Thursday, June 27, 2019

समस्याओं के साये मे जी-20 सम्मेलन


पिछले साल अर्जेन्टीना के ब्यूनस आर्यस में जी-20 षिखर सम्मेलन में भारत का दबदबा देखने को मिला था। यहां प्रधानमंत्री मोदी ने जय (जेएआई) अर्थात् जापान, अमेरिका, इण्डिया का नारा दिया था जिसका आषय सफलता से है। इस बार जापान के ओसाका में भी भारी बहुमत से जीत हासिल करने वाले प्रधानमंत्री मोदी का जलवा अलग से दिख सकता है। माना जा रहा है कि जी-20 के इस 14वें सम्मेलन में कई देषों के साथ द्विपक्षीय बैठक भी मोदी करेंगे जिसमें फ्रांस, जापान, रूस, इण्डोनेषिया, अमेरिका और तुर्की आदि देष षामिल हैं। विदेष मंत्रालय ने 8 देषों के प्रमुखों के साथ मोदी की द्विपक्षीय मुलाकात और तीन बहुपक्षीय मुलाकात की बात फिलहाल कही है। गौरतलब है कि 29 जून तक चलने वाले इस समिट पर दुनिया की नजर रहेगी। मौजूदा समय में वैष्विक स्तर पर कई समस्याएं एक साथ उभरी हुई हैं ऐसे में ओसाका सम्मेलन समस्याओं के साये से मुक्त षायद ही रहे। पिछले वर्श 1 दिसम्बर को जब जी-20 देषों की 13वीं षिखर वार्ता समाप्त हुई थी तो उम्मीद यह भी जगाई गयी कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध समाप्त करने की पहल होगी पर यह मौजूदा समय में और बड़ी चुनौती का रूप अख्तियार किये हुए है। दो दिन चलने वाले सम्मेलन में बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के आह्वान के साथ ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देने की उम्मीद भी जगाई गयी थी पर यहां भी मामला खटाई में ही रहा। इतना ही नहीं एषिया प्रषान्त क्षेत्र में स्थिरता के लिए काम किया जायेगा पर यह भी बातों तक ही रह गया। अब तो हालात यह हैं कि अमेरिका की जद में ईरान के आने से दुनिया एक नई समस्या से उलझ गयी है और इन दिनों ईरान परोक्ष आक्रमण भी झेल रहा है। 
अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वाॅर और ईरान के साथ चल रहे तनाव का प्रत्यक्ष युद्ध में बदलने का खौफ, 28 जून को षुरू हो रहे जी-20 देषों के षिखर सम्मेलन के दौरान छाये रह सकते हैं। सम्मेलन से ठीक पहले आॅस्ट्रेलिया ने भी ट्रेड वाॅर से छोटे-छोटे देषों के हो रहे नुकसान को देखते हुए तल्ख बयान दिया है। उसने कहा है कि वैष्विक अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित हो सकती है। जापान में जी-20 की बैठक से पहले हांगकांग में भी विरोध की लहर दिखी। हांगकांग चाहता है कि जी-20 सम्मेलन में चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग पर बाकी देष इस बात के लिए दबाव बनाये कि हांगकांग की स्वायत्ता की रक्षा व अधिकार समेत कई मांग पर चीन गौर फरमाये। जाहिर है हांगकांग में सम्मेलन से ठीक पहले जो भारी-भरकम प्रदर्षन हुआ है उससे जी-20 के देषों पर असर पड़ सकता है। गौरतलब है कि हांगकांग के कार्यकत्र्ताओं द्वारा 9 देषों के 13 अन्तर्राश्ट्रीय अखबारों में इस मामले को लेकर विज्ञापन भी प्रकाषित करने के लिए साढ़े छः लाख डाॅलर रकम इकट्ठी की गयी। प्रधानमंत्री मोदी सम्मेलन में रवाना होने से पहले कहा कि अन्य वैष्विक नेताओं के साथ हमारी दुनिया के सामने प्रमुख चुनौतियां और अवसरों पर चर्चा करने के लिए उत्सुक हैं। महिला सषक्तीकरण, डिजीटलाइजेषन और जलवायु परिवर्तन जैसे प्रमुख वैष्विक चुनौतियों का समाधान इस बैठक का प्रमुख मुद्दा होगा। ऐसे ही कई इरादों के साथ दुनिया के भारी-भरकम जी-20 के 19 देष और यूरोपीय देष ओसाका में जुट रहे हैं पर अक्सर यह रहा है कि सम्मेलन समाप्त हो जाता है और सवाल सुलगते रहते हैं। खास यह भी है कि पिछले जी-20 सम्मेलन में भारत, रूस और चीन की त्रिपक्षीय बैठक कहीं अधिक महत्वपूर्ण रही। इस बार भी उम्मीद है कि तीनों देष कई विवादों को पीछे छोड़ते हुए आपसी हितों को बढ़ावा देने के लिए एक साथ होंगे। अमेरिका को दबाव में लेने के लिए चीन भारत के साथ नरम रूख रख सकता है। इसका एक कारण संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में इस बार उसका मात खाना भी हो सकता है। गौर तलब है कि पाकिस्तानी आतंकी अज़हर मसूद पर बार-बार वीटो करके बचाने वाला चीन को तब झुकना पड़ा जब अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने पुलवामा आतंकी हमले के बाद इस पर सख्ती दिखाई।
अर्जेन्टीना सम्मेलन में भी मोदी ने 9 सूत्रीय एजेण्डा पेष किया था जिसमें भगोड़े, आर्थिक अपराधों से निपटने, उनेह पहचान करने, प्रत्यर्पण और उनकी सम्पत्तियों को जब्त करने समेत कई षामिल थे पर परिणाम कुछ खास नहीं रहे। हालांकि इस पर प्रयास जारी हैं। दो टूक कहें तो जी-20 षिखर सम्मेलन हमेषा समस्याओं के घेरे में ही रहा। कभी आतंकवाद तो कभी षान्ति व सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं इस मंच से कभी बाहर गयी ही नहीं। गौरतलब है जब पहली बार नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने 2014 को ब्रिस्बेन में जी-20 के 9वें षिखर सम्मेलन में पहली बार भागीदारी की थी और काले धन का मुद्दा यहां उन्हीं की वजह से तूल पकड़ा था। यहां भी यूक्रेन समस्या के चलते रूस और अमेरिका की खींचातानी ने बैठक को मानो बेनतीजा ही कर दिया था। जब भी भारत का विष्व के साथ आर्थिक सम्बंधों की विवेचना होती है तो जी-20 का मंच और प्रासंगिक होकर उभरता है। बैठक से पहले भारत भी कई दबाव से युक्त देखा जा सकता है। बीते 2 मई से अमेरिका द्वारा ईरान से तेल न खरीदने का प्रतिबंध भारत झेल रहा है। चीन से ट्रेड वाॅर में फंसा अमेरिका इसी माह के 5 जून को भारत से तरजीही देष का दर्जा छीन लिया। इतना ही नहीं 2018 में रूस से एस-400 की खरीदारी को लेकर भारत द्वारा किया गया समझौता भी अमेरिका के गले नहीं उतर रहा है। दक्षिण एषिया में षान्ति के लिए पूरी कूबत झोंकने वाला भारत दुनिया को एक नई ताकत से परिचय कराया है पर वैष्विक लड़ाई में पिसा भी है। 
गौरतलब है कि भारत दुनिया की सबसे तेज उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और जी-20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है। इस समूह में अन्तर्राश्ट्रीय, वित्तीय संरचना को सषक्त और आर्थिक विकास को धारणीय बनाने में मदद पहुंचाई है। मंदी के दौर में गुजर रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी कमोबेष ऊर्जा देने का इसने काफी हद तक काम किया है। यह एक ऐसा मंच है जहां दुनिया के सबसे मजबूत देष इकट्ठे होते हैं। गिनती के लिहाज़ से तो यह 14वां सम्मेलन हैं और मोदी के लिए जी-20 का यह 6वां होगा जहां उनका दबदबा पहले की तरह कायम रहने की सम्भावना है। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका फस्र्ट की पाॅलिसी पर चल रहे हैं और अपने निजी एजेण्डे के कारण ईरान-अमेरिका परमाणु संधि, ट्रांस पेसिफिक समझौते और रूस से षस्त्र नियंत्रण संधि के अलावा पेरिस जलवायु समझौते से अलग हो चुके हैं। यहां एक बार फिर ट्रंप और मोदी की मुलाकात एक नया जोष भरेगी। रूस, चीन और जापान से भी अलग-अलग वार्ता भारत से जरूर करेंगे। इसके अलावा कई द्विपक्षीय मंच भी सजेंगे पर सवाल यह है कि जी-20 क्या अपने उद्देष्यों में सफल होगा। विवादों और समस्याओं में रहने वाला यह समूह सवाल खड़े करता है पर समाधान से पहले अड़ियल रवैये के कारण उसे सुलगता हुआ छोड़ देता हैं। प्रधानमंत्री मोदी सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए जैसे ही ओसाका ऐयरपोर्ट पहुंचे वहां मौजूद भारतीयों ने मोदी-मोदी का नारा लगा कर जापान में उनका स्वागत किया। जापानी प्रधानमंत्री षिंजो अबे से उनकी मुलाकात और आपसी कारोबार समेत तमाम मुद्दों पर बात होने की स्थिति का पनपना स्वाभाविक है। भारत में भी 2022 में जी-20 का सम्मेलन होगा तब भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्शगांठ भी होगी। फिलहाल ओसाका सम्मेलन में भारत का रूख अर्जेन्टीना के ब्यूनस आयर्स की भांति ही मजबूत दिखने की उम्मीद है। हालांकि अब तक जितने भी जी-20 के सम्मेलन में मोदी की भागीदारी रही वे सभी आषा से भरे ही रहे और इस बार भी ऐसी ही उम्मीद की जानी चाहिए।
 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com
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पंचायत से परिवार नियोजन की राह


