कांग्रेस में नई जान फूंकने और जड़ता को दूर करने के प्रयासों के बीच बीते दिन उसी के मुखपत्र में छपे लेखों से पार्टी नई मुसीबत में घिरती दिखाई देती है। पार्टी के 131वें स्थापना दिवस पर तब षर्मिन्दगी का सामना करना पड़ा जब उसी के मुखपत्र ने निर्जीव पड़े इतिहास के कई पन्नों का खुलासा हुआ। कष्मीर सहित कई मामले पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की आलोचना और सोनिया गांधी के पिता को फांसीवादी सैनिक के रूप में मुखर करना कांग्रेस के लिए एक अनचाही समस्या पैदा कर दी जो ‘आ बैल मुझे मार‘ की अवधारणा से युक्त हैं। दो अज्ञात लेखकों के लेख में कष्मीर, चीन और तिब्बत सम्बंधी मसलों के लिए नेहरू पर आरोप मढ़े गये। सोनिया गांधी पर विवादास्पद टिप्पणी की गयी जिसके चलते जहां कांग्रेस जांच-पड़ताल और लानत-मलानत में फंसी है वहीं भाजपा समेत कईयों को बैठे-बिठाए चुटकी लेने का अवसर मिल गया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि पार्टी का मुखपत्र इतना त्रुटि से भरा हो कि स्वयं जवाब देते न बन रहा हो। दरअसल 15 दिसम्बर को देष के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की पुण्य तिथि पर उन्हें श्रृद्धांजलि देने के मकसद से पार्टी के ‘कांगे्रस दर्षन‘ के हिन्दी संस्करण में लेख प्रकाषित था जिसमें लेखक का नाम नहीं था पर जो लिखा गया था वह कांग्रेस के लिए किसी बवंडर से कम नहीं था जिसमें सीधे तौर पर नेहरू की नीतियों की आलोचना की गयी है। इतना ही नहीं दो लेखों में विधिवत नेहरू और पटेल के रिष्तों पर विस्तार से लिखा गया है जिसमें साफ है कि दोनों के बीच सम्बन्ध निहायत तल्ख थे। जाहिर है कि इस गलती के चलते इन दिनों विपक्षियों के निषाने पर भी है।
यदि नेहरू सरदार पटेल की सुनते तो आज कष्मीर, चीन, तिब्बत और नेपाल की समस्याएं नहीं होती। नेहरू को अन्तर्राश्ट्रीय मामलों में पटेल की बात सुननी चाहिए थी। क्या पटेल और नेहरू दो किनारों की भांति थे और दोनों के बीच तनावपूर्ण सम्बंध थे लेख यही दर्षाता है। नेहरू प्रधानमंत्री तो पटेल उप-प्रधानमंत्री के साथ गृहमंत्री थे। 565 रियासतों को एक सूत्र में पिरोने वाले पटेल की दूरदर्षिता कई मायनों में बेहतरीन होने के बावजूद नेहरू के साथ एकाकीपन से दूर थी। मामला इस हद तक खराब था कि कई बार इस्तीफा देने की भी धमकियां दी गयी साथ ही लेख में यह कहा जाना कि पटेल की दूरदर्षिता का उपयोग नेहरू ने नहीं किया जिसके कारण अन्तर्राश्ट्रीय समस्याएं मुखर हुईं। वैसे नेहरू अधिकतर गांधी प्रभाव में रहें हैं और गांधी को भी नेहरू उन्मुख कहा जाना अतार्किक नहीं है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि नेहरू गांधी के चलते ही देष के पहले पीएम बने थे। नेहरू-पटेल दोनों को औपनिवेषिक सत्ता का भरपूर अनुभव था और वे व्यक्तिगत विवादों से ऊपर उठ कर राश्ट्रहित के लिए समर्पित थे बावजूद इसके सम्बंधों में कुछ तल्खी बची रही। मुखपत्र में यह भी लिखा गया है कि चीन के मामले में भारत को उन दिनों सतर्क होना चाहिए था। तिब्बत को लेकर चीन की नीति के खिलाफ नेहरू को आगाह करते हुए चीन को एक विष्वासघाती देष बताया गया था। देखा जाए तो पटेल की मृत्यु के लगभग चार साल बाद 1954 में भारत और चीन के बीच पंचचील समझौते हुए थे जिसके पांच समझौते में एक समझौता परस्पर आक्रमण न करने का भी था बावजूद इसके 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। जानकार मानते हैं कि चीन से हार के चलते नेहरू मनोवैज्ञानिक रूप से टूट गये थे।
