Wednesday, September 26, 2018

--- तो कैसे अपराधविहीन होगी राजनीति!

....तो कैसे अपराधविहीन होगी राजनीति!
जब देष की शीर्ष अदालत यह कहती है कि राजनीति में अपराधीकरण का होना विनाषकारी और निराषाजनक है तब यह सवाल पूरी ताकत से उठ खड़ा होता है कि अपराधविहीन राजनीति आखिर कब? साथ ही यह भी कि इसकी स्वच्छता को लेकर कदम कौन उठायेगा? सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और संसद को ही एक प्रकार से इसकी सफाई की जिम्मेदारी दे दी है। अब देखना यह है कि इस अवसर को ये संस्थायें किस तरह भुनाती हैं। राजनीति की सुचिता और नेताओं के आचरण पर सवाल अक्सर उठते रहे हैं पर ऐसा अवसर षायद ही कभी रहा हो कि जब उन्हीं पर भरोसा किया गया जहां अपराध व्याप्त है। उच्चत्तम न्यायालय ने सीधे तौर पर कह दिया है कि अपराधिक पृश्ठभूमि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से वह नहीं रोक सकता। जाहिर है कि मुख्य न्यायाधीष दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधानपीठ ने विधायिका के दायरे में घुसने से स्वयं को रोक दिया है मगर कई प्रमुख बिन्दुओं की ओर संकेत देकर यह भी जता दिया कि राजनीति में वर्चस्व को प्राप्त कर चुके अपराध से षीर्श अदालत कहीं अधिक चिंतित है। अदालत के सुझाये बिन्दु जिसमें हर उम्मीदवार को नामांकन पत्र के साथ षपथ पत्र में अपने खिलाफ लगे आरोपों को मोटे अक्षरों में लिखने की बात निहित है साथ ही पार्टियों को उम्मीदवारों पर लगे आरोपों की जानकारी वेबसाइट पर मीडिया के माध्यम से जनता को देनी होगी इसके अलावा उम्मीदवारों के नामांकन दाखिल करने के बाद कम से कम तीन बार पार्टियों की ओर से ऐसा किया जाना जरूरी है और अदालत ने यह भी सुझाया कि जनता को यह जानने का हक है कि उम्मीदवार का इतिहास क्या है। 
यह एक गम्भीर विशय है कि देष की राजनीति में बाहुबल, धनबल समेत अपराध का खूब मिश्रण हो गया है। देष की सबसे बड़ी पंचायत में अगर एक तिहाई सदस्य अपराधिक आरोपों से लिप्त है तो नागरिकों का भविश्य क्या होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इससे भी ज्यादा गम्भीर चिंता का विशय यह है कि सत्तासीन भाजपा के जनप्रतिनिधि इस मामले में सबसे ऊपर हैं जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस इसके बाद आती है। सवाल दो हैं पहला यह कि अपराध को राजनीति में किसने प्रवेष कराया, दूसरा इसे फलने-फूलने का अवसर किसने दिया। कांग्रेस को सबसे अधिक करीब छः दषक सत्ता चलाने का अनुभव है। जाहिर है अपराध का वास्ता और समतल रास्ता इन्हीं के दौर में खुला। भाजपा कई बार गठबंधन के साथ सत्ता में रही पर मौजूदा मोदी सरकार के काल में अपराध मुक्त विधायिका की संकल्पना थी पर हकीकत कुछ और है। पड़ताल बताती है कि लोकसभा के 542 सांसदों में 179 के विरूद्ध अपराधिक मामले हैं इनमें 114 गम्भीर अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसी तरह राज्यसभा में 51 के खिलाफ अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं यहां भी 20 गम्भीर अपराध की सूची में षामिल हैं। चैकाने वाला तथ्य यह है कि भाजपा के सांसदों में सर्वाधिक 107 ने अपराधिक मामलों की घोशणा की है और 64 पर गम्भीर मामले चल रहे हैं। कमोबेष कांग्रेस, एआईडीएमके, सीपीआईएम, आरजेडी, टीडीपी, एनसीपी, बीजेडी, इनलो, सपा व बसपा के इक्का-दुक्का ही सही किसी न किसी सदस्य पर इसी प्रकार का आरोप है। इससे भी बड़ा चैकाने वाला सत्य यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में महाराश्ट्र के सांसद और विधायक सबसे ऊपर हैं। भड़काऊ भाशण हत्या, अपहरण समेत कई मामलों में माननीय इसमें लिप्त देखे जा सकते हैं। उच्चत्तम न्यायालय की यह बात गौर करने वाली है कि 1993 के मुम्बई धमाके में अपराधी, पुलिस, कस्टम अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ सबसे ज्यादा महसूस हुआ। ऐसे में सम्भव है कि कहीं न कहीं ऐसे गठजोड़ ने राजनीति में अपराधीकरण को संबल प्रदान करने का काम किया जो लोकतंत्र के लिहाज़ से बहुत घातक है। 
राजनीति में अपराध का धुंआधार चलन पर डेढ़ दषक पीछे चलें तो पता चलता है कि साल 2004 से 2014 के दौरान सम्पन्न संसद और विधानसभा के चुनाव में कुल 62847 उम्मीदवार चुनाव लड़े जिसमें 11063 पर अपराधिक मामले चल रहे थे जो गणना में 18 फीसदी होते हैं। इसमें से आधे प्रत्याषियों पर जघन्य अपराध के मामले थे। सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की रिपोर्ट के जरिये देष के सामने राजनीति के अपराधीकरण की जो तस्वीर रखी वह होष पख्ता करने वाले हैं। अपराधियों की श्रेणियों में बंटवारा किया जाय तो सर्वाधिक 31 फीसदी हत्या या हत्या के प्रयास व गैर इरादतन हत्या के आरोप से लिप्त है। 14 फीसदी ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के अपहरण का मामला है और इतने ही जालसाजी के आरोप से घिरे हैं। दुराचार से जुड़े अपराध जहां चार फीसदी हैं वहीं चुनाव में कानून तोड़ने वाले पांच फीसदी बताये जा रहे हैं। रोचक यह है कि 2004 में निर्वाचित लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या 24 फीसदी थी जो 2009 में बढ़कर 30 फीसदी हो गयी। गम्भीर यह भी है कि देष के मौजूदा विधायकों में 31 फीसदी पर अपराधिक मामले हैं उत्तर प्रदेष इस पर सबसे ऊपर है। सवाल तो फिर उठेंगे कि संसद और विधानसभाएं दागियों से कब मुक्त होंगी। जब कोई भी राजनीतिक दल सत्ता की फिराक में अपने एजेण्डे को जनता के सामने रखता है तो यह बात पूरे मन से कहता है कि दागियों से न उसका वास्ता है और न उसे टिकट दिया जायेगा फिर आखिर इतने खेप के भाव सदन में दागी क्यों पहुंच जाते हैं। सम्भव है कि जनता से बहुत कुछ छुपाया जाता है इसलिये षीर्श अदालत ने उम्मीदवारों का इतिहास जनता के सामने रखने का सलाह दिया वो भी तीन बार बताने की बात कही। षीर्श अदालत के हालिया दृश्टिकोण से कई राजनीतिक अपराधी यह सोच रहे होंगे कि अदालत इस मामले में अब कुछ करने नहीं जा रही जबकि सच्चाई यह है कि अदालत की अपनी कुछ स्थितियां होती हैं एक तो कानूनी दायरे में रहकर फैसला देना, दूसरे मौजूदा कानून की खामियां बता उन्हें दूर करने की सलाह देना। षीर्श अदालत ने इन दोनों का अनुपालन किया अब काम विधायिका के साथ राजनीतिक दलों और जनता के जिम्मे है। यदि राजनीति से अपराधीकरण को लेकर अभी भी ये षून्य में रहे तो तबाही तय है। 
सवाल यह रहता है कि दागियों को राजनीति से खत्म करने के लिये कानून कहां है? जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 ऐसे अपराधों की सूची है जिसमें अयोग्यता की दो श्रेणियां हैं पहला भ्रश्टाचार निरोधक जैसे कानून जिसमें दोशी पाये जाने पर व्यक्ति अयोग्य हो जाता है जबकि दूसरी श्रेणी में सजा की अवधि अयोग्यता तय करती है। दर्जन भर ऐसे कानून हैं जिनमें सिर्फ जुर्माने पर 6 साल और जेल होने पर सजा पूरी होने के 6 साल बाद तक चुनाव पर पाबंदी है। लालू प्रसाद यादव, सुरेष कलमाड़ी, रसीद मसूद, ओमप्रकाष चोटाला, अजय चोटाला, ए राजा समेत दर्जनों ऐसे प्रतिबंध के दायरे में मिल जायेंगे। सवाल इसका नहीं है सवाल उसका भी है जो दल जात-पात, क्षेत्रवाद और जिताऊ उम्मीदवार को ध्यान में रखकर अपनी सियासी चाल चलते हैं और उन्हें टिकट देते हैं जो दर्जनों अपराधिक कृत्यों से आरोपित हैं। मौजूदा मोदी सरकार से लोगों को यह उम्मीद थी कि कम से कम इनके दौर में पारदर्षी और अपराधविहीन राजनीति होगी पर यहां भी निराषा और अंधकार ही है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेष से राजनीति का अपराधीकरण फिर चर्चे में भले आया हो पर इस पर ठोस कार्यवाही होगी इसे लेकर उम्मीद कम ही है। फिलहाल जिन्हें देष चलाने की जिम्मेदारी है यदि वही आकंठ भ्रश्टाचार और अपराध में डूबे रहेंगे तो संविधान और लोकतंत्र का क्या होगा। सबके बावजूद दागी सदन में न पहुंचे और यहां अपराधविहीन सदस्य हों इसकी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों और माननीयों को ही लेनी होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, September 25, 2018

