Wednesday, January 16, 2019

स्टील फ्रेम ब्रेकज़िट डील का टूटना

पड़ताल से यह स्पश्ट होता है कि ब्रिटेन 1973 में 28 सदस्यीय यूरोपीय संघ का सदस्य बना था जिसे इसी साल 29 मार्च को इस संघ से अलग होना है। अधिक से अधिक इस तारीख को 30 जून तक ही बढ़ाया जा सकता है। जब दुनिया का कोई संघ या देष नये परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो उसका सीधा असर वहां की सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक परिवेष पर तो पड़ता ही है साथ ही किसी भी अक्षांष और देषांतर जटिल दुनिया पर भी पड़ना स्वाभाविक है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरेसा का यूरोपीय संघ से अलग होने सम्बंधी ब्रेक्ज़िट समझौता ब्रिटिष संसद में पारित नहीं हो सका। स्थिति को देखते हुए अब टेरेसा सरकार के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव लाने की घोशणा की गयी है। गौरतलब है कि टेरेसा के समझौते को हाउस आॅफ काॅमन्स में 432 के मुकाबले 202 मतों से हार का सामना करना पड़ा जिसे आधुनिक इतिहास में ब्रिटिष प्रधानमंत्री की सबसे करारी हार के रूप में देखा जा रहा है। नतीजे के तुरन्त बाद विपक्षी लेबर पार्टी के नेता ने अविष्वास प्रस्ताव लाने की घोशणा की। ब्रेक्जिट की कहानी आगे क्या मोड़ लेने वाली है यह मंझे हुए जानकार भी अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं। ब्रेक्जिट कितना जटिल है और होता जा रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2016 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरून और तीन मंत्रियों की अब तक यह कुर्सी छीन चुका है। दो साल पहले ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय यूनियन से अलग होने के लिए जनमत संग्रह पर मुहर लगायी थी। 23 जून 2016 को यह जनमत संग्रह हुआ था जिसमें 52 फीसदी लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने तो 48 फीसदी ने साथ रहने के पक्ष में अपना मतदान दिया था। राजधानी लंदन में ज्यादातर लोगों का मत यूरोपीय यूनियन के साथ रहने का था जबकि देष के बाकी हिस्से मसलन पूर्वोत्तर इंग्लैण्ड, वेल्स, मिडलैण्ड्स आदि इसके विरोध में थे। 
सवाल है कि टेरेसा का ब्रेक्जिट समझौता फेल होने पर अगला कदम क्या होगा। जाहिर है अब टेरेसा प्लान बी पर काम करेंगी। दरअसल ब्रिटेन की संसदीय प्रक्रिया में यह निहित है कि जब सांसद कोई विधेयक खारिज कर देते हैं तो प्रधानमंत्री के पास दूसरी योजना के साथ संसद में आने के लिए तीन कामकाजी दिन होते हैं। अनुमान है कि ब्रूसेल्स जाकर यूरोपीय यूनियन से और रियायत लेने की कोषिष करेंगी और नये प्रस्ताव के साथ ब्रिटेन की संसद में आयेंगी तब सांसद इस पर भी मतदान करेंगे। यदि यह प्रस्ताव भी असफल रहता है तो सरकार के पास एक अन्य विकल्प के साथ लौटने के लिए तीन सप्ताह का समय होगा। यदि यह समझौता भी संसद में पारित नहीं होता है तो ब्रिटेन बिना किसी समझौते के ही यूरोपीय यूनियन से बाहर हो जायेगा। गौरतलब है कि टेरेसा की पार्टी कन्जर्वेटिव के 100 से अधिक सांसदों ने समझौते के विरोध में मतदान किया। ऐसे में इस हार के साथ ही ब्रेक्ज़िट के बाद यूरोपीय यूनियन से निकट सम्बंध बनाने की प्रधानमंत्री टेरेसा की रणनीति का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है। जाहिर है ब्रिटेन में बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है। पड़ताल से यह भी साफ है कि ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा नहीं कहा है इसके पीछे बरसों से कई बड़े कारण रहे हैं जिसमें ब्रिटेन में बढ़ रहा प्रवासीय संकट मुख्य वजहों में एक रही है। दरअसल ईयू में रहने के चलते प्रतिदिन 500 से अधिक प्रवासी दाखिल होते हैं जबकि पूर्वी यूरोप के 20 लाख से अधिक लोग ब्रिटेन में बाकायदा रह रहे हैं। ब्रिटेन में बढ़ती तादाद के चलते ही यहां बेरोजगारी जैसी समस्या भी पनपी है। ईयू से अलग होने के बाद इन पर रोक लगाना सम्भव होगा। साथ ही कई अपराधी प्रवासियों पर भी लगाम लगाया जा सकेगा। इतना ही नहीं सीरिया जैसे देषों में जारी संकट के चलते भी यहां जो दिक्कतें बढ़ती है उससे निपटना आसान हो जायेगा।
दरअसल ब्रेक्ज़िट की तारीख करीब आती जा रही है और ब्रिटेन सरकार में इस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही है। कहा जाय तो सरकार दुविधा और सुविधा के बीच फंसी हुई है। दो टूक यह भी है कि प्रधानमंत्री टेरेसा का रूख ब्रेक्ज़िट को लेकर लचीला है और वह सेमी ब्रेक्जिट की ओर बढ़ना चाहती है जिसका तात्पर्य है कि ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन  ईयू की षर्तें मानता रहेगा और बाहर रहकर उसके साथ बना रहेगा। ऐसा करने से ब्रिटेन अपने आर्थिक हितों और रोज़गार और बहुराश्ट्रीय कम्पिनयों को बाहर जाने से बचा सकेगा पर इसकी सम्भावना कम ही है। गौरतलब है कि ईयू से अलग होने से ब्रिटेन को सालाना एक लाख करोड़ रूपए की बचत भी होगी जो उसे मेम्बरषिप के रूप में चुकानी होती है। खास यह भी है कि ब्रिटेन के लोगों को ईयू अफसरषाही भी पसंद नहीं आती। कईयों का मानना है यहां उनकी तानाषाही चलती है। केवल कुछ नौकरषाह मिलकर 28 देषों का भविश्य तय करते हैं जो बर्दाष्त नहीं है। