Saturday, December 30, 2017

तमाम चुनौतियों का घर है नया साल

साल 2017 अन्तिम छोर पर खड़ा है और वर्श 2018 उन चुनौतियों के साथ मुहाने पर जो 2017 में उसे विरासत के तौर पर मिलेगी। देखा जाय तो साढ़े तीन साल पुरानी मोदी सरकार लोकतंत्र की नई गाथा लिख रही है और चुनावी जीत की नई पटकथा भी। बावजूद इसके चुनौतियों का अम्बार कम नहीं हुआ है और समस्याएं प्रतिदिन के हिसाब से बढ़त बनाये हुए है। रोटी, कपड़ा और मकान व सुरक्षा आदि समेत कई बुनियादी चीजों के लिए देष का हर चैथा व्यक्ति आज भी वैसे ही जूझ रहा है जैसे बरसों से होता रहा है। गौरतलब है कि विकासात्मक नीति के निर्माण और उसके क्रियान्वयन के लिए आर्थिक ढांचा सुदृढ़ होना आवष्यक है जिसे लेकर नोटबंदी से जीएसटी तक के अभ्यास इसी दिषा में देखे जा सकते हैं। हालांकि नोटबंदी 2016 का मामला है परन्तु उसके असर से साल 2017 पूरी तरह प्रभावित रहा है। जुलाई में जब विकास दर का आंकलन सामने आया तो सरकार के भी नोटबंदी वाले फैसले संदेह के दायरे में आ गये। गौरतलब है कि विकास दर तुलनात्मक दो फीसदी औंधे मुंह गिर गया था। एक जुलाई से देष में जीएसटी लागू है इसे लेकर भी आर्थिक जगत में अनेकों समस्याएं देखने को मिली हैं। जुलाई में करीब 94 हजार करोड़ अप्रत्यक्ष कर इकट्ठा हुआ जबकि लगातार इसमें कमी होते हुए दिसम्बर में जुलाई की तुलना में यह 10 हजार करोड़ कम है। कारोबारी परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाय तो साल 2017 अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और सुधारने में ही चला गया। साफ है कि सुषासन को हथियार बनाने वाली मोदी सरकार बुनियादी मामले में इसलिए बहुत कुछ नहीं कर पायी क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी के चलते पनपे असंतोश को कम करने में ही पूरी कूबत झोंकती रही।
फिलहाल 2017 आर्थिक उतार-चढ़ाव से गुजरा है यह बात सभी स्वीकार करेंगे। अब सवाल यह है कि जो 2017 में नहीं हुआ क्या 2018 में हो जायेगा। विकास, रोज़गार बढ़ाने और भ्रश्टाचार समाप्त करने के नाम पर सत्ता में आई मोदी सरकार के लिए 2019 लोकसभा चुनाव को देखते हुए साल 2018 सबसे चुनौती भरा सिद्ध होगा। जब मई 2014 में सरकार बनी थी तब प्रधानमंत्री मोदी ने अपना रिपोर्ट कार्ड पांच साल में दिखाने की बात कही थी। जाहिर है जनता भूली नहीं है और ब्यौरा मांगेगी। दूसरा सवाल यह है कि चुनौतियों से भरे 2018 में सरकार क्या वो स्पीड ला पायेगी जिसकी दरकार है। ध्यान रहे कि नोटबंदी और जीएसटी को लेकर अभी भी सरकार की साख संदेह में रहती है। वित्त मंत्री अरूण जेटली आगामी वर्श में जीडीपी की वृद्धि दर 7.7 फीसदी रहने की उम्मीद जता रहे हैं। उन्होंने कहा है कि उभरते देषों की अर्थव्यवस्थायें आज संरक्षणवादी नीतियों एवं बढ़ते-बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव के रूप में नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। दो टूक यह भी है कि वित्त मंत्री जिस जीडीपी का अनुमान लगा रहे हैं उसे मौजूदा राह पर चल रही अर्थव्यवस्था को देखते हुए ऊंची कही जा सकती है पर सरकार के नियोजन और नीति यदि वाकई में चमत्कारिक रहे तो इससे भी ऊपर जा सकती है। अन्तर्राश्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूढ़ीज की रिपोर्ट से पता चलता है कि अगले साल मार्च में खत्म होने वाले वित्त वर्श 2018 में विकास दर 7.5 फीसदी रहेगी और 2019 में 7.7 फीसदी जबकि अमेरिका की एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि विकास का दर 2018 में 6.4 प्रतिषत और अगले वित्त वर्श में 8 फीसदी पर पहुंच जायेगी। फिलहाल सरकार को तो अपनी जमीन पर अर्थव्यवस्था की षतरंजी गोटियां बिछानी हैं और विकास देकर इसे प्रमाणित भी करना है। वर्श 2014 से प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जिस तर्ज पर भाजपा ने चुनावी जीत हासिल की है और 2017 में जिस भांति उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड तत्पष्चात् हिमाचल और गुजरात में सत्तासीन हुई है उससे तो यही लगता है कि नोटबंदी और जीएसटी प्रमाणित हो गये हैं पर इस सवाल से सरकार पीछा नहीं छुड़ा सकती कि जन विकास की चुनौतियां अभी उसे ऐसे प्रमाणपत्र से वंचित रखा है जिसका सबसे महत्वपूर्ण वर्श 2018 होगा। 
पिछड़ती और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के चलते सरकार ने सभी किसानों का ऋण माफ करने का जोखिम नहीं लिया जबकि मौजूदा समय में ग्रामीण और कृशि क्षेत्र सर्वाधिक दुर्दषा से गुजर रहे हैं। किसानों की हालत भले ही चर्चाओं में बेहतर हो पर हकीकत यह है कि दो जून की रोटी के लिए आज भी जी-तोड़ मेहनत जारी है। तीन लाख से ज्यादा किसान दुनिया छोड़ चुके हैं और 2017 में भी यह क्रम जारी रहा। काष कुछ ऐसा होता कि 2018 इन सूचनाओं से वंचित हो। साफ सुथरी बात यह भी है कि सरकार ने 2016 के बजट में ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को लेकर काफी कुछ करने की कोषिष की थी परन्तु हालात इस कदर छिन्न-भिन्न हैं कि अन्नदाता आज भी गुरबत से नहीं उबरे हैं। उत्तर प्रदेष की भारी बहुमत वाली योगी सरकार ने तकरीबन चालीस हजार करोड़ का किसानों का कर्ज माफ किया पर बद्किस्मती से किसानों का पीछा अभी नहीं छूटा है। उत्तराखण्ड में भी हालात ऐसे बिगड़े कि पहली बार यहां साल 2017 में चार किसानों की आत्महत्या की सूचना आई जो देवभूमि पर पहली बार हुआ। ऐसा क्या होता है कि सत्ता सुनिष्चित करने के लिए राजनीतिक दल  वायदे तो बड़े करती हैं पर निभाने में बहुत बौनी रह जाती हैं। गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, अषिक्षा समेत कई समस्याओं से देष-प्रदेष अभी अछूते नहीं हैं। अच्छे षिक्षालय, अच्छे चिकित्सालय और गुणवत्ता से भरे वातावरण देने की चुनौती यहां पर व्यापक पैमाने पर है। 65 फीसदी युवाओं वाला भारत बेरोजगारी से अटा है और सरकारें कहती हैं स्वरोजगार सोचिए जबकि स्किल डवलेपमेंट के मामले में अभी भी यह कहना मुनासिब नहीं है कि मोदी सरकार ने दूसरों की तुलना में कहीं कुछ हटकर किया है। हां कोषिष जरूर अच्छी कही जायेगी। 
आज देष के सामने कई प्रमुख प्रष्न खड़े हैं जिसका समाधान सरकार और उसकी मषीनरी में खोजा जा रहा है पर हल मन माफिक हो रहे है ऐसा कहना सम्भव नहीं है। बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी है पर बुनियादी समस्याओं से निजात न मिल पाने के कारण राह अभी भी कठिन बनी हुई है। इन सबके बीच सुखद यह है कि भारत की आर्थिक सम्भावनाओं पर हालिया राश्ट्रीय एवं अन्तर्राश्ट्रीय अध्ययन रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि साल 2018 में भारत का आर्थिक परिदृष्य बेहतर होगा। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत बदले हुए सकारात्मक आर्थिक एवं कारोबारी परिदृष्य के कारण 2018 में ब्रिटेन व फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए डाॅलर के हिसाब से विष्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देष बनेगा। गौरतलब है कि उक्त आषा से भरी बातें बीते 26 दिसम्बर को ब्रिटेन की वैष्विक रिसर्च सेन्टर फाॅर इकोनोमिक एण्ड बिज़नेस रिसर्च द्वारा प्रकाषित रिपोर्ट से पता चलती है। सभी जानते हैं कि सरकार के निहितार्थ में विकास और लोक कल्याण की अवधारणा निहित होती है और यह निहित परिप्रेक्ष्य तब पूरी तरह खरा उतरता है जब जन मानस बुनियादी चुनौतियों से मुक्त गुणात्मक जीवन मूल्य की ओर हो और ऐसा होने के लिए सरकार को आर्थिक रूप से सबल होना ही आवष्यक है। उम्मीद है कि आगामी 2018 में सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए जन विकास से ओत-प्रोत होगी। सरकार भी जानती है कि आगामी वर्श में विकास को लेकर उसकी अग्नि परीक्षा होगी जिसमें उत्तीर्ण भी होना है। इतना ही नहीं मध्य प्रदेष, राजस्थान एवं कर्नाटक और पूर्वोत्तर के चार राज्यों समेत आठ प्रान्तों में चुनाव भी होना है। इसे भी ध्यान में रखकर विकास का रास्ता चैड़ा करना सरकार की मजबूरी होगी। फिलहाल वजह चाहे जो हो यदि बुनियादी विकास और लोक विकास सुनिष्चित होता है तो जनता और सरकार दोनों की सेहत में सुधार होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

देश की प्रगति की कुंजी है सुशासन

दिसम्बर 2017 की 25 तारीख को सुषासन दिवस के दिन प्रधानमंत्री मोदी ने जब यह कहा कि सुषासन तब तक सम्भव नहीं जब तक लोगों की सोच है, मेरा क्या और मुझे क्या। उक्त वक्तव्य से साफ है कि विकास के सहभागी मापदण्ड को अब देर तक न तो दरकिनार किया जा सकता है और न ही राश्ट्र निर्माण की दिषा में स्वयं को पहल से अछूता रखा जा सकता है। गौरतलब है कि लोकतंत्र के प्रचण्ड बहुमत से निर्मित मौजूदा मोदी सरकार भी सुषासन के जरिये ही जीवट लोकतंत्र सम्भव करना चाह रही है। जिस सुषासन को सरकार सभी समस्या की समाप्ति के संयंत्र के रूप में देख रही है वह तभी पूर्णता को प्राप्त करेगा जब इसमें निहित लोकप्रवर्धित अवधारणा को मजबूती मिलेगी। जाहिर है इसके केन्द्र में जनता है जिसकी तादाद करोड़ों में है और समस्याएं बेषुमार तथा अपेक्षाएं अनंत हैं। देष में जनहित को लेकर सरकार द्वारा उठाये जाने वाले कदम बीते साढ़े तीन सालों में कितने खरे रहे इस पर एक विमर्ष हो सकता है पर आज देष के सामने जो प्रमुख निर्णायक प्रष्न खड़ा है उसमें सुषासन सबसे महत्वपूर्ण है। देष के लोकतांत्रिक संविधान के अंतर्गत यह प्रतिबद्धता है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था हो और ऐसा गुड गवर्नेंस के जरिये ही सम्भव माना जा रहा है। इस बात में तनिक मात्र भी संदेह नहीं कि सुषासन सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास तथा लोक विकास की परिपाटी को उच्चस्थ बनाने का एक बड़ा औजार है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी जब 2014 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिन 25 दिसम्बर को सुषासन दिवस घोशित किया तब इस बात का ध्यान था कि इसके जरिये लोगों के जीवन में जीवटता भर देंगे। दो टूक यह भी है कि सुषासन जिस सामाजिक-आर्थिक न्याय की बात करता है उसमें मोदी का ष्लोगन सबका साथ, सबका विकास पूरी तरह निहित है। 
मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं नागरिकों पर केन्द्रित होते हुए एक नये डिज़ायन और सिंगल विंडो संस्कृति में तब्दील हो रही है। सुषासन में निहित ई-गवर्नेंस की ज्यादातर पहल में बिज़नेस माॅडल, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरषिप समुचित तकनीक और स्मार्ट सरकार के साथ इंटरफेस उद्यमिता इत्यादि का उपयोग किया जाता है लेकिन आगे बढ़ने या आरम्भिक सफलता को दोहरा पाने में यह पूरी तरह अभी सफल नहीं है। स्वतंत्रता दिवस के दिन अगस्त, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन का मार्ग प्रषस्त होता है। यद्यपि सुषासन को लेकर आम लोगों में विभिन्न विचार हो सकते हैं पर सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनाता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं। गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के दौर में जो आर्थिक मापदण्ड विकसित किये गये वे मौजूदा समय के अपरिहार्य सत्य थे जिसमें सुषासन की अवधारणा भी पुलकित होती है। विष्व बैंक ने भी इसी दौर में इसकी एक आर्थिक परिभाशा गढ़ी थी। लगभग तीन दषक के बाद यह कहा जा सकता है कि सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र, ई-गवर्नेंस, सिटीजन चार्टर, ई-याचिका तथा ई-सुविधा समेत लोकहित से जुड़े तमाम संदर्भ सुषासन की दिषा में उठे कदम ही हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन के कोर में सरकार की जिम्मेदारी कहीं अधिक है और बारम्बार एक बेहतरीन सरकार का निरूपण इसमें निहित है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुषासन और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां दूसरे देषों की तुलना में भिन्न हैं। जाहिर है न्याय, सषक्तीकरण, रोजगार एवं क्षमतापूर्वक सेवा प्रदायन से जब तक समाज के प्रत्येक तबके को गरीबी, बीमारी, षिक्षा, चिकित्सा समेत बुनियादी तत्वों को हल नहीं मिलता तब तक सुषासन की परिभाशा अधूरी रहेगी। 
सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढ़ेर सारी आषायें हैं। षायद इन्हीं आषाओं को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में आते ही काफी सक्रिय दिखाई दिये। हालांकि सुषासन के मामले में जैसा पहले कहा गया है आमतौर पर  परिभाशाओं का घोर आभाव है और यह अपनी सुविधा पर जांची-परखी जाती रही है। पिछले कुछ वर्शों से देष में आर्थिक समस्याएं उस तरह से हल नहीं प्राप्त कर पायी जैसा होना चाहिए। इससे सुषासन की संवेदनषीलता प्रभावित हुई है। नोटबंदी के बाद विकास दर का प्रभावित होना इसका पुख्ता प्रमाण है। अभी भी देष में नोटबंदी और जीएसटी के चलते साईड इफैक्ट देखने को मिल रहे हैं। हालांकि अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश और विष्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करार दिया है। वैसे देखा जाय तो सुषासन की कसौटी पर राजकोशीय और बजटीय घाटा अभी भी समुचित नहीं है। साल 2017 के आखिर में वित्त मंत्री अरूण जेटली का यह बयान है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी तो है। षीत सत्र के दौरान जेटली ने कहा कि जीडीपी की दर 2015-16 में 8 फीसदी के मुकाबले 2016-17 में 7.1 पर आ गयी पर गौर करने वाली बात यह भी है कि बीते जून तक नोटबंदी के चलते जीडीपी दो फीसदी नीचे चली गयी थी। दो टूक यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी ने निवेष बढ़ाने की बड़ी कोषिष की और गुड गवर्नेंस का ग्लोबलाइजेषन धड़ाले से किया गया मेक इन इंडिया इसका पुख्ता सबूत है। देष में स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इंडिया से सुषासन की पूर्ति होती है और सुषासन से इनकी पर देष की नौकरषाही में व्यापक ढांचागत कमियां और क्रियान्वयन में छुपी उदासीनता के अलावा भ्रश्टाचार पर पूरा नियंत्रण न होने से मामला कागजी ही सिद्ध हुआ है। 
प्रधानमंत्री मोदी न्यू इंडिया की बात कर रहे हैं जाहिर है पुराने भारत की तस्वीर बदलेगी पर कैसे इस पर षक इसलिए गहराता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र अभी भी मुसीबत में है। बावजूद इसके सरकार ग्रामीण एवं कृशि सुषासन पर बड़ा जोखिम नहीं लिया। हालांकि कुछ मामलों में राहत दे रही है। इस क्षेत्र का मानव संसाधन अभी भी भूखा-प्यासा और षोशित महसूस करता है। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है और ऐसा पारदर्षी और ईमानदार प्रणाली से ही होगा। पुरानी पड़ चुकी नौकरषाही में नई जान फूंकी जा रही है पर यह न पहले आसान था और न अब। सुषासन किसी भी देष की प्रगति की कुंजी मानी जाती है और यह समस्याओं के निदान में सर्वाधिक प्रभावषाली भी पर जब तक जवाबदेही में कोताही बरती जायेगी यह कुंजी ताले को नहीं खोल पायेगी। यह कहना सही है कि डिजिटल गवर्नेंस का दौर बढ़ा है। नवीन लोक प्रबंधन की प्रणाली के रूप में ये प्रासंगिक हुआ है। आर्थिक विकास के मार्ग को समतल बनाना, षिक्षा, ऊर्जा, स्वास्थ और मानव विकास को प्राथमिकता देना इसमें षुमार है। कृशि, उद्योग और सेवा आदि क्षेत्रों को सुसंगत और सुषासनिक अवधारणा से ओत-प्रोत व्यवस्था लाना सुषासन की निहित विचारधारा है। ई-लोकतंत्र, पारदर्षिता, दायित्वषीलता और सहभागिता सब इसके ही अनोखे गुण हैं। सुषासन को आर्थिक गणना में रखकर और मजबूती से समझा जा सकता है। लोक कल्याण आर्थिक मुनाफे पर केन्द्रित नहीं होता। सरकार को भी यह भली-भांति समझना चाहिए कि सुषासन के जरिये जीवटता बनाये रखना है तो रोटी, कपड़ा और मकान किसी के लिए भी दूर की कौड़ी नहीं होनी चाहिए। गौरतलब है कि 2022 तक सरकार सभी को मकान देने की बात कह रही है पर युवाओं की बेरोजगारी वाली लम्बी कतार यह संदेह पैदा कर रही है कि रोजगार के बगैर किचन में भोजन कैसे पकेगा। देष समस्याओं से भरा है और हल करने की तरकीब सुषासन में है पर मात्र इसकी माला जपने से काम नहीं होगा। सुषासन कोई मंत्र नहीं है पर यदि इसके निर्धारित साक्ष्यों, साधनों और संदर्भों को उकेरा जाय तो यह जनता की ही नहीं सरकार की भी सेहत सुधारती है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, December 27, 2017

