Thursday, February 11, 2016

राज्यपाल को राष्ट्रपति और शीर्ष अदालत की दो टूक

बहुधा ऐसा कम ही रहा है कि जब राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल को संविधान की गरिमा बनाये रखने की नसीहत दी गई हो। हालांकि राज्यपाल के सम्मेलनों में इस प्रकार की औपचारिक बातचीत अक्सर होती रही है पर इस बार के सम्मेलन में बात कुछ अलग थी। बीते दिनों राज्यपालों के दो दिवसीय सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा कि देष ने आजादी के बाद निरंतर मजबूती हासिल की है और ऐसा संविधान के अनुपालन की दृढ़ता के चलते सम्भव हुआ है। यहां पर राश्ट्रपति की टिप्पणी भले ही अतिरिक्त सौम्यता लिए हुए हो पर अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन लागू करने के क्रम में राज्यपाल की भूमिका पर इसे एक सवालिया निषान के रूप में देखा जा रहा है। असल में बीते 26 जनवरी से अरूणाचल प्रदेष राश्ट्रपति षासन का षिकार है और मामला सर्वोच्च न्यायालय गया। इसी मामले की सुनवाई करते हुए बीते 8 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने अरूणाचल प्रदेष के राज्यपाल जे.पी राजखोवा पर टिप्पणी की जिसमें अदालत ने कहा कि राज्यपाल राज्य विधानसभा का सत्र अपनी मर्जी से नहीं बुला सकते हैं साथ ही यह भी कहा कि स्पीकर को हटाये जाने के बाद सदन की कार्रवाई का प्रभार डिप्टी स्पीकर के हाथों में होने के वक्त यदि विधानसभा में तुकी सरकार के विरोध में अविष्वास प्रस्ताव पारित होता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। एक ओर राश्ट्रपति द्वारा राज्यपालों को दिया जाने वाला नसीहत तो दूसरी ओर अदालत की इस खरी-खरी के चलते एक बार देष भर के राज्यपालों में संविधान के प्रति नई आस्था का मापदण्ड जरूर विकसित हुआ होगा। इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय के इस कथन के आलोक में यह भी साफ होता है कि अरूणाचल प्रदेष में सियासी आबोहवा के बीच संविधान के मूल भावना को चोट पहुंचाई गयी है। उक्त परिप्रेक्ष्य में राश्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की चिंता को इसलिए भी वाजिब करार दिया जायेगा क्योंकि एक संविधान संरक्षक है तो दूसरा संविधान के साथ हुए उचित-अनुचित क्रियाकलाप को लेकर व्याख्या और विषदीकरण करता है।
देखा जाए तो भारतीय संविधान में अवरोध एवं संतुलन के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया है। इसमें षक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त भी अपनाया गया है और इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि लोकतांत्रिक स्वभाव में ही सब कुछ घटित हो पर अरूणाचल प्रदेष में लगे राश्ट्रपति षासन से मामला इससे अलग दिखाई दे रहा है। इसको लेकर पहले भी 4 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र की हत्या को वह मूकदर्षक की तरह नहीं देख सकता। जस्टिस जे.एस. केहर के नेतृत्व वाली पांच जजों की बेंच ने यह टिप्पणी उस दलील पर की जिसमें भाजपा विधायकों के वकील कह रहे थे कि अदालत राज्यपाल के निर्णय पर सुनवाई नहीं कर सकती। गौरतलब है कि आज से दो दषक पहले न्यायपालिका की सक्रियता के चलते लोकतंत्र के हिमायतियों को कई सूझबूझ मिली थी पर लगता है कि अब वह मानस पटल से मिट चुका है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अक्रर्मण्य एवं दिग्भ्रमित कार्यपालिका को उचित मार्ग पर लाने का काम न्यायपालिका बरसों से करती रही है।
संविधान के अनुच्छेद 356(1) के तहत अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन का लगाये जाने के चलते देष में एक बार फिर लोकतांत्रिक विमर्ष जोर लिए हुए है। देखा जाए तो बीते षीतकालीन सत्र के दौरान भी अरूणाचल का मुद्दा उठा था पर कांग्रेस ने हो-हल्ला करके कार्रवाई नहीं चलने दी। अरूणाचल में राश्ट्रपति षासन क्यों लगाया गया इसे तफ्सील से समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करना होगा। असल में यहां संकट फरवरी, 2014 से ही कायम है तब चुनाव से कई महीने पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री नवाब तुकी ने विधानसभा भंग कर दी थी। यहां की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में 42 विधायकों के साथ कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में सफल रही पर मुख्यमंत्री का सपना देख रहे कांग्रेस के विधायक के. पुल ने अपनी ही सरकार पर वित्तीय अनियमित्ता का आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। 16 दिसम्बर, 2015 को जब देष में षीत सत्र चल रहा था तब कांग्रेस के 21 बागी विधायकों समेत भाजपा के 11 और 2 निर्दलीय के साथ एक अस्थाई जगह पर विधानसभा सत्र आयोजित किया गया। इसमें विधानसभा अध्यक्ष नवाब रेबिया पर महाभियोग चलाया गया। देखा जाए तो विधानसभा अध्यक्ष को लेकर महाभियोग जैसा जिक्र संविधान में है ही नहीं। फिलहाल कांग्रेस के बागी विधायकों ने नवाब तुकी के स्थान पर कैलिखो पाॅल को नेता चुना जिसके चलते स्पीकर ने इनकी सदस्यता रद्द कर दी। नवाब तुकी ने राज्यपाल को भाजपा का एजेंट होने का आरोप भी लगाया। इन तमाम झगड़ों को देखते हुए राश्ट्रपति षासन की रस्म अदायगी भी 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन पूरी कर दी गयी।
अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन की पूरी पटकथा के बीच कई चीजें आमने-सामने हो गयी हैं।  केन्द्रीय गृह मंत्रालय के भी अपने स्पश्टीकरण हैं उनकी दृश्टि में चीन के खतरे को मद्देनजर रखते हुए अरूणाचल प्रदेष में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी था जो पूरी तरह गले नहीं उतरती है। बेषक अरूणाचल पर चीन की तिरछी नजरें हैं परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वहां लोकतंत्र को उजाड़ दिया जाए। हो सकता है कि केन्द्र के पास इसके अलावा कोई विकल्प न रहा हो पर पूरी तरह विकल्पहीन थे इसे लेकर भी सरकार को क्लीन चिट नहीं दिया जा सकता। लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि राश्ट्रपति षासन को हमेषा तिरस्कार की दृश्टि से देखा गया है और इसे उन्हीं परिस्थितियों में लगाने की बात रही है कि जब पानी सर के ऊपर चला जाये पर इस पर मनमानी भी खूब हुई है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि राज्यपाल की नियुक्ति सरकार की सिफारिष पर राश्ट्रपति करते हैं परन्तु वह संविधान के प्रति जवाबदेह है न कि सरकार के प्रति। हालांकि 1967 से ही राज्यपालों के स्वविवेकीकरण में अमूल-चूल परिवर्तन देखा जा सकता है पर संविधान में अपनी मर्जी चलाने की गुंजाइष इन्हें नहीं है। इसी चूक के चलते देष की षीर्श अदालत ने न केवल राज्यपाल पर तल्ख टिप्पणी की बल्कि राश्ट्र के मुखिया ने भी इन्हें सजग होने का मषवरा दिया।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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