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ के लिए करीब 10 हजार अफसर काम करते हैं और मोटी सैलेरी लेते हैं। इन सबके अलावा मुख्य व्यापार को बाधित होना भी रहा है। ईयू से अलग होने के बाद अमेरिका और भारत जैसे देषों से ब्रिटेन को मुक्त व्यापार करने की छूट होगी। भारत का सबसे ज्यादा कारोबार यूरोप के साथ है। केवल ब्रिटेन में ही 800 से अधिक भारतीय कम्पनियां हैं जिसमें एक लाख से अधिक लोग काम करते हैं। भारतीय आईटी सेक्टर की 6 से 18 फीसदी कमाई ब्रिटेन से ही होती है। ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कम्पनियों की यूरोपीय संघ के इन 28 देषों के 50 करोड़ लोगों तक पहुंच होती है। सम्भव है कि ब्रिटेन के ईयू से अलग होने पर यह पहुंच आसान नहीं रहेगी। इतना ही नहीं 50 फीसदी से अधिक कानून ब्रिटेन में ईयू के लागू होते हैं जो कई आर्थिक मामलों में किसी बंधन से कम नहीं है। उक्त तमाम के चलते ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग होना चाहता है।
ब्रिटेन के ईयू से बाहर होने के फैसले का असर उसकी अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है। पिछले साल उसकी वित्तीय वर्श की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में मामूली गिरावट आयी थी। फिलहाल कम्पनियां निवेष को लेकर अधिक सतर्कता बरत रही हैं। प्रोपर्टी का बाजार भी ठण्डा बताया जा रहा है। ब्रितानियों का आरोप है कि सरकार को जिस तरह इस पर आगे बढ़ना चाहिए वह उस पर आगे नहीं बढ़ रही है। जून 2016 के जनमत संग्रह के बाद पाउण्ड में भी 15 प्रतिषत की गिरावट आयी थी इससे उपभोक्ताओं और कम्पनियों के लिए आयात महंगा हो गया था। गौरतलब है कि द्वितीय विष्व युद्ध के बाद आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ का निर्माण हुआ था जिसके पीछे सोच थी कि जो देष एक साथ व्यापार करेंगे वे एक-दूसरे के साथ युद्ध करने से बचेंगे। यूरोपीय संघ की मुद्रा यूरो जिसे 19 देष इस्तेमाल करते हैं इसकी अपनी संसद भी है। यह संघ कई क्षेत्रों में अपने नियम बनाता है जिसमें पर्यावरण, परिवहन, उपभोक्ता अधिकार और मोबाइल फोन की कीमतें तक तय होती हैं। फिलहाल ब्रिटेन में जो बदलाव आने की सम्भावना है उससे दुनिया पर असर न पड़े ऐसा हो नहीं सकता। सभी को अपनी चिंता है। सवाल तो यह भी है कि आखिर किसी संघ का निर्माण क्यों होता है और उससे क्या अपेक्षाएं होती हैं? क्या ब्रिटेन की अपेक्षाओं पर यूरोपीय संघ खरा नहीं उतरा? जाहिर है इसकी भी जांच-पड़ताल समय के साथ और होगी पर तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटेन को ही नहीं भारत को भी संतुलित वैष्विक आर्थिक नीति पर काम करने की अधिक आवष्यकता पड़ सकती है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

Monday, January 14, 2019

सीमा सड़क को लेकर कहां खड़ा है भारत

सामरिक दृष्टि से यह सवाल बड़ा और वाजिब भी है कि भारत चीन के मुकाबले में कहां खड़ा है। वैसे पाकिस्तान और चीन से जो चुनौतियां भारत को मिलती हैं उसे लेकर निपटने का प्रयास समय-समय पर वह करता रहा है पर सीमा पर सड़क के मकड़जाल को लेकर जो काम चीन ने किया है उससे भारत अभी मीलों पीछे है। सामरिक मोर्चे पर चीन को कड़ी टक्कर देने के लिए भारत फिलहाल सीमा पर सड़क निर्माण को लेकर बड़ा कदम उठाने का मन बना लिया है। भारत सरकार ने चीन से लगती सीमा पर 44 सड़कों का निर्माण करने का इरादा जताया है। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार जून 2017 में डोकलाम में पैदा हुई स्थिति को देखते हुए यह पहल करने जा रही है। 44 सड़कों का निर्माण एक अहम फैसला है इसके अलावा पाकिस्तान से सटे पंजाब और राजस्थान के करीब 2100 किलोमीटर की मुख्य एवं सम्पर्क सड़कों का निर्माण भी किया जायेगा। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) के इसी माह में जारी वार्शिक रिपोर्ट 2018-19 में स्पश्ट है कि भारत-चीन सीमा पर ये सड़कें निर्मित की जायेंगी ताकि संघर्श की स्थिति में सेना को तुरंत जुटाने में आसानी हो। गौरतलब है भारत एवं चीन के बीच 4 हजार किलोमीटर से अधिक की वास्तविक नियंत्रण रेखा जम्मू-कष्मीर से लेकर अरूणाचल प्रदेष तक विस्तृत है। जून 2017 में डोकलाम में चीन के सड़क बनाने का कार्य षुरू कराने के बाद भारत और चीन के सैनिकों के बीच गतिरोध पैदा हुआ था जो 73 दिनों तक चला। गतिरोध इतना बढ़ गया था कि चीन ने युद्ध तक कि धमकी दी पर भारत इसका कूटनीतिक हल निकालने में सफल रहा परन्तु समाधान पूरी तरह अभी नहीं हुआ है। 44 सड़कों के निर्माण में करीब 21 हजार करोड़ रूपए की लागत आयेगी। सीपीडब्ल्यूडी की रिपोर्ट में यह भी है कि पाकिस्तान की सीमा पर सड़क निर्माण में 5400 करोड़ की लागत आयेगी।