स्याह सोच से युक्त पाक का इलाज

इस तथ्य को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता कि आतंकी संगठन दिन दूनी, रात चैगुनी की तर्ज पर पाकिस्तान में अभी भी उसी स्पीड से पनप रहे हैं जबकि दुनिया इनके खात्मे के इंतजार में है। इतना ही नहीं  पाक सेना भी इनके सुर में सुर इस कदर मिलाये हुए है मानो वे एक-दूसरे के पूरक हों। वैसे एक बड़ी सच्चाई यह है कि पाकिस्तान के आतंकी संगठन, वहां की सेना समेत आईएसआई और सरकार भारत के प्रति हमेषा से स्याह सोच से युक्त रही है। देखा जाय तो बीते तीन दषकों से भारत इनकी जुगलबंदी का षिकार रहा है। बरसों से तमाम दबाव पाकिस्तान को नियंत्रण करने में नाकाफी सिद्ध हुए हैं और लगातार कीमत भारत को चुकानी पड़ रही है। आये दिन जवान षहीद हो रहे हैं और पाकिस्तान अपनी छाती आतंकियों के सहारे चैड़ी कर दुनिया में अपनी स्याह सोच की ढुगढुगी पीट रहा है। अमेरिका की तमाम धमकियों के बावजूद पाकिस्तान की सोच में परिवर्तन नहीं दिखाई देता और न ही इस बात की फिक्र कि आतंक उसे किस राह पर ले जायेगा। जिस तरह भारत के प्रति उसका वहषीपन प्रतिदिन की दर से बढ़त बनाये हुए है उससे भी साफ है कि थोड़ी-मोड़ी कार्यवाही या धमकी मात्र से उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि भारतीय सेना ने बीते 26 दिसम्बर को पाक अधिकृत कष्मीर में 500 मीटर अन्दर घुसकर एक बार फिर सितम्बर, 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक की याद दिला दी। गौरतलब है कि चंद दिन पहले भारत के चार जवान पाकिस्तान की तरफ से की गई गोलाबारी में षहीद हो गये थे। जिस तर्ज पर पाकिस्तान ने अपने करतूत को अंजाम दिया उसे देखते हुए भारतीय सेना समेत देष में नये सिरे से एक विमर्ष षुरू हो गया था। चार सैनिकों की षहादत का बदला पीओके में घुस कर सेना लेगी इसका अंदाजा षायद ही किसी को रहा हो। घातक कमाण्डो आइईडी का इस्तेमाल करते हुए पाक अधिकृत कष्मीर में घुसे ठीक उसी अंदाज में जैसे पाक सैनिकों ने रजौरी के केरी सेक्टर में भारतीय जवानों के खिलाफ कुकृत्य किया था। गौरतलब है पाकिस्तानी सेना ने भारतीय गष्ती दल के लिए आइईडी लगा दी थी और जवानों पर गोलियां बरसा दीं जिसमें एक मेजर तथा तीन अन्य जवान षहीद हो गये थे। 
वैसे पीओके में की गयी यह कार्यवाही टैक्टिकल स्ट्राइक कहा जा रहा है। यह कार्यवाही पिछले साल की सर्जिकल स्ट्राइक से अलग है क्योंकि यह स्थानीय सैन्य कमाण्डर के आदेष पर किया गया बेहद छोटा आॅपरेषन था। गौरतलब है कि इसमें केवल 5 कमाण्डों की टीम ने कार्य को अंजाम दिया। बेषक कार्यवाही छोटी है पर इसमें इस बात का संदर्भ छुपा है कि भारतीय सेना पीओके को आतंकविहीन करने का बूता रखती है। सोचने वाली बात यह भी है कि बरसों से भारतीय सेना पर पाकिस्तान जुर्म ढ़ा रहा है। कभी जवानों के सिर काटे गये तो कभी धोखे से गोली मारी गयी। गौरतलब है कि उरी सेक्टर में जब पिछले वर्श सितम्बर में भारतीय सेना पर आतंकी हमला हुआ तब देष के सब्र का बांध टूट गया था। करीब दस दिन के भीतर 29 सितम्बर को भारतीय सेना पाक अधिकृत कष्मीर में घुसकर आतंकी संगठनों को ध्वस्त किया और 40 से अधिक आतंकियों को ढ़ेर किया। यह अपने तरीके की की गयी एक बड़ी कार्यवाही थी जिस पर विमर्ष गाहे-बगाहे आज भी होता है पर दुःखद यह है कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी पाकिस्तान की ओर से हमले रूके नहीं। तब से लेकर अब तक सैकड़ों जवान षहीद हुए हैं, सैकड़ों आतंकी घटनायें हुईं हैं और सीमा उल्लंघन की कार्यवाही भी तुलनात्मक बढ़ गयी। सीमा के बाहर पाकिस्तान को लेकर जो समस्या है उसमें तनिक मात्र भी कमी नहीं आयी साथ ही सेना के साथ-साथ आमजन भी इस जद में आज भी रहते हैं।
पीओके में भारतीय सेना द्वारा उठाया गया कदम स्थानीय स्तर पर की गयी कार्यवाही है। माना जाता है कि एलओसी पर पाक की तरफ से जब भी ऐसा कोई दुस्साहस होता है तो सेना 24 से 48 घण्टे के भीतर त्वरित कार्यवाही करती है। ऐसा करने से न केवल दुष्मनों का मनोबल जमींदोज होता है बल्कि भारतीय सेना के वे जवान जो अग्रिम पोस्ट पर तैनात हैं उनके मनोबल बढ़ाने के ये काम आता है साथ ही बदला लेना भी सम्भव होता है। सीमा पर जूझती भारतीय सेना और फिदाइन की तर्ज पर आतंकियों का अनवरत् चल रहा हमला जिससे निपट पाने की पूरी उम्मीद हर बार अधूरी रह जाती है। पाकिस्तान की सेना के साथ भी सह-मात का खेल जारी रहता है। दुनिया में कोई ऐसा देष नहीं जो पड़ोस की इतनी बर्बरता सहता हो। इतना ही नहीं आतंक की बात बहुत भीतर तक हो जाती है मुम्बई और दिल्ली तक इसकी रडार पर आ जाते हैं। आतंक के साये में अमरनाथ की यात्रा भी हमेषा रहती है। इसी वर्श 10 जुलाई को जब यात्रा पर आतंकी हमला हुआ तो यह बात पुख्ता हो गयी और यह डेढ़ दषक की सबसे बड़ी घटना थी। पाकिस्तान की षरण में पनपे आतंकी संगठन भारत के लिए ऐसे विध्वंसक विष्वविद्यालय हैं जिससे हमेषा चैकन्ना रहना पड़ता है। इनके मास्टर माइंड हाफिज़ सईद जैसे लोग आम षहरी की तरह सम्मेलन करते हैं और भारत के खिलाफ सरे आम नफरत उगलते हैं जबकि पाकिस्तान सरकार इस पर न केवल खामोष रहती है बल्कि चुप्पी से इनके स्याह सोच को भारत के खिलाफ भड़काने में मदद करती रहती है। कुछ दिन पहले ही जमात-उद-दावा का सरगना हाफिज़ सईद लाहौर में ऐसे ही कुछ नफरत उगल रहा था। 
देष की विडम्बना यह है कि देष के अन्दर भी अलगाववाद और आतंकवाद के समर्थक मौजूद हैं। बुरहान वानी कष्मीर की फिजा में तैरता हुआ वह दहषतगर्द का नाम है जिसके मरने पर अलगाववादियों ने न केवल अपनी सियासत को परवान चढ़ाया बल्कि दुष्मन पाकिस्तान ने इन्हीं की सह पाकर अपने देष में काला दिवस मनाया। गाहे-बगाहे बुरहान वानी का नाम कष्मीर की वादियों में अभी भी गूंजता है। अलगाववादी यह तय नहीं कर पाये कि देष हित में आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ रहना होता है। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य इस बात का इषारा करते हैं कि पाकिस्तान आतंक की जड़ों को न केवल अपने देष में ही फैलाया है बल्कि विचारों से वह भारत के भीतर भी है। फिलहाल एक अच्छी खबर यह है कि जैष का मास्टर माइंड आतंकी नूर अली जिसका कद मात्र 3 फिट का है अब उसका सफाया हो चुका है। सभी जानते हैं कि पाक अधिकृत कष्मीर में आतंकियों के लांचिंग पैड है जिसके निषाने पर एलओसी रहती है और भारतीय सेना भी। जिस तर्ज पर सीमा पर जंग जारी रहती है उसका अंत सर्जिकल स्ट्राइक या टेक्टिकल स्ट्राइक मात्र से समाप्त किया जाना सम्भव नहीं है। अमेरिका पाकिस्तान को कई बार आगाह कर चुका है कि देष के अंदर अपने आतंकियों से वह तौबा कर ले अन्यथा कार्यवाही वह स्वयं करेगा। इससे भारत को एक मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलती है परन्तु जब चीन राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में पाकिस्तान आतंकियों पर वीटो करता है तो पाक का मनोबल खा-मखा बढ़ा देता है। फिलहाल भारत के कुछ सीधे तो कुछ छुपे हुए दुष्मन भी हैं। सही कूटनीति का प्रयोग कर निपटना तो भारत को ही पड़ेगा। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी आतंकवादी देष पाकिस्तान को दुनिया से अलग-थलग करने में काफी हद तक कामयाबी प्राप्त की है। बावजूद इसके लड़ाई अधूरी है और यह तब पूरी होगी जब हमारे जवान सीमा पर षहीद नहीं होंगे। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, December 25, 2017

लोक विकास की कुंजी है सुशासन

मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं नागरिकों पर केन्द्रित होते हुए एक नये डिज़ायन और सिंगल विंडो संस्कृति में तब्दील हो रही है। सुषासन में निहित ई-गवर्नेंस की ज्यादातर पहल में बिज़नेस माॅडल, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरषिप समुचित तकनीक और स्मार्ट सरकार के साथ इंटरफेस उद्यमिता इत्यादि का उपयोग किया जाता है लेकिन आगे बढ़ने या आरम्भिक सफलता को दोहरा पाने में यह पूरी तरह अभी सफल नहीं है। स्वतंत्रता दिवस के दिन अगस्त, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन का मार्ग प्रषस्त होता है। यद्यपि सुषासन को लेकर आम लोगों में विभिन्न विचार हो सकते हैं पर सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनाता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं। गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के दौर में जो आर्थिक मापदण्ड विकसित किये गये वे मौजूदा समय के अपरिहार्य सत्य थे जिसमें सुषासन की अवधारणा भी पुलकित होती है। विष्व बैंक ने भी इसी दौर में इसकी एक आर्थिक परिभाशा गढ़ी थी। लगभग तीन दषक के बाद यह कहा जा सकता है कि सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र, ई-गवर्नेंस, सिटीजन चार्टर, ई-याचिका तथा ई-सुविधा समेत लोकहित से जुड़े तमाम संदर्भ सुषासन की दिषा में उठे कदम ही हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन के कोर में सरकार की जिम्मेदारी कहीं अधिक है और बारम्बार एक बेहतरीन सरकार का निरूपण इसमें निहित है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुषासन और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां दूसरे देषों की तुलना में भिन्न हैं। जाहिर है न्याय, सषक्तीकरण, रोजगार एवं क्षमतापूर्वक सेवा प्रदायन से जब तक समाज के प्रत्येक तबके को गरीबी, बीमारी, षिक्षा, चिकित्सा समेत बुनियादी तत्वों को हल नहीं मिलता तब तक सुषासन की परिभाशा अधूरी रहेगी। 
सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढेर सारी आषायें हैं। षायद इन्हीं आषाओं को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में आते ही सुषासन को लेकर कुछ सक्रिय दिखाई दिये। 25 दिसम्बर को क्रिसमस दिवस के रूप में ही नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन के रूप में भी मनाने की प्रथा रही है। मोदी वर्श 2014 में इस तिथि को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया। ऐसा अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मान को और मजबूत करने के चलते किया गया। तभी से 25 दिसम्बर एक नई अवधारणा व विचारधारा से पोशित हो सुषासनिक राह ले लिया। सफल और मजबूत मानवीय विकास को समझने के लिए सुषासन के निहित आयामों को जांचा-परखा जा सकता है। हालांकि सुषासन के मामले में जैसा कि पहले भी कहा गया है आम तौर पर परिभाशाओं का घोर आभाव है और बहुत कुछ मानव युक्त परिभाशा नहीं बनी है यह अपनी सुविधा पर निर्भर व्यवस्था है। प्रधानमंत्री मोदी साढ़े तीन वर्श का कार्यकाल बिता चुके हैं। सुषासन की अभिक्रियाओं से यह उतना भरा समय नहीं दिखता जितना व्यावहारिक तौर पर होना चाहिए। पिछले कुछ वर्शों से हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते इसके साईड इफैक्ट भी देखने को मिले। सुषासन की संवेदनषीलता भी इससे प्रभावित हुई है। विकास दर उतनी उम्दा नहीं मिली जितनी उम्मीद थी बल्कि जून 2017 तक उम्मीद से कहीं ज्यादा नीचे चली गयी थी। हांलाकि अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश और विष्व बैंक के हालिया संदर्भ पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ राह पर बता रही है। राजकोशीय और बजटीय घाटा अभी भी समुचित कम ही दिख रहा है। गवर्नेंस का ग्लोबलाइजेषन तो किया जा रहा है और निवेष के लिए उकसाया भी जा रहा है। मेक इन इण्डिया समेत स्आर्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया से उम्मीदे खूब लगायी गयी पर देष की नौकरषाही में व्याप्त ढांचागत कमियां और क्रियान्वयन में छुपी उदासीनता के अलावा निहित भ्रश्टाचार पर पूरा नियंत्रण न होने से मामला कागजी ही सिद्ध हुआ है। 
बेषक देष की सत्ता पुराने डिजा़यन से बाहर निकल गयी हो पर दावे और वादे का परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। देष युवाओं का है इसमें दुविधा नहीं है पर स्किल डवलेपमेंट में हमारी हालत अच्छी नहीं है। स्किल डवलेपमेंट के संस्थान भी बहुत मामूली हैं और जो भी हैं वो हांफ रहे हैं। इस मामले में चीन से ही नहीं हम दक्षिण कोरिया जैसे छोटे राश्ट्र से भी पीछे हैं। भारत के नगरों और गांवों के विकास के लिए वर्श 1992 में 73वें और 74वें संविधान संषोधन इस दिषा में उठाया गया कदम था। प्रधानमंत्री मोदी न्यू इण्डिया की बात कर रहे हैं जाहिर है पुराने भारत की तस्वीर बदलेगी पर कैसे इस पर षक कम होने के बजाय गहराता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के राह अभी पथरीले ही हैं सरकार यह जोखिम लेने में पीछे है कि किसानों का कायाकल्प हर हाल में करेगी। स्पश्ट है कि जब तक कृशि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा-प्यासा और षोशित महसूस करेगा तब तक देष सुषासन की राह पर है कहना बेमानी होगा। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है और ऐसा तभी होगा जब पूरी प्रणाली पारदर्षी और ईमानदार हो। इतना ही नहीं सुषासन एक प्रगतिषील अवधारणा है जाहिर है कि गतिषीलता इसकी सर्वाधिक बड़ी मांग है। पुरानी पड़ चुकी नौकरषाही के ढांचे में नई जान फूंकना मोदी के लिए भी न पहले आसान था और न अब। हां कोषिष बड़ी जरूर की जा रही है। सुषासन किसी भी देष की प्रगति की कुंजी मानी जाती है पर यह तभी ताला खोल पायेगी जब जवाबदेही में कोई कोताही न बरती जाय। 
यह कहना सही है कि डिजिटल गवर्नेंस का दौर बढ़ा है। भारत में नवीन लोकप्रबंधन की प्रणाली के रूप में यह संचालित भी हो रहा है पर सुषासन के भाव में तब बढ़ोत्तरी होगी जब सरकार के नियोजन तत्पष्चात् होने वाले क्रियान्वयन का सीधा लाभ जनता को मिले। हालांकि जनधन योजना के तहत खोले गये 25 करोड़ से अधिक बैंक खाते कई काम आ रहे हैं। गैस की सब्सिडी इसी के माध्यम से सीधे जनता को मिल रही है पर सरकार जिस प्रकार सब्सिडी हटा रही है और मार्च 2018 तक लगभग इसे समाप्त करने की कोषिष में है इससे भी सवाल उठता है कि मंजिल मिलने से पहले ही सरकार सब्सिडी से तौबा करना चाह रही है। साफ है कि यह सुषासन नहीं बल्कि यह एक आर्थिक गणना है जिसमें लोक कल्याण कम आर्थिक मुनाफे पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। तकनीकी तौर पर सुषासन को सुसज्जित करने के संसाधन निर्मित हो रहे हैं। विष्व स्तर पर प्रषासनिक सुधार की लहर के बीच सुषासन भारत में बड़ी ताकत के रूप में जगह ले रहा है और नई करवट भी। पर रोटी, कपड़ा और मकान कईयों के लिए अभी दूर की कौड़ी है। मोदी सरकार वर्श 2022 तक सबको मकान देने की बात कह रही है पर यह नहीं बता रही है कि उस मकान की रसोई में भोजन कैसे पकेगा। 65 फीसदी युवा वाला देष जाहिर है बेरोजगारी और गरीबी से भी जूझ रहा है। हर चैथा व्यक्ति गरीब और चार में तीन ग्रेजुएट यहां काम के लायक नहीं है। ऐसे में सुषासन को कैसे पुख्ता माना जाय वाजिब तर्क नहीं है। बात यहीं तक नहीं है अषिक्षा से लेकर स्वास्थ समस्याएं भी यहां खूब अटी हैं जो सुषासन को मुंह चिढ़ा रही हैं। वक्त और अवसर तो यही कहता है कि सरकार से उम्मीद किया जाय पर भरोसा तब किया जाय जब वायदे निभाये गये हों। सुषासन कोई मंत्र नहीं है पर सच तो यह है कि सरकारी तंत्र में यह एक ऐसी कुंजी है जो सरकार की ही नहीं जनता की भी सेहत सुधारती है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

