Tuesday, February 28, 2017

संविधान की आवाज़ और हमारे बोल

पुस्तक पढ़ने के शौक के चलते नये विचारों से टकराहट होना लाज़मी है और जब किताबें पढ़ना शौक  हो तो विमर्श और विशदीकरण  मन में मन भर-भर के आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय  के रामजस काॅलेज में इन दिनों जो विमर्श फूटा वह भी मन के रडार पर आया। असल में कुछ समय पहले की बात है एक पुस्तक जिसका शीर्षक देश की बात है के अध्ययन के दौरान एक अध्याय पढ़ने को मिला जो निहायत रोचक था जिसका षीर्शक मानसिक अवनति है। पुस्तक को नेषनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाषित किया गया है एवं इसके लेखक सखाराम गणेष देउस्कर हैं। चैप्टर की षुरूआत में लिखा है कि भारतवासी दिन-दिन कंगाल हुए जाते हैं। खराब पदार्थ खाने और अति परिश्रम करने के कारण वे एकदम दुबले-पतले और हीन बुद्धि के हो जाते हैं। ऐसे समय में इस बात की आषा करना की धर्मनीति के सम्बंध में उनकी उन्नति हो रही है तो यह केवल पागलपन है। जब मैं दिल्ली में रामजस काॅलेज की घटना को षिद्दत से पड़ताल की तो यह समझने की कोषिष की कि क्या उक्त पुस्तक में लिखी बात और मौजूदा घटना का कोई सम्बंध है। बेषक बातें हू-ब-हू नहीं हैं पर बहुत इतर भी नहीं प्रतीत हुई। देष के नामचीन विष्वविद्यालय या उनके महाविद्यालय इन दिनों किस दौर से गुजर रहे हैं या षिक्षा ग्रहण कर रही पीढ़ियां किस विमर्ष के साथ आगे बढ़ रही हैं इस पर मंथन तो जरूरी है साथ ही संविधान की आवाज़ को भी यहां जोड़ दें तो स्वतंत्रता की सीमा नहीं है। यहां तक कि बोलने के मामले में तो यह आर-पार की बात करता है पर क्या यह बेलगाम है। ऐसा समझने वाले या तो संविधान को ठीक से नहीं जानते या जान-बूझकर अबूझ बनते हैं। 
 इस बात पर भी गौर कर लेना ठीक रहेगा कि संविधान बड़े खुले मन का है और सबको जगह देता है पर इस बात से भी परहेज नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जायेंगे। वे चाहे किसी भी विष्वविद्यालय के छात्र हों, प्रोफेसर हों या फिर बौद्धिक सम्पदा ही क्यों न हो। इतना ही नहीं असहिश्णुता का अलग से एक वातारण भी समय के साथ विकसित हो जाता है जैसा कि बीते कुछ समय से देष में आये दिन व्याप्त हो जाता है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे रहना चाहते हैं तो छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ न बनायें और इसे किसी बवंडर का षिकार न होने दें मगर जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय जैसे बौद्धिक सम्पदा से युक्त प्रांगण में यदि देष की एकता और अखण्डता को बेजार करने की कोषिष की जायेगी तो इसे मानसिक अवनति का षिकार ही माना जायेगा और यदि ऐसा बढ़ता गया तो देष के लिए किसी अनहोनी से कम नहीं होगा। इस बात को षिद्दत से समझना और नतीजे तक पहुंचना कि रामजस काॅलेज में जो कुछ हुआ वह कितना प्रभावषाली कहा जायेगा समय पर छोड़ दें तो बेहतर होगा पर इस बात पर भी अमल होना चाहिए कि किसी संगठन विषेश को प्रांगण में उत्पात मचाने का कोई लाइसेंस नहीं मिला है और न ही उन्हें राश्ट्रवाद की कताई-बुनाई की ड्यूटी दी गयी है बावजूद इसके ऐसे संगठनों के चलते ही अच्छे और बुरे के बीच हो रहे विमर्ष संज्ञान में तो आते ही हैं। जाहिर है कि चेहरे पर लगा दाग हर सूरत में छुपाया नहीं जा सकता। उमर खालिद का आमंत्रण रद्द करना गैर वाजिब कहना तो मुष्किल है। गौरतलब है कि बीते वर्श जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद उस मामले का आरोपी माना जाता है जिसने भारत के हजार टुकड़े और कष्मीर की आजादी के नारों में अपनी आवाज़ बुलन्द करने के साथ ही संसद हमले के दोशी आतंकी अफज़ल गुरू के समर्थन में एक कार्यक्रम आयोजित करने का आरोप है जिसने बाद में आत्म समर्पण किया था। इसी इतिहास को देखते हुए उमर खालिद की उपस्थिति को रामजस काॅलेज ने खारिज कर दिया जो एक सेमिनार में सम्बोधन करने वाला था। खास यह भी है कि एबीवीपी और छात्रसंघ के हिंसक विरोध के चलते यह आमंत्रण रद्द हुआ था।
बीते कुछ वर्शों से देखा जा रहा है कि देष के बौद्धिक सम्पदा केन्द्र मसलन विष्वविद्यालय, महाविद्यालय आदि में विमर्ष की दिषा और दषा उत्तर और दक्षिण को अख्तियार करती जा रही है। ऐसे में प्रांगण के अंदर क्या पक रहा है, कितना पक रहा है और क्या ऐसे खतरनाक पदार्थों को पकना चाहिए इस पर भी गौर करना तर्कसंगत कहा जायेगा। वामपंथ और दक्षिणपंथ की विचारधारा की टकराहट से भी प्रांगण अब खाली नहीं है। समझने वाली बात यह भी है कि जेएनयू के घटनाक्रम का अहम किरदार उमर खालिद को आखिर रामजस काॅलेज के सेमिनार में निमंत्रित ही क्यों किया गया। सूझबूझ से भरे लोगों का यह मानना रहा है कि इतिहास से हम सबक लेते हैं फिर उस व्यक्ति को यहां क्यों आमंत्रित किया गया जो अफज़ल के कातिलों के जिंदा होने पर षर्मिन्दगी महसूस करता है जिसे भारत के टुकड़े होना पसंद है। क्या बुलाने वाले मानसिक अवनति के षिकार कहे जायेंगे। स्थिति को देखते हुए काॅलेज ने मामले से पल्ला झाड़ने के लिए भले ही आमंत्रण रद्द कर दिया हो पर कैम्पस के अन्दर जो आग लगी उसका क्या! जिस विचारों से परिसर बनते हैं और जिनसे बिगड़ते हैं उसके फर्क को समझने में इतनी देर क्यों लगी। देखा जाय तो छात्र संगठन भी कई विचारधाराओं में बंटे हैं। वामपंथ और दक्षिणपंथ की अवधारणा से ये भी अछूते नहीं। हाल यहां तक बिगड़ गया है कि बुद्धिमानों की बुद्धि को लेकर चिंता बढ़ गयी है। जब भी हम राश्ट्रवाद को नया रंग-रूप देने की कोषिष करते हैं तो कईयों की छाती पर सांप इसलिए लोटता है कि उन्हें खराब इतिहास खाने-पचाने की आदत है। स्वतंत्रता के पहले भी अच्छे और खराब इतिहास का वर्णन देखा जा सकता है। उन दिनों के इतिहास को पढ़ने से बुखार आज भी कम ज्यादा होता है पर यह बात भी क्यों नहीं समझी जाती कि देष इतिहास से नहीं संविधान से चलता है और अगर अभिव्यक्ति की आजादी है तो बेतुकी होने पर उसके निर्बन्धन का भी प्रावधान उसी संविधान में निहित है। इतना ही नहीं भारतीय दण्ड संहिता में निहित धाराओं के तहत आपराधिक संदर्भों के अन्तर्गत आने पर जेल में भी डालने का प्रावधान है। 
संविधान एक रास्ता है, मंजिल तो नागरिकों को खुद-ब-खुद बनाना है पर कई हैं कि भटके रास्ते से मंजिल अख्तियार करना चाहते हैं। एक षहीद की बेटी का यह कहना कि उसके पिता को युद्ध ने मारा है काफी अखरता है। सैनिक की पुत्री होने के नाते सम्मान में कोई कमी नहीं हो सकती पर इसका यह भी मतलब नहीं कि बेतुकी बातों को हम मान लें। प्रतिरोध की संस्कृति में कई अपनी लकीर बड़ी करने की फिराक में हैं पर वे ये भूल गये हैं कि सीमाओं में रहने की संस्कृति भी इसी देष की धरोहर है। विष्वविद्यालयों की जिस छात्र सक्रियता को राजनीति की पाठषाला होनी चाहिए थी वहां इन दिनों अषालीनता के बड़े-बड़े वृक्ष तैयार हो रहे हैं जो कहीं से वाजिब नहीं है। दुर्भाग्य है कि षैक्षिक परिसरों में चलने वाले वाद-विवाद अब सियासी झंझवातों में उलझते जा रहे हैं। हैदराबाद विष्वविद्यालय हो या जेएनयू या फिर मौजूदा समय में दिल्ली विष्वविद्यालय का रामजस काॅलेज ही क्यों न हो। सभी में उठे विवादों को राजनीतिक रंग भी खूब दिया गया। मौका परस्ती देख कर कोई समर्थन में तो कोई विरोध में खड़ा भी हुआ और सियासत के ऐसे मंचों से आदर्ष और आचरण की लड़ाई करने वाले राजनेता कब प्रतिरोध की नई संस्कृति की जमात में षामिल हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

