सारगर्भित और संदर्भित पक्ष यह है कि स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारषिला है और इस यथार्थ को बनाये रखने में निर्वाचन आयोग की कहीं बड़ी और गहरी भूमिका है पर ऐसा देखा गया है कि आयोग की निश्पक्षता और विष्वसनीयता को लेकर समय-समय पर सवाल उठाये जाते रहे हैं। हालांकि चुनाव आयोग की तमाम कोषिषों के बावजूद राजनीतिक दल स्वयं के निजी हित को साधने के चलते नियमों का उल्लंघन खूब करते रहे जिसे लेकर वह फटकार भी लगाता रहा है साथ ही कड़ी कार्यवाही भी करता रहा परन्तु इन सबके बीच स्वयं के दामन पर भी प्रष्नचिन्ह् लगने से वह रोकने में काफी हद तक असफल भी रहा है। हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के दूसरे और अन्तिम चरण के ठीक एक दिन पहले 13 दिसम्बर को नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को चुनाव आयोग ने एक नोटिस जारी किया जिसमें वोटिंग से ठीक पहले टीवी चैनलों को इंटरव्यू देने को लेकर आपत्ति जताई गयी थी। जारी नोटिस के चलते कांग्रेस का तिलमिलाना स्वाभाविक था और ऐसा हुआ भी साथ ही उसने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर एक बार फिर सवाल उठाया। अभी चंद दिन ही बीते थे कि चुनाव परिणाम से ठीक एक दिन पहले 17 दिसम्बर को आयोग ने यह कहते हुए जारी नोटिस वापस ले लिया कि इसके एवज में राहुल गांधी ने आयोग के सामने अपना पक्ष रख दिया है और निर्वाचन आयोग ने जन-प्रतिनिधित्व कानून 1951 के सेक्षन 126 की समीक्षा के लिए एक कमेटी बना दी है। गौरतलब है कि इस सेक्षन के तहत यह कहा गया है कि चुनाव से 48 घण्टे पहले किसी तरह के प्रचार की इजाजत नहीं होती। जाहिर है राहुल गांधी के टीवी इंटरव्यू को पहले इसी का उल्लंघन और बाद में इस रूख से हटने का संदर्भ संलिप्त दिखाई देता है।
निर्वाचन आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत एक स्वतंत्र व निश्पक्ष व्यवस्था है जिसकी स्थापना गणतंत्र लागू होने के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1950 को हुई थी। यही कारण है कि 25 जनवरी को राश्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाये जाने की परम्परा 2011 से षुरू हुई। संविधान में निहित कार्य और निर्वाचन सम्बंधी संसदीय प्रावधान देष के प्रगाढ़ लोकतंत्र को मूर्त रूप देने में यह आयोग काम आता है परन्तु सवालों से पीछा भी नहीं छुड़ा पाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि निर्वाचन आयोग में निर्वाचन का कोई मापदण्ड नहीं है हालांकि यह सवाल नियुक्ति को लेकर है पर इसका सरोकार कहीं न कहीं आयोग की पारदर्षिता से भी है। षीर्श अदालत का मानना है कि निर्वाचन की प्रक्रिया पर कोई नियम या कानून अभी तक नहीं बने हैं यही कारण है कि इसकी पारदर्षिता पर भी कभी-कभी सवाल उठने लगते हैं। वैसे देखा जाय तो निर्वाचन आयोग को लेकर चिंता चैतरफा है। ऐसा भी देखा गया है कि जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. षेशन थे तब उन्होंने एक स्वतंत्र व निश्पक्ष स्थिति प्राप्त करने में बड़ी कामयाबी हासिल की थी। इस आयोग को एक ऐसी ऊँचाई दी जिसे लेकर मतदाता ही नहीं राजनेता भी सम्मान करते हैं। यदि यह मान भी लिया जाय कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत में चुनाव को लेकर परेषानियां कई हैं तो भी संवैधानिक संस्था निर्वाचन आयोग पर बेतुके सवाल उठाने कितने लाज़मी है पर सवाल तो यह है कि प्रष्न अनवरत् जारी रहते हैं। गौरतलब है कि गुजरात में चुनाव आयोग की तारीख घोशित करने में देरी को लेकर भी प्रष्न उठे थे। जिस तरह हिमाचल प्रदेष में चुनाव की तारीख घोशित हुई और गुजरात के मामले में टाल-मटोल किया गया वह आयोग की विष्वसनीयता को प्रभावित करता है जिसे केन्द्र सरकार के इषारे पर किया हुआ माने जाने की चर्चा जोरों पर थी। ध्यानतव्य है कि हिमाचल प्रदेष व गुजरात विधानसभा का कार्यकाल जनवरी 2018 में समाप्त हो रहा है परन्तु हिमाचल प्रदेष में 12 अक्टूबर को तारीख का एलान हुआ और मतदान 9 नवम्बर को हुआ जबकि गुजरात में तारीखों का एलान 25 अक्टूबर को हुआ जिसमें दो चरणों के साथ क्रमषः 9 और 14 दिसम्बर को मतदान सम्पन्न हुआ। देखा जाय तो दोनों राज्यों के चुनाव तारीखों की घोशणा में देरी और मतदान में भी वक्त को कम-ज्यादा के अंतर के साथ देखा जा सकता है। फिलहाल वोटों की गिनती दोनों प्रदेषों की बीते 18 दिसम्बर को हो चुकी है जिसमें भाजपा ने दोनों राज्यों में बहुमत के साथ जीत दर्ज की।