गंगा सफाई पर हांफती सरकारें

गंगा सफाई को लेकर एक चैकाने वाला खुलासा बीते 19 दिसम्बर को हुआ जिसमें गंगा नदी के कायाकल्प के लिए केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा षुरू की गयी नमामि गंगे परियोजना की बदहाल स्थिति सामने आयी। सीएजी के रिपोर्ट से यह बात सामने आ चुकी है कि स्वच्छ गंगा मिषन के लिए आवंटित किये गये 26 सौ करोड़ रूपए से अधिक की राषि सरकार तय समय में खर्च नहीं कर पायी है जो सरकार पर सवालिया निषान लगाता है। यह महज एक सूचना नहीं बल्कि मौजूदा सरकार के उस महत्वाकांक्षी परियोजना के प्रति बरती गयी ढ़िलाई है जिसे लेकर 2014 में भाजपा ने भारी-भरकम बहुमत हासिल किया था। क्या गंगा की सफाई ऐसे ही होगी सवाल चुभने वाला है जिससे किसी के भी पेट में मरोड़ पड़ सकता हैं। गंगा की सफाई के लिए बजट भारी-भरकम होने के बावजूद इसके मैली बने रहने से यह साफ है कि गंगा सफाई से पहले दिमाग की सफाई जरूरी है। कहा जाय तो पहले साफ हो नीयत फिर गंगा। सफाई परियोजना को लेकर सीएजी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 46 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स, इंटसेप्षन एण्ड डायवर्सन प्रोजेक्ट्स और नहर परियोजनाओं की लागत 5 हजार करोड़ रूपये से अधिक थी। 2,710 करोड़ रूपये की लागत वाली 26 परियोजनाओं में देरी की गयी। इसकी वजह भूमि नहीं होना और ठेकेदारों का धीमी गति से काम करना रहा है। वजह चाहे जो हो एक बात तो साफ है कि सरकार ने समय काटा है न कि गंगा की सफाई की है। तय समय में परियोजना राषि भी खर्च न हो पाना इस बात को स्पश्ट करता है कि सफाई के मामले में सरकार का रवैया ढुलमुल है और आदूरदर्षिता से भी घिरी है जबकि गंगा सफाई को लेकर अलग से मंत्रालय इसी उद्देष्य से बनाया गया था। जिस प्रधानमंत्री मोदी को बनारस में मां गंगा ने बुलाया था आज वहीं के घाटों से गंगा दूर हो रही है और दूशित भी। कहा जाय तो लगातार मैली हो रही गंगा को साफ करने का जो वायदा सरकार ने किया था उसके प्रति असंवेदनषीलता दिखा कर यहां भी जुमलेबाजी ही कर रही है। 
निरंतर मैली हो रही गंगा को लेकर जब से सफाई वाली सोच आयी है तब से कहा जाय तो चर्चा खूब हुई पर सफाई धेले भर भी नहीं हुई। सफाई वाले विचार की षुरूआत इन्दिरा गांधी के काल में आया पर गंदगी का सिलसिला मोदी काल में भी बादस्तूर जारी है। वर्श 1981 में बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय में 68वें विज्ञान कांग्रेस का आयोजन हुआ। इसी के उद्घाटन के सिलसिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी बीएचयू गयीं थीं। इनके साथ कृशि वैज्ञानिक और योजना आयोग के सदस्य डाॅ0 एम0 एस0 स्वामीनाथन भी थे। इसी दौर में गंगा प्रदूशण को लेकर पहली चिंता और चर्चा संभव हुई। उसके बाद ही उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस बात के लिए निर्देष दिया गया कि गंगा में प्रदूशण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम षुरू करें। इस प्रकार की पहल को गंगा को गुरबत से बाहर निकालने के अच्छे मौके के रूप में देखा जाने लगा। 1984 के लोकसभा के चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे अपने घोशणा पत्र में भी षामिल किया और प्रधानमंत्री बनने के बाद 500 करोड़ रूपए स्वीकृत किये। तत्पष्चात् वर्श 1985 में ‘गंगा एक्षन प्लान‘ का पहला चरण प्रारंभ कर दिया गया। सीएजी की तत्कालीन रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्षन प्लान के पहले चरण में उस वक्त पैदा हो रहे 1340 एमएलडी सीवेज में 882 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने का लक्ष्य रखा गया था जबकि दूसरे चरण में ‘कैबिनेट कमेटी आॅन इकोनाॅमी अफेयर‘ ने 1993 से 1996 के बीच 1912 एमएलडी सीवेज ट्रीट करने का लक्ष्य रखा था। इन तमाम तरीकों के अलावा समय के साथ कई प्रकार के प्रयोगवादी कृत्य भी देखे जा सकते हैं परन्तु गंगा के प्रदूशित होने की गति ने केवल बरकरार रही बल्कि बढ़ती गयी। वर्श 1984 से 2012 तक के आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि गंगा को साफ करने के चक्कर में 7000 करोड़ रूपए का इंतजाम हुआ। कई सरकारें आईं और गयीं परन्तु गंगा में गंदगी जस की तस बनी रही।। देष की 40 प्रतिषत आबादी गंगा के किनारे बसती है। 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा भारत से निकलती है, भारत में बहती है और भारत के सुखो की चिंता करती है परन्तु फिर भी षायद भारतीयों में गंगा के प्रति कोई दयाभाव नहीं है। गंगा के नाम पर सरकारें भी जोड़-जुगाड़ की राजनीति करती रहीं परन्तु जिस प्रकार के भागीरथ प्रयास की आवष्यकता चाहिए थी वह सरकारों की नीयत में नहीं झलकी।
 साल 2014 में लोकसभा के चुनाव में भाजपा की ओर से भी इसके प्रति इसी प्रकार के इरादे जताये गये और भारी-भरकम राषि का निवेष कर इस पर मोहर भी लगायी पर समय रहते राषि न खर्च पाना मोदी सरकार की गंगा सफाई के प्रति असंवेदनषीलता का प्रदर्षन ही कहा जायेगा। कहा जाय तो तमाम वायदे एवं इरादों के बावजूद गंगा अभी भी गुरबत में है। षीर्श अदालत भी गंगा सफाई योजना पर अप्रसन्नता जाहिर कर चुकी है। यहां तक कह डाला कि गंगा साफ होने में दो सौ साल लगेंगे। साथ ही कहा कि पवित्र नदी के पुराने स्वरूप को यह पीढ़ी तो नहीं देख पायेगी। कम-से-कम आने वाली पीढ़ी तो ऐसा देखे। आरोप यह है कि सरकारों ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्षिता दिखाई। साथ ही वैज्ञानिकों और विषेशज्ञों के प्रमाणित अनुसंधानों को दरकिनार करके गंगा सफाई से संबंधित क्रियान्वयन करने की कोषिष जारी रही। मजबूत इरादे वाली मोदी सरकार को भी इससे अलग नहीं देखा जा सकता। गौरतलब है कि 2018 तक गंगा साफ करने की समय सीमा को देखते हुए और मौजूदा स्थिति में मोदी सरकार के निराषाजनक रवैये से साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी षंका सही साबित हो सकती है।
फिलहाल गंगा की षुद्धि करने वाली विचारधारा की पूरी गाथा बिना ‘पर्यावरणविद‘ प्रोफेसर बी.डी. त्रिपाठी के अधूरी है। प्रोफेसर त्रिपाठी उन दिनों बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में कार्यरत् ‘गंगा पर्यावरण‘ के विशय पर अनुसंधान कार्य में लगे थे और इनका जुड़ाव षुरूआत से ही गंगा एक्षन प्लान से रहा है। इन्हें राश्ट्रपति द्वारा ‘पर्यावरण मित्र‘ का पुरस्कार मिल चुका है। हालांकि गंगा को प्रदूशण से मुक्ति के संदर्भ में 1981 में सांसद एस.एम. कृश्णा ने पहली बार संसद में प्रष्न उठाया था। बी.डी. त्रिपाठी के ही चलते गंगा सफाई को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी एक्षन मोड में आयी थी। बीते साढ़े तीन दषक में गंगा सफाई के मामले में किया जाने वाला प्रयास जुबानी जद् तक ही सीमित रहा। आषातीत सफलता न मिलने के पीछे सरकारों के षोधात्मक अनभिज्ञता और सही रणनीति का आभाव रहा है। गौरतलब है कि गंगा एक्षन प्लान के दूसरे चरण के दौरान षीर्श अदालत ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि कर दाताओं का पैसा पानी में बहाया जा रहा है। जाहिर है सफाई की स्थिति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय हमेषा से इसको लेकर चिंतित रहा है। जिस तर्ज पर गंगा समेत भारतीय नदियां कूड़ा-कचरा और सीवेज व अपषिश्ट पदार्थों समेत मानव और पषुओं के षव से बोझिल हुई हैं उससे साफ है कि सरकार समेत जनमानस ने भी अपने दायित्व निभाने में खूब कोताही बरती है। दो टूक यह भी है कि गंगा निर्मल करने के मामले में किसी भी सरकार की कोषिष रंग क्यों नहीं ला पा रही है। बड़े-बड़े कारनामों के लिए जानी जाने वाली हमारी सरकारें इस मामले में आखिर क्यों हांफ जाती है वाकई यह विचारणीय प्रष्न है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, December 20, 2017

उभरते भारत के विमर्शीय संदर्भ

अमेरिका ने भारत को एक उभरती हुई षक्ति मानकर यह संकेत दिया है कि फिलहाल दुनिया भारत को नजरअंदाज नहीं कर सकती। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से जारी अमेरिका की राश्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में स्पश्ट किया गया कि हम भारत के वैष्विक षक्ति के रूप में मजबूत रणनीतिकार और रक्षा सहयोगी के रूप में उभरने का स्वागत करते हैं। बीते कई वर्शों से देखा गया है कि भारत और अमेरिका के बीच के सम्बंध पटरी पर तेजी से दौड़ रहे हैं। वर्श 2014 में गठित मोदी सरकार के बाद से सम्बंधों में मिठास तुलनात्मक और बढ़ी। इसका पुख्ता प्रमाण 26 जनवरी, 2015 में तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा का गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित देखी जा सकती है और ऐसा पहली बार हुआ था जब दिल्ली की गणतंत्र परेड में कोई अमेरिकी राश्ट्रपति प्रत्यक्ष रहा हो। बेषक ओबामा के साथ मोदी का रिष्ता काफी हद तक अनौपचारिक भी था परन्तु उनके एड़ी-चोटी के जोर लगाने के बाद भी एनएसजी यानि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप के 48 देषों के समूह में भारत को षामिल नहीं हो पाया और यह मामला अभी भी खटाई में है जबकि चीन बरसों से इसका सदस्य है। खास यह भी है कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस व जापान समेत तमाम पूर्वी एवं पष्चिमी देषों के समर्थन के बावजूद चीन की कूटनीतिक चाल के चलते ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा है। हालांकि एक खास बात यह है कि एमटीसीआर में भारत 2016 के मध्य में सदस्यता प्राप्त कर ली थी जहां चीन अभी भी वंचित है। तब माना जा रहा था कि भारत एनएसजी के लिए इसे कूटनीतिक संतुलन के रूप में प्रयुक्त कर सकता है। पड़ोसी पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बना हुआ है कि वह अपने देष के आतंकी संगठनों पर कार्यवाही करे। व्हाइट हाऊस से इसी प्रकार का एक ताजा बयान बीते 19 दिसम्बर को फिर जारी हुआ। ट्रंप ने यह भी स्पश्ट किया है कि पाकिस्तान के साथ अच्छी साझेदारी चाहते हैं परन्तु आतंकियों के खिलाफ उसकी कार्यवाही को भी देखना चाहते हैं। 
भारत एक उभरती हुई वैष्विक षक्ति है यह बात अमेरिका की ओर से अलबत्ता कही जा रही है पर भारत अपने कृत्यों से इसे पहले ही उजागर कर दिया है। भारत ने वो हैसियत हासिल कर ली है जो उसे ग्लोबल ताकत बनाता है। एक दौर ऐसा भी था कि जब भारत विष्व की महाषक्तियों के भरोसे हुआ करता था जबकि अब भारत बोलता है और दुनिया सुनती है। वैष्विक नीति के मामले में प्रधानमंत्री मोदी की सराहना की जा सकती है कि साढ़े तीन वर्शों के अब तक के कार्यकाल में कई ऐसी चीजें हुई हैं जिससे यह बात साबित होती है कि भारत महाषक्ति की ओर है और दुनिया उसे हल्के में नहीं ले सकती। इसी साल जून में भारत, चीन और भूटान सीमा पर उठे डोकलाम विवाद को जिस प्रकार मौखिक आक्रामकता और चीन के उदण्ड कोषिषों के बीच षान्ति से समाधान खोजा गया वह बड़ी बात थी। इससे अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भारत की साख में इजाफा हुआ। जिस प्रकार जापान से लेकर इज़राइल तक और अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देषों का डोकलाम मसले पर भारत का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन दिखा वह इस बात की तस्तीक करती है कि उसका कद पहले जैसा नहीं है। चीन का पीछे हटना भारत की रणनीतिक जीत थी परन्तु पाकिस्तान के मामले में भारत की कोई भी रणनीति मन माफिक परिणाम नहीं दे पा रही है। अमेरिका का दबाव निरंतर पाकिस्तान पर है और सच्चाई है कि दबाव से पाकिस्तान बौखलाया भी है लेकिन आतंकी संगठनों पर कार्यवाही को लेकर अभी भी निराष किये हुए है। दो टूक यह भी है कि मोदी की वैष्विक मंचों पर आतंक को लेकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने वाली नीति विष्व बिरादरी में पहुंची है और ऐसा पाकिस्तान के साथ हुआ भी है। 
दुनिया दो समस्याओं से जूझ रही है जिसमें आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन षामिल है। दोनों मामले में भारत ने वैष्विक मंचों पर अगुवाई करके दुनिया के समझ को तुलनात्मक समृद्धि प्रदान की है। देखा जाय तो जलवायु परिवर्तन पर काम करने के लिए भारत वैष्विक नेतृत्व को प्रेरित करता रहा है। गौरतलब है कि वर्श 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों से अपनी ऊर्जा जरूरत का 40 फीसदी हिस्सा प्राप्त करने का लक्ष्य भारत ने रखा है। ऐसी उर्जा के विकास में भारत अमेरिका से भी कुछ कदम आगे है। सवा अरब से अधिक की जनसंख्या वाला देष भारत कई बुनियादी संकटों से जूझ रहा है जिसमें ऊर्जा के स्त्रोत को ढूंढना कई समस्याओं में एक है। जब अमेरिका स्वयं को पेरिस में हुए जलवायु समझौते से अलग किया तब मोदी ने इस बात की चिंता किये बगैर कि उसके आपसी सम्बंध कैसे रहेंगे यह कहने का साहस दिखाया कि समझौते के साथ भारत है। बेषक अमेरिका के हटने से पेरिस समझौते को झटका लगा हो पर दुनिया में उच्चस्थ हो चुके भारत के ऊँचे प्रतिमानों से कई देष अब भारत की ओर देख रहे हैं और उसके निर्णयों को तवज्जो भी दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की पहल पर ही इंटरनेषनल सोलर एलायंस का गठन किया गया जिसमें 121 देष षामिल हैं। भारत के प्रयासों को ग्लोबल वार्मिंग की दिषा में देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि इसके नेतृत्व को भी वह एक दिन करता दिखाई देगा। 
अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश से लेकर विष्व बैंक तक इस बात को कह चुके हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था बेहद मजबूत है। भारत के बढ़ते आर्थिक कद से पड़ोसी चीन जैसे देषों को रणनीति भी बदलनी पड़ती है। अमेरिका, जापान तथा जर्मनी समेत दुनिया के तमाम देषों के साथ आर्थिक, तकनीकी एवं वाणिज्यिक सम्बंध इसके मजबूती के पर्याय हैं। भारत प्रषान्त क्षेत्र में सुरक्षा कायम रखने के लिए भारत के नेतृत्व क्षमता के योगदान पर अमेरिकी समर्थन इसकी गहरायी को विष्लेशित करता है। इतना ही नहीं भारत समेत जापान और चीन का दक्षिणी चीन सागर में कुछ समय पहले किया गया अभ्यास चीन के एकाधिकार को चुनौती देने के समान है। हिन्द महासागर सुरक्षा तथा समुचे क्षेत्र में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका को भी अमेरिकी समर्थन मिला है। चीन के वन बेल्ट, वन रोड़ तथा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को देखते हुए अमेरिकी प्रषासन की ओर से यह भी वक्तव्य आया कि क्षेत्र विषेश में चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए दक्षिण एषियाई देषों को अपनी सम्प्रभुता बरकरार रखने में मदद करेगा। गौरतलब है कि भारत एक संयम और षान्ति से काम लेने वाले देषों में षुमार है। पड़ोसियों के साथ उसके सम्बंध स्वयं के स्तर से न बिगड़कर उनके स्तर से बिगड़ते रहे हैं। चीन के वन बेल्ट, वन रोड़ पर भारत ने आपत्ति जताई है और जब इसे लेकर बीजिंग में दर्जनों देषों की बैठक हुई तो उसमें भारत षामिल नहीं था। भारत का मंतव्य है कि इस परियोजना के तहत पाक अधिकृत कष्मीर को भी षामिल किया गया है जो सही नहीं है। उभरती षक्ति का पैमाना एक नहीं है। भारत ने उदारीकरण के बाद से दुनिया के तमाम देषों से बातचीत और आर्थिक आदान-प्रदान तथा तकनीकी लेनदेन का रास्ता चैड़ा किया। मोदी षासनकाल में कई नीतियां परवान चढ़ी मसलन बरसों से अटका येलोकेक नीति पर आॅस्ट्रेलिया से समझौता होना चीन की भी षिकस्त थी क्योंकि इस समझौते से भारत को आॅस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलना सम्भव हुआ जबकि चीन को आॅस्ट्रेलिया पहले से ही सप्लाई करता रहा। फिलहाल दुनिया की बुलंदी पर पहुंचने के कोई एक-दो कारण नहीं होते भारत लम्बे संघर्शों, कई कृत्यों एवं तमाम साहसिक कदम के चलते यह तगमा हासिल किया है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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कांग्रेस के सिमटते सियासी संदर्भ