सुशील कुमार सिंह

Monday, February 20, 2017

प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद

अगर हम लोग जनता में प्रजातांत्रिक भावना भरना चाहते हैं और अगर हम चाहते हैं कि अपने मामले का प्रबंध और आर्थिक जीवन को स्वयं व्यवस्थित करें तो हम पर ही यह निर्भर करता है कि हम उन्हें सरकार की आर्थिक नीतियों को अमल में लाने लायक बनायें। इस विचार में निहित भावना को परखें तो एक कठोर सच्चाई आंखों के सामने उतरा जाती है। उपरोक्त के प्रकाष में यह भी साफ है कि सरकार से पहले जनता को ताकतवर बनाया जाय तो मौजूदा तस्वीर बदल सकती है परन्तु सच्चाई यह है कि इसका जिम्मा भी सरकार के ऊपर ही है। वर्तमान में यह कहने का साहस कम ही लोगों में होगा कि सरकार जैसी व्यवस्था की जनता को आवष्यकता नहीं पड़नी चाहिए पर यह कहना आम है कि सरकार ही माई-बाप है परन्तु यह भी समझना सही होगा कि माई-बाप होने का हक उन्हें भूखी-प्यासी प्रजा ही देती है। दो टूक यह भी है कि सत्ता के झांसे में प्रजा हमेषा आती रही है पर कोई भी सरकार ईमानदारी से यह बात नहीं कह सकती कि जिस नाते उन्हें सरकार होने का गौरव मिला था उस पर वे सौ फीसदी खरे उतरे हैं। चुनावी वातावरण में सभी दल एक-दूसरे से बड़ी लकीर खींचने की होड़ में रहते हैं परन्तु जिस प्रजा से हाथ जोड़कर षालीनता से वोट मांगते हैं उनकी दुष्वारियां क्यों नहीं दूर हो रही है भला इसकी फिक्र आखिर किसे है। यह निष्चित बात है कि नीतियां समय के साथ उलटती-पलटती रहती हैं। तकलीफों को लेकर नित-नये नियोजन बनते बिगड़ते रहते हैं परन्तु किसी जिम्मेदार मंत्री या प्रधानमंत्री के लिए पूरा काम न कर पाना क्या किये गये वायदे की खिलाफी नहीं कही जानी चाहिए। जिस प्रजा से पांच साल के लिए सत्ता आती है उस प्रजा का प्रतिवाद कितना व्यापक और बड़ा होता है इसका पता सत्ताधारियों को चुनाव के समय ही चलता है। चुनाव के दौरान सब कहते हैं कि सरकार हमारी बनेगी। इससे बेखौफ कि सत्ता निर्माण करने वाली प्रजा ने ईवीएम का कौन सा बटन ज्यादा दबाया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ राज्यों में प्रजा का प्रतिवाद ईवीएम के माध्यम से आ चुका है तो कुछ में आ रहा है जिसका खुलासा 11 मार्च को हो जायेगा। 
जैसा कि विदित है कि मौजूदा समय में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड तथा पंजाब समेत पांच राज्यों की विधानसभा चुनावी समर में है जिसमें उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में मतदान सम्पन्न हो चुका हैं जबकि उत्तर प्रदेष में सात चरणों में सम्पन्न होने वाले मतदान का तीन चरण पूरा हो चुका है। कहा जाय तो यूपी भी सियासत का आधा रास्ता तय कर चुका है। इसके साथ ही दो चरणों में सम्पन्न होने वाले पूर्वोत्तर के एक मात्र राज्य मणिपुर में मतदान 4 और 8 मार्च को होगा। यहीं से सभी राज्यों की मतदान प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तत्पष्चात् 11 मार्च को नतीजे घोशित होंगे और जनता ने किसे अवसर दिया है और किसका मौका छीना है। इसका भी पता चल जायेगा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष उपरोक्त चुनावी राज्यों में न केवल भारी-भरकम है बल्कि राजनीति का हर समझदार एवं गैर-समझदार व्यक्ति इस पर नजरें भी गड़ाये हुए है। अब तक हुए मतदान में वोट प्रतिषत 60 फीसदी से ऊपर ही रहा है। साफ है कि प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद सत्ता निर्माण की दिषा में काफी आवेष लिये हुए है। हालांकि उत्तराखण्ड जैसे छोटे प्रान्त में वोट प्रतिषत 70 फीसदी के आस-पास रहा जबकि पंजाब और गोवा में वोट प्रतिषत तो इससे भी कहीं ऊपर उछाल मार रहा है। उत्तर प्रदेष का रोचक पहलू यह भी है कि भाजपा सत्ता हथियाने को लेकर निहायत आतुर है जबकि सपा और कांग्रेस का गठबंधन इन्हें चुनौती देने की पूरी जुगत भिड़ा रहा है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी इस होड़ से बाहर नहीं कही जा सकती परन्तु पहले जैसी बात फिलहाल नहीं दिखाई देती। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह क्रमिक तौर पर चुनावी रैलियों में विरोधियों पर षब्दों का बाण चला रहे हैं और विरोधी भी नफे-नुकसान को माप-तौल कर अपने षब्दों का बाण छोड़ रहे हैं। चुनावी पचपच में विचार इतने पिलपिले हो गये हैं कि सारी मर्यादायें भी चकनाचूर हो रही हैं। मसलन रावण, आतंकवादी जैसे षब्द भी प्रयोग में देखे जा सकते हैं। हालांकि इस आरोप से प्रधानमंत्री मोदी को वाॅक ओवर नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने प्रधानमंत्री की गरिमा को चुनाव में उसी भांति बरकरार रखा है जिस प्रकार राहुल गांधी, अखिलेष यादव और कुछ हद तक मायावती पर उनका तंज रहता है उससे साफ है कि सियासत के ऊंच-नीच से वे भी अन्यों की तरह दो-चार में फंसे हैं।
इस सच्चाई को भी समझना ठीक होगा कि धर्म और जाति की तुश्टिकरण वाली राजनीति से उत्तर प्रदेष कभी अछूता नहीं रहा। इस बार भी यहां यह मामला सर चढ़कर बोल रहा है। 97 मुस्लिम चेहरों को उतार कर बसपा ने मुस्लिम कार्ड खेला है तो भाजपा ने 403 विधानसभा सीटों के मुकाबले एक भी मुसलमान को टिकट न देकर यह जता दिया है कि वह फिलहाल मुस्लिम वोट की दरकार नहीं रखती जबकि प्रधानमंत्री मोदी सबका साथ, सबका विकास की बात दोहराने से नहीं चूकते हैं। उत्तर प्रदेष में ताजा सम्बोधन के तहत जिस प्रकार कब्रिस्तान और षमषान तथा ईद और दिवाली की तुलना मोदी ने किया और बिजली से जुड़े मुद्दे छेड़े उससे साफ है कि धार्मिक संवेदनायें उधेड़ कर वे भी मुसलमानों के हितैशी होने का सबूत देना चाहते हैं साथ ही इसे सत्ता हथियाने की जुगत के तौर पर भी देखा जा सकता है। गौरतलब है कि भले ही इस बार एक भी मुस्लिम चेहरा भाजपा में न हो परन्तु पिछले चुनाव में 11 फीसदी मुसलमानों का वोट इन्हें भी मिला था। जाहिर है कि समुदाय विषेश में कुछ वर्गों का मत भाजपा को जाता है। हालांकि इस बार सपा, कांग्रेस गठबंधन के साथ बसपा की तीक्ष्ण नजर मुस्लिम वोटों पर है। यह भी आम रहा है कि मुस्लिम मतदाताओं की ये दोनों तीनों पार्टियां हमेषा चहेती रही हैं पर इस बार इनका झुकाव किस ओर होगा राय बंटी हुई है। हालांकि यह माना जाता है कि जो भाजपा को हरायेगा मुस्लिम उसी को वोट दे देगा। इसे भाजपा के विरोध में माने या अन्य के पक्ष में परन्तु खास यह है कि मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिवाद भाजपा के साथ हमेषा रहा है। 
बीते तीन दषकों के राजनीतिक इतिहास को उठा कर देखें तो कांग्रेस के अलावा उत्तर प्रदेष में सभी ने राज किया परन्तु इस प्रदेष की विडम्बना यह रही कि कानून और व्यवस्था हमेषा हाषिये पर रहा चाहे भाजपा की सरकार रही हो या सपा, बसपा की, किसी के पकड़ में इसकी नब्ज़ नहीं आयी। साफ है कि उत्तर प्रदेष की सियासत में केवल विकास ही मुद्दा नहीं है बल्कि जाति और धर्म के साथ कानून और व्यवस्था के चलते यहां वोट बंटे हुए दिखाई देते हैं। सत्ता के मद में कोई भी कैसा भी वाद तैयार क्यों न कर ले पर सच्चाई यह है कि जब चुनावी समर में जनता प्रतिवाद करती है और पलटवार करती है तो सूरमे भी धराषाही होते हैं। इसमें कोई षक नहीं कि अखिलेष यादव को अपनी सत्ता बचाने के लिए लड़ाई लड़नी है। राहुल गांधी को अपना वजूद बनाये रखने के लिए दो-दो हाथ करना है। मायावती को सत्ता की चाषनी का एक बार फिर स्वाद लेना है जबकि भाजपा को न केवल उत्तर प्रदेष की सत्ता चाहिए बल्कि इसके रास्ते उसे राज्यसभा में संख्याबल को मजबूत करने और आगामी जून-जुलाई में राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति पद पर मनचाही षख्सियत को पहुंचाने की जद्दोजहद दिखाई देती है। सबके बावजूद एक बड़ा सच यह भी है कि उत्तर प्रदेष की आड़ में हर पार्टी अपना भविश्य चमकाना चाहती है। 