डॉलर ओर तेल पर फ़ेल विपक्ष

कमबख्त अंतर्राष्ट्रीए परिस्थितियां देश की जनता से पता नहीं किस जनम का बदला ले रही हैं। कि न डाॅलर की हैसियत गिर रही है और न ही तेल की कीमत आसमान से जमीन पर आने का नाम ले रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि विपक्ष फेल हो गया है इसका मतलब साफ है उनकी सरकार पास हो गयी है। बीजेपी के अध्यक्ष अमित षाह पहले ही कह चुके हैं कि भाजपा की 50 साल अर्थात् 2069 तक सरकार रहेगी। हो सकता है कि तब तक ही कुछ भला हो जाय वैसे पेट्रोल, डीजल महंगा होने, डाॅलर के मुकाबले रूपए के धूल चाटने और नौकरियों के घोर आभाव के बाद भी यदि भाजपा को जनता का अपार समर्थन मिल रहा है तो किसी के पेट में मरोड़ क्यों हो रहा है। सबके लिये यह बात समझना सही रहेगा कि इस देष में 1969 में पहली बार विपक्ष का अवतार हुआ था। तब से लेकर अब तक सरकार के किसी भी ऐसे नियोजन जिससे जनता पीड़ित हुई है या कठिनाई में गयी हो मसलन महंगाई, गरीबी, बीमारी, बेरोज़गारी इत्यादि पर विपक्ष ने जोर-जोर से आवाज़ लगायी है। सभी जानते हैं 1975 में अषान्ति को आधार बनाकर देष में जब राश्ट्रीय आपात थोपा गया तब कांग्रेस की चूल्हें 1977 के चुनाव में हिल गयी थीं। पहली बार गठबंधन की ही सही और अल्प समय के लिये ही सही मोरारजी देसाई के नेतृत्व में कांग्रेस के विरूद्ध एक सरकार बनी थी। 1989 में भी इसी प्रकार का एक इतिहास दोहराया गया। यह सिलसिला 2004 अटल बिहारी वाजपेयी तक जारी रहा। हालांकि 1991 से 1996 के बीच कांग्रेस की सरकार आयी थी और मोदी सरकार से ठीक पहले  2004 से 2014 तक भी गठजोड़ की ही सही मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस के विरूद्ध लामबद्ध होने वाले आज मोदी सरकार के विरूद्ध लामबद्ध हो रहे हैं। यह इस बात का द्योतक है कि देष की बहुत मजबूत सरकारों में लोकतांत्रिक विधा के अन्तर्गत रहते हुए सुविधा के साथ कई दुविधायें भी पैदा करने के जिम्मेदार रहे हैं। मोदी सरकार भी एक मजबूत सत्ता का द्योतक है और ऐसी सत्ताओं ने समय-समय पर क्या किया है यह पन्ना पलट कर आप देख सकते हैं और इनके सामने विपक्ष का फेल होने का भी इतिहास कमोबेष देखा जा सकता है। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू विपक्ष के लिये तरसते रहे और मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस विहीन भारत चाहते हैं। दूसरे अर्थों में षायद विपक्ष विहीन सत्ता चाहते हैं। तेल की मार और डाॅलर के मुकाबले गिरते रूपए को लेकर भारत बंद करने वाले विपक्षी कांग्रेस समेत बीस पार्टियां कहां गयी जबकि तेल आसमान छू रहा है और डाॅलर के मुकाबले रूपया कीचड़ में धसा जा रहा है। साफ है विपक्ष फेल हो गया है।
जब तेल की बात आती है तो सरकार इससे पल्ला झाड़ लेती है और रूपया जब डाॅलर के सामने धूल चाटता है तब भी सरकार बाहरी दबाव बता कर दरकिनार हो जाती है। आखिर बदहवास स्थिति में हो चुके इन दोनों परिस्थितियों को कौन काबू करेगा। पेट्रोल, डीजल के दाम रोज़ बढ़ रहे हैं। मुम्बई जैसे महानगरों में यह 90 पार करके षतक के फिराक में है। मुम्बई समेत दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और देष के सभी छोटे-बड़े षहरों में पेट्रोल और डीजल आसमान छूने के कगार पर है। दो जून की रोटी कमाने वाले टैम्पो या आॅटो चलाने वाले की पीड़ा भी सड़कों पर ही रौंधी जा रही है। रोजमर्रा की जिन्दगी में चीजें उथल-पुथल में गयी हैं जबकि रूपया की बिगड़ती हालत के चलते बदल रही आर्थिक स्थिति लोगों के स्नायु तंतुओं को सिकोड़ कर रख दिया है। सवाल है कि डाॅलर के मुकाबले रूपया क्यों गिरता जा रहा है। रूपया 72 के पार चला गया है। वैसे घबराने की कोई बात नहीं है एक केन्द्रीय मंत्री ने कहा था कि यदि यह 80 तक भी चला जाय तब भी कोई दिक्कत नहीं है। कमोबेष यह भविश्यवाणी भी सही साबित हो रही है। विपक्ष के भारत बंद होने के बाद भी रूपए का गिरना बंद नहीं हुआ और पेट्रोल डीजल के दाम का चढ़ना बंद नहीं हुआ। गौरतलब है कि भारत का रूपया इस साल के 9 महीने में 12 प्रतिषत गिर चुका है और यह सिलसिला अभी भी जारी है। 2014 में कहा गया था कि एक डाॅलर 40 रूपया का हो जायेगा और कुछ ने यह भी कहा था कि पेट्रोल 35 रूपये लीटर हो जायेगा। मगर आसमान छूते तेल की हालत और डाॅलर की स्थिति को देखते हुए उनकी भी जबान को मानो जंग लग गया हो। यह बात पूरी तरह तार्किक कैसे माना जाय कि सरकार पर इसका कोई जोर नहीं। जो अर्थव्यवस्था को सही से नहीं जानते वे भविश्यवाणी कर रहे हैं और जो समझते हैं उनकी कोई सुन नहीं रहा। कई देषों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है जिसके चलते निवेषक अपना पैसा निकालकर डाॅलर खरीद रहे हैं फलस्वरूप डाॅलर महंगा होता जा रहा है। भारत की तेल कंपनियां भी कच्चे तेल के दाम बढ़ने की आषंका से डाॅलर खरीद रही हैं। आर्थिक ज्ञान के अंतर्गत समझें तो साफ है कि नुकसान तो कुल मिलाकर रूपए का और रूपए वाले का ही हो रहा है। आखिर यह आषंका कहां से आयी ये अन्तर्राश्ट्रीय परिस्थितियां कब तक रहेंगी। देष की अर्थव्यवस्था देष के लोगों से चलती है और देष के लोग पीड़ा में हैं तो उम्मीद भी धुंधली होती है इतनी सी बात सरकार को षीघ्र समझ में क्यों नहीं आती। जिस तेल पर देष में राजनीतिक खेल होते रहे आज वही तेल लोगों के लिये मुसीबत का सबब बना हुआ है। 
यह बात कितनी सहज है कि हर मोर्चे पर सरकार अपनी पीठ थपथपाये चाहे देष की जनता त्राहीमान-त्राहीमान ही क्यों न करती हो। बीते 4 साल में तेल पर मनमोहन सरकार की तुलना में दोगुना टैक्स लगाने वाली मोदी सरकार एक रूपया भी एक्साइज़ ड्यूटी घटाने के मूड में नहीं दिखती जबकि सच्चाई यह है कि 9 बार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ा चुकी है। बीते अप्रैल से ही कहा जा रहा है कि डीज़ल, पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जायेगा। जीएसटी काउंसिल की बैठक में इसका फैसला होगा। जीएसटी काउंसिल की बैठकें चलती रहती हैं जबकि तेल दरकिनार बना रहता है। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव सरकार पर है पर वित्त मंत्रालय इसे लेकर कुछ भी सोचना नहीं चाहता। बजटीय घाटा नियंत्रित करने के लिये सरकार को राजकोश नियंत्रित करना ही होगा जिसके कारण भी यह सब सरकार के लिये करना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक लीटर तेल की कीमत यदि सरकार एक रूपया घटाती है तो 13 हजार करोड़ का घाटा तुरन्त हो जायेगा। सुहाने सपने दिखाने वाली सरकारें जनता को मुसीबत में डाल कर जब पलायन करती है तो लोकतंत्र हाषिये पर चला जाता है। मोदी सरकार हो सकता है कुछ अच्छा कर रही हो पर मौजूदा समय में जो दिख रहा है बात उस पर हो रही है। लोकतंत्र में लोककल्याण की बात होती है सत्ताधारकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता उनसे बेहतर जिन्दगी की उम्मीद रखती है। फिलहाल सरकार की बात तो सरकार जाने पर कुछ बात तो विपक्ष को भी समझनी होगी। मुख्य विपक्षी कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके षासन काल में रसोई गैस, पेट्रोल और डीजल के दामों में जब-जब बढ़ोत्तरी हुई तब-तब जंतर-मंतर से लेकर इण्डिया गेट तक मौजूदा सत्तासीन भाजपाई विरोध का हथियार उठा लेते थे और कहीं न कहीं इसमें वे कामयाब भी रहते थे पर कांग्रेस को विपक्ष का कोई तजुर्बा नहीं। न तो सरकार की अतिवादिता से वह जनता को बचा सकती है और न ही महंगाई से निजात दिला सकती है। जितनी सरकार जिम्मेदार है उतना ही षायद विपक्ष भी।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, September 20, 2018