हिमालयी प्रदेश उत्तराखण्ड में अब दो से अधिक संतान वाले पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड की विधानसभा ने बीते 26 जून को एक विधेयक पारित कर यह फरमान सुना दिया है। उत्तराखण्ड पंचायत राज अधिनियम (संषोधन) 2019 को फिलहाल मंजूरी दे दी गयी। स्पश्ट है कि इस विधेयक को लागू करने का मूल उद्देष्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है। इसके अन्तर्गत उम्मीदवारों की न्यूनतम षैक्षिक योग्यता भी निर्धारित की गयी है जिसमें साफ है कि सामान्य वर्ग में न्यूनतम योग्यता दसवीं जबकि एससी/एसटी श्रेणी के लिए 8वीं और महिलाओं के लिए कक्षा 5 उत्तीर्ण होना जरूरी है। इस विधेयक को अभी राज्यपाल की मंजूरी मिलना बाकी है जो आने वाले दिनों में मिल जायेगी। इस साल के अंत में प्रदेष में पंचायत चुनाव होने वाले हैं। जाहिर है कि नया कानून लागू होने से हजारों चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले इससे प्रभावित होंगे। इसमें एक खास बात यह भी है कि दो से अधिक जीवित बच्चे वाले लोग जिनमें से एक का जन्म नये कानून लागू होने के 300 दिन बाद हुआ तो वे भी चुनाव नहीं लड़ सकते। हालांकि प्रत्याषी चुनाव में पहले की तुलना में दोगुना खर्च कर सकेंगे। पंचायत चुनाव में अभी तक संतान सम्बंधी कोई षर्त लागू नहीं थी और न ही षैक्षिक योग्यता की ही कोई षर्त थी। दो बच्चों से जुड़े कानून के मामले में उत्तराखण्ड षायद पहला प्रान्त है जबकि योग्यता लागू करने के मामले में इसके पहले भी कई प्रदेष इसे आजमा चुके हैं। हरियाणा पंचायती राज अधिनियम संषोधन 2015 में इसी तरीके की षैक्षिक योग्यता लाई गयी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार के पक्ष को सही बताया था। राजस्थान की मौजूदा सरकार ने अपनी पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सिंधिया सरकार के पार्शदी और सरपंची चुनाव में षैक्षिक योग्यता के फैसले को खत्म कर दिया था। गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार हर चैथा नागरिक अषिक्षित है ऐसे में स्थानीय चुनाव में योग्यता लागू करना लोकतंत्र की दृश्टि से कितना वाजिब है यह सवाल रहेगा। रही बात दो बच्चों की तो देष में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए कुछ कदम तो उठाने चाहिए। इस दिषा में उत्तराखण्ड को सराहा जा सकता है। 
महात्मा गांधी ग्राम स्वराज के पक्षधर थे उनका मानना था कि गांव के विकास के बिना भारत की प्रगति सम्भव नहीं है। गांधी जी को गांवों को राजनीतिक व्यवस्था का केन्द्र बनाना चाहते थे ताकि निचले स्तर पर लोगों को राश्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में षामिल किया जा सके। यही कारण था कि उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी व मजबूत बनाने की वकालत की थी। हालांकि डाॅ0 अम्बेडकर पंचायती व्यवस्था के विरोधी थे वे इसे संकीर्णता और पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे। उन्हें डर था कि पंचायते सामाजिक व आर्थिक समानता की राह में बाधा बन सकती हैं। षायद यही कारण है कि संविधान निर्माण के समय पंचायती राज व्यवस्था को टाल दिया गया जबकि औपनिवेषिक षासनकाल में 1882 में स्थानीय स्वषासन की अवधारणा भारत में करवट ले चुकी थी और 1920 में ब्रिटिष प्रांतों में इसकी स्थापना के लिए कानून भी बनाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केन्द्र सरकार ने पंचायती राज एवं समुदायिक मंत्रालय की स्थापना की और 2 अक्टूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के पीछे उद्देष्य गांवों के आर्थिक विकास व सामाजिक सुधार के लिए मजबूत कदम उठाना था परन्तु इससे जन साधारण को कोई लाभ नहीं हुआ। गौरतलब है कि नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 40 में पंचायत की चर्चा है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि गांवों के देष भारत में पंचायतें कसमसाती रहीं और बड़ी-बड़ी सरकारें इनकी उलझन को समझ ही नहीं पायी। गांधी ने 1922 में ग्राम स्वराज का सपना देखा था और पंचायती राज व्यवस्था 1992 में 73वें संविधान संषोधन के अंतर्गत कानून का रूप अख्तियार कर पायी। यह वही वर्श है जब देष में दो बड़े संषोधन हुए थे पहला 73वां पंचायती राज व्यवस्था के लिए, दूसरा 74वां नगर निकायों को ऐसी ही धारणा से ओत-प्रोत करने के लिए। हालांकि बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिष पर पहली बार स्वतंत्र भारत में पंचायत का उदय 2 अक्टूबर 1959 में राजस्थान के नागौर जिले से षुरू हुई थी। 
73वें संविधान संषोधन से ग्रामीण स्थानीय षासन में जहां एकरूपता आयी तो वहीं इसमें अनेक परिवर्तन हुए। नियमित चुनाव का प्रावधान किया गया जो प्रत्येक पांच वर्श में कराये जायेंगे। साथ ही असमय यदि यह भंग हो तो 6 माह तक नई पंचायत को स्थापित कर लिया जायेगा। पंचायतों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिया गया। पहले चरण में महिलाओं को 33 फीसदी और बाद में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया जो महिला सषक्तीकरण का एक बहुत बड़ा आधार था। पंचायतें 29 विशय पर षासन चलाती हैं पर पैसों के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर रहती हैं। हालांकि वित्तीय संसाधनों के लिए इन्हें कर लगाने की षक्ति दी गयी है साथ ही राज्य वित्त आयोग के माध्यम से करों और अनुदानों के बंटवारे के प्रावधान किये हुए हैं पर हकीकत यह है कि कर लगाने की गुंजाइष बहुत मामूली है और पैसों की आवष्यकता ग्रामीण विकास की दृश्टि से कहीं अधिक जरूरी है। केन्द्र और राज्य की तरह यहां भी नियोजन के लिए जिला एवं महानियोजन समिति देखी जा सकती है। जिस प्रकार गांव, गवर्नेंस ने यह साबित किया है कि उसके बगैर देष का विकास पूरी तरह सम्भव नहीं है इससे यह भी स्पश्ट है कि परिस्थितियों के साथ इस व्यवस्था में भी संषोधन होने चाहिए। उत्तराखण्ड ने जिस तरह अपने यहां पंचायती राज व्यवस्था को एक नई राह दी है उसे उचित ही कहा जायेगा। भारत के सभी राज्य यदि गांधी के उस आधार को साथ लेकर चलें जिसमें उन्होंने गांवों के विकास के बिना भारत की प्रगति सम्भव नहीं की बात कही है तो देष का भला जरूर होगा। गौरतलब है कि भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देष है जहां सर्वाधिक जनसंख्या है और जनसंख्या विस्फोट के कारण कई बुनियादी समस्याएं पैर पसार चुकी हैं। हालांकि चुनाव लड़ने वाले मुट्ठी भर लोग हैं मात्र उन पर पूरा दारोमदार जनसंख्या को लेकर नहीं हो सकता पर आने वाले दिनों में इसका असर बढ़े हुए दर में दिख सकता है। 
उत्तराखण्ड का यह कदम देष के लिए भी एक माॅडल हो सकता है। अन्य प्रदेष भी देष की जनसंख्या को काबू में रखने के लिए कानून लाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। हालांकि पंचायती राज एक्ट के संषोधन विधेयक में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि किसी प्रतिनिधि के चुनाव जीतने के बाद तीसरी संतान होने पर क्या उसकी सदस्यता रद्द हो जायेगी। इसके अलावा कुछ अन्य बिन्दुओं को लेकर भी संदेह बरकरार है। अभी विधेयक विधानमण्डल ने पारित किया है राज्यपाल की सहमति नहीं मिली है पर इसमें कुछ और संषोधन की सम्भावना भविश्य में दिखाई देती है। सवाल यह भी है कि कई मामलों में जो काम सरकारें कर सकती हैं और जिनका देष या प्रदेष की भलाई से सीधा सरोकार है उस पर राजनीतिक नफे-नुकसान के चलते कदम उठाने में सरकारें हिचकिचा जाती हैं। यह नारा 4 दषक पुराना है कि हम दो, हमारे दो परन्तु इसे सख्ती से लागू नहीं कराया जा सका नतीजन जनसंख्या बेकाबू होती गयी और देष समस्याओं के गर्त में चला गया। उत्तराखण्ड ने जो पहल की है उसे हर हाल में बेहतर कहा जायेगा। अब इसके लागू होने की प्रतीक्षा रहेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि लोकतांत्रिक विकेन्द्र्रीकरण ने विकास को बढ़ावा दिया पर बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधन ने समानांतर समस्याओं को भी बढ़ावा दिया। पानी, बिजली, षिक्षा, स्वास्थ, रोजगार समेत सभी के अभाव से आधा भारत रोज जूझता है। यदि जनसंख्या पर काबू पा लिया जाय तो इसे कम किया जा सकता है। इस दिषा में उत्तराखण्ड ने पंचायती राज व्यवस्था में दो बच्चे वाली अवधारणा लागू करके एक रोषनी की किरण तो दे दी है।
 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Monday, June 24, 2019