सुशील कुमार सिंह


Monday, February 13, 2017

साख में सुराख़ का डर

फिलहाल प्र्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता अभी भी बाकायदा बरकरार है लेकिन उनकी सरकार की छवि पहले जैसी है शायद कह पाना कठिन होगा। इन दिनों देश  पांच विधानसभा चुनाव का उत्सव मना रहा है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड पर सबकी नजरें हैं। इन्हीं दोनों  प्रदेशों  में प्रधानमंत्री की बेषुमार रैलियां भी आयोजित हो रही हैं। उत्तर प्रदेष पहले चरण का चुनाव सम्पन्न कर चुका है जबकि 15 फरवरी को उत्तराखण्ड में मतदान होना है। बीते दो-तीन दिनों से प्रधानमंत्री मोदी समेत कई केन्द्रीय मंत्री एवं सांसदों का जिस तर्ज पर पूरे उत्तराखण्ड में सम्बोधन का क्रम चला उससे यहां की सियासत में बड़ा तूफान तो आया है। पहाड़ की जनता भी ऐसी रैलियों का अम्बार षायद पहली बार देख रही होगी। अपने अंदाज में मोदी जनता को न केवल आकर्शित कर रहे हैं बल्कि वे उनकी आंखों में गगनचुम्बी सपने भी भर रहे हैं। इन सबके बीच यह चर्चा भी आम है कि 70 विधानसभा वाले उत्तराखण्ड में इतनी जी-तोड़ कोषिष मोदी जी क्यों कर रहे हैं। कईयों का मानना है कि कहीं इसके पीछे मोदी की साख तो दांव पर नहीं लगी है। दरअसल पिछले साल 18 मार्च को वित्त विधेयक के मामले में हरीष रावत सरकार के मंत्री समेत 9 विधायकों ने बगावत कर दी थी। साथ ही भाजपा से मिलकर बागी विधायकों ने न केवल सरकार को गिराने का मनसूबा पाला बल्कि दल-बदल करते हुए उन्हीं के हो कर रह गये। तेजी से बदलते घटनाक्रम में 27 मार्च को प्रदेष को राश्ट्रपति षासन के हवाले कर दिया गया। ऐसा हरीष रावत के सीडी काण्ड में फंसने के चलते माना जाता है जिसे लेकर सीबीआई उन पर कार्यवाही कर रही है। फिलहाल राश्ट्रपति षासन का मामला अदालती लड़ाई में फंसा और उच्च न्यायालय से होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। यहां रावत सरकार को 10 मई 2016 को बहाल कर दिया गया। हाथ आते कुछ न देख भाजपा का तिलमिलाना स्वाभाविक था। अदालती लड़ाई हारने के बाद यह भी चर्चा जोरों पर थी कि केन्द्र की मोदी सरकार ने एक पहाड़ी राज्य को राश्ट्रपति षासन से दागदार किया है और सत्ता हथियाने के लिए ताकत का बेजा इस्तेमाल किया। आज के चुनावी दौर में उक्त बातों का उभरना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि जिस तर्ज पर मोदी समेत उनके मंत्री और संसद उत्तराखण्ड के चप्पे-चप्पे पर चुनाव प्रचार कर रहे हैं साफ है कि हर हाल में उत्तराखण्ड वे फतह करना चाहते हैं और 10 महीने पहले सत्ता हथियाने के उस मनसूबे को धरातल पर उतारना चाहते हैं जो उनके गुणा-भाग में रहा है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को ध्यान में रखते हुए एक सवाल यह अनायास ही उभरता है कि यदि उत्तराखण्ड भाजपा के हाथ से फिसलता है तो टीम मोदी की साख में सुराख होना लाज़मी है। 
क्या ऐसा हो सकता है कि तमाम खूबियों के बावजूद मोदी के भीतर ऐसी कमजोरी भी हो जो उनके समकालीन नेताओं में पाई जाती हो। उत्तर प्रदेष में भी मोदी की रैली बेषुमार है। अखिलेष और राहुल की जोड़ी पर उनका निषाना है। मतों के ध्रुवीकरण में वहां भी जनता की आंखों में सपने खूब बोये जा रहे हैं और यह भी समझाया जा रहा है कि अखिलेष का काम नहीं बोलता बल्कि उनका कारनामा बोलता है। यूपी को अखिलेष और राहुल की जोड़ी पसन्द है, पर कितना पसन्द है इसका भी निर्णय 11 मार्च के नतीजे में हो जायेगा। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेष को भाजपा कितनी पसंद है यह भी उसी तिथि को साफ हो जायेगा। 26 मई, 2014 से सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री मोदी सक्रिय और ताबड़तोड़ वाले नेता रहे हैं और अभी भी इस प्रवृत्ति से बाहर नहीं हैं। कई विधेयकों को लेकर आज भी वे संसद में बेबस नजर आते हैं। बहुमत के कारण लोकसभा से पार तो पा लेते हैं परन्तु राज्यसभा में संख्याबल की कमी से जूझते देखे गये हैं। कई महत्वाकांक्षी योजनाओं को जो उनके सपनों में रहे हैं राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण धरातल पर नहीं उतर पाये। षासन के षुरूआती दौर में यह कहा जाता रहा है कि वर्श 2017 में ही मौजूदा सरकार की राज्यसभा में बहुमत वाली इच्छा पूरी हो पायेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि इन्हीं दिनों में उत्तर प्रदेष जैसे बड़े प्रान्त समेत उत्तराखण्ड तथा अन्यों का चुनाव निर्धारित था। जाहिर है मोदी के जादू के चलते यहां सत्ता हथियाना उन दिनों आसान समझ रही होगी। इसमें कोई दो राय नहीं यदि भाजपा उत्तर प्रदेष फतह कर लेती है तो राज्यसभा में बहुमत के आंकड़े को जुटा लेगी परन्तु यहां अखिलेष और राहुल की जोड़ी ने रास्ते को अच्छा खासा अवरूद्ध किया है। मुख्यमंत्री के मामले में चेहरा विहीन भाजपा हर सूरत में उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेष में अपनी सत्ता विस्तार चाहती है। कहा जाय तो यूपी में भी मोदी की साख दांव पर है। 
षानदार उपलब्धियों के बावजूद सवाल तो हर नेताओं पर उठते हैं क्योंकि यह सामान्य बात है कि महान से महान नेता भी कहीं न कहीं कोई लचर प्रदर्षन किया होता है। बीते 8 नवम्बर को मोदी के नोटबंदी वाले निर्णय को पूरी तरह सफल कह पाना मुनासिब नहीं है जिस काले धन पर चोट करने के लिए यह फरमान सुनाया गया था उसमें कोई खास सफलता मिलते नहीं दिखाई देती और जनता ने जो परेषानी उठायी और जिस प्रकार देष समस्याओं से जूझा उसकी तो बात छोड़िये। फिलहाल इसे लेकर भी सरकार के अन्दर एक सवाल तो है कि यदि चुनाव में प्रदर्षन उसके पक्ष में न हुआ तो लोग नोटबंदी के निर्णय को कहीं गलत करार न दे दें। क्या ऐसा हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी दुनिया भर में जय-जयकार करवायें, विधानसभा के चुनाव में रैलियों का अम्बार लगायें, लाखों की भीड़ जुटायें और अपने दल को सत्ता तक न पहुंचा पायें। दिल्ली और बिहार के विधानसभा के नतीजे यह इषारा करते हैं कि सब कुछ के बावजूद हार मिली थी। साफ है कि मोदी का जादू पहले भी कहीं-कहीं नहीं चला है परन्तु जम्मू कष्मीर, हरियाणा और झारखण्ड समेत असम में तो यह सर चढ़कर बोला है। कमोबेष उत्तर प्रदेष और बिहार की राजनीति को जात-पात और धर्म से जोड़कर ही देखा जाता है जबकि उत्तराखण्ड में जात-पात से अधिक विकास को महत्व दिया जाता है। ऐसे में मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री का प्रभाव कहां, कितना होगा यह परिणाम के बाद ही पता चलेगा। 
यह भी समझ लेना सही होगा कि उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में भाजपा अभी नहीं तो फिर कब? की भी बात हो रही है। प्रधानमंत्री का कामकाज ढ़ाई बरस से अधिक पुराना हो चुका है। जाहिर है कि महज़ लुभावनी योजनाओं का ऐलान कर देने से अब जनता सन्तुश्ट नहीं हो सकती बल्कि आर्थिक वृद्धि और रोजगार के मोर्चे पर भी बहुत कुछ कर दिखाना होगा। अलबत्ता उन्हें अपना रिपोर्ट कार्ड 2019 में देना है परन्तु 5 साल के कार्यकाल का आधा समय बीतने पर जनता में यह संकेत जाने लगता है कि सरकार किस करवट बैठने वाली है। प्रत्येक चुनाव और हर लोकतंत्र में इतिहास बनाने और इतिहास बन जाने के बीच एक महीन रेखा होती है। जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस साख के साथ क्षितिज पर खड़े होने का साहस दिखाना चाहते हैं उसके लिए जादूगरी को और बड़ा करना होगा। अहम यह भी है कि बड़बोलेपन मात्र से चीजे उतनी नहीं बढ़ती जितना वास्तव में होना चाहिए। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा है कि मजबूत सरकारें काम करते हुए जितना दिखाई देती है असल में उतना होता नहीं है। सबके बावजूद निचोड़ यह है कि 29 राज्यों वाले भारत में अब तक कितने भी चुनाव क्यों न हुए हों पर उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड का इस बार का चुनाव इस बात से बेफिक्र नहीं कि भाजपा को साख में सुराख का डर नहीं है।