भारत के भविष्य पर संघ का लेखा परीक्षण

एक सच्चाई यह है कि राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर अपने संगठन को अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा किया और हिन्दू समाज के धार्मिक स्वभाव को मान्यता दिया मगर इसी संघ पर यह आरोप भी रहा है कि राश्ट्रपिता गांधी के हत्यारे नाथू राम गोड्से को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इनका समर्थन था। बड़ा सच यह है कि जाति, भाशा और क्षेत्रीय पहचान को चुनौती दिये बिना जो संस्था व संगठन निर्मित होते हैं वह लोक कल्याण उन्मुख कहे जाते हैं। आरएसएस को क्या इस प्रकार के संगठन के तौर पर देखा जाना चाहिए जबकि हिन्दू पहचान को महत्व देना इनकी रणनीति रही है। वैसे सरसंघचालक मोहन भागवत का हालिया दृश्टिकोण देखें तो उसमें वह सब मिलता है जो राश्ट्र निर्माण, समाज निर्माण तथा समरसता समेत कल्याण के लिये जरूरी बिन्दु होते हैं। संघ ने भारत के भविश्य को लेकर अपना दृश्टिकोण प्रस्तुत करने के साथ ही अपनी नीतियों, उद्देष्यों और क्रियाकलापों के बारे में जिस तरह प्रकाष डाला है उससे देखते हुए यह कह सकते हैं कि संघ के प्रति लोगों की सोच बदलेगी। कम से कम उन लोगों पर यह प्रभाव जरूर डालेगा जो संघ के बारे में कई तरह की गलत फहमी पाले हुए थे। जब मोहन भागवत कहते हैं कि आरक्षण नहीं, आरक्षण पर होने वाली राजनीति समस्या है तो बहुत संवेदनषील स्थिति पैदा होती है। इतना ही नहीं हिन्दू, मुस्लिम के बीच की दूरी कम करने के लिये मन्दिर निर्माण को जरूरी बताने वाले सरसंघचालक कहीं न कहीं साम्प्रदायिक झगड़े को समाप्त करना, समरसता को बढ़ावा देने की ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि इस मामले में राय अलग हो सकती है पर इसमें कोई दुविधा नहीं कि कई मुस्लिम संगठन राम मंदिर के पक्षधर हैं और लाखों-करोड़ों मुसलमान इस झगड़े को राम मन्दिर के रूप में स्थापित कर समाप्त भी करना चाहते हैं। मोहन भागवत ने अल्पसंख्यकों को संघ से भयावह रखने पर भी अपनी बेबाक राय दी उनका कहना है कि संघ अल्पसंख्यक षब्द को ही नहीं मानता और भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है। वाकई ये सभी समरसता और सद्भावना के काम आ सकते हैं। 
औपनिवेषिक भारत के उन दिनों जब भारत राश्ट्रीय आंदोलन की मजबूत नीतियों और उसके क्रियान्वयन के प्रति संकल्पबद्ध था और गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर आजादी की आबो हवा तलाष रहा था तब उसी समय आरएसएस जैसे संगठन का भी उदय हो रहा था जो हिन्दुत्व की भावना से ओतप्रोत एक राश्ट्र की अवधारणा को लेकर आगे बढ़ने की फिराक में थे। साल 1975 के आपात में आरएसएस को प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हालांकि प्रतिबंध इसके पहले भी उस पर लगाये जा चुके थे पर अपनी विचारधाराओं से न डिगने वाला यह संगठन आज देष और दुनिया में कहीं अधिक सबलता के साथ सक्रिय है। आज देष में आरएसएस की 50 हजार से अधिक दैनिक सभायें होती हैं इसके साथ ही अन्य सामूहिक बैठकों के अलावा 30 हजार साप्ताहिक बैठकें भी होती हैं जिसमें लगभग 10 लाख लोग षामिल होते हैं। यही एक समान विचारों के साथ आरएसएस के एजण्डे को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। हालिया परिप्रेक्ष्य में जिस प्रकार आरएसएस के संघ संचालक ने दर्जनों मुद्दों पर अपनी राय दी है उससे साफ है कि कईयों का मन सकारात्मक हुआ होगा। यह सही है कि आरएसएस को एक दबाव समूह के रूप में देखा जाता है पर इसी संस्था ने उन हजारों नागरिकों को अच्छे काज के लिये प्रेरित किया है जो सबसे पीछे पंक्ति में थे। देखा जाय तो षहरी और सभ्य समाज में ही नहीं ग्रामीण क्षेत्र व आदिवासी समेत हर क्षेत्र में आरएसएस की पहुंच है। इतना ही नहीं भारत के अलावा विदेषों में भी अपने नेटवर्क को फैलाया है और 100 से अधिक देषों में इसकी मौजूदगी है। जहां इन जगहों पर दौरा किया जाता है और प्रवासियों की हालात का जायजा लेते हुए उन्हें प्रेरित भी करता है।
मिषनरी उत्साह से भरपूर निःस्वार्थ और समर्पित, कार्यबल, परम्पराओं की गहरी जड़ें, मूल्य और सिद्धांतों को लेकर आरएसएस अपने को कहीं अधिक ताकतवर मानती है। इसी ताकत का फायदा राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी उठाती है। इतना ही नहीं एजेण्डे से भटकने पर आरएसएस का दबाव ऐसी सरकारों पर रहा है। भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा मोदी सरकार आरएसएस के प्रभाव से मुक्त नहीं है मगर खास यह है कि मोदी को सरसंघचालक मोहन भागवत का समर्थन बीते चार वर्शों से मिल रहा है। मोदी के कार्यों को संघ मान्यता देता रहा है। हालांकि विचारों की टकराहट भी कुछ बिन्दुओं पर हो सकती है पर संघ और सरकार दोनों के सुर-ताल इन दिनों आपस में खूब मेल खा रहे हैं। एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से आरएसएस के दबाव को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने बड़े हल्के अंदाज में कहा कि उन्हें इस प्रकार के दबाव से कोई लेना-देना नहीं पर यही बात पूरी तरह मोदी पर षायद लागू न होती हो। नागपुर से दिल्ली और पूरे देष समेत दुनिया के कई हिस्सो में पहुंचा संघ अब कई अन्य विचारधारा को भी अपनाने से गुरेज नहीं कर रहा। पूर्व राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नागपुर में आयोजित संघ के अतिथि बन चुके हैं तब उन दिनों कांग्रेस बहुत संकट महसूस कर रही थी मगर जब प्रणव दा ने संघ के मंच से संतुलित विचार रखा तब कांग्रेसी समेत सभी के चेहरे से षिकन दूर हुआ था। गौरतलब है कि 18 सितम्बर को दिल्ली के विज्ञान भवन में आरएसएस का तीन दिवसीय मंथन चला जिसमें संघ के लोग देष के भविश्य पर चर्चा कर रहे थे जिसका विशय था भारत का भविश्य: राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दृश्टिकोण। चर्चा के पहले दिन सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपना दृश्टिकोण रखा जिसमें उक्त समेत कई बातें उभरी। एससी/एसटी एक्ट से लेकर जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए पर भी गम्भीरता से चर्चा हई। तीन तलाक के मुद्दे पर भी यहां पर मंथन हुआ है। समलैंगिकता व धारा 377 पर भी संघ के मत का लेखा-जोखा देखा जा सकता है। समान नागरिक संहिता और जनसंख्या को लेकर क्या नीति होनी चाहिए इस पर भी बात हुई है। महिलाओं की सुरक्षा, स्वदेषी और स्वराज समेत दर्जनों मुद्दों पर घण्टों मोहन भागवत ने अपना उद्घोश दिया।
भविश्य का भारत क्या होगा इस पर भी दृश्टिकोण साफ हुए हैं। यह पहले कह चुके हैं कि संघ के दबाव में सरकारों रही हैं उसका मूल कारण संघ का जनमत पर सियासी प्रभाव का होना है। भाजपा संघ की ही एक इकाई है। मोदी भाजपा समेत एनडीए गठबंधन वाले राजनीतिक दल से प्रधानमंत्री हैं। सरसंघचालक जो कह रहे हैं उसे सरकार समझ रही है और संघ जो समझा रहा है वह भी आमजन जानते हैं कि इससे आने वाले चुनाव और मौजूदा मोदी सरकार के लिये राह कैसी होगी। सवाल मन में यह उठता है कि क्या संघ द्वारा उठाई गयी बातें सरकार की परछाई नहीं है सम्भव है कि मोदी इसे टाल नहीं सकते और संघ संचालक देष की स्थिति, परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए, हिन्दुत्व और राश्ट्रीयता को महत्व देते हुए किसी को नाराज़ भी आखिर क्यों करेंगे। इसमें भी कोई दुविधा नहीं कि भाजपा के नेतृत्व की साख फिलहाल दांव पर नहीं है पर यह भी एक कटु सत्य है कि जनता 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी से 2014 में किये गये वादे का हिसाब मांगेगी जिसका किला मजबूत करने में इन दिनों आरएसएस बाकायदा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर काम कर रहा है। 2019 की सरकार भी मोदी के हिस्से में आये इसकी जोर-आज़माइष में संघ भी षामिल है। विभिन्न मुद्दों पर तीन दिनों के मंथन का लेखा परीक्षण यही इषारा करता है कि देष में आरएसएस के प्रति लोगों का दृश्टिकोण न केवल सबल करना है बल्कि भारत का भविश्य बेहतर करने के लिये मोदी को पुर्नस्थापित भी करना है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, September 17, 2018