मूल अधिकार का उल्लंघन है परमिट

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये गये हैं जिन पर राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता उसे मौलिक अधिकार की संज्ञा दी गयी है। गौरतलब है कि देष के किसी भी हिस्से में भारत के प्रत्येक नागरिक आने-जाने की स्वतंत्रता है पर देष के भीतर कुछ स्थानों पर जाने की स्वतंत्रता नहीं है। यदि ऐसा है तो यह संविधान के आदर्ष और मूल अधिकार के लिए तर्क संगत नहीं कहे जा सकते। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्य के कुछ हिस्सों में इनरलाइन परमिट की व्यवस्था के कारण आवाजाही बिना परमिट के सम्भव नहीं है। मुख्यतः यह परमिट भारत में इस समय तीन राज्यों मिजोरम, नागालैंण्ड अरूणाचल प्रदेष में ही पूर्ण रूप से लागू है। हालांकि इन राज्यों के अलावा दूसरे देषों के बाॅर्डर लाइन पर भी इस परमिट की आवष्यकता पड़ती है। अरूणाचल प्रदेष के तवांग, भलुकपोंग, बोमदिया और जिरो जबकि नागालैण्ड के कोहिमा, दीमापुर, मोकोकचुंग और पेरेन को इसमें देखा जा सकता है। सरसरी तौर पर 8 प्रमुख स्थान जो पर्यटन की दृश्टि से भी खासे महत्व के हैं वहां पर इनरलाइन परमिट यानि आईएलओ के होने से यहां के रोज़गार तो प्रभावित हो ही रहे हैं साथ ही संविधान का मौलिक आदर्ष का भी उल्लंघन दिखता है। पड़ताल बताती है कि बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन 1873 की धारा 2, 3 और 4 इस फसाद की जड़ है। इसके चलते नागालैण्ड में नागा हिल्स जाने के लिए नागा मूल निवासियों के अलावा अन्य को परमिट लेना पड़ता है। इतना ही नहीं दीमापुर जिले को भी नागा हिल्स में षामिल करके वहां भी इस कानून के विस्तार का प्रस्ताव है जिसे सही करार नहीं दिया जा सकता। यह एक प्रकार से अपने ही देष में वीजा सिस्टम की तरह है जो मूल अधिकार में निहित अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव की मनाही), अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का सीधा उल्लंघन दिखाई देता है।

इस मामले में देष की षीर्श अदालत एक जनहित याचिका पर अगले महीने 2 जुलाई को सुनवाई करेगी। याचिका में स्पश्ट है कि इनरलाइन परमिट सिस्टम देष के भीतर वीजा सिस्टम की तरह है जो न केवल मूल अधिकार का उल्लंघन करता है बल्कि क्षेत्र विषेश का विकास और समग्र निवेष को भी नुकसान पहुंचा रहा है साथ ही आपसी विष्वास के लिए भी यह खतरा है। संदर्भ निहित बात यह भी है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 न्यायिक पुर्नविलोकन का एक सिद्धांत है जो मूल अधिकारों का आधार स्तम्भ भी है। इसके चलते पहले से लागू तथा भविश्य में बनाई जाने वाली सभी विधियों से मूल अधिकारों को संरक्षण मिलता है। यह अधिकार अमेरिका के संविधान से लिया गया है और न्यायालय ने इसे संविधान का मूल ढांचा माना जिसे संविधान संषोधन भी समाप्त नहीं कर सकता। इस अनुच्छेद में यह स्पश्ट है कि कोई भी विधि मूल अधिकारों से असंगत है या नहीं इसका निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जायेगा और असंगत की स्थिति में उसे अवैध व षून्य घोशित किया जा सकता है। बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन कानून 1873 अंग्रेजों की एक सोची-समझी नीति थी और अपने निजी फायदे के लिए उन्होंने इसका निर्माण किया था पर संविधान लागू होने के लगभग 7 दषक पूरे होने के बावजूद अभी भी ऐसे कानून जिंदा हैं जो मूल अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं तो सवाल उठने लाज़मी हैं कि इसे पहले ही संज्ञान में क्यों नहीं लिया। हालांकि न्यायिक पुर्नविलोकन में एक पक्ष यह भी है कि संविधान लागू होने की तारीख से यदि कोई ऐसा कानून पहले से बना हो जो संविधान के लिए चुनौती हो उसे षून्य माना जायेगा तो फिर 1873 का यह एक्ट स्वतः षून्य क्यों नहीं हुआ और अखण्ड भारत में परमिट की व्यवस्था अभी भी जारी क्यों है? चूंकि अब सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह आया है तो सम्भव है कि इस पर भी न्याय होगा।
इस कानून को लाने में अंग्रेजी इरादों को भी समझना ठीक रहेगा। दरअसल बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन 1873 के प्रावधान के अन्तर्गत अंग्रेज भारतीयों को नागालैण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाने वाली औशधीय और कई बहुमूल्य वनस्पतियों के लाभ से वंचित रखना चाहते थे। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देष्य उनका स्वयं का निजी लाभ था। इसके कारण ब्रिटिष सरकार ही उसका व्यापारिक लाभ उठा सकती थी और व्यापार में उनका एक अधिकार कायम रहा। देष की स्वतंत्रता के बाद भी यह कानून विस्तार लिए हुए है जो किसी भी तरह सुसंगत नहीं कहा जा सकता। कई भारतीय छुट्टियों में घूमने के लिए ऐसे स्थानों की योजना बनाते हैं जिसके लिए राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। ठीक वैसे जैसे विदेषी नागरिक या भारतीय विदेष जाने के लिए वीजा आॅन अराइवल लेता है। दरअसल सीमावर्ती राज्यों एवं अन्तर्राश्ट्रीय सीमा से लगे इलाके संवेदनषील होते हैं इसी तरह इस तरह के इलाकों में इनरलाइन परमिट जारी किया जाता है। जो पर्यटन और नौकरी दोनों के लिए लेना पड़ता है। इसके अलावा इसकी जरूरत सीमावर्ती राज्यों जैसे लेह-लद्दाख के उन स्थानों पर भी होती है जहां की सीमा अन्तर्राश्ट्रीय बाॅर्डर से लगती है। याचिकाकर्ता का मानना है कि गुवाहाटी , दीमापुर व कोहिमा घूमने गये लेकिन उन्हें गुवाहाटी से ही आना पड़ा जो आष्चर्य की बात है। सरकार दीमापुर जिले में भी परमिट लागू करने की तैयारी कर रही है जो कि एक महानगरीय षहर है। ऐसा करने से भारत की अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर छवि खराब होती है। यह सही है कि नागा आदिवासियों को संरक्षण देने के लिए सरकार तर्कसंगत नियंत्रण तो लगा सकती है लेकिन अपने ही देष के हिस्से में आने-जाने के लिए परमिट जरूरी कर दे असंगत प्रतीत होता है। गौरतलब है कि दीमापुर नागालैण्ड का हिस्सा नहीं है और इसका मैदानी क्षेत्र असम में आता है और ऐसी जगहों पर परमिट व्यवस्था का होना रोजगार और गैर नागा जनजाति के लिए भी नुकसान होगा। हांलाकि यह मुद्दा देष में पहले भी उठा है। पहले कष्मीर में भी यह लागू था और इसी का विरोध करते हुए डाॅ0 ष्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दिया था और बिना परिमट कष्मीर गये थे जहां उनकी गिरफ्तारी हुई और बाद में हिरासत में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी तभी से कष्मीर से आॅनलाइन परमिट हटा दिया गया।
फिलहाल इनरलाइन परमिट की पूरी पड़ताल इस बात के लिए भी जरूरी है कि देष के संविधान और एकता और अखण्डता की दृश्टि से यह कितना असर डाल रहा है। हालांकि इसकी कुछ धाराएं मूल अधिकार को सीधे-सीधे चपेट में ले रही हैं। जिन राज्यों में इनरलाइन परमिट बनाने के नियम हैं वहां ये बाॅर्डर तो बना सकते हैं इसके अलावा दिल्ली, कोलकाता और गुवाहाटी में भी इसका आॅफिस है। पासपोर्ट साइज़ फोटो और सरकारी पहचान की इस हेतु जरूरत पड़ती है और इसमें आने वाला खर्च 300 रूपए तक का है। मिजोरम, अरूणाचल एवं नागालैण्ड के लिए 15 दिन के लिए परमिट मिलता है। इससे अधिक के लिए रिन्यूवल कराना पड़ता है। सुविधा की दृश्टि से ट्रेवल एजेन्सी भी घूमने के पैकेज में परमिट करा देती है। असम के जंगल और खनिजों का पूरा लाभ मिले, इसाई मिषनरी को विस्तार मिले, औशधीय सम्पदा का पूरा फायदा अंग्रेज उठायें इसी के लिए यह व्यवस्था थी। गौरतलब है कि तीनों प्रदेषों से म्यांमार, बांग्लादेष और भूटान व तिब्बत-चीन सीमाएं जुड़ी हैं षायद सीमा सुरक्षा के लिए भी इस परमिट का उपयोग होता होगा क्योंकि अवैध घुसपैठिये भी यहां खुले आम घूम सकते हैं पर भारतीयों के वहां जाने पर जो रोक-टोक है अब उस पर नये सिरे से विचार की तैयारी हो रही है। सम्भव है कि स्वतंत्र भारत में लागू मूल अधिकार का संरक्षण करते हुए न्यायालय इस पुराने कानून पर एक नई राह सुझायेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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ईरान पर अमेरिकी हमला अमेरिकी विवशता


बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका ने क्या वाकई में ईरान पर साइबर हमला किया है? सवाल इसलिए क्योंकि ईरान का हालिया जवाब कि अमेरिका की ओर से किया गया कोई हमला फिलहाल सफल नहीं हुआ। गौरतलब है कि अपना ड्रोन मार गिराये जाने के बाद अमेरिका ने ईरान की मिसाइल नियंत्रण प्रणाली और एक जासूसी नेटवर्क को निषाना बनाये जाने की बात कही गयी। वैसे तो अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 13 करोड़ अमेरिकी डाॅलर की कीमत वाले मानवरहित अमेरिकी निगरानी ड्रोन विमान को मार गिराये जाने के बाद ईरान पर सैन्य हमला कर देने की मंजूरी बीते 21 जून को ही दे दी थी पर हमला करने से पहले ही फैसला पलट दिया। न्यूयाॅर्क टाइम्स में प्रकाषित रिपोर्ट के अनुसार फैसले में षामिल या जानकारी रखने वाले वरिश्ठ प्रषासनिक अधिकारियों ने माना कि ट्रंप ने षुरू में रडार तथा मिसाइल बैट्रियों जैसे कुछ ठिकानों पर सैन्य हमले की मंजूरी दे दी थी और यह भी तय किया गया था कि हमला 21 जून की सूर्योदय से ठीक पहले होगा ताकि ईरानी सेना और वहां के नागरिकों को कम से कम खतरा हो। वांषिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट भी यह कहती है कि साइबर हमले से राॅकेट और मिसाइल प्रक्षेपण में इस्तेमाल होने वाले ईरानी कम्प्यूटरों को नुकसान पहुंचाये। फिलहाल अमेरिका का ईरान के खिलाफ अभी तो यह परोक्ष युद्ध दिखाई देता है पर स्थिति प्रत्यक्ष युद्ध की भी नकारी नहीं जा सकती और यह दुनिया के लिए चिंता का विशय होना चाहिए। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने 13 मई को कहा था कि हम आने वाले समय में देखेंगे कि ईरान के साथ क्या होता है। ट्रंप द्वारा ईरान पर हमले का फैसला वापस लेने के बावजूद खाड़ी क्षेत्र में तनाव फिलहाल कम होता दिखाई नहीं देता। वैसे देखा जाय तो अमेरिका के साथ तनाव बढ़ाने में ईरानी तेवर भी काफी योगदान कर रहे हैं। बीते 23 जून को ईरानी संसद ने सत्र के दौरान अमेरिका मुर्दाबाद के नारे लगाये और अमेरिका को दुनिया का असली आतंकवादी करार दिया। 
बड़ा सवाल यह है कि इस तनाव से किसे फायदा है और दुनिया को क्या मिलने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका अपने एकाधिकार के चलते ईरान का दिमाग ठिकाने लगाने निकला हो और हमला उसकी विवषता बन गयी हो। अमेरिका अनभिज्ञ नहीं है कि एक और खाड़ी युद्ध की पटकथा लिखने से उस पर क्या असर पड़ेगा। देखा जाए तो ट्रंप प्रषासन ने युद्ध के लिए कोई लक्ष्य घोशित नहीं किया है। वैसे भी ईरान एक ताकतवर और बड़ा देष है न तो आसानी से झुकेगा और न ही झुकाया जा सकता है। सवाल यह भी है कि ट्रंप चाहते क्या हैं। पड़ताल से लगता है कि ट्रंप परमाणु संधि पुर्नगठन, ईरान के मिसाइल प्रोग्राम पर कंट्रोल, सऊदी-यूएई के तेल व्यापार बढ़ाना और इज़राइल को खुष करने की चाल इस मामले में दिखती है। अमेरिका के साथ देषों में इज़राइल, कतर, सऊदी अरब और यूएई जबकि ईरान के संग रूस, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और यूरोपीय संघ खड़ा दिखता है। सम्भव है कि ईरान के पक्ष में खड़े देष अमेरिका से कोई सीधी टक्कर तो नहीं लेंगे पर ईरान की आंतरिक ताकत बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। खास यह भी है कि जिस परमाणु समझौते को लेकर अमरिका यह सब करने पर उतारू है उस दस्तावेज पर उसके अलावा चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन ने भी हस्ताक्षर किये थे। पष्चिमी एषिया के बिगड़ते हालात के बीच तेल बाजार में भी अस्थिरता दिख रही है। कोरिया के साथ 1953 के युद्ध के बाद अमेरिका ने जितने भी युद्ध लड़े उसने दूसरे देषों का साथ जरूर लिया पर इस समय की परिस्थिति तो ऐसी है कि यदि युद्ध छिड़ता है तो ब्रिटेन, सऊदी अरब, यूएई व इज़राइल को छोड़कर षायद ही कोई देष अमेरिका का साथ दे। चीन से लगातार ट्रेड वाॅर जारी है और ईरान से तेल खरीदने को लेकर लगी पाबंदी से बीते 2 मई से भारत जूझ रहा है। इतना ही नहीं बीते 5 जून से तरजीही देष का दर्जा भी अमेरिका ने भारत से छीन लिया है। इसे देखते हुए भारत ने भी पलटवार किया मौजूदा समय में द्विपक्षीय सम्बंध भी तनावग्रस्त हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो यही प्रतीत होता है कि डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के सामने स्वयं को इसलिए खड़ा किया है क्योंकि उसने पिछले साल 8 मई को अमेरिका के साथ हुए 2015 के परमाणु समझौते से हटने का एलान किया था। इसके बाद से ही तेल निर्यात को रोकने के साथ ही ईरान पर कई प्रतिबंध जड़ दिये गये। अमेरिका का कहना है कि उसके द्वारा की गयी कार्यवाही परमाणु कार्यक्रम और आतंकी गतिविधियों को लेकर की गयी है। इन सबके बावजूद एक सवाल यह भी है कि क्या अमेरिका और ईरान के रिष्ते पर केवल परमाणु समझौता ही एक बड़ा कारक रहा है। कहीं इसकी गांठ इतिहास के धुंधले पन्ने पर तो नहीं अटकी है। पड़ताल बताती है कि दोनों देषों के रिष्तों में 40 साल पुरानी एक गांठ है। जिसने दरार को बड़ा कर दिया। गौरतलब है कि 1979 में ईरानी क्रांति की षुरूआत हुई थी। तब तत्कालीन सुल्तान रेजा षाह पहल्वी के तख्तापलट की तैयारी हुई थी। असलियत यह भी है कि 1953 में अमेरिका की मदद से ही षाह को ईरान का राज मिला था और उसने अपने कार्यकाल में ईरान के भीतर अमेरिकी सभ्यता को फलने-फूलने तो दिया लेकिन कई प्रकार के अत्याचार भी देष के भीतर किये। स्थिति को देखते हुए धार्मिक गुरू सुल्तान के खिलाफ हो गये और 1979 एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया जिसने ईरान की सूरत बदल दी। तब तत्कालीन सुल्तान ने अमेरिका की पनाह ली और इसी साल ईरान पर इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू किया गया था। ईरानी रिवोल्यूषन के विद्रोही सुल्तान की वापसी चाहते थे उन पर आरोप था कि खूफिया पुलिस की मदद से ईरान के ऊपर सुल्तान ने कई अपराध किये हैं। इस मांग को अमेरिका ने खारिज कर दिया। इस मामले को वियना संधि के खिलाफ बताते हुए तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति ने बाकायदा आर्मी आॅपरेषन ईगल क्लाॅ की मदद से बंधकों को छुड़ाने की कोषिष भी की जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। इस आॅपरेषन के बाद ईरान के कई अमेरिका से सम्बंध रखने वाले नागरिकों को देष निकाला दिया गया, उन्हें नजरबंद किया गया उक्त बर्ताव के चलते अमेरिका और ईरान के रिष्ते बेहद खराब हो गये।
वैसे अमेरिका को अलग-थलग पड़ने का डर भी सता रहा है। ट्रंप कुछ भी हो एक और युद्ध में फंसना नहीं चाहते होंगे। अमेरिका के रक्षा मुख्यालय पेंटागन ने ताजा समीक्षा में कहा है कि ईरान की नौसेना पर अमेरिका 2 दिन के अंदर कब्जा कर लेगा। हर मोर्चे पर ईरान को वह तबाह कर देगा। वैसे एक सच यह भी है कि अमेरिका ईरान पर कूटनीतिक दबाव कितना भी बना ले पर प्रत्यक्ष आक्रमण से स्वयं को रोकना चाहेगा क्योंकि ट्रंप अन्तहीन युद्ध से अलग दिषा में चलने वाले राश्ट्रपति हैं और अपना फायदा, नुकसान अच्छी तरह जानते हैं। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने हालिया बयान में कहा है कि यदि ईरान परमाणु हथियार की इच्छा छोड़ दे तो मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त बनूंगा। दुनिया में तनाव या युद्ध दो पड़ताल का अवसर देती है पहला उसका दोस्त कौन है? दूसरा उसका दुष्मन कौन है? विडम्बना सिर्फ यही नहीं है कि अमेरिका और ईरान के बीच तनातनी है बल्कि पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा के दौर में ईरान के साथ जो बेहद महत्वाकांक्षी समझौता हुआ था आज उसी को लेकर मामला युद्ध के दरवाजे पर खड़ा है। ट्रंप की बार-बार धमकी और ईरान द्वारा उस धमकी के प्रतिउत्तर के कारण स्थिति बेकाबू होती चली गयी। तेहरान द्वारा अपनी सीमा में अमेरिकी ड्रोन बताकर मार गिराना और अमेरिका द्वारा साइबर हमला युद्ध के चरम को प्रदर्षित कर रहा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Wednesday, June 12, 2019

