आज से ठीक 25 बरस पहले 6 दिसम्बर को जब इस बात के लिए जन सैलाब उमड़ा था कि राम मन्दिर निर्माण के लिए जो बन पड़ेगा करेंगे तो भले ही भारत का समाजषास्त्र कई विचारों में बंट हो गया हो पर एक बात तो साफ थी कि बड़ा परिवर्तन होगा। इसी दिन बाबरी मस्जिद ढहा दिये जाने की घटना हुई जिसे एक युग बीत चुका है। तारीखें बदल गयीं, राजनीति बदल गयी, सियासतदानों ने अयोध्या के नाम पर कम-ज्यादा रोटियां भी सेंकी बावजूद इसके अयोध्या की सीरत नहीं बदली, हां सूरत जरूर बदली है। इस लिहाज़ से कि राम जन्मभूमि के आस-पास के चैराहे अब आबाद होकर बाजार में तब्दील हो गये हैं। इतिहास इस बात के लिए हमेषा प्रबल दावेदारी कर सकता है कि अयोध्या में राम मन्दिर के निर्माण को लेकर एकमत होने का साहस किसी में नहीं था। बरसों से राम जन्मभूमि को लेकर सियासत हो रही है और मामला अदालतों में धूल फांक रहा है। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के विवाद में गरमागरम बहस पहले भी होती रही और यह सिलसिला अभी रूका नहीं है। इसी का एक नमूना बीते 5 दिसम्बर को तब देखने को मिला जब सुन्नी वक्र्फ बोर्ड और बाबरी एक्षन कमेटी के वकीलों ने प्रधान न्यायाधीष जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा सुनवाई करने का विरोध किया। इसके पीछे वजह यह बतायी गयी कि उनके कार्यकाल में कार्यवाही पूरी नहीं हो पायेगी। गौरतलब है कि मौजूदा प्रधान न्यायाधीष का कार्यकाल 2 अक्टूबर, 2018 तक है। सियासी दांव-पेंच के साथ अदालत में लम्बित मन्दिर विवाद को लेकर जब देष की षीर्श अदालत ने तत्परता दिखाई तब भी कईयों के पास इसे उलझाये रखने का कोई न कोई तर्क था। रोचक यह भी है कि सुन्नी बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने सुन्नी वक्र्फ बोर्ड के वकील का इस बात के लिए समर्थन किया कि आखिर सुनवाई में इतनी जल्दी क्यों। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह है कि 25 साल बीत जाने के बावजूद इस मामले में अभी भी इस बात के दांव पेंच हो रहे हैं कि इसका राजनीतिक मुनाफा कहीं किसी को न मिल जाये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद हमेषा सियासी चष्में से देखा जाता रहा है। मामले को देष की राजनीति को प्रभावित करने वाला बताया जाना इस बात का भी द्योतक है कि ध्यान समस्या के हल पर नहीं बल्कि सत्ता की पैरोकारी में है। सभी जानते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देष है बावजूद इसके जब धर्मनिरपेक्षता की रचना और गणना हर कोई अपने ढंग से करता है और उसे अपने राजनीतिक मुनाफे में तब्दील करना चाहता है तब उसका समर्थन करना कठिन हो जाता है। भारतीय संविधान में इस बात का पूरा ताना-बाना है कि भारत का कोई धर्म नहीं है। देष बड़ा लोकतंत्र वाला है पर यह बात कहीं अधिक सच्चाई से ओतप्रोत है कि इसी देष में नीति को नहीं नेता को देखकर नीयत में फेरबदल होता रहा है। कई धर्मावलंबी मन्दिर के समर्थन में अच्छे तर्क दिये होंगे साथ ही कई मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इसके समर्थन में बातें कहीं पर मुद्दे से बर्फ पिघली नहीं बल्कि वक्त के साथ तारीख की मोटाई ही बढ़ी है। कहा जाय तो अयोध्या के जो सवाल 25 साल या उससे पहले भी जहां पर थे आज भी वहीं पर खड़े हैं। जाहिर है देष में एक न्यायपालिका है जो विवादों को न केवल हल देती है बल्कि स्वस्थ न्याय की परम्परा का अनुपालन भी करती है और कराती है अब सारा दारो-मदार इसी पर है। गौरतलब है कि तीन सदस्यीय पीठ चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में इस मामले को लेकर आगामी 8 फरवरी से रोजाना सुनवाई करेगी।
