Monday, February 17, 2020

भारत के लिए बेहद अहम ट्रम्प की यात्रा

आगामी 24 से 26 फरवरी के बीच दुनिया के सबसे ताकतवर देष अमेरिका के राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत में द्विपक्षीय सम्बंध मजबूत करते दिखेंगे। अहमदाबाद क्रिकेट स्टेडियम में लाख से अधिक जनमानस को सम्बोधित भी करेंगे। इसके अलावा कई कार्यक्रमों के साथ वह दो दिन भारत की आबोहवा को महसूस करेंगे। जाहिर है फरवरी का माह बेहद खास होने वाला है। ट्रम्प का यह दौरा जहां अमेरिका में होने वाले चुनाव में भारतीयों की भागीदारी को लेकर अहम है वहीं दक्षिण एषिया के लिए भी खास बन जाता है। पाकिस्तान को इससे जोड़े ंतो इसकी अहमियत कहीं और अधिक बढ़ जाती है। चूंकि ट्रम्प भारत आयेंगे मगर पाकिस्तान नहीं जायेंगे इस बात से पाकिस्तान की स्थिति क्या हो सकती है सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इमरान खान तीन बार ट्रम्प से मिले हैं और हर बार कष्मीर का मुद्दा उठाया है। ग्रे लिस्ट में सूचीबद्ध पाकिस्तान पर इन दिनों काली सूची में जाने का खतरा भी मंडरा रहा है। आर्थिक स्थिति बदहाल है पर आतंक को लेकर रवैया में कोई परिवर्तन नहीं दिखता है। ट्रम्प की यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब मध्य एषिया तनाव से गुजर रहा है। चीन कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित है और पाकिस्तान के साथ भारत का सम्बंध सबसे खराब दौर में है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि दोनों देषों के द्विपक्षीय सम्बंध मजबूत होंगे साथ ही दुनिया को एक मजबूत भारत भी दिखेगा। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा से पहले कुछ अमेरिकी सीनेटरों ने कष्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और देष में धार्मिक स्वतंत्रता का आंकलन करने की मांग की है जो सीनेटर यह मुद्दा उठा रहे हैं वह स्वयं को भारत का पुराना मित्र भी करार दे रहे हैं। उनकी चिंता लाज़मी है पर वे षायद भारत की वास्तविकता से पूरी तरह परिचित नहीं है।
इसमें कोई दुविधा नहीं कि डोनाल्ड ट्रम्प कई इच्छाओं के साथ भारत में प्रकट हो रहे होंगे जिसमें कारोबारी मुनाफा सबसे ऊपर होगा। भारत के साथ अमेरिका का द्विपक्षीय सम्बंध मोदी षासनकाल में कहीं अधिक बेहतर स्थिति में है। फलक पर वैदेषिक नीति को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि ट्रम्प और मोदी की भारत में मुलाकात कूटनीतिक और आर्थिक दृश्टि से जहां समूचित होगी वहीं दुनिया के अन्य देषों के संदर्भ में भारत सषक्तिकरण का स्वरूप भी ग्रहण करेगा। ट्रम्प की यात्रा से कारोबारी जगत में भी उम्मीदें जगी हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देष है कृशि और पोल्ट्री फार्म जैसे कार्यों में 8 करोड़ से अधिक की आजीविका सुरक्षित है। जाहिर है यहां अमेरिका के लिए प्रवेष सीमित रहेगा मगर दोनों देष व्यापक व्यापार समझौता करना चाहेंगे। भारत जब अमेरिका चिकित्सा उपकरणों पर प्रतिबंध लगा दिया था तो ट्रम्प ने भी 1970 से चले आ रहे विषेश व्यापार दर्जा से भी पिछले साल भारत को बाहर कर दिया था जो कारोबारी सम्बंध की दृश्टि से एक कड़वाहट है। जाहिर है इस कड़वाहट को दूर करने का प्रयास किया जायेगा। गौरतलब है कि भारत के साथ द्विपक्षीय कारोबार के मामले में अमेरिका दूसरे स्थान पर है जबकि सबसे ज्यादा द्विपक्षीय कारोबार भारत चीन के साथ करता है। डोनाल्ड ट्रम्प कारोबारियों से भी मिलेंगे और उन्हें अमेरिका में निवेष के लिए जरूर प्रोत्साहित करेंगे। भारत में ऊर्जा की पूर्ति बहुतायत मात्रा में मध्य एषियाई देषों से होती है। पिछले साल 2 मई से अमेरिका के दबाव में ही भारत ईरान से कच्चा तेल न लेकर अन्यों पर निर्भरता बढ़ा लिया है जबकि ईरान से सब कुछ सही और सस्ता भी चल रहा था। गौरतलब है कि अमेरिका और ईरान के बीच इन दिनों स्थिति युद्ध के कगार पर पहुंचते-पहुंचते रूकी है। रोचक यह है कि अमेरिका किसी का भी दुष्मन हो पर भारत सभी का दोस्त रहता है। फिलहाल ऊर्जा के मामले में अमेरिका भारत की जरूरत के अनुसार तेल और गैस सप्लाई करने के लिए भी तैयार है। उक्त से यह लगता है कि डोनाल्ड ट्रम्प बड़े कारोबार का मनोदषा बनाकर भारत के साथ द्विपक्षीय फाइलों का आदान-प्रदान करेंगे।
अमेरिकी राश्ट्रपति की यात्रा व्यापार सहयोग के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाने के मामले में भी अहम रहेगा। अमेरिका का चीन के साथ चल रहे ट्रेड वार के दौरान ही भारत से आने वाले कुछ निष्चित स्टील और एल्युमिनियम उत्पादों पर भी भारी षुल्क थोप दिया गया था। इतना ही नहीं जीएसपी के तहत कुछ खास उत्पादों को मिलने वाली टेरिफ छूट को भी खत्म कर दिया गया था। भारत चाहता है कि अमेरिका इन दोनों निर्णयों को बदले। भारत कृशि, आॅटो मोबाइल, वाहनों के पुर्जे व इंजीनियरिंग इत्यादी से जुड़े अपने उत्पादों के लिए अमेरिका से अपने यहां दरवाजा खोलने की उम्मीद रखता है। जबकि अमेरिका का दबाव भारत पर कृशि मैन्यूफैक्चरिंग से लेकर डेरी उत्पाद और चिकित्सा उपकरणों के लिए बाजार खोलने का देखा जा सकता है। देखा जाय तो भारत के साथ व्यापार घाटे को लेकर अमेरिका अपनी चिंता पहले जता चुका है। भारत की मुष्किल यह है कि यहां जनसंख्या का दबाव अत्यधिक है। 65 फीसदी युवा के हाथ काम तलाष रहे हैं और बेरोजगारी दर 45 बरस का रिकाॅर्ड तोड़ चुकी है। सरकारी नौकरियां तुलनात्मक कम हो चुकी हैं, निजी सेक्टर आर्थिक मन्दी के चलते कई कठिनाईयों से जूझ रहे हैं। भारत किसानों का भी देष है यहां की हालत अच्छी नहीं है। यदि कई मामलों में अमेरिका, भारत से अपेक्षा पालता है तो वह नाजायज नहीं होगा मगर भारत तभी उसके उत्पाद के लिए बाजार दे सकता है जब स्वयं के उत्पाद को कोई खतरा न हो। यह देखा गया है कि कई नियम कानूनों में बदलाव के कारण देष में बेरोजगारी और आर्थिक समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं। भारत चाहेगा कि अमेरिका उसके लिए उपजी समस्याओं को कम करने हेतु अनुकूल वातावरण दे। ऐसे में उसे कारोबार की दृश्टि से अमेरिका से अधिक अपेक्षा होगी। जाहिर है अमेरिका और भारत के घनिश्ठ सम्बंधों में चाषनी कितनी भी क्यों न घुली हो पर कारोबारी दृश्टि से असंतुलन कोई नहीं चाहेगा।
भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध लगातार वृद्धि करते रहे हैं। दोनों देषों के बीच टू-प्लस-टू वार्ता समेत कई द्विपक्षीय सम्बंध इस बात को पुख्ता करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी और और अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रम्प की केमिस्ट्री पिछले साल सितम्बर में ह्यूस्टन के हाउडी मोदी में देखी गयी अब इसी तर्ज पर अहमदाबाद में केमछो ट्रम्प में यही केमिस्ट्री फरवरी के अन्तिम दिनों में देखने को मिलेगी। फिलहाल भारत और अमेरिका रक्षा कारोबार भी इस मुलाकात की पटकथा का एक हिस्सा रहेगा। अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन यह उम्मीद जता चुका है कि दोनों देषों का रक्षा कारोबार 18 अरब डाॅलर को पार करेगा। भारत अमेरिका से हथियार खरीदता है और इस मामले में भी कुछ समझौते होने तय हैं। कारोबार, विनिर्माण, विकास और रोजगार के साथ रक्षा और सुरक्षा के मसले को लेकर समझौते होने तय माने जा रहे हैं। पड़ताल बताती है कि सबसे पहले भारत में पहला अमेरिकी राश्ट्रपति आइजनहावर 1959 में आये थे उसके बाद 1969 में निक्सन, 1978 में जिमी कार्टर का दौरा हुआ, तत्पष्चात् 22 वर्श के अंतराल के बाद मार्च 2000 में बिल क्लिंटन का भारत आगमन हुआ। गौरतलब है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका का रूख भारत की ओर नरम हो गया था। उसके एक दषक बाद लागातार अमेरिकी राश्ट्रपतियों का भारत दौरा द्विपक्षीय सम्बंधों को और मजबूती देता रहा। बिल क्लिंटन के बाद जाॅर्ज डब्ल्यू बुष, बराक ओबामा और अब डोनाल्ड ट्रम्प का भारत दौरा मित्रता और द्विपक्षीय सम्बंध को और पुख्ता करेगा। सब के बावजूद अमेरिका दुनिया के बदलते आयाम को समझने वाला देष है और हो न हो अमेरिका फस्र्ट की पाॅलिसी पर काम करता है। बदलते षक्ति समीकरण और उभरती आर्थिक ताकतों के बीच अमेरिका की उपादेयता कहीं अधिक सटीक रहती है। संधियां और समझौते उसके लिए तभी तक अहमियत रखते हैं जब तक उसके काम के होते हैं। उक्त से यह तात्पर्य है कि भारत को अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सम्बंध अपने हितों की श्रेश्ठता को विकसित करते हुए बेहतरीन सम्बंध की ओर ले जाना चाहिए।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Friday, February 14, 2020

