हो सकती है मगर इसका तात्पर्य न तो अपराध है और न ही राजद्रोह है। देखा जाये तो सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कह चुका है कि सरकार से असहमत होना राश्ट्र से विरोध नहीं है। कानून का राज कायम करने के लिए यह जरूरी है कि लोकतंत्र की मर्यादा अक्षुण्ण बनाये रखा जाये। गौरतलब है कि लोकतांत्रिक देष मसलन भारत में न्याय की अन्तिम आवाज अदालत ही होती है। वाक् एवं अभिव्यक्ति की क्या सीमा हो और असहमति का क्या स्तर हो इसका भी चिंतन और मनन होना चाहिए। वैसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कुछ अभिव्यक्तियों में निर्बन्धन की बात है। मौजूदा समय में वाक् एवं अभिव्यक्ति के कई आयाम देखे जा सकते हैं। इंटरनेट के इस युग में सोषल मीडिया जिस तरह से पहुंच में है वह अभिव्यक्ति की असीम ताकत बन गयी है। इसकी अभिव्यक्ति की सीमा को लेकर कई बार सरकार भी असमंजस में रही है और इस पर आंषिक निर्बन्धन का भी संदर्भ प्रकाष में आते रहे हैं। हालांकि इस पर हुआ कुछ नहीं और यह मीडिया बिना रोक-टोक अनवरत् जारी है।

कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल भी किया है। मगर कई ऐसे भी हैं जिन्होंने न्यायोचित असहमति जतायी और उन्हें न्याय के पचड़े में डाल दिया गया। और ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां पत्रकारिता के सटीकपन के चलते उन पर आपराधिक आरोप लगाये गये हैं। हालांकि यह सब पड़ताल का विशय है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ सिंह अर्नब गोस्वामी मामले में अपने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि आतंकवाद विरोधी कानून सहित आपराधिक कानून, नागरिकों का असंतोश या उत्पीड़न को दबाने के लिए दुरूपयोग नहीं किया जा सकता। एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता का हनन होना काफी ज्यादा है। वैसे देखा जाये तो असहमतियां लोकतंत्र के प्रति निश्ठा का ही एक संदर्भ है बषर्ते इसके सहारे राश्ट्र विरोधी गतिविधियों को मौका नहीं मिलना चाहिए। सरकारें आती और जाती रहेंगी मगर लोकतंत्र कायम रहना चाहिए। संविधान के निहित मापदण्ड और न्याय व्यवस्था का विस्तार सघनता से बना रहना चाहिए। कानून की आड़ में असहमति का दम घोटना उचित नहीं है। बल्कि असहमति से प्रभावित होकर जन सषक्तिकरण व लोक कल्याण के हित में सुषासनिक पहल को मजबूत करना चाहिए यही राश्ट्र विकास का षस्त्र भी है और षास्त्र भी। 

14 जुलाई, 2021




डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Monday, July 12, 2021

महामारी का दौर और गांधीवाद

महामारी को पूरी तरह काबू में करने के लिए जब यह सुनिष्चित हो गया कि लाॅकडाउन ही अन्तिम विकल्प है साथ ही लोग घर में रहें और सुरक्षित रहें तभी जीवन यापन से जुड़े हालात भी मुखर हो गये थे। हालांकि सरकार ने 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज देने और 20 लाख करोड़ रूपए के आर्थिक पैकेज की घोशणा कर दी थी। मगर हालात कितने सुधरे यह पड़ताल का विशय है। कोविड-19 जैसी महामारी का सबसे भयानक लक्षण इसका अनिष्चित होना है। इसकी बार-बार की उपस्थिति सभ्यता के लिए न केवल चुनौती है बल्कि असमय आम जन मानस को जान से भी हाथ धोना पड़ रहा है। जब सामाजिक-आर्थिक प्रणालियां अपनी सतत् व्यवस्था से बेपटरी हो जायें तो बदलाव की एक नई गुंजाइष जन्म लेती है। आत्मनिर्भर भारत इसी कड़ी में उदित एक ऐसी व्यवस्था है जो महामारी के बीच उम्मीदों के बोझ से दबी है। अधिक निरंतरता लाने में संलग्न किसी भी प्रयास की भावना गांधीवादी चिंतन है। जो हालात मौजूदा परिस्थिति में हैं वह समुचित विष्व को संकट की ओर धकेल दिया है। परिस्थितियों की इस विकटता को देखें तो मानवीय प्रबंधन स्वयं का एक दक्ष विशय बन गया है। जब विकल्प कम हो जायें तब आत्मनिर्भर होने का पथ चिकना करना पड़ता है। गांधी का दृश्टिकोण ऐसे रास्तों से मेल खाता है।

