Friday, February 19, 2016

जेएनयू मामले में कांग्रेस का सिद्धांत और व्यवहार

लोकतंत्र केवल षासन का ही रूप नहीं बल्कि व्यक्ति के आत्मविकास का भी साधन है। पर इसी लोकतंत्र की आड़ में ऐसी क्रियाओं का उत्पादन होने लगे जो इसके अस्तित्व के लिए ही चुनौती हो तब क्या होगा? समकालीन लोकतंत्र का एक प्रमुख सिद्धान्त ‘विमर्षीय लोकतंत्र‘ भी है इसका अभिप्राय ‘चर्चा की स्वतंत्रता‘ है। मगर इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी है कि वह व्यक्ति की तुलना में समूह पर बल देता है। कहीं-कहीं समूह में नेतृत्व की भावना का उदय हो जाता है। इतना ही नहीं इस प्रकार के लोकतंत्र में विषिश्ट वर्ग का प्रभाव किसी न किसी रूप में जुड़ जाता है इन्हीं प्रभावों के चलते यह अपने असल मार्ग से भटक भी सकता है। जेएनयू प्रकरण की वर्तमान वास्तुस्थिति इसी प्रकार के तथाकथित संदर्भों से निहित प्रतीत होती है। बीते 9 फरवरी को जेएनयू में इसी चर्चा की स्वतंत्रता के चक्कर में कब संविधान की मर्यादा तार-तार हो गयी किसी को इसका ध्यान ही नहीं रहा। जितनी भी लानत-मलानत देष को लेकर हो सकती थी वह सब यहां थोक के भाव देखा जा सकता है। पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे से लेकर भारत तेरे होंगे टुकड़े-टुकड़े की गूंज के साथ कष्मीर की आजादी और आतंकी अफज़ल गुरू की हिमायत वाली करतूत भी यहां देखी जा सकती है। समस्या तब और बढ़ जाती है जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ऐसे वक्तव्यों को अभिव्यक्ति की आजादी कहते हुए सियासी रंग देते हुए जाने-अनजाने इसका समर्थन कर देते हैं साथ ही प्रधानमंत्री मोदी पर यह आरोप मढ़ना कि मोदी सरकार जेएनयू जैसे संस्थान पर अपनी धौंस जमा रही है जो पूरी तरह निंदनीय है।
लोकतंत्र की एक मूल मान्यता और आधार तत्व ‘न्याय‘ है जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय पर बल दिया जाता है। इसके अलावा भी कई अच्छे मानकों से लोकतंत्र भरा पड़ा है पर इसके साथ अन्याय करने वालों की भी कमी नहीं है। कई इस बात का दम भरते हैं कि वे करोड़ों की आवाज है जबकि यह पूरा सच नहीं है परन्तु यह तब तक मुगालते में रहते हैं जब तक जनता का सामना नहीं होता। भारत में प्रति पांच वर्श की दर पर चुनाव होते हैं तब पता चलता है कि ये कितनों की आवाज हैं। मई 2014 के 16वीं लोकसभा के नतीजे इस बात का समर्थन करते हैं कि फिलहाल कांग्रेस मात्र मुट्ठी भर लोगों की आवाज बन कर रह गयी है जबकि वामपंथ तो सिर्फ भारतीय राजनीति में सांस लेने का काम कर रहा है परन्तु जो भारी-भरकम आवाज के साथ देष में स्वीकार्य बहुमत की सरकार में है वही लोग उसे आवाज दबाने वाला बता रहे हैं। राजनीति इस बात के लिए भी रोचक कही जायेगी कि विरोधी कमतर होने के बावजूद सरकार को अधिकतम मानने की भूल नहीं करते। हद तो तब हो जाती है जब विरोध करने वाले विरोधी धर्म ही भूल जाते हैं। भारत इन दिनों ‘राइट-लेफ्ट‘ के चक्कर में भी फंस गया है। मोदी सरकार के अलावा सारे राजनीतिक दल विरोध की राजनीति करेंगे इसे सब समझते हैं पर राश्ट्रीय एकता और अखण्डता के सवाल पर भी यह विरोध कायम रहेगा इसे षायद ही कोई उचित ठहराये। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि औपनिवेषिक काल के उन दिनों में भी वामपंथी विचारधारा का इनसे कोई मेल-मिलाप नहीं था। उस जमाने में भी मामला ‘राइट-लेफ्ट‘ ही था। 70 साल के आजादी के इतिहास के बाद भी अभी यह बात झुठलाई नहीं गई है परन्तु एक बार 2004 में 14वीं लोकसभा के समय वामपंथ के समर्थन से कांग्रेस ने सरकार हांकी थी पर खामियाजा क्या हुआ, न्यूक्लियर मामले में समर्थन वापसी के चलते सरकार मायावती और मुलायम की वजह से पटरी से उतरते-उतरते बची थी। तब से लेकर अब तक कांग्रेस और वामपंथ दो किनारे की तरह ही रहे हैं पर जेएनयू प्रकरण के चलते इनको एक बार फिर एक साथ होने का मौका मिला है।