....तो क्या अब अपराधविहीन होगी राजनीति

राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए देष की षीर्श अदालत ने एक अहम फैसला दिया है। सभी राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर दागी उम्मीदवारों को टिकट देने के कारण का उल्लेख करेंगे साथ ही यह भी बताना होगा कि आखिरकार वो क्यों किसी बेदाग छवि वाले प्रत्याषी को टिकट नहीं दे पाये। यदि इस नियम का पालन करने में दल असफल रहते हैं तो चुनाव आयोग इसे षीर्श अदालत के संज्ञान में लाये। ऐसा नहीं किये जाने पर पार्टी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की जायेगी। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट का यह फरमान हर हाल में जीत की चाहत रखने वाले दल के लिए बड़ी मुसीबत बनेगी। अब महज जीत ही टिकट का आधार नहीं होगा बल्कि साफ-सुथरी छवि इसकी मेरिट होगी। जब देष की षीर्श अदालत यह कहती है कि राजनीति में अपराधीकरण का होना विनाषकारी और निराषाजनक है तब यह सवाल पूरी ताकत से उठ खड़ा होता है कि अपराधविहीन राजनीति आखिर कब? साथ ही यह भी कि इसकी स्वच्छता को लेकर कदम कौन उठायेगा? गौरतलब है सितम्बर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और संसद को ही एक प्रकार से इसकी सफाई की जिम्मेदारी दे दी थी पर मामला जस का तस बना रहा। हालिया स्थिति को देखें तो साल 2019 की लोकसभा में 233 सांसद ऐसे हैं जिन पर कोई न कोई केस है। जिसमें सत्ताधारी भाजपा के 116 सांसद षामिल हैं। कांग्रेस के 29, जदयू के 13, द्रमुक के 10 और तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य दल भी इसमें षामिल है। इसके अलावा राज्यों की भी स्थिति कमोबेष इसी प्रकार की है। उत्तर प्रदेष विधानसभा में 143 विधायक ऐसे हैं जिन पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं जिसमें से 101 विधायकों पर गम्भीर धाराओं में केस दर्ज हैं। 70 विधानसभा वाली उत्तराखण्ड में भी 22 विधायकों पर केस है जो पिछली विधानसभा की तुलना में दोगुना है।
सुप्रीम कोर्ट की यह चिंता नई नहीं है। पड़ताल बताती है कि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीष दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधानपीठ ने विधायिका के दायरे में घुसने से स्वयं को रोक दिया मगर कई प्रमुख बिन्दुओं की ओर संकेत देकर यह भी जता दिया कि राजनीति में वर्चस्व को प्राप्त कर चुके अपराध से षीर्श अदालत कहीं अधिक चिंतित है। अदालत के सुझाये बिन्दु जिसमें हर उम्मीदवार को नामांकन पत्र के साथ षपथ पत्र में अपने खिलाफ लगे आरोपों को मोटे अक्षरों में लिखने की बात निहित है साथ ही पार्टियों को उम्मीदवारों पर लगे आरोपों की जानकारी वेबसाइट पर मीडिया के माध्यम से जनता को देनी होगी इसके अलावा उम्मीदवारों के नामांकन दाखिल करने के बाद कम से कम तीन बार पार्टियों की ओर से ऐसा किया जाना जरूरी है और अदालत ने यह भी सुझाया कि जनता को यह जानने का हक है कि उम्मीदवार का इतिहास क्या है पर इस पर गम्भीरता से पालन नहीं किया गया। फलस्वरूप जिताऊ उम्मीदवार को दल टिकट देते रहे जिसके कारण संसद और विधानसभा में दागियों का जमावड़ा लगता रहा।
यह एक गम्भीर विशय है कि देष की राजनीति में बाहुबल, धनबल समेत अपराध का खूब मिश्रण हो गया है। देष की सबसे बड़ी पंचायत में अगर एक तिहाई से अधिक सदस्य अपराधिक आरोपों से लिप्त है तो नागरिकों का भविश्य क्या होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इससे भी ज्यादा गम्भीर चिंता का विशय यह है कि सत्तासीन भाजपा के जनप्रतिनिधि इस मामले में सबसे ऊपर हैं जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस इसके बाद आती है। सवाल दो हैं पहला यह कि अपराध को राजनीति में किसने प्रवेष कराया, दूसरा इसे फलने-फूलने का अवसर किसने दिया। कांग्रेस को सबसे अधिक करीब पांच दषक से अधिक सत्ता चलाने का अनुभव है। जाहिर है अपराध का वास्ता और समतल रास्ता इन्हीं के दौर में खुला। भाजपा कई बार गठबंधन के साथ सत्ता में रही पर मौजूदा मोदी सरकार के काल में अपराध मुक्त विधायिका की संकल्पना थी पर हकीकत कुछ और है। पड़ताल बताती है कि 16वीं लोकसभा के 542 सांसदों में 179 के विरूद्ध अपराधिक मामले हैं इनमें 114 गम्भीर अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसी तरह राज्यसभा में 51 के खिलाफ अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं यहां भी 20 गम्भीर अपराध की सूची में षामिल हैं। चैकाने वाला तथ्य यह है कि भाजपा के सांसदों में सर्वाधिक 107 ने अपराधिक मामलों की घोशणा की है और 64 पर गम्भीर मामले चल रहे हैं। कमोबेष कांग्रेस, एआईडीएमके, सीपीआईएम, आरजेडी, टीडीपी, एनसीपी, बीजेडी, इनलो, सपा व बसपा के इक्का-दुक्का ही सही किसी न किसी सदस्य पर इसी प्रकार का आरोप है। इससे भी बड़ा चैकाने वाला सत्य यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में महाराश्ट्र के सांसद और विधायक सबसे ऊपर रहे हैं। भड़काऊ भाशण हत्या, अपहरण समेत कई मामलों में माननीय इसमें लिप्त देखे जा सकते हैं। उच्चत्तम न्यायालय की यह बात गौर करने वाली है कि 1993 के मुम्बई धमाके में अपराधी, पुलिस, कस्टम अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ सबसे ज्यादा महसूस हुआ। ऐसे में सम्भव है कि कहीं न कहीं ऐसे गठजोड़ ने राजनीति में अपराधीकरण को संबल प्रदान करने का काम किया जो लोकतंत्र के लिहाज़ से बहुत घातक है। 
सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की रिपोर्ट के जरिये देष के सामने बीते कुछ वर्श पहले राजनीति के अपराधीकरण की जो तस्वीर रखी वह होष पख्ता करने वाले हैं। अपराधियों की श्रेणियों में बंटवारा किया जाय तो सर्वाधिक 31 फीसदी हत्या या हत्या के प्रयास व गैर इरादतन हत्या के आरोप से लिप्त थे। 14 फीसदी ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के अपहरण का मामला था और इतने ही जालसाजी के आरोप से घिरे थे। दुराचार से जुड़े अपराध जहां चार फीसदी बतायी गयी वहीं चुनाव में कानून तोड़ने वाले पांच फीसदी बताये जा रहे थे। रोचक यह है कि 2004 में निर्वाचित लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या 24 फीसदी थी जो 2009 में बढ़कर 30 फीसदी हो गयी। वर्तमान में तो यह एक तिहाई से अधिक है। सवाल तो फिर उठेंगे कि संसद और विधानसभाएं दागियों से कब मुक्त होंगी। जब कोई भी राजनीतिक दल सत्ता की फिराक में अपने एजेण्डे को जनता के सामने रखता है तो यह बात पूरे मन से कहता है कि दागियों से न उसका वास्ता है और न उसे टिकट दिया जायेगा फिर आखिर इतने खेप के भाव सदन में दागी क्यों पहुंच जाते हैं। सम्भव है कि जनता से बहुत कुछ छुपाया जाता है इसलिये षीर्श अदालत ने उम्मीदवारों का इतिहास जनता के सामने रखने का फरमान सुना दिया। 
सवाल यह रहता है कि दागियों को राजनीति से खत्म करने के लिये कानून कहां है? जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 ऐसे अपराधों की सूची है जिसमें अयोग्यता की दो श्रेणियां हैं पहला भ्रश्टाचार निरोधक जैसे कानून जिसमें दोशी पाये जाने पर व्यक्ति अयोग्य हो जाता है जबकि दूसरी श्रेणी में सजा की अवधि अयोग्यता तय करती है। दर्जन भर ऐसे कानून हैं जिनमें सिर्फ जुर्माने पर 6 साल और जेल होने पर सजा पूरी होने के 6 साल बाद तक चुनाव पर पाबंदी है। लालू प्रसाद यादव, सुरेष कलमाड़ी, रसीद मसूद, ओमप्रकाष चोटाला, अजय चोटाला, ए राजा समेत दर्जनों ऐसे प्रतिबंध के दायरे में मिल जायेंगे। सवाल इसका नहीं है सवाल उसका भी है जो दल जात-पात, क्षेत्रवाद और जिताऊ उम्मीदवार को ध्यान में रखकर अपनी सियासी चाल चलते हैं और उन्हें टिकट देते हैं जो दर्जनों अपराधिक कृत्यों से आरोपित हैं। मौजूदा मोदी सरकार से लोगों को यह उम्मीद थी कि कम से कम इनके दौर में पारदर्षी और अपराधविहीन राजनीति होगी पर यहां भी निराषा और अंधकार ही है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेष से राजनीति का अपराधीकरण फिर चर्चे में भले आया हो पर इस पर ठोस कार्यवाही होगी इसे लेकर उम्मीद कम ही है। हालांकि इस बार सुप्रीम कोर्ट के फरमान को हल्के में लेना राजनीतिक दलों को भारी पड़ सकता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, February 12, 2020