सरकार की व्यवस्था कैसी है और जनता के लिए कितनी कारगर है यह प्रष्न कहीं गया नहीं है और इस प्रष्न से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि महामारी के चलते षायद न केवल मनोदषा बल्कि जीवन दर्षन में भी फेरबदल हुआ है। गांधी ने इच्छाओं पर नियंत्रण की बात खूब कही है। अहिंसा के साथ सत्य का प्रयोग भी उनके सिद्धांतों में रचा-बसा है। गांधीवादी अर्थषास्त्र पर नजर डालें तो पृथ्वी आवष्यकता तो पूरी कर सकती है मगर लालच को नहीं। महामारी ने लोगों को जिस तरह उनकी आवष्यकता की पूर्ति हेतु जोर से धक्का दिया है उसमें लालच चकनाचूर हुआ है। साल 1922 का गांधी दर्षन सर्वोदय 2021 में कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। सभी के उदय से युक्त कामना की यह विचारधारा गांधी दर्षन का एक निचोड़ भी है जिसका मूर्त रूप 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान के भाग 4 में निहित नीति-निदेषक तत्व में देखा जा सकता है। वैसे वक्त कैसा भी हो गांधी दृश्टिकोण प्रासंगिक हमेषा ही रहा है मगर जब बात महामारी की हो तब यही विचारधारा तुलनात्मक और बड़ी बन जाती है। फिलहाल हालात यह हैं कि रोज़मर्रा की आवष्यकता के लिए करोड़ों जद्दोजहद में लगे हैं। जिस तरह कमाई खतरे में पड़ी है वह गरीबी को बड़ा स्तर देने की ओर है। मौजूदा आंकड़ा तो कहता है कि देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतना ही अषिक्षित भी। सम्भव है कि महामारी ने गरीबी की मात्रा बढ़ाया ही होगा। प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट से तो सरसरी तौर पर तो यही पता चलता है कि महामारी ने करीब 3 करोड़ मध्यम आय वर्ग वालों को निम्न आय वर्ग की ओर धकेल दिया है और जबकि निम्न आय वर्ग के करोड़ों लोग गरीबी की ओर गतिमान कर चुके हैं। गौरतलब है कि प्रतिदिन 1.9 डाॅलर से कम कमाई पर गरीबी निर्धारित की गयी और 10 डाॅलर से अधिक में मध्यम आय वर्ग वाले आते हैं जबकि इन दोनों के बीच निम्न आय वर्ग होता है। यदि यही कमाई 50 डाॅलर या उससे अधिक प्रतिदिन के हिसाब से हो जाये तो यह उच्च आय वर्ग को दर्षाता है।

चुनौती कहां है इसे ढूंढने के काम को भी कमतर नहीं आंक सकते। असल में महामारी के चलते जिस तादाद में पलायन हुआ वहां रोज़गार और जीवन की परिस्थिति खोजना, घटती कमाई के बीच बढ़ते अपराध से निपटना, दस्तकारी, षिल्पकारी और ग्रामीण सांस्कृतिक परिवेष में निहित उन पुराने रोजगार के संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक दृश्टिकोण को उभारना आदि की प्रबल संभावना उजागार हुई है। इसके अलावा खाद्य प्रसंस्करण जैसी कृशि आधारित और सम्बंधित व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देना। ग्रामीण महिलाओं को प्रषिक्षण के माध्यम से सजग बनाते हुए आत्मनिर्भर बनाने के साथ देष की जीडीपी में योगदान देना। गौरतलब है कि विष्व बैंक ने बरसों पहले कहा है कि यदि भारत की महिलाओं को रोज़गार से जोड़ा जाये तो देष की जीडीपी 4 प्रतिषत और बढ़त ले लेगी। ध्यानतव्य हो महामारी अभी भी जारी है वापस लौटे प्रवासियों का प्रयोग गांधीवादी दर्षन से ही सम्भव है। बुनियादी ढांचे में सुधार, बैद्धिक सम्पदा का निर्माण, पारिस्थितिकी के अनुपात में एमएसएमई स्थापित करने मसलन कृशि एवं गैर कृशि से जुड़े रोज़गार को बढ़ावा देना साथ ही सम्मानजनक जीवन को बड़ा करना गांधी विचारधारा से ही सम्भव है। जिसमें पर्यावरण का सरोकार, सतत् विकास के साथ समावेषी दृश्टिकोण की संलग्नता हो। जाहिर है इन तमाम की उपादेयता और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन कम से कम ऐसे दौर में गांधी दर्षन में ही निहित हैं। 