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद बरसों से चला आ रहा है। दोनों देष वास्तविक सीमा रेखा पर बुनियादी ढांचे के निर्माण और एक-दूसरे की परियोजना को संदेह की दृश्टि से देखते रहे हैं। सड़कों, पुलों, रेल लिक, हवाई अड्डा आदि को लेकर दोनों ने ताकत झोंकी है। चीन भारत से सटे तिब्बत क्षेत्र में कई एयरबेस ही नहीं बल्कि 5 हजार किलोमीटर रेल नेटवर्क और 50 हजार से अधिक लम्बी सड़कों का निर्माण कर चुका है। फिलहाल चीन की तुलना में भारत काफी पीछे है। इतना ही नहीं भारत के साथ सटी सीमा पर चीन के 15 हवाई अड्डे हैं जबकि 27 छोटी हवाई पट्टी का भी निर्माण वह कर चुका है। तिब्बत के गोंकर हवाई अड्डा किसी भी मौसम में वह उपयोग करता है। जहां लड़ाकू विमानों की तैनाती की गयी है। तिब्बत और यूनान प्रान्त ने वृहद् मात्रा पर सड़क और रेल नेटवर्क का सीधा तात्पर्य है कि चीनी सेना केवल 48 घण्टे में भारत-चीन सीमा पर आसानी से पहुंच सकती है। चीन ने जो आर्थिक गलियारे की पहल की उसका भी वाणिज्यिक फायदा वह भविश्य में उठायेगा। यह गलियारा चीन को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ता है जो 2442 किमी. है। मुख्य यह भी है कि यह पाक अधिकृत कष्मीर से भी गुजरता है जिसे लेकर भारत का विरोध है। डोकलाम विवाद के बाद अपनी सीमा में सड़क निर्माण को लेकर उसकी गतिविधियां इन दिनों तेजी लिए हुए है। उक्त के परिप्रेक्ष्य में यह सवाल है कि चीन की तुलना में भारत कहां खड़ा है। गौरतलब है कि भारत अब तक केवल 981 किमी. सड़क निर्माण करने में कामयाबी पायी है। इसे एक धीमी प्रगति की संज्ञा दिया जाना वाजिब होगा। यही वजह है कि भारत-चीन सीमा सड़क परियोजना जिसकी मूल समय सीमा 2012 थी उसे बढ़ा कर 2022 की गयी है। चीन की सीमा व्यापक पैमाने पर भारत को छूती है और अरूणाचल प्रदेष पर चीन की कुदृश्टि है। चीन की सीमा को छूने वाली सड़कें 27 सड़कें अरूणाचल प्रदेष में, 5 सड़कें हिमाचल में जबकि जम्मू-कष्मीर में 12 सड़कें और 14 सड़कें उत्तराखण्ड समेत 3 सिक्किम में हैं। चीन को सामरिक दृश्टि से जवाब देने और मजबूती से चुनौती देने के लिए सड़कों का मकड़जाल कहीं अधिक अपरिहार्य है। 
सीपीडब्ल्यूडी की यह रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है जब चीन भारत के साथ लगने वाली उसकी सीमाओं पर सड़क समेत अन्य परियोजनाओं को प्राथमिकता दे रहा है। चीन की चाल पर नजर रखने के लिए सड़कों का सामरिक जाल जरूरी है। गौरतलब है भारत और चीन के बीच आवागमन सदियों पुराना है। दूसरी षताब्दी में चीन ने भारत, फारस (वर्तमान ईरान) और रोमन साम्राज्य को जोड़ने के लिए सिल्क मार्ग बनाया था। उस दौर में रेषम समेत कई चीजों का इस मार्ग से व्यापार होता था। अब वन बेल्ट वन रोड़ इसी तर्ज पर बनाया जा रहा है जो दो हिस्सों में निर्मित होगा। पहला जमीन पर बनने वाला सिल्क मार्ग, दूसरा समुद्र से गुजरना वाला मेरीटाइमन सिल्क रोड़ षामिल है। सिल्क रोड़ इकोनोमिक बेल्ट एषिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ेगा। इसके माध्यम से बीजिंग को तुर्की से जोड़ने का भी प्रस्ताव है और रूस-ईरान-ईराक को भी यह कवर करेगा। इतना ही नहीं वन बेल्ट, वन रोड़ के तहत चीन आधारभूत संरचना परिवहन और ऊर्जा में निवेष कर रहा है। इसके तहत पाकिस्तान में गैस पाइपलाइन, हंगरी में एक हाईवे और थाईलैण्ड में हाइस्पीड एक लिंक रोड़ भी बनाया जा रहा है। तथ्य यहीं समाप्त नहीं होते चीन से पोलैण्ड तक 9800 किमी रेल लाइन भी बिछाने का प्रस्ताव है। 
चीन का सड़क और रेल नेटवर्क भारत के लिए खतरा साबित हो रहा है जहां वन बेल्ट, वन रोड जहां वाणिज्यिक दृश्टि से भारत के लिए समस्या पैदा करेगा वहीं पीओके से इसका गुजरना भारत की सम्प्रभुता का भी उल्लंघन है। इस योजना का 60 देषों तक सीधी पहुंच होना और इनके जरिये भारत को घेरने की कोषिष चिंता का विशय है। 900 अरब डाॅलर चीन इस परियोजना पर खर्च कर रहा है। गौरतलब है कि इतनी बड़ी रकम दुनिया की कुल जीडीपी का एक तिहाई हिस्सा है। हिंद महासागर के देषों में चीन बंदरगाह, नौसेना बेस और निगरानी पोस्ट बनाने की फिराक में है। यहां से भी वह भारत को घेरना चाहता है। स्ट्रिंग आफ पल्स परियोजना के तहत चीन, श्रीलंका, बांग्लादेष और पाकिस्तान में वह पोर्ट बना रहा है। ऐसा करने से वह बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में अपना प्रभाव बढ़ाने में कामयाब हो जायेगा। फिलहाल 44 सड़कों के निर्माण को लेकर चीन की भांति ही भात चुनौती देने के लिए अपने को तैयार कर रहा है। हालांकि जिस तर्ज पर चीन दुनिया के देषों को लालच देकर कब्जाता है उससे भारत का कोई लेना-देना नहीं है। पर जिस तरह चीनी कम्पनियां तमाम देषों पर आर्थिक कब्जा कर रही हैं और भारत चीन से जमीन और समुद्र दोनों तरफ से घिर रहा है उसे लेकर कूटनीतिक पहल