स्वच्छता का पूरक समवेशी विकास

देश में स्वच्छता को लेकर जो आंकड़े गिनाये गये हैं उससे पता चलता है कि साल 2014 में जो साफ-सफाई और स्वच्छता कवरेज 40 फीसदी पर थी वह अब 90 फीसदी हो चुकी है और पूरे देष में 9 करोड़ शौचालय  बन चुके हैं। मौजूदा सरकार इसे लेकर सजग भी है और इतरा भी रही है। इसमें कोई षक नहीं कि स्वच्छता से सेहत में सुधार हुआ होगा और हो रहा है साथ ही आर्थिक पहलू भी मजबूत होंगे मगर इससे जुड़े कई और सामाजिक दक्षता तब तक अधूरी कही जायेगी जब तक स्वच्छता व समावेषी विकास का तारतम्य विकसित नहीं होता। स्वस्थ नागरिक देष के उत्पादन में वृद्धि कर सकता है, यहां के समावेषी विकास की अवधारणा को पुख्ता बना सकता है बषर्ते रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, षिक्षा, चिकित्सा जैसे तमाम बुनियादी आवष्यकताएं पूरी होती हों। जाहिर है इनकी कमी के चलते स्वच्छता भी हाषिये पर रहता है। कह सकते हैं कि स्वच्छता और समावेषी विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। चार साल पहले 2 अक्टूबर, 2014 को प्रधानमंत्री मोदी ने जिस स्वच्छता और साफ-सफाई की मुहिम चलायी थी वह कमोबेष एक आंदोलन का रूप लिया जरूर पर मन माफिक षायद ही रहा हो। हालांकि स्वच्छता सर्वेक्षण यह जता रहे हैं कि देष की तस्वीर बदली है। देष का सबसे स्वच्छ षहर एक बार फिर इंदौर घोशित हुआ जबकि मध्य प्रदेष की राजधानी भोपाल इस मामले में दूसरे नम्बर पर है और चण्डीगढ़ तीसरे नम्बर पर। स्वच्छता सर्वेक्षण 2018 में झारखण्ड को सर्वश्रेश्ठ प्रदर्षन करने वाला राज्य चुना गया फिर महाराश्ट्र और छत्तीसगढ़ का स्थान आता है। गौरतलब है कि देष के सभी 4200 षहरों में सफाई की स्थिति का इस सर्वेक्षण में आंकलन किया गया। पिछले साल केवल 434 षहरों को इसमें षुमार किया गया था जबकि साल 2016 में यह आंकड़ा 73 तक ही सिमटा हुआ था। देखा जाये तो अब तक े तीन सर्वेक्षण आ चुके हैं और साफ-सफाई के मामले में देष की स्वच्छता दर में दोगुनी से अधिक वृद्धि हुई है। सर्वेक्षण से यह भी पता चल रहा है कि कौन षहर सबसे साफ है और कौन सबसे गंदा। उत्तर प्रदेष का गोंडा और महाराश्ट्र का भुसावल सबसे गंदे षहरों में षामिल किये गये।
साफ सफाई के मामले में पूरब और पष्चिम के तमाम देष ऐसे मिल जायेंगे जहां गंदगी का कोई नामोनिषान नहीं है। जापान इस मामले में कहीं अधिक दीवानगी से भरा देष है। यहां रेस्तरां में जाने से पहले पहनने के हाथ पोशाक और चप्पलें दी जाती हैं। यूरोप में साफ-सफाई के मायने भी काफी अलग हैं। विष्व स्वास्थ संगठन और यूनिसेफ समेत कुछ एजेंसियों का ताजा-तरीन आंकड़ा यह है कि दुनिया के 2 अरब 30 करोड़ से अधिक लोगों को साफ-सफाई की मूलभूत सुविधायें मुहैया नहीं हैं। इनमें से करीब 90 करोड़ खुले में षौच जाते हैं। भारत में भी इस प्रकार की व्यवस्था पहले की तुलना में घटी है। दो टूक यह है कि भारत की 60 फीसदी से अधिक आबादी गांव में रहती है। स्वच्छता अभियान बीते 4 सालों में आंदोलित हुआ है पर जिस देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे और इतने ही अषिक्षित हों और जहां भारी पैमाने पर भोजन लोगों की मुख्य समस्या हो वहां स्वच्छता को सभी प्राथमिकता में ला पायें इसकी सम्भावना कम ही है। यही कारण है कि एक बार फिर मोदी को झाड़ू उठाना पड़ा। भारत में 93 फीसदी सैप्टिक टैंकों को कभी खाली नहीं किया गया। देष के 112 जिले के सर्वे यह बताते हैं कि खुले षौच में 10 फीसदी की वृद्धि होने से बच्चों का विकास 0.7 फीसदी अधिक अवरूद्ध होता है। देष में डायरिया के मामले में 30 फीसदी की कमी आने का अनुमान भी इन दिनों बताया जा रहा है। गंदगी और प्रदूशण से होने वाली मौतों में 3 लाख की कमी की बात हो रही है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि साफ-सफाई और स्वच्छता स्वास्थ का बड़ा हथियार है जिस मामले में भारत बरसों से फिसड्डी रहा है। इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी इसे 4 साल पहले एक अभियान का रूप दिया। बीते 15 सितम्बर को एक बार फिर 2 अक्टूबर गांधी जयंती को ध्यान में रखते हुए स्वच्छता ही सेवा मिषन को गति देने का प्रयास किया। स्वच्छता को लेकर मोदी के उठाये गये इस कदम की टाइमिंग को लेकर कई सवाल उठा रहे हैं कि पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी साथ ही आसमान पर पहुंच रहे डाॅलर के मुताबिक रूपये को देखते हुए मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने के लिये इस अभियान को अंजाम दिया गया। गौरतलब है कि इन दिनों पेट्रोलियम पदार्थ बहुत महंगे हैं और सरकार इसे बाहरी प्रभाव बताकर पल्ला झाड़ रही है। एक डाॅलर के मुकाबले रूपया भी 72 पार कर गया है जो अब तक के सबसे भीशण रूप अख्तियार कर चुका है। 
षोध यह इषारा कर रहे हैं कि भारत में स्वच्छता एक बड़े बाजार की सम्भावना समेटे हुए है जो साल 2020 तक 152 अरब डाॅलर का हो सकता है। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि इस वर्श में 15 अरब डाॅलर से अधिक हो सकती है। यह सही है कि साफ-सफाई के आभाव भारत में मरने वालों की संख्या अधिक है। गंदा पानी, रहन-सहन में प्रदूशण, षौचालयों इत्यादि समेत वातावरण में भी गंदगी का समावेष इसकी बड़ी वजह रही है। विष्व बैंक का षोध भी कहता है कि यदि षौचालय इस्तेमाल में वृद्धि किया जाय, साफ-सफाई और स्वच्छता को लेकर जागरूक हुआ जाय तो इसके असर को 45 प्रतिषत तक कम किया जा सकता है। इतना ही नहीं भारत करीब 33 अरब डाॅलर हर साल बचा सकता है जो देष के जीडीपी के एक बड़े हिस्से को प्रभावित कर सकती है। इतना ही नहीं प्रति व्यक्ति आय की मात्रा में भी 1321 रूपए की वृद्धि सुनिष्चित हो सकती है। गंदगी से क्या नुकसान हो सकते हैं इसका अंदाजा विष्व स्वास्थ संगठन के इस कथन से आंका जा सकता है जिसमें कहा गया कि माचिस की एक तीली जिस प्रकार सम्पूर्ण दुनिया को स्वाहा कर सकती है ठीक उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गंदगी भी महामारी फैला सकती है। 
स्वच्छता से किसी को गुरेज नहीं होना चाहिये प्रधानमंत्री के कहने का भी इंतजार नहीं करना चाहिए बल्कि षिक्षा से स्वच्छता की ओर चलना चाहिये। षहर के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी साफ-सफाई का मामला जोरो-षोरों पर है। सरकार 2 अक्टूबर, 2019 तक खुले में षौच मुक्त भारत को हासिल करने का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि इस वर्श राश्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं वर्शगांठ होगी जिन्हें स्वच्छता का द्योतक माना जाता है। फिलहाल बीते 15 सितम्बर को स्वच्छता ही सेवा के पखवाड़े की षुरूआत प्रधानमंत्री मोदी ने कर दी है जो 2 अक्टूबर तक अनवरत् चलता रहेगा। गौरतलब है लगभग 2 घण्टे चले कार्यक्रम में मोदी ने देष के अंदर आये बदलाव का जिक्र किया। 20 राज्य और 450 से ज्यादा जिले खुले में षौच से मुक्त कहे जा रहे हैं। इसके महत्व को भी उन्होंने इस कार्यक्रम के माध्यम से उजागर किया। फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन से लेकर रतन टाटा तक देष के कोने-कोने से कई साधु-संतों और संस्थाओं को कार्यक्रम से सीधे जोड़ा गया। इतना ही नहीं कार्यक्रम के बाद मोदी दिल्ली के पहाड़गंज स्थित बाबा साहेब अम्बेडकर हायर सेकेण्डरी स्कूल के परिसर में झाड़ू भी लगाया जिस पर सवाल भी उठे कि आखिर प्रधानमंत्री को एक बार फिर झाड़ू लगाने की आवष्यकता क्यों पड़ी। कहीं समावेषी विकास के आभाव में स्वच्छता के प्रति प्रेम का आभाव तो नहीं है यदि ऐसा है तो बुनियादी एवं नीतिगत प्रष्नों को हल देना ही होगा। हालंाकि स्वच्छता से समझौता नहीं किया जा सकता पर किसकी, क्या आवष्यकता है यह वह जरूर तय करेगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

विश्व परिदृश्य पर हिन्दी का प्रभुत्व

बीते वर्ष प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जनसैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 
हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 
सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते तीन वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 
विष्व तेजी से प्रगृति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

एनपीए पर यूपीए बनाम एनडीए

सरकारी बैंकों के एनपीए को लेकर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे राघुराम राजन की ओर से आयी हालिया जानकारी से एक बात स्पश्ट है कि काफी हद तक मोदी सरकार को क्लीन चिट मिल गयी है और विपक्ष मुख्यतः कांग्रेस का सरकार पर दागे जाने वाले सवाल भी कुछ हद तक कुंद पड़ जायेंगे। गौरतलब है कि रघुराम राजन की ओर से संसदीय समिति को जो विवरण उपलब्ध कराया गया है उसके हिसाब से साल 2006 से 2008 के बीच यूपीए सरकार के समय मनमाने ढंग से कर्ज बांटे गये फलस्वरूप वही आज एनपीए में तब्दील हो गया है। एनपीए का तात्पर्य नाॅन परफाॅर्मिंग असेट है जिसका तात्पर्य ऐसा असेट जो अब किसी काम का नहीं है और बैंक उसको वापस लेने में सक्षम नहीं है परन्तु यह भी समझने वाली बात है कि बैंक तो पैसा देता है ऋण के रूप में तो यह असेट कैसे परिभाशित हो गया। स्पश्ट कर दें कि पैसा लोन के रूप में ब्याज पर बैंक से लिया जाता है तो बैंकिंग टर्म में उस पैसे को असेट की संज्ञा दी जाती है। बैंकों से जितना लोन लिया गया और लोन का जितना हिसाब होता है जब लम्बे समय तक वापस नहीं किया जाता तो वही नाॅन परफाॅर्मिंग असेट हो जाता है। एनपीए को लेकर जिस प्रकार का हालिया परिप्रेक्ष्य दिख रहा है उससे साफ है कि उन दिनों कर्ज की बटाई नहीं बल्कि लुटाई हुई थी। रघुराम राजन का कथन कि वह दौर बुरे कर्ज देने की षुरूआत थी इस बात को और पुख्ता करती है। अब सवाल है कि क्या एक दषक बीतने के बाद साढ़े दस लाख करोड़ हो चुका एनपीए इन आरोप-प्रत्यारोपों से उबर पायेगा। क्या उस समय सत्ता पर रहे लोग अपनी जवाबदेही से बच पायेंगे। इतना ही नहीं क्या इस आरोप से कि ये मामला यूपीए के समय का है मोदी सरकार बच जायेगी। सच्चाई तो यह है कि मोदी कार्यकाल में भी एनपीए बढ़ा है। 
गौरतलब है कि कुछ दिन पहले पीएम मोदी ने बैंकिंग क्षेत्र में डूबे कर्ज की भारी समस्या के लिये यूपीए सरकार के समय फोन पर कर्ज के रूप में हुए घोटाले को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने कहा था कि नामदारों के इषारे पर बांटे गये कर्ज की एक-एक पायी वसूली जायेगी। उनका यह भी कहना था कि चार-पांच सालों तक बैंकों की अधिकांष पूंजी केवल एक परिवार के लिये आरक्षित रहती थी। मोदी का यह भी कहना था कि आजादी से 2008 तक कुल 18 लाख करोड़ रूपए के कर्ज दिये गये जबकि इसके आगे के 6 वर्शों में यह आंकड़ा 52 लाख करोड़ रूपये तक पहुंच गया। भले ही कर्ज की अदायगी यूपीए के षासनकाल में अधिक रही हो मगर एनपीए के मसले में मोदी सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। इन्हीं के समय विजय माल्या से लेकर नीरव मोदी, मेहुल चैकसी समेत कई और बैंक के कर्ज लेने वाले इन्हीं के षासनकाल में देष छोड़ा है जिसकी रिकवरी के लिये भारत में उनकी संस्थाओं की बोली लगायी गयी। अरबों की सम्पत्ति एनपीए होने के चलते कई और पर असर डाल रहा है। डूबी हुई रकम कैसे मिलेगी और कितनी मिलेगी इस असमंजस से भी सरकार बाहर नहीं निकल पायी। एनपीए को लेकर बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने हैं मगर मामला बयानबाजी से ऊपर नहीं बढ़ पा रहा है। एनपीए की समस्या के लिये वित्त मंत्री ने यूपीए सरकार को दोशी ठहराया। बात चाहे जैसी बिगड़ी हो पर दो टूक सच्चाई यह है कि कर्ज देने की वजह से बैंकिंग प्रणाली में एनपीए 12 प्रतिषत पहुंच गया। बैंकिंग सेक्टर एनपीए के चलते बिगड़ी हालत को देखते हुए अपने नियमों में भी बड़ा फेरबदल कर लिया है। कई ऐसे छुपे एजेण्डे बैंकों में निहित हो गये हैं जिसके कारण खाताधारक के पैसे उड़ाये जा रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक चैक बाउंस के मामले में तीन से चार गुना की वसूली बढ़ा दी है। बैंकों से पैसा ट्रंासफर करने के मामले में भी ठीकठाक राषि काटी जा रही है, एटीएम ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। तकनीकी गड़बड़ियां बरकरार हैं, पैसा एटीएम उगलने के बजाय कट जाने की पर्ची दे रहे हैं और ग्राहक बैंकों के अपने पैसे बचाने की फिराक में बैंकों का चक्कर लगा रहे हैं। 
इसमें कोई दुविधा नहीं कि नोटबंदी के चलते समस्या काफी गहरी हुई है और अभी भी मामला पटरी पर नहीं आया। तथ्य तो यह भी है कि बैंक नकदी के मामले में भी अभी बुरे दौर से गुजर ही रहे हैं। एनपीए 10 लाख करोड़ से अधिक हो चुका है मगर यह 2014 में 4 लाख करोड़ के आसपास था। बीते कुछ वर्शों में कई आर्थिक परिवर्तन के चलते स्थिति चिंताजनक हुई। अलबत्ता मोदी सरकार यह न मानी कि नोटबंदी का इस पर कोई असर नहीं पर सच्चाई यह है कि नोटबंदी से रोज़गार गये, असुरक्षा बढ़ी और जीएसटी लागू होने के बाद दोहरी आर्थिक कठिनाई खड़ी हो गयी। फलस्वरूप उद्योग धंधे से लेकर जीवनचर्या कई कठिनाईयों से जूझ रहे हैं उसकी एक वजह एनपीए भी हो सकती है। अगर फंसे कर्ज वसूलने के लिये समय रहते कदम नहीं उठाया गया हालांकि इसमें देरी हो चुकी है तो अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में जा सकती है। देखा जाय तो रिज़र्व बैंक के साथ-साथ मोदी सरकार भी एनपीए संकट का समाधान करने के लिये कई कदम उठा रहे हैं लेकिन अभी बात कुछ भी बनती नहीं दिख रही है। कई कर्ज लौटाने में नाकाम हैं, कई दिवालिया हो चुके हैं। षीर्श अदालत के हाल के आदेष के बाद कुछ हद तक उन कम्पनियों को राहत मिली है जो एनपीए के चलते बिक्री के कगार पर खड़ी थी। अदालत ने कहा कि एक निष्चित अवधि तक कर्ज न चुका पाने वाली कम्पनियों के खिलाफ दिवालिया कानून के तहत कार्यवाही करने पर जो रोक लगायी उससे बिजली और टैक्सटाइल क्षेत्र की कम्पनियों को फौरी राहत मिली है। देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट एनपीए की गम्भीरता से परिचित है ऐसे में बेहतर होगा कि सब कुछ सही से सामने हो। 
अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक रखने के लिये राजकोश का भी प्रबंधन सही रखना पड़ता है। इतना ही नहीं आर्थिक विकास को भी गति देते रहना होता है। मौजूदा समय में विकास दर 8.2 फीसदी कहा जा रहा है जो कि ठीक 1 साल पहले 5.7 के आसपास थी। दुविधा यह है कि जिस दर से आंकड़े दिखते हैं आम जीवन में बदलाव का दर वही नहीं होता है। एनपीए ने सरकार के अंदर और बाहर साथ ही यूपीए और एनडीए दोनों में हलचल का काम किया है मगर रघुराम राजन के बयान से इसके राजनीतिक निहितार्थ भी निकाले जायेंगे। हालांकि यह मामला आर्थिक है। कर्ज देने में जो जोखिम है वह इस दौर में पता चल रहा है साल 2017 में 7 हजार करोड़पतियों ने भारत की नागरिकता त्याग दी और कई अरबपतियों ने कर्ज अदायगी से बचने के लिये देष से भाग गये जिसमें विजय माल्या से लेकर नीरव मोदी तक षामिल हैं। बैंक के अधिकारियों पर भी भ्रश्टाचार का आरोप लगता रहा। कांग्रेस कहती है कि जब हम सत्ता छोड़े तब एनपीए 2 लाख करोड़ था अब यह दस लाख करोड़ के आसपास है। बात इससे नहीं बनेगी मगर मौजूदा सरकार यदि ठीकरा केवल पूर्ववर्ती यूपीए सरकार पर ही फोड़ेगी तो यह भी न्यायोचित नहीं है। इस बात को भी सझना सही होगा कि गलत को ठीक करने के लिये दूसरा गलत ठीक नहीं है। यूपीए की गलती एनडीए को दोहराना कहीं से षोभा नहीं देता ऐसे में पटरी से हट चुकी और कर्ज में डूबे बैंकों को बचाने के लिये ऋणों की वसूली जरूरी है मगर बैंकों को भी यह ध्यान रखना होगा कि अपने हित पोशण के लिये खाताधारकों का पैसा भी न लूटें।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, September 6, 2018