(12 जुलाई, 2021)


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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परिसंघीय ढांचे पर जीएसटी का प्रभाव

देश में कई सारे अप्रत्यक्ष करों को समाहित कर आज से ठीक 4 साल पहले 1 जुलाई 2017 को एक नया आर्थिक कानून वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू हुआ था। इस एकल कर व्यवस्था से राज्यों को होने वाले राजस्व कर की भरपाई हेतु पांच साल तक मुआवजा देने का प्रावधान भी इसमें षामिल था जिसके लिए एक कोश बनाया गया जिसका संग्रह 15 फीसद तक के सेस से होता है। गौरतलब है कि जीएसटी लागू होने से पहले ही केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आपस में इस बात पर सहमति का प्रयास किया गया था कि इसके माध्यम से प्राप्त राजस्व में केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व का बंटवारा किस तरह किया जायेगा। ध्यानतव्य हो कि पहले इस तरह के राजस्व का वितरण वित्त आयोग की सिफारिषों के आधार पर किया जाता था। जीएसटी का एक महत्वपूर्ण संदर्भ यह रहा है कि इस प्रणाली के लागू होने से कई राज्य इस आषंका में षामिल रहे हैं कि इनकी आमदनी इससे कम हो सकती है और यह आषंका सही भी है। हालांकि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र ने राज्यों को यह भरोसा दिलाया था कि साल 2022 तक उनके नुकसान की भरपाई की जायेगी। मगर पड़ताल यह बताती है कि बकाया निपटाने के मामले में केन्द्र सरकार पूरी तरह खरी नहीं उतर पा रही है। समझने वाली बात यह भी है कि पिछले साल दो लाख 35 हजार करोड़ रूपए की राजस्व कमी पर केन्द्र सरकार ने राज्यों को सुझाव दिया था कि वे इस कमी को पूरा करने के लिए उधार लें जिससे राज्यों में सहमति का अभाव देखा जा सकता है। इसी दौरान सरकार ने दो विकल्प सुझाये थे पहला यह कि राज्य सरकारें राजस्व की भरपाई हेतु कुल राजस्व का आधा उधार उठायेंगी और उसके मूल और ब्याज दोनों की अदायगी भविश्य में विलासिता वाली वस्तुओं और अवगुण वाली वस्तुओं पर लगाये जाने वाली क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी। दूसरा विकल्प यह था कि राज्य सरकारें पूरे नुकसान की राषि को उधार लेंगी लेकिन उस परिस्थिति में मूल की अदायगी को क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी मगर ब्याज के बड़े हिस्से की अदायगी उन्हें स्वयं करनी होगी। पहले विकल्प को बीजेपी षासित और उनके गठबंधन वाली सरकारों ने तो स्वीकार किया लेकिन षेश 10 राज्यों ने इसे खारिज किया। 

