Monday, November 30, 2015

संवैधानिक प्रश्न न कि संविधान पर प्रश्न

प्रस्तावना भारत के संविधान का सारांष, दर्षन और आदर्ष है। यह संविधान की भावनाओं का निचोड़ भी है। इसे संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी भी कहा गया है। वर्श 1960 के इनरी बेरूबाडी मामले में उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तावना को लेकर इसी प्रकार के मर्म उद्घाटित किये थे। वैसे तो संविधान को बहुत स्पश्ट करने का प्रयास किया गया है फिर भी जहां इसकी भाशा संदिग्ध या अस्पश्ट है वहां प्रस्तावना का सहारा लिया जा सकता है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में देष की षीर्श अदालत ने उद्देषिका को संविधान की मूल आत्मा, अपरिवर्तनीय और षाष्वत बताया। साफ है कि इसे किसी भी तरह न तो कमतर किया जा सकता है और न ही इसके विरूद्ध सरकार और संसद कोई कदम उठा सकती है। बीते 26 नवम्बर से षीतकालीन सत्र चल रहा है जिसमें असहिश्णुता के साथ संविधान के मामले में भी सरकार पर आरोप भी मढ़े जा रहे हैं। देष के गृहमंत्री राजनाथ सिंह की सत्र के दूसरे दिन ‘सेक्युलर‘ षब्द को लेकर टिप्पणी देखने को मिली। गृहमंत्री चाहते हैं कि इसका अर्थ पंथनिरपेक्ष से लगाया जाए न कि धर्मनिरपेक्ष से। इसके पहले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 5 अगस्त, 1954 के अपने भाशण में भी कह चुके हैं कि षायद सेक्युलर षब्द के लिए धर्मनिरपेक्ष षब्द बहुत अच्छा नहीं है फिर भी इससे बेहतर षब्द न मिलने के कारण इसका प्रयोग किया गया है। जाहिर है कि तत्कालीन गृहमंत्री का ‘सेक्युलर‘ षब्द के सही अर्थ को लेकर उठाया गया सवाल एक संवेदनषील एवं संवैधानिक प्रष्न के तौर पर देखा जाना चाहिए न कि संविधान पर प्रष्न के रूप में।
स्पश्ट है कि पंथनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। ‘सेक्युलर‘ अंग्रेजी का एक ऐसा षब्द है जिसका अभिप्राय दोनों से है। इसके अर्थ में अधार्मिक या धर्म विरोधी होना निहित नहीं है बल्कि सभी पंथों को समान स्वतंत्रता प्रदान करना षामिल है। सवाल है कि क्या पंथनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष के दो अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं? गृहमंत्री राजनाथ सिंह के अनुसार पंथनिरपेक्ष ही उचित षब्द है। गृहमंत्री का आषय संवैधानिक प्रष्न की गरिमा से ओत-प्रोत प्रतीत होता है चूंकि प्रस्तावना में हिन्दी अर्थ पंथनिरपेक्षता ही है ऐसे में इस पर कुछ भी कहा जाना गैर वाजिब नहीं लगता। हालांकि बीते दिनों विपक्ष षंकित रहा है कि संविधान के सिद्धान्तों पर खतरा बढ़ा है। मगर एस. आर बोम्मई वाद को देखें तो उच्चतम न्यायालय ने स्पश्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल ढांचा है तथा इसे संविधान संषोधन द्वारा भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता। केषवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स के मामले में भी न्यायालय ने इस अवधारणा की पुश्टि की है। साफ है कि धर्मनिरपेक्ष षब्द संवैधानिक मानकों में पंथनिरपेक्ष की तरह ही जाना समझा जाता है। इसे देखते हुए स्पश्ट है कि कोई भी सरकार संवैधानिक प्रष्न तो उठा सकती है परन्तु संविधान पर ही प्रष्न उठाने की इजाजत संविधान में नहीं है। षीर्श अदालत ने समय-समय पर कई उपबन्धों को मूल ढांचे की संज्ञा दी है जिसमें किसी प्रकार का संषोधन सरकार तो छोड़िए संसद भी नहीं कर सकती है।
‘सेक्युलर‘ षब्द का कुछ मिलता-जुलता या अनुवाद लौकिक हो सकता है। वास्तव में सेक्युलर षब्द के लिए जैसा कि नेहरू ने भी कहा था कोई उपयुक्त षब्द नहीं निकल पाया है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष तथा लौकिक षब्द का प्रयोग यहां किया गया है। इसकी स्पश्ट अवधारणा कब आयेगी इसे समय पर छोड़ देना चाहिए। रोचक तथ्य यह भी है कि देष कोई भी हो प्रायः बहुसंख्यक में धर्म विषेश को मानने वालों पर उस धर्म की छाप लगना स्वाभाविक है मसलन हिन्दुस्तान में हिन्दू, पाकिस्तान में मुसलमान, इज्राइल में यहूदी, बर्मा, श्रीलंका और थाइलैंड जैसे देष में बौद्ध आदि। इसके अलावा इसाई बहुसंख्यक देष जैसे ब्रिटेन, यूरोप, उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका आदि को भी इसमें रखा जा सकता है। सहिश्णुता धर्म निरपेक्ष राज्य की आधारषिला होती है। भारत सनातन काल से धर्म के मामले में उदार और लोचषील रहा है। संविधान सभा मूल अधिकार के अन्तर्गत अनुच्छेद 19 (क)1 में निहित बोलने की आजादी को लेकर संदेह में थी विमर्ष यह था कि धर्म विषेश को लेकर इसमें क्या उपबन्ध हों। निश्कर्श निकाला गया कि धर्म एक निजी मामला है और इसे देष की जनता पर छोड़ दिया जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों में धर्मनिरपेक्षता की भावना यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। अनुच्छेद 15 और 16 धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकता है जबकि अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है वहीं अनुच्छेद 29(2) धर्म के आधार पर षिक्षण संस्थाओं में प्रवेष से वंचित न करने के लिए है और अनुच्छेद 30(1) धार्मिक अल्पसंख्यकों को षिक्षण संस्थान स्थापित करने का अधिकार प्रदान करता है। इतना ही नहीं अनुच्छेद 325 में साफ है कि किसी भी नागरिक को धर्म के आधार पर निर्वाचन नामावली से अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता।
हम भारत के लोग से षुरू होने वाली उद्देषिका स्पश्ट करती है कि भारत के लोग संविधान के मूल स्रोत हैं और इसका निर्माण इन्हीं की इच्छा का परिणाम है। बीते 26 नवम्बर को षुरू हुए षीतकालीन सत्र के षुरूआती दो दिन संविधान को समर्पित रहे। असहिश्णुता को लेकर सदन में जोरदार विमर्ष भी देखने को मिला और अभी भी जारी है। संविधान के निर्माता डाॅ. अम्बेडकर की 125वीं जयन्ती के वर्श को इस सत्र में प्रतिबिम्बित भी किया गया। गृह मंत्री राजनाथ सिंह को धर्मनिरपेक्षता षब्द से आपत्ति है उनका मत है कि पंथनिरपेक्षता वाजिब षब्द है। संविधान की प्रस्तावना की पड़ताल करें तो स्पश्ट है कि वर्श 1976 में 42वें संविधान संषोधन के तहत ‘पंथनिरपेक्ष‘ षब्द जोड़ा गया था। पंथनिरपेक्ष षब्द का कथित भाव यह है कि  भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। देष का कोई धर्म नहीं है, यहां के नागरिकों को इच्छानुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। सर्वधर्म समभाव आदि इसके मूल में निहित है। प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षियों के इस आरोप को कि सरकार संविधान बदलना चाहती है को न केवल खारिज किया बल्कि उन्होंने एक तीर से दो निषाने भी साधे। एक ओर असहिश्णुता तो दूसरी ओर संविधान पर हो रहे चकल्लस को लेकर साफ किया कि ‘धर्म-इण्डिया फस्र्ट और धर्मग्रन्थ-संविधान‘ है तथा संविधान में बदलाव न करने वाली मंषा को भी जता कर  उन्होंने विरोधियों को कड़ा संदेष देने का काम किया। पहली बार इस सत्र में मोदी का नया रूप भी नजर आया। पहले की तरह न उनमें तंज, न तकरार, न ही जवाब में चुटकी लेनी अदावत थी। यदि था तो सिर्फ सद्भाव। भाशण के समापन में आपसी सहमति बनाने पर जोर दिया उन्होंने यह भी कहा कि लोकतंत्र सहमति से चलता है बहुमत और अल्पमत आखरी रास्ता है। इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी से जीएसटी पर गतिरोध को दूर करने के लिए एक सद्भावनापूर्वक बैठक की। स्पश्ट है कि अब मोदी बेवजह की तकरार नहीं चाहते हैं और न ही पहले की तरह सत्र की दुर्दषा होने देना चाहते हैं। डेढ़ वर्श का कार्यकाल बिता चुके हैं जाहिर है काम को लेकर छटपटाहट बढ़ी होगी। वे भी जानते हैं कि यदि यह षीतकालीन सत्र भी मुख्य मुद्दे से भटक गया तो देष को जवाब देना भारी पड़ जायेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


Thursday, November 26, 2015

आर्थिक विकास का इंजन जीएसटी

    भारत में लोकतंत्र षासन का हृदय है और सुषासन सम्बन्धी आकांक्षाएं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित हैं। उत्तरदायी षासन व्यवस्था से ओत-प्रोत सरकारें जनहित के मामले में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती। जनहित को साधने के फिराक में कई चुनौतियों का सामना भी सरकारें करती रही हैं। नित नये नीतियों और नियोजनों का अम्बार भी लगाती हैं। एक समुच्चय अवधारणा यह भी रही है कि चुनौती का सम्बन्ध सामाजिक विकास और सामाजिक अवसरों के विस्तार से होता है इतना ही नहीं न्याय, सषक्तीकरण, रोजगार तथा क्षमतायुक्त श्रम संसाधनों की सुनिष्चित करने वाली विधा भी इसमें षुमार है। षासन तब ‘सु‘ अर्थात् अच्छा होता है जब समस्याओं के निदान के लिए नीतियां हों और उन्हें पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधन हों। डेढ़ वर्श पुरानी मोदी सरकार ने कई बार सुषासन के प्रति अपनी वचनबद्धता दर्षायी है। इसी के दायरे में जीएसटी जैसी महत्वाकांक्षी आर्थिक योजनाओं को देखा जा सकता है जिसका कानूनी रूप आना अभी बाकी है। केन्द्र और राज्य के बीच अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर विवाद झेल रहा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक जो 122वां संविधान संषोधन 2014 होगा पिछले षीत सत्र में लोकसभा में पेष किया गया पर मामला आज भी खटाई में है। बरसों से चर्चा बटोरने वाला जीएसटी एक बरस से मोदी सरकार को भी पेषोपेष में डाले हुए है। यदि यह कानूनी रूप लेता है जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कह चुके हैं कि 1 अप्रैल, 2016 को इसे चलायमान करना है तो प्रत्येक सामान और प्रत्येक सेवा पर केवल एक टैक्स लगेगा अर्थात् वैट, एक्साइज़, सर्विस टैक्स आदि की जगह एक ही कर चुकाना होगा।
    देष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किस्म के कई कर लागू हैं पर ये कितने पारदर्षी हैं पड़ताल का विशय है। जीएसटी आने के बाद काफी हद तक जहां ‘कर‘ सम्बन्धी विवाद समाप्त होंगे वहीं कर ढांचे में भी पारदर्षिता आयेगी जो सुषासन में निहित पारदर्षी विचारधारा को कहीं अधिक पुख्ता भी करेगी। जीएसटी का सबसे बड़ा मुनाफा आम आदमी को होने वाला है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी सामान पूरे देष में एक ही दर पर मिलेगा चाहे किसी भी स्थान से खरीदारी क्यों न की गयी हो। इससे टैक्स से भी राहत मिलेगी। आम तौर पर बिना जीएसटी के सामान खरीदते समय 30 से 35 फीसदी कर के रूप में चुकाना पड़ता है जबकि सरकार द्वारा जीएसटी के माध्यम से 20 से 25 फीसदी तक टैक्स की बात की जा रही है साफ है सामान सस्ते दर पर मिलेंगे। कारोबारी जगत भी सरकार से बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं जीएसटी लागू होने से उनकी भी झंझटे कम होंगी। व्यापारियों को सामान की आवाजाही को लेकर दिक्कतें भी नहीं होगी, अलग-अलग टैक्स नहीं चुकाना पड़ेगा। इतना ही नहीं सामान बनाने की लागत भी घटेगी और सस्ते सामान की उम्मीद की जा सकती है। जीएसटी के मामले में राज्य सदमे में थे, डर कमाई कम होने का था। राज्य मुख्यतः पेट्रोल, डीजल से अच्छा खासा आय करते हैं। भारतीय संविधान के अन्तर्गत कर लगाने एवं वसूलने का प्रावधान देखा जा सकता है। संविधान में केन्द्र-राज्यों के बीच तीन सम्बन्धों की चर्चा है जिसमें एक वित्तीय सम्बन्ध है। राज्यों की ये षिकायत रही है कि वित्तीय आवंटन के मामले में केन्द्र हमेषा निराष करता रहा है। केन्द्र स्तर पर जहां सेन्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी, सेवा कर के अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी आदि षामिल है वहीं राज्य वैट, मनोरंजन एवं बिक्री कर सहित कई करों पर आश्रित होते हैं परन्तु कर व्यवस्था में दरों को लेकर एकरूपता का आभाव है। जीएसटी यहां भी एकीकृत मानक विकसित करने में कारगर है। नेषनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक इजाफा किया जा सकता है।
    देष के आर्थिक एवं वित्तीय सुधार की दिषा में कर ढांचे में किये जा रहे परिवर्तन का यह व्यापक फेरबदल आर्थिक क्षेत्र के सभी विभागों पर असर डालेगा। जीएसटी एक मुनाफे वाली अर्थषास्त्र सिद्ध होगी और देष में सुषासन के कारगर प्रविधि के रूप में पहचानी जायेगी। पिछले सात-आठ वर्शों से यह सुधार की कवायद के चलते सुर्खियों में रहा है परन्तु राज्यों से इसके गहरे मतभेद बने रहे। इसके मुनाफे को देखते हुए कहना सही होगा कि इसके लाभ से देष की अर्थव्यवस्था अब तक वंचित रही है। टैक्स चोरी में अंकुष और पारदर्षी लक्षण के चलते यह संचित निधि में राषि बढ़ाने के काम आयेगी। विष्लेशणात्मक पहलू यह भी है कि तमाम फायदों के बावजूद क्या यह पूरी तरह चिंता मुक्त कर प्रणाली होगी। बड़ा सवाल यह है कि टैक्स स्लैब क्या होगा और नुकसान हुआ तो भरपाई कौन करेगा। केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर क्या वाकई में विवाद खत्म हो जायेंगे हालांकि केन्द्र सरकार कह चुकी है कि इसके आने के बाद जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक की क्षतिपूर्ति मिलती रहेगी। षुरूआती तीन साल पर षत्-प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवें साल 50 फीसदी क्षतिपूर्ति का प्रावधान इसमें किया गया है। जीएसटी काउंसिल में राज्य के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे। वित्त मंत्री अरूण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि कुछ राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई हेतु दो वर्श के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। बहरहाल आर्थिक सुधार की दिषा में महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जीएसटी विधेयक को कानूनी रूप दिया ही जाना चाहिए।
    एक अच्छी सरकार में अच्छे काॅरपोरेट सुषासन का भी गुण होता है और यह तब अधिक प्रभावषाली सिद्ध होती हैं जब देष की आर्थिक नीतियां कहीं अधिक व्यापक होती हैं। प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सोच उबाऊ न होकर कहीं अधिक उपजाऊ प्रतीत होती है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जीएसटी को देष के आर्थिक हित में बता चुके हैं। आधुनिक लोकतंत्र के राजनीतिक इतिहास को नागरिक हितों की ओर मोड़ना और समय-समय पर उभरने वाली विसंगतियों को दूर करने के लिए गवर्नेंस का पैमाना भी उच्च करना होता है। इनपुट और आउटपुट लोकतांत्रिक माॅडल से प्रषासनिक दक्षता को तय करना भी जरूरी होता है। देखा जाए तो  सुषासन के दायरे में लिप्त जीएसटी के चलते लागत में कमी, ज्यादा सकारात्मक बिज़नेस वातावरण, बिज़नेस और उद्योग के बीच बेहतर आपसी सम्बन्ध के साथ पारदर्षिता और दायित्वषीलता का भी विकास होगा। नागरिकों को सेवा प्रदान करने में गुणवत्ता का विकास, लोक प्रषासन एवं सरकार के प्रबंधन की क्षमता को बेहतर बनाना आदि भी इसमें देखा जा सकेगा। लोक कल्याणकारी राज्यों में घाटे के बजट को बेहतर माना जाता है पर घाटा तो इसलिए हो रहा है कि राजकोशीय घाटा बढ़ रहा है। देखा गया है कि राजकोशीय और बजटीय घाटे के चलते सरकारें आलोचना झेलती रही हैं। जीएसटी के चलते इसे भी पाटा जा सकता है। संचित निधि को नकदी से भरा जा सकता है जिसके फलस्वरूप सरकार अपने सुषासन के संकल्प सहित कई वायदों को पूरा करने का दम भर सकती है। वास्तव में यह वर्तमान सरकार की बड़ी कोषिष कही जायेगी ऐसे में वर्तमान षीत सत्र इसे कानूनी रूप देने का अवसर दे सकता है। हालांकि विपक्षियों के अपने विरोध हैं पर रचनात्मक आर्थिक नीति से ऊपर उठते हुए जीएसटी को फलक पर लाना सभी के हित में है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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सत्र में निहित है सुशासन का मूल्यांकन