सुशील कुमार सिंह

Saturday, February 11, 2017

उत्तर और दक्षिण की राजनीति


इन दिनों देष में पांच विधानसभा में चुनावों की तपिष देखी जा सकती है और यह इस कदर बढ़ी है कि देष का सियासी पारा उम्मीद से कहीं ऊपर चला गया है। उत्तर में चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है तो दक्षिण में जयललिता के बाद कुर्सी की छीना-झपटी के चलते तमिलनाडु का तापमान भी बढ़ा हुआ है। हालांकि गोवा विधानसभा का चुनाव भी दक्षिण की सियासत को कुछ गर्म किए हुए है जबकि मणिपुर पूर्वाेत्तर की सियासत को। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड  और पंजाब में कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी सहित कईयों की सरकार बचाने की कवायद भी सियासी पारे को ऊंचाई दिये हुए है। रही सही कसर दिल्ली की सियासत में प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी कर दी। दरअसल राजसभा में बीते दिन प्रधानमंत्री मोदी के उस कथन से सियासी लोगों की भवें तब तन गई जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निषाने पर लेते हुए यह कह डाला कि रेनकोट पहनकर नहाने की कला तो कोई डाक्टर साहब से सीखे । देखा जाए तो यह आम है कि यूपीए-2 के षासनकाल वर्श 2009 और 2014 के बीच कई घोटालों का खुलासा हुआ था जिसे लेकर उक्त बयान मोदी की ओर से आया था। एक तरफ उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब तथा गोवा समेत मणिपुर में विधानसभा चुनाव मुहाने पर है तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में जो हो रहा है वो तो हो ही रहा है। इसके अलावा वे लोकसभा और राज्यसभा में भी कुछ हद तक वे चुनावी रैली के अंदाज में ही बात करते देखे गए है। इसका पुख्ता सबूत यह कि जब उन्होंने बीते दिन लोकसभा में स्पीकर महोदया कहने की बजाय भाईयों और बहनों कह दिया। राजनीति और उससे प्राप्त होने वाले रसूक को लेकर राजनेता कहीं पर भी चूक नहीं करना चाहते। मौका अच्छा था  कांग्रेसियों ने लपक लिया और मोदी की लानत-मलानत षुरू हो गई। हालांकि अन्यों को भी यह अखरा है कि बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाने की अवधारणा जैसे वक्तव्य प्रधानमंत्री कद के व्यक्ति को षोभा नहीं देता है। आलोचना के लिए वैकल्पिक षब्द खोजे जा सकते थे पर मोदी बड़बोलेपन के कारण कुछ ऐसा कर जाते है जो विरोधियों को ही नहीं अखरता बल्कि स्वयं के लिए भी मुष्किल बढ़ा लेते है। 
जाहिर है जब चुनावी समर हो तो सब कुछ ठीक नहीं चलता और उथल-पुथल ऐसे दिनों में प्रभावी रहते है। बड़े से बड़ा नेतृत्व भी बारीक गलतियां करने से चूक नहीं करता है। तर्क तो यह भी दिया जाता है कि एक करिष्मागार नेता वह है जिसके पास चूक की गुंजाइष नहीं बल्कि अपने संदेषों से जनता को आकर्शित कर लेता है पर इन दिनों  वह भी चूक कर बैठता है। नेतृत्व के कई उपबंध होते है ऐसे में कई भूले-बिसरे नायक भी रसूक बढ़ाने की फिराक में रहते है। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों तरीके से सेंधमारी का डर भी बना रहता है। चुनावों के दिन राजनेता अपने राजनीतिक उद्यम को दूसरे के मुकाबले काफी मुनाफे वाला तो पेष करते है पर जनता के सामने कहीं अधिक मजबूर व कमजोर बने रहते है। लोकतंत्र की यहीं परिपाटी रही है कि चुनावी महोत्सव में जनता सषक्त और कोर में होती है भले ही चुनाव के बाद उसकी सुध लेना वाला कोई न हो।  उत्तर प्रदेष को जीतने की जद् में भारतीय जनता पार्टी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है जबकि उत्तराखण्ड उसके नाक की लड़ाई बनी हुई है। स्थिति को भांपते हुए अखिलेष ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए राहुल गांधी का साथ लिया। दूसरे षब्दों में कहे तो कांग्रेस अपने वाजूद को बचाने के लिये समाजवादी पार्टी को अंगीकृत किया है। इसका एक तीसरा अर्थ यह भी है कि दोनों  वक्त की नजाकत को देखते हुए एक दूसरे की जरूरत बन गए है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेष का साथ पाकर राहुल काफी इत्मिनान महसूस कर रहे है। ठीक उसी तर्ज पर जैसे बिहार में नीतीष और लालू के साथ अपने वाजूद को कायम रखने में सफल रहे है। गठबंधन की राजनीति भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वैसे तो तीन दषक पुरानी है पर इसकी बिसात कहीं बिछती है, कहीं बिछानी पड़ती है और कुछ को इसकी जरूरत नहीं पड़ती जैसे इन दिनो भाजपा को और उन दिनों कांग्रेस को। 
चुनाव के पूर्व आंकड़ें इस बात पर जोर दे रहे है कि पंजाब में कांग्रेस की वापसी हो रही है। यदि पूरी पड़ताल पर थोड़ा भी विष्वास किया जाए तो दुनिया जीतने का मांदा रखने वाली भाजपा पंजाब में अकाली दल के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी हो सकती है। हालांकि परिणाम आने तक कुछ कह पाना पूरी तरह संभव नहीं है। गोवा और मणिपुर 40-40 सीटों वाले विधानसभा से युक्त प्रदेष है। यहां की हार-जीत फिलहाल देष की सियासत पर कोई भूचाल लाने में किसी प्रकार का स्थान नहीं घेर पाती। ऐसे में वार-पलटवार की सियासत का राश्ट्रीय राजनीति में इसका स्थान गौण ही कहा जाएगा। इन दिनों दक्षिण की राजनीति भी बूते के बाहर जा रही है, सत्ता की चाहत में चीजंे अस्त-व्यस्त हुई है। जयललिता के उत्तराधिकारी मुखिया बनने की चक्कर में दो-दो हाथ कर रहे है। देखा जाए तो  तमिलनाडु भी भरभरा है, यहां जारी राजनीतिक अनिष्चिता सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के साथ ही भारतीय राजनीति का भी संकट है। यदि यहां उत्पन्न संकट का समाधान मूल्यों और मर्यादाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया गया तो लोकतंत्र के इतिहास में एक और उपहास देखने को मिल सकता है। इस संभावना मात्र से आष्चर्य होता है कि जिस महिला ने कभी लोकतंत्र की ढिहरी भी न लांघी हो, जिसका सार्वजनिक जीवन न हो तथा उसमें किसी प्रकार का योगदान न रहा हो और वह तमिलनाडु जैसे बड़े प्रांत की मुखिया बनना चाहे तो अपने आप में लोकतांत्रिक त्रासदी सा प्रतीत होता है। जयललिता के करीबी षषिकला सत्ता हथियाने को लेकर इतनी उतावली है यह भी हैरान करने वाली बात है। तत्कालीन मुख्यमंत्री पन्नीर सेल्वम ने इस्तीफा तो दे दिया पर अब उन्हें भी एहसास हुआ है कि उत्तराधिकार के मामले में वहीं बेहतर विकल्प है। 130 विधायकों के समर्थन का दावा करने वाली षषिकला का इस तरह मुख्यमंत्री बनने की लालसा कईयों को अखर रहा है। सरकार के लिये दावा पेष करने वाली षषिकला जयललिता के असली उत्तराधिकारी स्वंय को समझती है पर षायद वह यह नही समझ पा रही है कि सरकार जनता के समर्थन से चलती है उत्तराधिकार से नहीं। हालांकि विधायकों की सूची यह संकेत करती है कि जनता उनके साथ है पर दो टूक यह भी है कि दक्षिण की राजनीति उफान पर है और तमिलनाडु संकट में है।
बिखरी व्यवस्थाओं को समेटना और तिनका-तिनका जुटा कर सियासत को हांकने की कला सब में नहीं होती है। नेतृत्व और प्रबंधन के मामले में जो पिछड़ता है उसका राजनीतिक रसूक भी रसातल मंे चला जाता है। देखा जाए तो इन दिनों प्रदेषों के चुनाव में दो कदम आगे चल रही भाजपा भारत के कोने-कोने में कमल खिलाना चाहती है पर मोदी के चेहरे के भरोसे। यह हतप्रभ करने वाली बात है कि भाजपा राश्ट्रीय दलों में बेषुमार रसूक रखती है। केन्द्र समेत 14 राज्यों में इस समय सरकार पर काबिज है। पार्टी कैडर इतना विस्तृत होने के बाद चेहरा परोसने में फिलहाल उसे नाकामयाब ही कहा जाएगा। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड के विधानसभा को जीत कर राजसभा का मार्ग सुनिष्चित करने की इच्छा रखने वाली भाजपा यहां मुख्यमंत्री के दर्जनों नाम तो गिना देगी पर चेहरा किसी का आगे नहीं है। फिलहाल देष की सियासत में तापमान सातवें आसमन पर है । उत्तर के साथ दक्षिण में सियासी हलचलें जोरों पर है, कुछ को सरकार बनानी है, कुछ को बचानी है पर जिसके बूते पर यह सब होगा उसकी सुध लेने की मामले में यह कितने गंभीर होते है इससे भी षायद ही कोई वाकिफ न हो ।

