Monday, December 11, 2017

चुनौती की युक्ति खोजती कांग्रेस

अरब सागर से सटे गुजरात में चुनावी मौसम तूफानी है और देश  के प्रधानमंत्री समेत तमाम राजनेता प्रचण्ड पचासा की भूमिका में वह सब कुछ झोंके हुए है जो वे सियासत साधने के लिए जरूरी समझ रहे हैं। गौरतलब है कि यहां की फिजां में नीच और नीचता भी इन दिनों खूब तैर रही है। कांग्रेस के वरिश्ठ नेता मणिषंकर अय्यर जो अब निलंबित हैं का यह एक अलफाज़ मानो प्रधानमंत्री मोदी के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने का फाॅर्मूला दे दिया हो। ऐसा देखा गया है कि चुनाव के दिनों में केवल वायदों का अम्बार नहीं होता बल्कि जुबान फिसलने पर उसकी तेजी से धर-पकड़ भी होती है। जाहिर है इसके पहले बिहार विधानसभा चुनाव में भी ऐसे नमूने खूब देखे गये थे। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी का घर भी है और गढ़ भी पर जिस तरह वे विरोधियों पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं उससे साफ है कि चुनावी आंच का उन्हें भी डर सता रहा है। खास यह भी है कि 22 साल से गुजरात में सत्तासीन भाजपा यहां कांग्रेस मुक्त का नारा उतना बुलन्द नहीं कर रही है जैसा वह पहले करती रही है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने दो दषक के भाजपाई सरकार के विकास का हिसाब-किताब चुनावी रैलियों में रख कर काफी हद तक अपना वजन बढ़ाया है साथ ही पाटीदारों के चलते गुजरात की फिजां में भाजपा का रंग बदरंग हुआ है। जहां तक जान पड़ता है प्रधानमंत्री मोदी देष के किसी भी विधानसभा चुनाव में इतना प्रचार नहीं किया जितना गुजरात में कर रहे हैं। इसके पीछे विरोधी भय नहीं तो क्या कहा जायेगा। भाजपा जानती है कि न तो कांग्रेस 2014 जैसी है और न ही गुजरात के वोटर पहले जैसे हैं इतना ही नहीं यहां की सियासत का मजनून भी पहले जैसा नहीं है। यदि यहां से कुछ अनबन होती है तो विरोधियों को न केवल ताकत मिल जायेगी बल्कि घर में हार के दंष वर्शों तक पीछा नहीं छोड़ेंगे।
कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि भले ही 2014 से उसकी हार के सिलसिले अभी भी जारी हैं बावजूद इसके चुनाव वैसे ही लड़ो जैसे जीतने के लिए लड़ा जाता है। हालांकि इसी बीच पंजाब में कांग्रेस सत्तासीन हुई और मणिपुर तथा गोवा में भी स्थिति अच्छी बनाये रखने में कामयाब रही। दो टूक यह भी है कि यदि गुजरात में कांग्रेस बाजी मारती है जिसके नतीजे 18 दिसम्बर को आयेंगे या फिर 2012 की तुलना में व्यापक बढ़त भी बना लेती है तो मौजूदा समय को देखते हुए दुर्बल कांगे्रस में नई ऊर्जा का संचार होना लाज़मी है और 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी उसे अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक ताकत मिल जायेगी। बेषक गुजरात जीतना कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी चुनौती है पर राहुल गांधी अपनी दलीय स्थिति को दौर के अनुपात में समझते हुए न केवल उसे नव उदारवाद की ओर ले जा रहे हैं बल्कि स्वयं को उदारवादी हिंदुत्व की ओर झुका भी रहे हैं जो अपने आप में बड़ी खास बात है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के ठीक उलट राहुल मन्दिर-मन्दिर जा रहे हैं। षायद कांग्रेस के रणनीति बनाने वालों को भी यह समझ आ चुकी है कि भाजपा से मिल रही चुनौती में मंदिर एक समाधान की युक्ति हो सकती है। जब से केन्द्र में मोदी सरकार काबिज है तब से देष में उग्र हिन्दुत्व का कमोबेष वातावरण तेजी से निर्मित हुआ है जिसे षायद भारत के आमजन व आम हिन्दू कम ही पसंद करता है। बुद्धिजीवी वर्ग भी ऐसे संदर्भों से ज्यादा घालमेल नहीं रखते। वर्श 2015 में लेखकों एवं रचनाकारों द्वारा असहिश्णुता को आगे करके अवाॅर्ड वापसी का दौर इसके नाप-झोक में आ सकता है। सटीक संदर्भ यह भी है कि राजनेता सुविधा के हिसाब से राजनीति करते हैं और देष की जनता सुविधा की फिराक में इनसे बार-बार छली जाती है पर ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में उग्र हिन्दुत्व हो या उग्र राजनीति खारिज हो जायेगी। कांग्रेस की इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 1975-77 में आपात की स्थिति लाकर इसी उग्रता का परिचय दिया था। जिसे 1977 के चुनाव में खारिज कर दिया गया था और जब 1980 में उसकी पुर्नवापसी हुई तो सत्तासीन तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी उग्र के बजाय उदार की राह पर थीं।
