Tuesday, February 2, 2016

किस मोड़ पर जम्मू-कश्मीर की सत्ता और सियासत

सत्ता और सियासत में सौदेबाजी का सहःमिलन लोकतंत्र में एक ऐसी अनचाही वास्तविकता रही है जिसे कोई भी सियासतदान षिद्दत से स्वीकार नहीं करेगा। इन दिनों जम्मू-कष्मीर कुछ इसी प्रकार के दौर से गुजर रहा है। असल में 10 महीने पुरानी पीडीपी और भाजपा गठबंधन की सरकार का तब अवसान हुआ था जब बीते 7 जनवरी को वहां के मुख्यमंत्री के पद पर कार्यरत मुफ्ती मोहम्मद सईद का असमय निधन हुआ तभी से यहां न केवल सियासत सुर्खियों में रही बल्कि सत्ता की बनावट भी सस्पेंस लिए हुए है। इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सत्ता के ध्रुवीकरण में व्यक्ति विषेश का बड़ा महत्व होता है और यह तब अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब दो अलग-अलग विचारधारा के दल आपस में एक होकर सरकार चलाने की इच्छा रखते हों। करीब एक महीने के सरकार विहीन जम्मू-कष्मीर में कई उतार-चढ़ाव देखे जा सकते हैं। सरकार गठन की प्रक्रिया को बाधित होते देख 9 जनवरी से जम्मू-कष्मीर राज्यपाल षासन के अधीन आया। राज्यपाल एन.एन. बोहरा की सिफारिष और गृहमंत्री की अनुषंसा देखते हुए राश्ट्रपति ने इसकी अनुमति दे दी। तब कारण बताया गया कि मुख्यमंत्री की दावेदार पीडीपी की नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती षोकाकुल होने के कारण कुछ दिनों तक षपथ नहीं लेना चाहती पर सियासी संदर्भ यह भी उभरा कि पीडीपी और भाजपा पूर्व की षर्तों में हेरफेर करना चाहते हैं। भाजपा चाहती है कि बारी-बारी से दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री बनें साथ ही अधिक महत्वपूर्ण विभाग उनको मिले जबकि महबूबा मुफ्ती उप-मुख्यमंत्री के पद को मना करने और रोटेषन में सीएम जैसी बातें नहीं चाहती हैं। इतना ही नहीं संवेदनषील मुद्दों पर भाजपा चुप रहे साथ ही राज्य को अधिक केन्द्रीय सहायता दी जाए जैसी तमाम इच्छाएं रही हैं।
देखा जाए तो जो विचारधारा मुफ्ती मोहम्मद सईद की भाजपा के साथ थी वैसी ही महबूबा की भी रहेगी इसके आसार कम ही हैं जो समझौते पहले के थे उन पर नये सिरे से कोषिष करना इसका पुख्ता सबूत है। बावजूद इसके भाजपा और पीडीपी इन दिनों सरकार बनाने के पेषोपेष से बाहर नहीं हैं। पीडीपी को यह डर जरूर होगा कि घाटी की रैयत के साथ यदि कोई अनहोनी हुई तो इसकी जिम्मेदारी कहीं उस पर न आ जाये जबकि भाजपा जो पहली बार यहां सत्ता तक पहुंची है वह भी कोई जोखिम नहीं लेना चाहेगी। साफ है सरकार बनाने की मजबूरी से दोनों परे नहीं है। संकेत तो यह भी था कि एक सप्ताह के षोक के बाद कभी भी षपथ हो सकती है पर मामला खटाई में ही रहा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जम्मू-कष्मीर में सईद का असमय निधन होना घाटी के लिए एक राजनीतिक दुर्घटना भी थी। फिलहाल इस बात को भी समझना ठीक होगा कि गठबंधन में मौजूदा परिस्थितियां ही अधिक प्रभावी होती हैं। भाजपा जानती है कि पीडीपी की तुलना में वह महज तीन सीट ही पीछे है। सईद की सीट हटा दें तो यह आंकड़ा दो का ही बचता है पर यहां झगड़ा सीटों के अन्तर का नहीं वरन् अतिमहत्वाकांक्षा का है। मुख्यमंत्री पद की दावेदार महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि सईद ने इस उम्मीद में बीजेपी के साथ गठजोड़ करने का एक साहसिक पर अलोकप्रिय फैसला किया था कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी जम्मू-कष्मीर के राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों को हल करने के लिए निर्णायक उपाय सिद्ध होंगे। महबूबा मुफ्ती का उक्त कथन यह दर्षाता है कि घाटी में सरकार की सूरत में केन्द्र को वे सौदेबाजी के केन्द्र में रखना चाहती हैं। असल में पीडीपी राज्य की स्थानीय दल है उसकी अपनी कुछ मजबूरियां हैं पर उन्हें यह भी समझना होगा कि यदि वे अपनी राजनीतिक प्रवृत्तियों को लेकर अतिरिक्त स्थूल बनी रहेंगी तो गठबंधन की परिभाशा में भी कैसे बनी रहेंगी?
