Friday, February 5, 2016

लोकतंत्र की चिंता में संविधान संरक्षक

भारतीय संविधान में अवरोध एवं संतुलन के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया है। इसमें शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त भी अपनाया गया है और इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि लोकतांत्रिक स्वभाव में ही सब कुछ घटित हो पर अरूणाचल प्रदेश में लगे राष्ट्रपति शासन से मामला इससे अलग दिखाई दे रहा है। अरूणाचल में राष्ट्रपति शासन लगाये जाने पर 4 फरवरी को देश की शीर्ष अदालत ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि लोकतंत्र की हत्या को वह मूकदर्शक की तरह नहीं देख सकता। जस्टिस जे.एस. केहर के नेतृत्व वाली पांच जजों की बेंच ने यह टिप्पणी उस दलील पर की जिसमें भाजपा विधायकों के वकील कह रहे थे कि अदालत राज्यपाल के निर्णय पर सुनवाई नहीं कर सकती। गौरतलब है कि आज से दो दषक पहले न्यायपालिका की सक्रियता के चलते लोकतंत्र के हिमायतियों को कई सूझबूझ मिली थी पर लगता है कि अब वह मानस पटल से मिट चुका है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अक्रर्मण्य एवं दिग्भ्रमित कार्यपालिका को उचित मार्ग पर लाने का काम न्यायपालिका बरसों से करती रही है। इतना ही नहीं आपात के दौर में तो कार्यपालिका और न्यायपालिका आमने-सामने तक थे। भारत में न्यायिक सक्रियता का विकास भी अचानक नहीं हुआ है बल्कि परिस्थितियों के अनुपात में इसे देखा जा सकता है। हालांकि इस षब्द का सृजन प्रेस द्वारा न्यायालय के लीक से हट कर लिए गए कुछ निर्णयों के आधार पर किया गया है। देखा जाए तो अरूणाचल प्रदेष के मामले में न्यायपालिका का वक्तव्य वाकई में कहीं अधिक चिंता से युक्त प्रतीत होता है। असल में अब यह बात पूरी तरह पचाना मुष्किल होता है कि लोकतंत्र के इस प्राइम टाइम में भी लोकतांत्रिक सरकारें राश्ट्रपति षासन का षिकार होती हैं।
चीन की सीमा से सटे अरूणाचल प्रदेष में गणतंत्र दिवस के दिन ही राश्ट्रपति षासन प्रभावी हुआ। संविधान के अनुच्छेद 356(1) के तहत अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन का लगाये जाने के चलते देष में एक बार फिर लोकतांत्रिक विमर्ष जोर लिए हुए है। देखा जाए तो बीते षीतकालीन सत्र के दौरान भी अरूणाचल का मुद्दा उठा था पर कांग्रेस ने हो-हल्ला करके कार्रवाई नहीं चलने दी। अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन क्यों लगाया गया इसे तफ्सील से समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करना होगा। असल में यहां संकट फरवरी, 2014 से ही कायम है तब चुनाव से कई महीने पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री नवाब तुकी ने विधानसभा भंग कर दी थी। यहां की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में 42 विधायकों के साथ कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में सफल रही पर मुख्यमंत्री का सपना देख रहे कांग्रेस के विधायक के. पुल ने अपनी ही सरकार पर वित्तीय अनियमित्ता का आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। 16 दिसम्बर, 2015 को जब देष में षीत सत्र चल रहा था तब कांग्रेस के 21 बागी विधायकों समेत भाजपा के 11 और 2 निर्दलीय के साथ एक अस्थाई जगह पर विधानसभा सत्र आयोजित किया। इसमें विधानसभा अध्यक्ष नवाब रेबिया पर महाभियोग चलाया गया। देखा जाए तो विधानसभा अध्यक्ष को लेकर महाभियोग जैसा जिक्र संविधान में है ही नहीं। फिलहाल कांग्रेस के बागी विधायकों ने नवाब तुकी के स्थान पर कैलिखो पाॅल को नेता चुना जिसके चलते स्पीकर ने इनकी सदस्यता रद्द कर दी। नवाब तुकी ने राज्यपाल को भाजपा का एजेंट होने का आरोप भी लगाया। इन तमाम झगड़ों को देखते हुए राश्ट्रपति षासन की रस्म अदायगी भी 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन पूरी कर दी गयी जिसका मामला इन दिनों सुप्रीम कोर्ट में है और पांच सदस्यों की पीठ इसकी सुनवाई कर रही है।
अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन की पूरी पटकथा के बीच कई चीजें आमने-सामने हो गयी हैं। यह पूरा घटनाक्रम अतिनाटकीय भी प्रतीत होता है। यह सही है कि लोकतंत्र ऐसी षासन व्यवस्था है जहां किसी भी घटना को न पूरी तरह सत्य और न ही असत्य करार दिया जा सकता है पर इसी लोकतंत्र में इस बात की भी गुंजाइष बनी रहती है कि राजनीतिक पार्टियां अपना हित साधने के चलते कोई संवैधानिक संकट भी खड़ा कर सकती हैं। इस मामले में केन्द्रीय गृह मंत्रालय के भी अपने स्पश्टीकरण हैं उनकी दृश्टि में चीन के खतरे को मद्देनजर रखते हुए अरूणाचल प्रदेष में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के लिए ऐसा किया गया है जो पूरी तरह गले नहीं उतरती है। बेषक अरूणाचल पर चीन की तिरछी नजरें हैं परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वहां लोकतंत्र को उजाड़ दिया जाए। इसमें भी कोई षक नहीं कि अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन सियासी लड़ाई के चलते लगा है। हो सकता है कि केन्द्र के पास इसके अलावा कोई विकल्प न रहा हो पर पूरी तरह विकल्पहीन थे इसे लेकर भी सरकार को क्लीन चिट नहीं दिया जा सकता। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि लोकतंत्र की हत्या बर्दाष्त नहीं है। सियासत और सत्ता में कई बातें अधूरी होते हुए भी पूरी प्रतीत होती हैं बावजूद इसके उस अधूरेपन के साथ भी बेफिक्री कायम रहती है। कई मुद्दे ऐसे भी होते हैं जिसमें एक दल दूसरे के बगैर सरकार होने का पूरा दावा नहीं कर सकता। षायद यह लोकतंत्र की महान परिभाशा होगी कि विरोधी के बगैर यहां सरकार भी पूरी तरह जीवित नहीं रहती है। लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि राश्ट्रपति षासन को हमेषा तिरस्कार की दृश्टि से देखा गया है और इसे उन्हीं परिस्थितियों में लगाने की बात रही है कि जब पानी सर के ऊपर चला जाये पर इस पर मनमानी भी खूब हुई है।
मोदी सरकार दो आरोपों से स्वयं को बरी नहीं कर सकती प्रथमतः यह कि राज्यपालों की बर्खास्तगी या उन्हें हटाकर अपनों को नियुक्त करने के मामले में कांग्रेस की भांति नहीं रही है, दूसरे यह कि राश्ट्रपति षासन के मामले में भी उसका रवैया कांग्रेस के मुकाबले भिन्न है बावजूद इसके इस बात से सरकार को राहत दी जा सकती है कि करीब 20 महीने के कार्यकाल में जम्मू-कष्मीर के राज्यपाल षासन समेत तीन बार ही राश्ट्रपति षासन की नौबत आई है जबकि कांग्रेस के दिनों में तो छमाही के दर पर प्रदेष राश्ट्रपति षासन के षिकार होते थे। राश्ट्रपति षासन के मामले में पूरी तरह केन्द्र को ही दोशी नहीं ठहराया जा सकता। काफी कुछ दारोमदार प्रदेष के राज्यपाल पर भी निर्भर करता है। इस बात की भी गुंजाइष अक्सर बन ही जाती है कि राज्यपाल और प्रदेष के मुख्यमंत्री के बीच तनाव व्याप्त होने से मुष्किलें बढ़ जाती हैं। अरूणाचल प्रदेष भी इससे परे नहीं था। देखें तो गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी की भी राज्यपाल से पटरी नहीं खाई है और यह टकराव तब अधिक बढ़ा था जब तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी थी। मामला अदालत तक गया और वहां पर भी सरकार को ही मुंहकी खानी पड़ी थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि राज्यपाल की नियुक्ति सरकार की सिफारिष पर राश्ट्रपति करते हैं परन्तु वह संविधान के प्रति जवाबदेह है सरकार के प्रति नहीं, पर व्यवहार में यह बात उतनी उम्दा नहीं है। नये दौर की राजनीति में राज्यपालों का भी राजनीतिकरण हुआ है ऐसे में बहस होना लाज़मी है कि सरकार के अधिकार को किस सीमा तक बर्दाष्त किया जाए। जाहिर है संविधान सभी को ताकत देता है पर ताकत का बेजा इस्तेमाल करने पर संविधान के संरक्षक की भूमिका में न्यायपालिका को आगे आना ही पड़ता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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