Wednesday, February 8, 2017

शीत सत्र पर क्या मिला


प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल षीत सत्र के दौरान एक अखबार के कार्यक्रम में यह साफ किया था कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार काम नहीं कर सकता। गौरतलब है उन दिनों असहुश्णता का मुद्दा गर्म होने के चलते संसद का षीत सत्र कई बाधाओं से गुजर रहा था। कमोबेष इस बार के षीत सत्र में भी नोटबंदी के चलते स्थिति कुछ इसी प्रकार रही। देखा जाए तो नोटबंदी के चलते जनता सड़क पर बैंकों और एटीएम के सामने लाइन में तो जनता के प्रतिनिधि संसद में षोर षराबे में लगे हुए थे। 16 नवम्बर से षुरू षीत सत्र ठीक एक महीने में यानि 16 दिसम्बर को कई सवालों के साथ इतिश्री को प्राप्त कर लिया। गौरतलब है कि संसद के षीतकालीन सत्र से पहले ही सरकार और विपक्ष ने अपने-अपने ढंग से मोर्चे बंदी कर लिये थे पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। विपक्ष संसद के अंदर प्रधानमंत्री से नोटबंदी के मसले पर जवाब देने की बात पूरे सत्र तक  कहता रहा और स्वयं संसद न चलने देने में निरंतर योगदान भी देता रहा । नतीजा सबके सामने है कि एक महीने के षीत सत्र में 92 घंटे बर्बाद और 21 दिनों  में लोकसभा में 19 एवं राजसभा में महज 22 घंटे काम हुए । इस औसत से यह बात पुख्ता होती है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत में बैठने वाले जनता के रहनुमा जनता की समस्याओं को लेकर कितने संजीदे है । जबकि प्रति घंटे के हिसाब से संसद में लाखों का खर्च आता है जो देष के करदाता के जेब से पूरा होता है। षीतकालीन सत्र घुलने से भाजपा के षीर्श नेता लाल कृश्ण आडवानी  की नराजगी इस कदर बढ़ गई कि वह इस्तीफा तक की सोचने लगे। जबकि राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सत्र की हालत पर कहा था कि भगवान के लिये संसद चलने दे। 
ऐसा देखा गया है कि जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो कुछ अंधेरे भी परिलक्षित होते है जिसका सीधा असर जनजीवन पर भी पड़ता है पर यहीं प्रगति थम जाए तो इसके उलट परिणाम भी होते है। बीते 8 नवम्बर को सायं ठीक 8 बजे जब प्रधानमंत्री मोदी ने हजार और पांच सौ के नोट बंद करने की बात कहीं तब सत्र षुरू होने में मात्र एक सप्ताह बचा था। षायद वह भी इस मामले से वाकिफ रहे होंगे कि आगामी षीत सत्र में नोटबंदी का मसला गूंजेगा परंतु इस बात से षायद ही वह वाकिफ रहे हो कि 50 दिन में सब कुछ ठीक करने का उनके दावें की हवा निकल जायेगी हालांकि अभी इसमें कुछ दिन षेश बचे है पर हालात जिस तरह बेकाबू है उसे देखते हुए समय के साथ इससे निपट पाना कठिन प्रतीत होता है। फिलहाल एक अच्छी बात सत्र के आखिरी दिन में यह रहीं कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं की प्रधानमंत्री से मुलाकात हुई जिसमें राहुल गांधी ने किसानों से जुड़े मुद्दे समेत कई तथ्य मोदी के सामने उद्घाटित किये। षारीरिक भाशा और बातचीत से ऐसा लगा कि राहुल गांधी पहले से कुछ सहज हुए है बावजूद इसके उनका विपक्षी तेवर कायम रहा। फिलहाल इस बार का षीत सत्र में भी खेल बिगड़ चुका है। षीत सत्र कई सूरत में बंटा हुआ भी दिखायी दिया। सरकार नोटबंदी के चलते जनता के मान मनौव्वल में लगी रही। साथ ही नोट की छपाई से लेकर वितरित करने की मुहिम में जुटी रही । इसके अलावा संसद के भीतर विपक्ष का वार भी झेलती रही यह समझाने की कोषिष में भी लगी रही कि नोटबंदी कितना मुनाफे का सौदा है जबकि विपक्ष मिलीभगत मानते हुए जनता और विकास को हाषिये पर धकेलने वाला निर्णय बताता रहा।
फिलहाल प्ूारे एक महीने के सत्र में समावेषी राजनीति का अभाव पूरी तरह झलका। सहभागी राजनीति की पड़ताल की जाए तो दायित्व अभाव में सभी राजनेता आ सकते है। सभी की अपनी अपनी विफलताएं रही है। विकास का विशय जब भी मूल्यांकन की दीर्घा में आता है तो राजनीति से लेकर सरकार और प्रषासन का मोल पता चलता है। जिस दुर्दषा से षीत सत्र गुजरा है उससे साफ है कि यहां नफे-नुकसान के खेल में जनता पिस गई है।एक महीने चले षीत सत्र में न जनता के लिए अच्छी नीतियां बन पाई और न ही एटीएम और बैंक उन्हें जरूरी खर्चे दे पाये। हालांकि एटीएम और बैंक का षीत सत्र से ताल्लुक नहीं है पर इसी समय में पैसा बदलने और निकालने की समस्याएं भी समनान्त्तर चलती रही। धारणीय विकास की दृश्टि से भी देखें तो मानव विकास की प्रबल इच्छा रखने वाली मोदी सरकार नोट बंदी के चलते विकास दर के साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी पिछड़ती दिखायी दे रही है। जो विकास दर 7.6 था अब वह लुढ़क कर 7.1 तक पहंुच गया है। आर्थिक उन्नति की इस प्रक्रिया में फिलहाल आंकड़े एक-दो तिमाही के लिये घाटे की ओर इषारा कर रहे है। मगर विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सूरत एक दूसरे के आइने में देखी जाती है ऐसे में षीत सत्र में उनकी जवाबदेही कम नहीं होती हालांकि यहां सरकार की जिम्मेदारी विपक्ष से अधिक कहीं जायेगी। 
       इस बार का षीत सत्र पहले की तुलना में 10 दिन पहले षुरू हुआ था और एक सप्ताह पहले समाप्त हुआ है पर इसकी अवधि पहले की तुलना में अधिक रही है बावजूद इसके नतीजे असंतोशजनक वाले ही रहे। बामुष्किल दो विधेयक ही कानून का रूप अख्तियार कर पाये। वैसे 2015 का षीत सत्र भी कुछ इसी प्रकार का था पर यहां कानून की संख्या दर्जन के आस-पास थी। सत्र में कई ऐसे मुद्दंे उभरे जिसके चलते षोर षराबा होता रहा। सत्र के आखिरी दिन स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सत्र समाप्ति की घोशणा करने के दौरान यह कहा कि उम्मीद करते है कि भविश्य में संसद अच्छे तरीके से चलेगी। कथन नया हो सकता है पर संसद का चरित्र पर संसद के चरित्र मंे यह सब कहां षामिल है। देखा जाए तो संसद के भीतर जन आदर्ष को स्थापित करने की बजाए अब सियासी दावपेंज को ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा है। जिसके चलते जनता के मुद्दे पिछड़ जाते है और राजनेता बिना किसी उद्देष्य प्राप्ति के संसद का समय बर्बाद कर देते है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। 1987 में बोफार्स कांड के चलते 45 दिन 2001 में तहलका के चलते 17 दिन और 2010 में टूजी घोटालें के चलते 23 दिन का सत्र के अंदर का समय बर्बाद किया जा चुका है। एक बात और अब उन दावों पर भी  षायद ही कोई विष्वास करता हो जिसे लेकर विपक्षी सरकार को घेरने का हथियार बनाते है मसलन राहुल गांधी का यह कहना कि प्रधानमंत्री संसद में जवाब देने से बचना चाहते है या उनके पास इस बात के पक्के सबूत है कि जिससे मोदी का भंडा फोड़ हो सकता है। वास्तव में यदि उनके पास ऐसा कोई पुख्ता घोटालें का सबूत है तो दस्तावेज पेष करना चाहिए था और देष की जनता को बताना चाहिए था न कि मनगढ़त और भ्रम फैलाने वाला वक्तब्य देना चाहिए था। फिलहाल तमाम नसीहत और नए वर्श की षुभकामना के साथ षीत सत्र समाप्त हो चुका है जाहिर है अगला सत्र बजट सत्र होगा। यह भी रहा है कि एक सत्र उम्मीदें पूरी नहीं करता तो दूसरे पर नजरे गढ़ाई जाती है यहीं करते करते मोदी का ढ़ाई वर्श में 8 सत्र निकल चुका है बावजूद इसके पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार मनमाफिक काम नहीं कर पाई है जो प्रजातंत्र के लिए कहीं से समुचित नहीं कहा जायेगा। 