पड़ताल यह बताती है कि वित्तीय सम्बंध के मामले में संघ और राज्य के बीच समय-समय पर कठिनाईयां आती रही हैं। सहकारी संघवाद के अनुकूल ढंाचा की जब भी बात होती है तो यह भरोसा बढ़ाने का प्रयास होता है कि समरसता का विकास हो। आरबीआई के पूर्व गर्वनर डी0 सुब्बाराव ने कहा था कि जिस प्रकार देष का आर्थिक केन्द्र राज्यों की ओर स्थानांतरित हो रहा है उसे देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारत का आर्थिक विकास सहकारी संघवाद पर टिका देखा जा सकता है। गौरतलब है कि संघवाद अंग्रेजी षब्द फेडरेलिज़्म का हिन्दी अनुवाद है और इस षब्द की उत्पत्ति लैटिन भाशा से हुई है जिसका अर्थ समझौता या अनुबंध है। जीएसटी संघ और राज्य के बीच एक ऐसा अनुबंध है जिसे आर्थिक रूप से सहकारी संघवाद कहा जा सकता है मगर जब अनुबंध पूरे न पड़े तो विवाद का होना लाज़मी है। वित्तीय लेन-देन के मामले में अभी भी समस्या समाधान नहीं हुआ। जुलाई 2017 में पहली बार जब जीएसटी आया तब इस माह का राजस्व संग्रह 95 हजार करोड़ के आसपास था। धीरे-धीरे गिरावट के साथ यह 80 हजार करोड़ पर भी पहुंचा था और यह उतार-चढ़ाव चलता रहा। जीएसटी को पूरे 4 साल हो गये मगर इन 48 महीनों में बहुत कम अवसर रहे जब यह 1 लाख करोड़ रूपए के आंकड़े को पार किया। कोविड-19 महामारी के चलते अप्रैल 2020 में इसका संग्रह 32 हजार करोड़ तक आकर सिमट गया जबकि दूसरी लहर के बीच अप्रैल 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 41 हजार करोड़ का है जो पूरे 4 साल में सर्वाधिक है। हालांकि बीते 8 महीने से जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक का बना हुआ है। मगर जून 2021 में यह 93 हजार पर सिमट गया। एक दौर ऐसा भी था कि दिसम्बर 2019 तक पूरे 30 महीने के दरमियान सिर्फ 9 बार ही अवसर ऐसा था जब जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक हुआ था। जब जीएसटी षुरू हुआ था तब करदाता 66 लाख से थोड़े अधिक थे और आज यह संख्या सवा करोड़ से अधिक हो गयी है। 

जीएसटी के इस चार साल के कालखण्ड में जीएसटी काउंसिल की 44 बैठकें और हजार से अधिक संषोधन हो चुके हैं। कुछ पुराने संदर्भ को पीछे छोड़ा जाता है तो कुछ नये को आगे जोड़ने की परम्परा अभी भी जारी है। संघ और राज्य के वित्तीय मामलों में संवैधानिक प्रावधान को भी समझना यहां ठीक रहेगा। अनुच्छेद 275 संसद को इस बात का अधिकार प्रदान करता है कि वह ऐसे राज्यों को उपयुक्त अनुदान देने का अनुबंध कर सकती है जिन्हें संसद की दृश्टि में सहायता की आवष्यकता है। अनुच्छेद 286, 287, 288 और 289 में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को एक दूसरे द्वारा कुछ वस्तुओं पर कर लगाने से मना किया गया है। अनुच्छेद 292 व 293 क्रमषः संघ और राज्य सरकारों से ऋण लेने का प्रावधान भी करते हैं। गौरतलब है कि संघ और राज्य के बीच षक्तियों का बंटवारा है संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ, राज्य और समवर्ती सूची के अंतर्गत इसे बाकायदा देखा जा सकता है। जीएसटी वन नेषन, वन टैक्स की थ्योरी पर आधारित है जो एकल अप्रत्यक्ष कर संग्रह व्यवस्था है। जिसमें संघ और राज्य आधी-आधी हिस्सेदारी रखते हैं। 80वें संविधान संषोधन अधिनियम 2000 और 88वें संविधान संषोधन अधिनियम 2003 द्वारा केन्द्र-राज्य के बीच कर राजस्व बंटवारे की योजना पर व्यापक परिवर्तन दषकों पहले किया गया था जिसमें अनुच्छेद 268डी जोड़ा गया जो सेवा कर से सम्बंधित था। बाद में 101वें संविधान संषोधन द्वारा नये अनुच्छेद 246ए, 269ए और 279ए को षामिल किया गया तथा अनुच्छेद 268 को समाप्त कर दिया गया। गौरतलब है राज्य व्यापार के मामले में कर की वसूली अनुच्छेद 269ए के तहत केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है जबकि बाद में इसे राज्यों को बांट दिया जाता है। जीएसटी केन्द्र और राज्य के बीच झगड़े की एक बड़ी वजह उसका एकाधिकार होना भी है। क्षतिपूर्ति न होने के मामले में तो राज्य केन्द्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कह चुके हैं। काफी हद तक इसे जीएसटी को महंगाई का कारण भी राज्य मानते हैं। सवाल यह भी है कि वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी जब अभी वायदे राज्यों से किये गये वायदे पर पूरी तरह खरा नहीं उतर रहा है तो 2022 के बाद क्या होगा जब क्षतिपूर्ति देने की जिम्मेदारी से केन्द्र मुक्त हो जायेगा। समझने वाल बात यह भी है कि जीएसटी के नफे-नुकसान में राज्य कहां खड़े हैं और इसमें व्याप्त कठिनाईयों को लेकर केन्द्र कितना दबाव लेता है। फिलहाल जीएसटी में उगाही भले ही एक बेहतर अवस्था को प्राप्त कर ले मगर समय के साथ राज्यों को घाटा होता है तो तनाव का घटाव मुष्किल ही रहेगा।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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Thursday, July 1, 2021