कई उम्मीदों पर टिका टू प्लस टू वार्ता

इसमें कोई दुविधा नहीं कि मौजूदा समय में भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध कहीं अधिक प्रगाढ़ हैं। दोनों देषों के बी टू प्लस टू वार्ता से इसे और बल मिलेगा। इतना ही नहीं भारत और पाकिस्तान के भावी दिषा को भी यह तय कर सकता है। 6 सितम्बर को दिल्ली में षुरू टू प्लस टू वार्ता दोनों देषों के लिये एक षुभ संकेत है। राजनीतिक लिहाज़ से यह काफी अहम इसलिये है क्योंकि दोनों देषों के दो बड़े महत्वपूर्ण मंत्री रणनीतिक और सामरिक हितों के मुद्दों के साथ द्विपक्षीय सम्बंधों को तुलनात्मक अधिक मजबूती देने पर चर्चा कर रहे हैं। अमेरिका की ओर से विदेष मंत्री माइक पाॅम्निपयो और रक्षा मंत्री जिम मैटिस तो भारत की तरफ से विदेष मंत्री सुशमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण हिस्सा ले रही हैं। खास यह भी है कि दो बार स्थगित होने के बाद इस वार्ता को तवज्जो मिला इसे अमेरिका के साथ इस साल का सबसे अधिक राजनीतिक और कूटनीतिक संवाद के रूप में भी देखा जा रहा है। गौरतलब है कि भारत से अमेरिका का सम्बंध बेहतर है पर दुनिया के कई देष ऐसे हैं जहां भारत के सम्बंध तो बेहतर है पर उन्हीं से अमेरिका का सम्बंध अच्छा नहीं है। ईरान और रूस के मामले में उक्त बात बिल्कुल उचित है। अमेरिका का ईरान पर हालिया प्रतिबंध और बारबार धौंस दिखाना साथ ही रूस से उसकी खटपट भी देखी जा सकती है जबकि भारत इन दोनों के कहीं अधिक समीप है रूस से तो भारत की नैसर्गिक मित्रता है। उम्मीद की जा सकती है कि टू प्लस टू वार्ता न केवल सामरिक सम्बंध गहरा करेगी बल्कि रूस और ईरान से जुड़े मतभेदों को भी हल करने में मदद कर सकती है। आतंकवाद, रक्षा सहयोग और व्यापार पर बातचीत के अलावा पाकिस्तान की नई सरकार पर राय, एच-1बी वीज़ा पर बदलाव जैसे मुद्दे हो सकते हैं। इसके अलावा भी कई मामलों में एकमत हुआ जा सकता है।
दुनिया जानती है कि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा सैन्य उपकरण आपूर्तिकत्र्ता है। पिछले एक दषक में अमेरिका ने भारत को करीब 15 अरब डाॅलर की कीमत के सैन्य उपकरणों की बिक्री की है जो रूस के बाद दूसरा ऐसा देष है जो सबसे बड़ा हथियार आपूर्ति भारत को करता रहा है। वैसे जिस तर्ज पर सरकारों की कूटनीति रही है और दुनिया से सम्बंध कायम हुए हैं उनमें काफी हद तक स्थायित्व का आभाव मिलता है। नेहरूकाल में किये गये कई समझौतों को आज भी आलोचना की जाती है और अमेरिका के मामले में कई पाॅलिसी सटीक नहीं मानी गयी है। अमेरिका एक चालाक देष है और अवसर के हिसाब से देष पर अपनी धाक जमाता रहा है। दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं जहां उसकी धमक न हो और दुनिया का षायद ही कोई देष हो जो उससे प्रगाढ़ मित्रता करना न चाहा हो। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच पांच दषक तक षीत युद्ध चला कमोबेष अब वही स्थिति रूस के साथ अनवरत् है। सालों तक उत्तर कोरिया और अमेरिका एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं भा रहे थे यहां भी मामला पटरी पर लगभग आ गया था। साम्यवादी देष चीन के मामले में भी चीन अक्सर चाल चलता रहा फिलहाल इन दिनों दोनों के बीच व्यापार वाॅर जारी है। हालांकि चीन भी चोरी वाली चाल चलने से बाज नहीं आता पड़ोसी देषों से खुन्नस निकालना उनकी जमीन हड़पना और षातिर अंदाज में कूटनीतिक संतुलन के लिये पाक जैसे देषों की मदद करके भारत के विरूद्ध नीतियां अपनाना उसकी आदत रही है। गौरतलब है कि चीन के 14 पड़ोसी देष से झगड़ा है इतना ही नहीं श्रीलंका से लेकर म्यांमार तक और नेपाल समेत बांग्लादेष व भूटान पर उसकी तिरछी नज़र रहती है ऐसा इसलिए कि भारत उससे आगे न निकल पाये। भारत अमेरिका से दोस्ती प्रगाढ़ करके समय-समय पर चीन को भी संतुलित करता रहा है और षायद इसकी जरूरत आगे भी पड़ती रहेगी। 
टू प्लस टू वार्ता में आतंकवाद भी एक बड़ा मुद्दा है जो जगह घेर रहा है जिसे लेकर अमेरिकी विदेष मंत्री ने पांच सितम्बर को ही संकेत दे दिया था। जब उन्होंने पाकिस्तान में वहां के नागरिक और सैन्य नेतृत्व से क्षेत्रीय षान्ति के लिये खतरनाक आतंकवादी और उनके संगठनों के खिलाफ टिकाऊ और निर्णायक कार्यवाही की अपील की थी। गौरतलब है कि कुछ दिन पहले वांषिंगटन में पाकिस्तान पर करारी चोट करते हुए 300 मिलियन डाॅलर की मदद रोक दी थी। ऐसा पाक पर संतोशजनक आतंक के विरूद्ध कार्यवाही न करने के चलते किया गया। हालांकि अमेरिका जनवरी में भी 255 मिलियन डाॅलर पहले भी रोक चुका है मगर पाकिस्तान इन सब से बेखबर अपनी गति में है। अमेरिका चाहता है कि भारत आतंकवाद विरोधी एक समूह का हिस्सा बने जिसमें सऊदी अरब समेत 49 सदस्य देष हों। फिलहाल अमेरिका भारत पर कुछ हद तक रूस को लेकर दबाव ही बना रहा है कि वह रूस से सरफेसएयर मिसाइल सिस्टम न खरीदे। अमेरिकी राश्ट्रपति रूस और ईरान के खिलाफ न केवल बड़े प्रतिबंध लगाये हैं बल्कि उन्हें भी धमकाया है जो इन दोनों देषों के साथ व्यापार करते हैं। भारत की समस्या यह है कि उसे कच्चा तेल चाहिये जबकि रूस से उसे सैन्य उपकरण चाहिए ऐसे में टू प्लस टू वार्ता से यह उम्मीद है कि इन दोनों मामलों में अमेरिका भारत को छूट देगा। गौरतलब है कि भारत रूस से खरीदने वाले इस उपकरण के मामले में समझौते को करीब-करीब अन्तिम रूप दे दिया है। अगले महीने रूसी राश्ट्रपति पुतिन भारत आ रहे हैं। उम्मीद है कि समझौते को अन्तिम रूप दे भी दिया जायेगा। भारत-अमेरिका के विदेष रक्षामंत्रियों के बीच हो रही टू प्लस टू वार्ता वाकई कहीं अधिक उत्पादकमूलक प्रतीत होती है। व्यापार से लेकर रक्षा क्षेत्र तक की दौड़ इस वार्ता में होगी। दो चरणों में होने वाली इस बैठक में कई रास्ते खुल सकते हैं। व्यापार का रास्ता तो खुलेगा ही साथ ही हिन्द प्रषान्त क्षेत्र को समावेषी, सुरक्षित, षान्तिपूर्ण एवं समान रूप से खुला बनाने की नये रोडमैप भी इसके हिस्से में हो सकते हैं। वार्ता चैतरफा दिषा दे सकती है। 
बैठक कई मुद्दों पर फोकस है यह दोनों देषों को पता है जिसका प्रभाव लम्बे समय तक रहेगा जिनमें एक भविश्य का रक्षा सौदा भी षामिल है। इस सवाल के साथ कि टू प्लस टू वार्ता क्या है असल में जब दो देष दो-दो मंत्रीस्तरीय वार्ता में षामिल होते हैं तो दोनों की तरफ से उनके विदेष और रक्षा मंत्री हिस्सा लेते हैं। गौरतलब है कि साल 2010 में भारत और जापान के बीच इस तरह की वार्ता पहले हो चुकी है। ऐसी वार्ता के फायदे अनेकों होते हैं जो कुछ तात्कालिक और कुछ भविश्य पर आधारित होते हैं। भारत बीते कई वर्शों से नवाचार की कोषिष में लगा हुआ है जिसकी पूर्ति वह मेक इन इण्डिया के माध्यम से करना भी चाह रहा है और कुछ हद तक कर भी रहा है। मौजूदा बैठक से रक्षा क्षेत्र में इस नवाचार और मेक इन इण्डिया के तहत भारत को कुछ सफलता जरूर मिलेगी। अमेरिका में हाल ही में डाटा सुरक्षा को लेकर भारत को चिंता से मुक्त रहने का आष्वासन दिया था। डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को मदद में कटौती करके आतंक के विरूद्ध लड़ाई को मजबूत करने का इरादा दिखा दिया है। पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में भारत की स्थायी सदस्यता से लेकर न्यूक्लियर सप्लायर समूह में भारत के होने की कोषिष कर चुके हैं। इतना ही नहीं भारत कई मामले में संतुलित कूटनीति के साथ अमेरिका के समकक्ष भी स्वयं को खड़ा किया है। फिलहाल टू प्लस टू वार्ता से सम्भवनायें व्यापक हैं और सम्बंध प्रगाढ़ होने के बड़े आसार भी बढ़े हैं साथ ही पाकिस्तान और चीन को संतुलित करने के लिये भी असरकारी सिद्ध होगा। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