गुड गवर्नेंस को चाहिए गुड पॉलिटिक्स

लोकतंत्र केवल एक षासन पद्धति नहीं बल्कि एक जीवन्त प्रणाली है। ऐसे में इसके आदर्षों को केवल राजनीतिक क्षेत्रों तक सीमित रखना  षायद पूरी तरह तर्कसंगत नहीं है। यह सत्य है कि जब तक जनता में सामाजिक और राजनीतिक चेतना उत्पन्न नहीं हो जाती तब तक लोकतांत्रिक पद्धति की सफलता संभव नहीं है। जब हम कहते है कि समाज के आर्थिक ढांचे के बुनियाद पर ही मनुश्य की अन्य सभी क्षेत्रों की प्रणाली का ढ़ाचा खड़ा होता है तो इसके लिये आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा को उद्घाटित करना ही होता है जो गुड पाॅलटिक्स थ्योरी के अभाव में बीते 7 दषकों से भारत में पूरी तरह विस्तार नहीं ले पायी है। जब हम यह सोचते है कि गुड गर्वनेंस आने से या इसके देष भर में फैलाव होने से जनता सषक्तिकरण की ओर चली जाएगी तब भी हमें गुड पाॅलटिक्स की ही दरकार रहती है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते है कि जिस जमाने में आज का भारत है वहां विकास की विवेचना करते हुए विद्वानों की पूरी श्रृंखला मिल जाएगी। बावजूद इसके सब कुछ पाॅलटिक्स में रचने-बसने के कारण या तो समस्या खतरें के निषान के ऊपर है या फिर समाधान भविश्य के खतरें से अंजान है। जिससे गुड गर्वनेंस का पूरा  ताना-बाना रस्म अदायगी तक ही रह जाता है। इन दिनों देष में राजनीति गर्म है साथ ही चर्चा-परिचर्चा भी गर्माहट  लिये है। राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ है कि छल-बल-धन जैसे भी हो सत्ता की जिम्मेदारी उन्हीं को मिले। हालांकि आदर्ष आचार संहिता उत्तर प्रदेष उत्तराखण्ड से लेकर पंजाब, गोवा और मणिपुर तक पसरा है फिर भी नियतिवाद और नवनियतिवाद के खेल में राजनीतिज्ञ बेहतर खिलाड़ी की फिराक में  इसकी धज्जियां भी उड़ा रहे है। सैंकड़ों प्रत्याषी ऐसे मिल जाएगें जो विधायिका में पहुंचना तो चाहते है पर अनगिनत दागों से मुक्त नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीतिक सत्ताओं के द्वारा ही गुड गर्वनेंस को ऊंचाई मिलती है पर क्या गुड पाॅलटिक्स भी देष में होती है इस पर विचार होना दौर के अनुपात में लाजमी प्रतीत होता है। 
हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि जब साम्राज्यवाद जनता का षोशण करके पनपता है तो लोकतंत्र में जनविकास न देकर राजनीतिक रोटियां सेंकना आखिर किस तंत्र का परिचायक है। कांग्रेस से देष को बहुत बड़ी आषा रही है। 67 सालों के सरकारों के इतिहास में मोरार जी देसाई, वीपी सिंह, चन्द्रषेखर, देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल समेत अटल बिहारी वाजपेयी  जैसे  सरकार संचालकों को छोड़ दिया जाए तो प्रथम आम चुनाव 1951-52 से लेकर वर्श 2014 तक लगभग 55 साल तक कांग्रेस  की सरकार रही है जिसमें जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार चलाने वालों में षुमार थे। हालांकि अंतरिम सरकार के तौर पर नेहरू जी को देखा जाए तो उनका कार्यकाल सितम्बर 1946 से ही षुरू  हो जाता है ऐसे में कांग्रेस पूरे 6 दषक सत्ता के लिए जाना जाता है। मौजूदा परिस्थिति में एक अलग धारा के साथ नरेन्द्र मोदी सत्ता चला रहे है। निहित मापदंडों में इस बात का ख्याल हमेषा रखा जाता रहा है कि देष की फलक पर गांधी के सपने तैरते है। जिसे पूरी करने की जिम्मेदारी उपरोक्त सत्ताधारियों की थी। जिस सपने से गांधी जीवन भर उलझते रहे, देखा जाए तो उसके कोर में गरीब से गरीब व्यक्ति था। गांधी उस कार्य को प्राथमिकता देते थे जिसके करने से अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुंचता हो। क्या इस दौर की सियासत में उक्त बातों का कोई मोल है? यदि है तो दूसरा सवाल कितना है । राजनेताओं को सिंहासन चाहिए और जनता को वहीं पुरानी स्क्रिप्ट जिसे बीते 7 दषकों से दोहराया जा रहा है, रोटी, कपड़ा, मकान, दुकान, सुरक्षा-संरक्षा और हो सके तो वर्तमान जीवन से थोड़ा ऊपर का जीवन पर गुड पाॅलटिक्स के अभाव में गुड गर्वनेंस से जुड़े ये  क्रियाकलाप आज भी सिसक रहे है। 
दो टूक यह भी समझ लेना जरूरी है कि जन सषक्तिकरण के बगैर जन सरकारों का सरोकार बेमानी ही कहा जाएगा। इसी देष में जन जाग्रति का पुर्नजन्म भी हुआ है और भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के इतिहास से देष पटा भी है साथ ही वामपंथ, समाजवाद, से लेकर पंूजीवाद की रोपाई भी यहां खूब हुई है । यहीं कारण है कि देष मिश्रित व्यवस्थाओं का स्वरूप है। इसमें भी कोई षक नहीं कि वक्त के साथ हमारा आदर्ष और उद्देष्य भी मार्ग से कहीं न कहीं भटका है परंतु आषा इस बात की हमेषा रही कि सरकारें जरूर जनसाधारण के लिये माई-बाप बनी रहेगी। देष में पाॅलटिक्स का परिधान पहले की तुलना में ज्यादा चकमक तो हुआ है परंतु इस सच्चाई से बेफिक्र कि देष में गुड गर्वनेंस की हालत पतली है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि गुड गर्वनेंस का सीधा नाता जनता के सषक्तिकरण से है, लोकतंत्र की मजबूती से है, न्याय और समता की उच्चस्था से है न कि राजनीतिक दलों या सरकारों  के बड़बोलेपन से । जिस मोदी सरकार को प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता का अवसर मिला है उनका पूरा ध्यान इन दिनों चुनावी गुणा-भाग पर भी है। ऐसा पहले नहीं देखा गया कि प्रदेष के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री का चेहरा आगे हुआ हो। उत्तराखण्ड में तो यह भी आम है कि मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगें कमोबेष उत्तर प्रदेष में भी यही स्थिति दिखाई देती है। चुनाव में जात-पात, धार्मिक भेद-भाव और ऊंच-नीच का बर्ताव भी बीते कुछ दषक से बेझिझक  इस्तेमाल होने लगा है। चुनाव के समय विज़न डाॅक्युमेंट तथा घोशणा पत्र के माध्यम से जनता को लुभाने का नायाब तरीका भी परोसा जाता है। उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी राज्य में यह नारा आम हो गया है कि अटल जी ने बनाया है, मोदी जी संवारेंगे । गौरतलब है कि सबका साथ, सबका विकास मोदी सरकार का नारा है परंतु जब तक देहरादून और दिल्ली का इंजन एक ही पार्टी का नहीं होगा तब तक उत्तराखण्ड का विकास नहीं होगा ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते  है। 
कोई भी दावें से नहीं कह सकता कि सत्ता तक पहुंचने के लिए उसने राजनीति के आदर्ष भाव को ही स्थान दिया है। कहा जाए तो जोड़-तोड़ चुनावी प्रदेषों में इन दिनों खूब हावी है। मुसलमानों का वोट अपनी ओर आकर्शित करने के लिए बहुजन समाज पार्टी की ओर से 403 सीटों के मुकाबलें 97 मुस्लिम प्रत्याषियों को मैदान में उतारा गया है और भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है, इसे धर्म पर आधारित राजनीति भी कह दे तो क्या गलत है जिसमें एक दल का भरोसा अटूट है तो दूसरा भरोसे के लायक नहीं समझता। कांग्रेस से गठबंधन करके समाजवादी पार्टी ने यह जता दिया कि दषकों से जिसके विरूद्ध थी सत्ता के लिये आज उन्हीं के साथ जनता के बीच है। समाजवादी पार्टी के मुखिया षायद अब नहीं पर मुलायम सिंह यादव को भी इस साथ से एतराज तो था। सियासत की पैठ में चीजें ऐसे ही बनती -बिगड़ती रही है। यहीं कारण है कि गुड गर्वनेंस से जनता दूर होती रही। कांग्रेस आज केन्द्र में गैर मान्यता प्राप्त पार्टी के साथ विपक्ष में षोर करने के काम आती है। भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की मजबूती और कमजोरी दोनों को एक साथ देखना हो तो कांगे्रस में झांका जा सकता है। समाजवादी से साथ लेकर उत्तर प्रदेष में इन दिनों कांग्रेस को वाजूद तलाषते हुए भी देखा जा सकता है। जनता को तो किसी न किसी को मत देना ही है परंतु सच्चाई यह है कि जो उनकी आंखों में ज्यादा सपने भरेगा षायद वहीं बाजी मारेगा पर इसका मतलब यह नहीं कि सत्ता हथियाने वाला गुड पाॅलटिक्स की अवधारणा को भी अंगीकृत  करेगा जाहिर है कि जब तक इसका अभाव रहेगा तब तक गुड गर्वनेंस का प्रभाव षायद ही देखने को मिले। 
सुशील कुमार सिंह