एक अस्वस्थ राजनीतिक दल स्वस्थ मंथन नहीं कर सकती इस कथन पर आपत्ति हो सकती है पर काफी हद तक यह कांग्रेस के लिए इन दिनों सटीक बैठती है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए लगातार  निराषा के विशय बने हुए हैं। हालांकि इसी वर्श पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की और मणिपुर तथा गोवा में सत्ता के समीप रही पर सरकार भाजपा के हिस्से में आई। हालिया विधानसभा चुनाव गुजरात और हिमाचल प्रदेष में भी कांग्रेस का प्रदर्षन मोदी मैजिक के तिलिस्म को तोड़ नहीं पाया। हिमाचल में कांग्रेस ने अपनी सरकार गंवाई और गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर तो दी पर षिकस्त में नहीं तब्दील कर पायी। अपना किला लगातार हार रही कांग्रेस भाजपा के किले में सेंध क्यों नहीं लगा पा रही है यह उसके लिए चिंतन और मंथन का विशय है। गौरतलब है कि भाजपा गठबंधन सरकारों समेत 19 राज्यों में अपनी पहुंच बना ली है जबकि कुल 29 राज्यों में अब कांग्रेस केवल 5 में ही सिमट कर रह गयी है। आजादी के 70 सालों के इतिहास में यह पहला मौका है जब कांग्रेस इतने बुरे दौर से गुजर रही है। लगभग 55 साल की सत्ता की छवि समेटे 132 बरस पुरानी कांग्रेस की राजनीति क्यों ध्वस्त हो रही है। इसके जटिल अर्थों को उभारना कठिन तो है पर असम्भव नहीं। जिस गांधी और नेहरू के प्रभाव से कांग्रेस मतदाताओं को रिझाने में कामयाब रहती थी क्या अब यह बेअसर हो गया। क्या वास्तव में कांग्रेस अपनी बिगड़ती छवि से परेषान है तो जवाब हां में ही मिलेगा पर स्थिति ऐसी क्यों है? इससे जुड़े षोध और बोध इन पहलुओं की ओर इषारा करते हैं। कांग्रेस हमेषा से साम्प्रदायिकता विरोधी छवि और धर्मनिरपेक्षता के लिए जानी जाती रही है। इसका पुख्ता सबूत हिन्दू कोड बिल को देखा जा सकता है। जब यह कानून 50 के दषक में उभरा था तब कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने के आरोप लगे थे परन्तु लोकप्रियता में कोई घटाव नहीं हुआ था। रोचक यह भी है कि जब लोकप्रियता में इन दिनों कांग्रेस घटाव महसूस कर रही है तो मन्दिर-मन्दिर भी जा रहे हैं। गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी दर्जनों बार मन्दिर गये हैं। भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी साबित करने में अक्सर कांग्रेस उत्साह दिखाती रही है। 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान यह आरोप उफान पर था। सोनिया गांधी इसी समय मोदी को मौत का सौदागर कहा था तब मोदी ने इसे गुजरात की अस्मिता से जोड़ा था और अब जब मणिषंकर अय्यर ने उन्हें नीच कहा तब भी इसे गुजरात की अस्मिता से ही जोड़ा गया। साफ है कि गुजरात जीत में मोदी मैजिक ही नहीं कांग्रेस के वक्तव्य भी मददगार होते रहे हैं। मंथन तो उन्हें यहां भी करना होगा। धर्मनिरपेक्षता की प्रहरी कांग्रेस अल्पसंख्यकों के संरक्षण में अपनी भूमिका मानती रही है पर कितना पोशित कर पायी इस पर भी संदेह बना रहा है। उत्तर प्रदेष समेत कई प्रान्तों में मुस्लिम मतदाताओं का कांग्रेस से मोह भंग होना इसका सबूत है। हालांकि मुस्लिम वोट सपा, बसपा आदि में भी विस्थापित होते रहे हैं।
सबसे ज्यादा समय देष में राज कांग्रेस ने किया। अब तक के कुल 14 प्रधानमंत्रियों में 9 कांग्रेस से रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर डाॅ0 मनमोहन सिंह तक कांग्रेस ने बहुत उतार-चढ़ाव भी देखे परन्तु 2014 से अब यह दल तेजी से ढल रहा है। जिस दल का लम्बा वक्त सत्ता में बीता हो उसी में नेतृत्व की कमी हो जाय तो चिंता लाज़मी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस संरचनात्मक और नेतृत्व के तौर पर इन दिनों कमजोर अवस्था में है और धुर-विरोधी भाजपा दोनों मामलों में मीलों आगे है। ऐसे में कांग्रेस का सिमटना और बड़े अन्तर के साथ हार के सिलसिले में बने रहना एक बड़ा कारण है। कांग्रेस में जमीन से जुड़े नेताओं की निहायत कमी मानी जाती है और परिवारवाद की रणनीति इस पर हावी रही है। सत्ता के नषे में चूर कांग्रेस मतदाताओं को षायद अपनी जागीर भी समझते रहे हैं। अपनी नीतियों और निभायी गयी भूमिका को अन्तिम सत्य मानते रहे हैं। 1975 में जब देष को आपात में झोंका गया था तब कांग्रेसी सरकार की उग्रता और एकाधिकार का चेहरा भी दिखाई दिया था जिसे देष की जनता ने 1977 के चुनाव में हराकर जवाब दिया। हालांकि 1980 में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई पर तब इसमें उग्रता के बजाय उदारता आ चुकी थी। वर्श 1984 का चुनाव कांग्रेस के लिए लोकतंत्र का क्षितिज सिद्ध हुआ। कईयों ने इसे राजीव गांधी की लोकप्रियता समझी तो ज्यादातर इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में उमड़ी जनभावना मानी। गगनचुम्बी चुनावी जीत वाली कांग्रेस बोफोर्स काण्ड के चलते 1989 में सत्ता खो दी और कुछ हद तक लोकप्रियता भी। गौरतलब है कि राजीव गांधी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे वी.पी. सिंह के तिलिस्म के आगे आंकड़े 415 से 200 के भीतर सिमट गये थे। यहां से कांग्रेस कमजोर तो हुई पर असर बना रहा। 
1990 के दौर में मण्डल-कमण्डल के बाद सियासत ने नई करवट ली। वी.पी. सिंह के बाद चन्द्रषेखर देष के प्रधानमंत्री बने जिसके समर्थन में कांग्रेस थी। वर्श 1991 में मध्यावधि चुनाव हुआ कांग्रेस की एक बार पुनः वापसी हुई हालांकि दुःखद यह है कि चुनाव के मध्य में ही राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी। नये नेतृत्व की खोज हुई और पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। यहां से नेहरू, गांधी परिवार का आवरण देष की सियासत में हटा हुआ दिखाई देता है। नरसिम्हा राव ने कूबत और कठोरता के साथ 5 साल सत्ता चलायी। सांसदों को खरीदने का इन पर आरोप भी लगे। कहीं न कहीं कांग्रेस को यहां नुकसान हुआ। हवाला मामला भी कांग्रेस की छवि को प्रभावित करने का काम किया। 6 दिसम्बर 1992 की बाबरी मस्जिद के ध्वंस के दंष से भी कांग्रेस घिरी जिसके चलते उन दिनों उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष समेत भाजपा की बहुमत से भरी चार राज्यों की सरकारों को उखाड़ फेंका जो लोकतंत्र के हिसाब से अखरने वाला था। दौर बदला सत्ता बदली, सत्ताधारक नये रूपरंग में आये और सिलसिलेवार तरीके से भाजपा को भी केन्द्र में 13 दिन, 13 महीने और अन्ततः गठबंधन के साथ 5 साल की सरकार चलाने का मौका मिला। इस दौरान तक कांग्रेस अपने सबसे खराब अवस्था से जूझ रही थी पर उसे भी नहीं मालूम था कि 2014 में हालात इससे भी बुरे होने वाले हैं। स्थिति को देख सोनिया गांधी जो षायद राजनीति से मुंह मोड़ना चाहती थी 1998 में दल का नेतृत्व संभाला और 2004 के चुनाव में लोकप्रियता के नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी कांग्रेस को सत्ता की दहलीज पर पहुंचाया। 2009 तक चली यूपीए की पहली पारी में सरकार और दल दोनों की साख बरकरार रही और 2009 के चुनाव में एक बार फिर सत्ता हाथ आई परन्तु दूसरी पारी 2009 से 2014 के बीच जिस प्रकार अनियंत्रित भ्रश्टाचार का खेल हुआ उससे कांग्रेस बैकफुट पर चली गयी। भ्रश्टाचार के आरोप से घिरी कांग्रेस का सामना जब 2014 के 16वें लोकसभा के चुनाव में सषक्त भाजपा और तीन बार गुजरात में चुनाव जीत चुके और 14 साल तक वहां के मुख्यमंत्री रहे ब्राण्ड मोदी से हुआ तो कांग्रेस के परखच्चे उड़ गये जो 543 सीटों के मुकाबले 44 पर सिमट गयी। फिलहाल राज्यों में लगातार कांग्रेस की हार से सिमटने का सिलसिला अभी जारी है। देखा जाय तो कांग्रेस के सिमटने वाली वजह तात्कालिक ही नहीं बरसों की रीति-नीति का भी नतीजा है। जाहिर है कांग्रेस को उभरने के लिए नेतृत्व व संरचना ही नहीं धारा और विचारधारा के साथ मोदी मैजिक की काट और जनभावना की सही समझ को भी समेटना होगा और इतिहास की गलतियों से बाज भी आना होगा ताकि सिमटने का सिलसिला थमे। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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गुजरात के अन्दर की आवाज़