इतिहास बने भी और दोहराये भी गए

लोकतंत्र का अर्थ देष काल और परिस्थितियों के अनुपात में स्वयं परिश्कृत होता रहा है। दिल्ली राज्य की राजनीति का क्षितिज पक्ष यह रहा है कि यहां नये मिजाज और नये लोकतंत्र की ऐसी परिभाशा गढ़ी गई जो रोचक होने के साथ सियासी जगत में भी हलचल का काम किया। 11 फरवरी को आये दिल्ली विधानसभा के ताजा नतीजों ने एक बार फिर राजनीतिक पण्डितों के लिए विमर्ष का विशय प्रदान कर दिया। 70 के मुकाबले 62 पर जीत दर्ज करके केजरीवाल ने यह संदेष दे दिया कि काम करोगे तो वोट मिलेगा। इसके पहले फरवरी, 2015 के नतीजे तो एक चर्चित लोकतंत्र का स्वरूप ही अख्तियार कर लिया था जब 67 सीटें जीत कर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों को धूल चटा दी थी जिसमें भाजपा तीन और कांग्रेस षून्य पर रही। इस बार के आंकड़े भी बहुत अलग नहीं है। आम आदमी पार्टी 5 सीट कम पायी है और भाजपा 3 से 8 पर हो गयी है जबकि कांग्रेस पहले की स्थिति में ही है। वैसे राजनीति विडम्बनाओं और विरोधाभासों का पुंज है बावजूद इसके बगैर देष का काम चलता नहीं है। किसी सरकार या राजनेता का मूल्यांकन करने के लिए कभी-कभी दषकों लग जाते हैं मगर केजरीवाल ने अपने पांच साल की सरकार में यह बता दिया कि नीयत में साफ और दिल्ली के विकास को लेकर वे एक समर्पित नेता है। जब सरकारें रिपोर्ट कार्ड की बात करती हैं तब ऐसा लगता है कि विकास कागजों पर उकेरा जायेगा जबकि हकीकत यह है कि विकास जनता को महसूस करना चाहिए। इसमें कोई दुविधा नहीं कि मुख्य विरोधी भाजपा ने दिल्ली की गद्दी हथियाने के लिए संगठन और मानव संसाधन का अतिषय उपयोग किया और राश्ट्रवाद के अलावा तत्कालीन घटना षाहीन बाग और सीएए आदि को चुनावी मुद्दा बना दिया। केजरीवाल पर कई आपत्तिजनक आरोप भी लगाये गये। भाजपा के छुटभइया नेताओं के बड़े बोल और बड़े नेताओं के ओछे बोल भी इस चुनाव के हिस्सा थे फिर भी परिणाम डाक के तीन पात ही रहे। सत्ता की मजबूत हूंकार भरने वाले दिल्ली की पांच साल से सरकार चला रहे केजरीवाल का स्पश्ट संदेष था कि विकास पर वोट मांग रहे हैं। यही बात भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में एक नई करवट का इषारा कर रही है मुख्यतः उनके लिए जो जाति, धर्म और क्षेत्र के बीच गुजर कर अपनी सत्ता की कुर्सी पाना चाहते हैं।
दरअसल लोकतंत्र ऐसी विधा है जहां सभी का समावेषन बड़ी आसानी से तो हो जाता है पर जब निभाने की बारी आती है तब वादे और इरादे की पोल-पट्टी खुलती है। लोकतंत्र में आलोचनाओं की कोई कमी नहीं होती। केजरीवाल भी इससे परे नहीं है मगर सत्ता प्राप्ति के लिए जो जनता के लिए करना चाहिए उसे करना उन्हें आता है। बिजली, पानी मुफ्त, महिलाओं का यातायात मुफ्त, सुरक्षा-संरक्षा, षिक्षा और चिकित्सा पर दिल्ली सरकार ने जो कदम उठाये और चुनावी मुद्दा बनाया वही बड़ी जीत का मुख्य कारण बना। केन्द्र में भाजपा सरकार दूसरी पारी खेल रही है। देष मन्दी के दौर से गुजर रहा है, बेरोजगारी चरम पर है और आर्थिक तौर पर जनता कमजोर महसूस कर रही है। हालांकि सरकार जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा समेत कुछ वाजिब मुद्दों पर सही कदम भी उठाये मगर बुनियादी विकास के बगैर लोकतंत्र चलता नहीं है। पहली बार 2013 में कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाले अरविन्द केजरीवाल केवल 49 दिन मुख्यमंत्री रहे और इस्तीफा दे दिया। जबकि 2015 में भारी-भरकम जीत के साथ वापसी की। क्रान्तिकारी विचारधारा से राजनीति कितनी चलती है इस पर सबके अपने-अपने आंकलन थे पर केजरीवाल ने यह सिद्ध किया है कि लोकतंत्र के साथ-साथ कामकाज में भी क्रान्तिकारी स्थिति पैदा की जा सकती है। सार्वजनिक मुद्दों पर बड़ी सहजता से बोलते हैं लगता है सीखने की आदत से अभी गुरेज नहीं किये। समय के साथ केजरीवाल को लोग समझने लगे और विष्वास भी काफी हद तक करने लगे थे। केजरीवाल ने एक काम और किया है कि लोगों के मन में यह बिठा दिया है कि यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है तो उनकी सरकार दिल्ली वालों के लिए कायाकल्प वाली सिद्ध होगी। हालांकि यह सपना अभी अधूरा है। 
भारत राज्यों का संघ है और इसी संघ में 28 राज्य और दिल्ली समेत 9 केन्द्रषासित प्रदेष हैं। केजरीवाल इस मामले में भी सफल कहे जायेंगे कि एक छोटे से अधिराज्य दिल्ली के मुख्यमंत्री होते हुए उन्होंने दिल्ली को उतना ही बड़ा बना दिया जितना बड़ा देष है। लोकतंत्र की विधाओं को जब खरोंच लगती है तब जनता हुंकार भरती है। 1993 से दिल्ली में सरकारों का चलन षुरू हुआ सुशमा स्वराज, मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा सहित षीला दीक्षित यहां की सत्ता पर आदि काबिज हुए ये पहले से सियासत के धनी और राजनीति के अनुभवी रहे थे जबकि केजरीवाल सियासत का पूरा ककहरा रटने से पहले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गये थे। दो टूक यह है कि राजनीति का एक गैर अनुभवी व्यक्ति लोकतंत्र के मामले में षिखर पर और सत्ता के मामले में बहुधर्मी प्रयोग के लिए वो मान्यता हासिल किया जिसके लिए बरसों खपाने पड़ते हैं। जनता परिपक्व है सियासत के साथ सत्ता को भी समझती है। मीडिया से लेकर भाजपा और कांग्रेस के सभी कद्दावर नेताओं ने केजरीवाल को उतना भारयुक्त नहीं माना था जितना उन्होंने स्वयं को सिद्ध किया है।
सरकार के कार्यों की क्या षैली हो इसका अनुकरण भी केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती थी। भ्रश्टाचार को लेकर उनकी बेदाग छवि लोकतंत्र को भुनाने में बड़ी काम आई। अन्ना आंदोलन में उनकी पैठ और उससे मिली षोहरत राजनीतिक धु्रवीकरण में एक पूंजी की तरह पहले से थी। सबके बावजूद एक ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर उभरे कि देष की सियासत में बड़ा वजूद विकसित किया। षायद ही किसी प्रदेष के मुख्यमंत्री को इतनी ताकत और षिद्दत से पहले कभी लोकप्रियता मिली हो। दिल्ली की बागडोर इतनी आसान भी नहीं है यह षहरी मिजाज का है, यहां की परिवहन व्यवस्था को सुचारू बनाना, प्रदूशण से निपटना, बिजली, पानी, सुरक्षा के साथ विषेशतः महिला सुरक्षा के लिए मजबूत इंतजाम करना तो चुनौती है ही साथ ही स्कूल, काॅलेजों की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाना आदि आज भी केजरीवाल के लिए किसी जंग से कम नहीं है। बीते 5 वर्श में जितना बोया गया है और जितना काटने की उम्मीद की जा रही है उसके बीच संतुलन देखा जा सकता है। कई बार परिस्थितयों के भंवर में भी फंसे हैं। इनके मंत्रिपरिशद् के सदस्यों पर फर्जी डिग्री के आरोप लगना, इनके भ्रश्टाचार मुक्त अवधारणा को झटका देते हैं। कुछ अन्य मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों पर आरोप लगना भी इन्हें खास से आम बनाने के काम करते रहे हैं। जनवरी 2016 में प्रदूशण से निपटने के लिए पहले बार आॅड-ईवन फाॅर्मूला का सफलता दर जिस तरह से बयान किया गया है वह बहुत समुचित और कारगर रहा। दिल्ली की जनता ने भी इसे हाथोंहाथ लिया है और बिना किसी जोर जबरदस्ती के इसका साथ दिया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष से लेकर कई आला अफसरों ने केजरीवाल के इस फाॅर्मूले को प्रोत्साहित किया। फिलहाल इसका प्रयोग समय-समय पर कई बार हुआ है। 
जब दिल्ली में विधानसभा के नतीजे केजरीवाल के पक्ष में एकतरफा हुए तब लोकतंत्र की दुनिया में एक नई बहस फिर छिड़ गयी कि ऐसे जनाधार का क्या आधार था। जाहिर है दिल्ली विधानसभा का चुनाव केजरीवाल ने दिल्ली की पिच पर लड़ा जबकि भाजपा राश्ट्रवाद के पिच पर खड़ी थी। एक ओर बिजली, पानी और रोटी थी तो दूसरी ओर राश्ट्रवाद, सीएए और एनआरसी था। भाजपा के थिंक टैंक को भी यह सोचना होगा कि यदि परिवहन को सुधारने चले हैं तो रेलगाड़ी के मुनाफे को वायुयान में लागू करने से काम नहीं चलेगा। फिलहाल चुनावी नतीजे देखकर तो कह सकते हैं कि दिल्ली की जनता केजरीवाल की जनता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, February 10, 2020