जरूरी है। जाहिर है सड़क निर्माण में तेजी लाना, सीमा पर रेल लाइन व हवाई पट्टी समेत कई परियोजनाओं को विस्तारित करना भारत के लिए अनिवार्य हो गया है। भारत की सुरक्षा सीमा के मामले में कई गुने बढ़ाने की जरूरत भी बढ़ते दिखाई दे रही है। इसके लिए बड़े धन की आवष्यकता होगी। भारत जैसे विकासषील देष की जीडीपी भले ही चीन की तुलना में कमतर न हो, भले ही दुनिया की तीसरी उभरती हुई अर्थव्यवस्था हो पर सच्चाई यह है कि चीन की तुलना में सीमा पर सड़क से लेकर अन्य तकनीकी पहलुओं के मामले में भारत कहीं पीछे है। सीमा पर सड़क निर्माण एक सुखद समाचार है बस प्रयास यह रहे कि इसे कहीं अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने में कोई कोताही न बरती जाय। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, January 9, 2019

आर्थिक आरक्षण पर न्यायपालिका की सोच

संविधान के अनुच्छेद 16(4) में स्पष्ट है कि सामाजिक, षैक्षणिक दृश्टि से पिछड़े वर्गों के लिये नियुक्तियों और पदों के आरक्षण हेतु विषेश उपबन्ध राज्य कर सकता है। गौरतलब है आर्थिक आधार पर अगड़ों को आरक्षण उपलब्ध कराने को न्यायालय पहले खारिज कर चुका है क्योंकि आरक्षण की षर्तों में आर्थिक आधार का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। सामान्य वर्ग से आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 फीसद आरक्षण वाले विधेयक को बीते 8 जनवरी को षीत सत्र के अन्तिम दिन दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया गया। जिसे 124वां संविधान संषोधन के अन्तर्गत देखा जा सकता है। विधेयक पर लगभग सभी दलों की सहमति रही पर इसकी टाइमिंग को लेकर सरकार पर राजनीति करने का आरोप भी लगाया गया। फिलहाल तीन के मुकाबले 326 के समर्थन से लोकसभा में इसे एकतरफा पारित करार देना सही होगा। राज्यसभा में इसे पारित कराने हेतु षीत सत्र का एक दिन का कार्यकाल बढ़ाया गया। जाहिर है राज्यसभा के मार्ग से होते हुए आधे राज्यों का अनुसमर्थन और तत्पष्चात् राश्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद देष में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए आरक्षण लागू हो जायेगा। मगर एक बड़ा सवाल यह रहेगा कि क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण दे पाना सरल होगा क्योंकि इसके पहले भी इसे लेकर कोषिष की गयी है पर सफलता नहीं मिली। हालांकि अब और पहले में एक अंतर यह है कि पहले की सरकारें बिना संविधान संषोधन किये इसे लागू करने का प्रयास किया था जिसके कारण न्यायालय की धरातल पर यह नहीं टिक पाया। षायद इसी को देखते हुए मोदी सरकार इसे अंतिम रूप देने से पहले संविधान संषोधन करके आरक्षण को पुख्ता बनाना चाहती है। परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संषोधन किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 15 में उपबंध 6 और अनुच्छेद 16 में भी उपबंध 6 जोड़कर इसे व्यवस्थित किये जाने का प्रयास किया गया। 
गौरतलब है कि अनुच्छेद 16 के उपबंध 4 के अंतर्गत पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रावधान है जो मण्डल आयोग की सिफारिष पर आधारित है। मण्डल आयोग नाम से प्रसिद्ध इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ के वाद 1992 में उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष एम.एच. कानिया की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय खण्डपीठ ने कार्यपालिका आदेष द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण को वैध ठहराया था परन्तु आर्थिक आधार पर आरक्षण को अवैध भी करार दिया था। संविधान में आर्थिक दृश्टि से पिछड़े वर्गों के लिए कोई प्रावधान नहीं है। अनुच्छेद 16(4) सामाजिक पिछड़ेपन को बल देता है न कि आर्थिक पिछड़ेपन को। इसलिए 124वां संविधान संषोधन करके आर्थिक पक्ष को भी उल्लेखित किया जाना सरकार ने जरूरी समझा। गौरतलब है कि इन्दिरा साहनी मामले में षीर्श अदालत ने 50 फीसदी से अधिक आरक्षण न देने की व्यवस्था भी लागू की थी। फिलहाल मौजूदा मोदी सरकार आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण को लेकर और 50 फीसदी की सीमा को 60 फीसदी करने की ओर कदम बढ़ा चुकी है। गौरतलब है कि साल 2006 में कांग्रेस ने भी एक समिति बनाई थी जिसे आर्थिक रूप से पिछड़े उन वर्गों का अध्ययन करना था जो मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के दायरे में नहीं आते लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। हालांकि 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही एक मंत्री समूह का गठन हुआ था। इसका भी कोई फायदा नहीं निकला था। 