सुशासन का उपकरण है सिटिज़न चार्टर

सुषासन प्रत्येक राश्ट्र के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। सुषासन के लिए यह जरूरी है कि प्रषासन में पारदर्षिता तथा जवाबदेही दोनों तत्व अनिवार्य रूप से विद्यमान हों। सिटिजन चार्टर (नागरिक अधिकार पत्र) एक ऐसा हथियार है जो कि प्रषासन की जवाबदेहिता और पारदर्षिता को सुनिष्चित करता है। जिसके चलते प्रषासन का व्यवहार आम जनता (उपभोक्ताओं) के प्रति कहीं अधिक संवेदनषील रहता है। दूसरे अर्थों में प्रषासनिक तंत्र को अधिक जवाबदेह और जनकेन्द्रित बनाने की दिषा में किये गये प्रयासों में सिटिजन चार्टर एक महत्वपूर्ण नवाचार है। नई सरकार की पुरानी नीतियों पर दृश्टि डालें तो स्पश्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी सुषासन को जिस तरह महत्व देने का काम किया पर सफलता मन माफिक नहीं मिली है। इसके पीछे सिटिजन चार्टर का सही तरीके से लागू न हो पाना भी मुख्य कारण रहा है। जनता के वे कार्य जो समय सीमा के भीतर पूर्ण हो जाने चाहिए उसके प्रति भी दोहरा रवैया जिम्मेदार रहा है। दो टूक कहें तो इस अधिकार के मामले में कथनी और करनी में काफी हद तक अंतर रहा है। देष भर में विभिन्न सेवाओं के लिए सिटिजन चार्टर लागू करने के मामले में पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई करने से ही इंकार कर दिया। षीर्श अदालत का तर्क था कि संसद को इसे लागू करने के निर्देष दे सकते हैं। इस मामले को लेकर न्यायालय ने याचिकाकत्र्ता के लिए बोला कि वे सरकार के पास जायें जबकि सरकारों का हाल यह है कि इस मामले में सफल नहीं हो पा रहीं हैं। यूपी में सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री येागी ने कहा कि सिटिजन चार्टर को कड़ाई से लागू करेंगे पर स्थिति संतोशजनक नहीं है। 
भारत में कई वर्शों से आर्थिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इसके साथ ही साक्षरता दर में पर्याप्त वृद्धि हुई और लोगों में अधिकारों के प्रति जागरूकता आयी। नागरिक और अधिकार और अधिक मुखर हो गये तथा प्रषासन को जवाबदेह बनाने में अपनी भूमिका भी सुनिष्चित की। अन्तर्राश्ट्रीय परिदृष्य में देखें तो विष्व का नागरिक पत्र के सम्बंध में पहला अभिनव प्रयोग 1991 में ब्रिटेन में किया गया जिसमें गुणवत्ता, विकल्प, मापदण्ड, मूल्य, जवाबदेही और पारदर्षिता मुख्य सिद्धांत निहित हैं। चूंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है ऐसे में षासन और प्रषासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि जनता की मजबूती के लिए हर सम्भव प्रयास करें साथ ही व्यवस्था को पारदर्षी और जवाबदेह के साथ मूल्यपरक बनाये रखें। इसी तर्ज पर आॅस्ट्रेलिया में सेवा चार्टर 1997 में, बेल्जियम में 1992, कनाडा 1995 जबकि भारत में यह 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में इसे मूर्त रूप देने का प्रयास किया गया। पुर्तगाल, स्पेन समेत दुनिया के तमाम देष नागरिक अधिकार पत्र को अपनाकर सुषासन की राह को समतल करने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के मामले में कहीं अधिक गम्भीर दिखाई देते हैं परन्तु सर्विस फस्र्ट के आभाव में यह व्यवस्था कुछ हद तक आषातीत नहीं रही। भारत सरकार द्वारा इसे लेकर एक व्यापक वेबसाइट भी तैयार की गयी जिसका प्रषासनिक सुधार और लोक षिकायत विभाग द्वारा 31 मार्च 2002 को लांच की गयी। वैसे सुषासन को निर्धारित करने वाले तत्वों में राजनीतिक उत्तरदायित्व सबसे बड़ा है। यही राजनीतिक उत्तरदायित्व सिटिजन चार्टर को भी नियम संगत लागू कराने के प्रति जिम्मेदार है। सुषासन के निर्धारक तत्व मसलन नौकरषाही की जवाबदेहिता, मानव अधिकारों का संरक्षण, सरकार और सिविल सेवा सोसायटी के मध्य सहयोग, कानून का षासन आदि तभी लागू हो पायेंगे जब प्रषासन और जनता के अन्र्तसम्बंध पारदर्षी और संवेदनषील होंगे जिसमें सिटिजन चार्टर महत्वपूर्ण पहलू है। 
एक लोकतांत्रिक देष में नागरिकों को सरकरी दफ्तरों में बिना रिष्वत दिये अपना कामकाज निपटाने के लिये यदि सात दषक तक इंतजार करना पड़े तो षायद यह गर्व का विशय तो नहीं होगा। जिस प्रकार सिटिजन चार्टर के मामले में राजनीतिक भ्रश्टाचार एवं प्रषासनिक संवेदनहीनता देखने को मिल रही है वह भी इस कानून के लिए ही रोड़ा रहा है। सूचना का अधिकार कानून के साथ अगर सिटिजन चार्टर भी कानूनी षक्ल, सूरत ले ले तो यह पारदर्षिता की दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम होगा और सुषासन की दृश्टि से एक सफल दृश्टिकोण करार दिया जायेगा। जिन राज्यों में पहले से सिटिजन चार्टर कानून अस्तित्व में है वहां कोई नये तरीके की अड़चन देखी जाती है। प्रषासनिक सुधार और लोक षिकायत विभाग ने नागरिक चार्टर का आंतरिक व बाहरी मूल्यांकन अधिक प्रभावी, परिणामपरक और वास्तविक तरीके से करने के लिए मानकीकृत माॅडल हेतु पेषेवीर एजेंसी की नियुक्ति दषकों पहले किया था। इस एजेंसी ने केन्द्र सरकार के पांच संगठनों और आन्ध्र प्रदेष, महाराश्ट्र और उत्तर प्रदेष राज्य सरकारों के एक दर्जन से अधिक विभागों के चार्टरों के कार्यान्वयन का मूल्यांकन भी किया। रिपोर्ट में रहा कि अधिकांष मामलों में चार्टर परामर्ष प्रक्रिया के जरिये नहीं बनाये गये। इनका पर्याप्त प्रचार-प्रसार नहीं किया गया। नागरिक चार्टर के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए किसी प्रकार की कोई धनराषि निर्धारित नहीं की गयी। उक्त मुख्य सिफारिषें यह परिलक्षित करती हैं कि सिटिजन चार्टर को लेकर लेकर जितनी बयानबाजी की गयी उतना किया नहीं गया। यद्यपि सिटिजन चार्टर प्रषासनिक सुधार की दिषा में एक महत्वपूर्ण पहल है तथापि भारत में यह अधिक प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा। इसके कारण भी हतप्रभ करने वाले हैं। पहला यह कि सर्वमान्य प्रारूप का निर्धारण नहीं हो पाया, अभी भी कई सरकारी एजेंसियां इसका प्रयोग नहीं करती हैं। स्थानीय भाशा में इसे लेकर बढ़ावा न देना, इस मामले में उचित प्रषिक्षण का अभाव तथा जिसके लिए सिटिजन चार्टर बना वही नागरिक समाज भागीदारी के मामले में वंचित रहा। 
प्रधानमंत्री मोदी की पुरानी सरकार सबका साथ, सबका विकास की अवधारणा से युक्त थी तब भी सिटिजन चार्टर को लेकर समस्यायें कम नहीं हुईं। अब वह नई पारी खेल रहे हैं और इस ष्लोगन में सबका विष्वास भी जोड़ दिया है पर यह तभी सफल करार दी जायेगी जब सर्विस फस्र्ट की थ्योरी देखने को मिलेगी। उल्लेखनीय है कि भारत में नागरिक चार्टर की पहल 1997 में की गयी जो कई समस्याओं के कारण बाधा बनी रही। नागरिक चार्टर की पहल के कार्यान्वयन से आज तक के अनुभव यह बताते हैं कि इसकी कमियां भी बहुत कुछ सिखा रही हैं। जिन देषों ने इसे एक सतत् प्रक्रिया के तौर पर अपना लिया है वे सघन रूप से निरंतर परिवर्तन की राह पर हैं। जहां पर रणनीतिक और तकनीकी गलतियां हुई हैं वहां सुषासन भी डामाडोल हुआ है। चूंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है ऐसे में लोक सषक्तीकरण ही इसका मूल है। सुषासन के भीतर और बाहर कई उपकरण हैं। सिटिजन चार्टर मुख्य हथियार है। सिटिजन चार्टर एक ऐसा माध्यम है जो जनता और सरकार के बीच विष्वास की स्थापना करने में अत्यंत सहायक है। एनसीजीजी का काम सुषासन के क्षेत्र में षोध करना और इसे लागू करने के लिए आसान तरीके विकसित करना है ताकि मंत्रालय आसानी से सुषासन सुधार को लागू कर सकें। सरकारी कामकाज में पारदर्षिता, ई-आॅक्षन को बढ़ावा देना, अर्थव्यवस्था की समस्याओं का हल तलाषना, आधारभूत संरचना, निवेष पर जोर, जनता की उम्मीद पूरा करने पर ध्यान, नीतियों को तय समय सीमा में पूरा करना, इतना ही नहीं सरकारी नीतियों में निरंतरता, अधिकारियों का आत्मविष्वास बढ़ाना और षिक्षा, स्वास्थ, बिजली, पानी को प्राथमिकता देना ये सुषासनिक एजेंण्डे मोदी के सुषासन के प्रति झुकाव को दर्षाते हैं। लोकतंत्र नागरिकों से बनता है और सरकार अब नागरिकों पर षासन नहीं करती है बल्कि नागरिकों के साथ षासन करती है। ऐसे में नागरिक अधिकार पत्र को कानूनी रूप देकर लोकतंत्र के साथ-साथ सुषासन को भी सषक्त बनाया जाना चाहिए। तभी जाकर बदले भारत और नये भारत का रूप निखर पायेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, June 10, 2019