विकेन्द्रीकरण और सुशासन

शासन और सत्ता में आम जनमानस की भागीदारी सुषासन की पहली षर्त है तो जनता की इसी भागीदारी को सुनिष्चित करने के लिए विकेन्द्रीकरण एक अनिवार्य उपकरण भी है। विकेन्द्रीकरण को विष्वास, पारदर्षिता एवं दायित्वषीलता का निर्माण करने वाली सरकार के वैकल्पिक माॅडल के रूप में सुझाया गया है जबकि सुषासन उक्त संदर्भों के साथ कहीं अधिक संवेदनषील और अन्तिम व्यक्ति तक नीतियों के माध्यम से खुषियां और षान्ति प्रदान करने से हैं। वैष्विक पटकथा यह है कि बिना जन भागीदारी के किसी प्रकार के विकास की कल्पना जमीनी होना पूरी तरह सम्भव नहीं है। गौरतलब है कि विकेन्द्रित षासन व्यवस्था सुषासन के अंतरसम्बंध को परिलक्षित और परिभाशित भी करता है जहां स्पश्टता, न्याय और सुचिता का अनुपालन निहित है। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर सत्ता में भागीदारी सुनिष्चित करना तथा अपना विकास और न्याय स्वयं करने के लिए जो व्यवस्था अपनाई गयी है उसे पंचायती राज व्यवस्था का नाम दिया गया। इसके द्वारा जन-जन को सत्ता में भागीदारी का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस व्यवस्था से सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता है जो लोकतंत्र का महत्वपूर्ण सोपान भी है। कोरोना वायरस संक्रमण से भारत समेत पूरी दुनिया प्रभावित हुई है और इसके प्रभाव में सुषासन को भी चुनौतीपूर्ण बनना पड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी अपने कई सम्बोधन में आपदा को अवसर में बदलने की बात कही, मगर यह तभी सम्भव है जब नियोजन और क्रियान्वयन अवसर पर जनता का सीधा सरोकार और सुषासन की दृश्टि से व्यवस्था अधिक खुलापन लिए हो। विष्व बैंक के अनुसार सुषासन एक ऐसी सेवा से सम्बंधित है जो दक्ष है, ऐसी न्यायिक सेवा से सम्बंधित है जो विष्वसनीय है और ऐसे प्रषासन से सम्बंधित है जो जनता के प्रति जवाबदेय है। सामाजिक आत्मनिर्भरता से सामाजिक समस्या, समाधान तक की पहुंच विकेन्द्रीकरण और सुषासन से ही सम्भव है। आत्मनिर्भर भारत को पूरी तरह कसौटी पर कसना है तो यही दोनों उपकरण सार्थक हथियार सिद्ध होंगे। 

