Monday, December 21, 2015

महाभियोग का निहित परिप्रेक्ष

दो चीजों ने देष को तबाह कर दिया है या इसे सही दिषा में बढ़ने नहीं दिया गया जिसमें पहला आरक्षण और दूसरा भ्रश्टाचार है। उक्त टिप्पणी गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे.बी. परदीवाला की तब आई  जब वे हार्दिक पटेल के खिलाफ एक दिसम्बर को विषेश आपराधिक आवेदन पर फैसला सुना रहे थे। जस्टिस परदीवाला ने यह भी कहा कि जब संविधान बनाया गया तो समझा गया था कि आरक्षण दस साल के लिए रहेगा पर दुर्भाग्यवष यह 65 वर्शों से जारी है। इसी टिप्पणी को कदाचार का उल्लंघन मानते हुए राज्यसभा के 58 सदस्यों ने सभापति को महाभियोग लगाने की याचिका दी है। हार्दिक पटेल पाटीदारों के आरक्षण को लेकर विगत् कुछ माह पूर्व गुजरात में व्यापक आंदोलन छेड़े हुए थे और उन पर राश्ट्रद्रोह का भी मुकदमा चल रहा है। दरअसल भारतीय संविधान में विधि के षासन की अवधारणा निहित है और न्यायपालिका का यह कत्र्तव्य है कि वह इसी के अनुरूप रक्षा और संविधान की सर्वोच्चता सुनिष्चित करे। स्वतंत्र न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है तथा यह भी सुनिष्चित करती है कि लोकतंत्र को किसी व्यक्ति या समूह की तानाषाही द्वारा प्रतिस्थापित न किया जाए। ऐसे में न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है जो निरपेक्ष भाव से काज करती है पर गुजरात के जस्टिस की आरक्षण को लेकर की गयी टिप्पणी ऐसी भावनाओं से परे देखी जा रही है। इन्हीं के चलते महाभियोग लगाने को लेकर गहमागहमी है।
बीते 18 दिसम्बर को राज्यसभा के विपक्षी सदस्यों द्वारा महाभियोग को लेकर मामला तब उठाया गया जब षीत सत्र लगभग समाप्ति की ओर है। चार सप्ताह तक चलने वाले इस षीत सत्र में कुछ भी ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दिया जिससे यह कहा जाए कि देष दो-चार कदम आगे बढ़ा होगा पर असहिश्णुता, नेषनल हेराल्ड से जुड़े मामले सहित कईयों के साथ महाभियोग जैसी विधा भी इस सत्र के लिए ऐसे साक्ष्य हैं जिसे इस सत्र में काम न होने देने वाले सबूत कहे जा सकते हैं। संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों पर जब महाभियोग जैसे आरोपों की सुगबुगाहट होती है तो विमर्ष भी बड़े हो जाते हैं। मध्य प्रदेष हाईकोर्ट में कार्यरत जस्टिस ए.के. गंगेले के खिलाफ भी महाभियोग की तैयारी चल रही है। इन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था पर तीन जजों की जांच समिति ने इन्हें क्लीन चिट दे दी थी मगर पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। देखा जाए तो एक ओर देष की षीर्श अदालत जहां उत्तर प्रदेष में लोकायुक्त को नियुक्त करने के चलते कहीं अधिक सक्रिय दिखाई दे रही है वहीं दूसरी ओर आरक्षण पर टिप्पणी के चलते गुजरात उच्च न्यायालय के एक जज सुर्खियों में हैं। महाभियोग के इतिहास की पड़ताल करें तो मई 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीष वी. रामास्वामी पर सबसे पहले महाभियोग प्रस्ताव लाया गया मगर यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्ताधारी कांग्रेस ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था।
सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की नियुक्ति राश्ट्रपति के द्वारा की जाती है और इन्हें हटाने की प्रक्रिया महाभियोग ही होती है। कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीष सौमित्र सेन देष के दूसरे ऐसे न्यायाधीष थे जिन्हें महाभियोग की कार्यवाही का सामना करना पड़ा। हालांकि उन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया था। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीष पी.