मौजूदा समय में कांग्रेस में राहुल युग का सूत्रपात तो हो रहा है पर अनेकों चुनौतियों से वे घिरे हुए हैं। मोदी के मुकाबले व्यक्तित्व में निखार और जनता के सामने उनकी पेषगी उनके सामने बड़ा प्रष्न रहेगा हांलाकि वे इस मामले में पहले से काफी बदले दिख रहे हैं। भरभरा उठी कांग्रेस पार्टी की संरचना को न केवल पुर्निजीवित करना चुनौती है बल्कि कांग्रेसियों में यह उम्मीद भरना कि भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के विचार से मुक्त होकर देष की जनता के बीच कैसे जगह बनाये से युक्त हो जाये खासा मषक्कत भरा काज है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है। रही बात वंषवाद के आरोप से तो राहुल गांधी इससे मुक्त नहीं हो सकते और फिलहाल कांग्रेस के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। कांग्रेस लगातार हार के चलते जिस रास्ते पर खड़ी है वहां से अब और कमजोर होना इसलिए कम प्रतीत होता है क्योंकि केन्द्र में साढ़े तीन साल की सत्ता चला रही एनडीए की कई कमजोरियां भी अब देष के सामने विपक्ष रख सकता है। बार-बार इस बात को लेकर मोदी सरकार अपना बचाव नहीं कर सकती कि उसे भरपूर वक्त अभी नहीं मिला है। दो टूक यह भी है कि राहुल गांधी धार्मिक बनने की हड़बड़ाहट में दिख रहे हैं जो उन पर ताजा आरोप है पर राजनीति में एक खास बात यह रही है कि आरोपों से सियासतदानों के कद आंके गये हैं। राहुल गांधी का मन्दिर जाने वाला मामला भाजपा को तिलमिला सकता है और यदि धार्मिक मामले में भाजपा इसे राहुल की सेंध समझ रही हो तो इस युक्ति को वे सफल करार दे सकते हैं। 
इतिहास के पन्नों को उलट-पलट कर देखा जाय तो कांग्रेस के लिए परेषानी का कारण एक नहीं अनेक है जिसमें नेहरू से लेकर इन्दिरा एवं राजीव गांधी तक की सरकारों का लेखा-जोखा सियासी भंवर में तैरते रहेंगे साथ ही वंषवाद की राजनीति का दंष भी चलता रहेगा। वंषवाद और आन्तरिक लोकतंत्र की कमी का ठीकरा षायद कांग्रेस पर आगे भी फोड़ा जाता रहेगा पर यह आरोप कितना लाज़मी कि राहुल गांधी ने औरंगजेब की तरह पार्टी की अध्यक्षता हासिल की। गौरतलब है कि औरंगजेब ने सत्ता अपने भाईयों से लड़कर प्राप्त की थी जबकि राहुल गांधी निर्विरोध हैं। हांलाकि षहजाद पूनावाला जैसे कुछ कांग्रेसी विरोधी वक्तव्य दिये पर ये कोई खास मायने नहीं रखता। मणिषंकर अय्यर भी वरिश्ठ हैं पर कहीं न कहीं पार्टी के लिए मुसीबत हैं। आये दिन वे इसका सबूत भी देते रहते हैं। इस बात पर भी ध्यान देना सही है कि पिछले चार सालों से देष की सियासी फिजा में वंषवाद के चंगुल से मुक्ति की बात हो रही है बावजूद इसके सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस का षीर्शस्थ पद वंष परम्परा का निर्वहन करते हुए राहुल गांधी के पास ही आयी। साफ है कि चुनावी हश्र कुछ भी हो वंषवाद की जोड़-तोड़ से कांग्रेस बाहर नहीं है। वैसे यह आरोप केवल राहुल गांधी पर ही क्यों भाजपा समेत कई दल ऐसे हैं जहां यह कमोबेष मिल जायेगा पर कांग्रेस पर यह भारी पड़ता है क्योंकि वहां सत्ता में भी और दल के अन्दर भी यह परम्परा रही है। सौभाग्य से राहुल को खुला मैदान मिला है और कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है। ऐसे में वे चुनौतियों से पाड़ पाते हुए यदि पार्टी को मौजूदा स्थिति से उबार लेते हैं तो वे न केवल कई आरोपों से मुक्त हो जायेंगे बल्कि उनका दल बदले राजनीति में कुछ हद तक सषक्तता से युक्त भी मान लिया जायेगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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