Thursday, February 25, 2016

बजट सत्र का आगाज़ पर हाल वही

बीते 23 फरवरी को बजट सत्र के चलते एक बार फिर संसद भवन में जन प्रतिनिधियों का जमावड़ा लगा जहां सत्र के तीसरे दिन 25 फरवरी को रेल बजट पेष किया गया वहीं 29 फरवरी को आम बजट पेष होना है और यह उम्मीद है कि इस सत्र में उन तमाम कमियों को पूरा किया जायेगा जो पहले के मानसून और षीत सत्र में अधूरे रह गये हैं मगर अभिभाशण के दूसरे दिन ही संसद फिर पुराने रंग में दिखी। लोकसभा में थोड़े व्यवधान के बीच जिस प्रकार बहस हुई उससे कुछ उम्मीद जगती है पर राज्यसभा में इसका कोई चिह्न परिलक्षित नहीं हुआ। यदि आगे के दिनों में इसी प्रकार के लक्षण प्रतिबिम्बित होते हैं तो इस बात पर भी मोहर लग जायेगी कि विरोधी को सियासत से गहरा नाता है न कि देषहित से। कई इस वक्तव्य के उलट भी सोच सकते हैं कि विरोध ही असली देषहित है। मुट्ठी भर अलग-अलग दलों के विरोधी इस बात का जिम्मा कैसे ले सकते हैं कि वही देष के असल तारनहार हैं जबकि पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार तो यहां टाइम पास करने आई है। यह तल्ख टिप्पणी इसलिए कि पिछले बजट सत्र से लेकर मानसून सत्र और  अन्ततः षीतसत्र भी विरोध की भेंट चढ़ते रहे। धुर दक्षिण से लेकर उत्तर तथा पूरब-पष्चिम तक की जनता देष की महापंचायत से सत्र के दौरान कुछ बेहतर की प्रतीक्षा में नजर गड़ाये रहती है। एक कहावत है कि यथास्थिति में फंसे रहने के बजाय परिवर्तन उन्मुख होना कहीं अधिक बेहतर होता है। प्रत्येक सत्र की भांति समसामायिक मुद्दों को लेकर सियासत गरम रहने के बजाय कुछ संसद की दीर्घा में नीतिगत काज हो जायें तो देष की सवा अरब जनसंख्या को कुछ राहत परोसा जा सके।
भारत की सियासत बीते 20 महीनों में नीतिगत न होकर दबाव समूह की भांति हो गयी है। दबाव समूह का अपना एक सामान्य हित होता है और उसी के आधार पर औरों को भी संगठित करता है। हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक के मामले में विरोधी सियासतदानों को इसी आधार पर एकजुट होते हुए देखा जा सकता है। मजे की बात यह है कि वामदल, कांग्रेस और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सहित बसपा या अन्य दलों का गठन अलग-अलग विचारधारा पर आधारित है मगर सरकार को घेरने के लिए सभी का एक राय होना अचरज में डालने वाला है जिसमें सर्वाधिक हैरत कांग्रेस की वजह से दिखाई देती है। देखें तो बाकी दल मसलन वामदल विरोध की ही पैदाइष है इसलिए उसका विरोध लाज़मी है। अन्य छोटी पार्टियां छोटे क्षेत्रों तक सीमित हैं पर कांग्रेस तो राश्ट्रीय और पूरे भारत के क्षेत्रफल पर फैली हुई है। आष्चर्य होता है कि 65 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में जो पार्टी 50 साल से अधिक सत्ता पर काबिज रही हो उसके अन्दर रचनात्मक विरोध का धर्म क्यों नहीं विकसित हो पा रहा है, बात समझ से परे है। जेएनयू प्रांगण में देष के खिलाफ नारे लगे उस पर सियासत गरमाने में कांग्रेस अधिक दोशी रही है और अभी भी इससे बाज नहीं आ रही है।
कहावत तो यह भी है कि सियासत अपनी जगह और देषहित अपनी जगह पर सियासतदान अपनी सियासत के चलते देषहित को मलीन करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह तय है कि जबतक संसद से नीतियां निर्मित होकर निश्पादन हेतु जनता के बीच नहीं आयेंगी तब तक विकास को लेकर गति नहीं दिया जा सकेगा। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयकों में जीएसटी और भू-अधिग्रहण सहित कई को इस बजट सत्र से काफी आस है कि इन्हें कानूनी रूप मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी तीन दर्जन के आस-पास विधेयक हैं जो संसद की चैखट पर एड़ी रगड़ रहे हैं। विडम्बना यह भी है कि संसद के उच्च और निम्न दोनों सदनों में परेषानी कमोबेष उतनी ही है। बुधवार को मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जेएनयू और वेमुला आत्महत्या को लेकर बहुत तीखे तेवर के साथ जवाब दिये। दूसरे षब्दों में कहें तो राज्यसभा में कल का दिन स्मृति ईरानी का ही था पर सवाल इस बात का है कि जिन विरोधियों को लेकर यह सब कुछ हो रहा था उन पर कितना असर पड़ा? क्या इससे विरोध के सुर नरम पड़ेंगे? रोहित वेमुला के आत्महत्या के मामले की जांच करने वाली न्यायिक समिति में दलित सदस्य की मांग को लेकर मायावती ने सवाल उठाये थे। षायद स्मृति ईरानी से नोंक-झोंक के बीच सवाल का जवाब भी उन्हें मिला होगा।
फिलहाल सदन किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं है बल्कि इसलिए है कि सभी आवष्यक मसलों पर व्यापक और सार्थक चर्चा हो सके। दुर्भाग्य से पिछले बजट सत्र के बाद से संसद में रस्म अदायगी का काम ज्यादा हुआ है। मानसून और षीतकालीन सत्र दोनों निराषा से भरे हैं। एक मुसीबत यह भी है कि कांग्रेस की विरोध की नीति पर बाकी दल उसका समर्थन करना ही बेहतर समझते हैं। यदि इस तौर-तरीके पर कोई कड़ा कदम नहीं उठाया गया तो संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने से भी नहीं रोका जा सकेगा। इसका कोई मतलब नहीं है कि देष की जनता आने वाले सत्र पर टकटकी लगाये हो और राजनीतिक दल समस्याओं पर चर्चा करने के बजाय सदन में तमाषा खड़ा करें। सदन में जटिल मसलों को हल करने के बजाय हंगामा करना या नारे लगाना देष की जनता को अंधेरे में रखने के बराबर है। संसद और सड़क की राजनीति के अन्तर को भी समझना होगा। इस बात को भी समझना होगा कि जो सियासतदान संसद में दषकों से बने होने का दावा करते हैं उन्हें बड़ी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। जिस सियासत से संसद को जूझना पड़ता है उससे तो यही लगता है कि संसद वर्श में तीन बार सत्र के दौरान बंधक बनाई जाती है और देष की जनता को वह सब देखना और सुनना पड़ता है जिसके लिए उन्होंने मतदान ही नहीं किया है। अन्त में यह कहना हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि आने वाले दिनों में सत्र में वह सब होगा जिसकी अपेक्षा देष करता है।


सुशील कुमार सिंह



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