डी. दिनकरन के खिलाफ भी महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी थी पर सुनवाई के कुछ दिन पहले ही त्यागपत्र दे दिया था। राजस्थान हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के पद पर तैनात अरूण मदान पर भी यौनाचार और आर्थिक अनियमितताओं के आरोप लगे थे। षीर्श अदालत की तीन जजों की कमेटी ने मामले की जांच कराई थी उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा था। इसके अलावा दिल्ली हाईकोर्ट के जज षामित मुखर्जी पर डीडीए घोटाले में रिष्वत लेने का मामला जब सामने आया तब ये भी जांच के घेरे में आये। देखा जाए तो न्यायिक पदों पर कार्यरत कुछ न्यायाधीषों पर समय-समय पर अनियमितताओं का आरोप भी लगता रहा है। न्यायपालिका के मामले में यह स्वीकार्य तथ्य है कि निर्णय सर्वाधिक निरपेक्ष और प्रजातांत्रिक मूल्यों के अन्तर्गत ये कहीं अधिक सकारात्मक भी रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 के बीच सर्वोच्च न्यायालय जबकि अनुच्छेद 214 से 237 मे उच्च न्यायालय को देखा जा सकता है। भारत की न्यायिक प्रणाली एकीकरण से युक्त है जो संघीय ढांचे को भी कहीं अधिक मजबूती देती है। संविधान में निहित स्वतंत्र न्यायपालिका एक श्रेश्ठ संस्था के रूप में भी पहचान रखती है। नीति-निर्देषक तत्व में उल्लेखित अनुच्छेद 50 के अन्तर्गत न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग भी किया गया है।
संविधान के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों व मुख्य न्यायाधीषों तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीषों व प्रधान न्यायाधीष को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद राश्ट्रपति के द्वारा इन्हें हटाया जा सकता है। न्यायाधीष जांच अधिनियम 1968 के अनुसार न्यायाधीष को हटाये जाने की प्रक्रिया का प्रारम्भ लोकसभा के 100 अथवा राज्यसभा के 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति को देकर प्रारम्भ किया जा सकता है जैसा कि बीते दिनों जस्टिस परदीवाला के मामले में 58 सदस्यों ने राज्यसभा के सभापति को याचिका दी है।  ऐसे प्रस्ताव की जांच तीन सदस्यीय समिति करती है जिसमें न्यायाधीष सहित विधिवेत्ता होते हैं। जांच के बाद के प्रस्ताव पर संसद में मतदान कराया जा सकता है। खास यह भी है कि किसी न्यायाधीष को पद से हटाये जाने का समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और स्वीकृत होना चाहिए। महाभियोग प्रस्ताव तभी पारित होगा जब कम से कम 50 प्रतिषत सांसद उपस्थित होंगे और उसमें से दो-तिहाई प्रस्ताव के पक्ष में वोट देंगे। यदि राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हो गया तो यह एक सप्ताह के भीतर लोकसभा में जाएगा। देखा जाए तो न्यायाधीषों को पदच्युक्त करने का अधिकार विधायिका के पास है।
निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि न्यायपालिका संविधान की सुरक्षा की गारंटी है। नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार को बनाये रखने में इसे असीम षक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकार के उल्लंघन पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय जबकि अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय जाया जा सकता है। बीते दिनों असहिश्णुता को लेकर षीर्श अदालत के प्रधान न्यायाधीष ने कहा था कि न्यायपालिका के होते हुए किसी को डरने की जरूरत नहीं। उक्त संदर्भ यह परिलक्षित करता है कि न्यायपालिका ही ऐसी ताकत है जिसमें एक निरपेक्ष भावना निहित है। यह भी देखा गया है कि पड़ोसी देष पाकिस्तान में न्यायिक निर्णय के मामले में जन विरोध भी हुए हैं जबकि भारत जैसे देष में न्यायपालिका तीसरे स्तम्भ के रूप में संवैधानिक नेतृत्व के लिए जानी जाती है। सरकार के विभिन्न अंगों के बीच षक्तियों के बंटवारे तथा अधिकारों के संतुलन के सिद्धान्त होने के बावजूद यदि किसी प्रकार का संवैधानिक अतिक्रमण संसद या सरकार करती है तो सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 13 में निहित न्यायिक पुर्नविलोकन के अन्तर्गत ऐसे कानूनों या विधानों को षून्य घोशित कर सकती है। तमाम खूबसूरत अच्छाईयों के बावजूद मानवीय त्रुटियों के चलते न्यायपालिका में प्रबुद्ध न्यायाधीष भी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर देते हैं जिसके चलते उन्हें महाभियोग जैसी परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ जाता है जैसा कि जस्टिस परदीवाला को घेरे में लेने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि अभी यह जांच का विशय है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

No comments:

Post a Comment