जब 25 अक्टूबर को चुनाव आयोग ने इस बात की घोशणा की कि 9 और 14 दिसम्बर को गुजरात विधानसभा के लिए वोटिंग होगी तब से गुजरात की जमीन का सियासी पारा मानो ऊपर चला गया। भाजपा को जहां बीते 22 साल की सत्ता को अनवरत् बनाये रखने के लिए एड़ी-चोटी का यहां जोर लगाना था वहीं लगातार हार का सामना कर रही मुख्य विरोधी कांग्रेस को सत्ता की नई जमीन खोजनी थी पर यहां भी कांग्रेस का दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ा। बेषक प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के हैं और गुजरातियों में ही नहीं पूरे भारत में लोकप्रिय हैं पर इस बार गुजरात के वोटरों को लेकर ईमान तो काफी हद तक उनका भी डोला था। जिस तर्ज पर उन्होंने अपने घर और गढ़ में हजारों किलोमीटर की यात्रा की और तीन दर्जन से अधिक सभाओं का सम्बोधन किया साथ ही जिस प्रकार भावनात्मक राजनीति की और अन्ततः विकास के वर्चस्व को लेकर नर्मदा में सी-प्लेन का प्रदर्षन किया उससे साफ था कि इस बार गुजरात की राह उनके लिए भी मुष्किल थी। गौरतलब है कि मणिषंकर अय्यर के नीच वाले षब्द को गुजरात की अस्मिता से जोड़कर इमोषनल कार्ड भी खेला गया था। गुजरात की जमीन भाजपाई नेताओं से जिस तरह अटी थी उससे भी लगता था कि गुजरात के अन्दर की आवाज इस बार कुछ और है। गौरतलब है बीते 18 दिसम्बर को गुजरात समेत हिमाचल प्रदेष के नतीजे आ चुके हैं जो कमोबेष अपेक्षा के अनुरूप हैं। गुजरात में 182 विधानसभा की सीट है जिसमें बीजेपी की सत्ता तक पहुंच सम्भव हुई और कांग्रेस सत्ता से दर्जन भर सीट से पीछे परन्तु पिछले की तुलना में अच्छी खासी बढ़त के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। हिमाचल के नतीजे बीजेपी के हक में गये वो भी बड़ी जीत के साथ। भारत की सियासत में इन दिनों गुजरात क्षितिज पर है। यहां भले ही कांग्रेस सत्ता तक न पहुंची हो पर जिस तरह चुनाव में अपने सीट और मत प्रतिषत का इजाफा किया उससे उसके प्रदर्षन को मजबूत ही कहा जायेगा क्योंकि मौजूदा कांग्रेस संरचनात्मक तौर पर इन दिनों सबसे कमजोर अवस्था में है। गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेष का भी नतीजा कांग्रेस के लिए एक कसैला अनुभव रहा है। यहां कांग्रेस का नुकसान देखा जा सकता है। हिमाचल में कांग्रेस घर नहीं बचा पायी और गुजरात में तमाम कोषिषों के बावजूद मोदी मैजिक रोक नहीं पायी। 
पड़ताल यह बताती है कि भारतीय जनता पार्टी गुजरात विधानसभा में क्रमषः 2012 में 115 स्थान, 2007 में 117 जबकि 2002 में 127 स्थानों पर जीत दर्ज की थी। इस बार के चुनाव में भाजपा यह दावा कर रही थी कि वह 150 तक पहुंचेगी जो ख्याली पुलाव ही सिद्ध हुआ। इसी तुलना में कांग्रेस की वास्तुस्थिति कमोबेष हार के साथ वैसी ही है मसलन 2002, 2007 एवं 2012 के चुनाव में क्रमषः 61, 59 तथा 51 सीटों तक ही रही। मौजूदा नतीजों में अब आंकड़े बढ़त के साथ पहले की तुलना में कहीं अधिक सकारात्मक हैं और भाजपा सत्ता के लिए जरूरी सीटें जुटा लिये हैं। साफ है कि भाजपा सत्ता तो बचा लिया है पर पहली जैसी स्थिति बहाल नहीं कर पायी जबकि कांग्रेस सत्ता से अभी भी दूर है परन्तु चुनावी टक्कर देते हुए राजनीति में अपनी चमक काफी हद तक बना ली है। गुजरात में कांग्रेस के चमक के कई मायने हैं। राहुल गांधी को सीधे मोदी से टक्कर और भावी राजनीति में बढ़े हुए पद और कद के साथ अब उन्हें आंकना लाज़मी है। सभी जानते हैं कि 2012 के गुजरात विधानसभा में बड़ी जीत के बाद मोदी का कद भी बहुत बड़ा हो गया था जिसका नतीजा सितम्बर 2013 में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर उनकी ताजपोषी थी। मैजिक के मामले में सर्वाधिक लोकप्रिय मोदी भारत के सियासत में जिस प्रकार की धमक दिखाई उसी का नतीजा पूर्ण बहुमत के साथ 26 मई 2014 को उनका देष का प्रधानमंत्री बनना देखा जा सकता है जबकि कांग्रेस ताष के पत्तों की तरह ढह गयी और सिलसिला विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा, हालांकि पंजाब इसका अपवाद है। भारत के 29 राज्यों में 19 पर अब भाजपा का कब्जा है और यह मैजिक आगे भी चलता रहा तो इस आंकड़े में भी रद्दोबदल होगा क्योंकि कर्नाटक में अगले वर्श चुनाव होना है। हालांकि चुनाव तो भाजपा षासित मध्य प्रदेष और राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी होना है। कांग्रेस की गुजरात में बढ़े मत प्रतिषत और सीटे आगामी चुनाव में भरपूर ऊर्जा का काम करेंगे। गुजरात के अंदर की आवाज अब न कांग्रेस और न ही भाजपा अनसुना कर सकती है। गौरतलब है कि लोकसभा में यहां कांग्रेस का खाता नहीं खुला था अब कांग्रेस इस चुनाव के सहारे ऐसी उम्मीद रख सकती है और सत्तासीन भाजपा के लिए गुजरात पहले जैसा षायद ही रहे। 
गुजरात चुनाव का एक खास परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मोदी का मैजिक षहरी इलाकों में ही चला है जबकि ग्रामीण इलाकों में राहुल गांधी की बाते लोगों को खूब रास आई हैं। इसमें दो संदर्भ सांकेतिक होते हैं कि आगामी लोकसभा में राहुल गांधी को गुजरात से बड़ी उम्मीदें हाथ लगते हुए दिखाई देती हैं और यदि वह षहरी मतदाता को साध लेते हैं तो भाजपा को और पसीने बहाने पड़ सकते हैं। इसी के दूसरे पहलू में यदि भाजपा रोजगार, स्वास्थ, षिक्षा, चिकित्सा समेत किसानों और मजदूरों की बुनियादी समस्या को ग्रामीण स्तर पर हल करने में सक्षम होती है तो 2019 के लोकसभा में बेहतर उम्मीद कर सकती है अन्यथा सियासी गणित गड़बड़ा सकता है। भाजपा के लिए चिंता का विशय यह भी है कि लोकसभा में 60 प्रतिषत मत प्राप्ति की तुलना में 11 प्रतिषत के आस-पास मत गिरा है। ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा की कमजोर जीत इस बात का भी संकेत है कि गुजरात माॅडल जो मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी का ही था उसका असर खत्म हो चुका है साथ ही उत्तराधिकारियों ने भी सियासत साधने में फीके रहे। गुजरात में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का भी इतिहास रहा है और इसको भुनाने में भाजपा ही अव्वल रही है पर इस बार मंदिर-मंदिर जाकर राहुल गांधी ने भी इसमें सेंध लगायी है। राजनीति में ये पैंतरे इसलिए अपनाये जाते हैं कि सीट और मत दोनों में इजाफा हो पर इजाफा तो हुआ मगर सत्ता के लिए नाकाफी रहा। चुनाव के षुरूआती चरण में ही देखा गया कि भाजपा ने अपना चुनाव प्रचार गुजरात के विकास के मुद्दे पर केन्द्रित न कर गुजराती अस्मिता और गुजराती गौरव के साथ अनाप-षनाप की ओर मोड़ा जो हैरत भरा था। सवाल है कि 22 साल की सत्ता वाली भाजपा और तीन साल से अधिक समय के प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, कैषलेस, भ्रश्टाचार सहित बुनियादी विकास की चर्चा क्यों नहीं की। क्या भाजपा को यह डर था कि गुजरात के अन्दर की आवाज और रूख उनके खिलाफ है? क्यों नहीं उन्होंने अब तक के विकास पर वोट मांगा? क्यों यह इंतजार करते रहे कि मणिषंकर अय्यर कुछ बोलेंगे तो उनको भुनायेंगे। क्यों उन्होंने राहुल गांधी को गुजरात की सियासत में बड़ा कद वाला समझा। ऐसे तमाम क्यों हो सकते हैं पर प्रतीत होता है कि भाजपा एंटी इन्कम्बैंसी से डर रही थी और अब तक के अपने फैसले को पूरी तरह सही साबित न कर पाने के चलते विकासात्मक मुद्दे उभारने से कमजोरी भी उभरने का डर था। फलस्वरूप उसने सत्ता प्राप्ति का रास्ता इससे इतर अपनाया। सियासत में सब कुछ चलता है और जब सत्ता मिलती है, तो जो भी कार्ड चला गया हो वही मैजिक हो जाता है। जाहिर है सीटें घटी पर मोदी मैजिक चला है परन्तु इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि चरमराई कांग्रेस ने भी गुजरात में अपनी सियासी जमीन मजबूत कर आगामी चुनाव के लिए हौसले में इजाफा कर लिया है। 

सुशील कुमार सिंह
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Monday, December 18, 2017

लोकतंत्र का प्रहरी सवालों के घेरे में

सारगर्भित और संदर्भित पक्ष यह है कि स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारषिला है और इस यथार्थ को बनाये रखने में निर्वाचन आयोग की कहीं बड़ी और गहरी भूमिका है पर ऐसा देखा गया है कि आयोग की निश्पक्षता और विष्वसनीयता को लेकर समय-समय पर सवाल उठाये जाते रहे हैं। हालांकि चुनाव आयोग की तमाम कोषिषों के बावजूद राजनीतिक दल स्वयं के निजी हित को साधने के चलते नियमों का उल्लंघन खूब करते रहे जिसे लेकर वह फटकार भी लगाता रहा है साथ ही कड़ी कार्यवाही भी करता रहा परन्तु इन सबके बीच स्वयं के दामन पर भी प्रष्नचिन्ह् लगने से वह रोकने में काफी हद तक असफल भी रहा है। हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के दूसरे और अन्तिम चरण के ठीक एक दिन पहले 13 दिसम्बर को नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को चुनाव आयोग ने एक नोटिस जारी किया जिसमें वोटिंग से ठीक पहले टीवी चैनलों को इंटरव्यू देने को लेकर आपत्ति जताई गयी थी। जारी नोटिस के चलते कांग्रेस का तिलमिलाना स्वाभाविक था और ऐसा हुआ भी साथ ही उसने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर एक बार फिर सवाल उठाया। अभी चंद दिन ही बीते थे कि चुनाव परिणाम से ठीक एक दिन पहले 17 दिसम्बर को आयोग ने यह कहते हुए जारी नोटिस वापस ले लिया कि इसके एवज में राहुल गांधी ने आयोग के सामने अपना पक्ष रख दिया है और निर्वाचन आयोग ने जन-प्रतिनिधित्व कानून 1951 के सेक्षन 126 की समीक्षा के लिए एक कमेटी बना दी है। गौरतलब है कि इस सेक्षन के तहत यह कहा गया है कि चुनाव से 48 घण्टे पहले किसी तरह के प्रचार की इजाजत नहीं होती। जाहिर है राहुल गांधी के टीवी इंटरव्यू को पहले इसी का उल्लंघन और बाद में इस रूख से हटने का संदर्भ संलिप्त दिखाई देता है।  
निर्वाचन आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत एक स्वतंत्र व निश्पक्ष व्यवस्था है जिसकी स्थापना गणतंत्र लागू होने के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1950 को हुई थी। यही कारण है कि 25 जनवरी को राश्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाये जाने की परम्परा 2011 से षुरू हुई। संविधान में निहित कार्य और निर्वाचन सम्बंधी संसदीय प्रावधान देष के प्रगाढ़ लोकतंत्र को मूर्त रूप देने में यह आयोग काम आता है परन्तु सवालों से पीछा भी नहीं छुड़ा पाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि निर्वाचन आयोग में निर्वाचन का कोई मापदण्ड नहीं है हालांकि यह सवाल नियुक्ति को लेकर है पर इसका सरोकार कहीं न कहीं आयोग की पारदर्षिता से भी है। षीर्श अदालत का मानना है कि निर्वाचन की प्रक्रिया पर कोई नियम या कानून अभी तक नहीं बने हैं यही कारण है कि इसकी पारदर्षिता पर भी कभी-कभी सवाल उठने लगते हैं। वैसे देखा जाय तो निर्वाचन आयोग को लेकर चिंता चैतरफा है। ऐसा भी देखा गया है कि जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. षेशन थे तब उन्होंने एक स्वतंत्र व निश्पक्ष स्थिति प्राप्त करने में बड़ी कामयाबी हासिल की थी। इस आयोग को एक ऐसी ऊँचाई दी जिसे लेकर मतदाता ही नहीं राजनेता भी सम्मान करते हैं। यदि यह मान भी लिया जाय कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत में चुनाव को लेकर परेषानियां कई हैं तो भी संवैधानिक संस्था निर्वाचन आयोग पर बेतुके सवाल उठाने कितने लाज़मी है पर सवाल तो यह है कि प्रष्न अनवरत् जारी रहते हैं। गौरतलब है कि गुजरात में चुनाव आयोग की तारीख घोशित करने में देरी को लेकर भी प्रष्न उठे थे। जिस तरह हिमाचल प्रदेष में चुनाव की तारीख घोशित हुई और गुजरात के मामले में टाल-मटोल किया गया वह आयोग की विष्वसनीयता को प्रभावित करता है जिसे केन्द्र सरकार के इषारे पर किया हुआ माने जाने की चर्चा जोरों पर थी। ध्यानतव्य है कि हिमाचल प्रदेष व गुजरात विधानसभा का कार्यकाल जनवरी 2018 में समाप्त हो रहा है परन्तु हिमाचल प्रदेष में 12 अक्टूबर को तारीख का एलान हुआ और मतदान 9 नवम्बर को हुआ जबकि गुजरात में तारीखों का एलान 25 अक्टूबर को हुआ जिसमें दो चरणों के साथ क्रमषः 9 और 14 दिसम्बर को मतदान सम्पन्न हुआ। देखा जाय तो दोनों राज्यों के चुनाव तारीखों की घोशणा में देरी और मतदान में भी वक्त को कम-ज्यादा के अंतर के साथ देखा जा सकता है। फिलहाल वोटों की गिनती दोनों प्रदेषों की बीते 18 दिसम्बर को हो चुकी है जिसमें भाजपा ने दोनों राज्यों में बहुमत के साथ जीत दर्ज की। 
चुनाव और विवाद का बड़ा गहरा नाता है और ऐसा ही नाता देष के राजनीतिक दलों एवं निर्वाचन आयोग के बीच भी है। एक दल दूसरे पर आचार संहिता का उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग की चैखट पर दस्तक देने में पीछे नहीं रहता है। किसी भी राज्य की विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव आयोग द्वारा की गयी कार्यवाही पर संदेह किया जाता रहा है। सत्ताधारी दल हो या विरोधी दोनों को इससे अलग नहीं किया जा सकता। जिस तर्ज पर चुनावों में षिकायतों का अम्बार लगता है और आचार संहिता का उल्लंघन होता है क्या उसी तरह की कार्यवाही सभी पर हो पाती है कहना कठिन है। चुनाव से जुड़ी समस्या को लेकर आखिरकार निर्वाचन आयोग को ही रास्ता निकालना होता है। दो टूक यह भी है कि जब सभी कार्यप्रणाली पर संदेह करते हैं तो निर्वाचन आयोग द्वारा की गयी कार्यवाही भी राजनीतिक दल गिरे हुए मन से ही स्वीकार करते हैं। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त की इस टिप्पणी ने भी चुनाव आयोग पर सवालिया निषान लगा दिया है कि नौकरषाह केन्द्र सरकार के निर्देष पर चुनाव आयोग को चलाते हैं। देखा जाय तो लोकतंत्र की बनावट को लेकर निर्वाचन आयोग का उठाया गया कदम दषकों से कईयों को खलने वाला रहा है और कईयों ने मुख्यतः सत्ताधारियों ने इसका मनचाहा इस्तेमाल करना भी चाहा है पर टी.एन. षेशन जैसों के समय षायद  ऐसा हो पाना सम्भव नहीं था। मौजूदा समय के निर्वाचन आयोग पहले से भिन्न नहीं है पर उठते सवालों के बीच विमर्ष गहरा होना लाज़मी है। यहां स्पश्ट कर दें कि निर्वाचन आयोग पर कोई निजी टिप्पणी नहीं है बल्कि उठे सवालों की समीक्षा मात्र है। 
हालांकि चुनाव से सम्बंधित आचार संहिता को लेकर अधीक्षण, पर्यवेक्षण आदि समेत तमाम कृत्य करना चुनाव आयोग का कार्य है। आचार संहिता को बनाये रखना राजनीतिक दलों का धर्म है और इसके उल्लंघन की स्थिति में चुनाव आयोग का यह कत्र्तव्य है कि निश्पक्ष और पारदर्षी निर्णय दे परन्तु निर्णय जिसके पक्ष में नहीं होता है उसके द्वारा एक नया आरोप आयोग पर मढ़ दिया जाता है। गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग के निर्णयों को भारत के उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय में उचित याचिका के माध्यम से चुनौती भी दी जा सकती है परन्तु यदि एक बार निर्वाचन की वास्तविक प्रक्रिया षुरू हो जाती है तो न्यायपालिका मतदान के संचालन में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। फिलहाल बरसों से सवालों के घेरे में रहने वाले निर्वाचन आयोग को निश्पक्ष बनाये रखने के लिए भारतीय संविधान के भाग 15 के अनुच्छेद 324 से 329 में अनेकों प्रावधान दिये गये हैं साथ ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 171क से 171झ में चुनाव सम्बंधी अपराधों के दण्ड की व्यवस्था की गयी है। इतना ही नहीं समय-समय पर जनप्रतिनिधित्व कानून में भी संषोधन होते रहे हैं और चुनाव सुधार के लिए आयोग और समितियां भी बनायी जाती रही हैं। चुनाव प्रणाली में पारदर्षिता को लेकर न्यायपालिका द्वारा भी सराहनीय प्रयास किये जाते रहे हैं और यह सिलसिला अभी भी जारी है। बावजूद इसके सवालों से पीछा छुड़ाने के लिए निर्वाचन आयोग को संवैधानिक सीमाओं में रहते सख्त रूख भी अपनाना होगा। 



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Wednesday, December 13, 2017