द्विपक्षीय सम्बन्ध मज़बूत करेगा यह दौरा

श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे जो कुछ साल पहले श्रीलंका के राश्ट्रपति हुआ करते थे इन दिनों वे भारत के दौरे पर हैं। जिन्हें चीन के प्रति झुकाव रखने के लिए जाना जाता है जबकि इनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे पिछले साल नवम्बर में राश्ट्रपति बने। मगर राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों भाई भारत की यात्रा करके विष्वास बहाली के साथ द्विपक्षीय रिष्तों को मजबूत करने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। रही बात भारत की तो वह दक्षिण एषिया में षान्ति बहाली का न केवल दूत है बल्कि सार्क देषों में वह सभी के लिए बड़े भाई की भूमिका में भी रहता है। श्रीलंका और मालदीव को लेकर भारत की चिंता अन्य दक्षिण एषियाई देषों से अलग है। इसका मूल कारण हिन्द महासागर में चीन का बढ़ता दबदबा रहा है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी दक्षिण एषिया में षान्ति हेतु भारत को एक बेहतरीन देष मानते हैं। भारत पड़ोसी प्रथम की नीति पर 1997 से चलायमान है जबकि मोदी षासनकाल में यह कहीं अधिक परवान चढ़ा है। ध्यानतव्य हो कि श्रीलंका में सत्ता का परिवर्तन महज तीन माह पुराना है पर सम्बंध सदियों से चला आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी 2015, 2017 और 2019 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं। जो पड़ोसी धर्म के लिहाज़ से बहुत समुचित रहा है। श्रीलंकाई प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे की चार दिवसीय यात्रा दोनों देषों के सम्बंधों के विविध आयामों को नया रूप तो देगा ही साथ ही चीन के प्रति बढ़े झुकाव को संतुलित करने के तौर पर भी इस यात्रा को देखा जा रहा है। 
कार्यक्रम का लब्बोलुआब यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ षिश्टमण्डल की बैठक के अलावा पूरी यात्रा में राजघाट से षुरू होकर वाराणसी, सारनाथ, बोधगया और तिरूपति तक रहेगी जिसे सामाजिक और धार्मिक दृश्टि से कहीं अधिक पुख्ता करार दिया जा सकता है। दस वर्श तक श्रीलंका के राश्ट्रपति रहे राजपक्षे के समय में चीन ने अपने निवेष को लगातार श्रीलंका में बढ़ाया और अरबों डाॅलर उधार दिया और श्रीलंका चीनी युद्धपोतों के लिए अपना घर खोल दिया। साल 2017 में चीन के साथ करीब 400 करोड़ डाॅलर के हथियारों का सौदा हुआ हालांकि तब उनकी सत्ता नहीं थी। श्रीलंका चीन को हब्बनटोटा द्वीप सौंपकर भारत के लिए चिंता की नई लकीरें पहले ही खींच चुका है मगर श्रीलंका को भी यह समझ होगी कि चीन से दोस्ती और भारत से बेरूखी पूरी तरह सम्भव नहीं है। फिलहाल यह दौरा दोनों देषों के बीच वार्शिक रक्षा वार्ता और समुद्री सुरक्षा सहयोग को बल देगा साथ ही 45 करोड़ डाॅलर की उस ऋण सुविधा के क्रियान्वयन को भी अन्तिम रूप दिये जाने की भी स्थिति होगी जिसका प्रधानमंत्री मोदी भी नवम्बर में नई दिल्ली में श्रीलंकाई राश्ट्रपति गोटबाया की यात्रा के दौरान वादा किया था। गौरतलब है कि गोटबाया की यात्रा इस बात की तस्तीक थी कि भले ही नई सत्ता चीन से प्रभावी रही हो पर भारत की अहमियत को श्रीलंका कमतर नहीं आंकता है। 
भारत और श्रीलंका के बीच समुद्र के चलते कुछ दूरियां जरूर रहीं मगर फासले कभी नहीं रहे। यह दौरा दोनों देषों के बीच कितना विष्वास भर पायेगा यह तो समय ही बतायेगा। मगर इस मामले में काफी कुछ जिम्मेदारी श्रीलंका की ही होगी क्योंकि श्रीलंका के प्रत्येक परेषानी में साथ ही उसके उत्थान और विकास को लेकर भारत कभी पीछे हटा ही नहीं। तमिल विवाद के हल से लेकर जाफना में रेल की पटरी बिछाने और चिकित्सालय, विद्यालय व संचार तकनीक के अलावा अन्य बुनियादी मामलों में भारत श्रीलंका के लिए बहुत कुछ करता रहा है। भारत के लिए श्रीलंका महत्वपूर्ण है क्योंकि दक्षिण एषिया समेत दक्षिण पूर्व एषिया और हिन्द महासागर में चीन का लगातार दबदबा भारत को सामरिक और व्यापारिक दोनों दृश्टि से कमजोर कर रहा है और चुनौती भी दे रहा है। यही कारण है कि भारत आसियान देषों में अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में लगातार बना हुआ है साथ ही दक्षिण चीन सागर में दखल के साथ हिन्द महासागर में बढ़े चीन के प्रभाव को संतुलित करना चाहता है। ऐसे में दक्षिण पूर्व एषियाई देष आसियान की भूमिका महत्वपूर्ण है और आसियान भी दक्षिण चीन सागर में चीन के एकाधिकार से नाराजगी जाहिर करता रहा है मगर वहां के बाजार पर चीन का जिस तरह कब्जा है उसे देखते हुए वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। इतना ही नहीं आसियान के रास्ते भारत पैसिफिक देषों मसलन दक्षिण कोरिया, जापान और आॅस्ट्रेलिया के अलावा अन्य द्वीपीय देषों पर अपनी पहुंच और बढ़ाना चाहता है। ऐसे में श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय सम्बंध हिन्द महासागर के साथ चीन की संलग्नता को देखते हुए बेहद अहम है। फिलहाल राजपक्षे परिवार श्रीलंका में पांच साल राज रहेगा और आना-जाना लगा रहेगा। दो टूक यह भी है कि भारत को दरकिनार करना श्रीलंका के लिए कभी भी सहज नहीं हो सकता। ऐसे में भारत को रणनीतिक दृश्टि से न केवल चैकन्ना रहना चाहिए बल्कि पड़ोसी प्रथम की नीति को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए बेबाकी से आगे बढ़ते रहना चाहिए।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Sunday, February 9, 2020