मुखपत्र की मानें तो पटेल ने कष्मीर मुद्दे को संयुक्त राश्ट्र संघ में उठाने का भी विरोध किया था। यहां भी दोनों के बीच विचारों में एकाकीपन नहीं दिखाई देता। स्वतंत्रता के प्रारम्भिक वर्शों में जहां व्यापक आर्थिक सहयोग के साथ भारत को अन्तर्राश्ट्रीय समझ की जरूरत थी वहीं दो स्वतंत्रता के महानायक की आपसी रंजिष किसी न किसी समस्या की ओर इषारा भी थी। असल में उन दिनों चीन से समस्या भी तिब्बत के चलते ही पनपी। चीन ने स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत पर 1950 में आक्रमण किया तथा राजधानी ल्हासा को अपने कब्जे में ले लिया। चीन का इस क्षेत्र पर अधिग्रहण 1959 में पूरा हो गया जिसके फलस्वरूप दलाई लामा और एक लाख तिब्बती भारत में षरण लिए हुए हैं। भारत तिब्बत को एक स्वायत्त क्षेत्र मानता है, दूसरी ओर चीन भारत पर यह आरोप लगाया कि भारत अपनी भूमि पर चीनी विरोधी गतिविधियों को समर्थन दे रहा है। चीन का तिब्बत को कब्जे में लेने और दलाई लामा का भारत में प्रवास लेना चीनी आक्रमण की बड़ी वजह मानी जाती है। वर्तमान नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को जिस तरह दरकिनार किया है उससे नेपाल दो भागों में बंटने के साथ भारत पर अनाप-षनाप आरोप भी मढ़ रहा है जिसके चलते सम्बंध अपेक्षा से कहीं अधिक पीछे छूट गया है जबकि कष्मीर का विवाद आज भी यथावत है। हालांकि ये सब उन दिनों की तात्कालिक परिस्थितियों की देन है। इसे आज के परिप्रेक्ष्य में किसी एक व्यक्ति विषेश को लेकर आरोपित नहीं किया जा सकता। जिस अंदाज में मुम्बई कांग्रेस के मुखपत्र के हालिया संस्करण में यह सब कहा गया उससे तो यही लगता है कि एक निर्जीव इतिहास को अनायास पुनः जिन्दा कर दिया गया जिसकी फिलहाल जरूरत नहीं थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के पिता मुसोलिनी के सेनानी थे और वे फांसिस्ट थे ऐसे खुलासे भी उसमें निहित हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पार्टी के अन्दर कोई छवि खराब करने वाला वर्ग काम कर रहा है। क्या संजय निरूपम को क्लीन चिट दिया जा सकता है? हालांकि क्षेत्रीय कांग्रेस समिति के प्रमुख और मुखपत्र के संपादक संजय निरूपम ने यह कहते हुए षुरूआत में विवाद से स्वयं को अलग कर लिया कि वह पत्रिका के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में षामिल नहीं हैं पर बाद में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि मैं लेख से सहमत नहीं हूं, लेख कहीं से मंगाया गया है और लेखक कौन है मैं नहीं जानता। लेखकों का नाम प्रकाषित न होना भी मामले में संदिग्धता प्रतीत होती है साथ ही लेख की छपने से पहले पूरी तरह छानबीन न होने के चलते भी दाल में कुछ काले होने का संकेत मिलता है। कांग्रेस चाहे तो इसे छोटी घटना मान कर दरकिनार कर सकती है पर जब बातें ‘पब्लिक डोमेन‘ में चली जाती हैं तो मामला इतना सहज नहीं रह जाता। ऐसे में क्या कांग्रेस को इस पर सफाई नहीं देना चाहिए। यह सही है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी करीब छः वर्शों तक राजनीति से स्वयं को दरकिनार किये हुए थी