सुषासन के कुछ निर्धारक तत्व जो सुषासन के साध्य भी हैं और विकेन्द्रीकरण के लिए साधन की भांति हैं। राजनीतिक उत्तरदायित्व का सटीकपन होना, कानून का षासन और स्वतंत्र न्यायपालिका, विनौकरषाहीकरण अर्थात् लालफीताषाही और अकर्मण्य लोक सेवा का अभाव, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साथ ही कार्यकुषलता और प्रभावषील प्रषासनिक व्यवस्था समेत मानवाधिकारों का संरक्षण व सरकार और सिविल समाज के मध्य सहयोग। विकेन्द्रीकरण को लोकतांत्रिकरण का उपकरण माना जाता है और भारत में 73वां और 74वां संविधान संषोधन इसका बड़ा उदाहरण है। इसके अलावा नागरिक घोशणापत्र, सूचना का अधिकार और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति अर्थात् ई-गवर्नेंस इत्यादि ने नागरिकों के सषक्तिकरण को बढ़ावा दिया जिसके परिणामस्वरूप प्रषासन और नागरिक अंतरसम्बंध को बढ़ावा मिला। उक्त के चलते प्रषासन अधिक प्रभावी जनोन्मुखी और जनमित्र के मार्ग पर गया। विकेन्द्रीकरण का अभिप्राय अधिकारों को वितरित कर देना है। संविधान संघ और राज्य के अधिकार और दायित्व के बीच इस प्रकार सहःसम्बंधित है जहां से परिसंघीय ढांचे को ताकत मिलती है। संविधान के 7वीं अनुसूची में केन्द्र और राज्यों के बीच निहित कार्यों का बंटवारा विकेन्द्रित भावना के साथ-साथ सुषासन की परिपाटी को भी एक समुच्चय देता है। कोरोना कालखण्ड के अंतर्गत आपदा के भीशण स्वरूप को देखते हुए निर्णय कहां से और कितने लिए जायें इसकी भी एक जद्दोजहद देखी जा सकती है। पिछले साल 2020 में आयी पहली लहर के दौरान पूरे देष में लाॅकडाउन का फैसला एक केन्द्रीय फैसला था जबकि 2021 में व्याप्त दूसरी लहर में ऐसे निर्णयों को राज्यों के माध्यम से संचालित करके विकेन्द्रित स्वरूप का परिचय दिया गया। सुषासन इस बात का हमेषा मोहताज रहा है कि चीजें जितनी समीप से परोसी जायेंगी उतनी ही संवेदनषीलता के साथ लोकहित साधा जा सकेगा। केन्द्र का तात्पर्य एक ऐसा दिमाग जो पूरे देष के लिए अपने हिस्से का मजबूत नियोजन देने के साथ माॅनिटरिंग कर सकता है मगर राज्य वे भुजाएं हैं जो सभी तक आवष्यकता की वस्तुएं वितरित कर सकते हैं और अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचने के लिए इन भुजाओं का मजबूत होना अपरिहार्य है और यही सुषासन और विकेन्द्रीकरण का परिलक्षण भी है।

कौटिल्य के अर्थषास्त्र में अधिक जवाबदेह, उत्तरदायी और परिवर्तनषील इत्यादि से युक्त षासक की कल्पना की गयी है। दरअसल सुषासन एक ऐसी गतिषील अवधारणा है जिसके तहत ऐसे कार्य षामिल हैं जो सभी के लिए हितकारी हों। यह लोकतांत्रिक विधि के षासन पर आधारित जन केन्द्रित अवधारणा है। अर्थषास्त्र के भीतर कौटिल्य ने जो षासकीय विचारधारा को प्रस्फुटित किया है वह सुषासन की ही एक धारा है जिसमें विकेन्द्रीकरण का निहित अर्थ भी षामिल है। हालांकि उस दौर में सत्ता केन्द्रीकरण से युक्त थी मगर परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण जनहित की ओर झुके थे। यह मानना चाहिए कि विकेन्द्रीकरण से केन्द्र सरकारें अस्तित्वहीन नहीं हो जाती बल्कि राज्यों के साथ मिलकर पूरक भूमिकायें निभाती हैं। कोरोना की इस आपदा की घड़ी में यह उदाहरण देखने को मिल सकता है कि केन्द्र और राज्य इससे निपटने के लिए कैसे राजनीतिक उतार-चढ़ाव से परे होकर केवल सुषासन की स्थापना में ही ताकत झोंकी। विकेन्द्रीकरण मौजूदा सांस्कृतिक तत्वों के प्रसंग में भी किया जाना चाहिए। उसे बदलते हुए सम्बंधों के प्रति संवेदनषील होना चाहिए साथ ही साझेदारी के मैकेनिज्म को विकसित करने का प्रयास वाला होना चाहिए। भारत संसदीय प्रणाली प्रजातंत्र के मूल्यों और अच्छे अभिषासन की अवधारणा की प्राप्ति से युक्त है। ये बात और है कि दषकों से इसकी प्राप्ति के प्रयास होते रहे परन्तु चाहे बेहतर राजनीति या नौकरषाही अथवा संसाधनों के अभाव में इसकी चाहत अभी भी अधूरी है। जहां पारदर्षिता और खुलापन है और जहां सर्वोदय के साथ अन्त्योदय है वहीं सुषासन की बयार बहती है और इसमें पूरी तरह स्थिरता तब सम्भव है जब कत्र्तव्य के साथ निर्णय और अधिकार इकाईयों में बांट दिया जाता है। बंटी हुई इकाईयां विकेन्द्रीकरण का उदाहरण है जो जनता के समीप और जन सरोकार से ओत-प्रोत मानी जाती है। गौरतलब है कि विकेन्द्रीकरण सभी का नहीं हो सकता लेकिन समसामयिक विकास को देखें तो भूमण्डलीकरण ने पूरी दुनिया में षासन को रूपांतरित ही नहीं किया बल्कि सवाल यह भी रहा कि इस रूपांतरण की प्रकृति और मात्रा क्या रही है इसकी अभी ठीक से पड़ताल नहीं हुई है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया की एक अन्य विषेशता वैष्विक संविधानवाद तथा नागरिक समाज का भूमण्डलीकरण भी रही है। बाल विकास, महिला विकास, मानवाधिकार, जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में अन्तर्राश्ट्रीय कानून हस्ताक्षर करने वाले देषों को सुषासन के लिए एक संरचना की आवष्यकता रही है और ऐसी आवष्यकतायें केवल केन्द्रीय व्यवस्था में स्थापित करना मुष्किल है ऐसे में विकन्द्रीकरण समय की आवष्यकता बनी जो सुषासन की परिपाटी को भी पुख्ता करने के काम आ रही है।