भूख और बीमारी पर दुनिया की ताज़ी सूरत

बड़े मुद्दे क्या होते हैं और उनके आगे सत्तासीन भी बहुत कुछ करने में षायद सफल नहीं हो पाते। अगर इसे ठीक से समझना है तो दुनिया में बढ़ रही भुखमरी और बीमार होते लोगों की गति को जांचा परखा जा सकता है मौजूदा विष्व की दो समस्याओं में यदि एक जलवायु परिवर्तन तो दूसरा आतंकवाद है। मगर इसी दुनिया की दो पुरातन समस्याओं पर नजर गड़ायी जाये जो वर्तमान में भी बड़े रूप में विद्यमान है जिसमें एक भूख है तो दूसरी बीमारी है। दुनिया की लगभग साढ़े सात अरब की जनसंख्या में करीब सवा अरब भुखमरी से जूझ रही है। भारत, चीन के बाद जनसंख्या के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देष है और यहां भी हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अषिक्षित है। भारत से भुखमरी भी पूरी तरह कहीं गयी नहीं है और बीमारी भी कहीं अधिक प्रवाहषील है। भारत में भुखमरी की स्थिति फिलहाल गम्भीर रूप लेती जा रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अन्तर्राश्ट्रीय खाद्य नीति संस्थान के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत साल 2017 में 100वें स्थान पर पहुंच गया था जबकि 2016 में यह 97वें स्थान पर था। वैष्विक भुखमरी सूचकांक 2016 और 2017 के मद्देनजर दुनिया के देषों के चित्र कम ही बदल पाये हैं। खास यह भी है कि चीन, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेष जैसे सभी पड़ोसी देषों की स्थिति भारत की तुलना में कहीं अधिक बेहतर है पिछले साल के आंकड़े के हिसाब से पाकिस्तान 107 स्थान के साथ भारत से कहीं अधिक पीछे है, अफगानिस्तान की स्थिति 111वें स्थान के साथ काफी खराब अवस्था में है। 
बीते 5 सितम्बर को डब्ल्यू.एच.ओ. की ताजी रिपोर्ट भी आ चुकी है जो कुछ कई मामलों में चैकाती है। दुनिया में कई देष ऐसे हैं जो पैसों के मामले में तो अमीर है पर सेहत को लेकर उतने ही गरीब भी। डब्ल्यूएचओ के अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि जो देष सम्पन्नता में आगे जा रहे हैं वे षारीरिक श्रम करने में कहीं अधिक पीछे छूट रहे हैं। चैकाने वाला तथ्य यह है कि अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश की रैंकिंग में 9वें स्थान पर कुवैत है। गौरतलब है यह वही कुवैत है जिस पर इराक के तत्कालीन राश्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने 1990 में कब्जा किया था जिसे लेकर 17 जनवरी 1991 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया था और फरवरी के अंत में इसे इराक से मुक्ति मिली थी। यहां अमीरी है पर यहां कि 67 फीसदी आबादी षारीरिक श्रम को बिलकुल तवज्जो नहीं देती। आंकड़े हतप्रभ करने वाले ही कहे जायेंगे कि सऊदी अरब की 50 फीसदी जनसंख्या आराम तलब है। वैसे अमीर देषों में सिंगापुर का नाम भी चैथे नम्बर पर है और आराम तलबी में यह भी अव्वल है। खास यह भी है कि वैष्विक स्तर पर 2001 से षारीरिक गतिविधियों के स्तर पर कोई सुधार नहीं बताया गया है। आंकड़े इस बात को तस्तीख कर रहे हैं कि दुनिया भर में प्रत्येक तीन में से एक महिला और हर चार में से एक पुरूश स्वस्थ रहने के मामले में सक्रिय नहीं रहते। उक्त परिप्रेक्ष्य इस बात को संकेत कर रहे हैं कि जितनी कमायी, उतने आलसी देष। आलस्य के चलते ही एक-तिहाई भारतीय बीमार हैं। सुखद यह है कि महिलायें पुरूशों से पीछे हैं ऐसे में घरेलू कामकाज उनकी सक्रियता की वजह से उतने प्रभावित नहीं हुए। 168 देषों में कराये गये सर्वे के दौरान उक्त आंकड़ों को पाया गया। भारत में पांच बीमारियों को लेकर खतरा बड़ा बताया गया है जिसमें दिल का दौरा, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कैंसर और डायबिटीज षामिल है।
इसके अलावा आगे की कई चुनौतियों जो भारत को कई मोर्चे पर बीमार और कमजोर दोनों कर सकती हैं। आंकड़े के मुताबिक साल 2045 तक 15 करोड़ से अधिक लोग डायबिटीज़ से पीड़ित होंगे, साल 2025 तक पौने दो करोड़ बच्चों में मोटापा का खतरा बढ़ जायेगा जबकि 40 प्रतिषत की दर से बढ़ रही उच्च रक्तचाप की समस्या कई कामकाजी लोगों के लिये अड़चन बनी हुई है। इतना ही नहीं 34 प्रतिषत दिल की बीमारी के मामले पिछले 25 सालों में बढ़े हैं। महिलाओं में बढ़ता स्तन कैंसर और भयावह होगा 2020 तक यह आंकड़ा 18 लाख से अधिक होने का है। एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देष भुखमरी और बीमारी के मुहाने पर बरसों से खड़े हैं। जाहिर है इनसे कई बीमारियां भी उपजी हैं। अफ्रीका महाद्वीप का नाइजीरिया में 8 लाख लोग भुखमरी के कगार पर हैं। पिछले 11 महीनों से यहां बच्चे गम्भीर कुपोशण की समस्या से जूझ रहे हैं। इतना ही नहीं मध्य अफ्रीकी गणराज्य चाण्ड और जाम्बिया में भूख का स्तर उच्चत्तम है। हालांकि म्यांमार, रवाण्डा और कम्बोडिया जैसे देष भुखमरी स्तर में सर्वाधिक कमी करने वालों में षुमार है। फिर भी दुनिया का चित्र इस दिषा में कहीं अधिक भयावह है। वैष्विक भुखमरी सूचकांक स्तर पर भुखमरी में कमी लाने हेतु किये गये प्रयासों की सफलता, असफलता को देखें तो साफ है कि भुखमरी ने बीमारी को बढ़ावा दिया है जबकि वल्र्ड हैल्थ आॅर्गेनाइजेषन की हालिया रिपोर्ट को बारीकी से समझा जाये तो अमीरी ने भी बीमारी को बढ़ा दिया है। लाख टके का सवाल यह है कि बीमारी दोनों परिस्थितियों में बढ़ रही है पर अंतर केवल बीमारी के स्वरूप में है। यह बात तो बिल्कुल आसानी से समझ में आने वाली है कि गरीब देष बीमार क्यों हो रहे हैं पर यह बात गले नहीं उतर रही है कि सम्पन्नता से लबालब देष भी बीमारी को दावत दे रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं जीवन में जो संतुलन का सिद्धांत प्रकृति से मिलता है उसका किसी भी स्थिति में लोप होना परेषानी का सबब बनेगा। दुनिया में जनसंख्या के चलते संसाधनों का उपयोग भी बढ़ा है और खाने-पीने की चीजों की बर्बादी भी। इतना ही नहीं नये खान-पान के स्तर के चलते भी षरीर पर अत्याचार हुआ है जिसकी कीमत आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी चुका रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी पिछले महीने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स देषों की बैठक से पहले युगाण्डा गये थे। युगाण्डा अफ्रीका का मझोले किस्म का गरीब देष है पर दुनिया के सबसे मेहनती लोग यहीं पाये जाते हैं। इसके अलावा मोजाम्बिक, लिसोथो समेत जाॅर्डन, नेपाल तथा कम्बोडिया भी कमोबेष मेहनत करने वाले देषों में अव्वल हैं। कुछ गम्भीर बीमारी वाले देष बनते जा रहे हैं तो कुछ गरीबी के बावजूद तन्दुरूस्त देष हो रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 38 फीसदी अमेरिकी मोटापे के षिकार हैं और 31 फीसदी से ज्यादा यहां के बच्चों में मोटापे की आषंका बढ़ी हुई है। यदि समय रहते स्वास्थ पर बेहतर होमवर्क नहीं हुआ तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इससे जुड़ी समस्या विकराल रूप लेगी। डायबिटीज़ वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दुनिया में 42 करोड़ से अधिक लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। चिंता का विशय यह है कि 2030 तक षीर्श 7 मौत के कारणों में डायबिटीज सबसे अव्वल बताया जा रहा है। भारत में कई बीमारियां जड़ जमा चुकी हैं तो कई कगार पर खड़ी हैं। बचपन में यह हमेषा सुनने को मिला है कि आलस्य इंसान का सबसे बड़ा दुष्मन है और इस दुष्मनी को सबने निभाया है पर जब यही जन पर पड़ जाय तो सबक ले लेना चाहिये। अलग-अलग आयु में भिन्न-भिन्न षारीरिक समस्याएं हैं समय, परिस्थिति और आयु के अनुपात में सभी को इससे जुड़े अभ्यास करने होंगे। डब्ल्यूएओ की रिपोर्ट केवल जानकारी के लिये प्रकाषित नहीं हुई बल्कि सावधानी का भी यह एक सूचनापत्र है। दुनिया, देष और लोग तीनों को यह समझना है कि किस हिस्से से इसके खिलाफ लड़ाई लड़नी है। भूख ने बीमारी बढ़ाई तो अमीरी ने भी वही चुनौती खड़ी कर दी। समय रहते दोनों को इससे निपटना है यही इस रिपोर्ट का अर्थ व तात्पर्य निकलता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, September 3, 2018