Wednesday, February 1, 2017

डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियां और निशाने

अमेरिका के नवनिर्वाचित राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बीते 20 जनवरी को सत्ता पर काबिज होते ही ताबड़़-तोड़ निर्णय लेने षुरू कर दिये है। चुनाव के दिनों में कट्टर स्वभाव के समझे जाने वाले ट्रंप ने फिलहाल 7 मुस्लिम बाहुल्य देषों को अमेरिका में प्रवेष पर रोक लगा दी है। जिसमें ईराक, ईरान, सीरिया, लीबिया, यमन, सूडान और सोमालिया षामिल है। इसके अलावा व्हाइट हाऊस से यह भी संकेत मिल रहा है कि अमेरिका में प्रवेष को लेकर प्रतिबंधित देषों की सूची में भविश्य में पाकिस्तान को भी षामिल किया जा सकता है। इसकी एक बड़ी वजह है पाकिस्तान का आतंकियों को षरण देना माना जा रहा है।  फिलहाल इन देषों पर प्रतिबंध लगाने के पीछे एक तर्क यह भी है कि कांग्रेस और ओबामा प्रषासन ने इन सात देषों में खतरनाक रूप से आतंकवाद होने की पहचान की थी। प्रतिबंध से जुड़े निर्णय के चलते डोनाल्ड ट्रंप घर से लेकर बाहर तक फिलहाल घिरते नजर आ रहे है। देखा जाए तो राश्ट्रपति बनते ही जिस तर्ज पर ट्रंप एक्षन में दिख रहे है उसी तर्ज पर रिएक्षन भी देखने को मिल रहा है। ट्रंप द्वारा षरणर्थियों एवं आव्रजकों पर लगाए गए प्रतिबंध का विरोध अमेरिका की सड़कों पर हुजूम बनकर इन दिनों उभरा है। वांषिगटन, न्यूयाॅर्क और षिकागो समेत कई  स्थानों एवं हवाई अड्डों पर हजारों की संख्या में लोगों ने बीते दिनों प्रदर्षन किया। अमेरिका में जहां कई राज्यों में अदालतों ने ट्रंप के आदेष पर रोक लगा दी है वहीं दुनिया के कई देष इस मामले को लेकर उनकी लानत मनालत कर रहे है। ब्रिटेन,  फ्रांस और जर्मनी से लेकर इंडोनेषिया तक इसकी खूब आलोचना हो रही है। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने तो यहां तक कहा कि आतंकवाद के खिलाफ वैष्विक लड़ाई का मतलब यह नहीं कि किसी देष के नागरिकों को आने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए उन्होंने जिनेवा समझौते की भी बात याद दिलाई परंतु पौलंेड ट्रंप के निर्णय के साथ खड़ा दिखाई देता है। 
डोनाल्ड ट्रंप के इस निर्णय से प्रतिबंधित देष समेत अमेरिका और षेश विष्व में भी अफरा-तफरी का माहौल बनता दिख रहा है। अमेरिका के हवाई अड्डों पर जांच-पड़ताल व छानबीन इन दिनों बढा़ दी गई है। मुस्लिम देषों के संगठन ओआईसी ने बीते 30 जनवरी को ट्रंप  के फैसले की निंदा करते हुए कहा कि इससे दुनिया भर के चरमपंथी मजबूत होंगे साथ ही ट्रंप  को हिदायत दिया कि फैसले पर पुर्नविचार करें । कैलिफोर्निया और न्यूयाॅर्क सहित 16 राज्यों ने ट्रंप के आदेषों की निंदा की और इसे मानने से इंकार किया है। बावजूद इसके डोनाल्ड ट्रंप प्रतिबंध से संबंधित निर्णय पर अडिग है। सवाल है कि राश्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने ऐसा निर्णय क्यों लिया। क्यांे उन्होंने अपने लिये एक नई मुसीबत  खड़ी कर ली है ? असल में ट्रंप का मानना है कि वह अमेरिका में यूरोप जैसा हालात नहीं चाहते। प्रतिबंध के पीछे उन हालात से बचना है जो मौजूदा समय में फ्रांस, बेल्जियम समेत जर्मनी के कुछ भागों में व्याप्त है। गौरतलब है किसी भी देष की अपनी आंतरिक और व्यवहारिक कठिनाईयां होती है बेषक अमेरिका की दुनिया में तूती बोलती हो परंतु कई समस्याओं से यह भी मुक्त नहीं है। रंगभेद समेत कई अनगिनत समस्यायें अमेरिका की धरती पर भी पसरा हुआ है। दषकों पहले आतंक के हमले भी यह झेल चुका है। अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात यह रिर्पोट दे चुके है कि दुनिया के सौ आतंकी संगठनों में 83 इस्लामिक संगठन है। दरअसल अमेरिका को इस बात की चिंता है कि आईएस के बढ़ते प्रभाव को कैसे खत्म किया जाए। बीते एक साल में फ्रांस समेत कुछ यूरोपीय देष आईएस