Saturday, February 27, 2016

आरक्षण, संविधान और सर्वोच्च न्यायलय

बीते 2 फरवरी को तमिलनाडु के कोयम्बटूर में एक रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात को पुनः दोहराया कि आरक्षण समाप्त नहीं होगा, तो इस बात का भी कयास लगाया जाने लगा कि मोदी आरक्षण जैसे संवेदनषील मुद्दे को लेकर अपनी राय देष की जनता के सामने एक बार फिर स्पश्ट करना चाहते हैं। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण के बयान के चलते सियासत काफी गरम हो चली थी। उनके द्वारा आरक्षण से सम्बन्धित दिये गये वक्तव्य को बिहार विधानसभा में भाजपा की हार से भी जोड़ा गया। इतना ही नहीं विरोधी दल इस कमजोर नब्ज़ को पकड़ते हुए मोदी को आरक्षण विरोधी कसौटी पर भी कसने का अभ्यास करते रहे हैं और आज भी जनता के बीच वे इस अभियान को चलाने से बाज नहीं आते हैं। क्या आरक्षण देष में एक समस्या है? यदि समस्या नहीं है तो सरकार और सियासत इसके प्रति इतनी गम्भीर क्यों होती है? क्या आरक्षण से ही सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ों को राहत देना मात्र ही एक विकल्प है या ऐसे वर्गों द्वारा आरक्षण के लिए वह सब कुछ करना वाजिब है जो देष के लिए नासूर बनता हो। 26 जनवरी, 1950 से लागू संविधान ऐसे तमाम उपबन्धों से प्रभावी है जिसमें स्त्रियों, बच्चों और अन्य कमजोर वर्गों के लिए अलग से सहूलियत है। इसी संविधान में सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए मौलिक अधिकार में निहित अनुच्छेद 15 और 16(4) के अन्तर्गत आरक्षण वाली सुविधा भी देखी जा सकती है।
बीते कुछ दिनों से हरियाणा आरक्षण की आग में सुलग रहा था जिसके चलते हालात बद से बद्तर हुए। हरियाणा में जो हुआ वह देष के लिए बहुत ही खौफनाक रहा। ध्यानतव्य हो कि 1990 में मण्डल आयोग की सिफारिषों को तत्कालीन प्रधानंत्री वी.पी. सिंह ने जब लागू करने का परिप्रेक्ष्य विकसित किया तब पूरे देष में ऐसे ही भयानक दृष्य देखने को मिलते थे जैसा कि इन दिनों हरियाणा में। हालांकि सबके बावजूद 1993 में ओबीसी को 27 फीसद आरक्षण दे दिया गया तब देष के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव थे। मोदी काल में राज्यवार आरक्षण की स्थिति कमोबेष कम खराब नहीं है। राजस्थान के गुर्जरों, गुजरात के पाटीदारों, आन्ध्र प्रदेष में कापू और अब हरियाणा में जाट समुदाय को आरक्षण की मांग करते हुए देखा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 15 देष के नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंष, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेद नहीं करता जबकि अनुच्छेद 16 सभी नागरिकों के नियोजन में अवसर की समानता देता है लेकिन सामाजिक न्याय तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए इन उपबन्धों का अपवाद भी निर्धारित किया गया है जो सरकार को किसी विषेश वर्ग की उन्नति के लिए विषेश उपबन्ध करने का अधिकार प्रदान करता है। इसी व्यवस्था को अक्सर आरक्षण का नाम दिया जाता है। जिसके लिए वह सब कुछ किया जाता है जो सभ्य नागरिकों की दृश्टि से कहीं से और कतई उचित नहीं है। इसी मांग के बीच में संविधान को ताक पर रख कर जो सियासत गरम की जाती है वह भी दांतों तले उंगली दबाने वाली होती है। हरियाणा इसका पुख्ता सबूत है। हरियाणा में आरक्षण के नाम पर संविधान के साथ भी अन्याय किया गया है। सरकारी सम्पत्तियों को स्वाहा किया गया। इसमें सियासतदान संदेह के घेरे में है। देष की षीर्श अदालत ने अब नुकसान की भरपाई के लिए अपना रूख कड़ा कर लिया है।
