Wednesday, December 6, 2017

सुशासन का साहित्य है संविधान

26 नवम्बर को राश्ट्रीय विधि दिवस के पावन अवसर पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका अपने दायरे में रहते हुए एक-दूसरे की आवष्यकताओं को समझते हुए काम करें तब हम जनता की बेहतर सेवा कर पायेंगे। उक्त से यह बात एक बार फिर उजागर होती है कि संविधान में निहित सीमाओं के संरक्षण से ही सुषासनिक कृत्य सम्भव हैं। गौरतलब है कि इसी दिन 1949 में देष के संविधान के कुछ हिस्से को लागू किया गया था जबकि 26 जनवरी, 1950 को पूरी तरह संविधान भारतीय संविधान दुनिया के फलक पर आया था। संविधान और सुषासन के रिष्ते को सात दषक पूरे हो चुके हैं। संविधान जहां राजनीतिक अधिकारों एवं लोक कल्याण का वृहत्तम संयोजन है तो वहीं सुषासन एक जन केन्द्रित, कल्याणकारी तथा संवेदनषील षासन व्यवस्था है। विधि के षासन की स्थापना के साथ-साथ संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास सुषासन है जिसके केन्द्र में नागरिक और उसका सषक्तिकरण देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा संविधान दिवस पर कई उन्मुख बातों को उजागर करने के पीछे एक बड़ी वजह दायरे को दायरे में रखने से भी सम्बंधित कही जा सकती है। विदित हो कि संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत कार्यपालिका का निर्माण व्यवस्थापिका से होता है जबकि नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 50 के अधीन न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा गया है। बावजूद इसके एक-दूसरे पर हस्तक्षेप का इतिहास भी इन सात दषकों में देखा जा सकता है। स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की एक ऐसी षक्ति है जिस पर देष का प्रत्येक नागरिक गर्व महसूस कर सकता है और ऐसा सोचता है कि निश्पक्ष न्यायपालिका के चलते उसके अधिकारों का न तो हनन सम्भव है और न ही सरकार व प्रषासन द्वारा उसे मसला और कुचला जा सकता है। संदर्भित पक्ष यह भी है कि तीन स्तम्भों की व्यवस्था में सभी की अपनी भूमिका है और सभी के अपने दायरे हैं। यदि इसे हमेषा अनुपालन में रखा जाय तो सुषासन से जुड़े काज को न केवल बढ़त मिलेगी बल्कि प्रधानमंत्री की चिंता को भी कम किया जा सकता है। 
सुषासन की कई स्पश्ट व्याख्यायें हैं जो संविधान के मार्ग से गुजरती हैं। यह एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सरकार को कहीं अधिक खुला, पारदर्षी और उत्तरदायी बनाता है जबकि सरकार को संविधान से षक्तियां प्राप्त हैं और सीमायें भी। राजनीतिक उत्तरदायित्व, नौकरषाही की जवाबदेहिता, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा मानव अधिकारों का संरक्षण समेत कई कृत्य संविधान की परिपाटी में देखे जा सकते हैं और उक्त का सीधा सम्बन्ध सुषासन के साक्ष्य के तौर पर भी देखा जा सकता है। जब हम संवेदनषील षासन की बात करते हैं तो मुख हमेषा संविधान की ओर होता है। प्रषासन जनमित्र व संवेदनषील बन सके तथा नागरिक व सरकार के बीच अन्र्तसम्बंध व अन्र्तक्रिया मजबूत हो सके ये सभी सुषासन से ही तय होंगे और यह तब सम्भव होगा जब सीमाओं से परे कृत्य नहीं होंगे। मोदी का यह कहना कि अपनी-अपनी कमजोरियां हम जानते हैं, अपनी-अपनी षक्तियों को भी पहचानते हैं। निहित परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो कथन का लब्बोलुआब संविधान और सुषासन को साथ लेकर चलना है और आपस में हस्तक्षेप से उथल-पुथल को अख्तियार करने से गुरेज रखना है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की अपनी-अपनी व्याख्यायें और अपनी-अपनी षक्तियां हैं जो देष को समुचित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यही ताकतें जब आपसी हस्तक्षेप से उलझती हैं तो सुषासन की राह को भी खतरा पहुंचता है और जब यही सीमाओं में रह कर अपनी कारगुजारियां करती हैं तो न केवल नागरिकों के अधिकार सबल होते हैं बल्कि देष में विकास की नई धारा भी विकसित होती है। गौरतलब है संविधान एक गतिषील अवधारणा है जाहिर है सात दषकों से नागरिकों के अधिकारों को बनाये रखने में इसकी विधिवत भूमिका रही है। 