इराक ही नहीं पूरी दुनिया आतंक मुक्त हो

दुनिया दो समस्याओं से जूझ रही है एक आतंक तो दूसरा जलवायु परिवर्तन। जिसे लेकर इसी दुनिया के माथे पर चिंता की लकीरें स्वाभाविक रूप से देखी जा सकती है। गौरतलब है कि विगत् तीन दषकों से भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंक से लहूलुहान होता रहा और यह सिलसिला बादस्तूर अभी जारी है। विष्व के अन्य देष व अनेक देष तब तक इसे लेकर संजीदगी नहीं दिखाई जब तक इसके खौफ के साये से वे बचे रहे। वर्श 2001 में जब अलकायदा ने अमेरिका पर हमला किया तब अमेरिका जैसे सभ्य देषों को यह पता चला कि आतंक की पीड़ा कितनी बड़ी और आहत करने वाली होती है। लंदन के मेट्रो में जब आतंकियों ने बम ब्लास्ट किया तब उन दिनों यूरोप भी इससे सिहर गया था। क्या पूरब, क्या पष्चिम और क्या उत्तर, क्या दक्षिण पृथ्वी के मानचित्र पर अब षायद ही कोई देष बचा हो जो आतंकवाद से परिचित न हो। पड़ताल बताती है कि आतंकवादियों के सैकड़ों संगठन दुनिया में संकट पैदा कर रहे हैं और ताबड़तोड़ हमलों से अपनी ताकत का प्रदर्षन कर सभ्य समाज को चिढ़ा भी रहे हैं। गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा जारी सौ आतंकी संगठनों में 83 को इस्लामिक संगठन बताया गया था। इसी प्रकार की पुश्टि संयुक्त अरब अमीरात ने भी की थी जिससे निपटने के लिए अनेक राश्ट्राध्यक्ष सम्मेलनों एवं अन्तर्राश्ट्रीय बैठकों में रणनीति भी बनाते रहे हैं। खास यह भी है कि आतंक का जिस गति से विस्तार हुआ उससे पार पाने के लिए वैष्विक रणनीति कारगर नहीं रही है। प्रधानमंत्री मोदी अपने कार्यकाल से ही वैष्विक मंचों पर आतंक की पीड़ा से जूझ रहे भारत की स्थिति दुनिया के सामने रखते रहे। जिसका नतीजा यह है कि पाक आज षेश दुनिया से अलग-थलग हो गया है। 
देखा जाय तो विगत् कुछ वर्शों से आतंकवाद पर चर्चा खुल कर हो रही है और आतंकी संगठन तुलनात्मक सषक्त होने की रणनीति में भी मषगूल रहे हैं और षायद अभी भी इसी काम में लगे हैं। जिस तर्ज पर आतंकवादियों ने पिछले कई वर्शों से अपनी ताकत को परवान चढ़ाया है उसकी तुलना में बड़े से बड़ा देष भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसके सुरक्षा कवच को वे भेद नहीं सकते। गौरतलब है कि अमेरिका और ब्रिटेन से लेकर तमाम ऐसे कद्दावर देष इस जद्द में पहले आ चुके हैं और कई देष भले ही हमले से बचे हों पर दहषत से मुक्त नहीं हैं। इतना ही नहीं ब्रिटेन सहित षेश यूरोप भी इसकी पीड़ा भोग चुका है। ध्यानतव्य हो कि साल 2015 में पेरिस के षार्ली आब्दो के दफ्तर पर हुए आतंकी हमले और पुनः उसी पेरिस में दोबारा आतंकी हमला पूरे यूरोप को भय से भर दिया था और इस हमले में फ्रांस में व्यापाक पैमाने पर जान-माल का नुकसान भी हुआ। हांलाकि फ्रांस ने इस मामले को प्रमुखता देते हुए आतंकी ठिकानों पर हमले भी तत्काल षुरू कर दिये थे। खास यह भी है कि जिस पेरिस में 2015 के नवम्बर के पहले पखवाड़े में यह हमला हुआ था उसी पेरिस में इसी माह के आखिरी दिनों में पेरिस जलवायु सम्मेलन को लेकर दुनिया के राश्ट्राध्यक्ष को इकट्ठा होना था। कचोटने वाला प्रष्न यह है कि दुनिया की दो समस्याओं में एक जलवायु परिवर्तन पर जहां चिंतन किया जाना था वहीं आतंकवाद को लेकर नई चिंता का विकास हो गया था। 
निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि दुनिया में तबाही का मंसूबा रखने वाला आइएस तेजी से सिकुड़ रहा है यदि उसे इस समय कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं मिली तो उसका भरभराना सम्भव है। ताजा दृश्टिकोण यह है कि इराक जहां आइएस के सरगना बगदादी का जन्म हुआ अब वही इराक उसके चंगुल से मुक्त हो गया है। इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक एण्ड सीरिया यानि आइएसआइएस को किसी भस्मासुर से कम नहीं माना गया। फिलहाल बदले हालात में यह संगठन छिन्न-भिन्न हो रहा है फलस्वरूप उसका मानचित्र तेजी से छोटा हो रहा है। कई प्रकार की परेषानियों समेत आर्थिक संकटों के चलते अब इस संगठन से जुड़ने वालों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है और जो पहले से हैं वे भी आम जीवन में लौटना चाहते हैं। मुख्य यह भी है कि इसमें षामिल महिलायें अब तेजी से इससे पीछा छुड़ा रही हैं। दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन आइएस निहायत महत्वाकांक्षी किस्म का है। आर्थिक तौर पर देखें तो इसका बजट दो अरब डाॅलर का है जो अपहरण से प्राप्त फिरौती तथा बैंक लूटने जैसे तमाम हथकण्डों से युक्त है। आइएस मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में रखने का लक्ष्य घोशित किया था जिसमें जाॅर्डन, इज़राइल, फिलीस्तीन, लेबनान, कुवैत तथा साइप्रस समेत दक्षिणी तुर्की का कुछ भाग इसमें आता है पर महात्वाकांक्षा के उफान इतने तक ही सीमित नहीं था। इसकी स्थिति को देखते हुए लगता है कि इसकी इच्छा मानो दुनिया भर पर कब्जा जमाना था।
फिलहाल ताजा प्रकरण यह है कि बगदाद समेत पूरे इराक पर जहां बगदादी की तूती बोलती थी वहां से अब यह पूरी तरह समाप्त हो चुका है दूसरे षब्दों में इराक आइएस मुक्त होते हुए इसके क्षेत्र को निहायत संकुचित कर दिया है। गौरतलब है कि इराकी प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी बीते 10 दिसम्बर को राश्ट्रीय अवकाष घोशित करते हुए आइएस से इराक के मुक्त होने का जष्न मनाया। उनका दावा है कि सुरक्षा बलों ने सीरिया से लगे अन्तिम इलाके को भी फिलहाल आईएस से मुक्त करा लिया है। यदि यह सूचना पूरी तरह सही है तो इराक आइएसआइएस के खिलाफ चल रही लड़ाई को न केवल जीता है बल्कि बगदादी के खौफ से मुक्ति भी पा ली है। इसे देखते हुए ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरीजा ने इराक के आतंक से मुक्ति पर प्रसन्नता तो जाहिर की पर यह भी आगाह किया है कि आईएस का खतरा अभी पूरी तरह टला नहीं है। ऐसा कहने के पीछे सीरिया से लगी सीमा पर इराक की मौजूदगी मानी जा रही है। वैसे एक सूचना यह भी रही है कि आइएस प्रमुख बगदादी की मौत हो चुकी है पर इसकी पुश्टि न होने से यह खबर संदेह में रहती है। तुर्की और ईरान की मीडिया ने भी उसकी मौत को सही बताया है पर संदेह से पर्दा अभी भी पूरी तरह हटा नहीं है। पूरी दुनिया में आतंक और दहषत का पर्याय बन चुके चरमपंथी समूह आइएसआइएस की क्रूरता और जुर्म तथा उसी की ओर से जारी वीडियो के माध्यम से दुनिया ने यह देखा है कि रेगिस्तान में लाल वस्त्र पहनाकर घुटने के बल बैठाकर किस तरह विदेषी नागरिकों और गैर मुस्लिमों का गला रेता गया है। विष्व भर में फैले आतंक और हिमाकत साथ ही तबाही के बीच क्या इस बात का चिंतन-मनन नहीं होना चाहिए कि दुनिया को संवारते-संवारते आखिर दहषत फैलाने वाले आतंकी संगठन और आतंकवादी कहां से पैदा हो जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि जाने अनजाने आइएस के जन्म के पीछे अमेरिका का ही हाथ रहा है ठीक वैसे जैसे ओसामा बिन लादेन और अलकायदा के मामले में और ठीक वैसे जैसे 1980 में ईरान के खिलाफ इस्तेमाल के लिए केमिकल हथियार देकर अमेरिका ने सद्दाम को सद्दाम हुसैन बना दिया साथ ही ठीक वैसे जैसे सीरिया के फ्रीडम फाइटर को अमरिका ने हथियार और ट्रेनिंग दी जो अब आइएसआइएस के बैनर तले लड़ रहे हैं। साफ है कि कूटनीतिक और राजनीतिक लाभ के लिए जब-जब ताकतवर देष अपने निजी एजेण्डे पर काम करेंगे तब-तब अलकायदा और आइएस जैसे संगठन उगते रहेंगे और फिर इनके खात्मे के लिए अतिरिक्त ताकत जुटाई जायेगी। वजह जो भी हो दहषत और आतंक किसी के लिए भी अच्छा नहीं है और अच्छी बात यह है कि इराक ही नहीं पूरी दुनिया आतंक मुक्त हो और साथ ही दुनिया की जलवायु सभी के रहने योग्य हो।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

महंगाई से निपटने में नाकाम सरकार

सब्जी, फल, अण्डा, चीनी और दूध जैसी रोज़मर्रा की उपयोग की वस्तुएं महंगी होने के चलते बीते नवम्बर में खुदरा महंगाई दर पिछले 15 महीने की तुलना में उच्चतम स्तर पर पहुंच गयी। यह किसी भी सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। बीते 12 दिसम्बर को केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने इस बात का खुलासा किया कि मुद्रास्फीति 4.88 फीसदी पर पहुंच गयी है जो सवा साल में सर्वाधिक है। हालांकि इस बीच एक अच्छी खबर यह है कि पिछले साल के नवम्बर की तुलना में इस बार दलहन के दाम में गिरावट है। रोचक यह भी है कि यूपीए सरकार के समय महंगाई पर छाती पीटने वाले यही भाजपाई आज इसलिए बढ़ी हुई महंगाई के बावजूद सुकून में हैं क्योंकि विपक्ष भी कान में तेल डालकर बैठा है। इस बात से बहुधा लोग अनभिज्ञ नहीं होंगे कि इस देष में मात्र प्याज महंगा होने से सरकारें पानी-पानी हुई हैं और नौबत तो सत्ता से हाथ धोने तक की भी आई है। यह बदले दौर की राजनीति ही है कि जिस देष में महंगाई को लेकर हाहाकार होता था आज वहां सन्नाटा है। यह बात और है कि मध्यम और निम्न आय वर्ग के लिए जीवन इन दिनों फिलहाल कठिन बना हुआ है। जब कभी यह सवाल मन में आये कि संवेदनषीलता और संवेदनहीनता में क्या अंतर है तो दो प्रकार की सरकारों की तरफ दृश्टि गड़ाई जा सकती है एक वो जो महंगाई काबू रखने के साथ-साथ जनता की जेब और जीवन का ख्याल रखती है, दूसरी वो जो इससे उलट कृत्य में लिप्त होकर मात्र सियासी दांवपेंच में लगी रहती है। गौरतलब है महंगाई न केवल जनजीवन को अस्त-व्यस्त तथा त्रस्त करती है बल्कि सरकार की साख पर भी बट्टा लगाती है। साढ़े तीन साल से केन्द्र में मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही है। मतदाताओं ने सरकार को इसलिए बड़े पैमाने पर सीटें जिताई थी ताकि वे उनके लिए अच्छे दिन लाये जैसा कि उनका चुनावी वादा भी था पर इन दिनों मामला इससे उलट दिखाई दे रहा है। खान-पान की वस्तुओं में प्याज कहीं अधिक केन्द्र में रहती है जिसकी कीमत सामान्य होने में षायद अभी और वक्त लगेगा। बीते 21 नवम्बर को खाद्य एवं उपभोक्ता मामले के मंत्री राम विलास पासवान ने कहा था कि एक पखवाड़े में प्याज की कीमत सामान्य हो जायेगी पर इसके आसार अब दिखाई नहीं देते। उन्होंने कहा था कि कीमत को काबू में रखने के लिए एमएमटीसी 2 हजार टन प्याज का आयात करेगी एवं नेफेड के जरिये 10 हजार टन प्याज की खरीद की जायेगी। खास यह भी है कि सरकार ने प्याज के निर्यात पर 850 डाॅलर का न्यूनतम मूल्य भी घोशित कर दिया है बावजूद इसके अभी तक इसकी कीमत खुदरा बाजार में 50 रूपये प्रति किलो की दर से नीचे नहीं आ पायी है।
भारत की बहुत सी आर्थिक समस्याओं में महंगाई की समस्या प्रमुखता लिये रहती है। ऐसा भी देखा गया है कि एक सीमा तक जनता किसी न किसी तरह महंगाई को झेल लेती है लेकिन यदि यह लम्बे समय तक टिक जाती है तो आम जन के रक्तचाप को भी बढ़ा देती है। स्थिति तब बहुत अधिक बिगड़ जाती है जब वस्तु विषेश की दोबारा खरीदारी करते समय तुलनात्मक बढ़ी हुई कीमत देनी पड़ती है। देष की सरकार हो, नीति नियोजक या फिर कोई निकाय ही क्यों न हो इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि गरीब और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले के लिए महंगाई जीवन के लिए ही खतरा बन जाती है। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि देष में हर पांचवा व्यक्ति अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है। हालांकि विष्व बैंक की दृश्टि में यह संख्या अधिक है। जिसे दो जून की रोटी जुटाने के लिए बड़ी मषक्कत करनी पड़ती है। सरकार के नियोजन और उसमें निहित लाभ से भी यह इसलिए वंचित रह जाते हैं क्योंकि अषिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते अधिकार को भी नहीं पहचानते हैं। इतना ही नहीं गरीबों के हक से बिचैलिये मालामाल होते हैं और आर्थिक खाई गहरी होती जाती है। इस बात के लिए मोदी सरकार की सराहना की जा सकती है कि सहायता के कई संदर्भ सीधे खाताधारकों से संलग्न किये गये पर महंगाई की मार के चलते राहत भी बेमतलब सिद्ध हो रही है। रसोई गैस पर सब्सिडी खाते में तो आती है पर जिस गति से इसकी कीमत बढ़ी है उसे देखते हुए यह एक हाथ से देने दूसरे से लेने जैसा है। दो टूक यह भी है कि कीमतों में निरंतर वृद्धि एक दहषतकारी मोड़ होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्नत और विकासमान जीवन जीने की इच्छा इसके चलते धुंधली हो जाती है। 
वास्तव में बाजार हमारी समूची अर्थव्यवस्था का दर्पण है और इस दर्पण में सरकार और जनता का चेहरा होता है। जाहिर है महंगाई बढ़ती है तो दोनों की चमक पर इसका फर्क पड़ता है। खास यह भी है कि  अगर महंगाई और आमदनी के अनुपात में बहुत अंतर आ जाये तो भी जीवन असंतुलित होता है। वैसे महंगाई को समस्याओं की जननी कहा जाय तो अतार्किक न होगा। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़े मौजूदा महंगाई को ही उजागर नहीं करते बल्कि कई और क्षेत्रों में गणित बिगाड़ने के संकेत भी दे रहे हैं। अर्थषास्त्रियों का यह मानना है कि महंगाई दर अनुमान से कहीं ज्यादा है ऐसे में मौजूदा वित्तीय वर्श में ब्याज दर में कटौती की सम्भावना लगभग खत्म हो गयी है। सम्भावना तो यह भी जताई जा रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक अगले छः माह तक ब्याज दर में कटौती नहीं करेगा। यह इस बात का संकेत है कि बैंकों से ऋण लेने वाले एक तरफ महंगाई की मार झेलेंगे तो दूसरी तरफ ब्याज दर में राहत से भी वंचित रहेंगे। चिंतन तो इस बात का भी है कि प्याज, टमाटर और अन्य सब्जियों की कीमत में वृद्धि का अनुमान मौजूदा समय में उम्मीद से ज्यादा असर डाल रहा है जिस पर काबू पाने के लिए सरकार को कड़ी मषक्कत करनी पड़ेगी। महंगाई का एक वृहद् पक्ष कच्चे तेल की कीमत भी है जिसका दाम 10 जून 2015 के बाद पहली बार 65 डाॅलर प्रति बैरल को पार किया जाहिर है यह दो साल का उच्चतम स्तर है। जिसमें इसे देखते हुए यह संकेत मिल रहा है कि पेट्रोल और डीजल के दाम में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो सरकार के माथे पर चिंता के बल लाज़मी हो जायेंगे। वैसे भी इन दिनों तेल की कीमत आसमान छू रही है। गौरतलब है कि नवम्बर 2016 में महंगाई दर 3.63 प्रतिषत थी और इसी माह में 8 नवम्बर को नोटबंदी का एलान किया गया था। अर्थषास्त्र का विन्यास बहुत सामान्य नहीं होता हालांकि यह बहुत गूढ़़ भी नहीं होता पर एक सच्चाई है कि इसको अतिरिक्त सहज लेने पर कभी-कभी यह भारी पड़ता है जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। नोटबंदी के बाद इसी वर्श 1 जुलाई को देष में जीएसटी लागू किया गया। ताबड़तोड़ आर्थिक परिवर्तनों के चलते भी आर्थिक व्यवस्था में दरारें आना स्वाभाविक है। चिंतन का विशय यह भी है कि सरकार हर आर्थिक मोर्चे पर लिये गये निर्णय को अपना सधा हुआ फैसला मानती रही है और इसके दूरगामी नतीजे बता कर अपनी पीठ थपथपाती रही जबकि जनता अनेक समस्याओं समेत महंगाई की गिरफ्त में है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, December 11, 2017