किसान की कमाई हर बार कागज़ों में

इस बार के बजट में खेत-खलिहान और गांव के लिए 2.83 लाख करोड़ रूपए का प्रावधान दिखता है। कृशि और किसानों के हालात को देखते हुए यह बजट कितना वाजिब है इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। बजट में ज्यादातर योजनाएं पुरानी हैं जो कृशि में सुषासन के बड़े दावे का पोल खोलती है। लाख टके का सवाल यह है कि जब देष की अर्थव्यवस्था रफ्तार में है ही नहीं, तो गांव स्पीड कैसे पकड़ेंगे। इस बार जो गांव को दिया गया वह पिछले बजट की तुलना में महज तीन फीसदी ही अधिक है जबकि महंगाई इसकी तुलना में कई गुना हो गयी है। यदि प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में सरकार दोगुना या तीन गुना तक का इजाफा करती है तो अच्छा कदम कहा जा सकता है। मनरेगा में भी बजट का इजाफा होना चाहिए था पर इसमें कुछ भी नहीं हुआ। अनुमानतः यह 70 हजार करोड़ तक की कीमत तो रखता ही है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 16 सूत्रीय कार्यक्रमों से गांव का कायाकल्प करने की बात कह रही हैं और इसी से किसानों की आय दोगुनी करने की अवधारणा भी पेष कर रही हैं। गौरतलब है कि इन्दिरा गांधी के षासनकाल में भी कुछ ऐसे ही बीस सूत्रीय कार्यक्रम देखने को मिले थे। उर्वरक का संतुलित प्रयोग सौर उर्जा से लेकर सोलर पम्प आदि तमाम बातें नई नहीं हैं। कह सकते हैं कि नई सरकार पुराने ढ़र्रे पर चल रही है। पड़ताल बताती है कि अभी तक किसानों के कल्याण के लिए जो वायदे, योजनाएं और राहतें दी जाती रहीं हैं उनमें नजरिया वोट बैंक का अधिक रहा है। इस बार के बजट में भी कृशि और किसानों को रिझाने के लिए पूरी ताकत लगायी गयी है पर इसके समेत ग्रामीण विकास को जितना धन चाहिए वह कम ही कहा जायेगा है।
2016 का बजट पेष करते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री अरूण जेटली ने किसानों का इस बात के लिए आभार प्रकट किया था कि वे देष की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है। हालांकि किसान युगों से ऐसी ही रीढ़ है यदि समझने में किसी ने भूल की है तो वह समाज और सरकार है। देखा जाय तो हर साल के बजट में किसानों को राहत मिलती रही है पर उनकी स्थिति जस की तस बनी रहती है। क्या इसके पीछे किसान जिम्मेदार है या फिर सरकार। बहुत पहले यह कहा जाता रहा कि किसानों के लिए अलग से बजट का प्रावधान हो, कृशि और किसान समेत ग्रामीण विकास के लिए अलग नीति साथ ही अलग थिंक टैंक हो। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को अमली जामा पहनाकर इनकी बेपटरी जिन्दगी को समुचित किया जाये। मगर मोदी सरकार दषकों पुरानी इस रिपोर्ट से बचती रही। वर्श 2016-2017 में जिस कृशि का विकास स्तर 6.3 था मौजूदा समय में वह 2.9 पर कराह रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है वे किसान जो तमाम मषक्कत के बाद उत्पादन तो देते हैं पर उन्हें न तो कीमत मिल रही है और न ही सुरक्षित जिन्दगी या फिर वे सरकारें जो किसानों की आय बढ़ाने के लिए थोक में नीतियों की घोशणा करते हैं और स्वयं अवरोधक बने हुए हैं। पर्याप्त भण्डारण की व्यवस्था नहीं होने से किसानों की उपज का मोल गिर रहा है। गौरतलब है कि देष में अभी 162 मिलियन मैट्रिक टन खाद्यान्न के भण्डारण की व्यवस्था है जबकि आवष्यकता इससे अधिक की है। किसानों के लिए अपने उत्पादों को बेचना बड़ी समस्या रही है कृशि, सिंचाई व अन्य गतिविधियों के लिए 1.60 लाख करोड़ और ग्रामीण विकास तथा पंचायती राज हेतु 1.23 लाख करोड़ रूपए की व्यवस्था की है। जाहिर है 16 सूत्री कृशि सुधार के कार्यक्रम कृशि और किसान को आत्मनिर्भरता की ओर ले जायेंगे पर यह कितना सफल होगा कहना कठिन है। 
आर्थिक मंदी की आषंकाओं और जलवायु परिवर्तन की मार से इतर आर्थिक सर्वेक्षण में कृशि क्षेत्र के लिए षुभ संकेत निहित था। सरकार पर्याप्त भण्डारण व्यवस्था को लेकर पीपीपी माॅडल की बात कह रही है। कृशि व ग्रामीण विकास के लिए बजट के माध्यम से जो धन मिला है उसमें नये प्रयोगों का साहस तो दिखता है मगर पिछले अनुप्रयोगों के नतीजे आषानुरूप नहीं रहे हैं। पैदावार के प्रबंधन को जब तक सक्षम नहीं बनाया जायेगा तब तक आमदनी नहीं बढ़ेगी। एनएसएसओ के आंकड़े बताते हैं कि साल 2001 से 2011 के दषक के दौरान किसानों की आमदनी महज डेढ़ फीसद ही बढ़ाया जा सका। इस आंकड़े से यह कयास लगाना आसान है कि किसान भूखे क्यों मर रहे हैं और हमारी नीतियां क्यों सूखी हुई हैं। नीति आयोग ने मार्च 2017 में डबलिंग फार्मस इनकम रेषनल स्ट्रैटजी प्रोस्पेक्टस एण्ड एक्षन प्लान जारी किया था। सरकार भी कुछ एक्षन मोड में दिखती है जिसके तहत एग्री मार्केट को उदार बनाना देखा जा सकता है। देष के सौ जिलों में सिंचाई की सुविधा को बेहतरी हेतु योजना समेत किसान रेल और कृशि उड़ान इस बार के बजट के कुछ नूतन पहल है। कृशि उड़ान के तहत राश्ट्रीय और अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर फल-सब्जी समेत डेरी व अन्य उत्पादों को पहुंचाना आसान होगा इसके अलावा पहली बार किसान रेल चलायी जायेगी जिसमें दूध, मांस-मछली समेत षीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं को पहुंचाने के लिए मालगाड़ियों में वातानुकूलित कोच भी लगेंगे। जाहिर है इससे पूर्वोत्तर भारत को भी लाभ होगा। 2022-23 तक मछली उत्पादन को 2 लाख टन करने और दुग्ध उत्पादन को 2025 तक दोगुना करने का लक्ष्य है। जबकि किसानों की आय 2022 में दोगुना करने का लक्ष्य पीछे से चला आ रहा है। योजनाएं कागजों पर जितनी खूबसूरत दिखती हैं वाकई में यदि इन्हें जमीन मिल जाये तो किसान की जिन्दगी संवर जाये। 
दो-तीन पहलू और समझना जरूरी है। देष के किसान तीन लाख करोड़ रूपए के कर्ज में डूबे हैं जिसे लेकर बजट में कोई चर्चा नहीं है। विष्व कृशि बाजार में भारत के किसान कैसे मुकाबला करेंगे इसका भी रोड़ मैप पूरी तरह नहीं दिखता है। ब्रिक्स देषों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। गौरतलब है कि इसमें रूस, चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील षामिल है। जिसकी पांच प्राथमिकताएं हैं खाद्य सुरक्षा और पोशण के लिए कृशि विकास में तेजी लाना, मजबूत कृशि, आधुनिक कृशि, सुरक्षित कृशि व्यापार और सूचनाओं का बेहतर आदान-प्रदान। ब्रिक्स का उद्देष्य विकसित और विकासषील देषों में पुल का काम करना रहा है। भारत की आधी से अधिक आबादी कृशि पर निर्भर है। चावल उत्पाद में भारत दूसरे पायदान पर है। गेहूं की उम्दा पैदावार कर दुनिया को रोटी उपलब्ध कराने की सक्षमता रखता है साथ ही फल और सब्जी के मामले में यह षीर्श पर है। अनुमान सहज है कि किसानों में कोई कमी नहीं है। यदि कृशि को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक उड़ान देना है तो नीति और धन के साथ साफ-सुथरे मन की आवष्यकता पड़ेगी और इसका काम सरकार को करना होगा। इस बार का बजट ठोस कदम का संकेत देता है पर पहले के बजट से बहुत अलग नहीं है। वित्त मंत्री ने किसानों को तकनीकी तौर पर उन्नत बनाकर उनकी कमाई बढ़ाने पर जोर तो दिया है पर यह भी ध्यान रखना है कि इनकी कमाई केवल कागजी न रह जाये। सरकार गरीब के हाथ में रूपया पहुंचाने का भी पूरा इंतजाम रखे। यह बजट बेषक कृशि और किसान के लिए फायदेमंद रहेगा मगर पूरी तरह कायाकल्प करेगा ऐसा कहना जल्दबाजी होगा। कृशि पर निर्धारित बजट को लेकर मिलीजुली राय है स्थिति को देखते हुए ग्रामीण विकास के लिए इसे विस्तृत योजना के लिए जाना जाता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेश  ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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बजट में दिखा रोज़गार कहाँ और कैसे बढ़े

प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य यह है कि रोज़गार की राह कभी भी समतल नहीं रही और इसे बढ़ाने को लेकर हमेषा चिंता प्रकट की जाती रही है। तमाम कोषिषों के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की चुनौती मौजूदा सरकार के सामने बड़े पैमाने पर व्याप्त है। नये बजट में रोज़गार के नये प्रारूप सुझाये गये हैं जिससे आषायें जगती हैं परन्तु सफलता दर को लेकर निष्चिंत नहीं हुआ जा सकता। किसी भी देष के विकास की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्थिति को यदि समझना है तो वहां के युवाओं के भीतर के कौषल और रोजगार देखना चाहिए। भारत इन दिनों रोजगार के मामले में तेजी से पिछड़ रहा है जाहिर है इसे लेकर नीतियों और योजनाओं की सख्त आवष्यकता है। ताजा बजट यह इषारा करता है कि रोजगार को लेकर नये आयाम गढ़ने का प्रयास किया गया है। बजट में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के अवसर निर्मित करने से लेकर प्रषिक्षण देने तक तथा विदेष में रोजगार उपलब्ध कराने आदि के प्रावधान निहित हैं। स्वरोजगार को बढ़ावा देने वाली स्टार्टअप कम्पनियों को भी कर के मामले में छूट दी जा रही है ताकि क्षेत्र व्यापक बने। सरकारी हो या सार्वजनिक क्षेत्र अराजपत्रित कर्मचारियों की नियुक्ति में भी बड़े सुधार की बात बजट में की गयी है। परीक्षा का आयोजन आॅनलाइन किया जायेगा और इसके लिए हर जिले में टेस्ट सेन्टर होंगे जिसमें 112 जिले प्राथमिकता में रहेंगे जो देष में सबसे पिछड़े हैं। बजट के कई प्रावधानों में एक यह भी है कि कई पाठ्यक्रमों को रोजगारपरक बनाया जायेगा। कुछ कोर्सों को उद्योगों के कार्यक्रम से जोड़ा जायेगा। जाहिर है इससे कौषल विकास सामने आयेगा और रोज़गार के रास्ते भी चैड़े होंगे। वैसे रोज़गार के मुद्दे पर विपक्ष के निषाने पर मोदी सरकार खूब रही है। गौरतलब है स्वरोजगार की दिषा में स्टार्टअप से लेकर मुद्रा योजना को बढ़ावा दिया गया। मगर सूरत फिर भी नहीं बदली है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। ऐसे में स्वरोजगार भी एक विकल्प बन जाता है साथ ही निजी क्षेत्र में रोजगार की तलाष व्यापक पैमाने पर किया जाना भी लाज़मी है। युवाओं के लिए रोज़गार का विषेश प्रावधान सरकारों की चिंता रही है मगर कोई भी सरकार इस पर खरी नहीं उतरी है। आर्थिक सर्वेक्षण यह बताते हैं कि साल 2011-12 से 2017-18 के बीच 2.62 करोड़ को नौकरी मिली है जो संगठित क्षेत्र से सम्बंधित है। मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं बेषक नागरिकों पर केन्द्रित हो पर नये डिजायन और संस्कृति वाली मोदी सरकार रोज़गार के मामले में कमजोर रही है। स्वरोेज़गार देने के लिए षुरू की गयी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मुद्रा योजना को इस बजट में 500 करोड़ रूपया प्रदान किया गया जो कि इसके ठीक पहले बजट में भी यही आंकड़ा था। रोचक यह है कि 12 करोड़ रोज़गार का आंकड़ा इसी योजना से सरकार बताती रही है जबकि ताजा बजट में इसमें धन की मात्रा बढ़ाना उचित नहीं समझा। प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम को बजट में 25 सौ करोड़ रूपया प्रदान किया गया जो पिछले बजट की तुलना में 36 करोड़ अधिक है। गौरतलब है कि बेरोज़गारी की दर बीते 45 वर्श की तुलना में सबसे कमजोर स्थिति में है। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने और रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की चुनौती सरकार के लिए पहले भी थी और अभी भी बरकरार है।  
रिपोर्ट भी बताती है कि साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रमबल वाला देष होगा और इनकी सही खपत के लिए बड़े नियोजन की दरकार होगी। बजट में इस बात का ध्यान है कि युवाओं को विदेष में रोज़गार के लिए तैयार किया जाये। चूंकि रोज़गार के अपने मानक होते हैं ऐसे यदि इन्हें प्रषिक्षित और उनके अनुरूप तैयार किया जाय तो सम्भावनाएं प्रबल होंगी। वित्त मंत्री का भी इषारा कुछ ऐसा ही है। 2025 तक 4 करोड़ बेहतर सैलेरी वाली नौकरियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य तभी पूरा होगा जब रोज़गार के मुताबिक कौषल विकास होगा। सरकार ने मनरेगा परियोजना को इस बार के बजट में तवज्जो नहीं दिया सम्भव है कि ग्रामीण रोज़गार पर इसका असर पड़ेगा। सर्वे कहते हैं कि नवम्बर 2019 तक लगभग 70 लाख लोगों को प्रधानमंत्री कौषल विकास योजना के तहत प्रषिक्षण दिया गया जो 65 फीसदी युवा के अनुपात में मामूली ही कही जायेगी। देष में 75 करोड़ से अधिक युवा हैं तुलना में नौकरियां निहायत मामूली हैं। एनएसएसओ की रिपोर्ट भी यह कहती है कि 2017-18 में देष में बेरोज़गारी 6.1 फीसद रही जो 1972-73 के आंकड़े के बराबर है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन ने भी जनवरी 2018 में कहा था कि भारत में बेरोजगारी की दर बढ़ेगी और यह कई वर्शों के लिए था।
विकसित और विकासषील देषों का पुल कहा जाने वाला ब्रिक्स जिसमें पांच देष हैं उसकी तुलना में भारत बेरोज़गारी के मामले में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के बाद आता है। रोज़गार के मसले में चीन बेहतर देष है। षायद यही कारण है कि सरकार 2030 तक साढ़े आठ करोड़ रोज़गार चीनी माॅडल पर असेम्बलिंग सिस्टम से विकसित करना चाहती है। बजट में षिक्षा पर लगभग एक लाख करोड़ रूपए खर्च करने की बात कही गयी है जबकि कौषल विकास के लिए महज 3 हजार करोड़ की बात की गयी है जो रोज़गार की दृश्टि से मामूली है। रोज़गार कैसे बढ़े इसे लेकर बजट तो बढ़ाने ही पड़ेंगे साथ ही युवाओं को भी यह समझना होगा कि केवल डिग्री रोज़गार का मानक नहीं है। मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर में आयी गिरावट को दुरूस्त किये बिना रोज़गार नहीं बढ़ पायेगा। 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य भी रोज़गार सृजन के साथ ही हासिल होगा। सषक्त समाज आर्थिक सुदृढ़ता के बगैर सम्भव नहीं है। इस हेतु रोज़गार जरूरी है। बागवानी, पषुपालन एवं डेरी, मत्स्य पालन आदि के चलते भी ग्रामीण रोज़गार को बढ़त इस बजट से मिल सकती है। विष्व बैंक का एक पुराना आंकड़ा है कि यदि भारत में पढ़ी-लिखी महिलाएं और ग्रामीण क्षेत्रों में वहां के वातावरण के हिसाब से कार्य को बड़ा किया जाय तो जीडीपी में 4 फीसदी की बढ़त हो जायेगी। वर्श 2020-21 के बजट में निहित भाव रोज़गार को लेकर कहीं खुले तो कहीं छुपे दिखाई देते हैं। जाहिर है मन्दी के इस दौर में अर्थव्यवस्था तीव्र नहीं है ऐसे में निवेष और बाजार भी कमजोर है। रोज़गार को मजबूत करना है तो संतुलित नीति के साथ धन और अच्छे मन का परिप्रेक्ष्य प्रकट करना ही होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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पड़ोसी भावना और भरोसे की खोज में एससीओ

