Wednesday, December 20, 2017

कांग्रेस के सिमटते सियासी संदर्भ

एक अस्वस्थ राजनीतिक दल स्वस्थ मंथन नहीं कर सकती इस कथन पर आपत्ति हो सकती है पर काफी हद तक यह कांग्रेस के लिए इन दिनों सटीक बैठती है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए लगातार  निराषा के विशय बने हुए हैं। हालांकि इसी वर्श पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की और मणिपुर तथा गोवा में सत्ता के समीप रही पर सरकार भाजपा के हिस्से में आई। हालिया विधानसभा चुनाव गुजरात और हिमाचल प्रदेष में भी कांग्रेस का प्रदर्षन मोदी मैजिक के तिलिस्म को तोड़ नहीं पाया। हिमाचल में कांग्रेस ने अपनी सरकार गंवाई और गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर तो दी पर षिकस्त में नहीं तब्दील कर पायी। अपना किला लगातार हार रही कांग्रेस भाजपा के किले में सेंध क्यों नहीं लगा पा रही है यह उसके लिए चिंतन और मंथन का विशय है। गौरतलब है कि भाजपा गठबंधन सरकारों समेत 19 राज्यों में अपनी पहुंच बना ली है जबकि कुल 29 राज्यों में अब कांग्रेस केवल 5 में ही सिमट कर रह गयी है। आजादी के 70 सालों के इतिहास में यह पहला मौका है जब कांग्रेस इतने बुरे दौर से गुजर रही है। लगभग 55 साल की सत्ता की छवि समेटे 132 बरस पुरानी कांग्रेस की राजनीति क्यों ध्वस्त हो रही है। इसके जटिल अर्थों को उभारना कठिन तो है पर असम्भव नहीं। जिस गांधी और नेहरू के प्रभाव से कांग्रेस मतदाताओं को रिझाने में कामयाब रहती थी क्या अब यह बेअसर हो गया। क्या वास्तव में कांग्रेस अपनी बिगड़ती छवि से परेषान है तो जवाब हां में ही मिलेगा पर स्थिति ऐसी क्यों है? इससे जुड़े षोध और बोध इन पहलुओं की ओर इषारा करते हैं। कांग्रेस हमेषा से साम्प्रदायिकता विरोधी छवि और धर्मनिरपेक्षता के लिए जानी जाती रही है। इसका पुख्ता सबूत हिन्दू कोड बिल को देखा जा सकता है। जब यह कानून 50 के दषक में उभरा था तब कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने के आरोप लगे थे परन्तु लोकप्रियता में कोई घटाव नहीं हुआ था। रोचक यह भी है कि जब लोकप्रियता में इन दिनों कांग्रेस घटाव महसूस कर रही है तो मन्दिर-मन्दिर भी जा रहे हैं। गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी दर्जनों बार मन्दिर गये हैं। भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी साबित करने में अक्सर कांग्रेस उत्साह दिखाती रही है। 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान यह आरोप उफान पर था। सोनिया गांधी इसी समय मोदी को मौत का सौदागर कहा था तब मोदी ने इसे गुजरात की अस्मिता से जोड़ा था और अब जब मणिषंकर अय्यर ने उन्हें नीच कहा तब भी इसे गुजरात की अस्मिता से ही जोड़ा गया। साफ है कि गुजरात जीत में मोदी मैजिक ही नहीं कांग्रेस के वक्तव्य भी मददगार होते रहे हैं। मंथन तो उन्हें यहां भी करना होगा। धर्मनिरपेक्षता की प्रहरी कांग्रेस अल्पसंख्यकों के संरक्षण में अपनी भूमिका मानती रही है पर कितना पोशित कर पायी इस पर भी संदेह बना रहा है। उत्तर प्रदेष समेत कई प्रान्तों में मुस्लिम मतदाताओं का कांग्रेस से मोह भंग होना इसका सबूत है। हालांकि मुस्लिम वोट सपा, बसपा आदि में भी विस्थापित होते रहे हैं।
सबसे ज्यादा समय देष में राज कांग्रेस ने किया। अब तक के कुल 14 प्रधानमंत्रियों में 9 कांग्रेस से रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर डाॅ0 मनमोहन सिंह तक कांग्रेस ने बहुत उतार-चढ़ाव भी देखे परन्तु 2014 से अब यह दल तेजी से ढल रहा है। जिस दल का लम्बा वक्त सत्ता में बीता हो उसी में नेतृत्व की कमी हो जाय तो चिंता लाज़मी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस संरचनात्मक और नेतृत्व के तौर पर इन दिनों कमजोर अवस्था में है और धुर-विरोधी भाजपा दोनों मामलों में मीलों आगे है। ऐसे में कांग्रेस का सिमटना और बड़े अन्तर के साथ हार के सिलसिले में बने रहना एक बड़ा कारण है। कांग्रेस में जमीन से जुड़े नेताओं की निहायत कमी मानी जाती है और परिवारवाद की रणनीति इस पर हावी रही है। सत्ता के नषे में चूर कांग्रेस मतदाताओं को षायद अपनी जागीर भी समझते रहे हैं। अपनी नीतियों और निभायी गयी भूमिका को अन्तिम सत्य मानते रहे हैं। 