महबूबा मुफ्ती का इस ओर संकेत करना कि अगर बीजेपी गठबंधन के एजेण्डे को पूरा नहीं करती है तो वे दोबारा राज्य में चुनाव में जाने से नहीं हिचकेंगी। सवाल है कि यदि संकेत सही साबित होते है तो जम्मू-कष्मीर की सियासत का परिदृष्य क्या होगा? पीडीपी भले ही घाटी की स्थानीय पार्टी हो और वहां पर अच्छा खासा रसूख रखती हो पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा भी सीटों के मामले में तुलनात्मक बहुत पीछे नहीं है। यहां तक की प्रधानमंत्री मोदी जम्मू-कष्मीर में करीब आधा दर्जन दौरा कर चुके हैं। कई केन्द्रीय मंत्रियों का राज्य में आना-जाना लगा रहता है। इतना ही नहीं जब घाटी अक्टूबर 2014 में भीशण बाढ़ की चपेट में थी तब केन्द्र की मोदी सरकार ने राहत और बचाव के लिए पूरी कूबत झोंक दी थी। इस बात से भी वहां के लोग अनजान नहीं हैं। जिस वायदे और इरादे के साथ भाजपा ने जम्मू-कष्मीर में जबरदस्त एन्ट्री की है उसे भी कमतर नहीं आंका जा सकता है। यदि मेलजोल और सियासती सौदेबाजी से सरकार बनाने का रास्ता साफ होता है तो इसमें भला दोनों का ही है परन्तु यदि ऐसा न हुआ तो नुकसान और फायदे के सस्पेंस में दोनों रहेंगे। अक्सर गठबंधन की सत्ताओं में महत्वाकांक्षी अवधारणाओं का घालमेल हमेषा से रहा है जिसके चलते सियासत बनती और बिगड़ती रही है। वर्तमान में जम्मू-कष्मीर इसी दौर से गुजर रहा है। षोकाकुल महबूबा मुफ्ती से बीते 10 जनवरी को कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी मुलाकात की थी हांलाकि इसका कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है पर जब दो सियासतदान मिलते हैं तो निहितार्थ ढूंढने की कोषिष की ही जाती है। ध्यान्तव्य है कि 2002 से 2008 के बीच कांग्रेस पीडीपी की सरकार राज्य में रही है।
फिलहाल जम्मू-कष्मीर में सरकार गठन को लेकर पीडीपी अपने रूख पर अड़ी हुई है। महबूबा मुफ्ती भाजपा से यह ठोस आष्वासन चाहती हैं कि उनके पिता की विचारधारा का अनुसरण किया जाए पर उन्हें भी यह समझना होगा कि गठबन्धन का धर्म निभाने के लिए एकतरफा जिद् का बहुत महत्व नहीं होता। समय और काल के अनुपात में गठबंधन के धर्म और कर्म दोनों जगह से खिसके हैं और खिसकते रहें हैं और आगे भी ऐसी सम्भावना बनी रहेगी इसलिए जिद् का नहीं बीच का रास्ता सियासत के स्वास्थ्य के लिए बेहतर होता है। सबके बावजूद भाजपा को भी यह समझना होगा कि जिस उम्मीद से जम्मू-कष्मीर ने उन्हें हैसियत प्रदान की है उसकी सुरक्षा करने का दायित्व निभायें। दूरदृश्टि का अनुपालन करते हुए एक सकारात्मक मापदाण्ड की लकीर खींचे ताकि राज्य में हुई राजनीतिक दुर्घटना को मरम्मत करके पुनः पटरी पर लाया जा सके। फिलहाल इस संषय से अभी पूरी तरह बाहर निकलना मुष्किल प्रतीत होता है। जिस कदर राज्य में सरकार बनाने को लेकर सौदेबाजी अभी थमी नहीं है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि सरकार बनाने की जल्दबाजी में न ही पीडीपी है और न ही भाजपा। फिर भी यदि नेक नियति के साथ यहां की सियासती धुंध छंटती है तो भाजपा-पीडीपी स्वयं के साथ लोकतंत्र को भी फायदा पहुंचाने के लिए जाने और समझें जाएंगे।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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