Saturday, February 13, 2016

सामाजिक मान्यता की होड़ में ‘वैलेंटाइन डे‘

प्रत्येक फरवरी माह की 14 तारीख में दृश्यमान होने वाले ‘वैलेंटाइन डे‘ के विकास को एक सघन विपणन का प्रयास माना जाए तो षायद सभी सहमत नहीं होंगे पर सच्चाई यह है कि कुछ एषियाई देषों में इसे इसी रूप में देखा गया है मसलन सिंगापुर, चीन और कोरिया सहित कई देष ‘वेलेंटाइन डे‘ पर सबसे अधिक पैसा खर्च करते हैं। अब यह चलन अन्य महाद्वीपों में भी प्रसार ले चुका है। वर्श 1992 के आस-पास ‘वैलेंटाइन डे‘ को लेकर भारत में भी बाजार सजग होने लगे थे। यही दौर उदारीकरण का भी था और इसी दरमियान ‘वैलेंटाइन डे काडर््स‘ का प्रचलन षुरू हुआ। भारतीय बुद्धिजीवी इस दिन की लोकप्रियता के लिए पाष्चात्य साम्राज्यवादी षक्तियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनकी राय है कि इस दिन के सहारे वे हमारे बाजार में अपना माल खपाना चाहते हैं जबकि कईयों का मानना है कि यह प्रेम का पर्व नहीं वरन् संस्कारों के अवमूल्यन का दिन है। भारत में ‘वैलेंटाइन डे‘ को लेकर राय हमेषा से बंटी हुई देखी जा सकती है। कई संगठन इसके विरोध में इस कदर आगे बढ़ जाते हैं कि कानून व्यवस्था से लेकर मानवीय पहलू को भी दागदार करने से गुरेज नहीं करते। दो टूक यह भी है कि वैलेंटाइन डे की षनैः षनैः अपनी एक सामाजिक मान्यता हो गयी है। यह युवाओं के त्यौहार से बाहर निकलते हुए सभी वर्गों में काफी हद तक पैठ बनाने में सफल भी हुआ है। यह सच है कि कमोबेष इस दिन को ‘प्रेम दिवस‘ के तौर पर जाना समझा जाता है और इससे बड़ी सच्चाई यह भी है कि प्रेम के बिना जीवन की कल्पना नहीं हो सकती पर प्रेम के असल अर्थ और व्याख्या को लेकर सभी के अपने-अपने विमर्ष हैं।
फ्रांस में माना जाता है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ कार्ड देने की परम्परा यहीं से षुरू हुई थी जब 1415 में ड्यूक आॅफ आॅरलिंस चाल्र्स ने अपनी पे्रयसी को पत्र भेजा था। मुम्बई में ‘वैलेंटाइन डे‘ पर फूल, चाॅकलेट और उपहार देने की परम्परा के साथ इजहार की भावना देखी जा सकती है पर बाल ठाकरे के समय से ही षिवसेना द्वारा विरोध सर्वाधिक यहीं हुए हैं। ईरान में इस दिन मां और पत्नी के प्रति प्रेम दर्षाया जाता है विषेशतः बच्चे अपनी मां को उपहार और फूल देकर आभार व्यक्त करते हैं। दक्षिण कोरिया में इस दिन छुट्टी होती है और महिलाएं अपने पति को उपहार देतीं हैं, जापान में भी कुछ ऐसा ही चलन है। जापान में 1936 से ही चाॅकलेट देने का ट्रेंड है। फिलीपींस में इस दिन हजारों सामूहिक विवाह होते हैं। बीते वर्श 2000 षादियां एक साथ हुईं थीं। फिनलैण्ड में इस दिन को दोस्ती के लिए माना जाता है जबकि इटली में ‘वैलेंटाइन डे‘ को बसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। ऐसे दिनों में कवि महोत्सव से लेकर कई रचनात्मक आयोजन भी कई देष करते हैं। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ वैष्विक जगत में कई प्रारूपों में प्रसार लिए हुए है।  