चुनाव और विवाद का बड़ा गहरा नाता है और ऐसा ही नाता देष के राजनीतिक दलों एवं निर्वाचन आयोग के बीच भी है। एक दल दूसरे पर आचार संहिता का उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग की चैखट पर दस्तक देने में पीछे नहीं रहता है। किसी भी राज्य की विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव आयोग द्वारा की गयी कार्यवाही पर संदेह किया जाता रहा है। सत्ताधारी दल हो या विरोधी दोनों को इससे अलग नहीं किया जा सकता। जिस तर्ज पर चुनावों में षिकायतों का अम्बार लगता है और आचार संहिता का उल्लंघन होता है क्या उसी तरह की कार्यवाही सभी पर हो पाती है कहना कठिन है। चुनाव से जुड़ी समस्या को लेकर आखिरकार निर्वाचन आयोग को ही रास्ता निकालना होता है। दो टूक यह भी है कि जब सभी कार्यप्रणाली पर संदेह करते हैं तो निर्वाचन आयोग द्वारा की गयी कार्यवाही भी राजनीतिक दल गिरे हुए मन से ही स्वीकार करते हैं। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त की इस टिप्पणी ने भी चुनाव आयोग पर सवालिया निषान लगा दिया है कि नौकरषाह केन्द्र सरकार के निर्देष पर चुनाव आयोग को चलाते हैं। देखा जाय तो लोकतंत्र की बनावट को लेकर निर्वाचन आयोग का उठाया गया कदम दषकों से कईयों को खलने वाला रहा है और कईयों ने मुख्यतः सत्ताधारियों ने इसका मनचाहा इस्तेमाल करना भी चाहा है पर टी.एन. षेशन जैसों के समय षायद ऐसा हो पाना सम्भव नहीं था। मौजूदा समय के निर्वाचन आयोग पहले से भिन्न नहीं है पर उठते सवालों के बीच विमर्ष गहरा होना लाज़मी है। यहां स्पश्ट कर दें कि निर्वाचन आयोग पर कोई निजी टिप्पणी नहीं है बल्कि उठे सवालों की समीक्षा मात्र है।
हालांकि चुनाव से सम्बंधित आचार संहिता को लेकर अधीक्षण, पर्यवेक्षण आदि समेत तमाम कृत्य करना चुनाव आयोग का कार्य है। आचार संहिता को बनाये रखना राजनीतिक दलों का धर्म है और इसके उल्लंघन की स्थिति में चुनाव आयोग का यह कत्र्तव्य है कि निश्पक्ष और पारदर्षी निर्णय दे परन्तु निर्णय जिसके पक्ष में नहीं होता है उसके द्वारा एक नया आरोप आयोग पर मढ़ दिया जाता है। गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग के निर्णयों को भारत के उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय में उचित याचिका के माध्यम से चुनौती भी दी जा सकती है परन्तु यदि एक बार निर्वाचन की वास्तविक प्रक्रिया षुरू हो जाती है तो न्यायपालिका मतदान के संचालन में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। फिलहाल बरसों से सवालों के घेरे में रहने वाले निर्वाचन आयोग को निश्पक्ष बनाये रखने के लिए भारतीय संविधान के भाग 15 के अनुच्छेद 324 से 329 में अनेकों प्रावधान दिये गये हैं साथ ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 171क से 171झ में चुनाव सम्बंधी अपराधों के दण्ड की व्यवस्था की गयी है। इतना ही नहीं समय-समय पर जनप्रतिनिधित्व कानून में भी संषोधन होते रहे हैं और चुनाव सुधार के लिए आयोग और समितियां भी बनायी जाती रही हैं। चुनाव प्रणाली में पारदर्षिता को लेकर न्यायपालिका द्वारा भी सराहनीय प्रयास किये जाते रहे हैं और यह सिलसिला अभी भी जारी है। बावजूद इसके सवालों से पीछा छुड़ाने के लिए निर्वाचन आयोग को संवैधानिक सीमाओं में रहते सख्त रूख भी अपनाना होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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