वर्तमान में पाकिस्तान के साथ भारत के सम्बंध पटरी से उतरे हुए हैं। सीमा रेखा के अलावा पाकिस्तान से दोस्ती के कारण चीन के साथ भी कमोबेष भारत की तनातनी रहती है। हालांकि चीन के साथ द्विपक्षीय सम्बंध और संवाद बावजूद इसके रूके नहीं हैं। उक्त दोनों देष षंघाई को-आॅपरेषन आॅर्गनाइजेषन अर्थात एससीओ के पूर्ण सदस्य हैं जिसकी बैठक इसी वर्श पहली बार नई दिल्ली में आयोजित होगी। वैसे तो एससीओ में पूर्णकालिक सदस्यों की संख्या मौजूदा समय में भारत, रूस, कजाकिस्तान और किर्गिस्तान सहित 8 देष हैं। मगर पड़ताल बताती है कि आपसी भावना और भरोसे के मामले में यह संगठन भी उतना खरा नहीं है। साल 2001 से एससीओ की बैठकों का सिलसिला कई देषों से गुजरता हुआ फिलहाल अब भारत पहुंचा है जो गिनती की लिहाज़ से 20वां होगा। गौरतलब है कि एससीओ की पहली बैठक सितम्बर 2001 में कजाकिस्तान में आयोजित की गयी थी। तभी से यह प्रतिवर्श सदस्य देषों में आयोजित होता रहा है। इसमें अफगानिस्तान, ईरान, बेलारूस और मंगोलिया जैसे देष आॅबर्जवर के रूप में देखे जा सकते हैं। जाहिर है इस संगठन का सदस्य होने के नाते पाकिस्तान को भी न्यौता दिया जायेगा। देखने वाली बात यह होगी कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान बैठक में भाग लेते हैं या नहीं। फिलहाल ये निर्णय इस्लामाबाद को लेना है। गौरतलब है कि भारत और पाकिस्तान दोनों जून 2017 में एससीओ के पूर्ण सदस्य बने थे। 
एससीओ के लक्ष्य को देखने से इसकी प्रासंगिकता का पता चलता है। राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य मामलों में एक-दूसरे की मदद करना इसके मूल रूप में है। साथ ही आपसी भरोसा मजबूत करना और पड़ोसी भावनाओं को बढ़ावा देना इनके लक्ष्यों में षुमार है। इस संगठन में चीन और पाकिस्तान ऐसे पड़ोसी देष हैं जिनसे भारत व्यापक पैमाने पर परेषानी में रहा है। एक आतंकवाद का षरणगाह है तो दूसरा उसका समर्थन करता है। जाहिर है भावना और भरोसे के मामले में दोनों कभी भी खरे नहीं उतरे। ऐसे में यह संगठन कई विचारों में बंटा भी दिखाई देता है। षिक्षा, ऊर्जा, पर्यटन, पर्यावरण जैसे मुद्दों को लेकर आपसी सहयोग बढ़ाना साथ ही षान्ति, सुरक्षा और स्थिरता के मामले में पारस्परिक हिस्सेदारी एससीओ का कत्र्तव्य है। इसमें कोई दुविधा नहीं यह संगठन एक बेहतर उद्देष्य के लिए गढ़ा गया था और बादस्तूर बना हुआ है। एससीओ के सदस्य देषों में सबसे ज्यादा रूस और मध्य एषियाई देषों के साथ भारत का सम्बंध देखा जा सकता है। मध्य एषिया के लिए भारत की कनेक्ट सेंट्रल एषिया पाॅलिसी वाकई एक नई आवाज है। इसके अलावा रूस, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान को मिला दें तो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस और तेल का भण्डार का क्षेत्र बनता है। गौरतलब है कि तुर्कमेनिस्तान के पास संसार का पांचवा सबसे बड़ा और उज्बेकिस्तान के पास आठवां सबसे बड़ा गैस भण्डार है। कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान के पास यूरेनियम भी है। यदि इनके बीच भारत का सकारात्मक द्विपक्षीय मजबूत करार सम्भव होता है तो कम कीमत में गैस और तेल की सप्लाई सम्भव है जिसके चलते सऊदी अरब समेत कई खाड़ी देषों पर से निर्भरता घटेगी।
षंघाई सहयोग संगठन में कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला सदस्य चीन जहां पड़ोसी देषों के साथ मसलन म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेष समेत श्रीलंका और मालदीव में अपनी दखल बढ़ाकर न केवल दक्षिण एषिया बल्कि आसियान देषों के साथ सामरिक और आर्थिक लड़ाई में भारत को पीछे धकेलने में लगा है वहीं भारत दक्षिण चीन सागर में अमेरिका और जापान के साथ मिलकर उसके प्रभाव को कम करने की फिराक में है। ताकि हिन्द महासागर में उसकी ताकत संतुलित कर सकें। ऐसा कम ही रहा है जब चीनी राश्ट्रपति का छोटे पड़ोसी देषों में आना-जाना रहा हो। अक्टूबर 2019 में नेपाल और अब म्यांमार में षी जिनपिंग का जाना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है। चीन की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड़ पर जहां पड़ोसी देषों की सहमति है वहीं भारत का विरोध बना हुआ है। एक ओर पाकिस्तान की गतिविधियों पर चीन का मौन और समय पर साथ देना दूसरी तरफ अन्य पड़ोसियों पर कर्ज और आर्थिक समझौते के साथ दबाव में लेना दोनों ही तरीकों में झटका भारत को ही है। एससीओ की बैठक जब दिल्ली में होगी तब भारत यह नहीं भूलेगा कि चीन और पाकिस्तान किस भरोसे और किस भावना के देष हैं। एससीओ के अन्य सदस्य रूस सहित मध्य एषियाई देषों से भारत के सम्बंध अच्छे हैं। केवल व्यापार ही नहीं धर्म और संस्कृति का भी कनेक्षन यहां से देखा जा सकता है। नैसर्गिक मित्र रूस ने तो जम्मू-कष्मीर में धारा 370 हटाने पर स्पश्ट कह दिया है कि जिसे संदेह हो वह वहां जाये। जाहिर है कि षीत युद्ध के काल से साथ निभाने वाला सोवियत रूस आज रूस के तौर पर भारत से प्रगाढ़ सम्बंध बनाये हुए हैं। फिलहाल यह पाकिस्तान पर निर्भर है कि इमरान खान एससीओ समिट में आते हैं या फिर किसी प्रतिनिधि को भेजते हैं। जिस प्रकार 2019 के किर्गिस्तान समिट में पुलवामा हमले, जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद दोनों देषों के बीच चीजें गम्भीर हो चली थीं। इसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान का नाम लिए बिना खूब सुनाया था षायद यह बात पाकिस्तान नहीं भूला होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि जो देष पाकिस्तान को मदद देते हैं, उसे प्रायोजित करते हैं, उनकी फण्डिंग करते हैं उनसे भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए। जाहिर है यहां इषारा चीन की ओर था। 
इस बार दिल्ली में आयोजित एससीओ समिट का मेजबान भारत काफी दम-खम के साथ बात को रखने का प्रयास करेगा। हालांकि 2005 में पर्यवेक्षक के तौर पर भारत इसका हिस्सा बना था तब से इसकी उपस्थिति कमतर नहीं रही है और मोदी षासनकाल में तो यह और प्रभावी थी। चीन और रूस के बाद भारत इस संगठन का तीसरा सबसे बड़ा देष है और इन दिनों भारत का अन्तर्राश्ट्रीय कद भी बहुत बढ़त लिए हुए है। दुनिया में सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन एससीओ भारत के लिए कितना सफल होगा कयास लगाना मुष्किल नहीं है। आतंकवाद हो, ऊर्जा की आपूर्ति या प्रवासियों का मुद्दा हो ये सब अहम् रहेंगे। सम्भव है कि प्रधानमंत्री मोदी चीन और रूस के राश्ट्रपति से मिलेंगे मगर इमरान खान से कोई औपचारिक बातचीन नहीं करेंगे। हालांकि इमरान खान इस फिराक में काफी समय से है कि मोदी से बातचीत हो पर भारत का रूख साफ है कि पहले आतंकवाद खत्म करो फिर संवाद के रास्ते खुलेंगे। एससीओ का नई दिल्ली समिट एक नये तेवर और क्लेवर का होगा। चीन में मुख्यालय और 8 पूर्णकालिक सदस्यों, 4 आॅबर्जवर और आर्मेनिया, अजरबेजान, कम्बोडिया, नेपाल, श्रीलंका और तुर्की समेत आधा दर्जन डायलाॅग सहयोगी के सहारे 2020 की बैठक अपेक्षा पर खरी उतरेगी ऐसी अपेक्षा की जा सकती है पर चीन और पाकिस्तान के मामले में भावना और भरोसा बढ़त लेंगे इसकी गुंजाइष कम ही है। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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नैसर्गिक मित्रता को पुख्ता करता रूस