चुनौती की युक्ति खोजती कांग्रेस

अरब सागर से सटे गुजरात में चुनावी मौसम तूफानी है और देश  के प्रधानमंत्री समेत तमाम राजनेता प्रचण्ड पचासा की भूमिका में वह सब कुछ झोंके हुए है जो वे सियासत साधने के लिए जरूरी समझ रहे हैं। गौरतलब है कि यहां की फिजां में नीच और नीचता भी इन दिनों खूब तैर रही है। कांग्रेस के वरिश्ठ नेता मणिषंकर अय्यर जो अब निलंबित हैं का यह एक अलफाज़ मानो प्रधानमंत्री मोदी के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने का फाॅर्मूला दे दिया हो। ऐसा देखा गया है कि चुनाव के दिनों में केवल वायदों का अम्बार नहीं होता बल्कि जुबान फिसलने पर उसकी तेजी से धर-पकड़ भी होती है। जाहिर है इसके पहले बिहार विधानसभा चुनाव में भी ऐसे नमूने खूब देखे गये थे। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी का घर भी है और गढ़ भी पर जिस तरह वे विरोधियों पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं उससे साफ है कि चुनावी आंच का उन्हें भी डर सता रहा है। खास यह भी है कि 22 साल से गुजरात में सत्तासीन भाजपा यहां कांग्रेस मुक्त का नारा उतना बुलन्द नहीं कर रही है जैसा वह पहले करती रही है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने दो दषक के भाजपाई सरकार के विकास का हिसाब-किताब चुनावी रैलियों में रख कर काफी हद तक अपना वजन बढ़ाया है साथ ही पाटीदारों के चलते गुजरात की फिजां में भाजपा का रंग बदरंग हुआ है। जहां तक जान पड़ता है प्रधानमंत्री मोदी देष के किसी भी विधानसभा चुनाव में इतना प्रचार नहीं किया जितना गुजरात में कर रहे हैं। इसके पीछे विरोधी भय नहीं तो क्या कहा जायेगा। भाजपा जानती है कि न तो कांग्रेस 2014 जैसी है और न ही गुजरात के वोटर पहले जैसे हैं इतना ही नहीं यहां की सियासत का मजनून भी पहले जैसा नहीं है। यदि यहां से कुछ अनबन होती है तो विरोधियों को न केवल ताकत मिल जायेगी बल्कि घर में हार के दंष वर्शों तक पीछा नहीं छोड़ेंगे।
कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि भले ही 2014 से उसकी हार के सिलसिले अभी भी जारी हैं बावजूद इसके चुनाव वैसे ही लड़ो जैसे जीतने के लिए लड़ा जाता है। हालांकि इसी बीच पंजाब में कांग्रेस सत्तासीन हुई और मणिपुर तथा गोवा में भी स्थिति अच्छी बनाये रखने में कामयाब रही। दो टूक यह भी है कि यदि गुजरात में कांग्रेस बाजी मारती है जिसके नतीजे 18 दिसम्बर को आयेंगे या फिर 2012 की तुलना में व्यापक बढ़त भी बना लेती है तो मौजूदा समय को देखते हुए दुर्बल कांगे्रस में नई ऊर्जा का संचार होना लाज़मी है और 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी उसे अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक ताकत मिल जायेगी। बेषक गुजरात जीतना कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी चुनौती है पर राहुल गांधी अपनी दलीय स्थिति को दौर के अनुपात में समझते हुए न केवल उसे नव उदारवाद की ओर ले जा रहे हैं बल्कि स्वयं को उदारवादी हिंदुत्व की ओर झुका भी रहे हैं जो अपने आप में बड़ी खास बात है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के ठीक उलट राहुल मन्दिर-मन्दिर जा रहे हैं। षायद कांग्रेस के रणनीति बनाने वालों को भी यह समझ आ चुकी है कि भाजपा से मिल रही चुनौती में मंदिर एक समाधान की युक्ति हो सकती है। जब से केन्द्र में मोदी सरकार काबिज है तब से देष में उग्र हिन्दुत्व का कमोबेष वातावरण तेजी से निर्मित हुआ है जिसे षायद भारत के आमजन व आम हिन्दू कम ही पसंद करता है। बुद्धिजीवी वर्ग भी ऐसे संदर्भों से ज्यादा घालमेल नहीं रखते। वर्श 2015 में लेखकों एवं रचनाकारों द्वारा असहिश्णुता को आगे करके अवाॅर्ड वापसी का दौर इसके नाप-झोक में आ सकता है। सटीक संदर्भ यह भी है कि राजनेता सुविधा के हिसाब से राजनीति करते हैं और देष की जनता सुविधा की फिराक में इनसे बार-बार छली जाती है पर ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में उग्र हिन्दुत्व हो या उग्र राजनीति खारिज हो जायेगी। कांग्रेस की इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 1975-77 में आपात की स्थिति लाकर इसी उग्रता का परिचय दिया था। जिसे 1977 के चुनाव में खारिज कर दिया गया था और जब 1980 में उसकी पुर्नवापसी हुई तो सत्तासीन तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी उग्र के बजाय उदार की राह पर थीं।
मौजूदा समय में कांग्रेस में राहुल युग का सूत्रपात तो हो रहा है पर अनेकों चुनौतियों से वे घिरे हुए हैं। मोदी के मुकाबले व्यक्तित्व में निखार और जनता के सामने उनकी पेषगी उनके सामने बड़ा प्रष्न रहेगा हांलाकि वे इस मामले में पहले से काफी बदले दिख रहे हैं। भरभरा उठी कांग्रेस पार्टी की संरचना को न केवल पुर्निजीवित करना चुनौती है बल्कि कांग्रेसियों में यह उम्मीद भरना कि भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के विचार से मुक्त होकर देष की जनता के बीच कैसे जगह बनाये से युक्त हो जाये खासा मषक्कत भरा काज है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है। रही बात वंषवाद के आरोप से तो राहुल गांधी इससे मुक्त नहीं हो सकते और फिलहाल कांग्रेस के पास इसका कोई इलाज भी नहीं है। कांग्रेस लगातार हार के चलते जिस रास्ते पर खड़ी है वहां से अब और कमजोर होना इसलिए कम प्रतीत होता है क्योंकि केन्द्र में साढ़े तीन साल की सत्ता चला रही एनडीए की कई कमजोरियां भी अब देष के सामने विपक्ष रख सकता है। बार-बार इस बात को लेकर मोदी सरकार अपना बचाव नहीं कर सकती कि उसे भरपूर वक्त अभी नहीं मिला है। दो टूक यह भी है कि राहुल गांधी धार्मिक बनने की हड़बड़ाहट में दिख रहे हैं जो उन पर ताजा आरोप है पर राजनीति में एक खास बात यह रही है कि आरोपों से सियासतदानों के कद आंके गये हैं। राहुल गांधी का मन्दिर जाने वाला मामला भाजपा को तिलमिला सकता है और यदि धार्मिक मामले में भाजपा इसे राहुल की सेंध समझ रही हो तो इस युक्ति को वे सफल करार दे सकते हैं। 
इतिहास के पन्नों को उलट-पलट कर देखा जाय तो कांग्रेस के लिए परेषानी का कारण एक नहीं अनेक है जिसमें नेहरू से लेकर इन्दिरा एवं राजीव गांधी तक की सरकारों का लेखा-जोखा सियासी भंवर में तैरते रहेंगे साथ ही वंषवाद की राजनीति का दंष भी चलता रहेगा। वंषवाद और आन्तरिक लोकतंत्र की कमी का ठीकरा षायद कांग्रेस पर आगे भी फोड़ा जाता रहेगा पर यह आरोप कितना लाज़मी कि राहुल गांधी ने औरंगजेब की तरह पार्टी की अध्यक्षता हासिल की। गौरतलब है कि औरंगजेब ने सत्ता अपने भाईयों से लड़कर प्राप्त की थी जबकि राहुल गांधी निर्विरोध हैं। हांलाकि षहजाद पूनावाला जैसे कुछ कांग्रेसी विरोधी वक्तव्य दिये पर ये कोई खास मायने नहीं रखता। मणिषंकर अय्यर भी वरिश्ठ हैं पर कहीं न कहीं पार्टी के लिए मुसीबत हैं। आये दिन वे इसका सबूत भी देते रहते हैं। इस बात पर भी ध्यान देना सही है कि पिछले चार सालों से देष की सियासी फिजा में वंषवाद के चंगुल से मुक्ति की बात हो रही है बावजूद इसके सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस का षीर्शस्थ पद वंष परम्परा का निर्वहन करते हुए राहुल गांधी के पास ही आयी। साफ है कि चुनावी हश्र कुछ भी हो वंषवाद की जोड़-तोड़ से कांग्रेस बाहर नहीं है। वैसे यह आरोप केवल राहुल गांधी पर ही क्यों भाजपा समेत कई दल ऐसे हैं जहां यह कमोबेष मिल जायेगा पर कांग्रेस पर यह भारी पड़ता है क्योंकि वहां सत्ता में भी और दल के अन्दर भी यह परम्परा रही है। सौभाग्य से राहुल को खुला मैदान मिला है और कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है। ऐसे में वे चुनौतियों से पाड़ पाते हुए यदि पार्टी को मौजूदा स्थिति से उबार लेते हैं तो वे न केवल कई आरोपों से मुक्त हो जायेंगे बल्कि उनका दल बदले राजनीति में कुछ हद तक सषक्तता से युक्त भी मान लिया जायेगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, December 6, 2017

एक उन्माद जो कहीं नहीं पहुंचा

आज से ठीक 25 बरस पहले 6 दिसम्बर को जब इस बात के लिए जन सैलाब उमड़ा था कि राम मन्दिर निर्माण के लिए जो बन पड़ेगा करेंगे तो भले ही भारत का समाजषास्त्र कई विचारों में बंट हो गया हो पर एक बात तो साफ थी कि बड़ा परिवर्तन होगा। इसी दिन बाबरी मस्जिद ढहा दिये जाने की घटना हुई जिसे एक युग बीत चुका है। तारीखें बदल गयीं, राजनीति बदल गयी, सियासतदानों ने अयोध्या के नाम पर कम-ज्यादा रोटियां भी सेंकी बावजूद इसके अयोध्या की सीरत नहीं बदली, हां सूरत जरूर बदली है। इस लिहाज़ से कि राम जन्मभूमि के आस-पास के चैराहे अब आबाद होकर बाजार में तब्दील हो गये हैं। इतिहास इस बात के लिए हमेषा प्रबल दावेदारी कर सकता है कि अयोध्या में राम मन्दिर के निर्माण को लेकर एकमत होने का साहस किसी में नहीं था। बरसों से राम जन्मभूमि को लेकर सियासत हो रही है और मामला अदालतों में धूल फांक रहा है। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के विवाद में गरमागरम बहस पहले भी होती रही और यह सिलसिला अभी रूका नहीं है। इसी का एक नमूना बीते 5 दिसम्बर को तब देखने को मिला जब सुन्नी वक्र्फ बोर्ड और बाबरी एक्षन कमेटी के वकीलों ने प्रधान न्यायाधीष जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा सुनवाई करने का विरोध किया। इसके पीछे वजह यह बतायी गयी कि उनके कार्यकाल में कार्यवाही पूरी नहीं हो पायेगी। गौरतलब है कि मौजूदा प्रधान न्यायाधीष का कार्यकाल 2 अक्टूबर, 2018 तक है। सियासी दांव-पेंच के साथ अदालत में लम्बित मन्दिर विवाद को लेकर जब देष की षीर्श अदालत ने तत्परता दिखाई तब भी कईयों के पास इसे उलझाये रखने का कोई न कोई तर्क था। रोचक यह भी है कि सुन्नी बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने सुन्नी वक्र्फ बोर्ड के वकील का इस बात के लिए समर्थन किया कि आखिर सुनवाई में इतनी जल्दी क्यों। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह है कि 25 साल बीत जाने के बावजूद इस मामले में अभी भी इस बात के दांव पेंच हो रहे हैं कि इसका राजनीतिक मुनाफा कहीं किसी को न मिल जाये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद हमेषा सियासी चष्में से देखा जाता रहा है। मामले को देष की राजनीति को प्रभावित करने वाला बताया जाना इस बात का भी द्योतक है कि ध्यान समस्या के हल पर नहीं बल्कि सत्ता की पैरोकारी में है। सभी जानते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देष है बावजूद इसके जब धर्मनिरपेक्षता की रचना और गणना हर कोई अपने ढंग से करता है और उसे अपने राजनीतिक मुनाफे में तब्दील करना चाहता है तब उसका समर्थन करना कठिन हो जाता है। भारतीय संविधान में इस बात का पूरा ताना-बाना है कि भारत का कोई धर्म नहीं है। देष बड़ा लोकतंत्र वाला है पर यह बात कहीं अधिक सच्चाई से ओतप्रोत है कि इसी देष में नीति को नहीं नेता को देखकर नीयत में फेरबदल होता रहा है। कई धर्मावलंबी मन्दिर के समर्थन में अच्छे तर्क दिये होंगे साथ ही कई मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इसके समर्थन में बातें कहीं पर मुद्दे से बर्फ पिघली नहीं बल्कि वक्त के साथ तारीख की मोटाई ही बढ़ी है। कहा जाय तो अयोध्या के जो सवाल 25 साल या उससे पहले भी जहां पर थे आज भी वहीं पर खड़े हैं। जाहिर है देष में एक न्यायपालिका है जो विवादों को न केवल हल देती है बल्कि स्वस्थ न्याय की परम्परा का अनुपालन भी करती है और कराती है अब सारा दारो-मदार इसी पर है। गौरतलब है कि तीन सदस्यीय पीठ चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में इस मामले को लेकर आगामी 8 फरवरी से रोजाना सुनवाई करेगी। 
अयोध्या में अब तक क्या हुआ एक दृश्टि इस पर लाज़मी है। विवादित ढांचा 6 दिसम्बर को ढहाया गया था। इसके करीब दो साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में मुकदमा षुरू हुआ था। मुकदमे के दौरान कई आरोपी और गवाह प्रस्तुत होते रहे जिसमें कई अब इस दुनिया में नहीं है। जब विवादित ढांचा जमींदोज हुआ तो इसका जिम्मेदार कौन है यह पता करना भी समय की दरकार थी और न्यायसंगत भी। जिसके लिए लिब्राहन आयोग का गठन किया गया और घटना को एक दषक बीत गया। जनवरी 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बातचीत से विवाद सुलझाने के लिए अपने कार्यालय में अयोध्या प्रकोश्ठ षुरू किया। इसी वर्श अप्रैल में विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर उच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने सुनवाई षुरू की। 2009 में लिब्राहन आयोग ने बड़े लम्बे कोषिष और वक्त के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तब प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह थे। ठीक एक साल बाद सितम्बर 2010 में देष की षीर्श अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका को खारिज किया। समय के साथ अदालती संघर्श न केवल लम्बे हुए बल्कि विवाद और सघन होते जा रहे थे और वह दिन भी आया जब 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित जमीन को तीन हिस्से में बांटने का निर्णय सुनाया। जिसमें एक हिस्सा राम मन्दिर, दूसरा सुन्नी वक्र्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़ा को मिला पर देष की षीर्श अदालत ने इस फैसले पर रोक के आदेष दे दिये। वक्त बीतता चला गया और समाधान अभी भी उतनी ही दूरी पर खड़ा था। इसी बीच जुलाई 2016 में बाबरी मामले के सबसे उम्रदराज हाषिम अंसारी का निधन हो गया। हाषिम अंसारी ऐसे षख्स थे जो इस मामले में 1949 से जुड़े थे। तारीखे इतिहास होती गयी, संघर्श करने वाले भी आते-जाते रहे। बताते चलें कि निर्मोही अखाड़े के रामचन्द्र परमहंस भी पहले ही इस दुनिया को छोड़ चुके थे। एक रोचक संदर्भ का उल्लेख यहां लाज़मी है कि परमहंस की मृत्यु पर मुद्दई हाषिम अंसारी ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ाई में मजा नहीं आयेगा। दो टूक यह भी है कि लम्बे समय से बाबरी मस्जिद व राम मन्दिर मसले को लेकर उठा विवाद वादी-प्रतिवादी को भी इतना संवादी बना दिया कि उनके न होने का रंज एक-दूसरे को था और इसका पुख्ता सबूत रामचन्द्र परमहंस और हाषिम अंसारी हैं।
6 दिसम्बर, 1992 से 6 दिसम्बर, 2017 के बीच 100 साल का एक चैथाई वक्त बीत गया। इस ढ़ाई दषक ने देष में नये परिवर्तन को जन्म दिया। राजनीति की दिषा कहीं से कहीं चली गयी और लोकतंत्र जो उथल-पुथल के दौर में था वो प्रखर होकर फलक पर चमकने लगा। बहुमंजली इमारतों वाली सत्तायें जमींदोज होकर एक दल में समा गयीं। इस उम्मीद के साथ कि विकास की धारा और वक्त के साथ बढ़ी मांग वाली विचारधारा में यह कहीं अधिक पुख्ता सिद्ध होगी। यह कितनी सार्थक है इसकी पड़ताल बाद में होगी पर एक सच्चाई यह है कि देष की राजनीतिषास्त्र और समाजषास्त्र ही नहीं बल्कि अर्थषास्त्र में भी बड़ा परिवर्तन हुआ है। अयोध्या में भी परिवर्तन हुआ है सिवाय इसके कि 6 दिसम्बर, 1992 को जहां थे अभी भी वहीं हैं पर अब यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ महीनों या वर्शों में न्याय की प्रतीक्षा समाप्त होगी। गौरतलब है कि इसी वर्श सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में कहा था कि आपसी सहमति से विवाद सुलझा लें जिसे लेकर कोषिषें भी हुईं। बीते अप्रैल में षीर्श अदालत ने बाबरी मस्जिद गिराये जाने के मामले में कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने के आदेष दिये जिसमें भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृश्ण आडवाणी और मुरली मनोहर भी षामिल हैं। फिलहाल भरोसा किया जा सकता है कि तमाम जोड़-तोड़ के बावजूद जो हल नहीं निकला षीर्श अदालत की चैखट से भविश्य में दिखेगा।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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वह दिन जब दुनिया औचक्क रह गयी