आर्थिक आधार पर आरक्षण का मसला राज्यों में भी खारिज हो चुके हैं। अप्रैल 2016 में 6 लाख सालाना आय वालों को 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान गुजरात में लागू किया गया लेकिन अदालत ने खारिज कर दिया। सितम्बर 2015 में गरीब सवर्णों के लिए 14 फीसदी आरक्षण का प्रावधान राजस्थान सरकार ने भी लाने का प्रयास किया जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए षिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था दी। षैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को भी इसका लाभ दिया गया। सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ों को विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मण्डल आयोग के माध्यम से 27 फीसदी आरक्षण लागू करके इनके लिए भी नौकरियां सुरक्षित कर दी। हालांकि यह नरसिम्हा राव सरकार में 1993 में लागू हुआ था। अब मोदी सरकार अगड़ों में पिछड़ों को 10 फीसदी आरक्षण दे रही है जिसका आधार आर्थिक है जिसको अदालत अवैध मानती रही है। हालांकि सरकार इस पर फूंक-फूंक कर कदम रख रही है और कहीं कोई कमी न रह जाय इस पर पुख्ता कदम भी उठा रही है। जाहिर है संविधान संषोधन के बाद यह निहित मापदण्डों में बहुत बड़ा कानून हो जायेगा। मगर यह बात भी संदेह से मुक्त नहीं है कि जिस मूल अधिकार के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद 15 और 16 में उपबंध 6 जोड़कर आर्थिक आधार को पुख्ता किया जा रहा है उसे पहले ही उच्चत्तम न्यायालय मूल ढांचा घोशित कर चुका है। संविधान में यह बात स्पश्ट है कि यदि सरकार द्वारा निर्मित कोई कानून जो संविधान के मूल ढांचे पर हस्तक्षेप करेगा उसे वह षून्य घोशित कर सकता है। हालांकि इसकी सम्भावना कम ही दिखती है। आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण अदालत की दृश्टि और संविधान की परिधि में कितना पुख्ता है यह भी जांच का विशय रहेगा। 50 फीसदी से 60 फीसदी आरक्षण की सीमा भी इसकी परिधि में होगी। मौजूदा व्यवस्था में देखा जाय तो आन्ध्र प्रदेष, बिहार, मध्य प्रदेष और उत्तर प्रदेष जैसे राज्यों में 50 फीसदी तक आरक्षण है जबकि तमिलनाडु में 69 फीसद, महाराश्ट्र में 68 फीसद, झारखण्ड में 60 समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इससे भी अधिक देखा जा सकता है। 
मोदी अपने षासन काल के षुरूआत से ही सबका साथ, सबका विकास की बात करते रहे हैं और इस आरक्षण व्यवस्था को इसका परिचायक माना जा रहा है। इस बात का आंकड़ा तो नहीं है कि 10 फीसदी आरक्षण में सभी धर्मों के अगड़ों में कितने पिछड़े आयेंगे पर कहा तो यह भी जा रहा है कि इसमें बहुत बड़ी आबादी षामिल हो जायेगी। गौरतलब है कि सरकार जिन्हें आरक्षण दे रही है उसके मापदण्डों में जिसकी पारिवारिक आमदनी 8 लाख से कम है और भूमि 5 एकड़ से कम है वह इसके दायरे में आयेगा। यह दायरा भी यह जताता है कि 10 फीसदी आरक्षण में सवर्ण पिछड़ों की संख्या व्यापक पैमाने पर रहेगी। हालांकि इसके कई और मापदण्ड हैं जैसे मकान हजार वर्ग फिट से कम बना हो, निगम की अधिसूचित जमीन 109 गज से कम हो और गैर अधिसूचित जमीन 209 गज से कम हो। फिलहाल अगड़ों को आरक्षण को लेकर लम्बे समय से चले आ रहे प्रयास को अमली जामा पहनाने का पूरा प्रयास किया गया है। इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार से भी मायावती ने गरीब सवर्णों के आरक्षण के लिए पत्र लिखा था जाहिर है किसी भी वर्ग, जाति का व्यक्ति गरीब सवर्ण को लेकर चिंतित था पर आरक्षण में बदल पाना कठिन काज बना रहा। ऐसे में मोदी सरकार ने चुनाव के मुहाने पर आरक्षण का दांव चल कर कई मुद्दों को न केवल पीछे धकेल दिया बल्कि एससी/एसटी एक्ट पर सरकार के कदम के चलते जो सवर्ण नाराज़ थे उनको मनाने का काम भी किया है। तीन हिन्दी भाशी राज्यों में भाजपा की हार इस आरक्षण की दिषा में कदम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है। इस कदम से भाजपा लाभ में रहेगी पर विपक्षी भी साथ देकर अपने लाभ को घटाना नहीं चाहते हैं। खास यह भी है कि भाजपा अपने वोट प्रतिषत को मैनेज कर रही है जो डैमेज हुए थे जबकि विपक्षी गठबंधन के माध्यम से पटखनी देने की फिराक में रहेंगे। फिलहाल आर्थिक आधार पर आरक्षण के लागू होने से देष में एक नई विधा का अविश्कार होगा पर यह पूरी सम्भावना है कि संविधान संरक्षक के नाते न्यायपालिका इस पर विधिवत दृश्टि अवष्य डालेगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, January 7, 2019

नई नहीं है अमेरिका में शटडाउन नीति