नव संस्कृतिवाद के दौर में नवाचार और नव स्फूर्ति का उदयीमान होना कोई नई बात नहीं है। भारतीय समाज और संस्कृति में बरसों से इसी भांति नयापन महसूस किया जाता रहा है। प्राचीन काल से लेकर 21वीं सदी के इस दौर तक कई विमर्ष के चलते समाज परिमार्जित भी हुआ। कई विवेचनाओं ने नये आयामों को इसी संस्कृति में रचने-बसने का अवसर भी दिया जिसमें ‘वैलेंटाइन डे‘ जैसे दिवस भी षामिल हैं। इस तथ्य को षायद ही कोई झुठलाये कि समाज में वैचारिक भेद हमेषा से कायम रहे हैं। इसे भी नजरअंदाज करना मुष्किल होगा कि एक विचार दूसरे के लिए कहीं न कहीं पूरक का काम भी करते रहे हैं। इन्हीं विचारों की आपाधापी में सभ्यता और संस्कृति का सुगम पथ भी समय के साथ सपाट होते रहे। हिन्दू काल से मुस्लिम काल तत्पष्चात् इसाई काल के बीच भारतीय संस्कृति न जाने कितनी बार उथल-पुथल का सामना किया पर इस सच को सभी समझेंगे की बावजूद इसके यह संस्कृति भावनाविहीन कभी नहीं रही। क्या भावना से युक्त हमारी भारतीय संस्कृति हमारी बड़ी ताकत नहीं है? कई बार पष्चिमी देषों की नकल करते-करते अपनी संस्कृति के साथ ऊंच-नीच कर बैठते हैं मगर क्या वैलेंटाइन डे के साथ भी ऐसी ही बातें हैं। कदाचित ऐसा नहीं है क्योंकि इस दिवस के इतिहास और समाजषास्त्र में ऐसी कोई ऐंठन नहीं दिखाई देती जहां से कुछ भरभराने का जोखिम हो। देखा जाए तो इसमें बेहिसाब भावना के साथ चाहत के लक्षण निहित हैं।
भारत की ग्रामीण व्यवस्थाएं संयुक्त परिवारों में रचती-बसती थी कमोबेष यह स्थिति अभी भी दुर्लभ ही सही पर कायम है जहां रिष्तों की तरावट और प्रेम की गर्माहट व्यापक पैमाने पर व्याप्त रहती थी। समय बदला, परिस्थितियां बदलीं तथा समाज भी बदल गया। आधुनिकीकरण व षहरीकरण ने संयुक्त परिवारों को कब छिन्न-भिन्न कर दिया इसका एहसास ही नहीं हुआ। नगरों एवं महानगरों में विस्थापित लोग एकल परिवार के रचनाकार बन गये और मोहताज हुए तो उसी भावना का जिसका दोहन वे बिना मूल्य चुकाये संयुक्त परिवार से प्राप्त करते रहे। पूरी तरह तो नहीं पर यह सच है कि ‘वैलेंटाइन डे‘ की मान्यता और महत्व की बढ़त में कुछ हद तक एकांगीपन भी जिम्मेदार है। ‘वेलेंटाइन डे‘ की मान्यता को लेकर सामाजिक मनोविज्ञान को भी कारक के रूप में देखा जा सकता है। टीवी चैनलों और अखबारों में ‘वैलेंटाइन डे‘ की खबरें नब्बे के दषक में षुरू हुई थी। धीरे-धीरे फिल्मों के माध्यम से इसके प्रति संचेतना से भरा बड़ा खेमा तैयार हुआ। स्कूल और काॅलेजों में ये षुरूआती पहल के रूप में आया और आज के दौर में अब यह प्रत्येक स्थानों पर प्रसार लिए हुए है। चलो मान लेते हैं कि विलायती प्रेम दिवस को भारत में अपसंस्कृति के तौर पर निहारा जाता है पर किसी से यह पूछा जाए कि इसके होने वाले दस नुकसान बतायें तो षायद वाजिब उत्तर नहीं मिलेगा। यहां कहना तर्कसंगत होगा कि जिस प्रकार ‘वैलेंटाइन डे‘ को बिना किसी खास प्रयास के अंगीकृत कर लिया गया है ठीक उसी प्रकार बिना किसी मजबूत तर्क के इसे लेकर विरोध भी होते रहे हैं। गौरतलब है कि आपाधापी की इस दुनिया में उन भावनाओं का मोल कहां है जो आज अवमूल्यन के षिकार हो गये। कम से कम इस मामले में ‘वैलेंटाइन डे‘ को तो जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि कुछ हद तक इसने व्याप्त खाई को पाटने का काम ही किया है।  सोच तो इसकी भी होनी चाहिए कि पष्चिम की बहुत सारी संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति का पहले भी घालमेल हुआ है उसी क्रम में ‘वैलेंटाइन डे‘ को भी देखा जा सकता है।