पर जब उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली तो उसके मात्र 62 दिनों में कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयी। मुखपत्र इस बात के भी खुलासे से नहीं हिचकिचाता कि विवाह के सोलह साल बाद उन्होंने नागरिकता ली थी। कांग्रेस दर्षन का यह मुखपत्र जिस गौरवगाथा को बयान कर रहा है उससे कांग्रेसी भी औचक्क रह गये होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुखपत्र में छपा उक्त तथ्य किसी त्रुटि का परिणाम तो है पर कथन इतिहास के मुताबिक सटीक प्रतीत होता है। हालांकि दोनों लेखों में लेखकों के नाम नहीं हैं पर इसकी पड़ताल तो जरूरी है। फिलहाल कांग्रेस इस पर न कभी बहस चाहेगी और न ही कभी इस तरह का दोबारा कुछ सुनना ही चाहेगी।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
यदि नेहरू सरदार पटेल की सुनते तो आज कष्मीर, चीन, तिब्बत और नेपाल की समस्याएं नहीं होती। नेहरू को अन्तर्राश्ट्रीय मामलों में पटेल की बात सुननी चाहिए थी। क्या पटेल और नेहरू दो किनारों की भांति थे और दोनों के बीच तनावपूर्ण सम्बंध थे लेख यही दर्षाता है। नेहरू प्रधानमंत्री तो पटेल उप-प्रधानमंत्री के साथ गृहमंत्री थे। 565 रियासतों को एक सूत्र में पिरोने वाले पटेल की दूरदर्षिता कई मायनों में बेहतरीन होने के बावजूद नेहरू के साथ एकाकीपन से दूर थी। मामला इस हद तक खराब था कि कई बार इस्तीफा देने की भी धमकियां दी गयी साथ ही लेख में यह कहा जाना कि पटेल की दूरदर्षिता का उपयोग नेहरू ने नहीं किया जिसके कारण अन्तर्राश्ट्रीय समस्याएं मुखर हुईं। वैसे नेहरू अधिकतर गांधी प्रभाव में रहें हैं और गांधी को भी नेहरू उन्मुख कहा जाना अतार्किक नहीं है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि नेहरू गांधी के चलते ही देष के पहले पीएम बने थे। नेहरू-पटेल दोनों को औपनिवेषिक सत्ता का भरपूर अनुभव था और वे व्यक्तिगत विवादों से ऊपर उठ कर राश्ट्रहित के लिए समर्पित थे बावजूद इसके सम्बंधों में कुछ तल्खी बची रही। मुखपत्र में यह भी लिखा गया है कि चीन के मामले में भारत को उन दिनों सतर्क होना चाहिए था। तिब्बत को लेकर चीन की नीति के खिलाफ नेहरू को आगाह करते हुए चीन को एक विष्वासघाती देष बताया गया था। देखा जाए तो पटेल की मृत्यु के लगभग चार साल बाद 1954 में भारत और चीन के बीच पंचचील समझौते हुए थे जिसके पांच समझौते में एक समझौता परस्पर आक्रमण न करने का भी था बावजूद इसके 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। जानकार मानते हैं कि चीन से हार के चलते नेहरू मनोवैज्ञानिक रूप से टूट गये थे।
मुखपत्र की मानें तो पटेल ने कष्मीर मुद्दे को संयुक्त राश्ट्र संघ में उठाने का भी विरोध किया था। यहां भी दोनों के बीच विचारों में एकाकीपन नहीं दिखाई देता। स्वतंत्रता के प्रारम्भिक वर्शों में जहां व्यापक आर्थिक सहयोग के साथ भारत को अन्तर्राश्ट्रीय समझ की जरूरत थी वहीं दो स्वतंत्रता के महानायक की आपसी रंजिष किसी न किसी समस्या की ओर इषारा भी थी। असल में उन दिनों चीन से समस्या भी तिब्बत के चलते ही पनपी। चीन ने स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत पर 1950 में आक्रमण किया तथा राजधानी ल्हासा को अपने कब्जे में ले लिया। चीन का इस क्षेत्र पर अधिग्रहण 1959 में पूरा हो गया जिसके