    किसी भी सरकार के सुषासन का परीक्षण तीन स्तरों पर किया जा सकता है। पहले में वैष्विक स्तर पर, निरूपित की गयी नीतियां तथा उसका फीडबैक, दूसरे में मानव विकास सूचकांक की पड़ताल जबकि तीसरे स्तर में सरकार की प्रभावषीलता, पारदर्षिता एवं नीति प्रक्रिया में भागीदारी के साथ जनहित में उठाए गये कदम व जनता को सीधे पहुंचे मुनाफे षामिल हैं। इसके अलावा भी कई परिप्रेक्ष्य इसके अन्तर्गत निहित माने जाते हैं जिसमें सामाजिक-आर्थिक सरोकार सहित कई छोटे-बड़े मुद्दे षामिल हैं मसलन गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, षिक्षा तथा अन्य बुनियादी समस्याएं। भारतीय संसदीय प्रणाली में सरकार की नीतियों और उपलब्धियों से जुड़ी बातें सत्र के दौरान भी प्रदर्षित होती रही हैं। पूरा वर्श तीन सत्रों में बंटा है बजट, मानसून तथा षीतकालीन साथ ही विषेश सत्र के प्रावधान भी संविधान में निहित हैं। इनके माध्यम से सत्ता एवं विपक्ष विभिन्न प्रकार के विधायी और कानूनी प्रक्रियाओं पर विमर्ष के साथ विधेयकों को अधिनियमित भी करते हैं। सरकार क्या करती है, क्या करना चाहती है और कैसे करना चाहती है इन सभी का ब्यौरा भी इनमें उजागर होता है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि सत्रों के चलते ही देष के कोने-कोने से जनता के प्रतिनिधि संसद भवन में एकत्र हो कर जनहित को सुनिष्चित करने का प्रयास करते हैं पर ऐसा भी हुआ है कि विरोध भाव बढ़ने के चलते जनहित उस पैमाने पर सुनिष्चित नहीं हुआ है जिसकी अपेक्षा रही है। देखा जाए तो मोदी सरकार के षासनकाल के सत्र कमोबेष विरोध के षिकार हुए हैं।
    जब तक समय के आईने में न देखा जाए तब तक अभिषासन का कोई भी सिद्धान्त बोधगम्य नहीं हो सकता। सुषासन सम्बन्धी आकांक्षाएं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित हैं। जनता और सरकार के साझा मूल्यों द्वारा देष निर्देषित होता है। जनता के प्रति सरकार की अपनी वचनबद्धता होती है और विपक्ष की भूमिका इनमें कहीं से कम नहीं होती। राश्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सहिश्णुता के मानकों पर सरकार और विपक्ष दोनों को खरा उतरना होता है। सत्तारूढ़ दल वोट हथियाने का ही जरिया नहीं है और विरोधी केवल विरोध करने के लिए नहीं बने हैं बल्कि देष को दोनों की संयम और समझदारी की आवष्यकता पड़ती है। पिछला षीत सत्र तथाकथित साम्प्रदायिकता, धर्मांतरण जैसे तर्कों में बिना कुछ खास हासिल किये समाप्त हो गया। बजट सत्र में भी बहुत कुछ रचनात्मक विचार उद्घाटित नहीं हो पाये, मानसून सत्र पर तो ठीक से बौछारें ही नहीं पड़ी। पिछले तीन सत्रों का यदि पड़ताल किया जाए तो अनुभव अच्छे नहीं कहे जायेंगे। अक्सर देखा गया है कि सरकार की न झुकने वाली नीति और विरोधियों की पीछे न हटने वाली नीति सत्र के साथ नाइंसाफी को दर्षाता है। बीते 26 नवम्बर से षीत सत्र षुरू हो गया है। इस सत्र पर भी असहिश्णुता की परछाई पड़ सकती है। हालांकि सरकार असहिश्णुता पर चर्चा कराने के लिए तैयार है। विपक्ष की मांगी गयी इस मांग को पूरा करके सरकार ने अपने लिए रास्ता थोड़ा सुगम तो बना लिया है।
    कई मौकों पर देखा गया है कि मुख्य विपक्षी कांग्रेस सरकार के लिए बड़ी अड़चन पैदा करती रही है। भू-अधिग्रहण विधेयक, बीमा विधेयक और जीएसटी सहित कई मामलों में सरकार को विरोधियों ने हाषिये पर धकेला है। सरकार इस सत्र में जीएसटी और अन्य आर्थिक मुद्दों से जुड़े सात नये विधेयक पेष कर सकती है और इसके अलावा तीन अध्यादेषों की बैसाखी पर टिके कानूनों को भी अमलीजामा देना है। प्रधानमंत्री मोदी पूर्व सत्रों के अनुभव को देखते हुए विपक्ष से सहयोग की अपील की है। उन्होंने कहा कि सरकार और चुने हुए जन प्रतिनिधि को जन आकांक्षाओं को पूरा करना है लिहाजा विपक्ष को सदन चलाने में सहयोग करना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी की अपील कितनी असरदार होगी इसका भी मूल्यांकन आगे हो जाएगा। सरकार ने चतुराई दिखाते हुए कांग्रेस को साधने के लिए उसकी कुछ मांगों पर सकारात्मक मन बना लिया है। बीते दिन हुई सर्वदलीय बैठक में भी मोदी काफी सक्रिय दिखाई दिये। राहुल गांधी का कथन है कि जीएसटी पर तो भरोसा है पर विपक्ष को भी सरकार सुने। फिलहाल सरकार कोई ऐसा मौका विरोधियों को नहीं देना चाहेगी जिससे कि किये धरे पर पानी फिरे। हालांकि विपक्ष के पास असहिश्णुता के साथ महंगाई जैसे मुद्दे हैं पर ये कितने ज्वलंत होंगे यह सरकार के तौर-तरीके और विपक्षियों की एकजुटता पर निर्भर करेगा।
    डेविट ब्लंकेट का कथन है कि संसदीय प्रक्रिया में बदलाव से उन लोगों के जीवन में परिवर्तन नहीं आता जिनका प्रतिनिधित्व सांसद करते हैं। साफ है कि बदलाव जमीनी हो और जनहित में हो। केवल विरोधियों को अच्छा लगे मात्र इसके लिए न हो। फिलहाल सत्र की षुरूआत के दो दिन संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकार के नाम समर्पित है। ध्यानतव्य है कि 26 नवम्बर, 1949 को संविधान के आवष्यक उपबन्ध लागू कर दिये गये थे जबकि पूरा संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था। फिलहाल सरकार दो दिन के इस विषेश चर्चा में अपने को आरोपों से बाहर निकालना चाहेगी और बाकी के दिनों में कई गुणात्मक कार्यों को अंजाम भी देना चाहेगी साथ ही विरोधियों को भी चुप कराने का काम करेगी पर सवाल है कि यह सब कितना आसान होगा आगे के दिनों में पता चल जाएगा। सत्र के पहले दिन लोकसभा में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 42वें संविधान संषोधन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह प्रस्तावना की भावना से परे है। उन्होंने यह भी कहा कि पंथ निरपेक्ष षब्द को धर्म निरपेक्ष षब्द में न तौला जाए बल्कि इसके अर्थ को ठीक से लागू किया जाए। कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संविधान को सही बताते हुए कहा कि इसे चलाने वाले उचित मार्ग नहीं दे रहे हैं अब तक कि राजनीहित को देखते हुए स्पश्ट है कि यह सत्र भी आरोपों और प्रत्यारोपों से परिपूर्ण रहेगा। बावजूद इसके दो टूक यह है कि संविधान और सुषासन एक दूसरे के पूरक हैं बेहतर सुषासन संविधान के अनुपालन से प्राप्त किया जा सकता है जिसके लिए षीत सत्र को परवान चढ़ाना ही पड़ेगा।




लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Wednesday, November 25, 2015

विपक्ष की भूमिका में गैर अनुभवी कांग्रेस

    जिस अनुपात में भारत की राजनीति अनवरत् है उसे देखते हुए यह समझना तनिक मात्र भी कठिन नहीं है कि भले ही सत्ता लोकतंत्र से सराबोर हो पर उसकी भी कई दुखती रग होती है। प्रथम आम चुनाव से लेकर सोलहवीं लोकसभा तक की यात्रा में बहुदलीय सरकारें भी आयीं परन्तु इसी लोकतंत्र में कांग्रेस एकतरफा सत्ता अख्तियार करने वाली राजनीतिक पार्टी रही है। यदि दूसरे दल को सत्ता में सेंध लगाने का अवसर मिला तो वह अस्सी के दषक में जनता पार्टी थी। संविधान लागू होने से अब तक की सत्ता यात्रा में बारह वर्श ही ऐसे रहे जब कांग्रेस विहीन षासन देष में रहा। तथ्य यह भी है कि सवा सौ बरस से अधिक पुरानी एक राश्ट्रीय पार्टी कांग्रेस पूरे दमखम के साथ 55 साल तक सत्ता में रही जिसके चलते उसे बहुदलीय सरकारों जैसा आन्तरिक विरोध नहीं झेलना पड़ा षायद उसी का परिणाम है कि आज विपक्ष में इन्हीं कमियों के चलते वह काफी हद तक अपरिपक्वता का प्रदर्षन कर रही है। विगत् डेढ़ वर्शों से सत्तासीन एनडीए के साथ अभी तक कांग्रेस विरोधी भूमिका में तो रही पर रचनात्मक भूमिका में भी रही इस पर संदेह है। कहा जाता है कि एक रचनात्मक विपक्षी सकारात्मक सत्ता का विकल्प होता है पर कांग्रेस में अभी ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई देती। कांग्रेसियों के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि जब वे सत्ता में होते हैं तब कहीं अधिक नियंत्रित होते हैं, समन्वित होते हैं और एकजुट रहते हैं जैसे ही सत्ता से हटते हैं अनुषासन का आवरण उनसे दूर भागने लगता है और बिखराव स्थान घेरने लगता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान कांग्रेस अन्दर और बाहर से सुगम और सरल तो नहीं है। घटनाक्रम को निचोड़ा जाए तो मोदी काल के पूर्व का कांग्रेस काल कई कालों की तुलना में षायद सबसे खराब दौर से गुजरा था। इस दौर के बड़े-बड़े घोटाले कांग्रेस के लिए बड़ी कीमत चुकाने वाले सिद्ध हुए जिसका खामियाजा गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष की भूमिका में होना देखा जा सकता है।
    देष के लिए बदले लोकतंत्र में बदली तस्वीर होगी और कांग्रेस एक विपक्षी के रूप में रचनात्मक मुहिम के साथ नया रूप अख्तियार करेगी यह अनुमान पूरी तरह सही नहीं बैठ रहा है। पिछले वर्श के षीत सत्र को देखें तो कांग्रेस की रचनात्मकता सवालों के घेरे में रही है। महत्वपूर्ण संसद का सत्र तथाकथित सम्प्रदायिकता की आड़ में स्वाहा कर दिया गया। मजबूरन सरकार को कानून के आभाव में कई अध्यादेष मसलन भू-अधिग्रहण, बीमा, बैंकिंग आदि लाने पड़े जबकि जीएसटी विधेयक आज भी धूल खा रहा है। भू-अधिग्रहण अध्यादेष तो चार बार लाया गया और कहीं अधिक चर्चे के साथ विरोध का भी सामना किया। बजट सत्र में उम्मीदें थी कि इन्हें कानूनी रूप दिया जा सकेगा पर सरकार को यहां भी खाली हाथ ही लौटना पड़ा। 20 फरवरी, 2015 को बजट सत्र से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सम्प्रदायिकता पर दो टूक जवाब दे दिया पर विरोधी संतुश्ट नहीं हुए। इसी दौरान कांग्रेस के युवराज और उपाध्यक्ष राहुल गांधी फलक से ही ओझल हो गये और 56 दिन की छुट्टी बिताने के बाद अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में प्रकट हुए तब उनका जोर किसानों की जमीन बचाने को लेकर था और वे इतने तल्ख थे कि मानो सरकार किसानों को प्रताड़ित कर रही हो। मानसून सत्र भी विरोधी दबाव के चलते सूखे की ही चपेट में रहा। अब पुनः एक बार षीतकालीन सत्र मुहाने पर है जो तथाकथित असहिश्णुता की काली छाया से षायद ही बच सके।
    लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक महत्वपूर्ण प्रभावकारी माध्यम होते हैं जिनके सहारे आम आदमी की जरूरतें और आकांक्षाएं सरकार और नीति निर्माताओं तक पहुंचती हैं। यद्यपि यह सही है कि वर्तमान दौर में मीडिया जैसे मजबूत विकल्प के चलते ये काम और आसान हो गया है परन्तु राजनीतिक दलों की इच्छाओं में जनता की इच्छा षुमार होने के कारण यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण बने रहते हैं। कांग्रेस सहित कई विपक्षी पिछले डेढ़ वर्शों सरकार विरोध में ही कूबत लगाये हुए है जबकि उन्हें कई ठोस और जनहित वाली नीतियों को लेकर सरकार की सहगामी होनी चाहिए थी। कहा जाए तो विपक्षियों के चलते षायद ही कुछ बड़े काज हुए हों यदि कुछ बड़ा करने की कोषिष की गयी है तो वे केवल विरोध वाले सुर ही रहे हैं। कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से कई प्रकार के विमर्ष से भी जूझ रही है। कई आलोचनाओं को भी झेल रही है पर षायद आन्तरिक बिखराव इतना बड़ा है कि दल के अन्दर का एकाकीपन संभले नहीं संभल रहा है। 26 नवम्बर से षीतकालीन सत्र षुरू हो रहा है इस पर भी तथाकथित असहिश्णुता की छाया पड़ सकती है। महीनों से सुलगती असहिश्णुता में एक बार फिर चिंगारी तब भड़की जब फिल्म स्टार आमिर खान भी इसमें कूद गये और बिना मौका गंवाये े राहुल गांधी ने समर्थन देते हुए इसे लपक भी लिया। हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी आमिर के वक्तव्य से काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे सभी षख्सियत आमिर के बयान को बड़ी प्रमुखता देने की होड़ में लगी हैं जो मोदी के खिलाफ सोच रखते हैं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रम से भरी सियासत के चलते देष पहले भी कई संकटों में फंसा है। जनता की भलाई इसी में है कि समस्या हल की ओर ध्यान दिया जाए न कि सियासत की आड़ में माहौल बिगाड़ा जाए। राहुल गांधी का कदम यहां भी सार्थक नहीं कहा जा सकता। फिल्मी दुनिया भी इस मुद्दे पर बंटी है। आमिर पर लानत-मलानत भी निकाला जा रहा है। षायद वे भी सोच रहे होंगे कि उनसे यह क्या हो गया पर पब्लिक डोमेन में गये इस वक्तव्य को लेकर कईयों को मोदी पर निषाना साधने का मौका तो मिल ही गया है।
देखा जाए तो सरकार कुछ सामाजिक और आर्थिक तो कुछ बेवजह की सियासती पचड़े में फंसी है। जीएसटी सहित दर्जनों विधेयक को लेकर सरकार आधे रास्ते में अटकी है। कांग्रेस पहले की तरह मुसीबत बढ़ाने वाली सिद्ध हो सकती है। मोदी सरकार की मुसीबत तब तक पीछा नहीं छोड़ेगी जब तक राज्यसभा में उनकी तादाद नहीं बढ़ेगी। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि जीएसटी के लिए रास्ता साफ कर देना चाहिए ऐसा देष के आर्थिक हित में है पर सवाल है कि क्या इस विचार को उन्हीं की पार्टी तवज्जो देगी? यह लोकतंत्र की धारा ही है कि 1984 में दो स्थान पाने वाली भाजपा और 400 से ज्यादा स्थानों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस इस गगनचुंबी लोकतंत्र से फिसलते हुए 44 पर आकर टिकी है। बावजूद इसके कांग्रेस षायद ही कोई सबक लेना चाहेगी। हाल ही में कांग्रेस के कद्दावर नेता मणिषंकर अय्यर ने पाकिस्तान में यह तक कह दिया कि मोदी के रहते पाकिस्तान से बातचीत सम्भव नहीं है। यह कांग्रेस की कौन सी गांठ है जो सियासत की जमीन पर चकनाचूर होने के बावजूद देष के प्रधानमंत्री की उपस्थिति को अवसाद भरी नजरों से देख रहे हैं। फिलहाल इन दिनों कांग्रेस की बांछें खिली हुई हैं वजह है बिहार में महागठबंधन के साथ तुलनात्मक जीत दर्ज करना साथ ही 24 नवम्बर को घोशित रतलाम लोकसभा उपचुनाव के परिणाम में इनकी भारी-भरकम जीत। सब के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि क्या कांग्रेस मोदी सरकार के लिए आने वाले षीतकालीन सत्र में एक रचनात्मक और सहयोगात्मक विपक्षी की भूमिका निभायगी?