पड़ोसी पहले की नीति पर मोदी


विश्व के राजनैतिक मंच पर भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाये इसके लिए यह जरूरी है कि वह पड़ोसी देषों को भरोसे में ले। मोदी का मालदीव और श्रीलंका दौरा इसका एक बेहतर उदाहरण है। लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी ने अपने पहले विदेष दौरे के पहले चरण में मालदीव तो दूसरे में श्रीलंका की यात्रा की । उनकी यह यात्रा भारत की ‘पड़ोसी पहले’ की नीति को ही नहीं दर्षाता  बल्कि इन देषों में चीन के बढ़ते प्रभाव को भी संतुलित करने के तौर पर समझा जा सकता है। इस दो दिवसीय यात्रा का मकसद हिन्द महासागर में स्थित मालदीव और श्रीलंका के साथ सम्बंध को और मजबूती प्रदान करना है। मालदीव की यात्रा कई मामले में काफी अहम मानी जा सकती है क्योंकि पिछले कुछ सालों में दोनों देषों के बीच रिष्ते बहुत अच्छे नहीं रहे। फरवरी  2018 में जब तत्कालीन राश्ट्रपति अब्दुल यामीन ने आपात लागू किया था। फिलहाल नई सरकार के तौर पर मोदी की पहली विदेष यात्रा में मालदीव सूचीबद्ध हो गया है। जहां षानदार नतीजे की अपेक्षा की गयी और कई समझौते पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें रक्षा और समुद्र समेत 6 महत्वपूर्ण द्विपक्षीय मसौदे षामिल हैं। मालदीव ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘रूल आॅफ निषान इज्जुद्दीन’ से भी मोदी को सम्मानित किया। इसमें कोई दुविधा नहीं कि मालदीव के भीतर मोदी का प्रभाव कहीं अधिक दिखा। वैसे देखा जाय तो मालदीव को अपने बंदरहगाह विकास, स्वास्थ, कृशि, मत्स्य पालन, पर्यटन और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में हमेषा दूसरे देषों से निवेष की अपेक्षा रही है इस मामले में भारत ने काफी हद तक उसकी मदद की है। हालांकि ऐसे ही मामलों में चीन भी अवसर खोजता रहता है ताकि हिन्द महासागर में उसका दबदबा कायम रहे और ऐसा करने में वह काफी हद तक सफल भी है।
स्थायी, सामाजिक और आर्थिक विकास प्राप्त कराने के मामले में भारत मालदीव को लेकर कभी पीछे नहीं रहा। फरवरी 2018 में जब मालदीव उथल-पुथल के दौर से जूझ रहा था तब भी भारत ने समस्या से उबारने के लिए जरूरी कूटनीतिक कदम उठाये थे। भारत की दृश्टि से मालदीव क्यों महत्वपूर्ण है इसकी भी पड़ताल कर लेना ठीक रहेगा। गौरतलब है कि मालदीव का सामरिक महत्व है। आतंकवादियों और समुद्री लुटेरों को नियंत्रित करने में इसका बड़ा योगदान है। भारत विविध तरीके से मालदीव में अपनी उपस्थिति बढ़ा कर चीन के प्रभाव को कम करने की काट भी खोजता रहा है। 26/11 के आक्रमण के बाद इन द्वीपों का सुरक्षा की दृश्टि से महत्व बढ़ गया है। महत्ता के क्रम में आगे देखें तो मालदीव भारत की नौसेना के लिए हिन्द महासागर में नौसेना अड्डे के रूप में उपयोग का हो सकता है। नौसेना और वायुसेना हेतु वहां निगरानी आदि की सुविधा बढ़ सकती है। मालदीव दक्षिण एषियाई देषों का समूह सार्क का सदस्य है और भारत के हितों से अंजान नहीं है। भारत आर्थिक सहायता भी मालदीव की हमेषा करता रहा है। इतना ही नहीं 7 अगस्त 2008 को जब वहां  नये संविधान को अपनाया गया तब भारत ने समर्थन किया। सरकारी स्तर पर सहायता, द्विपक्षीय समझौते और निवेष के तहत संरचनात्मक विकास आदि से  भी दोनों देषों के बीच सम्बंध मजबूत बने हैं। हालांकि पिछले 8 वर्शों में द्विपक्षीय स्तर पर किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली मालदीव यात्रा है। वैसे प्रधानमंत्री मोदी पिछली बार नवम्बर 2018 में राश्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद के षपथ समारोह में गये थे। लेकिन यह कोई अधिकारिक यात्रा नहीं थी। गौरतलब है कि मोदी से पहले साल 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मालदीव का दौरा किया था। खास यह भी है कि मालदीव की संसद को सम्बोधित करते समय मोदी ने पाकिस्तान पर भी निषाना साधा था और सरकार प्रायोजित आतंकवाद को सबसे बड़ी चुनौती बताया जो क्षेत्र विषेश के लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए है।
यात्रा का दूसरा चरण तब षुरू हुआ जब मोदी का विमान माले से कोलंबो की उड़ान भरा। जहां उन्होंने एक बार फिर आतंक को लेकर गहरी चिंता जतायी और आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे का आह्वान किया। गौरतलब है कि अप्रैल में श्रीलंका में ईस्टर के दिन आतंकी हमले हुए थे। देखा जाय तो आतंकी हमले के बाद श्रीलंका की यात्रा करने वाले मोदी पहले विदेषी नेता भी हो गये हैं। इस हमले में 11 भारतीय समेत 250 से ज्यादा लोग मारे गये थे। श्रीलंका की यात्रा को लाभदायक बताते हुए मोदी ने कहा कि हमारे दिल में श्रीलंका की खास जगह है उन्होंने वहां के बाषिन्दों को भाईयो एवं बहनों के रूप में सम्बोधित करके उनकी उन्नति को लेकर मानो आष्वासन दिया है। वैसे यह मोदी वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा परिलक्षित होते दिखाई देती है। मोदी की श्रीलंका की यह तीसरी यात्रा है इससे पहले वह 2015 और 2017 में दौरा कर चुके हैं। माना जा रहा है कि इस दौरे से श्रीलंका में विदेषी पर्यटकों की आवाजाही बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। ईस्टर सीरियल ब्लास्ट के बाद वहां के पर्यटन पर अच्छा खासा बुरा असर पड़ा था। वैसे पड़ताल बताती है कि श्रीलंका की जरूरत के वक्त उसके साथ सबसे पहले भारत खड़ा मिलता है। सूखा हो, बाढ़ हो भारत की ओर से मदद की पहली खेप भारत की ओर से ही जाती है। इस दौरे से न केवल सम्बंध में और गरमी आयेगी बल्कि वहां बसे भारतीय समुदाय में भी जिन्हें मोदी ने सम्बोधित किया उनके भीतर भी एक नया संदर्भ पनपेगा। हालांकि श्रीलंका में भी चीन के प्रभाव को बाकायदा देखा जा सकता है। साल 2009 में वहां लिट्टे का सफाया हो चुका है और इसी के साथ ही भारत और चीन पर अलग-अलग असर पड़ा है। भारत श्रीलंका को लेकर तटस्थ रहा। जबकि चीन ने अलग रूख अपनाया। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में उसने भारी निवेष करके अपना एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। यहां के बुनियादी ढांचे में भी व्यापक निवेष कर भारत को पीछे धकेलने का काम किया। हबनटोटा बंदरगाह के निर्माण में चीन मदद कर रहा है।
 चीन हिन्द महासागर के बीच ठिकाना बनाने की फिराक में है। इससे दक्षिणी चीन सागर के बंदरगाहों पर न केवल उसकी निर्भरता घटेगी बल्कि हिन्द महासागर में दबदबा भी बढ़ जायेगा। इसके अलावा भी कई ऐसे कृत्य हैं जिसे देखते हुए भारत की अक्सर चिंता रही है और श्रीलंका समेत मालदीव के साथ अच्छे सम्बंध रखना उसकी आवष्यकता बनी रही। एक समय ऐसा भी था जब भारत और श्रीलंका के बीच में व्यापक मतभेद हुआ करते थे। 1982-83 के दौर में तो मतभेद इतने गहरे थे कि श्रीलंका ने भारत विरोधी न केवल प्रचार किया बल्कि तत्कालीन राश्ट्रपति जयवर्धने ने कहा कि यदि संयोगवष भारत आक्रमण करता है तो सम्भव है कि हम पराजित हो जायें लेकिन लड़ेंगे षान से। हालांकि दोनों देषों के बीच साल 1948 से सम्बंध गड़बड़ाये थे पर बीते तीन दषकों से तेजी से पटरी पर दौड़ रहे हैं। इसके पहले मोदी ने श्रीलंका के लोगों को लेकर ई-वीजा और मुक्त व्यापार द्विपक्षीय समझौते में सहयोग करके सम्बंध के सम्बंध को आषा से भर दिया। इतना ही नहीं इसी प्रधानमंत्री का पहली बार अगर संघर्श प्रभावित जाफना का दौरा हुआ तो उसमें भी मोदी का नाम आता है। उन्होंने तमिल नेतृत्व से कोलंबो की सरकार को समय देने की बात भी कही थी। फिलहाल राश्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर श्रीलंका से बेहतर सम्बंध बनाये हुए है और आवष्यक मुद्दों पर कोलम्बो से सम्पर्क साधती रही है। मोदी की यह यात्रा भले ही किसी खास संधि या समझौते को जन्म न दिया हो पर आपसी विष्वास के लिए कहीं अधिक जरूरी है। 


सुशील कुमार सिंह
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Friday, June 7, 2019