हमें भारत की नीतियों पर षक नहीं जिन्हें है, वे कष्मीर का दौरा करें। उक्त वक्तव्य रूस की ओर से तब आया है जब पाकिस्तान चीन के जरिये कष्मीर मुद्दे को संयुक्त राश्ट्र में उठाने की लगातार कोषिष में है और कई इसे लेकर भारत की नीतियों पर प्रहार कर रहे हैं। गौरतलब है कि बीते 17 जनवरी को रूस के उपराजदूत से जब यह पूछा गया कि क्या वह कष्मीर की यात्रा करना चाहेंगे तो उन्होंने कहा कि दोस्त के तौर पर आमंत्रित करेंगे तो निष्चित तौर पर जायेंगे मगर बिना गये भी भारत की कष्मीर नीति का हम समर्थन करते हैं। यह उन लोगों को कड़ा संदेष हो सकता है जो भारत के इस फैसले को संदेह से देखते हैं। रूस का यह बयान भारत की नैसर्गिक मित्रता को एक बार फिर चमकदार बना देता है। वैसे इस मामले में दुनिया अब यह जान गयी है कि भारत का आंतरिक मामला है और इससे दूर ही रहना चाहिए। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी यह मान लिया है कि कष्मीर मामले पर उनके साथ कोई नहीं है। बावजूद इसके वे खाड़ी देषों से लेकर कईयों से अपने पक्ष की अपेक्षा कर रहे थे। साथ न मिलने के चलते हताषा भरे एक बयान में इमरान खान ने पष्चिमी देषों पर व्यावसायिक हितों को महत्व देने का आरोप मढ़ दिया। गौरतलब है कि भारत की अन्तर्राश्ट्रीय कूटनीति बीते कुछ वर्शों से फलक पर है और पाकिस्तान इस मामले में फर्ष पर है। इसके पीछे एक बड़ी वजह उसके देष के भीतर आतंकी नेटवर्क का होना है। दो टूक यह है कि जिस आतंकवाद को पालने-पोसने में अपनी जमा पूंजी पाकिस्तान ने लुटा दिया आज उसी के चलते वह न केवल बदनाम हैं बल्कि आर्थिक संकट से भी जूझ रहा है। अनुच्छेद 370 की 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कष्मीर से समाप्ति के बाद पाकिस्तान ने इसके खिलाफ दुनिया में गोलबंदी करने का प्रयास किया पर वो पूरी तरह विफल रहा। भारत का आंतरिक मामला बताते हुए किसी ने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया। हालांकि कुछ देष पाकिस्तान के साथ खड़े दिखाई दिये मसलन चीन और मलेषिया जैसे देष। चीन इस मामले में खुलकर नहीं बोला और अक्टूबर में भारत के महाबलिपुरम् में चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग की यात्रा अनुच्छेद 370 से दूर ही रही। जाहिर है चीन की यह चुप्पी पाकिस्तान को मनोवैज्ञानिक लाभ नहीं दिया और ऐसा भारत की मजबूत विदेष नीति के कारण हुआ।
भारत और रूस के बीच सम्बंध भरोसे और एक-दूसरे के विष्वास का है जो बीते 70 सालों में कभी डगमगाया नहीं। अनुच्छेद 370 पर साथ खड़ा होने वाला रूस कल भी भारत के साथ था और आज भी है। दुनिया की परवाह किये बिना रूस अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर भारत की दोस्ती निभाता रहा। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में रूस (सोवियत संघ) ने 22 जून 1962 को अपने 100वें वीटो का इस्तेमाल कर कष्मीर मुद्दे पर भारत का समर्थन किया था। दरअसल सुरक्षा परिशद् में आयरलैण्ड ने कष्मीर मसले को लेकर भारत के खिलाफ एक प्रस्ताव पेष किया था जिसका अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन जो सुरक्षा परिशद् के स्थायी सदस्य थे के अलावा चिली समेत वेनेजुएला ने इसका समर्थन किया था। तब भारत की कूटनीति वैष्विक फलक पर उड़ान नहीं ले पायी थी। इस प्रस्ताव के पीछे पष्चिमी देषों की भारत के खिलाफ साजिष थी जिसमें चीन बराबर का हकदार था। सभी इस मंषा से सराबोर थे कि कष्मीर को भारत से छीना जाये और पाकिस्तान को थमा दिया जाये। लेकिन नैसर्गिक मित्र रूस के रहते इसकी कोई सम्भावना नहीं थी साजिष नाकाम हुई और यहां रूस की भारत के पक्ष में सषक्त भूमिका देखी जा सकती है। इतना ही नहीं इसके पहले 1961 में रूस ने अपने 99वें वीटो का प्रयोग करते हुए गोवा मामले में भारत का साथ दिया था। गौरतलब है कि जब भी भारत पर कोई भी समस्या आयी सुरक्षा परिशद् में माॅस्को ने दिल्ली का साथ दिया और पाकिस्तान समेत चीन को उसकी हैसियत समझाता रहा। देखा जाये तो रूस ने परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रम से लेकर विकास के अनेकों कार्य में भारत का अक्सर साथ दिया है। भले ही षीत युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया में बदलाव आया हो पर 1990 से पहले और बाद दोनों परिस्थितियों में आपसी सम्बंध बने रहे। गौरतलब है कि भारत और रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) की दोस्ती की कहानी 13 अप्रैल 1947 को तब षुरू हुई जब भारत ने आधिकारिक तौर पर दिल्ली और माॅस्को में मिषन स्थापित करने का फैसला किया था। भले ही मौजूदा समय में भारत की अमेरिका से नजदीकी हो लेकिन रूस से तनिक मात्र भी दूरी नहीं बढ़ी। 
कष्मीर में यूरोपीय सांसदों की एक टीम अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद दौरा किया था। विष्लेशणात्मक पक्ष यह कहता है कि भारत सरकार ने इन्हें आमंत्रित करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी है। जाहिर है भारत को यह विष्वास दिलाने की कत्तई जरूरत नहीं थी कि अनुच्छेद 370 की मुक्ति के बाद वहां मानवाधिकार और आम जिन्दगी का क्या हाल है। यह निहायत भारत का आंतरिक मामला था और इसका समाधान केवल अपनी नीतियों से ही तय करना था। यह समझ से परे है कि यूरोपीय संघ के 23 सांसदों के प्रतिनिधमण्डलों के कष्मीर दौरे का क्या पैगाम है। जाहिर है जो विष्वास करते हैं वे सीमा पार रहकर भी भरोसा करेंगे और जिन्हें संदेह है वो कष्मीर में घूमकर भी छीटाकसी करेंगे। अमेरिका का कहना था कि भारत सरकार ने अमेरिका सरकार को कष्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बारे में न तो पहले कोई चर्चा की और न ही पहले कुछ बताया। हालांकि बाद में अमेरिका ने आंतरिक मामला कह कर पल्ला झाड़ लिया। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कष्मीर को विषेश दर्जे से हटाना वैष्विक फलक पर सुगबुगाहट तो खूब हुई पर भारत के अन्तर्राश्ट्रीय नीति के प्रभाव के चलते किसी ने खुलकर जुबान नहीं खोली। यदि यह मामला संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् तक जाता भी है तो अब केवल 7 दषकों का मित्र रूस ही नहीं ब्रिटेन, फ्रांस के साथ अमेरिका का भी साथ मिल सकता है। चीन अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के आतंकियों के समर्थन में जितना बचाव व वीटो करना था अब वह कर चुका है। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलवामा घटना के बाद अज़हर मसूद के मामले में चीन को कैसे किनारे लगाते हुए अन्य स्थायी सदस्यों ने मसूद को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित किया था।
अनुच्छेद 370 और जम्मू-कष्मीर का नाता 7 दषक पुराना है जो एक अस्थायी प्रावधान था। जिसे समय के साथ हटाना ही था और वह समय 5 अगस्त, 2019 में आया। कष्मीर को अन्तर्राश्ट्रीयकरण करने वाला पाकिस्तान यह अच्छी तरह जान गया है कि अब उसके हाथ कुछ नहीं लगना है। दक्षिण एषिया से आसियान तक अगर चीन जैसे देषों की आर्थिक और व्यापारिक पैठ है तो भारत के पास व्यापारिक और आर्थिक के अलावा सांस्कृतिक और सद्भावना से भरा दृश्टिकोण है जो चीन को संतुलित करने के काम आया है। मगर जिस कद के साथ चीन यहां अपना विस्तार ले चुका है वह भारत के लिए चुनौती है। रक्षा के मामले में भारत पहले जैसा नहीं है। देखा जाय तो फ्रांस से राफेल और रूस से एस-400 की खरीदारी न केवल द्विपक्षीय सम्बंधों के लिए फायदेमंद है बल्कि चीन और पाकिस्तान की चुनौती को भी टक्कर देने में दो कदम आगे रहेगा। फिलहाल भारत और रूस के सम्बंध की सारगर्भिता को केवल कष्मीर मामले से ही आंकना सही नहीं होगा। भारत के औद्योगीकरण में योगदान, अंतरिक्ष और सैन्य सहयोग और सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत के प्रति न बदलने वाले मिजाज समेत कई मापदण्ड इसमें समावेष लिए हुए हैं जो आज भी नैसर्गिक मित्रता की अभिव्यक्ति बने हुए हैं। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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लोकतंत्र के लिए आवाज़ बुलंद करता हांगकांग