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Tuesday, November 24, 2015

पूर्व की ओर देखो नीति के ढ़ाई दशक

भारत की विदेश नीति, देश की बुनियादी सुरक्षा और विकास सम्बन्धी प्राथमिकताओं को समेटे हुए है। एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था की इच्छा हमेशा से भारत के मन में रही है जिसमें देश के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भी सदाचार का वातावरण कायम होता हो। किसी भी अक्षांश या देशांतर पर स्थित देश प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता में शुमार देखे जा सकते हैं इसकी एक वजह वैदेशिक नीति को कहीं अधिक पुख्ता करना है। इसी क्रम में बीते 21 नवम्बर से मोदी पूरब के देषों की यात्रा पर थे। चार दिनी मलेषिया और सिंगापुर की यात्रा, भारत की ‘पूर्व की ओर देखो नीति‘ को एक बार पुनः नयापन प्रदान करती है। प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘मेक इन इण्डिया‘ और ‘स्मार्ट सिटी‘ का संदर्भ मलेषिया में भी काफी प्रसार लेते हुए देखा गया। इस मामले में दोनों देषों ने आपसी सहयोग का आह्वान किया। भारत के नीति आयोग और मलेषिया के परफार्मेंस मैनेजमेंट डिलीवरी यूनिट के बीच लोक प्रषासन और गवर्नेंस पर सहयोग को लेकर भी समझौता हुआ साथ ही षैक्षणिक स्तर पर आदान-प्रदान की बात की गयी। मोदी ने मलेषिया में 21 नवम्बर को आसियान-भारत षिखर सम्मेलन में भाग लेने के अलावा 10वें पूर्वी एषियाई षिखर सम्मेलन में भी षिरकत की और कई राश्ट्रहित के मुद्दें मसलन रक्षा, साइबर सुरक्षा, संस्कृति तथा लोक प्रषासन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने वाले समझौते किये।
षीत युद्ध के बाद भारतीय विदेष नीति की एक विषेशता ‘पूर्व की ओर देखो नीति‘ भी रही है। इस नीति के तहत दक्षिण-पूर्वी एषिया और पूर्वी एषिया विषेशतः इनके क्षेत्रीय संगठनों पर ध्यान दिया गया। एषिया में आसियान को भारतीय नीति का केन्द्रीय बिन्दु माना गया है। देखा जाए तो भारत ‘पूर्व की ओर देखो नीति‘ में तीन सूत्रीय कार्यक्रम पर कायम रहा है पहला आसियान के सदस्यों के साथ राजनीतिक सम्बन्धों का नवीनीकरण, दूसरे पूर्वी एषिया के देषों से आर्थिक सम्पर्क बढ़ाना मसलन व्यापार, निवेष, पर्यटन, विज्ञान और तकनीकी आदि, तीसरे राजनीतिक समझ बढ़ाने के लिए अनेक देषों से मजबूत रक्षा सम्बन्धों की स्थापना करना। मलेषिया में प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिण चीन सागर को लेकर टकराव के मोड़ पर खड़े चीन और कुछ पूर्वी एषियाई देषों को एक बार फिर आगाह करते हुए कहा है कि समुद्र, अंतरिक्ष और साइबर जगत संघर्श के बजाय साझा समृद्धि का मंच बनना चाहिए। आर्थिक प्रगति के लिए सुनिष्चित मानकों पर अभिव्यक्ति देते हुए मोदी मलेषिया में विकासात्मक मुद्दों को तूल देने में सफल कहे जा सकते हैं। चिर-परिचित अंदाज में एक बार पुनः विदेषी जमीन पर भारतीय जमात को सम्बोधित करने का काम किया जाना इस दौरे की प्रभावषीलता रही है। मलेषिया में भारतीय मूल के बीस लाख से अधिक लोग रहते हैं। मान्यता तो यह भी है कि बीते वर्शों में आसियान देषों के साथ भारत की साझेदारी की रफ्तार में बहुत तेजी आई है। व्यावसायिक स्तर पर सम्बन्ध पहले से बेहतरी की ओर गये हैं। ‘मेक इन इण्डिया‘ जैसी योजना पूर्वी देषों में भी काफी लोकप्रियता के साथ निवेष का जरिया बन रही है पर पूरा परिणाम आने वाले वर्शों में ही देखा जा सकेगा।
पूर्वोन्मुख नीति की भारत में ऐतिहासिक पृश्ठभूमि रही है। ईसा पूर्व काल में जब भारत से बौद्ध और ब्राह्यण धर्म का प्रचार देष की सीमा से बाहर हुआ तो यह सबसे पहले पूर्वी एषिया में ही पहुंचा था। प्राचीन काल से ही भारतीय व्यापारियों, धर्म प्रचारकों एवं सत्ता स्थापित करने के इच्छुक व्यक्तियों के ये लोकप्रिय स्थल रहे हैं। बोरोबुदूर का बौद्ध मन्दिर इस तथ्य का गवाह है। नरसिंह राव सरकार के दौरान भी पूर्वोन्मुख नीति के तहत यहां से कई संदर्भों को समायोजित करने का प्रयास किया गया था। उस समय भी सम्पूर्ण विष्व की तरह दक्षिण-पूर्व एषियाई व सुदूर पूर्व एषियाई राश्ट्र भी नये बाजार, नये व्यापार, सहयोगी व सस्ती तकनीक की तलाष में थे। तब भारत उनके लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन गया था। हिमतक्षेस और बिमस्टेक जैसे संगठनों के अस्तित्व में आने और भारत तथा अन्य पूर्वी एषियाई देषों के इसमें सदस्य होने के चलते इन देषों के साथ भारत के मधुर सम्बन्ध हो गये तभी से कई सकारात्मक उतार-चढ़ाव के साथ भारत की पैठ यहां मजबूती के साथ कायम रही। भारत और पूर्वी देषों के साथ मजबूत सम्बन्धों के आधार को ढाई दषक पूरे हो चुके हैं। मलेषिया दौरे के आखिरी दिन मोदी ने इसे और पुख्ता तब किया जब उन्होंने हिन्दू और बौद्ध मन्दिरों के लिए एक पारम्परिक द्वार ‘तोरण द्वार‘ का उद्घाटन किया। दरअसल जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2010 में मलेषिया की यात्रा पर गये थे तब उन्होंने मलेषिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक से जो कि वर्तमान में भी प्रधानमंत्री हैं से वायदा किया था कि वह एक ‘तोरण द्वार‘ मलेषिया को भेंट करेंगे हालांकि इसे बनाने में पूरे तीन साल लगे और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वायदे को वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी ने पूरा किया।
यह भी सही है कि भारत की नजरें अक्सर अमेरिका और पष्चिमी देषों पर रही हैं। 21वीं सदी की सम्भावनाओं को देखते हुए भारत को एषिया महाद्वीप के सभी पड़ोसी देषों के साथ घनिश्ठ और अच्छे पड़ोसी सम्बन्धों के प्रति वचनबद्धता कुछ वर्श पूर्व महसूस हुई। परिवर्तनषील अन्तर्राश्ट्रीय वातारण में अन्तर्राश्ट्रीय समुदाय में सहयोग एवं आपसी समझ-बूझ विकसित करने में भारत से बेहतर षायद ही कोई देष रहा हो। वैष्विक चुनौतियों से निपटने में भी भारत ने बेषुमार कोषिष की है। इन दिनों विष्व जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद जैसी समस्याओं से दो-चार हो रहा है। यहां भी भारत के कदम सकारात्मक आवृत्ति से परिपूर्ण हैं। वर्तमान विष्व की पड़ताल की जाए तो षायद ही कोई देष हो जहां भारत के नागरिक बाषिंदे न हों इतना ही नहीं भारतीयों की विदेषों में मजबूत साख होना विदेष नीति के पक्ष में है। प्रधानमंत्री मोदी विदेष में बसे भारतीयों को सम्बोधित करने में कोई चूक नहीं करते जिसकी दो वजह हैं एक पुरखों की मातृभूमि को लेकर उनके अन्दर भारत प्रेम जगाना, दूसरे देष की बदली परिस्थितियों से उन्हें अवगत कराना इसके अलावा सम्पन्न अप्रवासी को भारत में निवेष के लिए उकसाना।
जिस भांति भारत की विदेष नीति को ऊंचाई देने का प्रयास किया जा रहा है संकेत साफ है कि प्रधानमंत्री मोदी एक तो वैष्विक पटल पर भारत की ताकत को बताना चाहते है, दूसरे विदेष पर निर्भर विकास और निवेष को अपनी ओर आकर्शित भी करना चाहते हैं। मोदी की चार दिवसीय यात्रा में सिंगापुर भी षामिल है। सिंगापुर उनकी पहली आधिकारिक यात्रा है। सिंगापुर के एक इलाके को ‘लिटिल इण्डिया‘ के नाम से भी जाना जाता है। यहां तमिल मूल के लोग काफी तादाद में रहते हैं। असल में यह क्षेत्र चर्चे में तब आया जब एक दुर्घटना के दौरान यहां हिंसा भड़क गयी थी। सिंगापुर भारत में बड़ा निवेषक है और कई भारतीय कम्पनियां यहां अपना विस्तार कर रही हैं। षहरी विकास, षहरी परिवहन, कचरा प्रबन्धन, बन्दरगाह विकास और कौषल विकास में इसकी उपलब्धियों को भलि-भांति समझा जा सकता है। भारत में कौषल विकास सहित कई बुनियादी समस्याएं हैं। इस मामले में सिंगापुर भारत के लिए बेहतर पड़ोसी और उपाय दोनों हो सकता है जिसे देखते हुए कई मुद्दों पर द्विपक्षीय सहमति बनी है। एक लिहाज से देखा जाए तो पूर्व में ‘मेक इन इण्डिया‘ सहित कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं वहां न केवल बड़ी पहचान कायम करेंगी बल्कि जरूरी पूंजी भी जुटाने के काम आयेंगी साथ ही दक्षिण एषिया में धाक रखने वाले भारत का सम्बन्ध पूर्वी देषों से कहीं अधिक मिठास वाले भी होंगे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Sunday, November 22, 2015

शपथ, सियासत और लोकतंत्र

    बीते षुक्रवार नीतीष कुमार ने पांचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री की षपथ ली। आठ नवम्बर को घोशित बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से इनकी ताजपोषी तय थी पर षपथ का समारोह सतरंगी लोकतंत्र से भरा होगा इसका अनुमान षायद ही किसी को रहा हो। यह समारोह कई अर्थों में लिप्त रहा। एनडीए विरोधी दलों के नेताओं को पटना के गांधी मैदान में एक मंच पर लाकर बड़ी सियासत के आगाज का प्रयास किया गया। जिस मकसद से देष भर के गैर भाजपाई दिग्गजों को जुटाया गया उससे साफ है कि षपथ ग्रहण के बहाने विरोधी एकजुटता को प्रदर्षित करना भी षामिल था। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली के केजरीवाल, जम्मू-कष्मीर से फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, हिमाचल से वीरभद्र सिंह सहित उत्तर, दक्षिण और पष्चिम से आये दर्जनों दलों के नेताओं का नीतीष के षपथ में जमावड़ा था जो अपने आप में बड़े राजनीतिक स्वरूप का संकेत दे रहे थे। हालांकि केन्द्र सरकार की तरफ से संसदीय कार्यमंत्री वैंकय्या नायडू और राजीव प्रताप रूड़ी ने भी इसमें षिरकत की थी। समारोह में कुछ रोचक तो कुछ हैरत करने वाली बातें भी षामिल थीं। रोचक यह कि भारतीय लोकतंत्र में विरोधी ध्रुवीकरण के मकसद से यह षपथ समारोह परिपूर्ण था। नीतीष और लालू ने काफी हद तक षपथ के बहाने अपनी ताकत दिखाने का प्रयास किया। हैरत इसलिए कि धुर विरोधी भी समारोह की न केवल षान बढ़ा रहे थे बल्कि गले मिलकर गिले-षिकवे भी धो रहे थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल लालू को अपने भ्रश्टाचार की सूची में रखते हैं पर मंच पर गले मिलने में उन्हें भी कोई हिचकिचाहट नहीं थी। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी बरसों से लालू प्रसाद से दूरी बनाये हुए थे। यह मंच इनके भी आपसी गिले-षिकवे धोने के काम आया।
    मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला अवसर है जब इतने बड़े स्तर पर विपक्षियों का जमावड़ा लगा। नीतीष के षपथ समारोह में षिव सेना के मंत्रियों का उपस्थित होना, पंजाब के उप-मुख्यमंत्री की मौजूदगी साथ ही वामपंथी सीताराम येचुरी और एनसीपी के षरद पंवार का मौजूद होना यह भी संकेत समेटे हुए था कि मोदी भी कहीं अधिक ताकतवर हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि षपथ के बहाने की गयी सियासत के इस ताने-बाने में विरोधी यह जताना चाहते हैं कि मोदी के लिए आगे की राह आसान नहीं होने वाली पर यह भी सही है कि भले ही प्रधानमंत्री मोदी को तत्काल में कोई खतरा न पहुंचे पर इसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं। बेहद महत्वपूर्ण यह भी है कि आने वाले षीत सत्र में सरकार आर्थिक सुधारों को गति देने वाले    जीएसटी को संसद में पास कराना चाहेगी। कांग्रेस समेत कई विपक्षी लगातार इसका विरोध करते आ रहे हैं जबकि सरकार को अगले वित्तीय वर्श से इसे कानूनी रूप देना है। विरोध के चलते एकजुट हुई इस राजनीति का साया जीएसटी पर भी पड़ सकता है। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि जीएसटी को लेकर सरकार का समर्थन करना चाहिए क्योंकि यह देष के आर्थिक हित में उठाया गया कदम है। इसके अलावा भी दो दर्जन से अधिक विधेयक गतिरोध के चलते अधिनियमित नहीं हो पा रहे हैं और मोदी सरकार की मुसीबत इससे भी कहीं न कहीं बढ़त लिए हुए है पर देखने वाली बात यह होगी कि षपथ के बहाने मोदी विरोध में सुर देने वाले नेता आने वाली सियासत में कितने असरदार सिद्ध होते हैं। समाजवादी पार्टी के किसी भी प्रतिनिधि का समारोह में न होना इनकी एकजुटता पर कुछ हद तक सवाल भी खड़ा करता है।
    बिहार में नये सिरे से षुरू हुई विपक्षी एकता की कवायद एक प्रकार से पलटवार के रूप में भी देखी जा सकती है। दरअसल 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी ने तीसरी बार अपने बूते पर बहुमत हासिल किया था तब उन्होंने भी षपथ समारोह को बहुत व्यापक और विस्तारषील बनाया था। इस षपथ समारोह में भी नेताओं की बड़ी तादाद थी। गुजरात की इसी जीत के चलते मोदी के कद में बड़ा उठान भी आया था फलस्वरूप सितम्बर 2013 में उन्हें एनडीए के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर स्वीकृति दे दी गयी। यहीं से एनडीए में षामिल नीतीष ने अपने को अलग कर लिया और मोदी के धुर विरोधी हो गये। एक ओर जहां मोदी भारत में भाजपाई सरकार के निर्माण हेतु और कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाकर 26 मई 2014 को पूर्ण बहुमत के साथ देष के प्रधानमंत्री बन गये वहीं नीतीष कुमार बिहार में लोकसभा में हुई हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। डेढ़ वर्श बाद बिहार विधानसभा की बड़ी जीत के साथ नीतीष फिर एक बार भारी-भरकम षपथ समारोह के बहाने मोदी विरोध को एकजुटता देने का प्रयास किया है। इस सच को भी समझ लेना जरूरी है कि मोदी भाजपा जैसे राश्ट्रीय संगठन के नेता हैं जबकि नीतीष एक क्षेत्रीय दल के नेता हैं साथ ही राजद और कांग्रेस की इनके सरकार में हिस्सेदारी है। ऐसे में इन्हें पूरी तरह बड़े विरोधी नेता के रूप में देखना जल्दबाजी होगी। वर्तमान राजनीतिक दौर में विपक्ष निर्वात में भी है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस गैर मान्यता के साथ फिलहाल संख्या बल की कमी के चलते राजनीति में बहुत पीछे चली गयी है जिसे देखते हुए विरोधी ध्रुवीकरण बिहार विधानसभा जीत के बाद नीतीष के पक्ष में होना और अन्य नेताओं का इनके पक्ष में आना समय की मजबूरी भी है।
    देखा जाए तो षपथ समारोह में जुटे नेताओं द्वारा नीतीष को देष संभालने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में गोलबंदी का नेतृत्व करने का न्यौता देना इस संकेत से भरा है कि भारत में अगले चरण की राजनीति नीतीष के इर्द-गिर्द तो होगी पर प्रयोग कितना सफल होगा कहना कठिन है। एक राज्य सरकार के मुखिया और एक देष के मुखिया की तुलना और उनके बीच के विरोध को इस तरह आमने-सामने खड़ा करना पूरी तरह सही प्रतीत नहीं होता। हालांकि लोकतंत्र में सियासत बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रही है ऐसे में बिहार की सियासत से उभरे नीतीष राश्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर कितनी महत्ता के साथ स्थान घेरेंगे यह आने वाला वक्त ही बतायेगा।

लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Friday, November 20, 2015

वैश्विक पटल पर दो समस्याएं

    इन दिनों विष्व दो गम्भीर समस्याओं से जूझ रहा है एक जलवायु परिवर्तन से जो अस्तित्व और विकास के लिए गम्भीर समस्या बनी हुई है जिसकी रोकथाम में विष्व भर के देष बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही लगे हुए हैं। दूसरी समस्या आतंकवाद की है जो विगत् कुछ दषकों से मानवता को हाषिये पर धकेलते हुए हिंसा और तबाही का रूप अख्तियार किये हुए है। जलवायु परिवर्तन के चलते मानव जीवन कई प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, बेमौसम बारिष, सूखा, समुद्री तूफान आदि की बढ़ी हुई आवृत्ति से जहां खतरे में है वहीं आतंकवाद के चलते दुनिया में खौफनाक मंजर और दहषत का माहौल हावी है। ताजा घटनाक्रम में फ्रांस की राजधानी पेरिस आतंकी हमले की षिकार हुई है। सैकड़ों की तादाद में लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। 13/11 की पेरिस घटना 26/11 के मुम्बई आतंकी हमले की याद भी ताजा कर देती है। बीते जनवरी में भी पेरिस आतंकी हमले झेल चुका है जब षार्ली आब्दो कार्टून पत्रिका के कार्यालय पर आतंकी कहर टूटा था। आतंक की बढ़ी हुई स्थिति को देखते हुए वैष्विक स्तर पर चिंता होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि यह पौध लगातार वृद्धि कर रही है। आतंक के खतरनाक रूप से अफगानिस्तान 1980-81 और भारत वर्श 1990-91 में जबकि अमेरिका 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर हुए हमले से न केवल रूबरू हुआ बल्कि इसके कसैलेपन को भी महसूस किया। षुरूआती दौर में यह कहीं अधिक क्षेत्रीय स्वरूप में था और इसे समाप्त किया जाना भी तुलनात्मक आसान था पर अब बात इतनी आसान नहीं रही क्योंकि आतंकवाद के आकाओं के पास अब हथियार, गोला-बारूद आदि के साथ वित्तीय मजबूती और व्यापक नेटवर्क है। सिलसिलेवार तरीके से इंग्लैंड, फ्रांस, आॅस्ट्रेलिया सहित क्या विकसित, क्या विकासषील सभी देष इसकी जद में न केवल आये बल्कि क्षेत्रीय और छोटे आतंकी संगठन वर्तमान में तबाही के बड़े वैष्विक संजाल बन गये।
    द्वितीय विष्व युद्ध की समाप्ति के बाद से विष्व भर के देषों ने सभ्य समाज की और समतामूलक जीवन को लेकर तेजी से कदम बढ़ाने का काम किया। यही कारण है कि दो विष्व युद्ध दो दषक के अंतराल पर होने के बावजूद वैष्विक स्तर पर ऐसी कोई परिस्थिति पिछले सात दषक से नहीं बनी। समूह बने पर विकास के लिए, संगठन बने पर दूसरों की मदद के लिए परन्तु आतंकी संगठन कब किस रूप में इस भयावह को जन्म देने लगे, षेश विष्व को षायद ठीक से पता ही नहीं चला। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी संगठन जो एक स्कूल की तरह हिंसा के पर्याय थे और भारत जैसे देष पिछले तीन दषकों से इसकी जद में लगातार आते रहे। अलकायदा जैसे संगठनों ने आतंक का अतंर्राश्ट्रीयकरण करके वैष्विक स्तर पर इस बीमारी को परिलक्षित किया पर परेषानी इलाज को बढ़े हुए रोग की तुलना में समय से न किये जाने की है। आईएसआईएस जैसे संगठन आज एक काॅरपोरेट सेक्टर के तौर पर जीती-जागती तबाही के संस्थान हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए उन तमाम ताकतों को फिलहाल इकट्ठा करना कहीं अधिक जरूरी हो गया है ताकि पृथ्वी पर फैले इनके कसैलेपन को न केवल समाप्त किया जाए बल्कि आने वाली पीढ़ी को इनकी दहषत से मुक्त किया जाए। वर्तमान विष्व की एकता ऐसी मुहिम के खिलाफ है जो किसी की अपेक्षाओं में षायद ही षुमार रहा हो। एक ओर आतंक की पीड़ा से कराहने वाला सभ्य समाज तो दूसरी ओर खौफनाक मंजर के जिम्मेदार आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इन्हें निस्तोनाबूद करना वर्तमान की प्राथमिकता है पर यह कैसे सम्भव होगा इस पर पूरा और पक्का ‘होमवर्क‘ होना अभी षायद बाकी है।
    पेरिस में हुए ताजा आतंकी हमले से विष्व के देष क्रोधित के साथ खौफजदा भी हैं जबकि इसी माह की 30 तारीख को आतंक से लहुलुहान पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होना है। फ्रांस ने साफ किया है कि तय समय पर ही सम्मेलन होगा। यह उसकी जिंदादिली ही कही जाएगी। इस सम्मेलन में करीब दो सौ देष षामिल हो रहे हैं। दो हफ्ते तक चलने वाले इस सम्मेलन में 70 हजार से अधिक लोगों का जमावड़ा लगेगा। द्वितीय विष्व युद्ध के पष्चात् जलवायु परिवर्तन को लेकर वैष्विक स्तर पर चर्चा जोर मारने लगी थी। 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाॅकहोम में इस पर पहला सम्मेलन आयाजित किया गया यहीं से तय हुआ कि हर देष जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु घरेलू नियम बनाये। इसकी पुश्टि करने के लिए इसी वर्श संयुक्त राश्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का भी गठन किया गया और नैरोबी इसका मुख्यालय बनाया गया। दो दषक के पष्चात् ब्राजील के डि जनेरियो में सम्बद्ध राश्ट्र के प्रतिनिधि एक बार पुनः जुटे। जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित कार्य योजना को लेकर चर्चा हुई। क्रमिक तौर पर देखें तो क्योटो (जापान) सम्मेलन 1997, पृथ्वी सम्मेलन 2002, बाली (इण्डोनेषिया) में सम्मेलन 2007, डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में 2011 और पेरू की राजधानी लीमा में वर्श 2014 में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हो चुके हैं। भले ही सम्मेलनों में चर्चों को लेकर विविधता रही हो पर पृथ्वी कैसे संभाली जाए, कैसे जलवायु परिवर्तन की परिस्थिति को संजोया जाए आदि पर एकाकीपन देखा जा सकता है। यदि जलवायु परिवर्तन पर एक सुदृढ़ वैज्ञानिक पहलू विस्तार नहीं लेता है तो इसके साइड इफेक्ट कहीं अधिक तबाही वाले सिद्ध होंगे। वर्तमान परिदृष्य में मौसम में हुए त्वरित बदलाव को देखें तो यह पृथ्वी विनाष का संकेत देती है। तापमान में हो रही वृद्धि, कार्बन उत्सर्जन, अनियंत्रित औद्योगिक नीतियों को बढ़ावा देना, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना, बड़े पैमाने पर जंगलों का कटान और कई प्रकार के अवषिश्ट जलवायु परिवर्तन में अपनी अहम् भूमिका निभा रहे हैं।
    ग्लोबल वार्मिंग के चलते विष्व भर में प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। इसके अपने दूरगामी प्रभाव हैं सबसे पहले क्षेत्र विषेश की प्रजातियां इससे प्रभावित होती हैं। बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन विष्व की वर्तमान चिंता है जिसे लेकर पेरिस में हो रहा ‘क्लाइमेट चेंज समिट‘ सालाना पर्यावरण महासम्मेलनों की कतार में तो 21वां होगा परन्तु इसका महत्व इस समय सर्वाधिक इसलिए भी है क्योंकि एक ओर सभी देषों को बताना है कि ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए आने वाले वर्शों में क्या पुख्ता कदम उठाएंगे। दूसरी ओर खून की होली खेलने वाले आतंकियों को यह संदेष भी भेजना है कि तुम्हारी नीयत कितनी भी तबाही से भरी क्यों न हो, कितनी भी ताकत से हमला क्यों न किया गया हो पर हम पृथ्वी और यहां की सभ्यता को लेकर न तो कोई समझौता कर सकते हैं और न ही 30 नवम्बर को पेरिस सम्मेलन को पीछे धकेल सकते हैं। जो चुनौती आतंकियों ने खड़ी की उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन के इस पेरिस सम्मेलन को विष्व में एक नई पहचान मिलेगी। 140 से अधिक राश्ट्राध्यक्षों की यहां उपस्थिति होना इसकी महत्ता को प्रदर्षित करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी इसमें षिरकत करेंगे। संयुक्त राश्ट्र महासचिव बान की मून भी इस सम्मेलन में रहेंगे। यह बेहतर अवसर होगा कि पेरिस सम्मेलन में वर्तमान विष्व की दोनों समस्याओं पर ऐतिहासिक चर्चा के साथ निदान के बड़े कदम उठाए जाए। आतंकवाद के प्रति न केवल एकजुटता बल्कि खात्मे की नई सोच और नई तरकीब भी विकसित कर ली जाए साथ ही सम्मेलन के असली मर्म जलवायु परिवर्तन को लेकर वे तमाम संविदायें भी प्रत्यक्ष हों जिससे दुनिया का मोल बरकरार होता हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502