अच्छे अभिषासन की अभिकल्पना वर्श 1991 में उदारीकरण के बाद देष में प्रस्फुटित हुई जिसे पूरे तीन दषक हो चुके हैं। तब से अनेक सरकारें आईं और गई साथ ही उदारीकरण का वृक्ष न केवल बड़ा हुआ बल्कि भारी भी हो गया परन्तु साथ चलने वाला अच्छा अभिषासन जनमानस के हिसाब से गणना में कहीं पीछे रह गया। साल 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम एक ऐसे विकेन्द्रित विकास की पहल थी जो ग्रामीण विकास की अवधारणा से ओत-प्रोत था मगर बुनियादी विकास के अभाव में उस समय के गांव तक इसकी पहुंच मुमकिन न हो पायी। हालांकि इस हेतु राश्ट्रीय प्रसार सेवा का भी साल 1953 में षुरूआत की गयी मगर यह धरातल पर उतरने से पहले धराषाही हो गया जिसकी पड़ताल के लिए बलवंत राय मेहता समिति का गठन हुआ और इसी समिति की 1957 की सिफारिष से यह साफ हुआ कि जिनका विकास करना है यह काम उन्हीं को देना ठीक रहेगा। यहां से स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की लौ जली। इसका नतीजा राजस्थान के नागौर में पंचायती राज व्यवस्था का उद्घाटन था जो दषकों की यात्रा करते हुए यही व्यवस्था उदारीकरण के बाद 1992 में 73वें और 74वें संविधान संषोधन के तौर पर मील का पत्थर बना। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का ही यह संदर्भ है कि गांवों में छोटी इकाईयां बड़ी सरकार की तरह स्थापित हो गयी जो सुषासन को भी एक नया आयाम दे रही हैं। वैसे औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में विकेन्द्रीकरण की षुरूआत 1861 से दिखायी देती है। गौरतलब है कि स्थायी सरकार और सुषासन एक दूसरे के पर्याय हैं परन्तु इस सच के साथ कि सुषासन केवल सोच के चलते नहीं बल्कि धरातल पर स्पश्ट रूप से बिखरा होना चाहिए और इस बिखराव के लिए विकेन्द्रीकरण को सषक्त करना होता है। विकेन्द्रीकरण की अवधारणा कोई नई नहीं है मगर साख और मूल्य की दृश्टि से इसे केन्द्रीकरण की तुलना में अधिक महत्व मिला है। प्रधानमंत्री मोदी का कुछ समय पहले यह सम्बोधन कि जहां बीमार वहां उपचार सुषासन और विकेन्द्रीकरण दोनों को ताकत से भरता है। डेढ़ वर्श से देष के प्रत्येक नागरिक को कोरोना जैसी जानलेवा बीमारी से बचाने का प्रयास जारी है मगर हर षासकीय हथकंडा से कोरोना बचता जा रहा है। अब तीसरी लहर की बात हो रही है। यह इस बात का परीक्षण है कि हमने सुषासन को कितना बनाये रखने में कामयाबी प्राप्त की और नागरिकों के जीवन का सुरक्षित रखने हेतु उन तक पहुंचने के लिए कैसा रास्ता अपनाया। सुषासन और विकेन्द्रीकरण जितनी ऊँचाई पर होंगे सरकार का जनहित में काम करने वाला आसमान उतना ही खुला और ऊँचा होगा।

(28 जून, 2021)



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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