प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी सधी हुई एक बात यह भी कही है कि 68 वर्शों में संविधान में एक अभिभावक की तरह हमें सही रास्ते पर चलना सिखाया है और इसी ने देष को लोकतंत्र के रास्ते पर बनाये रखा। उक्त संदर्भ लाख टके का है। जब धारा और विचारधारा का संयोजन करके देष को ऊंचाई देने की बात आती है तो सुषासन की परिपाटी स्वयं में उजागर हो जाती है। किसी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है। यही संविधान कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास बनाये रखता है। जब षासन का आधार सुषासन होता है तो यह बात भी मापतौल में आ जाती है कि देष का  संविधान कैसा है। प्रधानमंत्री मोदी का संविधान की तुलना एक अभिभावक से करना बिल्कुल दुरूस्त है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि दषकों से संविधान ने सभी के जीवन को संजीवनी दी है। विधायिका ने विधियों का निर्माण किया है, कार्यपालिका ने जनहित को सुनिष्चित करने के लिए विधियों को अमलीजामा पहनाया है और अधिकारों के हनन में न्यायपालिका हमेषा नागरिकों के साथ खड़ी रही है। षायद इसी का परिणाम है कि कागज की किष्ती को समुन्दर में आज भी डूबने से हम बचा ले गये हैं। संसदीय प्रणाली की एक विधा यह भी है कि हुकूमत जनता की होगी, ताकत संविधान से मिलेगी और इससे मुंह फेरने वालों को सजा जनता ही देगी। 
संदर्भित यह भी है कि 26 नवम्बर की तिथि देष के इतिहास में बड़े उच्च दर्जे की है। संविधान और विधि दिवस का परिप्रेक्ष्य है तो थोड़ी चर्चा संवैधानिक इतिहास से भी होना लाज़मी रहेगा है। गौरतलब है कि 1946 में संविधान सभा की स्थापना हुई थी जिसमें 389 सदस्य थे। सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को डाॅ0 संच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। ठीक दो दिन बाद 11 दिसम्बर को डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष भी हुये। देष के वृहद् संविधान को बेहतर बनाने की फिराक में कई अड़चनों से भी जूझना पड़ा। संविधान देष चलाने का एक पावर हाऊस है और प्रधानमंत्री मोदी की नजरों में अभिभावक भी। ऐसे में सम्पूर्णता का पूरा ख्याल रखा जाना स्वाभाविक था। 8 मुख्य समितियां तथा 15 अन्य समितियां इस बात का संकेत है कि ताकतवर नियम संहिता बनाने में संविधानविदों ने कोई कोताही नहीं बरती है। डाॅ0 अम्बेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति का गठन और संविधान को अन्तिम रूप मिला। देखा जाय तो 2 साल, 11 महीने और 18 दिन मे मौजूदा संविधान बनकर देष के सुषासन की परिपाटी को पगडण्डी पर दौड़ाने को तैयार हुआ। जिस क्लेवर और फ्लेवर के साथ संविधान ने अपने मूर्त रूप को लिया है उसमें अब तक सौ से अधिक संषोधन हो चुके हैं। बावजूद इसके जनता के अधिकारों और लोक कल्याण के निहित भावों को आज भी कोई ठेस नहीं पहुंची है। संविधान समाज की आकांक्षाओं का पिटारा होता है। यह सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करता है। जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके साथ ही सरकार व सत्ता जनमानस के लिए सुविधा प्रदायक की भूमिका में हमेषा रहे यही सुषासन की परिपाटी है। एक सरकार संविधान का सहारा लेकर उसमें निहित ताकत का प्रयोग करके स्वयं में सुषासन का समावेषन सुनिष्चित कर लेती है ऐसे में वह लोकप्रिय सत्ता का न केवल भागीदार होती है बल्कि सीमाओं और मर्यादाओं के साथ स्वयं को गतिषील बनाती है। खास यह भी है कि हमारा संविधान षीर्शस्थ मापदण्डों में अभी भी सवालों से परे है। जब भी अड़चनें आई हैं षीर्श अदालत ने संवैधानिक सम्प्रभुता को पुर्नस्थापित कर लिया है और व्यवस्थापिका से लेकर कार्यपालिका तक को समय-समय पर यह बताती रही है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। संविधान और सुषासन परस्पर एक ऐसी अन्र्तक्रिया हैं जिसके केन्द्र में मात्र और मात्र देष की जनता है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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