Tuesday, November 17, 2015

बाल श्रम, सरकार और समाज

 केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम (प्रतिबन्ध और नियमन) संशोधन  विधेयक 2012 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंजूरी मिल गयी है। सम्भव है कि आने वाले शीत सत्र में इसे संसद के समक्ष पेश किया जाएगा। यह बदलाव 1986 के कानून को न केवल परिमार्जित करने से सम्बन्धित है बल्कि 14 से 18 की उम्र के किशोरों के काम को  लेकर नई परिभाषा भी गढ़ी जा रही है। इसके पूर्व वर्श 2006 में भी कुछ संषोधन किये गये थे। प्रस्तावित संषोधन में पूरजोर कोषिष की गयी है कि सभी कार्यों और प्रक्रियाओं में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना प्रतिबन्धित होगा। देखा जाए तो इसे अनिवार्य षिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 की आयु से जोड़ने का भी काम किया गया है। हालांकि इन सब के बावजूद कुछ मामले मसलन परम्परागत व्यवसाय, गुरू-षिश्य सम्बन्धों के तहत काम करने वाले बच्चे कानून में षामिल नहीं होंगे मगर इनका भी स्कूल जाना अनिवार्य होगा। सरकार द्वारा 14 वर्श से कम उम्र के बच्चों को लेकर प्रतिबंध वाले कानून पर सैद्धान्तिक सहमति तो दे दी है पर अभी इसका मूर्त रूप लेना बाकी है। सामाजिक-आर्थिक बदलाव के इस दौर में काफी कुछ बदल रहा है बावजूद इसके कई मामले स्तरीय सुधार से वंचित हैं जिसमें बाल श्रम भी षामिल हैं। वैष्विक स्तर पर बाल श्रम की जो अवस्था है वह कहीं अधिक चिन्तनीय है। भारत में कैलाष सत्यार्थी के माध्यम से जो प्रयास किये गये वह सराहनीय है जिसके लिए उन्हें पिछले वर्श नोबल सम्मान भी दिया गया था। सरकार के स्तर से देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद बाल श्रम को लेकर कुछ चिंता उजागर होती है। वर्श 1979 में ऐसी समस्याओं के अध्ययन के लिए गुरूपाद स्वामी समिति बनाई गयी थी जिसकी सिफारिष पर बाल श्रम (निशेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 लागू किया गया। वर्श 1987 में बाल श्रम पर एक राश्ट्रीय नीति को भी अमली जामा दिया गया था। इसके अलावा 1990 में राश्ट्रीय श्रमिक संस्थान जैसी इकाईयों को मूर्त रूप दिया गया परन्तु फिर भी बचपन बाल श्रम के चक्रव्यूह से पूरी तरह नहीं निकल पाया।
बाल श्रम का मतलब ऐसे कार्य से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा के अन्दर होता है। बाल श्रम बालकों को उन मूलभूत आवष्यकताओं से वंचित करता है जिस पर उनका नैसर्गिक अधिकार होता है साथ ही भौतिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास को भी बाधित करता है। इस संदर्भ में कई परिभाशा और व्याख्या देखी जा सकती है। बाल श्रम सम्पूर्ण विष्व में व्याप्त एक ऐसी समस्या है जिसका निदान किये बिना बेहतर भविश्य की कल्पना सम्भव नहीं है। यह स्वयं में एक राश्ट्रीय और सामाजिक कलंक तो है ही साथ ही अन्य समस्याओं की जननी भी है। देखा जाए तो यह नौनिहालों के साथ जबरन की गयी एक ऐसी क्रिया है जिससे राश्ट्र या समाज का भविश्य खतरे में पड़ता है। यह एक संवेदनषील मुद्दा है जो लगभग सौ वर्शों से चिंतन और चिंता के केन्द्र में है। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर वर्श 1924 में विचार तब पनपा जब जेनेवा घोशणा पत्र में बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए पांच सूत्रीय कार्यक्रम की घोशणा की गयी। इसके चलते बाल श्रम को प्रतिबन्धित किया गया साथ ही विष्व के बच्चों के लिए जन्म के साथ ही कुछ विषिश्ट अधिकारों को लेकर स्वीकृति दी गयी। भारतीय संविधान में बाल अधिकार को लेकर संदर्भ निहित किये गये हैं। स्वतंत्रता के बाद लागू संविधान में कई प्रावधान इन्हें नैसर्गिक न्याय प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 21(क) षिक्षा का मौलिक अधिकार देता है जबकि नीति-निर्देषक तत्व के अन्तर्गत यह अनिवार्य किया गया कि 6 से 14 वर्श तक के बालकों को राज्य निःषुल्क तथा अनिवार्य षिक्षा उपलब्ध करायेगा। इतना ही नहीं अनुच्छेद 51(क) के तहत मौलिक कत्र्तव्य के अन्तर्गत यह प्रावधान भी 2002 में लाया गया कि ऐसे बालकों के अभिभावक उन्हें अनिवार्य रूप से षिक्षा दिलायेंगे।
 अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन बाल श्रम को बच्चे के स्वास्थ्य की क्षमता, उसके षिक्षा को बाधित करना और उनके षोशण के रूप में परिभाशित किया है। वैष्विक पटल की पड़ताल करें तो बच्चों की स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है। बाल श्रम का जंग बहुत पुराना है। कार्ल माक्र्स की विचारधारा के अन्तर्गत बाल श्रम का यह रोग औद्योगिक क्रांति के षुरूआती दिनों से ही देखा जा सकता है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट का मानना है कि 140 देषों में 71 देष ऐसे हैं जहां बच्चों से मजदूरी करवाई जाती है। जिसमें भारत भी षामिल है। नन्हें हाथों में बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईंटें, जूते यही सब दिखाई देते हैं, कालीन बुनवाये जाते हैं, कढ़ाई करवाई जाती है, रेषम के कपड़े बनवाये जाते हैं। चैकाने वाला सच यह है कि रेषम के तार खराब न हो इस हेतु बच्चों से ही काम करवाया जाता है। ‘फाइन्डिंग्स आॅन द फाॅम्र्स आॅफ चाइल्ड लेबर‘ नाम की एक रिपोर्ट ने ऐसी बातों का खुलासा करते हुए इस झकझोरने वाले सच को सामने लाया था। विकासषील देषों में बाल श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है एषिया और अफ्रीका के कई देषों में ये भयावह रूप लिए हुए है। भारत के बाद बांग्लादेष और फिलिपीन्स के नाम भी इस सूची में देखे जा सकते हैं। भारत में स्टील का फर्नीचर बनाना, चमड़े इत्यादि से जुड़े काम मानो इन्हीं नोनिहालों के जिम्मे हों। फिलिपीन्स में बच्चों से केला, नारियल, तम्बाकू आदि खेतिहर कामों के साथ गहने और अष्लील फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला सामान भी बनवाया जाता है जबकि पड़ोसी राश्ट्र बांग्लादेष में चैदह उत्पादों का जिक्र किया गया है जिससे बाल मजदूर जुड़े हैं।
 भारत में बाल श्रम निशेध के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं। 1948 के कारखाना अधिनियम से लेकर दर्जनों प्रावधान हैं बावजूद इसके बाल श्रमिकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि दर्ज की गयी है। कुल श्रम षक्ति का 5 फीसदी बाल श्रम ही है। संविधान को लागू हुए 65 साल हो गये पर बाल श्रम की चिंता से देष मुक्त नहीं हुआ। भारत ने अभी तक संयुक्त राश्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता षामिल है। वर्श 1992 में संयुक्त राश्ट्र संघ में भारत ने कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए इस दिषा में रूक-रूक कर कदम उठाएगें क्योंकि इसे एकदम नहीं रोका जा सकता। 23 बरस बीतने के बाद आज भी हम और हमारा देष बाल मजदूरी से अटा पड़ा है। इतना ही नहीं बालश्रम कानून के संषोधन में भी थोड़ी नरमी देखने को मिल रही है। ताजा मामला यह है कि एन्टरटेनमेंट इंडस्ट्री, स्पोटर््स एक्टिविटी तथा पारिवारिक कारोबार आदि को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखा गया है। देखा जाए तो कानून में बदलाव के बावजूद भी आंषिक तौर पर बाल श्रम बने रहने की गुंजाइष भी इसी कानून में है साथ ही यह पुछल्ला भी जोड़ा गया है कि अभिभावक ध्यान रखेंगे कि बच्चे की पढ़ाई प्रभावित न हो और न ही सेहत पर कोई गलत प्रभाव पड़े। दण्डात्मक कार्यवाही के प्रावधान में भी काफी हद तक यह संषोधन ढीलापन लिए हुए है। विषेशज्ञों और बाल संगठनों की चिंता है कि स्थिति सुधरने के बजाय बद से बद्तर होने की ओर हो सकती है। दरअसल पहले भी ऐसा देखा गया है कि कानून में सभी गुंजाइषे एक साथ नहीं आती हैं। बाल श्रमिकों के मामले में षोशण और रोजगार के बहुत आयाम हैं इसके अलावा अवैध व्यापार और षारीरिक षोशण के षिकार भी बहुतायत में यही हैं और इसके पीछे गरीबी बड़ी वजह है। असल में बच्चा गरीब इसलिए है क्योंकि घर के हालात ही खराब हैं। ऐसे में दो जून की रोटी के जुगाड़ में बाल श्रम आविश्कार लेता है।
भारत सरकार द्वारा बाल श्रम उन्मूलन के अनेक उपाय किये गये हैं। 1996 में उच्चतम न्यायालय ने बाल श्रम पुर्नवास कल्याण कोश की स्थापना का निर्देष दिया था जिसमें नियोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रति बालक 20 हजार रूपए कोश में जमा कराने का प्रावधान है। इसी वर्श न्यायालय द्वारा षिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोशण में सुधार के भी निर्देष दिए गये। बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 में बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक राश्ट्रीय आयोग और राज्य आयोग के गठन का प्रावधान किया। वर्श 2006 में भारत सरकार ने बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में काम करने पर या अन्य प्रतिश्ठानों मसलन होटल, रेस्तरां, दुकान आदि के नियोजन पर रोक लगा दी पर सवाल है कि सफलता कितनी मिली? 2011 की जनगणना के अनुपात में जो बाल श्रम का आंकड़ा है वह यह संकेत देता है कि बाल श्रम निवारण को लेकर अभी मीलों का सफर तय करना है। यक्ष प्रष्न यह भी है कि क्या केवल कानूनों से ही बालश्रम को समाप्त किया जा सकता है। सम्भव है उत्तर न में ही होगा। जब तक षिक्षा और पुनर्वास के पूरे विकल्प सामने नहीं आयेंगे तब तक कानून लूले-लंगड़े ही सिद्ध होंगे चाहे सरकार हो या संविधान बाल श्रम के उन्मूलन वाले आदर्ष विचार बहुत उम्दा हो सकते हैं पर धरातल पर देखें तो बचपन आज भी पिस रहा है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

Monday, November 16, 2015

चाहिए नई सोच और नई तरकीब

    बीते 14 नवम्बर फ्रांस की राजधानी पेरिस आधा दर्जन धमाकों के साथ तब सिहर उठा जब आतंकी हमले के चलते वहां का जीवन छिन्न-भिन्न हो गया। सैकड़ों की तादाद में जान चली गयी और षांत जीवन भय एवं दहषत में तब्दील हो गया। पेरिस के बाषिंदों ने इतनी बड़ी कीमत चुकाने की तैयारी कभी नहीं की होगी। वैष्विक पटल पर सिलसिलेवार जिस तरह आतंक की खेती निरंतर विस्तार ले रही है और इसकी फसल जिस अनुपात में लहलहा रही है उसे देखते हुए इससे निपटने वाली नई सोच और नई तरकीब भी कम पड़ती दिखाई दे रही है। सवाल है कि सभ्य समाज में तथाकथित जिहाद के नाम पर बात मनवाने का यह कौन सा तरीका है जिसमें मानवता मिटाने वाली नापाक क्रियायें की जा रही हों? उन्माद का यह कैसा स्वरूप जहां नुकसान पहुंचाने को लेकर इंसान ने ही आत्मघाती बम का रूप ले लिया है? आतंक के मूल में कौन सी मनोदषा और विचारधारा का वास है कि इसे निस्तोनाबूत करने वाली कोषिषों का ही दम निकला जा रहा है और आतंकी अपने मनसूबों में लगातार कामयाब होते जा रहे हैं। पेरिस हमले को देखते हुए नया सवाल यह उठता है कि अनियंत्रित आतंक का जो आईना आईएसआईएस लिए घूम रहा है उसमें किस-किस का चेहरा आ सकता है? देखा जाए तो दहषतगर्दों के इस आईने में मानवता और सभ्य समाज के चेहरे हैं जो काफी समय से इसके लपेटे में है। इस्लाम के नाम पर कट्टरपंथ फैला कर पूरी दुनिया में राज करने का इरादा रखने वाला आईएस आतंकवाद की एक संस्था है और यह संस्था हर उस व्यक्ति या देष को दुष्मन मान रहा है जो इस्लामी धर्मावलंबी नहीं है। ऐसी संकुचित सोच से जड़ा यह संगठन राह से भटका और दकियानूसी धारणा से ओत-प्रोत विष्व भर से बेवजह बैर लिए हुए है। अमेरिका, रूस, फ्रांस सहित कई देषों को वह इसलिए निषाना बना रहा है और बना सकता है क्योंकि ये देष उसे निषाना बना रहे हैं। इतना ही नहीं आईएसआईएस अन्य आतंकी संगठनों के जरिये भारत को भी अपनी जद में लेने की फिराक में है।  
    विष्व में दो गम्भीर समस्यायें हैं पहला जलवायु परिवर्तन, दूसरा आतंकवाद जिसे समाप्त करना प्राथमिकता के साथ चुनौती भी है। इन दिनों टर्की में जी-20 का सम्मेलन चल रहा है जहां भारत सहित अमेरिका, रूस, चीन आदि तमाम देष मंच साझा कर रहे हैं। आने वाले 30 नवम्बर को उसी पेरिस में जहां आतंकी हमला हुआ जलवायु परिवर्तन को लेकर भी एक सम्मेलन होना है। जब पेरिस आतंक की चपेट में था तब भारत के प्रधानमंत्री मोदी की इंग्लैण्ड से वापसी अन्तिम चरण में थी। जी-20 सम्मेलन में पेरिस हमले को देखते हुए आतंक को सफाया करने वाला इरादे को फिलहाल बलवती होते हुए देखा जा सकता है। ब्रिक्स देषों के अलावा विष्व की 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह ने इसके प्रति एकजुटता दिखाई है। प्रधानमंत्री मोदी ने फिर दोहराया कि आतंक की परिभाशा गढ़ी जाए इसके पहले वे संयुक्त राश्ट्र में यह बात कह चुके हैं। संयुक्त राश्ट्र के 70 वर्श पूरे हो चुके हैं पर आतंक की परिभाशा क्या हो इस पर कोई निष्चित रूपरेखा देखने को नहीं मिली। देखा जाए तो विगत् तीन दषकों से भारत ने पाकिस्तान आयातित बेतहाषा कीमत चुकाने वाले कई आतंकी हमले झेले हैं। इस सच को समझना भी जरूरी है कि आतंक की परिभाशा कुछ भी क्यों न हो पर इसकी पीड़ा का षिद्दत से विष्लेशण और विषदीकरण भारत से बेहतर षायद ही कोई कर पाये। फ्रांस में हुए इस ताजा घटनाक्रम में वैष्विक पटल पर एक बार फिर आतंक की मनमानी को नये सिरे से रोक लगाने को लेकर एक नये संकल्प के साथ विष्व को खड़े होते हुए देखा जा सकेगा पर सवाल वही पुराना है कि आतंक के मुकाबले में वैष्विक ताकतें कम क्यों हैं? हालांकि फ्रांस ने पेरिस घटना को न बर्दाष्त करने वाली घटना मानकर आतंकी संगठनों को तबाह करने का काम षुरू कर दिया है।
    जीवंत सवाल यह है कि इसके समाधान क्या हैं? आतंक को हतोत्साहित करने की फिलहाल की तरकीबें उतनी हुनरमंद तो नहीं हैं। इसे समाप्त करने के लिए नई सोच और नई तरकीब की कहीं अधिक आवष्यकता पड़ेगी। धर्म के सही मायने भी समझने होंगे और यह भी समझना होगा कि आतंक का कोई धर्म है अथवा नहीं? तथाकथित इस्लामी आतंकवाद को रसूकदार बनाने वाले आतंकी स्वयं को मुस्लिम समाज का चेहरा मानते हैं जबकि यह सच नहीं है। देखा जाए तो यह तब सच होता है जब सियासतदान या सरकारें आतंक की आड़ में अपनी कूटनीतिक और राजनीतिक रोटियां सेकते हैं और आतंकियों को अपने निजी हित के लिए समर्थन देते हैं। मसलन पाकिस्तान आतंकियों का पनाहगार इसलिए है क्योंकि वह सीधे युद्ध में भारत से मुंहकी खाता है। छद्म युद्ध आतंक के बूते करना चाहता है। ऐसे में आतंकियों को वह न केवल मान्यता देता है बल्कि हथियार के रूप में प्रयोग करता है। इस प्रकार के संकुचित विचारधाराओं ने न केवल आतंकवादियों को उकसाने का काम किया है बल्कि उनका कोई धर्म होता है उसे भी अंजाने में ही स्वीकृति प्रदान कर दी है जो गैर इस्लामिक को ही निषाना नहीं बनाते आदतन उनकी जद में कोई भी आ सकता है और ऐसा हुआ भी है। पाकिस्तान के पूर्व राश्ट्रपति परवेज मुषर्रफ द्वारा यह स्वीकार किया जाना कि बाकायदा आतंकियों को प्रषिक्षण देने में मदद की है और वे उनके हीरो हैं इसे और पुख्ता बनाता है। प्रगतिषील षिक्षा भी आतंक को कमजोर करने में मददगार सिद्ध हो सकती है। क्रोध और झुंझलाहट के वषीभूत होकर आतंक की राह चुनने वालों के लिए षिक्षा कहीं अधिक कारगर हो सकती है। बहला-फुसला कर जिन्हें आतंकी बनाया जाता है उन पर भी षिक्षा के चलते काफी हद तक रोक लग सकती है। इसके अलावा संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण पर भी ध्यान देना होगा। माना तो यह भी जाता है कि वित्तीय स्रोतों का अकाल हो जाए तो आतंकी संगठन सूख सकते हैं। एक विकसित और विकासषील देष को वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए नित नये तरीके तलाषने होते हैं लेकिन आतंकी संगठनों को सब कुछ छप्पर फाड़ कर मिलता है। एक सच यह भी है कि ये इरादों में इतने कट्टर हैं कि सीमित स्रोत के बावजूद खुंखार घटनाओं को जन्म देने से भी पीछे नहीं हटते।
    देष चाहे आर्थिक दृश्टि से किसी भी कद के क्यों न हो पर यह सही है कि आतंक से निपटने की रणनीति अभी तक कारगर नहीं बन पायी है। एक घटना का जख्म सूखता नहीं कि नई घटना नये जख्म के साथ परिलक्षित हो जाती है। यह जानना भी जरूरी है कि आईएसआईएस को भले ही दुनिया के सबसे बरबर आतंकी संगठन के तौर पर जाना जाता हो, भले ही इसके मकसद में खून की होली खेलना षामिल हो लेकिन यह दुर्दान्त संगठन किसी काॅरपोरेट सेक्टर से कम नहीं है। इससे सहानुभूति रखने वाले इसकी वित्तीय मदद करते हैं और यह इसी दुनिया में अपनी आतंकी मनसूबों के साथ नई दुनिया गढ़ रहा है। एक बात और आईएस को महज एक क्षेत्रीय और आतंकी संगठन या समस्या मानना किसी गलतफहमी में रहने के बराबर है। कोई दो राय नहीं कि यह एक बड़ा और खतरनाक आतंकी संगठन है ऐसे में बड़ी ताकत बनाने के लिए षक्तियों और महाषक्तियों को जुड़ कर आतंकी और उनके संगठनों को निस्तोनाबूत करने की आवष्यकता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Saturday, November 14, 2015