अयोध्या में अब तक क्या हुआ एक दृश्टि इस पर लाज़मी है। विवादित ढांचा 6 दिसम्बर को ढहाया गया था। इसके करीब दो साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में मुकदमा षुरू हुआ था। मुकदमे के दौरान कई आरोपी और गवाह प्रस्तुत होते रहे जिसमें कई अब इस दुनिया में नहीं है। जब विवादित ढांचा जमींदोज हुआ तो इसका जिम्मेदार कौन है यह पता करना भी समय की दरकार थी और न्यायसंगत भी। जिसके लिए लिब्राहन आयोग का गठन किया गया और घटना को एक दषक बीत गया। जनवरी 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बातचीत से विवाद सुलझाने के लिए अपने कार्यालय में अयोध्या प्रकोश्ठ षुरू किया। इसी वर्श अप्रैल में विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर उच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने सुनवाई षुरू की। 2009 में लिब्राहन आयोग ने बड़े लम्बे कोषिष और वक्त के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तब प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह थे। ठीक एक साल बाद सितम्बर 2010 में देष की षीर्श अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका को खारिज किया। समय के साथ अदालती संघर्श न केवल लम्बे हुए बल्कि विवाद और सघन होते जा रहे थे और वह दिन भी आया जब 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित जमीन को तीन हिस्से में बांटने का निर्णय सुनाया। जिसमें एक हिस्सा राम मन्दिर, दूसरा सुन्नी वक्र्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़ा को मिला पर देष की षीर्श अदालत ने इस फैसले पर रोक के आदेष दे दिये। वक्त बीतता चला गया और समाधान अभी भी उतनी ही दूरी पर खड़ा था। इसी बीच जुलाई 2016 में बाबरी मामले के सबसे उम्रदराज हाषिम अंसारी का निधन हो गया। हाषिम अंसारी ऐसे षख्स थे जो इस मामले में 1949 से जुड़े थे। तारीखे इतिहास होती गयी, संघर्श करने वाले भी आते-जाते रहे। बताते चलें कि निर्मोही अखाड़े के रामचन्द्र परमहंस भी पहले ही इस दुनिया को छोड़ चुके थे। एक रोचक संदर्भ का उल्लेख यहां लाज़मी है कि परमहंस की मृत्यु पर मुद्दई हाषिम अंसारी ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ाई में मजा नहीं आयेगा। दो टूक यह भी है कि लम्बे समय से बाबरी मस्जिद व राम मन्दिर मसले को लेकर उठा विवाद वादी-प्रतिवादी को भी इतना संवादी बना दिया कि उनके न होने का रंज एक-दूसरे को था और इसका पुख्ता सबूत रामचन्द्र परमहंस और हाषिम अंसारी हैं।
6 दिसम्बर, 1992 से 6 दिसम्बर, 2017 के बीच 100 साल का एक चैथाई वक्त बीत गया। इस ढ़ाई दषक ने देष में नये परिवर्तन को जन्म दिया। राजनीति की दिषा कहीं से कहीं चली गयी और लोकतंत्र जो उथल-पुथल के दौर में था वो प्रखर होकर फलक पर चमकने लगा। बहुमंजली इमारतों वाली सत्तायें जमींदोज होकर एक दल में समा गयीं। इस उम्मीद के साथ कि विकास की धारा और वक्त के साथ बढ़ी मांग वाली विचारधारा में यह कहीं अधिक पुख्ता सिद्ध होगी। यह कितनी सार्थक है इसकी पड़ताल बाद में होगी पर एक सच्चाई यह है कि देष की राजनीतिषास्त्र और समाजषास्त्र ही नहीं बल्कि अर्थषास्त्र में भी बड़ा परिवर्तन हुआ है। अयोध्या में भी परिवर्तन हुआ है सिवाय इसके कि 6 दिसम्बर, 1992 को जहां थे अभी भी वहीं हैं पर अब यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ महीनों या वर्शों में न्याय की प्रतीक्षा समाप्त होगी। गौरतलब है कि इसी वर्श सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में कहा था कि आपसी सहमति से विवाद सुलझा लें जिसे लेकर कोषिषें भी हुईं। बीते अप्रैल में षीर्श अदालत ने बाबरी मस्जिद गिराये जाने के मामले में कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने के आदेष दिये जिसमें भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृश्ण आडवाणी और मुरली मनोहर भी षामिल हैं। फिलहाल भरोसा किया जा सकता है कि तमाम जोड़-तोड़ के बावजूद जो हल नहीं निकला षीर्श अदालत की चैखट से भविश्य में दिखेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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