इसी वर्श 20 जनवरी को जब राश्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप ने व्हाइट हाऊस में प्रवेष किया तब बामुष्किल सप्ताह भर ही बीते थे कि वे अपने स्वभाव के अनुरूप ताबड़तोड़ निर्णय लेते हुए सात मुस्लिम बाहुल्य देषों को अमेरिका में प्रवेष पर रोक लगा दी जिसमें ईरान, यमन, सोमालिया, लीबिया, सीरिया आदि षामिल थे। उस दौरान व्हाइट हाऊस से यह भी संकेत मिल रहा था कि प्रतिबंधों की सूची में पाकिस्तान को भी षामिल किया जा सकता है और इसकी एक बड़ी वजह पाकिस्तान का आतंकियों को षरण देना माना जा रहा था। हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है परन्तु जिस तरह पाकिस्तान आतंक की राह पकड़े हुए है और डोनाल्ड ट्रंप की धमकी जारी है उससे साफ है कि पाक की गर्दन पर प्रतिबंध की तलवार अभी भी लटकी हुई मानी जा सकती है। सबके बावजूद प्रासंगिक प्रष्न यह है कि मुस्लिम देषों पर प्रतिबंध लगाने से किसकी इच्छा पूरी हुई। इसे अमेरिका की इच्छाओं की पूर्ति माना जाय या फिर डोनाल्ड ट्रंप की दबी हुई आकांक्षा की भरपाई। फिलहाल अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने करीब 11 माह पुराने डोनाल्ड ट्रंप के फैसले पर अपनी मोहर लगाकर उनकी आकांक्षा को पूरा कर दिया है। ये बात और है कि निचली अदालतों में अभी भी इस मामले के कानूनी दांवपेंच पर बहस जारी है। खास यह भी है कि निचली अदालतों में अमेरिका में उक्त मुस्लिम देषों के प्रवेष को ट्रंप की मुस्लिम विरोधी नीतियों का हिस्सा बताकर खारिज कर दिया गया था परन्तु अब अमेरिका की षीर्श अदालत के फैसले से प्रतिबंध पुख्ता हो गया है। गौरतलब है कि एक्षन और रिएक्षन के बीच ट्रंप के इस निर्णय को ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी से लेकर इंडोनेषिया तक खूब आलोचना हुई थी। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने तो यहां तक कहा था कि आतंक के खिलाफ वैष्विक लड़ाई का यह मतलब नहीं कि किसी देष के नागरिकों को आने पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाय। उन्होंने जेनेवा समझौते की याद भी उन दिनों दिलाई थी पर इसका असर न तब हुआ था और न अब। गौरतलब है कि पोलैण्ड डोनाल्ड ट्रंप के निर्णय के साथ खड़ा था।
वैसे देखा जाय तो डोनाल्ड ट्रंप का यह फैसला षुरू से ही विवादों में घिरा था। सत्ता पर काबिज होते ही जारी आदेष को बाद में वापस भी लेना पड़ा और कुछ संषोधनों के साथ जो दूसरे आदेष भी आये उनका भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। जिस आदेष पर अमेरिका की षीर्श अदालत ने अपनी मोहर लगाई है वह आदेष का तीसरा प्रारूप है जाहिर है कि डोनाल्ड ट्रंप की अति महत्वाकांक्षा यदि यह थी कि ईरान, सोमालिया, सीरिया तथा लीबिया जैसे देषों पर प्रतिबंध हो तो वह मूल फैसला नहीं बल्कि संषोधित फैसला है और इस संषोधित आदेष पर भी रिचमंड, वर्जीनिया एण्ड सेन फ्रान्सिस्कों और कैलिफोर्निया की षीर्श अदालतों में चुनौती मिली जहां फैसले की समीक्षा जारी है। इन्हीं अदालतों में फैसले को ट्रंप के मुस्लिम विरोधी रवैये के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल ट्रंप राश्ट्रपति के चुनाव के अपने अभियानों में इस बात का गाहे-बगाहे उल्लेख करते थे कि सत्ता में आने पर कुछ इस प्रकार के निर्णय लेंगे। भले ही ट्रंप राश्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताकर और आतंक की बात कह कर प्रतिबंध वाले अपने निर्णय को सही साबित कर दिया हो पर ऐसे फैसले की सारगर्भिता पर सवाल उठने लाज़मी हैं क्योंकि इससे दुनिया कई खेमों में बंट सकती है और आतंक की लड़ाई से लेकर जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रही दुनिया को झटका भी लग सकता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि अमेरिका ने आतंकवाद के नाम पर कुछ देषों के नागरिकों पर पाबंदी तो लगायी पर इसमें वही मुस्लिम देष षामिल हैं जहां से अमेरिका के व्यापारिक हित आड़े नहीं आते।
वैसे फैसले में भी कई खामियां व झोल दिखाई देते हैं। प्रतिबंध की जद् में जो देष हैं उन सभी पर यह समान रूप से लागू होता नहीं दिखाई देता। यहां बताते चलें कि उत्तर कोरिया के कुछ लोगों और वेनेजुएला के कुछ समूहों का प्रवेष भी अमेरिका में प्रतिबंधित हो गया है। जाहिर है वेनेजुएला का महज़ एक नागरिक समूह इससे प्रभावित होता है तो वहीं उत्तर कोरिया के चंद नाम इसमें आते हैं। उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका का छत्तीस का आंकड़ा है और इन दिनों तो दोनों देष बिल्कुल लड़ाई के मुहाने पर खड़े हैं। ऐसे में यदि उत्तर कोरिया पर भी डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी प्रवेष पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाते हैं तो षायद ही ट्रंप के इस निर्णय से षेश दुनिया औचक्क हो। ईरान के साथ षैक्षिक आदान-प्रदान की नीति प्रभावित होते नहीं दिखाई देती। साफ है कि अमेरिका जाने वाले छात्रों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। आतंक के नाम पर प्रतिबंध वाला डोनाल्ड ट्रंप का यह निर्णय पूरी तरह गले इसलिए भी नहीं उतरता क्योंकि इस सूची में पाकिस्तान नहीं है जबकि अमेरिका भी जानता है और मानता है कि आतंक का सबसे बड़ा षरणगाह तो पाकिस्तान ही है। षायद यही वजह है कि अमेरिकी जनता से लेकर डोनाल्ड ट्रंप के आलोचक तक यह संदेष गया है कि प्रतिबंध मुस्लिम विरोधी नीति और उनका निजी एजेण्डा है। षायद एक वजह यह भी है कि वक्त की नज़ाकत को देखते हुए ट्रंप आतंक के मामले में पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते रहते हैं। ट्रंप यह भी जानते हैं कि प्रतिबंध से उनकी आर्थिक व व्यापारिक स्थिति पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ रहा है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि प्रतिबंध वाला निर्णय अचानक नहीं बल्कि सोचा-समझा फैसला था। गौरतलब है कि प्रतिबंध लगाते समय डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि बुरे लोगों को अमेरिका से दूर रखने के लिए सात मुस्लिम देषों पर प्रतिबंध लगाया है। जाहिर है लाभ-हानि के मापतौल में ट्रंप का ही पलड़ा भारी दिखाई देता है। 
क्या वाकई में प्रतिबंध के पीछे आतंकी खतरा है या किसी अन्य प्रकार के अमेरिकी हित साधने का कोई दूरगामी फाॅर्मूला। अमेरिकी जनता के मुताबिक यह हितों और सिद्धांतों के खिलाफ है और दुनिया ने भी इसको सही नहीं माना है। हालांकि इस मामले में भारत तटस्थ स्वभाव लिए रहा। एक बात यह भी हो सकती है कि ट्रंप आतंकी देषों को इन देषों पर प्रतिबंध के सहारे कठोर होने का संदेष दे रहे हैं पर यह बात भी पूरी तरह पुख्ता नहीं प्रतीत होती क्योंकि पाकिस्तान जैसे देषों पर इसका कोई असर ही नहीं हुआ। फिलहाल षीर्श अदालत के निर्णय किन्तु-परन्तु पर विराम लगा दिया है। देखा जाय तो ट्रंप सुविधा की फिराक में विष्व के कई देषों की नजरों में आ गये हैं। इतना ही नहीं कई मामलों में उनका चेहरा भी बार-बार बेनकाब हो रहा है। जिस चतुराई से ट्रंप दुनिया में धौंस जमाना चाहते हैं वह कूटनीति भी बहुत वाइब्रेंट नहीं है। भारत से गहरी दोस्ती परन्तु चीन से तनिक मात्र भी मित्रता न घटाना ट्रंप की दोहरी चाल ही कही जायेगी। दक्षिणी चीन सागर में भारत, अमेरिका और जापान का अभ्यास जहां चीन को खटकता है वहीं उत्तर कोरिया से अमेरिका की तनातनी भी चीन को षायद ही भाता हो। षुरूआती दिनों में रूस के साथ ट्रंप की स्थिति सुधरती हुई दिख रही थी परन्तु वक्त के साथ तल्खी वहीं की वहीं रह गयी। षेश दुनिया से बेहतर सम्बंध की समझ वाले अमेरिका ने भी अपनी निजी नीतियों को तवज्जो देते हुए बाकियों को झटका दिया है। पेरिस जलवायु समझौते से उसका हटना इसका पुख्ता सबूत है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि अपने निर्णयों से दुनिया को औचक्क करने वाले ट्रंप को यदि मुस्लिम विरोधी छवि से बाहर निकलना है तो सधे हुए कदम के साथ आतंक को साधने वाले देषों पर प्रहार करना ही होगा।


सुशील कुमार सिंह
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सुशासन का साहित्य है संविधान

26 नवम्बर को राश्ट्रीय विधि दिवस के पावन अवसर पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका अपने दायरे में रहते हुए एक-दूसरे की आवष्यकताओं को समझते हुए काम करें तब हम जनता की बेहतर सेवा कर पायेंगे। उक्त से यह बात एक बार फिर उजागर होती है कि संविधान में निहित सीमाओं के संरक्षण से ही सुषासनिक कृत्य सम्भव हैं। गौरतलब है कि इसी दिन 1949 में देष के संविधान के कुछ हिस्से को लागू किया गया था जबकि 26 जनवरी, 1950 को पूरी तरह संविधान भारतीय संविधान दुनिया के फलक पर आया था। संविधान और सुषासन के रिष्ते को सात दषक पूरे हो चुके हैं। संविधान जहां राजनीतिक अधिकारों एवं लोक कल्याण का वृहत्तम संयोजन है तो वहीं सुषासन एक जन केन्द्रित, कल्याणकारी तथा संवेदनषील षासन व्यवस्था है। विधि के षासन की स्थापना के साथ-साथ संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास सुषासन है जिसके केन्द्र में नागरिक और उसका सषक्तिकरण देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा संविधान दिवस पर कई उन्मुख बातों को उजागर करने के पीछे एक बड़ी वजह दायरे को दायरे में रखने से भी सम्बंधित कही जा सकती है। विदित हो कि संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत कार्यपालिका का निर्माण व्यवस्थापिका से होता है जबकि नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 50 के अधीन न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा गया है। बावजूद इसके एक-दूसरे पर हस्तक्षेप का इतिहास भी इन सात दषकों में देखा जा सकता है। स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की एक ऐसी षक्ति है जिस पर देष का प्रत्येक नागरिक गर्व महसूस कर सकता है और ऐसा सोचता है कि निश्पक्ष न्यायपालिका के चलते उसके अधिकारों का न तो हनन सम्भव है और न ही सरकार व प्रषासन द्वारा उसे मसला और कुचला जा सकता है। संदर्भित पक्ष यह भी है कि तीन स्तम्भों की व्यवस्था में सभी की अपनी भूमिका है और सभी के अपने दायरे हैं। यदि इसे हमेषा अनुपालन में रखा जाय तो सुषासन से जुड़े काज को न केवल बढ़त मिलेगी बल्कि प्रधानमंत्री की चिंता को भी कम किया जा सकता है। 
सुषासन की कई स्पश्ट व्याख्यायें हैं जो संविधान के मार्ग से गुजरती हैं। यह एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सरकार को कहीं अधिक खुला, पारदर्षी और उत्तरदायी बनाता है जबकि सरकार को संविधान से षक्तियां प्राप्त हैं और सीमायें भी। राजनीतिक उत्तरदायित्व, नौकरषाही की जवाबदेहिता, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा मानव अधिकारों का संरक्षण समेत कई कृत्य संविधान की परिपाटी में देखे जा सकते हैं और उक्त का सीधा सम्बन्ध सुषासन के साक्ष्य के तौर पर भी देखा जा सकता है। जब हम संवेदनषील षासन की बात करते हैं तो मुख हमेषा संविधान की ओर होता है। प्रषासन जनमित्र व संवेदनषील बन सके तथा नागरिक व सरकार के बीच अन्र्तसम्बंध व अन्र्तक्रिया मजबूत हो सके ये सभी सुषासन से ही तय होंगे और यह तब सम्भव होगा जब सीमाओं से परे कृत्य नहीं होंगे। मोदी का यह कहना कि अपनी-अपनी कमजोरियां हम जानते हैं, अपनी-अपनी षक्तियों को भी पहचानते हैं। निहित परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो कथन का लब्बोलुआब संविधान और सुषासन को साथ लेकर चलना है और आपस में हस्तक्षेप से उथल-पुथल को अख्तियार करने से गुरेज रखना है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की अपनी-अपनी व्याख्यायें और अपनी-अपनी षक्तियां हैं जो देष को समुचित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यही ताकतें जब आपसी हस्तक्षेप से उलझती हैं तो सुषासन की राह को भी खतरा पहुंचता है और जब यही सीमाओं में रह कर अपनी कारगुजारियां करती हैं तो न केवल नागरिकों के अधिकार सबल होते हैं बल्कि देष में विकास की नई धारा भी विकसित होती है। गौरतलब है संविधान एक गतिषील अवधारणा है जाहिर है सात दषकों से नागरिकों के अधिकारों को बनाये रखने में इसकी विधिवत भूमिका रही है। 
प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी सधी हुई एक बात यह भी कही है कि 68 वर्शों में संविधान में एक अभिभावक की तरह हमें सही रास्ते पर चलना सिखाया है और इसी ने देष को लोकतंत्र के रास्ते पर बनाये रखा। उक्त संदर्भ लाख टके का है। जब धारा और विचारधारा का संयोजन करके देष को ऊंचाई देने की बात आती है तो सुषासन की परिपाटी स्वयं में उजागर हो जाती है। किसी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है। यही संविधान कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास बनाये रखता है। जब षासन का आधार सुषासन होता है तो यह बात भी मापतौल में आ जाती है कि देष का  संविधान कैसा है। प्रधानमंत्री मोदी का संविधान की तुलना एक अभिभावक से करना बिल्कुल दुरूस्त है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि दषकों से संविधान ने सभी के जीवन को संजीवनी दी है। विधायिका ने विधियों का निर्माण किया है, कार्यपालिका ने जनहित को सुनिष्चित करने के लिए विधियों को अमलीजामा पहनाया है और अधिकारों के हनन में न्यायपालिका हमेषा नागरिकों के साथ खड़ी रही है। षायद इसी का परिणाम है कि कागज की किष्ती को समुन्दर में आज भी डूबने से हम बचा ले गये हैं। संसदीय प्रणाली की एक विधा यह भी है कि हुकूमत जनता की होगी, ताकत संविधान से मिलेगी और इससे मुंह फेरने वालों को सजा जनता ही देगी। 
संदर्भित यह भी है कि 26 नवम्बर की तिथि देष के इतिहास में बड़े उच्च दर्जे की है। संविधान और विधि दिवस का परिप्रेक्ष्य है तो थोड़ी चर्चा संवैधानिक इतिहास से भी होना लाज़मी रहेगा है। गौरतलब है कि 1946 में संविधान सभा की स्थापना हुई थी जिसमें 389 सदस्य थे। सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को डाॅ0 संच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। ठीक दो दिन बाद 11 दिसम्बर को डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष भी हुये। देष के वृहद् संविधान को बेहतर बनाने की फिराक में कई अड़चनों से भी जूझना पड़ा। संविधान देष चलाने का एक पावर हाऊस है और प्रधानमंत्री मोदी की नजरों में अभिभावक भी। ऐसे में सम्पूर्णता का पूरा ख्याल रखा जाना स्वाभाविक था। 8 मुख्य समितियां तथा 15 अन्य समितियां इस बात का संकेत है कि ताकतवर नियम संहिता बनाने में संविधानविदों ने कोई कोताही नहीं बरती है। डाॅ0 अम्बेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति का गठन और संविधान को अन्तिम रूप मिला। देखा जाय तो 2 साल, 11 महीने और 18 दिन मे मौजूदा संविधान बनकर देष के सुषासन की परिपाटी को पगडण्डी पर दौड़ाने को तैयार हुआ। जिस क्लेवर और फ्लेवर के साथ संविधान ने अपने मूर्त रूप को लिया है उसमें अब तक सौ से अधिक संषोधन हो चुके हैं। बावजूद इसके जनता के अधिकारों और लोक कल्याण के निहित भावों को आज भी कोई ठेस नहीं पहुंची है। संविधान समाज की आकांक्षाओं का पिटारा होता है। यह सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करता है। जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके साथ ही सरकार व सत्ता जनमानस के लिए सुविधा प्रदायक की भूमिका में हमेषा रहे यही सुषासन की परिपाटी है। एक सरकार संविधान का सहारा लेकर उसमें निहित ताकत का प्रयोग करके स्वयं में सुषासन का समावेषन सुनिष्चित कर लेती है ऐसे में वह लोकप्रिय सत्ता का न केवल भागीदार होती है बल्कि सीमाओं और मर्यादाओं के साथ स्वयं को गतिषील बनाती है। खास यह भी है कि हमारा संविधान षीर्शस्थ मापदण्डों में अभी भी सवालों से परे है। जब भी अड़चनें आई हैं षीर्श अदालत ने संवैधानिक सम्प्रभुता को पुर्नस्थापित कर लिया है और व्यवस्थापिका से लेकर कार्यपालिका तक को समय-समय पर यह बताती रही है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। संविधान और सुषासन परस्पर एक ऐसी अन्र्तक्रिया हैं जिसके केन्द्र में मात्र और मात्र देष की जनता है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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