और आक्रामक हुए भाजपा के बुज़ुर्ग नेता

    एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद बिहार में भाजपा की हार हुई जिसके चलते वरिश्ठ भाजपाई बेहद नाराज हुए। लाल कृश्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोषी और यषवंत सिन्हा सहित कुछ नेता जो भाजपा के मार्गदर्षक हैं वे मोदी और अमित षाह के खिलाफ तल्ख और आक्रामक तेवर दिखा रहे हैं। उनका मानना है कि दिल्ली विधानसभा की हार से पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया। पार्टी की आंतरिक हालत को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र को लेकर यहां दो लड़ाई है एक भाजपा के अंदर और दूसरी बाहर। बिहार से लेकर गुजरात तक के कई नेता बगावत वाले सुर भी दिखा चुके हैं जबकि पार्टी हार की सामूहिक जिम्मेदारी बता कर पल्ला झाड़ लिया है। वरिश्ठ नेताओं का कहना है कि जिम्मेदारी सामूहिक कह कर मोदी-षाह को बचाने की कोषिष की गयी है जो सही नहीं है। देखा जाए तो 2004 के लोकसभा चुनाव में जो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में लड़ा गया था और वर्श 2009 का नेतृत्व लाल कृश्ण आडवाणी कर रहे थे तब की हार में जिम्मेदारी व्यक्ति विषेश को इंगित कर रही थी। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है। पड़ताल बताती है कि कुछ भी तो भाजपा के पक्ष में नहीं गया। प्रधानमंत्री मोदी की 26 चुनावी रैलियां भी भाजपा के काम न आ सकी और परिणाम इतने उलट होंगे इसकी भी कल्पना षायद ही की गयी हो।
विगत् कुछ महीने पूर्व जिस उद्देष्य के तहत नीतीष कुमार ने लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन का जोखिम लिया था वह प्रचंड बहुमत के साथ पूरा हुआ। सारे अनुमान और एक्जिट पोल को झुठलाते हुए नीतीष कुमार तीसरी बार बिहार विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे। चैथे चरण को छोड़ दिया जाए तो महागठबंधन एनडीए से हर चरण में मीलों आगे था। फिलहाल इस बार के चुनावी परिणाम ने नीतीष कुमार को धमाकेदार जीत देकर न केवल तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता खोला बल्कि राजनीतिक क्षितिज पर बड़े नेता के रूप में भी उभारने का काम किया। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम कई मायनों में हैरान करने वाले भी हैं। राजनीति में परिवार को आगे बढ़ाने की कोषिषों को लोगों का समर्थन मिलता रहा है पर इस बार स्थिति बदलाव लिए हुए थी। तमाम नेता पुत्रों को मतदाताओं ने नकार दिया हालांकि राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद के दोनों पुत्र इस मामले में भाग्यषाली रहे। हैदराबाद की एआईएमआईएम के फायर ब्रांड नेता असदुद्दीन ओवैसी अपने तेवरों के लिए जिस कदर जाने जाते हैं उस तरीके की उपलब्धि हासिल नहीं कर पाये। पहली बार बिहार की जमीन पर मुस्लिम वोट के सहारे सीमांचल में छः सीटों पर अपनी राजनीतिक कूबत लगाये हुए थे पर हैदराबाद का राजनीतिक तजुर्बा बिहार की जमीन पर चारो खाने चित हो गया। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी उनकी सीट तक ही सीमित होकर रह गयी। देखा जाए तो जिन कंधों पर भाजपा ने भरोसा किया वे कहीं अधिक कमजोर निकले।
मई 2014 के लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व को इसी बिहार ने व्यापक पैमाने पर भाजपा को स्वीकारा था जबकि विधानसभा चुनाव ने करारी षिकस्त में तब्दील कर दिया। नीतीष की जीत को यदि राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसका एक तात्कालिक असर यह भी है कि अब इनकी गिनती देष के षक्तिषाली मुख्यमंत्रियो के रूप में हो सकती है। दूसरे जब-जब चुनावी मोर्चे की बात आयेगी तब-तब इनके ‘सोषल इंजीनियरिंग‘ को लोग गौर करना चाहेंगे। 41 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस 27 पर जीत के साथ बरसों से धूल खा रहे पटना के कांग्रेसी कार्यालय में उत्सव मनाने का अवसर दे दिया। महागठबंधन के नेता सामाजिक समीकरणों को दुरूस्त करने में तो सफल रहे ही साथ ही मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि नीतीष कुमार ही बिहार के बेहतर विकल्प हैं। हालांकि माना जा रहा है कि नीतीष की तुलना में लालू को सीटे अधिक मिली हैं ऐसे में लालू प्रभावी रहेंगे। प्रभावी होने तक तो मामला ठीक है पर गड़बड़ तब होगा जब वो हावी होने की कोषिष करेंगे। हालांकि यह भी रहा है कि महागठबंधन के षुरूआती दिनों में नीतीष के अंदर एक हिचकिचाहट थी पर उनकी मजबूरी यह थी कि यदि लालू को साथ नहीं लेते तो अकेले एनडीए से जीत वाला मुकाबला भी नहीं कर सकते थे। दांव सीधा पड़ा और जीत बड़ी कर ली। इससे न केवल उनका राजनीतिक कद बढ़ा बल्कि कई जो हाषिये पर हैं उनको भी ऊर्जावान बना दिया।
    देखा जाए तो नीतीष की जीत में स्थानीय भाजपाई नेताओं की बेरूखी भी मददगार रही है। टिकट बंटवारे में न तो स्थानीय नेताओं को तरजीह दी गयी और न ही आपसी खटपट पर कोई बड़ा अंकुष लग पाया जिसके चलते भाजपा की बुरी गति हुई। अब हार के बाद कोहराम मचा है। भाजपा के बुजुर्ग नेता अब अपनी ही पार्टी पर हमला कर रहे हैं और अनुमान है कि सकारात्मक जवाब न मिलने पर आडवाणी-जोषी खेमा इस मामले में और जोर पकड़ सकता है। मुखर पक्ष यह है कि क्या नतीजे मोदी सरकार की चमक को कमजोर करने के सूचक हैं? क्या स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी इस नतीजे से प्रभावित होंगे। दो टूक कहा जाए तो भाजपा करारी षिकस्त की षिकार हुई है पर मोदी देष के प्रधानमंत्री हैं और पूर्ण बहुमत धारक हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार पर इसका कोई सीधा असर नहीं है पर भाजपा के रसूक पर तो उंगली उठेगी। बड़ी बात यह है कि बिहार की जमीन पर जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई हो रही थी उसमें स्थानीय मुद्दे हावी थे और जातीय समीकरण भी महागठबंधन के पक्ष में था। इसके अलावा नीतीष कुमार के सुषासन और विकास की बातें बिहार की जनता को भी जच गयी। इतना ही नहीं आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठते हुए नीतीष कुमार जनता को यह समझाने में लगे रहे कि वे बिहार के लिए कितने काम के हैं जबकि भाजपाई बुनियादी सवाल तक पहुंच ही नहीं पाये परिणामस्वरूप हैरत भरी हार का सामना करना पड़ा।




लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502



Friday, November 13, 2015

अब मोदी का नमस्ते लन्दन

    26 मई, 2014 को नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने पहली विदेष यात्रा के रूप में पड़ोसी भूटान को चुना तब से अब तक लगभग दो दर्जन देषों की परिक्रमा करते हुए यह यात्रा बीते गुरूवार को ब्रिटेन पहुंची। एक जरूरी बैठक को छोड़कर ब्रिटिष प्रधानमंत्री डेविड कैमरन द्वारा प्रधानमंत्री मोदी की जोष से भरी अगवानी करना जहां दिलचस्प रहा वहीं ‘नमस्ते लंदन‘ तत्पष्चात् गांधी प्रतिमा का नमन और ब्रिटिष संसद को सम्बोधित करना साथ ही कैमरन के साथ संयुक्त प्रेस वार्ता आदि मोदी के पुराने अंदाज का ही आगाज़ था जिसके लिए वे जाने और समझे जाते हैं। यूरोप के इस षक्तिषाली देष में उपस्थिति दर्ज कराते ही मोदी ने ताबड़तोड़ वक्तव्य के साथ व्याख्यान भी दिया। कहा कि भारत बुद्ध और गांधी की धरती है और इसकी संस्कृति बुनियादी सामाजिक मूल्यों के खिलाफ किसी चीज को बर्दाष्त नहीं करती। यह वक्तव्य ऐसे समय में आया है जब भारत में असहिश्णुता को लेकर पिछले दो महीनों से माहौल गरम है। लंदन में मोदी ने साफ कहा है कि देष में असहिश्णुता बर्दाष्त नहीं की जाएगी चाहे इसकी एक घटना हो या दो-तीन। सवा अरब की आबादी वाले देष के लिए इस तरह की कोई घटना छोटी है या बड़ी, इसका कोई मतलब नहीं है। हमारे लिए हर घटना गम्भीर है और इसे बर्दाष्त नहीं करेंगे। भले ही प्रधानमंत्री का असहिश्णुता को लेकर विचार लंदन से प्रसारित हुआ हो पर इसका असर देष में कहीं अधिक प्रभावषाली हो सकता है। देर से ही सही मोदी ने असहिश्णुता को लेकर अपनी राय स्पश्ट कर दी है। यह कथन उन्हें भी चुप कराने के काम आ सकता है जो मोदी के न बोलने पर आपत्ति जता रहे थे। इसके अलावा आलोचकों की भी खुराक हो सकती है क्योंकि यह सवाल रहेगा कि वक्तव्य देने में इतनी देर क्यों की गयी? लंदन में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बीबीसी के एक रिपोर्टर द्वारा 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े सवाल का दागना इस बात का भी संकेत है कि गोधरा कांड को लेकर मोदी से अभी भी विदेषी मीडिया स्पश्टता की दरकार रखती है जबकि उन्हें इस मामले से बरसों पहले बरी किया जा चुका है।
    भारत एक जीवंत लोकतंत्र है और यहां का संविधान हर किसी को जीवन और उनके विचारों की सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसे प्रतिक्रियाओं से युक्त मोदी की विचारधारा इस बात की पूरजोर कोषिष करने में लगी थी कि भारत की पहचान सहिश्णु और समतामूलक है न कि असहिश्णु और अंतर से भरी। विगत् दस वर्शों में ब्रिटेन जाने वाले मोदी पहले प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि ब्रिटिष संसद को सम्बोधित करने वाले पहले प्रधानमंत्री का गौरव भी इन्हीं के हिस्से में जाता है। कहा तो यह भी जाता है कि गुजरात दंगे के बाद ब्रिटेन विष्व का पहला देष है जिसने मोदी की वीजा पर रोक लगाया था। हालांकि तथ्यों को सही करते हुए मोदी ने कहा कि वे 2003 में ब्रिटेन गये थे और उन्हें कभी यहां आने से रोका नहीं गया। यह एक गलत धारणा है और इसे सही करना चाहता हूं। उन्होंने ब्रिटिष संसद के सम्बोधन के दौरान ‘सबका साथ, सबका विकास‘ और सरकार का विज़न क्या है इसे भी स्पश्ट किया। भारत में बदलाव आ रहा है और इसे देख सकते हैं जैसी तमाम बातों के साथ 25 मिनट चले सम्बोधन में मोदी ने ब्रिटेन की संसद को काफी हद तक यह भी एहसास दिलाया कि अब भारत की एहमियत तुलनात्मक भिन्न ही नहीं बल्कि कहीं अधिक भारयुक्त भी हुई है। पहले प्रधानमंत्री नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक की चर्चा करना और यह कहना कि आधुनिक भारत को बनाने वाले लोग यहीं से पढ़े थे आदि तमाम बातें ब्रिटिष नेताओं को बड़ी रास आई है। आतंकवाद के मामले में भी मोदी ने पाकिस्तान को घेरा और कहा कि आतंकियों को पनाह देने वालों को अलग-थलग करें, ब्रिटेन ने भी इस मसले पर भारत का साथ देने की बात कही है। हालांकि आतंकवाद को लेकर दोनों देषों के संयुक्त कार्यदल दिसम्बर 2008 में नई दिल्ली में पहले भी बैठक कर चुके हैं।
    सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में देखें तो ब्रिटिष उपनिवेष के समय से ही भारत और ब्रिटेन में राजनीतिक संधियां होती रही। इस क्रम में भारत की प्रषासनिक संरचना, लोक सेवाएं, भारतीय रेल, आधुनिक प्रेस, टेलीग्राफ आदि षामिल रही हैं। भारत अपनी स्वतंत्रता के तुरंत बाद ब्रिटिष राश्ट्रमण्डल का सदस्य बना था। दोनों देषों में संसदीय लोकतंत्र, विधि का षासन तथा मानवाधिकारों का सम्मान जैसी अनेकों समानताएं विद्यमान हैं। ब्रिटेन में बड़ी संख्या में अनिवासी भारतीय हैं जो ब्रिटेन के आर्थिक और राजनीतिक परिवेष पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। भारतीय मूल के लार्ड स्वराज पाॅल, लार्ड मेघनाथ देसाई, नवनीत ढोलकिया आदि की प्रमुख भूमिका यहां रही है। भारत द्वारा सुरक्षा परिशद् में स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के प्रयास पर ब्रिटेन पहले से ही समर्थन देता रहा है जिसे उसने एक बार पुनः दोहराया है। दोनों देषों के बीच आर्थिक समझौते भी तेजी से बढ़ रहे हैं। माॅरीषस, सिंगापुर के बाद ब्रिटेन तीसरा देष है जो भारत में सर्वाधिक निवेष करता है। लंदन के गिल्ड हाॅल में कारोबारियों के साथ मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें निवेष के लिए न केवल उकसाया बल्कि भारत को इस हेतु सबसे बेहतर स्थान भी बताया। उन्होंने कहा कि नई निवेष नीति के बाद भारत दुनिया में विदेषी निवेष के लिए सबसे खुले देषों में से एक हो गया है। संधियों के क्रम को आगे बढ़ाते हुए मोदी और कैमरन की अगुवाई में नौ अरब पौंड का नया समझौता किया गया जिसमें असैन्य परमाणु करार के साथ रक्षा और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में मिलकर काम करने के अलावा कई अन्य मसौदे देखे जा सकते हैं।
    तीन दिवसीय ब्रिटेन यात्रा पर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी को लंदन में जहां ब्रिटिष प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने ‘गार्ड आॅफ आॅनर‘ के साथ स्वागत किया और ताज होटल पर मौजूद समर्थकों ने मोदी-मोदी के नारे लगाये वहीं कुछ संगठनों ने इनके खिलाफ प्र्रदर्षन भी किया जिसमें गुजराती, सिक्ख, कष्मीरी, तमिल, नेपाली आदि षामिल थे जो मोदी वापस जाओ के नारे लगा रहे थे और डेविड कैमरन को षेम-षेम कहा गया। इसके अलावा सलमान रूष्दी और नील मुखर्जी सहित दो सौ से अधिक जाने-माने लेखकों ने कैमरन को पत्र लिखकर कहा था कि वे मोदी के सामने असहिश्णुता का मुद्दा उठायें। हालांकि देखा जाए तो भारत-ब्रिटेन सम्बंधों को प्रगाढ़ बनाने में कई बातों के साथ आर्थिक और व्यापारिक नीतियां भी बरसों से महत्वपूर्ण रही हैं। दोनों पक्षों के बीच अनेक अन्तर्राश्ट्रीय मुद्दों पर दृश्टिकोणों में समानता रही है। ब्रिटिष संसद को सम्बोधित करते समय प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान को लेकर भी राय दी उन्होंने कहा कि भारत एक ऐसा अफगानिस्तान चाहता है जो वहां के महान लोगों के सपनों के अनुसार हो हालांकि इसके पूर्व दोनों देष आफगानिस्तान में स्थायित्व लाने और पुर्ननिर्माण की प्रतिबद्धता बरसों पहले मनमोहन काल में ही जता चुके हैं। द्विपक्षीय समझौते में भारत की कई खास बातें हैं जिसे ब्रिटेन अहमियत दे सकता है साथ ही डिजीटल इण्डिया, स्किल इण्डिया और मेक इन इण्डिया आदि में ब्रिटेन अच्छा सहभागी हो सकता है। मोदी ने कहा कि भारत-ब्रिटेन एक-साथ चलें तो कमाल हो जाएगा। पष्चिम के देषों और यूरोपीय संघ में जो साख ब्रिटेन की है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना सहज है कि यह तीन दिवसीय यात्रा भारत को यूरोप में आर्थिक और व्यापारिक संतुलन के साथ कूटनीतिक सफलता अर्जित करने में भी मददगार सिद्ध होगा।


