Tuesday, February 23, 2016

क्या हो आरक्षण का आधार

देश जब-जब आरक्षण की आग में झुलसा है तब-तब सियासत की परीक्षा के साथ देश की सम्पत्ति भी स्वाहा हुई है। 1990 के दशक में ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को लेकर जब मण्डल आयोग की सिफारिशों को वी.पी. सिंह सरकार ने लागू करने का इरादा जताया तब पूरे देश में हिंसा और तबाही का जो आलम था वैसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। काॅलेज से लेकर विश्वविद्यालय तथा संसद से लेकर सड़क तक इसका जोर सिर चढ़ कर बोल रहा था। करोड़ों की सम्पत्ति जहां खाक हो रही थी वहीं कईयों की जान भी इसमें गयी है साथ ही देश आरक्षण और गैर आरक्षण के बीच बंट गया था। व्यापक पैमाने पर ट्रेन, बस समेत करोड़ों की सरकारी सम्पत्ति की होली जलाई गई। छात्र आत्मदाह करने से भी बाज नहीं आये। इस मामले में दिल्ली विष्वविद्यालय के राजीव गोस्वामी का नाम पहले स्थान पर आता है। आखिरकार वर्श 1993 में पी.वी. नरसिंहराव सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिषों को विधिवत लागू कर दिया। लगभग ढ़ाई दषक होने के बाद भी आरक्षण के जिन्न से भारत को अभी भी छुटकारा नहीं मिला है। भले ही सरकार ने इन दिनों चल रहे जाट आरक्षण को लेकर पक्ष में हामी भर ली हो पर असलियत यह है कि अभी भी हरियाणा उबल रहा है। जाट आंदोलन का देष के उत्तरी राज्यों पर अलग-अलग हिस्सों में पड़े असर को जोड़ दिया जाए तो नुकसान की मात्रा 34 हजार करोड़ हो जाती है जिसका खुलासा औद्योगिक संगठन पीएचडी चैम्बर आॅफ काॅमर्स एवं इण्डेस्ट्री ने किया। पिछले एक हफ्ते में जाट आंदोलन के चलते पर्यटन सेवा, यातायात सेवा मुख्यतः सड़क और रेल परिवहन व वित्तीय सेवा को 18 हजार करोड़ रूपए का नुकसान सहना पड़ा। इसके अलावा कृशि कारोबार के साथ मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली निर्माण कार्य सहित खाद्य पदार्थों के कारोबार में होने वाला नुकसान 12 हजार करोड़ का है। यह भी अनुमान है कि सड़क, रेस्टोरेन्ट, रेलवे स्टैण्ड व अन्य के तोड़-फोड़ के चलते 4 हजार करोड़ का नुकसान किया गया। नुकसान का यह पूरा आंकलन हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, चंडीगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष तथा जम्मू कष्मीर समेत उत्तरी राज्यों से सम्बन्धित है। उक्त राज्य देष के जीडीपी में 32 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं। जाट आंदोलन ने हरियाणा में स्थापित कई मैन्यूफैक्चरिंग कम्पनियों को आर्थिक नुकसान की ओर धकेल दिया है। हरियाणा के मानेसर व गुडगांव प्लान्ट से रोजाना मारूति सुजुकी पांच हजार गाड़ियों का उत्पादन करती है। रविवार को छोड़ दिया जाए तो बाकी दिन इसी दर से यहां भी नुकसान जारी हैं।
इस आंदोलन के चलते जो आर्थिक नुकसान हुआ है उससे कई कारोबारियों को समस्याएं भी पैदा होंगी जिसे देखते हुए भारतीय उद्योग व्यापार मण्डल ने नुकसान की भरपाई हेतु विषेश पैकेज की मांग रखी है। इसके अलावा जान-माल की सुरक्षा की मांग भी की गई है। आर्थिक नुकसान की तीव्रता को देखते हुए मांग की जा रही है कि सरकार को सम्पत्ति नुकसान रोकथाम कानून, 1984 में बिना देरी किये संषोधन करना चाहिए। पूर्व अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने माना कि ऐसा करने से आंदोलन करने वाले नेताओं को सजा मिल सकेगी। फिलहाल ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की पहल भी देखी जा सकती है। तोड़-फोड़ पर हाई कोर्ट स्वतः सज्ञान लेकर जांच करें और मुआवजा भी तय करें यदि मामला एक से अधिक राज्यों का हुआ तो इसका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट स्वयं लेगा। इसके अलावा उच्चतम या उच्च न्यायालय के सेवारत् या सेवानिवृत्त न्यायाधीष ‘क्लेम कमिष्नर‘ नियुक्त होंगे जो नुकसान का आंकलन करेंगे। जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय होगी साथ ही नुकसान की भरपाई नुकसान पहुंचाने वालों से की जायेगी जो नुकसान से दुगुनी नहीं होगी साथ ही आपराधिक कार्रवाई चलती रहेगी। हालांकि 2009 में आंदोलनकारियों और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़े दिषा-निर्देष दिये थे। राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों की उदासीनता को देखते हुए इनसे निपटने के लिए हाई कोर्ट को भी कई षक्तियां दी थी। ये दिषा-निर्देष पांच राज्यों में गुर्जरों के हिंसक आंदोलन के चलते हुए सरकारी सम्पत्ति के नुकसान पर दिये गये थे।