वर्श 1828 में ब्रह्यमसमाज के संस्थापक राजाराम मोहन राय ने भी उस दौर में कहा था कि पष्चिमी संस्कृति को निर्बाद्ध रूप से प्रवेष करने दो, जो एहसासयुक्त हो उसे स्वीकार करो बाकियों के लिए खिड़की खोल दो और बाहर जाने का रास्ता दे दो। जाहिर है कि हमारी संस्कृति परिमार्जन और चुनौतियों के साथ और अधिक पुख्ता हुई है। यह महज संयोग नहीं है कि वर्तमान भारतीय परिवेष में पष्चिम का अंधानुकरण हुआ है बल्कि विष्व बाजार की प्रतिस्पर्धा, आर्थिक उदारीकरण और वैष्वीकरण के चलते ऐसा करना अनिवार्य था। इन्हीं सबके बीच ‘वैलेंटाइन डे‘ का प्रचलन भी मुखर हो गया। भारत में इसको लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिलती रही है। इसे इष्क का त्यौहार कहना और इसके प्रति इस धारणा का विकसित होना कि यह युवाओं के रास्ते से भटकने का महज एक दिन है। ऐसे विचारों के चलते ही ‘वैलेंटाइन डे‘ संदिग्ध दृश्टि से भी देखा गया है। यह बात भी सही है कि हमारा समाज कम खुला है ऐसे में इन दिनों की घुसपैठ से एक अनजाना डर बना रहता है। सोषल मीडिया से लेकर ईमेल तक और टेलीविजन से लेकर आधुनिक बाजारों तक कुछ न कुछ ‘वैलेंटाइन डे‘ के नाम पर बेचने का चलन भी देखा जा सकता है। स्मार्ट फोन के चलन ने ऐसे दिवसों की महत्ता को और बढ़ा दिया है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अगर दिन विषेश को किसी प्रसंग से जोड़ दिया जाए तो उसके प्रति संवेदना अलग रूप ले लेती है ऐसा ही कुछ ‘वैलेंटाइन डे‘ के साथ है। इस दिन हर 14 फरवरी को यह मान लिया जाता है कि यह ‘इष्क‘ का दिन है जबकि यह पूरा सच नहीं है। यह एक संवेदनषील और सभ्य सलीखे से स्वयं को पेष करने का भी दिन है। इसमें कठिनाई यह है कि जब इसे एक लड़का-लड़की के प्रेम के परिप्रेक्ष्य में आंका जाता है तो यह दिवस कमजोर होने लगता है। भारत में ‘महिला दिवस‘, ‘बाल दिवस‘, ‘षिक्षक दिवस‘, जैसे कई ऐसी तिथियां हैं जिसके प्रति अलग से स्नेह उमड़ता है पर जो लोकप्रियता ‘वैलेंटाइन डे‘ ने हासिल की है वैसी मनोवैज्ञानिक चाहत उनके प्रति उमड़ता हुआ नहीं दिखाई देता। ‘वैलेंटाइन डे‘ की एक समस्या यह भी है कि यह विलायती प्रेम से जकड़ा दिवस माना जाता है और भारत में यह अवधारणा रही है कि पष्चिम आयातित संस्कृति का तात्पर्य अपकृत्य से भी भरी संस्कृति का होना जबकि सच्चाई इससे अलग है। देखा जाए तो विदेषों में भी प्रेम की षुद्धता का काफी ख्याल रखा गया है। पष्चिमी समाजषास्त्र एवं दर्षनषास्त्र के अध्येयता इस बात को भली-भांति जानते और समझते हैं। भारत की प्राचीन परम्पराओं में कामदेव से लेकर खजुराहों की मूर्तियों में भित्ति चित्र के रूप में उकेरी गयीं भावनायें प्रेम की उन्हीं परिषुद्धता का एक बेहतर प्रमाण हैं जिसके नाम पर हमें इतराने का कई बार अवसर मिला है।



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