सुशील कुमार सिंह
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल तथा रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं।
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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सच की कसौटी पर एग्जिट पोल

    इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए यह कहना तनिक मात्र भी गलत नहीं है कि एक बार फिर एक्ज़िट पोल गलत सिद्ध हुए हैं। इतना ही नहीं चुनाव को लेकर किया गया इनका सर्वे और एनाॅलिसिस डायलिसिस पर है। नतीजे से पहले दो लड़ाई स्पश्ट रूप से देखी जा सकती है एक एनडीए और महागठबंधन के बीच दूसरे इस बात की कि कौन सा एक्ज़िट पोल सत्यता के अधिक समीप है और कौन अनुपात से अधिक भ्रमित है। एक्ज़िट पोल के सही-गलत होने का इतिहास पुराना हो गया है। ये सभी जानते हैं कि इस बार टुडे-चाणक्य ने एनडीए को 243 के मुकाबले 155 सीट आने की संभावना व्यक्त की थी जबकि महागठबंधन को मात्र 83 स्थानों पर जीत की बात कही थी पर परिणाम इससे न केवल उलट हैं बल्कि कयास से भी बाहर हैं। नतीजे बताते हैं कि महागठबंधन ने 178 के साथ प्रचंड बहुमत हासिल किया और एनडीए 58 स्थानों पर सिमट कर रह गयी। इस बार के सभी एक्ज़िट पोलों में टुडे-चाणक्य सबसे ज्यादा बेतुका सिद्ध हुआ है। हालांकि इनके द्वारा माफी मांगी जा चुकी है। देखा जाए तो अधिकतर एक्ज़िट पोल कांटे की टक्कर की बात कर रहे थे। आज तक सीसेरो के सर्वे किसी को भी बहुमत नहीं दे रहा था जबकि एबीपी न्यूज़ नीलसन सहित बाकी महागठबंधन को कम मार्जिन के साथ बहुमत दिखा रहे थे। यह सही है कि बहुमत महागठबंधन के ही हक में गया है पर 178 सीटों के साथ बहुमत मिलेगा इस वास्तविकता से सभी सर्वे कोसो दूर थे। एक्ज़िट पोल में जताई गयी संभावनायें और वास्तविक नतीजों में इतना व्यापक अंतर होना एक्ज़िट पोलों पर कई सवाल खड़े करता है।
    5 नवम्बर को षाम पांच बजे जब बिहार में आखरी और पांचवें दौर का मतदान समाप्त हुआ तत्पष्चात् न्यूज़ चैनलों पर आये एक्ज़िट पोल कम-ज्यादा हैरत वाले भले ही रहे हों पर नतीजों ने तो सभी को आष्चर्यचकित कर दिया। महागठबंधन के लालू प्रसाद एक्ज़िट पोल पर इसलिए तिलमिलाये क्योंकि वे ऐतिहासिक जीत की अपेक्षा रखते थे और सर्वे उन्हें हार की राह पर खड़ा कर रहे थे। लालू प्रसाद ने कहा था कि महागठबंधन 190 सीटों पर जीत दर्ज करेगा। समझने वाली बात यह है कि लालू द्वारा बिहार में बिछाई गयी चुनावी बिसात को लालू के अलावा किसी को भनक तक नहीं लगी। 178 सीट पाने वाली महागठबंधन के नेता लालू का अंदाजा सबसे अधिक सटीक था। इस मामले में लालू प्रसाद का तिलमिलाना सही प्रतीत होता है। जिस नतीजे की दरकार और जिस अंदाज से बिहार में महागठबंधन की हुंकार देखने को मिली साफ है कि विरोधी इसे ताड़ नहीं पाये जबकि आत्मंथन कर बिहार के गणित को न समझने की दुहाई देने वाली भाजपा बिहार के मतदाताओं के मन को पढ़ने में पूरी तरह नाकाम रही। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनावी अधिसूचना जारी होने के बाद 26 रैली करने के बावजूद वे बिहार के मतदाताओं का मूड नहीं समझ पाये। इतना ही नहीं अन्य भाजपाई और सहयोगी दल के नेता भी इसी मुगालते में रहे जबकि मतदाता महागठबंधन की झोली में निरंतर गिर रहा था। लालू ने तो यहां तक कहा था कि जनता को गुमराह करने की कोषिष कामयाब नहीं होगी। तब षायद एक्ज़िट पोल दिखाने वाले और देखने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि लालू सच बोल रहे हैं।
    जिस तर्ज पर एक्ज़िट पोल सम्पादित किये जाते हैं और वास्तविक परिणामों से जिस प्रकार काफी अन्तर लिए हुए होते हैं उसे देखते हुए यह कहना लाज़मी है कि इन पर भी कोई नियंत्रक संस्था होनी चाहिए और सटीक अनुमान देने का दबाव भी होना चाहिए। एनडीटीवी के संस्थापक प्रणय राॅय ने भी बिहार चुनाव के नतीजे को लेकर पैदा हुए भ्रम के लिए माफी मांगी है। बीजेपी व एनडीए की पराजय की कई वजह हो सकती हैं परन्तु इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि हार तो एक्ज़िट पोल के अनुमानों की भी हुई है। विमर्ष तो यह भी है कि मतदाता इन्हें कैसे गच्चा दे रहे हैं, इन्हें इस पर भी मंथन करने की आवष्यकता है। ध्यान दिलाना सही होगा कि 2004 के लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली सरकार को लेकर एक्ज़िट पोल जीत का दावा कर रहे थे और कांग्रेस का सत्ता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है का अनुमान लगा रहे थे पर नतीजों ने सभी को हैरत में भी डाला और एक्ज़िट पोल गलत सिद्ध हुए जैसा कि सब जानते हैं कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी। वर्श 2009 के जब लोकसभा चुनाव आये और लाल कृश्ण आडवाणी जैसी छवि वाले नेता एनडीए का चुनावी चेहरा बने तब भी एक्ज़िट पोल यूपीए की हार के खूब दावे कर रहे थे मगर जब परिणाम आया तो नतीजे फिर उलट थे। यूपीए-2 केन्द्र पर फिर काबिज हुई और एक बार फिर एक्ज़िट पोल गलत सिद्ध हुए। वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अनुमानों से परे एनडीए तो छोड़िए भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था। यहां भी अनुमान वास्तविकता से दूर ही थे। स्थिति को देखते हुए कहना गलत न होगा कि एक्ज़िट पोल चुनावी नतीजे आने से पहले जहां कुछ के सपनों के साथ खिलवाड़ करते हैं वहीं कुछ को करिष्माई सपना भी दिखाते हैं जबकि सच यह है कि मतदाता के अन्दर क्या पकता है, कितना पकता है और किसको कितना देता है का अंदाजा लगाना निहायत कठिन है।
    हालांकि एक्ज़िट पोल में जताई गयी सम्भावनाएं और वास्तविक नतीजों में असमानता हो सकती है पर कई मौकों पर कुछ एक्ज़िट पोल सटीक तो नहीं पर वास्तविकता के आस-पास तो रहे हैं। प्रजातांत्रिक परिप्रेक्ष्य में चुनाव एक बड़ा महोत्सव है जिसमें षामिल मतदाताओं की संख्या करोड़ों की तादाद में होती है। इतने व्यापक पैमाने में षामिल मतदाताओं में से चन्द मतदाताओं की राय के आधार पर तैयार किया गया सर्वे क्या पूरी तरह सटीक हो सकता है? इसका जवाब षायद नहीं में ही दिया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक्ज़िट पोल समग्र होते हुए भी चुनावी परिणाम की बानगी मात्र ही होते हैं। ऐसे में यह कहना मुष्किल है कि सर्वे वास्तविक नतीजों के पूरे आंकलन हैं। विगत् लोकसभा और कई विधानसभा के चुनाव को देखें तो विभिन्न प्रकार के परिणाम यह दर्षाते हैं कि एक्ज़िट पोल की यांत्रिकी पूरी तरह सटीक नहीं है और षायद हो भी नहीं सकती। इसकी मुख्य वजह सर्वे में चन्द मतदाताओं का होना है। एक्ज़िट पोल कितना भी वैज्ञानिक और सटीक दावे से युक्त हो उसे लेकर हमेषा दो खेमे बन जाते हैं। जब एक्ज़िट पोल किसी दल विषेश को अधिक सीटे दे रहे होते हैं तो विरोधी कम सीट पाने के चलते सर्वे की सत्यता पर सीधे-सीधे सवाल खड़ा कर देते हैं। जैसे कि बिहार विधानसभा चुनाव के मामले में टुडे-चाणक्य के सर्वे ने एनडीए को 155 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत दिया तब भाजपा के नेता इसका समर्थन कर रहे थे और अन्य एक्ज़िट पोल से असहमति जता रहे थे। यही हाल महागठबंधन के लालू प्रसाद का भी था। देखा जाए तो एक्ज़िट पोल एक प्रकार से रूझान को दर्षाते हैं न कि परिणाम को परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनके अनुमान वास्तविकता से हमेषा ही परे रहें।





सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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Wednesday, November 11, 2015

उत्सव, महोत्सव और तथाकथित असहिष्णुता

    जमाने पहले राजनीतिक विचारक रूसो ने प्रजातंत्र को काफी व्यापक बनाया और जन सहमति के आधार पर सरकार चलाने का एक नमूना पेष किया। आधुनिक भारत में प्रत्येक पांच वर्श में एक बार चुनावी महोत्सव देखने को मिलता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तीन मुखर पक्ष समुच्चय रूप से परिलक्षित होते हैं पहला पक्ष महीने भर चले बिहार प्रजातांत्रिक महोत्सव से सम्बन्धित है जिसके नतीजे घोशित हो चुके हैं और नवनिर्मित सरकार के रूप में महागठबंधन सत्ता धारक बन चुकी है। दूसरे पक्ष में प्रकाष का उत्सव दिपावली है जो अन्धेरे पर प्रकाष की सत्ता के लिए जाना जाता है, तीसरा और अन्तिम पक्ष यह है कि बीते एक-डेढ़ महीने से देष में तथाकथित असहिश्णुता को लेकर चर्चा का बाजार गर्म है। जब इस प्रकार के तमाम संदर्भ एक साथ एकाकीपन लेते हैं तो विमर्षीय परिप्रेक्ष्य अनुपात से अधिक हो जाते हैं साथ ही संयमित दृश्टिकोण को लेकर जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने नीतीष, लालू और कांग्रेस के महागठबंधन को प्रकाष के उत्सव में रौषनी से भर दिया तो भाजपा को करारी षिकस्त के साथ अगले चुनावी महोत्सव की बाट जोहने के लिए मजबूर कर दिया। इस बार के चुनाव में देखने वाली बात यह जरूर थी कि नेताओं के एड़ी-चोटी के जोर के बीच जनता क्या निर्णय लेती है? फिलहाल कयास पर विराम लग चुका है, नतीजे प्रत्यक्ष हो चुके हैं नीतीष के  हिस्से में सूरज सरीखी चमक वाली सत्ता तो बिहार के मामले में मोदी की झोली में अमावस्या की रात आई है। इतना ही नहीं नतीजे भाजपाईयों की आषा के विपरीत होने के साथ-साथ उनके दावों और इरादों की भी पोल खोलते हैं।
चुनावी तिथि घोशित होने के पष्चात् से बिहार बीते 3 नवम्बर तक रैलियों से अटा रहा। प्रजातंत्र के इस महोत्सव में प्रधानमंत्री से लेकर हर दल का नेता यहां जमा रहा। रैलियों के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी की स्वयं की 26 चुनावी रैलियां हैं जबकि भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह 85, सुषील मोदी 180 तथा अन्य भाजपाई एवं सहयोगी दलों द्वारा सैकड़ों की तादाद में रैलियां की गयी। इसके अलावा महागठबंधन भी इस मामले में तनिक मात्र कमतर नहीं रहा। राजनीति से बेदखल हो चुके लालू प्रसाद की 243 चुनावी रैलियां हुई। निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीष कुमार 210 सहित महागठबंधन भी रैलियों का अम्बार लगाने में पीछे नहीं रहा। जन अधिकार मोर्चा के अध्यक्ष पप्पू यादव ने तो 250 चुनावी रिकाॅर्ड रैली की। रोचक यह है कि जब चुनाव आता है तो बड़े से बड़े नेता भी गली-गली के नेतृत्व संभालने लगते हैं और मतदाताओं को रिझाने के लिए कूबत से अधिक करने की बात करते हैं पर जब चुनावी महोत्सव बीत जाता है तब मतदाता नेताओं के पगफेरे के लिए तरसते रहते हैं। असल में जो सुषासन और विकास की धारा को चिन्ह्ति करने के साथ सियासत की जोड़-तोड़ में अनुकूलन बिठा ले वही सत्ता की हकदारी प्राप्त कर लेता है पर इस बार के बिहार चुनाव में बात इससे भी ऊपर गयी थी। देखा जाए तो चुनावी महोत्सव केवल सरकार मात्र की ताजपोषी के लिए नहीं होते बल्कि प्रजातांत्रिक संस्कृति को दिषागत् करने के लिए भी होते हैं। सामाजिक कल्याण प्रषासन में यह मापदण्ड निहित है, कि सामाजिक सुरक्षा की गारन्टी सरकार की प्राथमिकी होती है। ऐसी ही गारंटी से बिहार की जनता भी ओत-प्रोत है और वह चाहेगी कि नवगठित महागठबंधन की सरकार उनके हिस्से की सामाजिक सुरक्षा एवं न्याय के साथ विकास और बुनियादी जरूरतों को पूरा करे जो नीतीष सरकार के लिए बड़ा अवसर भी है और बड़ी चुनौती भी।
अधिक जीवन और जीवन से अधिक का द्वन्द समाज में हमेषा से बरकरार रहा है। सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के बीच कई आधुनिक संस्कृतियां और संस्कारों ने दिन-प्रतिदिन नये आयामों को भी जन्म दिया है। देखा जाए तो सनातन और पुरातन व्यवस्थाएं भी आज उसी उल्लास के साथ कायम हैं। भले ही प्रकाष से भरी दीपावली का उत्सव इन दिनों मुहाने पर हो पर तथाकथित असहिश्णुता को लेकर विमर्ष अभी इत् िको प्राप्त नहीं कर पाया है। बीते कुछ महीनों से मोदी सरकार पर असहिश्णुता फैलाने का आरोप है जिसके चलते सिलसिलेवार तरीके से विषिश्टजन सम्मान वापसी को अनवरत् बनाये हुए है। पुरस्कार लौटाने वाले लगातार यह कहते चले आ रहे हैं कि असहिश्णुता के चलते बोलने की आजादी खतरे में है। इसके अलावा विरोधी भी सरकार को इस मामले में घेरे हुए है। तथाकथित असहिश्णुता के सहारे हर किसी को केन्द्र सरकार पर उंगली उठाने का इन दिनों पूरा मौका मिला हुआ है। दुर्भाग्य यह है कि ऐसा करने वाले यह तनिक मात्र भी परवाह नहीं कर रहे हैं कि उनके इस कदम से देष के अन्दर तो माहौल खराब हो ही रहा है साथ ही अन्तर्राश्ट्रीय साख भी खतरे में है। दरअसल जब वैचारिक उथल-पुथल में वार और पलटवार होते हैं तब न तो देष का और न ही समाज का भला होता है बल्कि उलटे यह संदेष प्रचारित होता है कि देष समरसता की समस्या से जूझ रहा है।
तथाकथित असहिश्णुता के संदर्भ में बुद्धिजीवी भी वर्गों में बंट चुके हैं। सम्मान वापसी के खिलाफ बिहार चुनाव परिणाम के ठीक एक दिन पहले इण्डिया गेट के पास नेषनल म्यूजियम से राश्ट्रपति भवन तक मार्च किया गया जिसमें फिल्म अभिनेता अनुपम खेर सहित कई साहित्यकार व हस्तियां षामिल थी। हालांकि इसके पूर्व असहिश्णुता को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में संसद भवन से राश्ट्रपति भवन तक मार्च किया जा चुका है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसे लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे चुके हैं। बिहार में मिली करारी षिकस्त से यह संकेत मिलता है कि असहिश्णुता का माहौल भी भाजपा पर भारी पड़ा है साथ ही कईयों का यह भी मानना है कि असहिश्णुता जैसी कोई चीज देष में नहीं है बल्कि इसके बहाने प्रधानमंत्री मोदी के बढ़ते कद को बौना किया जा रहा है। सवाल है कि बिहार में सब कुछ दांव पर लगाने के बाद मिली षिकस्त से क्या मोदी का कद नहीं घटेगा? अन्दर और बाहर यह खलबली है कि मोदी का जादू अब सिर चढ़ कर नहीं बोलता। दिल्ली विधानसभा से लेकर बिहार तक के सफर में मोदी चुनाव जिताने की गारंटी तो नहीं सिद्ध हुए जिससे साफ है कि उनके डेढ़ साल के कार्यकाल के दौर में ही उनकी अस्वीकार्यता देष में बढ़ रही है और विरोधियों की हौसला अफज़ाई हो रही है। आरोप यह भी है कि यह सीधे मोदी की हार है पर कई कहते हैं कि यह नीतीष की जीत है। भले ही भाजपा या मोदी की हार हुई हो पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि असहिश्णुता को बढ़ावा देना मोदी के नियोजन का हिस्सा है। आरोप तो यह भी है कि देष में असहिश्णुता बढ़ रही है और मोदी चुप हैं यहां याद दिलाना जरूरी है कि मोदी इसी वर्श के बजट सत्र के पूर्व ही यह कह चुके हैं कि देष में साम्प्रदायिक माहौल को बर्दाष्त नहीं किया जाएगा। सवाल है कि देष में समरसता कैसे विकसित हो? क्या सभी की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि दीप उत्सव और चुनावी महोत्सव के इन दिनों में तथाकथित असहिश्णुता को महिमामण्डित करने के बजाय सहिश्णुता को बनाये रखने पर जोर लगायें। ऐसे में क्या लेखकों, फिल्मकारों एवं अन्य बुद्धिजीवियों को नहीं चाहिए कि कलम, कला और विचार के जरिये लड़ाई को आगे बढ़ाये जिससे देष नकारात्मक षक्तियों के बोझ से न दबे?