1975 में जब देष को आपात में झोंका गया था तब कांग्रेसी सरकार की उग्रता और एकाधिकार का चेहरा भी दिखाई दिया था जिसे देष की जनता ने 1977 के चुनाव में हराकर जवाब दिया। हालांकि 1980 में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई पर तब इसमें उग्रता के बजाय उदारता आ चुकी थी। वर्श 1984 का चुनाव कांग्रेस के लिए लोकतंत्र का क्षितिज सिद्ध हुआ। कईयों ने इसे राजीव गांधी की लोकप्रियता समझी तो ज्यादातर इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में उमड़ी जनभावना मानी। गगनचुम्बी चुनावी जीत वाली कांग्रेस बोफोर्स काण्ड के चलते 1989 में सत्ता खो दी और कुछ हद तक लोकप्रियता भी। गौरतलब है कि राजीव गांधी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे वी.पी. सिंह के तिलिस्म के आगे आंकड़े 415 से 200 के भीतर सिमट गये थे। यहां से कांग्रेस कमजोर तो हुई पर असर बना रहा। 
1990 के दौर में मण्डल-कमण्डल के बाद सियासत ने नई करवट ली। वी.पी. सिंह के बाद चन्द्रषेखर देष के प्रधानमंत्री बने जिसके समर्थन में कांग्रेस थी। वर्श 1991 में मध्यावधि चुनाव हुआ कांग्रेस की एक बार पुनः वापसी हुई हालांकि दुःखद यह है कि चुनाव के मध्य में ही राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी। नये नेतृत्व की खोज हुई और पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। यहां से नेहरू, गांधी परिवार का आवरण देष की सियासत में हटा हुआ दिखाई देता है। नरसिम्हा राव ने कूबत और कठोरता के साथ 5 साल सत्ता चलायी। सांसदों को खरीदने का इन पर आरोप भी लगे। कहीं न कहीं कांग्रेस को यहां नुकसान हुआ। हवाला मामला भी कांग्रेस की छवि को प्रभावित करने का काम किया। 6 दिसम्बर 1992 की बाबरी मस्जिद के ध्वंस के दंष से भी कांग्रेस घिरी जिसके चलते उन दिनों उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष समेत भाजपा की बहुमत से भरी चार राज्यों की सरकारों को उखाड़ फेंका जो लोकतंत्र के हिसाब से अखरने वाला था। दौर बदला सत्ता बदली, सत्ताधारक नये रूपरंग में आये और सिलसिलेवार तरीके से भाजपा को भी केन्द्र में 13 दिन, 13 महीने और अन्ततः गठबंधन के साथ 5 साल की सरकार चलाने का मौका मिला। इस दौरान तक कांग्रेस अपने सबसे खराब अवस्था से जूझ रही थी पर उसे भी नहीं मालूम था कि 2014 में हालात इससे भी बुरे होने वाले हैं। स्थिति को देख सोनिया गांधी जो षायद राजनीति से मुंह मोड़ना चाहती थी 1998 में दल का नेतृत्व संभाला और 2004 के चुनाव में लोकप्रियता के नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी कांग्रेस को सत्ता की दहलीज पर पहुंचाया। 2009 तक चली यूपीए की पहली पारी में सरकार और दल दोनों की साख बरकरार रही और 2009 के चुनाव में एक बार फिर सत्ता हाथ आई परन्तु दूसरी पारी 2009 से 2014 के बीच जिस प्रकार अनियंत्रित भ्रश्टाचार का खेल हुआ उससे कांग्रेस बैकफुट पर चली गयी। भ्रश्टाचार के आरोप से घिरी कांग्रेस का सामना जब 2014 के 16वें लोकसभा के चुनाव में सषक्त भाजपा और तीन बार गुजरात में चुनाव जीत चुके और 14 साल तक वहां के मुख्यमंत्री रहे ब्राण्ड मोदी से हुआ तो कांग्रेस के परखच्चे उड़ गये जो 543 सीटों के मुकाबले 44 पर सिमट गयी। फिलहाल राज्यों में लगातार कांग्रेस की हार से सिमटने का सिलसिला अभी जारी है। देखा जाय तो कांग्रेस के सिमटने वाली वजह तात्कालिक ही नहीं बरसों की रीति-नीति का भी नतीजा है। जाहिर है कांग्रेस को उभरने के लिए नेतृत्व व संरचना ही नहीं धारा और विचारधारा के साथ मोदी मैजिक की काट और जनभावना की सही समझ को भी समेटना होगा और इतिहास की गलतियों से बाज भी आना होगा ताकि सिमटने का सिलसिला थमे। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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