पाक अधिकृत कष्मीर को लेकर हालिया प्रकरण पर अंग्रेजी में पढ़ी एक कहावत याद आती है जिसका हिन्दी रूपान्तरण है ‘यदि समस्या को हल न किया जा सके तो उसमें घुसकर उसका मज़ा लेना चाहिए। नेषनल कांफ्रेंस के फारूख अब्दुल्ला का पाक अधिकृत कष्मीर को लेकर दिया गया हालिया बयान कुछ इसी प्रकार का संदर्भ दर्षाता है। गौरतलब है जम्मू-कष्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेषनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष का ताजा बयान यह कि पीओके पाकिस्तान का हिस्सा है और ये नहीं बदलने वाला वाकई हैरत में डालता है लेकिन इस प्रकार के बयान से देष को क्या मिलेगा इस पर भी गौर फरमाने की आवष्यकता है। जहां तक समझ जाती है सम्भव है कि इससे न केवल दुष्मनों का मनोबल बढ़ेगा बल्कि सियासत समेत समझदारों के माथे पर सलवटे भी आयेंगी। बयान पर तल्ख टिप्पणी करते हुए केन्द्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ताना मारते हुए फारूख अब्दुल्ला को बचकानी बात करने की बात कह चुके हैं। नकवी पीओके को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए यह भी कहा कि इससे सम्बंधित प्रस्ताव को संसद ने अपनी स्वीकृति दी है। यह सही है कि कष्मीर विवाद का एक बड़ा कारण पाक प्रायोजित आतंकवाद ही है। सरकार भी मानती है कि जम्मू-कष्मीर राज्य के इस हिस्से अर्थात् गुलाम कष्मीर पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। फिलहाल फारूख अब्दुल्ला के इस बयान ने सियासी पारा तो बढ़ा ही दिया है। रोचक यह भी है कि अभिनेता ऋशि कपूर ने भी उनकी हां में हां मिलाया है।
पड़ताल बताती है फारूख अब्दुल्ला का यह कोई पहला विवादित बयान नहीं है इसके पहले भी वे कष्मीर मामले पर अनाप-षनाप बयान देते रहे हैं। देखा जाय तो कष्मीर को लेकर दो व्याख्यायें हैं प्रथम यह कि भारत पाक अधिकृत कष्मीर को अपना हिस्सा मानता है, वहीं दूसरी व्याख्या यह है कि पाकिस्तान हमारे कष्मीर को भारत अधिकृत मानता है। जाहिर है कि हमारे कष्मीर पर हमारा हक होना पाकिस्तान को नागवार गुजरता है। इतिहास के पन्ने उधेड़े जायें तो पता चलता है कि कष्मीर का बाकायदा 1948 में राजा हरिसिंह के हस्ताक्षर के बाद भारत में विलय हुआ था और भारतीय संविधान में विषेश उपबंध के साथ यह 15वें राज्य के रूप में फिलहाल दर्ज है। मौजूदा बयानबाजी से यह सवाल जिंदा होता है कि यदि कष्मीर समस्या का हल पाक अधिकृत कष्मीर पाकिस्तान का है मानने से होता है तो फिर इसी के साथ प्रष्न यह भी है कि क्या ऐसा कहने से पाकिस्तान को पीओके पर मनोवैज्ञानिक बढ़त देते हुए अपने कष्मीर को खतरे में डालना नहीं हुआ। बयान से तो यह भी लगता है कि हो न हो ये तो पाकिस्तान को बैठे बिठाये सौगात देने जैसी है। इतना ही नहीं षिमला समझौते से लेकर आगरा षिखर वार्ता और अब तक के प्रयासों में कहीं ऐसा कोई जिक्र नहीं है। तो क्या यह समझा जाय कि दषकों की कोषिष से बेहतर विकल्प फारूख अब्दुल्ला सुझा रहे हैं साथ ही क्या पीओके पाकिस्तान को देने से वाकई में कष्मीर समस्या का हल मिल जायेगा। जितना पाकिस्तान को भारत जानता है सम्भव है कि वहां के आईएसआई और आतंकी संगठन का गठजोड़ कभी समस्या को हल होने ही नहीं देगा साथ ही भारतीय कष्मीर के अलगाववादी भी हल के मामले में लंगड़ी मारते रहेंगे। बावजूद इसके कष्मीर समस्या भारत की ओर से एक राजनीतिक हल ले सकती है परन्तु पाकिस्तान की ओर से तभी यह हल को प्राप्त करेगी जब इस्लामाबाद में बैठ कर सत्ता चलाने वालों के निर्णयों को सेना और आतंकी संगठनों का समर्थन होगा जिसकी सम्भावना दषकों की पड़ताल के आधार पर कह सकते हैं कि न के बराबर है।