कितना असरदार पाक को वित्तीय झटका

आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने में नाकाम रहने के चलते पाकिस्तान को अमेरिका ने एक बार फिर आर्थिक मदद रद्द कर बड़ा झटका दे दिया है। जाहिर है कि अमेरिका के इस फैसले से द्विपक्षीय सम्बंध जो पहले से खराब चले आ रहे हैं और कमजोर होंगे। गौरतलब है कि अमेरिका ने बीते 1 सितम्बर को पाकिस्तान को दी जाने वाली 300 मिलियन डाॅलर अर्थात् 2130 करोड़ रूपए की धनराषि को रोक दिया है। आतंकवाद पर लगाम लगाने में असफल पाकिस्तान को अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इसके पहले कई बार धमकी दे चुके हैं और 255 मिलियन डाॅलर सहायता राषि पर इसी साल जनवरी के षुरू में भी रोक चुके हैं। ध्यानतव्य हो कि 1947 में पाकिस्तान को आजादी मिलने के बाद से वित्तीय सहायता प्रदान करने के मामले में अमेरिका इसके लिये एक अहम देष रहा है। आंकड़े बताते हैं कि साल 1951 से 2011 के बीच पाकिस्तान ने अमेरिका से 67 बिलियन डाॅलर की सहायता राषि प्राप्त की है। ट्रम्प को यह बात बहुत खली है कि बार-बार अमेरिकी सहायता लेने वाला पाकिस्तान आतंक के मामले में कोरी बकवास करता रहा और झूठ पर झूठ बोलता रहा। बीते जनवरी में डोनाल्ड ट्रम्प ने साफ षब्दों में कहा था कि पिछले 15 सालों से पाकिस्तान अमेरिका को बेवकूफ बनाकर 33 अरब डाॅलर की सहायता प्राप्त कर चुका है और इसके बदले में सिर्फ झूठ और धोखे के अलावा कुछ नहीं मिला। दुनिया जानती है कि पाक आतंक को पोसने वाला देष है और यहां की सरकारें सेना और आईएसआई की छत्र-छाया में अपना दिन काटती है। बीते 18 अगस्त को नई सरकार के रूप में षपथ ले चुके क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान को प्रधानमंत्री के तौर पर कहीं अधिक संदेह से भी देखा जा रहा है। ऐसा इसलिये क्योंकि अप्रत्यक्ष तौर पर इमरान की सत्ता पाकिस्तानी सेना के हाथ में मानी जा रही है। 
बड़ा और संवेदनषील सवाल यह है कि अमेरिका ने करोड़ों की मदद फिलहाल क्यों रोकी और अब आतंकियों को पाकिस्तान किस बूते पालेगा। इसके पीछे अमेरिका का तर्क है कि पाकिस्तान आतंकी समूहों के खिलाफ कार्यवाही करने में विफल रहा और उन आतंकी समूहों के लिये सुरक्षित जगह बना हुआ है जो पड़ोसी देष अफगानिस्तान में पिछले कई साल से जंग छेड़े हुए हैं। गौरतलब है कि बीते 17 सालों से अफगानिस्तान में अमन-चैन की कोषिष में अमेरिका ने करोड़ो डाॅलर खर्च कर दिये और अपनी सेना को वहां लगाये रखा। ऐसे में पाक में आतंक का बने रहना हर दृश्टि से खतरा है। देखा जाय तो अफगानिस्तान से भारत के सम्बंध बहुत अच्छे हैं। अफगानिस्तान में षान्ति अमेरिका और भारत दोनों के लिये सुखद है पर पाकिस्तान में जड़ जमा चुका आतंकवादी इसके बीच में बड़ा रोड़ा है। खास यह है कि पाकिस्तान पिछले कुछ सालों से आर्थिक तंगी से जूझ रहा है बावजूद इसके आतंकियों को लेकर ठोस कार्यवाहियों से वह बचता रहा और जब अमेरिका की धमकी मिलती थी तो वह कार्यवाही करने की रस्म अदायगी में जुट जाता था। एक तरफ भारत के भीतर पाक प्रायोजित आतंकवाद का सिलसिला नहीं थम रहा है और दूसरी तरफ अमेरिका से वह कार्यवाही के नाम पर झूठ बोलता रहा। मौजूदा कष्मीर आतंक की भट्टी में सुलग रही है। आॅप्रेषन आॅल आउट के तहत 250 से ज्यादा आतंकी मारे जा चुके हैं पर घाटी अभी भी अलगाववादियों और इस्लामाबाद के इषारे पर आतंक से कराह रही है। पाकिस्तान की जनता ने इमरान खान को सत्ता की चाबी दे दी है, इस चुनौती के साथ कि देष के भीतर मचे उथल-पुथल और बाहर के द्विपक्षीय रिष्ते वह ठीक करेंगे। मगर इमरान की सत्ता पर वहां की सेना का प्रतिबिंब है। जाहिर है कि यही सेना भारत और पाक के बीच दीवार भी है। अमेरिका का वित्तीय सहायता रद्द करने वाला हालिया कदम इमरान पर क्या असर डालेगा अभी कुछ कह पाना कठिन है। गौरतलब है पाकिस्तान चीन के दम पर उड़ता रहा है। चीन ने पाकिस्तान में बड़ा निवेष किया है और उसे वहां से बड़ी आर्थिक सहायता मिलती रही है। आतंकी संगठन जैष-ए-मोहम्मद के चीफ मसूद अजहर समेत लखवी जैसे आतंकियों को यूएनओ की सुरक्षा परिशद् में अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवादी घोशित कराने की भारत की कोषिष को लगातार चीन बाधित करता रहा यह इस बात का सबूत है कि पाक से उसकी निकटता हर स्थिति में और प्रत्येक परिस्थिति में है। 
खास यह भी है कि वांषिंगटन डीसी से पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य सहायता पर रोक कोई नई बात नहीं है। यह सिलसिला दषकों पुराना है जबकि पाकिस्तान अरबों रूपया अमेरिका का निगलने के बावजूद जहर उगलना बंद नहीं किया। 1965 में पाकिस्तान के भारत के साथ तनाव षुरू होने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य सहायता पर पहली बार रोक लगायी थी। सैन्य सहायता पर लगा यह प्रतिबंध अगले 15 सालों तक जारी रहा। साल 1979 में सीआईए ने पाकिस्तान के परमाणु संवर्द्धन पुश्टि के पष्चात् तत्कालीन राश्ट्रपति जिमी कार्टर ने खाद्य सहायता को छोड़कर सभी सहायता निलंबित कर दी जबकि 1980 के प्रारम्भ में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के आक्रमण के चलते एक बार फिर से पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा दी जाने वाली सैन्य सहायता राषि में बढ़ोत्तरी कर दी गयी। यहां अमेरिका ने कूटनीतिक संतुलन को ध्यान में रख कर कदम उठाया था। वक्त बीतता गया पाकिस्तान अमेरिका के पैसे पर पलता रहा और धीरे-धीरे लोकतंत्र को अपाहिज बनाने में लगा रहा। हालांकि पाकिस्तान का लोकतंत्र षुरू से ही अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया और अब तो उसकी कई बैसाखी है जिसमें आतंकी संगठन आईएसआई और सेना षामिल है। जब अमेरिका के राश्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष थे तो यह साबित करने में विफल रहे कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार नहीं है, तब 1990 के दौरान सहायता राषि पर एक बार फिर रोक लगायी गयी थी। सिलसिले यहीं नहीं थमे साल 1993 में 8 सालों के लिये भी रोक लगायी गयी। 1998 में जब भारत के पोखरण-2 के बाद पाकिस्तान ने मई के आखिर में परमाणु परीक्षण किया तब अमेरिका ने दी जाने वाली सहायता राषि की कटौती की। फिलहाल ट्रम्प जनवरी 2017 से अपने अब तक के कार्यकाल में दुनिया के तमाम देषों को लेकर कई कठोर कदम उठा चुके हैं इसी क्रम में पाकिस्तान को दी जाने वाली वित्तीय सहायता की रोक भी देखी जा सकतीहै। 
डोनाल्ड ट्रम्प की जो ताजा आर्थिक चोट पाकिस्तान को मिली है उससे उसके होष उड़ सकते हैं पर सोचने वाली बात यह है कि बीते कई दषकों से पाकिस्तान तमाम उलटफेर के बाद अमेरिका से सहायता प्राप्त करने में सफल रहा है। वैसे आतंकवाद पाकिस्तान की जड़ में है और अमेरिका की वित्तीय सहायता भी कुछ हद तक इस मामले में मददगार कहा जा सकता है जबकि चीन तो इसके लिये सदैव तैयार है क्योंकि चीन पाकिस्तान के रास्ते भारत को संतुलित करने की फिराक में रहता है जबकि भारत ठोस रणनीति, बाजार और व्यापार और द्विपक्षीय सम्बंधों के तहत संतुलन प्राप्त करना चाहता है। चीन पाकिस्तान का अवसरवादी मित्र है जबकि भारत के लिये न वह मित्र है और न ही दुष्मन की संज्ञा में। ट्रम्प के सख्त रूख के चलते ऐसी स्थिति भी हो सकती है कि चीन पाकिस्तान के बलिदान की दुहाई देकर कि उसकी कोषिषों को अमेरिका ने नजरअंदाज किया और वह उसके प्रति कहीं अधिक सहानुभूति और वित्तीय सहायता का रूख अख्तियार करे। फिलहाल अमेरिका की तरफ से जो एक्षन हुआ है अभी उस पर कई रिएक्षन देखने बाकी हैं पर नई सत्तासीन इमरान सरकार को सावधान रहने के लिये यह झटका काफी होना चाहिए। हालांकि इसे लेकर प्रतिबिंब आने वाले दिनों में उभरेगा पर यह साफ है कि पाक के लिये भीतर और बाहर दोनों वातावरण तब सही होंगे जब वह आतंक से पाक को मुक्त कर देगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

राफेल पर विपक्ष संतुष्ट क्यों नहीं!