मैक्सिको सीमा पर दीवार के लिए बजट को लेकर अमेरिका में फिलहाल जारी बीते 22 दिसम्बर से जारी षटडाउन के रूकने के आसार कम ही दिख रहे हैं। हालांकि इसे खत्म कराने हेतु डेमोक्रेट्स सांसद वोटिंग कराने की बात कह रहे हैं पर ट्रंप का अड़ियल रवैया कुछ और ही संकेत दे रहा है। मैक्सिको दीवार बनाने के लिए धन की व्यवस्था न होने से विधेयक का भविश्य अधर में ही दिख रहा है। गौरतलब है कि 20 जनवरी 2017 को राश्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप कई कठोर कदम उठा चुके हैं इसमें एक मैक्सिको की दीवार भी षामिल है। वे पहले भी कह चुके हैं कि मैक्सिको के लोग गंदे होते हैं और उन्हें अमेरिका में प्रवेष नहीं मिलेगा। एक बार तो ट्रंप ने यह भी कहा था कि दीवार भी बनायेंगे और इसकी कीमत मैक्सिको से वसूलेंगे। वे दीवार तो बनाना चाहते हैं मगर पैसे की मांग अपने देष की संसद से इन दिनों कर रहे हैं। विपक्षी सांसदों पर तंज कसते हुए ट्रंप ने कहा कि डेमोक्रेट हमेषा की तरह फिर ऐसा विधेयक लाएंगे जिसमें सीमा सुरक्षा के लिए कुछ नहीं होगा। स्पश्ट है कि वे दीवार के लिए धन के अलावा कुछ और नहीं चाह रहे हैं। गौरतलब है कि डोनाल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से सम्बन्धित है जबकि निम्न सदन में डेमोक्रेट का बहुमत है। बीते 4 जनवरी को डेमोक्रेट्स ने ट्रंप को तब झटका दिया जब डेमोक्रेट की 78 वर्शीय नैन्सी स्पीकर निर्वाचित हुई। इसके पहले रिपब्लिकन नेता पाॅल रयान इस पद पर थे। दरअसल सदन में मध्यावधि चुनाव से पहले रिपब्लिकन पार्टी बहुमत में थी पर अब चित्र बदल गया है। डेमोक्रेट्स ने षटडाउन खत्म कराने के लिए जो फण्डिंग बिल को पारित किया है उससे यह साफ है कि मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाने के लिए धन मुहैया नहीं कराया जायेगा। गौरतलब है कि मध्यावधि चुनाव के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के 435 सदस्यीय सभा में 235 सदस्य हो गये हैं और रिपब्लिकन 199 पर ही सिमट गयी है जबकि पहले रिपब्लिकन की संख्या 235 थी। खास यह भी है कि रिकाॅर्ड 102 महिलाएं भी अमेरिका के निचले सदन में देखी जा सकती है। नई स्पीकर चुनी गयी नैन्सी को भारत-अमेरिकी सम्बंधों का प्रबल समर्थक माना जाता है। नैन्सी इसके पहले 2007 में स्पीकर रह चुकी हैं तब अमेरिका के इतिहास में पहली महिला स्पीकर होने का उन्हें गौरव मिला था। 
 ट्रंप का मानना है कि अमेरिका-मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाये बिना सीमा सुरक्षित नहीं हो सकती जबकि वित्तीय प्रावधान से डेमोक्रेट्स के इंकार के बाद ट्रंप ने खर्च सम्बंधी पैकेज पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है। अमेरिका सरकार ने आंषिक कामबंदी को कई सालों तक जारी रखने के लिए भी ट्रंप कमर कस चुके हैं। फिलहाल षटडाउन का तीसरा सप्ताह षुरू हो चुका है बात यहां तक बढ़ गयी है कि मैक्सिको दीवार राश्ट्रीय आपात की ओर भी अमेरिका को धकेल सकती है और डोनाल्ड ट्रंप जैसे सोच के व्यक्ति ऐसा कदम उठा भी लें तो षायद ही किसी को आष्चर्य होगा। गौरतलब है कि देष में बीते 22 दिसम्बर से लगभग 8 लाख संघीय कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है और ट्रंप पीछे हटने के लिए तैयार नहीं। वैसे अमेरिका के इतिहास में षटडाउन कई बार आया है। इसके पहले अक्टूबर 2013 में ऐसी स्थिति पैदा हुई थी तब डेमोक्रेट की सरकार थी और राश्ट्रपति बराक ओबामा थे और यह सिलसिला 16 दिन चला था तब उन दिनों 8 लाख कर्मचारियों को घर बैठना पड़ा था। पड़ताल बताती है कि 1981, 1984, 1990 और 1995-1996 के बीच अमेरिका के पास खर्च के लिए पैसा नहीं बचा था। 1995-1996 के बीच षटडाउन का सिलसिला 21 दिनों तक चला था और 6 जनवरी को समाप्त हुआ था। देखा जाय तो 2018-19 में भी अमेरिका इसी दौर से गुजर रहा है। पहले षटडाउन कुछ दिनों में समाप्त होता था अब डोनाल्ड ट्रंप के रूख को देखते हुए यह कब समाप्त होगा कहा नहीं जा सकता। आखिर षटडाउन है क्या? गौरतलब है कि अमेरिका में एंटी डेफिषिएंसी एक्ट लागू है जिसके अन्तर्गत अमेरिका मे पैसे की कमी होने पर संघीय एजेंसियों को अपना काम रोकना पड़ता है और उन्हें छुट्टी पर भेज दिया जाता है। इस दौरान उन्हें वेतन नहीं दिया जाता। ऐसी स्थिति में सरकार संघीय बजट लाती है जिसे अमेरिका की कांग्रेस और सीनेट में पारित कराना आवष्यक है। फिलहाल इसके चलते 8 लाख से ज्यादा कर्मचारी गैरहाजिर हैं केवल आपातकालीन सेवाएं ही जारी हैं।
ट्रंप दीवार खड़ी करने को लेकर इन दिनों विवादों में है। नये साल पर घुसपैठ कर रहे षरणार्थियों पर अमेरिकी सैनिकों ने आंसू गैस के गोले दागे थे। मैक्सिको गरीबी और बेरोजगारी से त्रस्त है और अमेरिका इनके अवैध घुसपैठ से परेषान है। यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रंप दीवार खड़ी करना चाहते हैं जिस हेतु 1400 अरब रूपए की भारी-भरकम धनराषि का बजट बनाया गया। हालांकि दोनों देषों की सीमा के एक हिस्से पर स्टील की दीवार है मगर घुसपैठ की कोषिष यहां से भी होती है जिसके कारण कई मारे भी जाते हैं, कुछ वापस भेज दिये जाते हैं। कुछ ने तो इस दीवार के सहारे अपना घर भी बनाया है। दोनों के बीच 3145 किमी लम्बी सीमा है और ट्रंप पूरी तरह दीवार चाहते हैं। हालांकि 1100 किमी हिस्से पर इस्पात की दीवार लगी हुई है जिसे 1990 में बनाना षुरू किया गया था। अमेरिकी संसद इस हेतु 94 अरब रूपए मरम्मत के लिए मंजूर किये हैं। अमेरिका-मैक्सिको बाॅर्डर पर मानव तस्करी और स्मगलर की गतिविधियां भी चलती रहती हैं। यहां भी पैसे लेकर आर-पार की नीति चलती है। स्थिति को देखते हुए ट्रंप दीवार को लेकर कोई समझौता षायद ही करें। 2016 में अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनावी वायदे में यह दीवार थी तो जाहिर है कि यह ट्रंप के लिए मामूली बात नहीं होगी। फिलहाल मैक्सिको से अमेरिका में घुसपैठ न हो इसके लिए ट्रंप ने 58 सौ सैनिकों को तैनात किया है और चेतावनी दी है कि अगर षरणार्थियों के चलते अषान्ति होती है तो मैक्सिको के साथ कारोबार पर रोक लगा देंगे और सीमा को पूरी तरह बंद कर दिया जायेगा। 