वैसे कष्मीर जैसे मुद्दे को लेकर इतना सरल तरीके से दिये गये बयान हल के बजाय विवाद को और बढ़ा सकते हैं। जिस प्रकार पाकिस्तानी षासकों समेत सेना और आतंकी संगठन कष्मीर को तबाह करने का मनसूबा रखते हैं और उस पर अपना हक जताने की फिराक में दषकों से खून-खराबा कर रहे हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि पाकिस्तान की नीयत पीओके तक ही नहीं बल्कि पूरे कष्मीर पर है। फारूख अब्दुल्ला कष्मीर के बहुत वरिश्ठ और घाटी के रग-रग से वाकिफ नेता और लम्बे समय तक यहां की सत्ता में रहे हैं। उनका यह आरोप कि रियासत ने भारत में षामिल होने का फैसला लिया लेकिन भारत ने कष्मीरी जनता से धोखा किया और उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। उस प्यार को नहीं समझा जिसमें हमने उनके साथ जाने का विकल्प चुना था। फारूख अब्दुल्ला ऐसा क्यों कह रहे हैं ये तो वही जाने पर एक सच यह है कि जिस कष्मीर पर वो पाकिस्तान का अधिकार बता रहे हैं वहां की जनता के साथ पाकिस्तान की सरकार ने कौन सा अन्याय नहीं किया है। गौरतलब है कि पाक अधिकृत कष्मीर आतंकियों का अड्डा है और इनका उपयोग भारत के खिलाफ होता है। यहां बेरोज़गारी, बीमारी और गरीबी से आक्रोषित लोग अनेकों बार पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा दिखा चुके हैं। अक्टूबर 2015 में कष्मीरियों पर अत्याचार के विरोध में भी यहां रैलियां निकाली गई थी और पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी और गुलामी से आजादी का स्वर गूंजा था। आईएसआई उन पर इसलिए अत्याचार करती है क्योंकि उन्हें वह जेहादी बनाना चाहती है। वहां की बद्तर स्थिति का तब और बड़ा खुलासा हुआ जब 2005 में गुलाम कष्मीर में आये भूकम्प से देष-दुनिया से आये कई सामाजिक संगठन मुज़फ्फराबाद जिले और आस-पास के इलाकों की सच्चाई देखी। जम्मू-कष्मीर की विधानसभा की 24 सीटें इसी क्षेत्र में हैं जहां लोकतंत्र की रोपाई भारत नहीं कर पाता जबकि पाकिस्तान लोकतंत्र पनपने ही नहीं देता है। दो टूक यह भी है कि जितने समय से पीओके पाकिस्तान के पास है उतने ही समय से कष्मीर पर दषकों तक अब्दुल्ला खानदान की पुष्तैनी सत्ता कमोबेष रही है। जाहिर है लोक कल्याण से ओत-प्रोत फारूख अब्दुल्ला मौजूदा कष्मीर की जनता के साथ अपने षासनकाल में तो न्याय किये होंगे। गौरतलब है कष्मीरी पण्डितों का पलायन और उन पर हुई बर्बरता किसी से छुपी नहीं है। रही बात विकल्प की तो हरिसिंह ने जो निर्णय लिया वह कल का भी और आज का भी बड़ा सत्य है और इसे न झुठलाया जा सकता है और न ही इस बात की इजाजत हो सकती है कि अपनी निजी महत्वाकांक्षा के चलते देष की सम्प्रभुता को खतरे में डालने की कोई बात करे।
जनवरी 2015 से नेषनल कांफ्रेंस जम्मू-कष्मीर में सत्ता से बाहर है हांलाकि ऐसा पहली बार नहीं है। भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में जम्मू-कष्मीर की 87 विधानसभा सीटों में 25 पर जीत दर्ज करके पहली बार इस क्षेत्र में विस्फोटक उपस्थिति दर्ज करायी हालांकि ये सभी सीटें केवल जम्मू से हैं। भाजपा पीडीएफ के साथ मिलकर पहली बार जम्मू-कष्मीर में सत्ता का स्वाद चखा। घाटी में राजनीति का एक परिप्रेक्ष्य यह रहा है कि सत्ता कभी कांग्रेस तो कभी नेषनल कांफ्रेंस के हिस्से में आती रही। हालांकि जोड़-तोड़ के चलते पीडीएफ भी कुछ समय के लिए यहां पहले भी सत्तासीन रही है। फारूख अब्दुल्ला की नेषनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की सियासत इन दिनों यहां फीकी है और सत्ता से बेदखल है। इतना ही नहीं जिस प्रकार देष का राजनीतिक परिदृष्य बदला है उसमें भी बेदखल लोगों को अपनी जमीन तलाषने में कई मुष्किले खड़ी हो रही हैं। मोदी का घाटी में लगातार दौरा होना, वहां के युवाओं में अपनी सियासत के प्रति लगाव विकसित करना साथ ही विरोधी घाटी में पुनः न पनप सके इसे लेकर भी पूरा जोर लगाये हुए है। जम्मू-कष्मीर की सत्ता से फारूख अब्दुल्ला का पुष्तैनी नाता है। जाहिर है सरकार में न होना घर-बदर होने जैसा है। कहीं ऐसा तो नहीं फीकी पड़ रही राजनीतिक चमक को चमकाने की फिराक में कष्मीर का नया हल सुझा रहे हैं पर लगता है कि इससे विवाद ही गहरायेगा न कि मन माफिक हल मिलेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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