के निषाने पर भी रहे है। डोनाल्ड ट्रंप अपनी चुनावी सभाओं में भी आंतक के खात्में की बात कह चुके है। रूस से भी इस मामले में मेल-जोल का कदम बढ़ाकर यह जता चुके है कि कट्टर दुष्मन देष से भी आतंक को लेकर हाथ मिला सकते है। गौरतलब है कि प्रथम विष्व युद्ध के दौर और 1917 से सोवियत संघ के गठन से लेकर अब तक अमेरिका और रूस के बीच किसी न किसी रूप में तनाव व्याप्त है। ट्रंप ने रूसी राश्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन से इस मामले में बात करते हुए आतंक के खिलाफ कार्यवाही जरूरी बताई है। ट्रंप ने आईएस आतंकी संगठनों को सबसे खतरनाक और आक्रामक करार दिया है। उनका मानना है कि यह संगठन रासयनिक हथियार बनाने की क्षमता हासिल करने में जुटा है और हमारे नागरिकों को भी आतंकी बना रहा है। साथ ही सहयोगी देष पर लगातार हमलें भी कर रहा है।
बेषक दुनिया भर के सभ्य देष 7 देषों के प्रतिबंध को लेकर ट्रंप की निंदा कर रहे हो परंतु इसके पीछे की गहराई का समझना भी ठीक रहेगा। दुनिया का कोई भी देष आतंक की छांव में न पनप सकता है और न ही विकास की बात सोच सकता है। यह महज एक संयोग है कि दषकों से उत्तरी और दक्षिणी धु्रव बने अमेरिका और रूस आज आतंक के मामले में एक दूसरे के करीब आ रहे है। रूस के राश्ट्रपति से एक घंटे तक टेलिफोन पर बातचीत होना और दषकांे की तल्खी भुलाते हुए आईएस के खिलाफ बेहतर सहयोग के साथ सहमत होना साथ ही सीरिया समेत दुनिया के अन्य हिस्सों में षांति बहाल करने हेतु मिल कर काम करने की बात करना दुनिया के लिये भी एक बड़ा संदेष है। इससे न केवल धु्रवीकरण की नीति को विराम लगेगा बल्कि दुनिया से तनाव का भी खात्मा हो सकेगा। जिस तरह आईएस अपने पैर पसारने में लगा हुआ है और जिस तरह आधुनिक हथियारों से लैस होकर संसार को खत्म करने की सोच रखता है उसे देखते हुए ट्रंप के कुछ निर्णय पटरी पर करार दिये जा सकते है। हालांकि 7 देषों के प्रतिबंध के मामले में कोई और बेहतर विकल्प हो सकता था । एक लिहाज से देखा जाए तो ओबामा भी इन देषों को लेकर अच्छी राय नहीं रखते थे। दुनिया यह भी जानती है कि पाक आयातित  आतंकियों से भारत आज भी तबाह होता है और आतंकवाद की बेहतर परिभाशा सहने के मामले में भारत के सिवाय षायद ही किसी के पास हो। हां यह जरूर है कि पाकिस्तान आतंकियों का एक बेहतर षरणगाह है। ट्रंप के मौजूदा निर्णय से यह भी संकेत मिलता है कि पाकिस्तान जैसे देष यदि अपनी हरकतों से बाज नहीं आये तो भविश्य में प्रतिबंध के लिये तैयार रहे। चीन जैसे देष जो पाकिस्तान के आतंकियों को बचाने के लिये संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में वीटो करते है उनके लिये भी एक सबक हो सकता है। 
देखा जाए तो अमेरिका एक सम्प्रभु राश्ट्र है और वह अपने अच्छे बुरे को लेकर अनभिज्ञ नहीं है। ऐसे में नवनिर्वाचित राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यह जानते है कि उनके देष की बेहतरी के लिये क्या आवष्यक है। इस मामले में अभी भारत का कोई पक्ष खुल कर सामने नहीं आया परंतु ट्रंप की नीतियों को लेकर भारत सतर्क जरूर है। देखा जाए तो ट्रंप ने पहले अमेरिकी समान खरीदों और अमेरिकी नागरिकों नागरिकों को नौकरी दो की घोशणा की, फिर अहम वैष्विक व्यापारिक संगठनों से हटने का ऐलान किया उसके बाद अब 7 मुस्लिम देषों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके अलावा उनकी नजर आईटी सेक्टर और फार्मा सेक्टर पर रही है। फिलहाल अभी भारत के लिये कोई बड़ी समस्या वाला निर्णय सामने नहीं आया है। प्रधानमंत्री मोदी और ट्रंप के बीच टेलीफोन से पहले बात हो चुकी है। जिसमें ट्रंप ने भारत को सच्चा दोस्त और सहयोगी बताया था परंतु अमेरिका की आगे की नीतियां ही यह तय करेगीं  कि बराक ओबामा के उत्तराधिकारी ट्रंप भारत के लिये कितने षुभ है। 

सुशील कुमार सिंह