दोहर चुनौतियों से चिंतित रिजर्व बैंक


विष्व बैंक को भले ही यह भरोसा हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर तेजी लेगी मगर भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने चालू वित्त वर्श 2019-20 में विकास दर 7 फीसदी रहने की बात करके एक नई स्थिति को उजागर किया है। जबकि इससे पूर्व आरबीआई विकास दर 7.2 फीसदी रहने का अनुमान जता चुका है। देष की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए रिज़र्व बैंक ने एक नई कोषिष कर दी है। अब इसे आगे बढ़ाने का काम केन्द्र सरकार का है। गौरतलब है कि लगातार तीसरी बार 0.25 प्रतिषत फीसद रेपो दर कम कर आरबीआई ने मकान और वाहन कर्ज सस्ते होने की राह खोल दी है। इसके अतिरिक्त डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने हेतु आरटीजीएस और एनईएफटी पर लगने वाले षुल्क को खत्म कर दिया है। गौरतलब है कि एसबीआई जैसे बैंक 10 हजार रूपए तक भेजने पर ढ़ाई रूपए एनईएफटी षुल्क वसूलता है यही एक लाख पर 5 और दो लाख तक 15 रूपए की वसूली होती थी और यदि राषि इससे ऊपर है तो 25 रूपए का खर्च आता था। इसी तरह बैंक आरटीजीएस पर 5 से 10 रूपए षुल्क जीएसटी के साथ वसूलता है। साथ ही बैंकों ने हर माह एटीएम से निकासी की सीमा तय कर रखी है। यदि लेनदेन सीमा से बाहर हुई तो उस पर भी षुल्क लिया जाता है साथ ही 18 फीसदी जीएसटी भी उसमें जोड़ लिया जाता है। अब उक्त पर विराम लगाने का वक्त आ गया है। इससे ग्राहकों को बड़ी राहत तो मिलेगी ही साथ ही डिजिटल लेनदेन को भी बढ़ावा मिलेगा। हालांकि देखा जाय तो बैंकों ने ग्राहकों से बेवजह पैसा कमाने का कई जरिया बना रखा है। परेषान सभी हैं पर अपना दुख बतायें किसे जाहिर है रिजर्व बैंक बैंकों का बैंक है जब उसी ने यह नीति निर्धारित की है तो अन्यों का यह नैतिक धर्म है कि वे उसे लागू करें। लागू करना ही होगा। खास यह भी है कि एटीएम से लेनदेन पर लगने वाले षुल्क की समीक्षा हेतु एक समिति भी बनाई गयी है जो आगामी दो माह में रिपोर्ट सौंपेगी। सब कुछ सही रहा तो यहां भी लगी पाबंदी से राहत मिलेगी।
 फिलहाल रेपो रेट 6 प्रतिषत से घटकर अब 5.75 हो गया है जो पिछले 9 साल की तुलना में सबसे कम है। जाहिर है कर्ज लेने वालों को राहत तो मिलेगी परन्तु एक सच्चाई यह है कि पिछली दो कटौती को देखें तो ग्राहकों को लाभ देने के मामले में एसबीआई, पीएनबी समेत कई बैंक बेहद कंजूस सिद्ध हुए। गौरतलब है कि इस साल ही पिछली दो बार रेपो दर में 0.50 फीसदी कटौती का पूरा लाभ बैंकों ने ग्राहकों को दिया ही नहीं। यह इस बात का संकेत है कि आरबीआई विकास को लेकर ब्याज दर घटाव के मामले में कितना ही उदार क्यों न हो जाए पर बैंक ग्राहकों का षोशण करने से बाज नहीं आते। वैसे एक सच्चाई यह है कि आज के इस बदलाव के दौर में बैंक फंसे लोन की उगाही में ग्राहकों को कोई भी राहत देने के लिए तैयार नहीं है बल्कि लगातार दबाव बनाने में लगे हुए हैं। नामी-गिरामी बैंक समेत पूरे देष के बैंकों की हालत यह है कि नाॅन परफोर्मेंस एसेट्स (एनपीए) 10 लाख करोड़ से अधिक पार कर गया है। बैंक अपने फंसे कर्ज की वसूली के लिए हर सम्भव विकल्प तलाष रहे हैं। वे न केवल अनाप-षनाप कटौती कर रहे हैं बल्कि कभी मिनिमम बैलेंस के नाम पर तो, कभी एटीएम के अधिक प्रयोग या खाते में राषि के लेनदेन की मात्रा पर भी अपनी जेब भर रहे हैं। इतना ही नहीं चेक बाउंस की स्थिति में काटी जाने वाली राषि में कई गुने की बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। बैंक मेनेजर की केबिन में बैठकर काॅफी के साथ लोन गटकने वाले व्यापारी बैंकों को जो चूना लगाया है उससे आम खाताधारण बैंकों की मनमानी के चलते षोशित महसूस कर रहे हैं। जाहिर है कुछ हद तक बैंकों ने अपनी विष्वसनीयता भी खोई है। 
फिलहाल मौद्रिक नीति में नरमी से अर्थव्यवस्था को तेजी मिलेगी कर्ज सस्ता होगा और विकास का दरिया बहेगी ऐसा सोचना बेहद सुखद है। सुस्त होती अर्थव्यवस्था पर वैष्विक कारकों के असर पर रिज़र्व बैंक ने कहा है अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध और क्रूड आॅयल की कीमतों में उतार-चढ़ाव से मांग और आपूर्ति पर प्रभाव पड़ेगा। डाॅलर के मुकाबले लुढ़कता भारतीय रूपया जीडीपी की वृद्धि दर में बाधक बन सकता है। घरेलू मोर्चे पर देखें तो कई कोर सेक्टर में वृद्धि दर बीते अप्रैल में गिरी हुई थी जबकि सेवा क्षेत्र पिछले एक साल की तुलना में सबसे निचले स्तर पर चला गया। मानसून और खाद्य भण्डार पर्याप्त होने से राहत की बात कही जा रही है पर ये तो आंकड़ें हैं पूरा भरोसा कैसे किया जा सकता है। आरबीआई का ब्याज दरों में कटौती के साथ यह निहित मन्तव्य दिखता है कि वह विकास दर को तेज करना चाहता है। यह बात इसलिए पुख्ता है क्योंकि बीते चार महीने में रेपो दर तीन बार कम किया गया है और जुलाई 2010 के बाद यह सबसे निचले स्तर पर है। वैसे देखा जाय तो ट्रेड वाॅर के चलते वैष्विक मांग कमजोर पड़ने से आने वाले समय में भारत के निर्यात और निवेष पर असर पड़ सकता है। रिज़र्व बैंक के गवर्नर की अध्यक्षता वाली मौद्रिक नीति की समिति ने कहा है कि वित्त वर्श 2018-19 की चैथी तिमाही के आंकड़े से यह पता चलता है कि घरेलू निवेष गतिविधियां सुस्त पड़ गयी हैं और निर्यात की वृद्धि धीमी पड़ने से मांग भी कमजोर पड़ी है। हालांकि सकारात्मक पहलू यह है कि देष में राजनीतिक स्थिरता है, और एक ताकत वर सरकार है जिसके चलते कई समस्याएं आसानी से हल की जा सकेंगी। नकदी का बढ़ता प्रवाह निवेष गतिविधियों के अनुकूल है पर डिजिटल लेनदेन के विरूद्ध भी दिखाई देता है। 
आम चुनाव के बाद व नई सरकार के गठन के पष्चात् अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए रिज़र्व बैंक ने एक अच्छा कदम उठाया है। रेपो दर कम होने का अर्थ है कि बैंक अब कम दरों पर कर्ज दे सकेंगे साथ ही उद्योगों और होमलोन की अदायगी भी कम ब्याज दर पर होगी। मौजूदा समय में जो देष की अर्थव्यवस्था है और कुछ हद तक उसमें जो मन्दी बनी हुई है उसे देखते हुए रिज़र्व बैंक का यह कदम गति लाने का काम करेगा। गौर करने वाली बात यह भी है कि बीते तिमाही का विकास दर पिछली 21 तिमाही में सबसे निचले स्तर पर रही और महंगाई दर भी बहुत ज्यादा नहीं रही। ऐसे में रिज़र्व बैंक जो सोच कर कदम बढ़ा रहा है उसे प्राप्त करना कठिन तो नहीं है। दिलचस्प यह भी है कि रिज़र्व बैंक अपनी इस नीति का खुलासा मानसून को ध्यान में रखकर किया पर जो मानसून 6 जून को केरल के तट से टकराने वाला था वह दो दिन पीछे हट गया। हैरत की बात यह है कि ब्याज दर में कटौती के साथ और कर्ज नीति की घोशण के बात षेयर मार्केट में गिरावट आई है जबकि यह काफी समय से लगातार ऊपर जा रहा था। पूरी अर्थव्यवस्था में कर्ज नीति महत्वपूर्ण है पर जमीनी हालात इसके कभी दुविधा से परे षायद ही रहे हों। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सरकारें अर्थव्यवस्था को पटरी पर ले जाने में और तेजी से विकास दर देने में स्वयं हांफ जाती हैं और अपनी कमी के बावजूद अपने को बचा भी लेती हैं। रिज़र्व बैंक के सामने जो चुनौतियां हैं वो दोहरी हैं एक ओर विकास दर को गति देने का तो दूसरी ओर कर्ज नीति के तहत नागरिकों को राहत देने का। कह सकते हैं कि विकास दर के लिए ब्याज दर में गिरावट की गयी है पर सरकार और बैंक को भी अब अपनी ड्यूटी ईमानदारी से निभानी होगी।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, June 3, 2019