फलस्वरूप दलाई लामा और एक लाख तिब्बती भारत में षरण लिए हुए हैं। भारत तिब्बत को एक स्वायत्त क्षेत्र मानता है, दूसरी ओर चीन भारत पर यह आरोप लगाया कि भारत अपनी भूमि पर चीनी विरोधी गतिविधियों को समर्थन दे रहा है। चीन का तिब्बत को कब्जे में लेने और दलाई लामा का भारत में प्रवास लेना चीनी आक्रमण की बड़ी वजह मानी जाती है। वर्तमान नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को जिस तरह दरकिनार किया है उससे नेपाल दो भागों में बंटने के साथ भारत पर अनाप-षनाप आरोप भी मढ़ रहा है जिसके चलते सम्बंध अपेक्षा से कहीं अधिक पीछे छूट गया है जबकि कष्मीर का विवाद आज भी यथावत है। हालांकि ये सब उन दिनों की तात्कालिक परिस्थितियों की देन है। इसे आज के परिप्रेक्ष्य में किसी एक व्यक्ति विषेश को लेकर आरोपित नहीं किया जा सकता। जिस अंदाज में मुम्बई कांग्रेस के मुखपत्र के हालिया संस्करण में यह सब कहा गया उससे तो यही लगता है कि एक निर्जीव इतिहास को अनायास पुनः जिन्दा कर दिया गया जिसकी फिलहाल जरूरत नहीं थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के पिता मुसोलिनी के सेनानी थे और वे फांसिस्ट थे ऐसे खुलासे भी उसमें निहित हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पार्टी के अन्दर कोई छवि खराब करने वाला वर्ग काम कर रहा है। क्या संजय निरूपम को क्लीन चिट दिया जा सकता है? हालांकि क्षेत्रीय कांग्रेस समिति के प्रमुख और मुखपत्र के संपादक संजय निरूपम ने यह कहते हुए षुरूआत में विवाद से स्वयं को अलग कर लिया कि वह पत्रिका के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में षामिल नहीं हैं पर बाद में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि मैं लेख से सहमत नहीं हूं, लेख कहीं से मंगाया गया है और लेखक कौन है मैं नहीं जानता। लेखकों का नाम प्रकाषित न होना भी मामले में संदिग्धता प्रतीत होती है साथ ही लेख की छपने से पहले पूरी तरह छानबीन न होने के चलते भी दाल में कुछ काले होने का संकेत मिलता है। कांग्रेस चाहे तो इसे छोटी घटना मान कर दरकिनार कर सकती है पर जब बातें ‘पब्लिक डोमेन‘ में चली जाती हैं तो मामला इतना सहज नहीं रह जाता। ऐसे में क्या कांग्रेस को इस पर सफाई नहीं देना चाहिए। यह सही है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी करीब छः वर्शों तक राजनीति से स्वयं को दरकिनार किये हुए थी पर जब उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली तो उसके मात्र 62 दिनों में कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयी। मुखपत्र इस बात के भी खुलासे से नहीं हिचकिचाता कि विवाह के सोलह साल बाद उन्होंने नागरिकता ली थी। कांग्रेस दर्षन का यह मुखपत्र जिस गौरवगाथा को बयान कर रहा है उससे कांग्रेसी भी औचक्क रह गये होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुखपत्र में छपा उक्त तथ्य किसी त्रुटि का परिणाम तो है पर कथन इतिहास के मुताबिक सटीक प्रतीत होता है। हालांकि दोनों लेखों में लेखकों के नाम नहीं हैं पर इसकी पड़ताल तो जरूरी है। फिलहाल कांग्रेस इस पर न कभी बहस चाहेगी और न ही कभी इस तरह का दोबारा कुछ सुनना ही चाहेगी।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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