पिछले एक वर्श के दौरान आरक्षण की मांग के चलते हुए तीन आंदोलन में करोड़ों की सम्पत्ति नश्ट हुई है। हरियाणा के जाट आंदोलन में तो यह नुकसान सर्वाधिक है। समझने की बात है कि यदि यही पैसा विकास में लगाया जाता तो प्रधानमंत्री मोदी की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं फलक पर होती। आरक्षण के लिए राजस्थान के गुर्जरों, गुजरात के पटेलों और अब हरियाणा के जाटों को देखें तो नुकसान होने वाली राषि खासी बड़ी हो जाती है। समझना तो यह भी है कि सम्पत्तियों का जो नुकसान हो रहा है वह देष के कर दाताओं से बनाई गयी है। एक ओर जहां देष में विकास के लिए जद्दोजहद चल रही है वहीं विनाष का खेल भी बादस्तूर जारी है। केन्द्र सरकार ने बीते दिनों स्टार्टअप इण्डिया कार्यक्रम के लिए चालू वित्तीय वर्श में 2000 करोड़ रूपए की राषि रखी जबकि राश्ट्रीय कौषल विकास का बजट 1500 करोड़ रूपए का है और डिजिटल इण्डिया के लिए राषि 2510 करोड़ है। विचार बिन्दु यह है कि क्या इन छोटी राषि की परियोजनाओं को इन बड़े नुकसानों के न होने से बड़ा बल नहीं मिलता? एक ओर जहां ‘मेक इन इण्डिया‘ के माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी विष्व भर के निवेषकों का भारत की ओर ध्यान आकर्शित कराने में लगे हैं तो वहीं दूसरी ओर देष में ही सरकारी सम्पत्तियों को बेरहमी से नश्ट किया जा रहा है और इसमें भी सर्वाधिक हरियाणा के जाट आंदोलनों से हुआ है उसके बाद क्रमषः गुजरात के पटेल आंदोलन और फिर राजस्थान के गुर्जर आंदोलन का स्थान आता है। देखा जाए तो सामाजिक और षैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्गों के आरक्षण का प्रावधान संविधान में निहित है पर आर्थिक नुकसान को जिस पैमाने पर किया जा रहा है वह संवैधानिक मर्यादाओं को भी तार-तार करने वाला है।
किसी भी समाज या राश्ट्र के लिए यह अनिवार्य है कि उसके सबसे पिछड़े और वंचित वर्ग का उत्थान किया जाए तभी वह राश्ट्र लोकतंत्र का आदर्ष प्रस्तुत कर सकता है और अपना विकास भी। पर उत्थान की मांग में उसी राश्ट्र की सम्पत्ति को स्वाहा किया जाए तब इसे क्या कहेंगे? भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोक कल्याणकारी संविधान की रचना की साथ ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर भी बल दिया बावजूद इसके लगभग सात दषकों से देष में नीति विज्ञान और उसके निश्पादन से जो संतुलन बनना चाहिए उसका षायद आभाव रहा। जिसके चलते जन मानस का मुख्यधारा से पिछड़ने और वंचित होने की परिघटना देष में व्याप्त होती रही। अब वही उत्थान की फिराक में आंदोलन को हथियार बनाने से नहीं चूक रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि आरक्षण की मांगों को लेकर संयम का निहायत आभाव रहा है। रेल रोकने, रेल-बस आदि फूंकने, सड़कों पर धरना देने से लेकर तोड़फोड़ करने सहित कई हिंसात्मक कृत्य में आरक्षण की मांग करने वाले लिप्त देखे गये हैं और ऐसे मामलों में सरकारें भी परिस्थितियों की सही विवेचना करने में विफल रही हैं साथ ही आर्थिक नुकसान की व्यापक तबाही के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंची हैं। हरियाणा मामले में लिया गया निर्णय इसका पुख्ता सबूत है। सबके बावजूद यह भी समझना होगा कि आरक्षण कूबत का जरिया नहीं है वरन् सामाजिक-षैक्षणिक पिछड़ेपन की भरपाई है जिसे पाने के लिए देष की सम्पत्ति को तबाह करना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। वास्तव में बल अथवा ताकत की मदद से आरक्षण की मां मनवाने वाले लोगों के खिलाफ सरकार को कानून का सहारा लेना चाहिए और उन्हें यह समझाने की कोषिष भी करनी चाहिए यह अपनी मांग मनवाने का सही तरीका नहीं है। इस तरह के प्रयासों से समाज के अन्य वर्गों में भी गलत धारणा जन्म लेगी और वह भी कुछ इसी तरह का रास्ता अपनाने की कोषिष कर सकते हैं, जिससे समाज में भी संघर्श बढ़ेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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