बेवजह परेशानी का सबब बना अमेरिका


1 जनवरी, 1976 को अमेरिकी ट्रेड एक्ट 1974 के अन्तर्गत जीएसपी की षुरूआत की गयी थी जिसका उद्देष्य विकासषील देषों में आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देना था पर ट्रंप प्रषासन ने इस पर विराम लगा दिया। अमेरिका ने भारत को मिले सामान्य तरजीही प्रणाली दर्जे को खत्म कर दिया है जो 5 जून से लागू हो जायेगा। जनरलाइज्स सिस्टम आॅफ प्रिफरेंसेस (जीएसपी) अर्थात् सामान्य तरजीही व्यवस्था का खत्म हो जाना भारत के लिए एक बड़ा झटका है। अभी बामुष्किल एक माह ही हुआ है जब अमेरिकी दबाव में ईरान से कच्चे  तेल का आयात भारत में बंद हो गया। गौरतलब है कि भारत की तरजीही राज्य का बड़ा लाभार्थी रहा है और अमेरिका को किये जाने वाले कुल निर्यातों का 25 फीसदी हिस्सा षुल्क मुक्त उत्पादों का रहा है। जीएसपी के तहत केमिकल्स और इंजीनियरिंग सेक्टरों के लगभग 19 सौ भारतीय प्रोडक्ट को अमेरिकी बाजार में ड्यूटी फ्री पहुंच हासिल थी। हालांकि ऐसा माना जा रहा है कि जीएसपी तरजीही दर्जा वापस लेने का भारत पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा क्योंकि जीएसपी के फायदे बहुत ज्यादा नहीं थे। गौरतलब है कि साल 2017-18 में भारत ने अमेरिका को 48 अरब डाॅलर के मूल्य के उत्पादों का निर्यात किया था जिसमें जीएसपी के तहत साढ़े पांच अरब डाॅलर से थोड़े अधिक मूल्य के ही उत्पाद थे। जाहिर है इस तुलना में भारत को सालाना 19 करोड़ डाॅलर का ड्यूटी बेनिफिट मिला जो कुल निर्यात की तुलना में मामूली ही प्रतीत होता है। दरअसल डोनाल्ड ट्रंप व्यापार घाटे को कम करने के लिए काफी आक्रामक हैं। ट्रंप न केवल एक-एक कर पुरानी व्यवस्थाओं को पलटते जा रहे हैं बल्कि चीन के साथ व्यापार युद्ध के चलते बेवजह भारत के लिए परेषानी का सबब बन रहे हैं। सरसरी तौर पर देखें तो उत्पादों में मिली छूट से जो फायदा था अब उसकी भरपाई कहां से होगी एक आर्थिक चिंतन तो खड़ा ही हो गया है। मौजूदा परिस्थिति में नुकसान की भरपाई कर पाना कठिन है पर राह न निकले ऐसी कोई वजह दिखाई नहीं देती। 
अमेरिका और चीन के बीच इन दिनों व्यापार युद्ध जारी है पर इस युद्ध को भुनाते हुए भारत चीनी बाजार में अपनी जगह बनाने की कोषिष में भी लगा हुआ है। माना जा रहा है कि भारत ने ऐसे 40 उत्पादों की सूची तैयार की है जिन्हें वह चीन में एक्सपोर्ट करके अमेरिकी एक्सपोर्ट बाजार पर कब्जा कर सकता है। दरअसल चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वाॅर के चलते अमेरिका का वहां सामान एक्सपोर्ट करना महंगा हो गया है। यदि भारत के उत्पादों की खपत चीन में बढ़ती है तो 63 बिलियन डाॅलर के घाटे को भी कुछ पाटने के काम आ सकता है। पड़ताल बताती है कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार में अमेरिका का घाटा लगभग 400 बिलियन डाॅलर तक पहुंच गया है। इतना ही नहीं दूसरे देषों के साथ भी अमेरिका के व्यापार घाटे की स्थिति काफी सोचनीय है। मैक्सिको, जापान, जर्मनी, वियतनाम, आयरलैण्ड, इटली व मलेषिया समेत इण्डिया के साथ भी व्यापार घाटा कई बिलियन डाॅलर के साथ बना हुआ है। तथ्य यह भी है कि जिस भारत को अमेरिका बड़े बाजार के कारण चीन के समानांतर रखता रहा है पर अब वही अमेरिका चीन के साथ अपने व्यापार युद्ध में भारत को भी लपेट रहा है। अमेरिका ने भारत के तरजीही राज्य के दर्जे को बरकरार रखने या ईरान से तेल खरीद में छूट देने पर दो टूक इंकार किया है। ट्रंप ने कह दिया है कि वे अपने फैसले से पीछे हटने वाले नहीं है। ट्रंप ने तो यह भी कहा है कि उसके प्रतिबंधों के बावजूद अगर कोई देष ईरान से तेल खरीदता है तो वे वो प्रतिबंध झेलने के लिए तैयार रहें। इतना ही नहीं अमेरिका ने रूस के साथ सबसे दूरी की मिसाइल एस-400 रक्षा प्रणाली खरीदने के फैसले पर भारत को चेतावनी दी है कि ऐसा करने से रक्षा सम्बंधों पर गम्भीर असर पड़ेगा। गौरतलब है कि भारत ने रूस के साथ अक्टूबर 2018 में एस-400 का सौदा 5 अरब डाॅलर में किया था। तभी से अमेरिका इस पर भी तल्ख है और यह भी धमकी थी कि कटसा कानून के तहत प्रतिबंध लगाया जा सकता है। स्पश्ट कर दें कि अमेरिका ने अपने दुष्मन देषो को प्रतिबंधों के जरिये दण्डित करने के लिए यह कानून बनाया है।
अमेरिका ने भारत से तरजीही दर्जा क्यों समाप्त किया इसकी वजह भी समझना जरूरी है। अमेरिकी राश्ट्रपति का यह कहना है कि भारत से यह आष्वासन नहीं मिल पाया है कि वह अपने बाजार में अमेरिकी उत्पादों को बराबर की छूट देगा। ट्रंप का आरोप है कि भारत में पाबंदियों के चलते उसे व्यापारिक नुकसान हो रहा है और भारत जीएसपी के मापदण्ड पूरे करने में नाकाम रहा है। गौरतलब है कि पिछले साल अप्रैल से ही अमेरिका ने जीएसपी के लिए तय षर्तों की समीक्षा षुरू कर दी थी। असल बात यह है कि चीन के साथ ट्रेड वाॅर में फंसा अमेरिका बहुत बड़े घाटे का षिकार हो रहा है और उसके उत्पाद चीनी बाजार से गायब हो रहे हैं। ऐसे में वह उम्मीद करता है कि भारत उसके उत्पादों को तवज्जो देगा जबकि यदि भारत अमेरिकी उत्पादों केा भारत में खपत करने का अवसर देता है तो कई आर्थिक कठिनाईयां बढ़ सकती हैं। अमेरिका राश्ट्रपति का कहना कि भारत में आयात षुल्क ज्यादा है और हम भी भारतीय आयात पर बराबर टैरिफ लगायेंगे। ट्रंप ने यह फैसला अपने मेडिकल और डेरी उद्योगों के षिकायतों के पष्चात् लिया जिसमें स्पश्ट था कि भारत उनके लिए अपने बाजार नहीं खोलता है। हालांकि यह भी सच है कि कुछ उत्पादों पर भारत में लगने वाले ऊंचे षुल्क पर तीखी आलोचना करके ट्रंप ने अपने इरादे की झलक ट्रंप ने पहले भी दिखाई थी। बीते 30 मई को सत्ता में दोबारा लौटी मोदी सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती रहेगी। जिस तर्ज पर अमेरिका के साथ भारत के रिष्ते हों उसे देखते हुए स्थिति पर काबू पाना कठिन नहीं लगता। मगर मगर अमेरिका चीन की खीज बेवजह भारत पर उतारेगा तो थोड़ी परेषानी तो बढ़ेगी ही।
चीन ने बीते 2 जून को अमेरिका को युद्ध की धमकी देकर सनसनी फैला दी। हालांकि उसकी यह प्रतिक्रिया हाल के महीनों में अमेरिका के स्वषासित ताइवान की हर तरह की सहायता बढ़़ाने के चलते थी। गौरतलब है कि चीन नहीं चाहता कि अमेरिका, ताइवान और दक्षिण चीन सागर के सुरक्षा मामलों में हस्तक्षेप करे। फिलहाल देखा जाय तो यूएस ट्रेड रिप्रेजेन्टेटिव के उद्देष्य विकासषील देषों को अपने निर्यात को बढ़ाने में मदद करना है ताकि उनकी अर्थव्यवस्था बढ़ सके और गरीबी घटाने में मदद मिल सके। अमेरिका द्वारा अन्य देषों को व्यापार में दी जाने वाली तरजीही की यह सबसे पुरानी और बड़ी प्रणाली है जिसकी षुरूआत 1976 में हुई थी। भारत 2017 में जीएसपी कार्यक्रम का सबसे बड़ा लाभार्थी रहा है। अभी तक लगभग 129 देषों के करीब 48 सौ उत्पाद के लिए जीएसपी के तहत फायदा मिला है। फिलहाल अमेरिका के तरजीही दर्जे के समाप्ति वाले कदम पर भारत ने समाधान का प्रस्ताव दिया था लेकिन अमेरिका ने स्वीकार नहीं किया। सवाल केवल आर्थिक घाटे का ही नहीं है प्रष्न तो इस बात का भी है कि मोदी षासनकाल में जिस अमेरिका के साथ भारत के सम्बंध बुलंदी पर थे उसी के साथ कई मुद्दों पर अनबन क्यों है। ईरान से तेल खरीदने पर पाबंदी, रूस से एस-400 खरीदने पर धमकी और अब तरजीही राज्य का छिनना यह दर्षाता है कि अमेरिका अपने अमेरिका फस्र्ट की पाॅलिसी पर बातौर कायम है। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका दोस्ती कितनी भी प्रगाढ़ रखे पर मुनाफे के भाव से मुक्त नहीं रहता है। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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