आर्थिक नुकसान की तीव्रता को देखते हुए मांग की जा रही है कि सरकार सम्पत्ति नुकसान रोकथाम कानून 1984 में बिना देरी किये संषोधन करे। सर्वोच्च न्यायालय की पहल भी बाकायदा इस दिषा में देखी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी यह है कि हरियाणा में हुए जाट आंदोलन के दौरान हिंसक प्रदर्षन और लूटपाट की घटनाओं को लेकर सख्ती दिखाई है, कहा है कि राश्ट्र की सम्पत्ति को हुए नुकसान की भरपाई आंदोलनकारियों और राजनीतिक दलों से ही की जानी चाहिए। फिलहाल षीर्श अदालत की चिंता को विस्तार दिया जाए तो कुछ इस प्रकार दिखाई देती है। तोड़-फोड़ को लेकर हाई कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर जांच करे और मुआवजा भी तय करे। यदि मामला एक से अधिक राज्यों का हुआ तो इसका संज्ञान सर्वोच्च अदालत स्वयं लेगी। इसके अलावा उच्चतम या उच्च न्यायालय के सेवारत् या सेवानिवृत्त ‘क्लेम कमिष्नर‘ नियुक्त होंगे जो नुकसान का आंकलन करेंगे। जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय होगी साथ ही नुकसान की भरपाई नुकसान पहुंचाने वालों से ही की जायेगी जो नुकसान से दोगुनी नहीं होगी साथ ही आपराधिक कार्रवाई चलती रहेगी। हालांकि 2009 में आंदोलनकारियों और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान पर षीर्श अदालत ने पहले भी कड़े निर्देष दिये थे। औद्योगिक संगठन पीएचडी चैम्बर आॅफ काॅमर्स एण्ड इंडस्ट्री यह दर्षाते हैं कि देष में जाट आंदोलन के चलते 34 हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इस आंदोलन के कारण पर्यटन सेवा, यातायात सेवा मुख्यतः रेल और सड़क परिवहन व वित्तीय सेवा को 18 हजार करोड़ का नुकसान सहना पड़ा। कृशि कारोबार के साथ मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली निर्माण कार्य सहित खाद्य पदार्थों के कारोबार में होने वाला नुकसान 12 हजार करोड़ का है। अनुमान तो यह भी है कि सड़क, रेस्टोरेंट, रेलवे स्टैण्ड व अन्य की तोड़-फोड़ के चलते 4 हजार करोड़ का नुकसान किया गया है। इस भारी-भरकम नुकसान के चलते देष की बुनियादी ढांचे को जो चोट पहुंची है उसकी वापसी तो होनी ही चाहिए।
आरक्षण की मांग मनवाने के लिए जो मनमाना तरीका अपनाया जाता है और जिस प्रकार हिंसा के साथ सम्पत्तियों को नश्ट किया जाता है वह सब तो कश्टकारी है ही पर इस बार हरियाणा में दस महिलाओं का इसी दौरान दुश्कर्म भी हुआ जो पूरी व्यवस्था को षर्मसार करने के लिए काफी है। कई बुनियादी सवाल आरक्षण को लेकर हैं। पहला तो यह कि आरक्षण मनमानी नहीं हो सकता इसके पीछे वजह यह है कि 1963 में बालाजी बनाम मैसूर राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 50 फीसदी की सीमा निर्धारित की इसी के मद्देनजर मण्डल कमीषन की 1978 की सिफारिष के तहत 1993 में 27 फीसदी आरक्षण दिया गया। दूसरा यह कि असाधारण परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी स्थिति में इस प्रतिषत को नहीं बढ़ाया जा सकता। हालांकि तमिलनाडु में 69 प्रतिषत, महाराश्ट्र में 52 फीसदी आरक्षण देखा जा सकता है। सवाल है कि अगर सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में जाट समुदाय को षामिल करती है तो ओबीसी के लिए मौजूदा 27 फीसद में क्या विस्तार नहीं होगा या उन्हें मात्र ओबीसी में समावेषित किया जाएगा, चित्र स्पश्ट नहीं है। किसी भी समाज या राश्ट्र के लिए अनिवार्य है कि पिछड़े और वंचित का उत्थान किया जाए तभी लोकतंत्र का आदर्ष स्वरूप सम्भव है पर उत्थान की मांग को लेकर देष की सम्पत्ति को स्वाहा किया जाए ये कहां का गौरव है। आरक्षण की अपनी सीमा है, संविधान की भी अपनी गरिमा है और सर्वोच्च न्यायालय की इस देष में कहीं अधिक बड़ी बारीक जिम्मेदारी भी है। जो चिंता आरक्षण को लेकर और उससे हुए नुकसान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिखाई है उसे सराहा जाना तो जरूरी है ही साथ ही संविधान में निहित उपबन्धों को भी उकेर कर देखा जाए कि आरक्षण को लेकर कहां, कितनी गुंजाइष है। सबके बावजूद इस बात पर लगाम जरूर हो कि आरक्षण मांग के बहाने देष में अनाप-षनाप का अवसर नहीं किसी को नहीं है।



सुशील कुमार सिंह

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