राफेल सौदे को लेकर मोदी सरकार और कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष आमने-सामने है। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देष ही नहीं दुनिया के मंच से राफेल सौदे में घोटाले का दावा कर रहे हैं और काफी हद तक सरकार इसे लेकर पलटवार करते हुए स्वयं को पाक-साफ बता रही है। राफेल अनेक भूमिका निभाने वाला व दोहरे इंजन से लैस फ्रांसिसी लड़ाकू विमान है जो वैष्विक स्तर पर सर्वाधिक सक्षम माना जा रहा है पर इसकी खरीदारी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। अनायास ही राफेल को लेकर मचे बवाल के बीच बोफोर्स की याद ताजा हो जाती है। साल 1987 में जब यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कम्पनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डाॅलर की दलाली चुकायी थी तब उस समय मौजूदा समय में राफेल को लेकर घोटाले की बात कर रही कांग्रेस की सरकार थी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन के रेडियो ने सबसे पहले इसका खुलासा किया बाद में यही बोफोर्स घोटाला या बोफोर्स काण्ड के नाम से देष के लिये एक बहुत बड़ा आघात सिद्ध हुआ। हालांकि राफेल के मामले में अभी बहुत कुछ सच्चाई सामने आना बाकी है पर सरकार का सपाट जवाब है कि उसने फ्रांस से करीब 59 हजार करोड़ की लागत से भारत के 36 लड़ाकू विमान खरीदने की डील की है। राफेल की पूरी पड़ताल और पक्ष व विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप की पूरी समीक्षा के बाद ही दूध का दूध और पानी का पानी कर पाना सम्भव होगा। वैसे जिस तरह राफेल को लेकर सरकार घिरी है उससे यही लगता है कि विपक्ष इस मुद्दे को हथियार बनायेगा और कुछ हद तक सरकार को दिमागी तौर पर इसकी जवाबदेही के लिये जनता के सामने खड़ा करने की कोषिष करेगा। हालांकि यह बात भी समझना सही रहेगा कि राफेल और बोफोर्स के मामले में अलग किस्म की बातें हैं एक विमान है, दूसरा तोप था। बाफोर्स में दलाली खाने का आरोप है जबकि राफेल में विमान की महंगाई के साथ प्रक्रिया पर सवाल उठ रहे हैं। 
दो सरकारों के संदर्भ निहित भाव से युक्त राफेल के बारे में मौजूदा विपक्ष जो उस समय सरकार में था उसका कहना है कि यूपीए सरकार के समय 526 करोड़ प्रति विमान इसकी कीमत थी जो मोदी सरकार के समय 1670 करोड़ रूपए हो गयी। संसद के मानसून सत्र में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यही आंकड़ा देते हुए सरकार से इस पर जवाब मांगा था और रक्षा मंत्री समेत फ्रांस के राश्ट्रपति का भी जिक्र किया था। हालांकि प्रधानमंत्री के जवाब में किसी प्रकार की गड़बडी में नकार दिया गया था परन्तु विपक्ष इससे संतुश्ट नहीं है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने भी एक फेसबुक पोस्ट में राहुल गांधी पर राफेल मामले में झूठ बोलने और दुश्प्रचार करने का आरोप लगाया था। गौरतलब है पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरूण षौरी और यषवंत सिन्हा के साथ प्रषान्त भूशण ने भी प्रेस कांफ्रेंस करके फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर कई सवाल उठाये हैं। देखा जाय तो 10 अप्रैल, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांस के राश्ट्रपति ओलांद राफेल डील का एलान किया था। सरकार पर आरोप है कि 60 साल की अनुभवी कम्पनी हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स को सौदे से बाहर कर दिया जाता है और एक ऐसी कम्पनी अचानक इस सौदे में प्रवेष करती है जिसका कोई जिक्र नहीं है। ध्यानतव्य हो कि अंबानी की गैर अनुभवी कम्पनी को लेकर भी यहां कई सवाल उठ रहे हैं। सवाल इस बात के लिये भी उठ रहा है कि भारत सरकार ने एक नई कम्पनी को प्रमोट करने के लिये अनुभवी कम्पनी को क्यों बाहर किया और अनिल अंबानी को यह बताना चाहिए कि वे कौन-कौन से हार्डवेयर बना रहे हैं जिसके चलते भारत को आयात नहीं करना पड़ेगा। गौर करने वाली बात है कि रक्षा से जुड़े 70 फीसदी हार्डवेयर आयात किये जाते हैं। हालंाकि सरकार हो या रिलायंस कम्पनी सभी अपने ऊपर लगे आरोप गलत बता रहे हैं और अपनी सुरक्षा में जवाब दे रहे हैं। 
यूपीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे पी. चिदम्बरम भी मोदी सरकार पर निषाना साध रहे हैं। उनका मानना है कि संसद में चर्चा होनी चाहिए और इसका समाधान अदालत नहीं है। भले ही सरकार ने राफेल मामले में कोई वित्तीय गलती न की हो पर जवाब देने के मामले में असंतोश जरूर पैदा कर रही है। हो सकता है कि प्रक्रियात्मक गलती हुई हो। यह सवाल वाजिब है कि हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स को यदि बाहर कर दिया गया तो रिलायंस को क्यों अंदर किया गया। तथ्य यह भी है कि मार्च 2014 में हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड और डास्सो एवियेषन के बीच एक करार हो चुका था कि 108 लड़ाकू विमान भारत में ही बनायेंगे इसलिये उसे लाइसेंस और टेक्नोलाॅजी मिलेगी जिसमें 70 फीसदी काम हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स और 30 फीसदी डास्सो करेगी। आरोप है कि प्रधानमंत्री मोदी 10 अप्रैल 2015 को जब डील फ्रांस से मिलकर एलान करते हैं तो इस सरकारी कंपनी का नाम नहीं था और एक नई कम्पनी का उदय हो जाता है जिसके न केवल अनुभव पर सवाल है बल्कि सरकार ने ऐसा क्यों किया इस पर भी प्रष्न खड़ा हो गया। गौरतलब है 2007 में भारतीय वायु सेना ने सरकार को अपनी आवष्यकता बतायी थी जिसे ध्यान में रखते हुए तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस पर पहल किया था। जिसमें 167 मीडियम मल्टी रोड कम्पैक्ट (एमएमआरसी) एयरक्राफ्ट खरीदने की योजना थी और यह भी तय था कि टेण्डर होगा जिसमें षुरूआती खरीद की लागत क्या होगी, विमान कम्पनी भारत को टेक्नोलाॅजी देगी और भारत में उत्पादन को लाइसेंस देगी। 6 लड़ाकू विमान वाली कम्पनियां इसमें हिस्सा ली थी। एक डास्सो एविएषन का राफेल और दूसरा यूरोफाइटर का विमान। साल 2012 के टेण्डर में डास्सो ने सबसे कम रेट दिया था जिसके चलते सरकार और डास्सो कम्पनी के बीच बातचीत षुरू हुई थी। अब सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जो डील की वह पहले से चली आ रही प्रक्रिया का अगला कदम था या नया कदम था। सवाल यह भी है कि क्या भारतीय वायुसेना ने कोई नया प्रस्ताव दिया था या फिर डास्सो कम्पनी ने नये दरों या कम-ज्यादा दरों पर सप्लाई का कोई नया प्रस्ताव दिया। गौरतलब है कि 2012 से 8 अप्रैल 2015 तक चली आ रही प्रक्रिया और षर्तों से प्रधानमंत्री मोदी के 10 अप्रैल 2015 के बयान को अलग बताया जा रहा है। हालांकि विदेष सचिव कह रहे हैं कि मोदी और फ्रांसिसी राश्ट्रपति का साझा बयान पुरानी प्रक्रिया का हिस्सा है और हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स इसमें षामिल है जबकि ऐसा दिख नहीं रहा है। 
पी. चिदम्बरम ने यह भी स्पश्ट किया है कि राफेल सौदे की तुलना बोफोर्स से नहीं की जा सकती पर कांग्रेस राफेल को तूल देकर राजनीति की दिषा और दषा बदलने की फिराक में है। गौरतलब है कि 1989 के लोकसभा चुनाव में बोफोर्स घोटाले के चलते राजीव गांधी की 400 से अधिक लोकसभा की सीट 200 के भीतर सिमट गयी थी। कांग्रेस जानती है कि यदि सरकार के सामने मजबूत चुनौती नहीं होगी तो 2019 में उसे खुला मैदान मिल जायेगा। जैसा कि राफेल की सच्चाई अभी पूरी तरह षायद ही उजागर हुई हो पर कांग्रेस ने इसे लेकर सरकारे को घेरने का पूरा इरादा दिखा रही है। इस बात का पटाक्षेप तभी सम्भव है जब इस पर सभी कागजी और आपसी बातचीत को सरकार देष के सामने रखे और यह भी बताये कि यूपीए सरकार का क्या सौदा था और मोदी सरकार द्वारा क्या सौदा किया गया साथ ही अन्तिम मसौदा क्या था। सरकार राफेल से पीछा छुड़ाना चाहती है पर कांग्रेस समेत विपक्षी ऐसा होने नहीं देना चाहते। कांग्रेस का आरोप और उस पर सरकार की प्रतिक्रिया मात्र से अब काम नहीं बनेगा बल्कि सौदे की सच्चाई को संसद में बारीकी से रख कर दामन साफ करना होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com