जब दुनिया आधी रात को नये साल के आगमन को लेकर महोत्सव में थी तब उसी आधी रात को हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों ने रैली निकालकर अपनी षक्ति का प्रदर्षन किया। लोकतंत्र की चाह के चलते हांगकांग इन दिनों रैली और आंदोलन के कारण सुर्खियों में है और दुनिया में इस बात के लिए आकर्शण का विशय है कि लोकतंत्र कितना भी पुराना क्यों न हो कुछ देषों के लिए यह अभी भी नई आवाज है। गौरतलब है कि 1997 में जब हांगकांग को चीन के अधीन किया गया था तब वादा हुआ था कि अगले 50 साल यानी 2047 तक हांगकांग को न्यायिक स्वायत्ता मिलती रहेगी। मगर लोकतंत्र समर्थकों की इस बात से निराषा हुई कि चीन सरकार ने धीरे-धीरे इसे निरंकुष व्यवस्था में तब्दील कर दिया। चीन को नाराज़ करने वाले हांगकांग के लोगों का मानना है कि साल 2012 में चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग की सत्ता में आने के बाद से ही उन पर दबाव बढ़ा है। साल 2015 में हांगकांग के कई पुस्तक विक्रेताओं को नजरबंद किये जाने के चलते चिंताएं बढ़ गयी जबकि 2014 में लोकतंत्र को समर्थन देने वाले अम्ब्रेला मूवमेंट से जुड़े 9 नेताओं को दोशी पाया गया। ब्रिटेन का उपनिवेष हांगकांग इस आधार पर चीन को सौंपा गया था कि एक देष दो व्यवस्था की अवधारणा के साथ हांगकांग को अगले 50 सालों के लिए स्वतंत्रता, सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक व्यवस्थाएं बनाये की गारण्टी दी गयी थी। इसी के कारण हांगकांग के रहने वाले लोग स्वयं को चीन का हिस्सा नहीं मानते और उसकी आलोचना करते हैं। बावजूद इसके चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने हांगकांग सरकार पर प्रभाव डालती रही फलस्वरूप यहां के लोग सीधे तौर पर अपना नेता नहीं चुनते। देखा जाय तो लोकतंत्र की आवाज हांगकांग में बुलंद है और प्रदर्षनकारी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि चीन के सामने आजादी की चुनौती को बेहतर परिणाम में बदल पाना बहुत कठिन है मगर नामुमकिन नहीं है। 
दुनिया का बड़ा कारोबारी हब और अल्फा प्लस षहरों में षुमार हांगकांग को लेकर क्या कोई ऐसी त्रुटि रही जिसके चलते वह आंदोलन की राह पर है। गौरतलब है कि ब्रिटेन ने स्वायत्ता की षर्त पर चीन को सौंपा था लंकिन प्रत्यर्पण बिल ने लोगों की चिंताओं को बढ़ा दिया है। विरोध करने वाले चीन और हांगकांग को दो अलग देष मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्यर्पण बिल में जो संषोधन हुआ है वह हांगकांग की स्वायत्ता को प्रभावित करेंगे। यहां प्रत्यर्पण कानून क्या है की चर्चा लाज़मी है। हांगकांग के मौजूदा प्रत्यर्पण कानून में कई देषों के साथ इसके समझौते नहीं हैं मसलन कानून कहता है कि अगर कोई व्यक्ति अपराध कर हांगकांग वापस आ जाता है तो उसे मामले की सुनवाई के लिए ऐसे देषों में प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता जिसके साथ इसकी संधि नहीं है। रोचक यह है कि चीन के अधीन रहने वाला हांगकांग का प्रत्यर्पण संधि के मामले में चीन भी अब तक बाहर था। लेकिन अब जो नया कानून इसे लेकर आया है उसमें ताइवान, मकाऊ और मेनलैंड चीन के साथ भी संदिग्धों की प्रत्यर्पण करने की अनुमति देगा। यह बात उचित है कि यदि प्रत्यर्पण कानून में समय के साथ समुचित परिवर्तन नहीं किये जायेंगे तो हांगकांग भगोड़ों का स्वर्ग बन जायेगा जो सभ्य दुनिया के लिए सही नहीं है। आलोचक मानते हैं कि ऐसे कानून हांगकांग के लोगों को भी चीन की दलदली न्यायिक व्यवस्था में धकेल देगा। वैसे देखा जाय पिछले पांच वर्श से चल रहे आंदोलन का कोई खास नतीजा नहीं निकला है। 2007 में यह निर्णय किया गया था कि 2017 में होने वाले चुनाव में हांगकांग के लोगों को मताधिकार का अधिकार मिलेगा। उम्मीद थी कि चीनी व्यवस्था धीरे-धीरे लोकतांत्रिक बनेगी पर 2017 के चुनाव के तीन साल पहले हांगकांग को लोकतांत्रिक विचार देने की जो पेषकष की गयी वह वहां के लोगों को अपर्याप्त लगा। इसी के कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन षुरू हुआ जिसे अम्ब्रेला आंदोलन या आॅक्युपाई सेन्ट्रल नाम दिया गया। दरअसल आंदोलनकारी पीले रंग के बैंड और छाते अपने साथ लेकर आये थे जिसके चलते येलो अम्ब्रेला प्रोटेस्ट इसे नाम दिया गया। 
वैसे देखा जाय तो हांगकांग और चीन के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। चीनी न्याय व्यवस्था और हांगकांग की व्यवस्था में कोई मेल नहीं है। चीन के भीतर तमाम गोपनीय बाते हैं जिसका विवरण जनता को नहीं दिया जाता है जबकि हांगकांग की व्यवस्था ब्रिटिष माॅडल पर देखी जा सकती है। यहां के लोगों में चीन एक भ्रम यह भी नहीं निकाल पायी कि वे उसके अधीन बिल्कुल सुरक्षित हैं। यहां के वासियों में इस बात का भी डर है कि फेसबुक पोस्ट के लिए भी उसे गिरफ्तार करके चीन भेजा जा सकता है। जो माहौल इन दिनों बना है ऐसा ही मिलता-जुलता माहौल 2003 में बना था जब हांगकांग को एक नया कानून लाया जा रहा था। एक स्थिति यह भी है कि चीन कहीं अधिक कट्टर है। ऐसा लगता है कि यदि वह उदारवादी लोकतांत्रिक देष होता तो हांगकांग का विलय सहज होता। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी में महान होने का भ्रम हमेषा रहता है तो ब्रिटिष माॅडल पर बने हांगकांग को कभी समझ में नहीं आयेगा। वैसे ऐसी स्थिति कुछ ताइवान की भी है। हजारों की तादाद पर लोकतंत्र की आवाज को बुलंद करते हांगकांग के नागरिक कई तरह की समस्याओं को भी झेल रहे हैं। प्रदर्षनकारी तो यह भी मांग कर रहे हैं कि चीन के व्यवसायी यहां से चले जायें। उनके लिए हांगकांग छोड़ो का नारा भी लगाया जा रहा है। समस्या यह है कि चीन का उपनिवेषवाद बना हांगकांग पर दुनिया भी खामोष है। तमाम प्रदर्षनों के बावजूद कुछ खास सफलता नहीं मिल पा रही है। मई 2019 में जर्मनी ने हांगकांग से भागे दो कार्यकत्र्ताओं को षरण देने से जुड़ी पुश्टि की थी। तब लगा था कि दुनिया के कुछ देष हांगकांग के मनोबल बढ़ाने में कदम बढ़ रहे हैं। चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग चेता चुके हैं कि हांगकांग के लोग आंदोलन के बदले भुगतान करने के लिए तैयार रहें। इसमें कोई दो राय नहीं कि आर्थिक षक्ति के रूप में पहचान बना चुके चीन के आगे ये आंदोलनकारी ढ़ेर हो जायेंगे। उल्लेखनीय है कि चीन अपने करीब 10 लाख उइगर और ज्यादातर मुस्लिम जातीय अल्पसंख्यकों को उत्तर पष्चिमी प्रांत षिंजियांग में हिरासत में रखने को लेकर अन्तर्राश्ट्रीय आलोचना का सामना कर रहा है। बावजूद इसके उसके माथे पर कोई बल नहीं दिखता। 
बीते दिसम्बर में हांगकांग में स्थानीय चुनाव के पष्चात् एक हफ्ते तक षान्ति रहने के पष्चात् हजारों की तादाद में अमेरिका को समर्थन के लिए षुक्रिया अदा किया गया और अमेरिका दूतावास तक मार्च किया गया। कहा तो यह भी जा रहा है कि विष्व की सबसे बड़ी सेना पीपुल्स लिब्रेषन आर्मी के सैनिकों को हांगकांग में तैनात किया गया है जो पहली बार ऐसा हुआ है। चाइना माॅर्निंग पोस्ट की खबर यह पुख्ता करती है कि वाकई में वहां आर्मी लगायी गयी है। सवाल कई हैं मसलन क्या हांगकांग की मांग प्रत्यर्पण कानून के मामले में उतनी समुचित है मसलन जब एक हांगकांग के नागरिक ने ताइवान में एक महिला की हत्या की और हांगकांग वापस आ गया मगर प्रत्यर्पण कानून ताइवान के साथ न होने से उसे प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता। जहां तक लगता है एक सुलभ और सभ्य दुनिया में प्रत्यर्पण कानून सही है मगर लोकतंत्र गला घोंटना सर्वथा गलत है। जिस ब्रिटिष माॅडल पर हांगकांग की रोपाई हुई है यदि उसी आधार पर चीन उन्हें सहूलियत प्रदान करे तो वहां के नागरिकों का भ्रम दूर किया जा सकता है मगर अपने 14 पड़ोसी देषों से दुष्मनी लेने वाला चीन स्वयं को सुप्रीम समझने की जो गलती करता रहा है उसी का खामियाजा यह विरोध है। दुनिया अभी खामोष है पर समझ में सभी को आ रहा है कि चीन के अधीन हांगकांग लोकतंत्र की नई आहट में है जिसके लिए आवाज लगा रहा है। 

सुशील कुमार सिंह
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