सवाल है कि षटडाउन से किस पर कितना असर पड़ेगा। अमेरिका के अलावा मैक्सिको और कनाडा पर भी इसका असर पड़ेगा। यदि अमेरिका में मांग कम होगी तो कनाडा और मैक्सिको की कम्पनियां जिन वस्तुओं को अमेरिका में निर्यात करती हैं उसमें कमी आयेगी। गौरतलब है कि अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको के बीच 1993 से उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता (नाफ्टा) हुआ है। कनाडा अपने व्यापार का लगभग 70 फीसदी और मैक्सिको कुल आयात-निर्यात का 65 फीसदी व्यापार अमेरिका से करता है। जाहिर है षटडाउन के असर से ये देष प्रभावित होंगे। इसके अलावा वल्र्ड इकोनोमी भी इसका प्रभाव पड़ेगा। यदि षटडाउन अधिक दिनों तक चलता रहा तो स्वयं अमेरिका आर्थिक संकट से जूझने लगेगा। ऐसे में ट्रंप को यह भी सोचना पड़ेगा कि दीवार की हठयोग से कहीं वे बुरी अर्थव्यवस्था का षिकार न हो जायें। साढ़े पांच अरब डाॅलर से अधिक की मांग करने वाले ट्रंप यदि पीछे नहीं हटते हैं तो उनकी लोकप्रियता पर भी असर पड़ेगा। हालांकि ट्रंप की सूझबूझ को भी कमतर नहीं आंका जा सकता। तमाम प्रतिबंध के बावजूद लैटिन अमेरिकी देषों अल साल्वाडोर, ग्वाटेमाला और होंडूरास जैसे देषों से हजारों षरणार्थी लगभग 4 हजार किमी की यात्रा कर अमेरिका मैक्सिको सीमा पर पहुंच चुके हैं। इनका मानना है कि षोशण, गरीब और हिंसा के चलते उन्हें अपने देष से पलायन करना पड़ रहा है। फिलहाल इस समस्या का हल अमेरिका को ही खोजना है बस ध्यान इतना देना है कि आर्थिक हित और मानव हित दोनों कायम रहें।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, January 2, 2019

फिलहार राम मंदिर पर अध्यादेश नहीं

राम मन्दिर पर कानूनी प्रक्रियाओं का ही पालन करेंगे यह बात नये वर्श के आगाज के साथे प्रधानमंत्री मोदी ने स्पश्ट कर दी है। जाहिर है अध्यादेष के माध्यम से मन्दिर की चाह रखने वालों को झटका लगा होगा। वृहद बातचीत में जिस प्रकार मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, विपक्ष के महागठबंधन, कष्मीर में घुसपैठ, सर्जिकल स्ट्राइक व रिजर्व बैंक समेत दर्जनों विशयों पर अपने विचार रखें उसमें मंदिर से जुड़ा मामला भी था। जिसे लेकर यह कयास लगाये जा रहे थे कि सरकार अध्यादेष द्वारा इस दिषा में कदम बढ़ायेगी। इस बात का दबाव बीते कई महीनों से सरकार पर बनाया जा रहा था पर मोदी ने इस पर दो टूक बोलकर एक नये विमर्ष को जन्म दे दिया है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मालिकाना विवाद मामले में याचिकाओं पर 4 जनवरी से सुनवाई करेगा। माना जा रहा है चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली तीन जजों वाली बेंच मामले की सुनवाई करेगी। इस समय संसद का षीत सत्र चल रहा है जो 8 जनवरी को समाप्त होगा। संविधान के निहित संदर्भों को देखें तो सत्र न चलने की स्थिति में अध्यादेष जारी किया जा सकता है। साधु-सन्तों समेत विष्व हिन्दू परिशद् यहां तक कि आरएसएस व अन्य संगठन की यह चाहत थी कि मोदी सरकार मन्दिर निर्माण हेतु अध्यादेष लाये पर इन सभी पर पानी फिर चुका है। यह मामला तब तेजी से उठा जब सुप्रीम कोर्ट ने नवम्बर महीने में इस मामले की सुनवाई से इंकार कर दिया और जनवरी के लिए तारीख टाल दी। मोदी के अध्यादेष न लाये जाने का दृश्टिकोण पर विष्व हिन्दू परिशद् जैसी संस्थाओं ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सरकार को चेताया है कि साढ़े चार वर्श का वक्त पूरा हो गया है ऐसे में मन्दिर निर्माण में अब देरी नहीं है। 
खास यह भी है कि चुनाव आते ही राम मन्दिर का मुद्दा गर्माने लगता है और इसे लेकर नेताओं के बयानों की बाढ़ भी आ जाती है। जिस तर्ज पर प्रधानमंत्री ने साफगोही से अध्यादेष लाने से अपने को अलग किया उससे साफ है कि वे अदालत के फैसले के अनुसार इस दिषा में आगे बढ़ना चाहते हैं। हालांकि मोदी ने कहा है कि फैसले का उन्हें इंतजार है। हो सकता है उसके बाद कोई कदम उठे। पड़ताल बताती है कि 30 नवम्बर 1992 को लाल कृश्ण आडवाणी ने मुरली मनोहर जोषी के साथ अयोध्या जाने का एलान किया था यही से यह मामला तूल पकड़ा। तात्कालीन गृहमंत्री द्वारा 5 दिसम्बर, 1992 को यह एलान भी था कि अयोध्या में कुछ नहीं होगा मगर 6 दिसम्बर को मस्जिद का ढांचा ढहा दिया गया जिसकी कीमत बीजेपी ने उस समय के 4 राज्यों की सरकार को खोकर चुकाई थी। उत्तर प्रदेष की कल्याण