भारत के वर्तमान सियासी परिप्रेक्ष्य को देखते हुए क्या यह समझा जाना चाहिए कि इन दिनों कांग्रेस और वामपंथ विरोधी धर्म निभा रहे हैं या यह समझना चाहिए कि मोदी सरकार के विरोध के लिए गैर वाजिब को लेकर सुर मिला रहे हैं। इतनी सरल सी बात क्यों समझने में गलती हो रही है और वह गलती कांग्रेस के हिस्से में सर्वाधिक है, यह कि संविधान की प्रस्तावना में लिखित ‘राश्ट्रीय एकता और अखण्डता‘ और मूल अधिकार में निहित अनुच्छेद 19(1)क के तहत मिली ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता‘ की भी अपनी सीमाएं और मर्यादाएं हैं इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि कुछ भी बोल कर इन प्रावधानों के तहत स्वयं को सही ठहरा देंगे। जेएनयू में जो हुआ वह संविधान की मर्यादा को तो तार-तार करता ही है, देष की कानून व्यवस्था के लिए भी बहुत बड़ा खतरा है। गुटों में बंटे छात्र जिस कदर आमने-सामने हैं वह भी चिन्ता का विशय है साथ ही देष के अन्य विष्वविद्यालय भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। माना कि षिक्षा हस्तांतरण के साथ विष्वविद्यालय नेतृत्व और कौषल विकास के जरिया भी हैं पर यह कैसा कौषल विकास जो देष के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। जेएनयू में हुई देष विरोधी घटना को सिरे से नकारना चाहिए और जो न्यायोचित हो उस पर अमल करना चाहिए। कांग्रेस इस मामले में एक अच्छा रास्ता अख्तियार कर सकती थी पर दुर्भाग्य से वह ऐसी चूक कर गई जिसमें उसकी सियासत तो गरम हो गयी पर जो वातावरण बना षायद उसे वो भी नहीं चाहती रही होगी। रही बात सरकार की तो सरकार ने जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके क्या कोई गलत कदम उठाया है, इसका भी खुलासा बाद में हो जायेगा पर जिस प्रकार कांग्रेस देष को कन्फ्यूज़ करने की कोषिष कर रही है उसे कहीं से जायज़ कैसे करार दिया जा सकता है। जेएनयू में दिये बयान के चलते राहुल गांधी पर इलाहाबाद के एक न्यायालय ने कई धाराओं में मुकद्मा दर्ज करने का आदेष भी दिया है।
फिलहाल देखा जाए तो कांग्रेस सर्वाधिक पुरानी पार्टी है पर 65 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में 12 वर्श ही विरोध की भूमिका में रही है और 16वीं लोकसभा में तो विरोध भी मान्यता प्राप्त नहीं है। यह भी देखा गया है कि विगत् 20 महीनों से कांग्रेस मोदी सरकार को हर छोटे-बड़े मसले में संसद से लेकर सड़क तक  घेरती रही है। यही घेरने वाली आदत के चलते जेएनयू जैसे संवेदनषील मुद्दे पर भी राहुल गांधी ने ऐसा वक्तव्य दे दिया जिससे देष दो विचारों में बंटता दिखाई दे रहा है। सिद्धान्त और व्यवहार की दृश्टि से कांग्रेस को समय के साथ रूख बदल लेना चाहिए और देष की एकता और अखण्डता के मामले में बिना किसी पक्ष और प्रतिपक्ष के एक सुर में खड़े होने चाहिए। राहुल गांधी का छात्रों की गिरफ्तारी को गलत बताने का विचार आना समझा जा सकता है पर यह कहना कि ‘सबको अपनी बात कहने का हक‘ है, इसलिए समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि देष को तोड़ने वाली बातें किस ढांचे के अन्तर्गत हकदारी में आती हैं। उनके द्वारा यह भी कहना कि ‘आवाज दबाने वाला देषद्रोही‘ है, बेषक आवाज नहीं दबाई जानी चाहिए पर क्या अफज़ल गुरू के समर्थन में और कष्मीर की आजादी की आवाज़ को भी नहीं दबाना चाहिए? फिलहाल देष में विधि व्यवस्था से पूर्ण न्यायपालिका है जो निरपेक्ष है जिस पर सभी का भरोसा है समय आने पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

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