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



Monday, November 9, 2015

हार का कौन ज़िम्मेदार

कहना गलत नहीं होगा कि बिहार के नतीजे भाजपा और उनके सहयोगी दलों की बड़ी हार के साथ मोदी के लिए भी करारी शिकस्त है। चुनाव से पूर्व और चुनावी अधिसूचना के बाद कुल तीस रैली करने वाले मोदी बिहार के ‘सोशल इंजीनियरिंग‘ को नहीं समझ पाये। वे इसे भी नहीं समझ पाये कि बिहार के मतदाताओं को क्या और कितना बोल कर आकर्षित किया जा सकता है। बिहार में जो पोस्टर व बैनर लगाये गये उसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के अलावा अन्य स्थानीय नेता एक तरह से नदारद थे। बिहार के स्थानीय भाजपाई नेता न तो संगठित दिखे, न ही संतुश्ट और न ही इनकी व्यथा को समझने का प्रयास उच्चस्थ नेतृत्व द्वारा किया गया। जिस प्रकार महागठबंधन की जीत हुई है उससे मोदी के प्रचार, प्रसार, दावों, वादों और इरादों की पोल खुलती है। विमर्ष तो इस बात का भी है कि क्या डेढ़ वर्श पुरानी मोदी सरकार चमक खोती जा रही है। बीते फरवरी में दिल्ली विधानसभा में जब भाजपा 70 के मुकाबले तीन सीट पायी थी तो यह तर्क पूरी तरह सुदृढ़ नहीं था और केवल एक चुनाव मात्र से ऐसा आंकलन पूरी तरह सही भी नहीं था पर बिहार के परिणाम ने इस पर मोहर लगा दी है। मोदी के षासनकाल में कई चीजें अप्रत्याषित हुई हैं जब उन्होंने मई 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत के साथ जीत दर्ज की और उसके पष्चात् सिलसिलेवार तरीके से महाराश्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा और जम्मू-कष्मीर की विधानसभाओं पर जीत का परचम लहराया तो वे जीत के सिकन्दर बन गये पर यह कूबत दिल्ली विधानसभा चुनाव आते-आते कमतर पड़ गयी और अब बिहार की हार ने तो इनके कद पर ही सवाल उठा दिया है।
दषकों पहले बिछड़े जनता परिवार के नीतीष-लालू मिलन का जादू इतना प्रचंड होगा इसकी कल्पना षायद ही किसी ने की हो। बिहार की जनता ने इनके अनोखे फाॅर्मूले पर भरोसा जताया। महागठबंधन के इस षानदार जीत के साथ निष्चित तौर पर भाजपा सदमे में होगी क्योंकि दो महीने तक बिहार में चले सघन अभियान की इस तरह हवा निकल जायेगी कल्पनाओं में नहीं रहा होगा। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह की आक्रामकता बिहार की जमीन पर पूरी तरह फेल हो गयी। अब इसी जमीन पर एक दूसरा करिष्माई नेता नीतीष कुमार का उदय हुआ। चुनाव के पहले और चुनाव के बाद राजनीतिक पण्डितों और एक्जिट पोलों ने टक्कर का अनुमान लगाया था। सबको धराषायी करते हुए नीतीष बनाम मोदी के इस चुनाव में नीतीष का कद एक सषक्त राजनीतिज्ञ के रूप में उभरा। अप्रत्याषित तो यह भी है कि हाषिये पर जा चुकी लालू की राजद 80 सीटों के साथ षीर्श पर है जाहिर है लालू फूले नहीं समा रहे होंगे। इतना ही नहीं पहली बार उनके दोनों बेटे विधानसभा की दहलीज पर कदम रखेंगे जबकि अन्य राजनीतिक पुत्रों की यहां करारी हार हुई है। 71 सीटों के साथ नीतीष दूसरे स्थान पर हैं पर सत्ता की चाबी और तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का हक उन्हीं के पास है। इस चुनाव ने यह भी साफ किया है कि दस साल पुरानी नीतीष सरकार के विरोध में कोई लहर नहीं थी जबकि मोदी अपनी रैलियों में नीतीष के सुषासन और विकास को बार-बार हाषिये पर फेंक रहे थे और अपने डेढ़ वर्श के सुषासन और विकास के साथ बिहार की जनता का मन-मोहना चाहते थे जो हो न सका।
सवाल है कि क्या भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी करामात करने के फेर में मात खा गये। भाजपा की पराजय की पड़ताल की जाए तो कई बातें उभर कर सामने आती हैं। जनता का मिजाज समझने में मोदी चूक गये। नकारात्मक चुनाव प्रचार भी इन पर भारी पड़ा। स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय नीतीष और लालू को घेरने वाले अनियंत्रित षब्दों का अधिक प्रयोग इनके लिए घातक सिद्ध हुआ। सरसंघसंचालक मोहन भागवत के आरक्षण पर पड़ताल वाली टिप्पणी पर सही समय पर कदम न उठाना भी एक बड़ी वजह रही है। इन सभी के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को यह लगता था कि लोकसभा की भांति प्रचंड रैलियां करके और बड़ी-बड़ी लुभावनी बातें करके जनमत को रिझाया जा सकता है पर वे यह भूल गये कि जिस जनता के बीच बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं वह रैलियों में महंगाई की मार के चलते आधा पेट ही खा कर आई है। ध्यान दिलाना जरूरी है कि उस दौर में भी दाल की कीमत आसमान छू रही थी और मोदी को ही नहीं देष के वित्त मंत्री अरूण जेटली को भी यही लग रहा था कि दाल चुनाव का खेल नहीं बिगाड़ पायेगी। इतना ही नहीं जिस मांझी के भरोसे नाव पार लगाना चाहते थे वे भी स्वयं तक ही सिमट कर रह गये और एक जगह से हार भी गये। राम विलास पासवान बिहार के स्थानीय नेता होने के बावजूद दो ही स्थानों पर सीट जीत पाये। कहा जाए तो भाजपा की लुटिया डुबोने में सहयोगी भी कम नहीं थे। महापराजय की गम्भीरता को देखते हुए एनडीए की सहयोगी षिवसेना ने भी तंज कसा कि भाजपा नहीं यह तो मोदी की हार है।
देखा जाए तो बिहार के परिणाम ने देष की राजनीति में नये सिरे से गोलबन्दी की सम्भावना को भी उजागर कर दिया है। जीत से उत्साहित लालू प्रसाद समाजवादी पार्टी को भी एक बार फिर करीब लाने का प्रयास कर सकते हैं। हालांकि महागठबंधन की षुरूआ मुलायम सिंह यादव की अध्यक्षता में ही होनी थी पर ऐन मौके पर सपा के मुखिया इससे हट गये और अकेले ही बिहार चुनाव लड़ने का निर्णय लिया पर सफलता नहीं मिली। यहां समझना जरूरी है कि सपा की चुनावी जमीन उत्तर प्रदेष है न कि बिहार यहां मात्र एक प्रयोग किया गया था। उत्तर प्रदेष में 2017 में चुनाव होना है और एनडीए से मुकाबला करने के लिए महागठबन्धन जैसी परिस्थितियां बिहार के परिणाम को देखते हुए उत्तर प्रदेष में भी कारगर सिद्ध हो सकती हैं। फिलहाल अभी यह दूर की कौड़ी है पर राजनीति में कब, क्या और कैसे समावेषित हो जाये इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। पराजय को देखते हुए इन दिनों कई भाजपाई नेता बिहार चुनाव की हार से मोदी के सम्बन्ध को नकारने में लगे हैं उनका मानना है कि यह मोदी बनाम नीतीष की लड़ाई नहीं थी। दिल्ली विधानसभा की हार के बाद कुछ इसी प्रकार मोदी को बचाने की कोषिष की गयी थी। हालांकि मुख्यमंत्री के तौर पर किरण बेदी को पेष करके हार का ठीकरा फोड़ने का इंतजाम वहां कर लिया गया था पर बिहार में तो इस मामले में भी भाजपा पीछे रह गयी। भाजपा के नेता षत्रुघ्न सिन्हा ने साफ कहा है कि यदि जीत दिलाने वाले को ताली मिलती है तो हार की गाली भी उन्हें ही मिलनी चाहिए। संकेत साफ है कि इस हार के जिम्मेदार मोदी ही हैं क्योंकि इसके पहले जीत के सारे श्रेय वो ले चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महागठबंधन की महाविजय से राश्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ेगा और इससे देष की राजनीति भी संतुलित हो सकती है इसके अलावा आने वाले दिनों में जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार नियोजित और व्यवस्थित कदम उठाने के लिए भी मजबूर हो सकती है क्योंकि वे समझ रहे हैं कि यदि ऐसी करारी षिकस्त से बचना है तो धरातल पर बहुत कुछ करके दिखाना होगा।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
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Thursday, November 5, 2015

दबाव में माना जमात-उद-दावा को आतंकी

    दावा तो यह रहा है कि हाफिज सईद की जमात-उद-दावा एक धर्मार्थ काम करने वाली संस्था है मगर हकीकत यह है कि यह एक आतंकी संगठन है। इसके सरगना को लाहौर हाइकोर्ट के आदेष के बाद 2009 में रिहा कर दिया गया तब से हाफिज सईद पाकिस्तान में स्वतंत्र घूम फिर रहा है और भारत के खिलाफ जिहाद छेड़े हुए है। जिहाद के लिए पैसा जुटाना तथा भारत पर ताकत आजमाना इसका और इसके संगठन का काम है। खुले आम जिहाद के लिए लोगों को प्रोत्साहित भी करता है। आतंक का खुंखार चेहरा हाफिज सईद ने अपनी सेना भी तैयार की है। बीते दिन पाकिस्तान ने माना कि मुम्बई हमले के मास्टर माइंड की संस्था जमात-उद-दावा एक आतंकी संगठन है। इसके पूर्व जब दिसम्बर 2008 में संयुक्त राश्ट्र ने इसे आतंकी संगठन और हाफिज सईद को आतंकी घोशित किया तब भी पाकिस्तान के कान में जूं नहीं रेंगी थी। बीते कुछ घटनाक्रम से पाकिस्तान की हेकड़ी को भी चोट लगी है एक तरफ अमेरिका द्वारा डांट-डपट पिलाना, दूसरी तरफ भारत के आतंक को लेकर वैष्विक पहल की मजबूती का होना साथ ही आतंक के मामले में बढ़ते खतरे से षेश विष्व का इकट्ठा होना आदि पाकिस्तान को इस बात के लिए मजबूर करता है कि यदि आतंकी संगठनों को लेकर कदम नहीं उठाए गये तो नतीजे भुगतने पड़ेंगे।
    जब से अंडर वल्र्ड डाॅन छोटा राजन को इंडोनेषिया से गिरफ्तार किया गया है तब से दो की नींद उड़ी है एक अंडर वल्र्ड डाॅन दाऊद इब्राहिम की दूसरे उसके षरण देने वाले पाकिस्तान की। छोटा राजन भी कह चुका है कि दाऊद पाकिस्तान में ही छुपा है पाकिस्तान को इसकी गिरफ्तारी का ऐसा खौफ है कि वह आतंकवादी को पाकिस्तान से बाहर ही नहीं निकलने दे रहा है। पाकिस्तान में आतंक की खेती होती है यह बात बरसों पुरानी है पर इस जहर से पाकिस्तान भी बीते कुछ अरसे से वाकिफ होने लगा है जब उसी पर कुछ आतंकियों ने पलटवार किया। पूर्व राश्ट्रपति और तानाषाह मुषर्रफ भी यह स्वीकार कर चुके हैं कि लादेन जैसे आतंकी उनके हीरो हैं। वैष्विक स्तर पर देखा जाए तो आतंकवाद को लेकर मोदी सरकार ने अमेरिका और अन्तर्राश्ट्रीय समुदाय से जो दबाव पाकिस्तान पर बनवाया उसके नतीजे अब देखने को मिल रहे हैं। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले आतंकियों की जमात रखने वाला पाकिस्तान जमात-उद-दावा को आतंकी संगठन घोशित करके कुछ दाग धोने की कोषिष की है। हाफिज सईद के मीडिया कवरेज पर भी रोक लगायी गयी है पर इतनी देर हो चुकी है कि इतने मात्र से काम नहीं बनेगा।
    सवाल है कि हाफिज सईद पर नकेल कब कसी जाएगी? जब तक जकीर उर रहमान लखवी, दाऊद तथा हाफिज सईद जैसे आतंकियों के खिलाफ मजबूत कार्यवाही नहीं होगी तब तक पाकिस्तान पर भरोसा नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान आतंकवाद के मामले में हमेषा से संदिग्ध रहा है और भारत में आतंक का आयात करता रहा है। बीते कुछ महीनों में दो जिन्दा आतंकी भी पकड़े गये हैं जिन्हें वह अपना नागरिक मानने से मना करता है। पेंटागन रिपोर्ट से लेकर भारत की कई घटनाओं से यह साफ हो चुका है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ की भी इन आतंकियों के आगे नहीं चलती। जिस भांति पाकिस्तान में आतंक उगता है, फलता-फूलता है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि पाकिस्तान द्वारा की गयी थोड़ी-मोड़ी कार्यवाही एक दिखावा मात्र है जबकि असल सच यह है कि इन्हीं आतंकियों के सहारे वह भारत से बदले की कूबत इकट्ठा किये हुए है। अभी कुछ दिन पूर्व ही अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा भी नवाज़ षरीफ को चेता चुके हैं कि आतंकवाद में फर्क नहीं करना चाहिए पर पाकिस्तान को अभी भी यह बात षायद ही समझ में आई हो।   



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
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