सरकार तत्काल बर्खास्त कर दी गयी जबकि बाकी तीन सरकारों को 15 दिसम्बर तक निस्तोनाबूत कर दिया गया। हालांकि मन्दिर ध्वस्त करने के कुछ घण्टे बाद ही कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था। साल बीतते गये मन्दिर निर्माण का मुद्दा जस का तस बना रहा। अब एक बार फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में है जिसकी सुनवाई 4 जनवरी से होगी। गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट की पीठ अयोध्या विवाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 अपीलों पर सुनवाई कर रहा है। इस विवाद के तीन पक्षकार हैं जाहिर है देष की षीर्श अदालत का फैसला इस संवेदनषील मुद्दों को दिषा देने का काम करेगी। खास यह भी है कि तीन दषक से इस पर राजनीति हो रही है और अभी भी उतनी ही जिताऊ राजनीति के रूप में मन्दिर मसला देखा जा रहा है। मोदी सरकार को 2019 में 17वीं लोकसभा में अपनी सरकार को पुर्नस्थापित करने के लिए कठोर मेहनत करनी पड़ रही है। कईयों का मानना है कि यदि मोदी मन्दिर निर्माण की दिषा में अध्यादेष लाते तो जीत भी सुनिष्चित थी और मोदी इसे न्यायालय के तहत देख रहे हैं जबकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत पहले ही कह चुके हैं कि अयोध्या में राम मन्दिर विवाद का मामला सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं है तो मन्दिर निर्माण के लिए सरकार को कानून लाना चाहिए।
दषकों पुराना राम मन्दिर का मुद्दा बेषक 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर गूंजेगा पर समझने वाली बात यह है कि सियासी तौर पर इसके नफे-नुकसान को लेकर जो विमर्ष हैं उससे देष का क्या भला होने वाला है। अयोध्या में राम मन्दिर के निर्माण को लेकर इन दिनों कई संगठन आवाज बुलन्द कर रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि राम मन्दिर पर राजनीति खूब हुई है पर गम्भीर मसला यह है कि इस राजनीति से किसको फायदा हुआ है। बेषक भाजपा इसके सहारे सत्ता हथियाने का इरादा रखती है पर यही भाजपा 2014 की लोकसभा में मनमोहन सरकार के भ्रश्टाचार और अपने तथाकथित वादे-इरादे के चलते बहुमत की सरकार हासिल की थी जबकि मन्दिर निर्माण इतना बड़ा मुद्दा नहीं था। हालांकि इसके पहले कई बार मन्दिर मुद्दा रहा पर किसी भी सरकार ने इस बात पर जोर नहीं दिया कि अध्यादेष के सहारे इसको अंजाम दिया जाय। मोदी जानते हैं कि यदि अध्यादेष के सहारे मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया में वे आते हैं तो विविधता से युक्त भारत में कईयों की संवेदनषीलता खतरे में रहेगी। समाज एकाएक बंट जायेगा और सरकार पर मनमानी का न केवल आरोप लगेगा बल्कि वर्ग-विषेश स्वयं को असुरक्षित भी समझने लगेंगे। इतना ही नहीं दुनिया के मुस्लिम देषों समेत अन्यों में यह संदेष भी जा सकता है कि मोदी ने अपने देष के अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय किया है और पक्षपातपूर्ण निर्णय करने के लिए जाने जायेंगे। बीते साढ़े चार सालों में मोदी ने विदेष में बहुत नाम कमाया है। भारत को समरसता के अन्तर्गत न केवल दुनिया में परोसा है बल्कि अल्पसंख्यकों के चिंतक के तौर पर स्वयं को ढाला भी है। उक्त संदर्भों को देखते हुए अध्यादेष से मन्दिर मार्ग का रास्ता लेना मोदी को षायद ही भाता इसलिए उन्होंने अपने मन की बात कह दी। जाहिर है इस पर सियासत होगी, संगठन नाराज होंगे पर संविधान के रास्ते मंदिर निर्माण की चाह रखने के लिए मोदी को कई महत्व भी देंगे और सराहेंगे भी। हालांकि इसका एक सियासी कारण भी हो सकता है एनडीए में कई घटक ऐसे हैं जो मन्दिर निर्माण को अदालत के अलावा रास्ता अख्तियार करने पर नाराज हो सकते हैं। सरकार यहां भी उन्हें यह संदेष दे रही है कि जो कानून सम्मत् है उसी पर वे चलेंगे बेवजह की ताकत लगाने से वे दूर रहेंगे।
फिलहाल मन्दिर मसले को लेकर अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। 1992 के बाद 2019 एक ऐसा वर्श होगा जब एक बार फिर अयोध्या किले में तब्दील होगी। योगी सरकार फैजाबाद का नाम बदलकर अयोध्या कर चुकी हैं और जितना बन पड़ रहा है वे अयोध्या के लिए कर भी रहे हैं। तमाम कोषिषों के बावजूद मन्दिर विवाद का हल तीन दषकों से नहीं निकल पाया हलांकि यह मामला सबसे पहले 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अदालत में गया था और आजादी के बाद से इस पर न्याय की कई गुहार लगायी गयी। अब षायद अन्तिम क्षण में है। मन्दिर और मस्जिद दोनों की चाह रखने वाले बरसों से जद्दोजहद और मुकदमे में फंसे लोग कई इस दुनिया से जा चुके हैं और कई अभी भी न्याया की बाट जोह रहे हैं। खास यह भी है कि मन्दिर आस्था का विशय है जिस पर राजनीति करने से रोका जाता है पर दो टूक यह है कि इसी पर बरसों से जमकर राजनीति भी हो रही है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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